बुधवार, 27 दिसंबर 2017

‘भावी चुनौतियों का तोड़ निकालने पर जोर’

‘भावी चुनौतियों का तोड़ निकालने पर जोर’


गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे सामने आ जाने और कर्नाटक के अलावा तीन पूर्वोत्तरी राज्यों के विधानसभा चुनाव का औपचारिक शंखनाद होने के बीच अगले महीने होने जा रही भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में चिंतन-मंथन का केन्द्र नवनियुक्त कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ही रहनेवाले हैं। बेशक भाजपा ने बीते दिनों हुए चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ अपनी सरकार बनाने में कामयाबी हासिल कर ली हो लेकिन गुजरात की सरकार बचाने के लिए भाजपा को जिस कदर नाको चने चबाने पड़े उसके मद्देनजर आगामी चुनावों में कांग्रेस की ओर से मिलनेवाली कड़ी टक्कर से निपटने की राह तलाशना ही इस बार की कार्यकारिणी बैठक का मुख्य एजेंडा रहनेवाला है। खास तौर से नवनियुक्त अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के बदले हुए तेवर और कलेवर ने भाजपा की चिंताएं स्वाभाविक तौर पर बढ़ा दी हैं। यहां तक की गुजरात में भाजपा को दहाई के आंकड़े में सिमटने के लिए मजबूर करके राहुल ने अपनी बढ़ती लोकप्रियता व जनस्वीकार्यता भी साबित कर दी है। ऐसे में भाजपा कतई राहुल को अब हल्के में नहीं ले सकती और अगर आगामी चुनावों में उसे अपनी जीत का सिलसिला बरकरार रखना है तो इसके लिए उसे राहुल की ओर से मिल रही चुनौतियों का समय रहते कोई ठोस तोड़ निकालना ही होगा। वैसे भी पार्टी के तमाम शुभचिंतकों को बखूबी पता है कि जिस तरह से भाजपा के जनाधार में सेंध लगने की शुरूआत हो गई है उसे समय रहते नहीं रोका गया तो लोकसभा चुनाव में पिछला प्रदर्शन दोहरा पाना निहायत ही नामुमकिन हो जाएगा। गुजरात चुनाव के नतीजों ने भाजपा को किस कदर मायूस किया है इसका सहज अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि चुनावी नतीजा सामने आने के फौरन बाद मीडिया के माध्यम से देश को संदेश देने के क्रम में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने एक बार भी यह जिक्र नहीं किया कि पिछली बार के मुकाबले इस बार उन्हें काफी कम सीटें क्यों मिली हैं। वे बार-बार वोटों में एक फीसद की बढ़ोत्तरी की दुहाई देते रहे और इसे ही बड़ी उपलब्धि बताते रहे। लेकिन अगर उनकी बात को सही माना जाए तो इस लिहाज से भी भाजपा की हार ही हुई है क्योंकि कांग्रेस के वोट में तो इस बार साढ़े चार फीसदी की वृद्धि हुई है। सच तो यह है कि बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा को जितने वोट मिले थे उसे अगर विधानसभा वार देखा जाए तो पार्टी के खाते में 160 से अधिक सीटें आनी चाहिए थीं और इसी वजह से भाजपा ने भी 150 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य सामने रखकर चुनाव लड़ा था। लेकिन गुजरात में निर्णायक साबित हुआ नोटा का वह बटन जिसने कांग्रेस की दस सीटें कम करा दीं और रही सही कसर बसपा व राकांपा सरीखी तीसरी ताकतों ने पूरी कर दी जिन्होंने तकरीबन एक दर्जन से अधिक सीटों पर गैर-भाजपाई वोटों में सेंध लगाकर कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। इस तरह भाजपा की जीत की पटकथा तैयार हुई और दहाई के अंकों में सिमट कर पार्टी किसी तरह अपनी सरकार बचाने में कामयाब हो गयी। लेकिन जिन परिस्थितियों में अपनी लाज बचाते हुए गुजरात की सत्ता पर अपनी पकड़ बरकरार रखने में भाजपा कामयाब हुई है उसके बाद स्वाभविक तौर पर भावी रीति-नीति पर चर्चा करके निष्कंटक राह तलाशने की जद्दोजहद होनी ही है। वैसे भी अमित शाह यह स्वीकार कर चुके हैं कि गुजरात के नतीजों पर स्थानीय नेतृत्व के साथ चिंतन अवश्य किया जाएगा लेकिन वे कहें या ना कहें सच यही है कि जब गुजरात के सबसे सुरक्षित माने जानेवाले गढ़ में भाजपा को लाज का संकट उत्पन्न हो सकता है तो यह निश्चित तौर पर खतरे संकेत है और इसका राष्ट्रव्यापी असर दिखने की संभावना से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है। दूसरी तरफ कांग्रेस के नए निजाम की आक्रामकता और तेवरों ने विपक्ष का पूरा कलेवर ही बदल कर रख दिया है। गैर-भाजपाई ताकतों के बीच कांग्रेस के नेतृत्व की स्वीकार्यता को अब कहीं से भी चुनौती मिलने की उम्मीद नहीं बची है। बिखरे हुए विपक्ष का फायदा उठाते हुए भाजपा ने जो राज कायम किया है उसकी इस हकीकत को नकारा नहीं जा सकता है कि लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को तकरीबन 32 फीसदी वोट ही मिले थे जबकि उसके खिलाफ 68 फीसदी वोट पड़े थे। लेकिन विरोधी वोटों के बंटवारे ने लोकसभा में भी भाजपा को जीत दिलाई और आज की तारीख में 19 राज्यों में उसकी प्रत्यक्ष या परोक्ष सरकार बनवा दी है। ऐसे में विपक्ष के समक्ष सिर्फ वोटों का बिखराव रोकने की चुनौती है जबकि भाजपा को अब अपने दम पर जनसमर्थन जुटा कर सत्ता पर अपनी पकड़ बरकरार रखनी है। जाहिर तौर पर असली चुनौती का वक्त अब बेहद करीब आता जा रहा है क्योंकि इस बार मौजूदा सरकार का सही मायनों में आखिरी बजट ही पेश होना है। अगले साल इसे अंतरिम बजट के तौर पर महज औपचारिकता निभाने का ही मौका मिल पाएगा। ऐसे में अब अगले एक साल की कमाई ही वह पूंजी होगी जिसके दम पर सियासी बाजार में चुनावी बहार लूटने या गांठ की दौलत लुटाने की नौबत आएगी। लिहाजा ऐसे मौके पर होनेवाले भाजपाइयों के जुटान को पिछली मेहनत की थकान से उबार कर समय रहते जमीनी स्तर पर सक्रिय करने में हासिल होनेवाली कामयाबी ही पार्टी की भावी दशा-दिशा तय करेगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 
@नवकांत ठाकुर  #Navkant_Thakur

गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

‘एक हाथ से बजे न ताली’

‘एक हाथ से बजे न ताली’

गुजरात विधानसभा के चुनाव प्रचार पर विराम लगने के बाद अब थोड़ी शांति और आराम का समय उन सभी दलों के शीर्ष नेताओं को मिल गया है जो लंबी, थकाऊ और काफी हद तक उबाऊ चुनाव प्रचार में जी-जान से जुटे हुए थे। वाकई इस दौरान उन्हें सांस लेने की फुर्सत भी बमुश्किल ही मिल पा रही थी। आखिर मामला ही ऐसा था जिसमें एक तरफ कांग्रेस का भविष्य दांव पर था और दूसरी तरफ मोदी लहर का भविष्य। लिहाजा कांटे की टक्कर तो होनी ही थी। हालांकि चुनाव परिणाम का पलड़ा किस ओर झुकेगा इसके बारे में सबकी अपनी उम्मीदें हैं, अपने समीकरण हैं और अपने कयास हैं। स्वाभाविक तौर पर चुनावी नतीजों का बेसब्री से इंतजार भी सबको है। लेकिन चुनाव परिणाम के लिए हो रहे इंतजार के बीच एक बात तो माननी ही पड़ेगी कि टक्कर जोरदार हुई। जमकर प्रचार हुआ और दोनों ही पक्ष ने जमीन पर अपना जलवा बिखेरने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस हो या भाजपा। दोनों ही दलों का पूरा शीर्ष नेतृत्व जमीन पर जमा हुआ नजर आया। पिछले 22 सालों से लगातार सूबे की सत्ता पर काबिज भाजपा को कांग्रेस ने किस कदर टक्कर दी है इसका सहज अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले चुनावों तक दिल्ली से प्रचारकों का आयात करने में संकोच करने वाली गुजरात भाजपा इकाई ने इस बार संगठन से लेकर सरकार तक के तमाम चेहरों को सूबे की सियासत में झोंक दिया। कोई नाम ऐसा नहीं बचा जिसने गुजरात जाकर पसीना ना बहाया हो। जाहिर तौर पर ऐसी जोरदार टक्कर में लोगों की दिलचस्पी होनी ही थी। लेकिन दुर्भाग्य से इस पूरी सियासी रस्साकशी ने ना सिर्फ गुजरात के मतदाताओं को बल्कि देश के आम लोगों को भी बुरी तरह निराश किया। यह चुनाव सही मायने में आम लोगों से जुड़ ही नहीं पाया। आम लोगों की समस्याएं सतह पर आ ही नहीं पाई। पूरा चुनाव प्रचार ऐसे आभासी और बेमानी मसलों पर केन्द्रित हो गया जिससे आम लोगों का कोई लेना देना ही नहीं है। कायदे से तो इतनी जोरदार सियासी रस्साकशी में जन सरोकार के मसलों पर ही जोरदार बहस होनी चाहिए थी। सत्तारूढ़ पक्ष को अपने अब तक के काम-काज का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना चाहिए था और विपक्ष को मौजूदा व्यवस्था व शासन-प्रशासन की कमियां-खामियां उजागर करते हुए अपनी ठोस भावी योजनाएं प्रस्तुत करनी चाहिए थी। लेकिन हुआ इसके उलट। ना सत्ताधारियों को अपने काम-काज का हिसाब पेश करने के लिए मजबूर किया जा सका और ना ही आम जन सरोकार के मुद्दे चुनाव में हावी हो सके। बल्कि अश्लील सीडी से शुरू हुई चुनावी गरमाहट मंदिर यात्रा के माध्यम से आगे बढ़ी और अंतिम समय में आकर अटकी गाली-गलौज व आभासी राष्ट्रवाद पर। दोनों पक्षों ने नकारात्मक चुनाव प्रचार की इंतहा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। किसी ने भी अपने उस पहलू को उजागर करके चुनाव प्रचार करने की कोशिश ही नहीं की जिससे प्रभावित होकर मतदाता उसकी ओर खिंचे चले आएं। बल्कि दोनों में इस बात की शर्त लगी दिखी कि कौन एक-दूसरे पर कितना अधिक कीचड़ उछाल सकता है। बात कभी निजी संबंधों को लेकर हुई तो कभी पहनावे को लेकर। पसंद-नापसंद पर भी कटाक्ष किए गए और मर्दानगी व नपुंसकता को भी जांच-परख का आधार बनाया गया। मेल-मुलाकातों को लेकर एक दूसरे पर निशाना साधा गया और अवकाश व पर्यटन की भी बात हो गयी। यहां तक कि कौन क्या खाकर काले से गोरा हो गया इस पर भी जोरदार चर्चा हुई। लेकिन किसी ने यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि आम आदमी किस हाल में है। महंगाई ने किस कदर उसका जीना मुहाल किया हुआ है। विकास से रोजगार को जोड़ने में कामयाबी क्यों नहीं मिल पा रही। किसानों की बदहाली क्यों दूर नहीं हो रही। क्यों प्रधानमंत्री के गृह जिले में भी विकास का पूरा विस्तार नहीं हो पाया है। ऐसा कोई भी मुद्दा सिरे से उठ ही नहीं पाया जिससे आम आदमी सीधे तौर पर जुड़ सके। अलबत्ता राहुल गांधी ने सोशल मीडिया के माध्यम से जन सरोकार से जुड़े कुल चैदह सवाल अवश्य किये। लेकिन उन सवालों को जब कांग्रेसियों और मीडिया ने ही तवज्जो नहीं दी तो सत्तापक्ष ही क्यों इस को लेकर गंभीरता दिखाता। जब पूछनेवाला ही गंभीर ना हो तो बतानेवाले को क्या गर्ज पड़ी है गंभीरता दिखाने की। अलबत्ता इस चुनाव में शुचिता व मर्यादा की धज्जियां उड़ाने में सबने अपनी पूरी ऊर्जा झोंक दी। प्रधानमंत्री पद की गरिमा भी तार-तार हुई और इस पद की गरिमा को बचाने की सोच कहीं भी नहीं दिखी। यहां तक कि भाजपा और कांग्रेस जहां बाहर एक-दूसरे से लड़ते-भिड़ते व टकराते दिखे वहीं अंदरूनी तौर पर इन्हें अपने संगठन के भीतर आपस में भी विभिन्न स्तरों पर जूझना पड़ा। खुल कर भले कोई इसे स्वीकार ना करे लेकिन यह सर्वविदित तथ्य है कि कांग्रेस के भीतर भी राहुल को गुजरात को नाकाम करने की साजिशें जोरों पर चलती रहीं और भाजपाइयों का भी एक बड़ा तबका मोदी लहर की नाकामी में अपनी कामयाबी तलाशता दिखा। ऐसी बहुस्तरीय व बहुआयामी लड़ाई में शुचिता, प्रतिष्ठा और मर्यादा का तार-तार होना स्वाभाविक ही था। लेकिन इस तथ्य को नकारा भी नहीं जा सकता कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती। लिहाजा सूबे के चुनाव को इस निचले व छिछले स्तर पर ले जाने के लिए सभी बराबर के ही दोषी हैं। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur