गुरुवार, 9 जुलाई 2015

‘मनमीत जो घाव लगाए उसे कौन मिटाए’

‘अमर प्रेम’ फिल्म के लिये लिखे गये एक गीत में आनंद बख्शी साहब ने कहा है कि ‘चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाए, सावन जो आग लगाए उसे कौन बुझाए, कोई दुश्मन ठेस लगाए तो मीत जिया बहलाए, मनमीत जो घाव लगाए उसे कौन मिटाए, मंझधार में नैया डोले तो मांझी पार लगाए, मांझी जो नाव डुबोए उसे कौन बचाए।’ कायदे से देखा जाये तो इस गीत की ये पंक्तियां वाकई भाजपा की अंदरूनी सांगठनिक राजनीति के मौजूदा हालातों को बयान करती हुई ही नजर आती है। यूं तो सतही तौर पर पार्टी में शीर्ष स्तर पर जारी शह-मात के खेल की अंदरूनी हकीकतें अभी खुलकर सामने नहीं आ रही हैं लेकिन गहराई में पड़ताल की जाये तो संगठन में सतही तौर पर शांति व सामंजस्य का जो माहौल दिख रहा है वह महज नजरों का धोखा ही है। वास्तविक हकीकत यही है कि जिन लोगों पर आपसी सहमति व सामंजस्य से पार्टी के संचालन की जिम्मेवारी है उनके बीच कतई सौहार्द्र का माहौल नहीं है। संगठन व सरकार के शीर्ष संचालकों बीच खेमेबाजी की खबरें तो काफी पहले से सामने आ रही थीं लेकिन अब तो जिन लोगों पर संगठन व सरकार की समस्याओं का निवारण करने की जिम्मेवारी है वे ही सिरदर्दी का सूत्रपात करते दिखाई पड़ रहे हैं। मिसाल के तौर पर मध्यप्रदेश के व्यापम घोटाले की ही बात करें तो विपक्ष के चैतरफा हमलों के बीच सहज व स्वाभाविक अपेक्षा तो यही थी कि संगठन का समूचा शीर्ष संचालक खेमा इस मसले पर एक सुर में बात करेगा और आपसी सहमति व सामंजस्य से ही कोई कार्रवाई या पहलकदमी करने का फैसला करेगा। लेकिन इस मामले को लेकर जिस तरह से पार्टी मेें ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना’ की स्थिति दिखाई दे रही है उससे संगठन के शीर्ष संचालकों के बीच जारी खेमेबाजी की अंदरूनी हकीकत खुलकर सामने आ गयी है। हकीकत तो यही है कि व्यापम घोटाले की जड़ खोदने की शुरूआत सूबे के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने ही की थी और उनके द्वारा शुरू कराई गयी जांच के बाद ही अदालत ने भी इसका संज्ञान लिया और उच्च न्यायालय की निगरानी में एसटीएफ द्वारा की जा रही जांच की निष्पक्षता पर आज अदालत ने भी अपनी मुहर लगा दी है। लेकिन विपक्ष द्वारा सीबीआई से जांच कराए जाने की मांग को लेकर मचाये जा रहे हंगामे के बीच जब एक ओर अरूण जेटली नये सिरे से पूरे मामले की निष्पक्ष जांच की वकालत कर रहे हों और दूसरी ओर राजनाथ सिंह मौजूदा जांच प्रक्रिया को पूरी तरह संतोषजनक बताते हुए सीबीआई जांच की मांग को खारिज कर रहे हों तो ऐसे में यह तो स्पष्ट हो जाता है कि नीतिगत मसलों पर संगठन में शीर्ष स्तर पर पूरी तरह एकमतता होने का दावा वास्तव में महज दिखावा ही है। दरअसल मसला जांच की निष्पक्षता का नहीं है बल्कि सवाल तो यह है कि सीबीआई की कमान किसके हाथों में है और वह जस्रत के मुताबिक उसका किस हद तक कैसा इस्तेमाल कर सकता है। जाहिर है कि सीबीआई की कमान तो केन्द्र के ही हाथों में है और इतिहास गवाह है कि अधिकांश मामलों में सीबीआई के जांच की दशा-दिशा केन्द्र सरकार की सहमति से ही निर्धारित होती रही है। खास तौर से इस पूरे मामले की पृष्ठभूमि के तार को जब इस बात से जोड़ा जाता है कि लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाये जाने की मांग से असहज दिख रहे लालकृष्ण आडवाणी ने मोदी के मुकाबले शिवराज का नाम आगे बढ़ाने की पहल की थी और इन दिनों सियासत में बढ़ती असहिष्णुता, व्यक्तिवाद व तानाशाही प्रवृत्ति पर चिंता जताने से आडवाणी कतई परहेज नहीं बरत रहे हैं तो इस मामले के पेंच पर एक अलग ही रंग का साया दिखाई पड़ना लाजिमी ही है। इसमें दिलचस्प बात यह है कि अपनी ही पार्टी की सरकार के बारे में उमा भारती द्वारा ऐसी टिप्पणियां की जाती हैं जिसका ना तो औपचारिक तौर पर समर्थन करना पार्टी में कोई गवारा नहीं कर पाता है और ना ही कोई उनका विरोध करने की पहल करता है बल्कि शिवराज भी कसमसाते हुए यही बताते हैं कि उनकी उमा बहन ऐसी ही है कि उनके मन में जो भी बात आती है वह खुलकर बोल देती हैं तो इससे इतना तो समझा ही जा सकता है कि उमा की इस सधी हुई बयानबाजी के पीछे भी कुछ तो तिकड़म अवश्य ही छिपा हुआ है। इसके अलावा लगातार सीबीआई जांच की मांग को खारिज करते आ रहे शिवराज तब इसके लिये अदालत को अनुरोध करते हैं जब उनके धुर विरोधी माने जानेवाले पार्टी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय की दिल्ली में संगठन के मुखिया अमित शाह के साथ एकांत में लंबी बातचीत होती है तो इस पूरे घटनाक्रम पर दिल्ली से पड़ रहे दबाव का अंदाजा लगाना शायद ही किसी के लिये मुश्किल हो। हालांकि शिवराज ने सीबीआई जांच की मांग का मसला उच्च न्यायालय के विवेक पर छोड़ दिया और अब उच्च न्यायालय ने गेंद सर्वोच्च न्यायालय के पाले में डाल दी है लिहाजा अदालत का जो भी निर्देश होगा उसे सियासी चश्मे से देखने की छूट तो किसी को नहीं मिल पाएगी। लेकिन इस पूरे प्रकरण में घटित घटनाक्रम ने संगठन में शीर्ष स्तर पर जारी सिरफुटव्वल की कलई अवश्य खोल दी है जिसकी अनदेखी का परिणाम आत्मघाती ही साबित होगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें