शनिवार, 30 अप्रैल 2016

लोग हर मोड़ पर रूक-रूक के संभलते क्यों हैं....

‘हर मोड़ पर नयी राह पकड़ना नहीं अच्छा’


मशहूर शायर राहत इन्दौरी साहब द्वारा उठाये गये इस सवाल का सटीक जवाब आज तक शायद ही किसी को मिल पाया हो कि ‘लोग हर मोड़ पर रूक-रूक के संभलते क्यों हैं, इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं।’ यह सवाल इसलिये प्रासंगिक है क्योंकि आम तौर पर लोग स्वामी विवेकानंद की उस सीख का अनुसरण करना गवारा नहीं करते जिसमें उन्होंने एक बार लक्ष्य तय कर लेने के बाद तब तक चैन से नहीं बैठने की बात कही थी जब तक वह पूरी तरह हासिल ना हो जाये। लेकिन सवाल सिर्फ इतना ही नहीं है कि लक्ष्य तय कर लेने के बाद उसे हासिल करने की दिशा में सरपट भागने के बजाय लोग हर मोड़ पर अटकते, ठिठकते, सहमते व संभलते हुए क्यों दिखाई पड़ते हैं। अलबत्ता वे कम से कम तयशुदा लक्ष्य की ओर डरते-डरते भी सधे कदमों से संभलते हुए आगे तो बढ़ते रहते हैं। यहां सवाल तो उनका है जो हर नये मोड़ पर नयी राह पकड़ते हुए दिखाई पड़ते हैं। उस पर तुर्रा यह कि लक्ष्य तो तय ही है, फिर इस बात से क्या फर्क पड़ता कि राह कौन सी चुनी जा रही है। अब ऐसी दलीलों को सरासर थेथरोलाॅजी ना कहें तो और क्या कहें। वैसे भी हर राह से एक ही मंजिल पर पहुंचने की बात आध्यात्मिक लिहाज से तो ठीक है मगर दुनियावी मामलों में इसे कैसे सही माना जा सकता है। बल्कि यह तो भटकाव की स्थिति है जो इन दिनों भारत की विदेश नीति में स्पष्ट दिख रही है। खास तौर से चीन व पाकिस्तान सरीखे पड़ोसी देशों के साथ अमल में लायी जा रही नीतियों पर गौर करें तो इसमें अटकाव, भटकाव व हर मोड़ पर अप्रत्याशित बदलाव की स्थिति साफ तौर पर महसूस की जा सकती है। मिसाल के तौर पर पठानकोट में हुए आतंकी हमले का मामला सामने आने के बाद पाकिस्तान से विदेश सचिव स्तर की वार्ता स्थगित करने के पीछे तर्क दिया गया कि बातचीत तभी संभव है जब सीमापार से इस मामले में कुछ ठोस कार्रवाई होती हुई दिखे। इस घुड़की का असर हुआ कि पाकिस्तान ने ना सिर्फ मामले की जांच शुरू कराई बल्कि कई अन्य लोगों के साथ उस मसूद अजहर को भी उसने नजरबंद किया जो पठानकोट में हुए आतंकी हमले का असली सूत्रधार है। लेकिन पाकिस्तान की इन पहलकदमियों के बावजूद इधर से संतोष नहीं जताया गया और वार्ता प्रक्रिया स्थगित ही रही। लेकिन अब जबकि पठानकोट मामले में पाकिस्तान पूरी तरह अपने वायदों से मुकर गया है और अनौपचारिक तौर पर इस वाकये को हमारी ही खुराफात साबित करने पर आमादा दिख रहा है इसके बावजूद अचानक विदेश सचिव स्तर की वार्ता कराके नई दिल्ली क्या संदेश देना चाह रही है यह समझ से परे ही है। अगर वार्ता प्रक्रिया को जारी रखना था तो पठानकोट मामले की आग में पूर्व निर्धारित बातचीत को होम ही नहीं करते। और अगर बातचीत बंद करके पाकिस्तान को कुछ ठोस कदम उठाने के लिये मजबूर करने की नीति अपनायी गयी तो कम से कम तब तक तो इस नीति पर टिके रहते जब तक वह हमारी एनआईए को पठानकोट मामले की जांच के लिये अपनी सरहद में दाखिल होने की इजाजत नहीं दे देता, उसकी जेआईटी की रिपोर्ट सकारात्मक नहीं दिखती, और अपनी अदालत में वह इस मामले को मजबूती से पेश करता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। अलबत्ता हार्ट आॅफ एशिया समिट में हिस्सा लेने के लिये आए पाकिस्तानी विदेश सचिव अहमद चैधरी के साथ अचानक ही अप्रत्याशित तरीके से हुई हमारे विदेश सचिव एस जयशंकर की दो घंटे लंबी चली वार्ता का नतीजा यह है कि पाकिस्तान कश्मीर का राग आलाप रहा है और हम आतंकवाद का रोना रो रहे हैं। दोनों की अपनी ढ़फली है और अपना अलग राग है जिसमें कहीं कोई तालमेल ही नहीं है। अब हालत यह है कि हमारी सरकार यह बताने की हालत में ही नहीं है कि उसने वार्ता प्रक्रिया बहाल करने के लिये पाकिस्तान के समक्ष जो शर्तें रखी थीं उसका क्या हुआ। यानि हुआ यूं कि वार्ता करनी है सो कर ली। महज दिखावे की बेमानी खानापूर्ति। जिससे फायदा तो कुछ नहीं हुआ अलबत्ता नुकसान यह हुआ कि वार्ता प्रक्रिया स्थगित करके पाकिस्तान पर जो दबाव बनाया गया था वह पूरी तरह मटियामेट हो गया। नीतियों में भटकाव की ऐसी ही स्थिति चीन के मामले में भी देखी जा रही है जिसे उसकी ही भाषा में जवाब देने के लिये पहले तो उसके वांक्षित अपराधी व उइगुर नेता डोलकुन इशा को भारत आने का वीजा प्रदान किये जाने की खबर को खूब प्रचारित प्रकाशित किया गया और बाद में जब कांग्रेस ने भी इशा को वीजा दिये जाने का समर्थन करने की पहल की तो अचानक ही उसका वीजा रद्द कर दिया गया। यानि हर नये मोड़ पर नयी राह अपनाने की जो नीति पाकिस्तान के साथ अपनायी गयी उसी का अनुसरण चीन के मामले में भी किया गया। अब भटकाव के इस राह की मंजिल कैसी होगी इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। खैर, इन मामलों के मद्देनजर तो हरिवंश राय बच्चन की यही पंक्तियां सही राह बताती हुई महसूस हो रही हैं कि ‘राह पकड़ तू एक चला चल पा जाएगा मधुशाला।’ वर्ना इस तरह अंधेरे में अटकते-भटकते हुए गलती से भी कोई गलती हो गयी तो बचने की कोई राह नहीं बचेगी। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ नवकांत ठाकुर Navkant Thakur

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

‘भुनाने के लिये दाने के जुगाड़ की जद्दोजहद’

‘भुनाने के लिये दाने के जुगाड़ की जद्दोजहद’


‘घर में नहीं दाने और अम्मा चली भुनाने’ के कटाक्षीय मुहावरे से तो सभी वाकिफ हैं। लेकिन यह सामाजिक मुहावरा सियासत में कोई मायने नहीं रखता। यहां तो भुनाने अक्सर वही निकलता है जिसके पास दाने होते ही नहीं और जिसके पास वास्तव में दाने होते हैं वह उसे तत्काल ही भुना लेने की गलती कभी नहीं करता। मसलन इन दिनों भुनाने के लिये तो नीतीश कुमार से लेकर राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल ही नहीं बल्कि सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव भी कतार में हैं लेकिन ना उनके पल्ले दाने दिख रहे हैं और ना ही वर्ष 2019 तक इनके पास इतना दाना जमा हो पाने की फिलहाल कोई उम्मीद नजर आ रही है जिसके दम पर ये अपने पल्ले के दाने की बदौलत प्रधानमंत्री का पद हासिल करने में कामयाब हो सकें। कायदे से देखा जाये तो केन्द्र में जब से नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा की सरकार बनी है तबसे ही मोदी के विकल्प की तलाश में तमाम गैरभाजपाई ताकतें विभिन्न फार्मूलों को टटोलने में जुटी हुई हैं। दरअसल यह सबको मालूम है कि लोकसभा चुनाव में पड़े कुल वोटों में से महज 32 फीसदी की हिस्सेदारी के दम पर ही भाजपा ने अपने दम पर बहुमत की सरकार बनायी है। यानि भाजपा की जीत में निर्णायक भूमिका निभाई गैरभाजपाई वोटों के जबर्दस्त बिखराव ने। लिहाजा सबका यह मानना है कि अगर अगले चुनाव में इस बिखराव को टालने में कामयाबी मिल गयी तो भाजपा को आसानी से धूल चटाई जा सकती है। इसी सोच का नतीजा रहा कि गैरभाजपाई ताकतों को एकजुट करने का पहला प्रयास जनता परिवार के बिखरे कुनबे को जोड़ने की कोशिश के तौर पर किया गया। इस प्रयास में पिछले साल सपा, राजद, जदयू, जद एस व इनेलो ने आपस में विलय करने और नयी पार्टी का मुखिया मुलायम सिंह यादव को बनाने पर सैद्धांतिक सहमति भी कायम कर ली। लेकिन अव्वल तो सपा के भीतर ही नये सिरे से पार्टी बनाने पर सहमति नहीं बन पायी और बाकी कसर बिहार के चुनाव में सीट बंटवारे को लेकर हुई तकरार ने पूरी कर दी। लिहाजा जनता परिवार के एकीकरण का विचार गर्त में चला गया। इस बीच बिहार के चुनाव में महागठजोड़ बनाकर गैरभाजपाई वोटों को एकजुट करने का जो प्रयोग किया गया उसका परिणाम उम्मीदों से काफी बेहतर रहा। लिहाजा कांग्रेस ने इसी प्रयोग को अन्य सूबों में भी आगे बढ़ाते हुए राहुल गांधी की खुल्लमखुल्ला असहमति के बावजूद पश्चिम बंगाल में वामदलों के साथ और तमिलनाडु में द्रमुक के साथ चुनावी गठजोड़ किया है। इस गठजोड़ का ही नतीजा है कि दोनों ही सूबों में कांग्रेस के लिये सम्मानजनक स्थिति उत्पन्न हुई है और अस्तित्व के संकट से जूझ रहे वामदलों को भी नये सिरे से प्राणवायु नसीब हुई है। यानि गैरभाजपाई वोटों का बिखराव रोकने का हर वह प्रयोग अब तक पूरी तरह सफल रहा है जिसमें तमाम ताकतें निजी आत्मसम्मान से ऊपर उठकर व आपसी असहमतियों को पीछे छोड़कर एकजुट हो पायी हैं। जबकि जम्मू कश्मीर, हरियाणा व महाराष्ट्र में ऐसा नहीं हो पाने के कारण भाजपा को सत्ता हथियाने का मौका मिल गया और अब असम में भी इसी वजह से उसकी स्थिति काफी मजबूत बतायी जा रही है। यानि भाजपा को रोकने के लिये तमाम गैरभाजपाई ताकतों को एकजुट तो होना ही पड़ेगा। लेकिन सवाल है कि इस एकजुटता का फार्मूला क्या होगा और इसका नेतृत्व किसके हाथों में रहेगा। इसी सवाल पर आकर यह पूरा विचार पंचर हो जा रहा है। अभी नीतीश ने संघ मुक्त भारत के नारे का जो प्रयोग किया है उसमें दम तो दिख रहा है क्योंकि इससे अव्वल तो सनातन भाजपा विरोधी माने जानेवाले अल्पसंख्यक समुदाय को एकजुट किया जा सकता है और दूसरे समाज को संघ के कट्टरवाद और बाकियों के समरसतावाद के बीच विभाजित कर भाजपा की राह रोकी जा सकती है। लेकिन संघ मुक्त भारत के नारे को आगे करने पर भाजपा इसे स्वाभाविक तौर पर राष्ट्रवाद से जोड़ेगी। लिहाजा आखिरकार यह प्रयोग अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक की शक्ल ले सकता है और इस बिसात पर भाजपा को पछाड़ना नामुमकिन की हद तक मुश्किल होगा। दूसरी ओर मसला है कि गैरभाजपाई मोर्चे की कमान पर नीतीश की मजबूत पकड़ कैसे बन सकती है जब बिहार की कुल 40 में से 16-17 सीटें ही उनकी पार्टी को लड़ने के लिये दी जाएंगी। साथ ही गैरभाजपाई मोर्चे पर अपना स्वाभाविक एकाधिकार छोड़ना कांग्रेस को कतई गवारा नहीं हो सकता है और राहुल के अलावा किसी अन्य को वह प्रधानमंत्री पद का दावेदार हर्गिज स्वीकार नहीं कर सकती है। लेकिन मसला है कि कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ना ना तो सपा को कबूल हो सकता है और ना बीजद, अन्नाद्रमुक, तृणमूल कांग्रेस या फिर राकांपा सरीखे दलों को। क्योंकि इन सभी दलों में त्रिशंकु संसद गठिन होने की हालत में अपने नेता को प्रधानमंत्री बनवाने का सपना लंबे अर्से से पल रहा है। बहरहाल, जहां चाह हो वहां राह निकल ही आती है लिहाजा ऐसा संभव ही नहीं है कि राष्ट्रव्यापी गैरभाजपाई गठजोड़ के गठन की कोशिशों पर विराम लग जाये। अलबत्ता जनता परिवार के एककीरण का विचार ध्वस्त होने के बाद अभी तो इस दिशा में यह दूसरा ही प्रयास शुरू हुआ है। यह सिलसिला तो अभी कई मोड़, जोड़-तोड़ व गठजोड़ से गुजरनेवाला है। जिसके सकारात्मक भविष्य की फिलहाल तो सिर्फ उम्मीद ही की जा सकती है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर Navkant Thakur

गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

‘सियासत के शीर्ष पर संवेदना का सूखा’

‘सियासत के शीर्ष पर संवेदना का सूखा’


सूखे को लेकर इन दिनों जिस तरह से सियासी पारा उफान पर चल रहा है उसमें संवेदना की नदारदगी वाकई शर्मसार करनेवाली है। खास तौर से जब सर्वोच्च अदालत भी यह स्वीकार कर चुकी है कि देश के कुल 256 जिले भीषण सूखे की चपेट में हैं और हमारी एक चैथाई आबादी पानी की बूंद-बूंद के लिये तरस रही है ऐसे में सियासी श्रेय लेने के लिये मची होड़ के बीच माननीय राजनेताओं द्वारा की जा रही बेसिर-पैर की बातों व ऊटपटांग हरकतों से तो सूखा पीडि़तों के जख्मों पर मरहम की बजाय मिर्च ही लग रही है। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा का आलम यह है कि जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया सूखे का जायजा लेने के लिये निकलते हैं तो हजारों लीटर पानी सिर्फ इस वजह से सड़क पर उडेल दिया जाता है ताकि उनकी कार को घूल के गुबार से दो-चार ना होना पड़े और जब महाराष्ट्र की ग्रामीण विकास व जल संरक्षणमंत्री पंकजा मुंडे सूखाग्रस्त इलाकों के दौरे पर निकलती हैं तो पीडि़तों के दर्द मंे सहभागी बनने के बजाय वहां अपनी सेल्फी निकालने में मशगूल हो जाती हैं ताकि उसे सोशल मीडिया पर अपलोड करके यह जता सकें कि जमीनी स्तर पर वे किस कदर सक्रिय हैं। उस पर तुर्रा यह कि सिद्धारमैया तो कम से कम पूरे मामले की जांच कराये जाने की बात भी कहते हैं लेकिन पंकजा दलील देती हैं कि पूरे इलाके मेें जब उन्हें सिर्फ एक बांध में पानी की पतली सी धारा बहती हुई नजर आयी तो उन्हें ऐसा महसूस हुआ मानो रेगिस्तान में अमृत का झरना बह रहा हो और उसी खुशी की यादें संजोने के लिये वे सेल्फी लेने से खुद को रोक नहीं पायीं। अब ऐसी दलीलों को संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ना कहें तो और क्या कहें। इसी प्रकार जब कर्नाटक के नवनियुक्त भाजपा अध्यक्ष बीएस येदियुरप्पा सूखे का जमीनी जायजा लेने के क्रम में भी अपनी निजी सहूलियत को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए एक करोड़ की आलीशान कार से ही सफर पर निकलते हों बूंद-बूंद के लिये तरस रही प्यासी पथराई आंखें उनसे अपनत्व भरी संवेदना की आस लगाएं भी तो कैसे? सूखे की मार से कराह रहे लोगों के बीच संवेदना का संचार हो भी तो कैसे जब प्यासी धरती के फटे कलेजे को आसमान से निहारने के लिये निकले महाराष्ट्र के राजस्वमंत्री एकनाथ खड़से के उड़नखटोले को घूल से बचाने के लिये हेलीपैड पर दस हजार लीटर पानी की फुहार डाली जा रही हो। इसमें कोढ़ में काज सरीखी असहनीय चुभन तो तब महसूस होती है जब येदियुरप्पा सरीखे नेता एक करोड़ की कार के इस्तेमाल को जायज ठहराने के लिये कभी अपनी सुरक्षा का हवाला देते हैं तो कभी वह कार अपनी होने से इनकार करते हुए इसे मित्र से किराये पर लिया हुआ बताते हैं। लोगों को ऐसी ही चुभन खड़से की बातों से भी महसूस हुई होगी जब उन्होंने कहा कि जिस तरह से उनके हेलीपैड पर धूल उड़ रही थी उसे देखते हुए यह मानना बेहद मुश्किल है कि इस पर दस हजार लीटर पानी की फुहार डाली गयी होगी। ऐसी दलील सुनकर लोग यह उम्मीद तो करेंगे ही काश खड़से साहब लगे हाथों यह भी बता ही देते कि जब उन्हें यह पता चला कि उनके लिये हेलीपैड तैयार किया जा रहा है तब उन्हें इस पर कितना पानी खर्च होने की उम्मीद थी। खैर, सूखे को लेकर मची सियासी श्रेय बटोरने की होड़ में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के मकसद से बेतुकी बयानबाजी करने में तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी और उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को औपचारिक तौर पर यह प्रस्ताव भेज दिया कि अगर वे चाहें तो सूखे से निपटने के लिये उनके सूबे को दिल्ली से पानी की आपूर्ति करायी जा सकती है। शायद इसी को कहते हैं कि घर में नहीं दाने और अम्मा चली भुनाने। इनका अपना सूबा तो पानी के लिये हरियाणा और यूपी पर निर्भर है जहां से पानी की पर्याप्त व निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित कराना हमेशा से टेढ़ी खीर रही है। हाल ही में जाट आरक्षण के लिये हुए आंदोलन के बाद जब कुछ दिनों के लिये हरियाणा से पानी की आपूर्ति बाधित हुई तब दिल्ली में कैसा कोहराम मचा था यह सर्वविदित ही है। यहां तक कि पानी के लिये जारी पंजाब व हरियाणा की जंग में कूदते हुए जब इन्होंने आगामी चुनाव में राजनीतिक लाभ बटोरने के मकसद से पंजाब के पक्ष में बयानबाजी की थी उसके बाद हरियाणा से मिली पानी रोकने की धमकी से ही इनकी सरकार के पेट का पानी डोल उठा था। ऐसे में जब ये सूखे की सियासत में कूदते हुए श्रेय बटोरने की कोशिशों के तहत समुद्री कछारवाले सूबे के दूर-दराज के इलाकों को पानी भेजने का प्रस्ताव भेजने की पहल करते हैं तब यह सवाल उठना लाजिमी ही है कि सूखा पीडि़तों के प्रति इनके मन में कितनी संवेदना है और कहीं ये सूखे की त्रासदी झेल रहे लोगों के साथ भद्दा मजाक तो नहीं कर रहे हैं। खैर, माना कि सियासत का संवेदना से सीधे तौर पर कोई लेना-देना नहीं होता है लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनभावना की निर्णायकता तो जगजाहिर ही है। लिहाजा जनवेदना के प्रति समर्पण व सहानुभूति का प्रदर्शन करने के क्रम में जनसरोकार से जुड़े मसले पर इस कदर लापरवाही का मुजाहिरा करने की भारी कीमत भी चुकानी पड़ सकती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’

‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’


वाकई बड़ा ही अजब है पाकिस्तान और गजब है उसकी नीति। खास तौर से भारत के प्रति उसका जो व्यवहार है उसके तो कहने ही क्या। लगता तो ऐसा है मानो उसने तय कर रखा है कि भारत के साथ उसे रिश्तों को बेहतर करना ही नहीं है। वर्ना ऐसा कैसे हो सकता है कि भारत की ओर से बार-बार दोस्ती का हाथ बढ़ाए जाने और उसकी पिछली गलतियों को सुपुर्दे खाक किये जाने के बावजूद वह अपनी नापाक हरकतों से बाज नहीं आए। नई दिल्ली में सरकार किसी भी पार्टी की क्यों ना हो, इस्लामाबाद के साथ रिश्ते सुधारने की कोशिशें लगातार जारी रहीं। हर बार उसकी गलतियों को भुलाने की कोशिश की गयी। इस उम्मीद में कि कभी तो हालात सुधरेंगे। कभी तो पाकिस्तान अपनी गलतियों से सबक लेगा और उसे दोबारा नहीं दोहराने की कसम लेगा। लेकिन नहीं, हर बार इधर से दोस्ती की कोशिश हुई और उधर से पीठ में छुरा घोंपा गया। अलबत्ता अब तो उसने अपना पूरा ईमान-धरम गिरवी रखकर उस चीन के साथ भारत के खिलाफ खुल्लम-खुल्ला गठजोड़ कर लिया है जिसका इतिहास ही नहीं है कि वह कभी किसी का सगा साबित हुआ हो। खैर सगा तो पाकिस्तान भी कभी किसी का नहीं हुआ बल्कि जिसने भी उसे सगा समझने की गलती की उसके हिस्से में दगा ही आयी। चाहे वह अफगानिस्तान हो या अमेरिका। लेकिन दूसरों को दगा देकर अगर पाकिस्तान ने अपना ही भला कर लिया होता तो बात कुछ और होती। यहां तो दूसरों को गिराने के लिये खोदे गये गड्ढ़े में हर बार वह खुद भी गिरा, चोटिल हुआ, लहुलुहान हुआ, बंग के रूप में अंग भंग का सामना किया, नाकाम मुल्क के तौर पर बदनाम हुआ लेकिन इससे कोई सबक नहीं लिया। तभी तो गुलाम कश्मीर के हड़पे हुए इलाके के काफी बड़े हिस्से को तस्तरी में परोसकर चीन के हवाले करने से लेकर अपने बंदरगाहों पर चीन को अपनी बादशाहत स्थापित करने के लिये आमंत्रित करने से भी उसने परहेज नहीं बरता है। और बदले में उसे केवल यह चाहिये कि किसी भी तरह से चीन कुछ ऐसा करे ताकि भारत को खून के आंसू रोने के लिये मजबूर किया जा सके। अब ऐसी बेवकूफी भरी विदेशनीति के नाते भले ही उसे पठानकोट हमले के मुख्य सूत्रधार मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रतिबंध झेलने से बचाने में फौरी कामयाबी मिल गयी हो या फिर भारत को परमाणु आपूर्तिकता देशों के समूह में शामिल होने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा हो, लेकिन हकीकत यही है कि चीन के साथ दोस्ती के लिये पाकिस्तान की ओर से जो कीमत चुकाई जा रही है वह उसे ही महंगी पड़नेवाली है। खैर, उसे कुछ भी महंगा पड़े या सस्ता, उससे हमें लेना एक ना देना दो। लेकिन जिस बात से हमारा सीधे तौर पर लेना-देना है वह है अपनी अंदरूनी समस्याओं को हमारे मत्थे मढ़ने की पाकिस्तान की कोशिशें। इस मामले में उसकी स्पष्ट नीति उल्टा चोर कोतवाल को डांटे सरीखी ही है। तभी तो पठानकोट के मामले को भारत की ही खुराफात साबित करने की कोशिशों के बीच उसने अपनी अंदरूनी समस्याओं के लिये भी भारत को ही जिम्मेवार बताने की साजिशें शुरू कर दी हैं। पाक अधिकृत गुलाम कश्मीर में आजादी की आवाज उठे या फिर बलूचिस्तान में दमन की इंतहा कर रही पाकिस्तानी फौज के जुल्मो-सितम से चीख-पुकार मचे। सबमें उसे भारत की ही भूमिका दिखाई देती है। यहां तक कि उसकी खुराफाती हरकतों व नापाक शैतानियों से तंग आकर खुद को शांत व मर्यादित रखने के लिये भारत तात्कालिक तौर पर भी गुफ्तगू के लिये बनाए अपने ही झरोखे पर झीना सा पर्दा डालने की कोशिश करे तो वह उसे नाकाबिले बर्दाश्त हो जाता है। अब संयुक्त राष्ट्र संघ में नियुक्त अपनी स्थायी प्रतिनिधि मलीहा लोधी को आगे करके उसने ढ़ोल बजाना शुरू कर दिया है भारत के साथ उसके रिश्ते इसलिये नहीं सुधर रहे हैं क्योंकि नई दिल्ली से समग्र बातचीत के लिये पहलकदमी नहीं की जा रही है। जाहिर है कि इससे बड़ा झूठ तो कुछ हो नहीं सकता। अलबत्ता यह सारी दुनियां जान चुकी है कि पाकिस्तान के साथ रिश्तों को सुधारने के लिये भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री ने भी तमाम अंदरूनी आलोचनाओं के बावजूद किस कदर बढ़-चढ़कर अपना हाथ ही आगे नहीं बढ़ाया है बल्कि नवाज की नातिन को आशिर्वाद देने के बहाने खुद को ही आगे कर लिया है। इसके बाद भी अगर पाक के सनातन खुराफाती रवैये में कोई कमी नहीं आ रही है तो आखिरकार हिन्दुस्तानी निजाम को अब इस बात पर विचार करना ही होगा कि कोतवाल को घुड़की देकर खुद को बचाये रखने की चोर की बदमाशी को कब तक बर्दाश्त किया जाए। ये जब चाहे आतंकियों की घुसपैठ करा दे, सरहद पर गोलीबारी शुरू कर दे, विश्वमंच पर हमें बदनाम करता फिरे, हर कीमत अदा करके भी चीन के हाथों हमारा दिल दुखाने की साजिश रचता रहे, हमारे अंदरूनी बौद्धिक विवादों में टांग अड़ाने की कोशिश करे, हमारे मासूम मछुआरों को पकड़कर उन पर जासूसी का इल्जाम लगाये, अलगाववादियों के कांधे पर बंदूक रखकर हमारी अंदरूनी शांति व सामाजिक सौहार्द्र को निशाना बनाए और विश्वशांति के लिये खतरा बने आईएसआईएस को हमारे खिलाफ इस्तेमाल करने की नीति पर आगे बढ़ता दिखे तो ऐसे पड़ोसी के साथ रिश्ते निबाहने के लिये परंपरा की लीक से हटकर कुछ अलग लेकिन असरकारी नीति तो अपनानी ही पड़ेगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’    

मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

‘उठी हुई उंगली के पीछे छिपा हुआ चेहरा’

‘उठी हुई उंगली के पीछे छिपा हुआ चेहरा’


इन दिनों जिसे देखिये वही दूसरों पर उंगली उठाता हुआ दिख रहा है। सबकी उंगलियां एक दूसरे की ओर हैं। चारों तरफ उंगली ही उंगली। चेहरा तो किसी का दिख ही नहीं रहा। ऐसे में यह समझ पाना बेहद मुश्किल हो चला है कि उंगलियों के पीछे चेहरा छिप जा रहा है या चेहरा छिपाने के लिये ही उंगली उठाई जा रही है। मामला कोलकाता में हुए ओवरब्रिज हादसे का हो या पठानकोट में हुए आतंकी हमले की पड़ताल के लिये भारत आयी पाकिस्तानी जांच टीम का। या फिर कृष्णा गोदावरी बेसिन में भारी भरकम निवेश व कुप्रबंधन के कारण गुजरात के सरकारी खजाने को लगी चपत से लेकर पनामा पेपर्स लीक का मसला ही क्यों ना हो। सतह पर सुलगते दिख रहे तमाम ज्वलंत मामलों में सामने सिर्फ उंगलियां ही दिख रही हैं, जो सभी एक दूसरे की ओर उठाये घूम रहे हैं। हालांकि अपनी खामियों, गलतियों व कमियों को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार नहीं करना और दूसरों के हर काम की पूरी शिद्दत से नुक्ताचीनी करना तो सियासत का स्वभाव ही होता है, लेकिन उंगलियां उठाने के क्रम में इन दिनों अपने अधिकार व कर्तव्य क्षेत्र की सीमारेखा का सम्मान करना भी जरूरी नहीं समझा जा रहा है। मिसाल के तौर पर पठानकोट मामले की जांच के लिये भारत आयी पाकिस्तान की जेआईटी के मामले को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल व उनके करीबी सिपहसालारों ने प्रधानमंत्री के प्रति जिस भाषा व अलंकारों का उपयोग किया है उसे उंगली उठाने के बहाने अपना चेहरा छिपाने की कवायद ना कहें तो और क्या कहें। कहां तो पड़ोसी सूबे हरियाणा से पीने का पानी मांगना भी इनके लिये दुरूह हो रहा है और कहां ये सीधा भारत-पाकिस्तान के रिश्तों का विश्लेषण करने में जुटे हुए हैं। मुफ्त वाईफाई व बेहतरीन सार्वजनिक परिवहन सेवा देने सरीखे अपने मुख्य चुनावी वायदे को तो ये शायद ही कभी याद करते हों लेकिन वर्ष 2012 में सोने पर एक्साइज लगाने का भाजपा द्वारा किया गया विरोध इन्हें बखूबी याद है। इनके मुताबिक पाकिस्तानी जांच दल को पठानकोट जाने की इजाजत देकर प्रधानमंत्री ने भारतमाता की पीठ में छुरा घोंप दिया है लेकिन पाकिस्तानी मीडिया रिपोर्ट पर भरोसा करने के क्रम में भारतीय मीडिया द्वारा प्रचारित-प्रसारित तथ्यों को खारिज करके ये किन तत्वों का मनोबल बढ़ा रहे हैं इस पर तो इन्होंने कभी विचार भी नहीं किया होगा। जाहिर है कि दिल्ली के विकास की अपनी जिम्मेवारी निभाने से ज्यादा केन्द्र सरकार पर गरजने-बरसने में अपनी ऊर्जा खपाने के पीछे कहीं ना कहीं इनकी उंगली उठाने की आड़ में अपना चेहरा छिपाने की रणनीति ही छिपी हुई है। यही हालत कांग्रेस की भी है और भाजपा की भी। गुजरात में केजी बेसिन के मामले में बरती गयी वित्तीय व नीतिगत अनियमितताओं को लेकर सामने आयी कैग रिपोर्ट के बारे में भाजपा से कुछ पूछा जाये तो वह यह कहते हुए सीधे कांग्रेस पर उंगली उठा देती है कि जिसने दस साल के कार्यकाल में सरकारी खजाने का 15 लाख करोड़ रूपया हजम कर लिया हो उसे भ्रष्टाचार के बारे में कोई सवाल करने का नैतिक अधिकार ही नहीं है। दूसरी ओर असम में 15 साल के शासनकाल का हिसाब देने के बजाय कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व केन्द्र सरकार की नाकामियां गिनाकर ही चुनावी भवसागर पार कर लेने में जुटा हुआ है। हालांकि कांग्रेस तो अपने साठ साल के राष्ट्रव्यापी शासन का हिसाब-किताब देना भी गवारा नहीं करती अलबत्ता हर सवाल के जवाब में भाजपा की ओर उंगली उठाकर अपना चेहरा छिपाने से उसे कतई गुरेज नहीं है। खैर, विरोधियों पर उंगली उठाकर अपना चेहरा छिपाने में तो ममता बनर्जी भी कम उस्ताद नहीं हैं जिन्होंने कोलकाता में हुए फ्लाईओवर हादसे की पूरी जिम्मेवारी वामदलों की पूर्ववर्ती सरकार पर थोप दी है। लेकिन वे यह बताना जरूरी नहीं समझती कि जब उन्हें ‘परिवर्तन’ के लिये जनता का समर्थन मिला था तो पिछली सरकार द्वारा उपकृत की गयी कंपनी को ही इनका भी वरदहस्त क्यों मिलता रहा और जब रेल मंत्रालय इनकी मुट्ठी में था तब काली सूची में शामिल इसी कंपनी को बारामुला-उधमपुर में रेल टनल बनाने का ठेका क्यों दे दिया गया। जाहिर है कि हर सवाल के जवाब में उंगली उठाने की कोशिशें वास्तव में अपना चेहरा बचाने की रणनीति का ही हिस्सा रहती हैं। तभी तो पनामा पेपर्स के मामले में सीधे तौर पर आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू कराने के बजाय भाजपा यह याद दिला रही है कि उसके सभी सांसदों ने जब संसद के दोनों सदनों में अपना कोई विदेशी खाता नहीं होने का शपथपत्र दाखिल किया तो कांग्रेस के शीर्ष संचालक परिवार ने इसमें जरा भी दिलचस्पी नहीं ली और बकौल संबित पात्रा, सोनिया की आलमारी खुल जाये तो पूरा कालाधन बिखरा नजर आएगा। जाहिर है कि ऐसी दलीलों का तो कोई जवाब हो भी नहीं सकता है। लेकिन मसला है कि अपना चेहरा छिपाने के लिये दूसरों पर उंगली उठाने की रणनीति अगर सियासी सफलता की गारंटी दिला सकती तो ना भाजपा की बिहार में बुरी गत होती और ना ही एक के बाद एक विभिन्न कांग्रेसशासित सूबों में आंतरिक विद्रोह का बवंडर उठता। खैर, आम मतदाताओं के सामने दूसरों की गलतियां परोसकर अपनी कमियां छिपाने की रणनीति का कभी-कभार तात्कालिक लाभ अवश्य मिल सकता है बशर्ते बाद में ढ़ोल की पोल खुलने पर होनेवाले नुकसान की भरपाई करने का जोखिम उठाने के लिये तैयार रहा जाए। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

‘जमीनी के कांधों पर जमीन की जिम्मेवारी’

‘जमीनी के कांधों पर जमीन की जिम्मेवारी’


जमीन की समझ उसे ही हो सकती है जो जमीन से जुड़ा रहा हो। लिहाजा जमीन जोतने व जोड़ने की जिम्मेवारी जमीन से जुड़े जमीनी नेताओं को सौंपने की भाजपा में जो नयी परंपरा शुरू हुई है उसका जमीनी स्तर पर सकारात्मक असर दिखने की संभावना को कतई नकारा नहीं जा सकता है। वास्तव में जबसे पार्टी के संस्थापकों और उनके द्वारा आगे लाये गये दूसरी पीढ़ी के नेताओं का संगठन पर वर्चस्व कमजोर पड़ा है तबसे संगठन में बदलाव की बेहद दिलचस्प बयार बहती हुई दिख रही है। खास तौर से पार्टी का नेतृत्व नरेन्द्र मोदी व अमित शाह के रूप में ऐसी जोड़ी के हाथों में आने के बाद से (जो ना तो किसी से उपकृत है और ना किसी पूर्वाग्रह या गुटबाजी से प्रेरित) पार्टी में अहम पदों की जिम्मेवारी सौंपे जाने की अहर्ता व अपेक्षित योग्यता की कसौटी ही मानो बदल गयी है। ना परंपराओं की परवाह की जा रही है और ना ही वर्जनाओं की। ना सिफारिश के आधार पर फैसले हो रहे हैं और ना ही विरोध की परवाह की जा रही है। अगर वर्जनाओं की परवाह या परंपराओं का अनुपालन होता तो ना तो आदिवासी बहुल झारखंड का मुख्यमंत्री गैरआदिवासी रघुवर दास को बनाया जाता और ना जाटबहुल हरियाणा की सूबेदारी गैरजाट मनोहरलाल खट्टर को दी जाती। यहां तक कि पार्टी के तमाम पुराने व स्थापित चेहरों को दरकिनार कर सर्वानंद सोनोवाल को असम का अध्यक्ष व मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के मामले में भी ना तो सांगठनिक संतुलन की परवाह की गयी और ना परंपरागत सियासी लकीर का अनुसरण किया गया। हालांकि दिल्ली में आयातित नेत्री किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद के दावेदारी की जिम्मेवारी सौंपने का मामला भी कुछ ऐसा ही था जिसका पार्टी को भारी खामियाजा भुगतना पड़ा। लेकिन उस एक हार से अपने लिये अपनी नयी लकीर खींचने के मौजूदा निजाम के दृढ़ निश्चय पर कोई असर नहीं पड़ा है। तभी तो आज एक बार फिर पांच राज्यों में नियुक्त किये गये नये प्रदेश अध्यक्षों की सूची में तीन नाम ऐसे हैं जो वाकई नये निजाम की नयी सोच की ओर स्पष्ट इशारा करते हैं। उत्तर प्रदेश में केशव प्रसाद मौर्य, पंजाब में विजय सांपला और तेलंगाना में डाॅ के लक्षमण को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेवारी सौंपने के फैसले से स्पष्ट है कि तमाम ऐसे स्थापित चेहरे जो जोड़तोड़, गुटबाजी व गणेश परिक्रमा के बूते विभिन्न स्तरों पर पार्टी में लंबे समय से जमे हुए थे उनकी जगह अब ऐसे चेहरों को तरजीह दी जा रही है जो ‘नेकी कर और दरिया में डाल’ की नीति के मुताबिक संगठन की सेवा में लगे रहे हैं। उन्हें ख्वाहिश भले रही हो पार्टी से कुछ पाने की लेकिन उम्मीद तो कतई नहीं थी कि कुछ मिल पाएगा। ऐसे लोगों को जब अचानक मुख्यधारा में शीर्ष पर बिठाने की नीति पर अमल किया जाने लगा तो स्वाभाविक तौर पर यह आरोप तो लगना ही है कि मोदी-शाह की जोड़ी पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिये पुराने स्थापितों की अनदेखी करते हुए संगठन में मनमाने परिवर्तन कर रही है ताकि किसी भी मामले में किसी भी स्तर से कभी कोई विरोध या असहमति का स्वर सामने आने की गुंजाइश ही ना रहे। जाहिर तौर पर सियासी समीकरणों की कसौटी पर परखने के बाद इस तरह के आरोपों को सिरे से तो कतई खारिज नहीं किया जा सकता है लेकिन इन फैसलों को एक अलग नजरिये से देखा जाये तो भले ही पिछड़ों-दलितों को साधने के लिये इन्हें आगे आने का मौका दिया गया हो या फिर इन्हें गुटनिरपेक्ष रहने का प्रतिफल मिल रहा हो। सच तो यही है कि मतदाताओं को अंत्योदय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता समझाने में पार्टी को इस सांगठनिक अंत्योदय से निश्चित ही काफी लाभ मिलेगा। दरअसल ये वो लोग हैं जिन्होंने संघ परिवार व भाजपा संगठन के लिये अपना सबकुछ अर्पित करने से लेकर पार्टी के लिये खुद को भी समर्पित कर दिया, लेकिन बदले में कुछ पाने के लिये ना तो कभी गुटबाजी की और ना किसी की गणेश परिक्रमा करना गवारा किया। इसीका नतीजा रहा कि जब फूलपुर संसदीय सीट से भाजपा के शीर्ष नेताओं की एक टोली स्वर्गीय लालबहादुर शाष्त्री के नवासे व पार्टी के राष्ट्रीय सचिव सिद्धार्थनाथ सिंह को उम्मीदवार बनाना चाह रही थी और बाकी टोलियां इसके विरोध में जुटी थीं तब टकराव टालने के लिये फूलपुर स्थित सिराथू विधानसभा सीट पर सपा की लहर के बावजूद मजबूती से कमल खिला चुके केशव प्रसाद मौर्य को पार्टी का टिकट दे दिया गया। हालांकि मौर्य कोई आसमान से टपके नेता नहीं थे बल्कि पिछड़े समाज व बेहद गरीब परिवार से आनेवाले मौर्य संघ परिवार से बचपन से ही जुड़े हुए थे और लंबे समय तक विहिप के पूर्णकालिक प्रांत संगठन मंत्री रहने के अलावा पार्टी की यूपी इकाई में भी कई महत्वपूर्ण जिम्मेवारियां संभाल चुके थे। लेकिन उन्हें असली प्रतिफल मिला उस एकला चलो की गुटनिरपेक्ष राजनीति का जिसने उन्हें भी अचंभित करते हुए पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया है क्योंकि इस पद के लिये लंबी मगजमारी व खींचतान के बाद भी किसी एक नाम पर आम सहमति नहीं बन रही थी। खैर, मौर्य सरीखे नेताओं का नाम भले ही आम लोगों के नजरिये से अधिक आकर्षक ना हो लेकिन जमीन संवारने के लिये जमीनी नेताओं को आगे लाना पार्टी के लिये दूरगामी तौर पर अवश्य फायदेमंद साबित हो सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

दूसरों की गलतियां परोसकर अपनी कमियां छिपाने की रणनीति

‘उठी हुई उंगली के पीछे छिपा हुआ चेहरा’


इन दिनों जिसे देखिये वही दूसरों पर उंगली उठाता हुआ दिख रहा है। सबकी उंगलियां एक दूसरे की ओर हैं। चारों तरफ उंगली ही उंगली। चेहरा तो किसी का दिख ही नहीं रहा। ऐसे में यह समझ पाना बेहद मुश्किल हो चला है कि उंगलियों के पीछे चेहरा छिप जा रहा है या चेहरा छिपाने के लिये ही उंगली उठाई जा रही है। मामला कोलकाता में हुए ओवरब्रिज हादसे का हो या पठानकोट में हुए आतंकी हमले की पड़ताल के लिये भारत आयी पाकिस्तानी जांच टीम का। या फिर कृष्णा गोदावरी बेसिन में भारी भरकम निवेश व कुप्रबंधन के कारण गुजरात के सरकारी खजाने को लगी चपत से लेकर पनामा पेपर्स लीक का मसला ही क्यों ना हो। सतह पर सुलगते दिख रहे तमाम ज्वलंत मामलों में सामने सिर्फ उंगलियां ही दिख रही हैं, जो सभी एक दूसरे की ओर उठाये घूम रहे हैं। हालांकि अपनी खामियों, गलतियों व कमियों को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार नहीं करना और दूसरों के हर काम की पूरी शिद्दत से नुक्ताचीनी करना तो सियासत का स्वभाव ही होता है, लेकिन उंगलियां उठाने के क्रम में इन दिनों अपने अधिकार व कर्तव्य क्षेत्र की सीमारेखा का सम्मान करना भी जरूरी नहीं समझा जा रहा है। मिसाल के तौर पर पठानकोट मामले की जांच के लिये भारत आयी पाकिस्तान की जेआईटी के मामले को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल व उनके करीबी सिपहसालारों ने प्रधानमंत्री के प्रति जिस भाषा व अलंकारों का उपयोग किया है उसे उंगली उठाने के बहाने अपना चेहरा छिपाने की कवायद ना कहें तो और क्या कहें। कहां तो पड़ोसी सूबे हरियाणा से पीने का पानी मांगना भी इनके लिये दुरूह हो रहा है और कहां ये सीधा भारत-पाकिस्तान के रिश्तों का विश्लेषण करने में जुटे हुए हैं। मुफ्त वाईफाई व बेहतरीन सार्वजनिक परिवहन सेवा देने सरीखे अपने मुख्य चुनावी वायदे को तो ये शायद ही कभी याद करते हों लेकिन वर्ष 2012 में सोने पर एक्साइज लगाने का भाजपा द्वारा किया गया विरोध इन्हें बखूबी याद है। इनके मुताबिक पाकिस्तानी जांच दल को पठानकोट जाने की इजाजत देकर प्रधानमंत्री ने भारतमाता की पीठ में छुरा घोंप दिया है लेकिन पाकिस्तानी मीडिया रिपोर्ट पर भरोसा करने के क्रम में भारतीय मीडिया द्वारा प्रचारित-प्रसारित तथ्यों को खारिज करके ये किन तत्वों का मनोबल बढ़ा रहे हैं इस पर तो इन्होंने कभी विचार भी नहीं किया होगा। जाहिर है कि दिल्ली के विकास की अपनी जिम्मेवारी निभाने से ज्यादा केन्द्र सरकार पर गरजने-बरसने में अपनी ऊर्जा खपाने के पीछे कहीं ना कहीं इनकी उंगली उठाने की आड़ में अपना चेहरा छिपाने की रणनीति ही छिपी हुई है। यही हालत कांग्रेस की भी है और भाजपा की भी। गुजरात में केजी बेसिन के मामले में बरती गयी वित्तीय व नीतिगत अनियमितताओं को लेकर सामने आयी कैग रिपोर्ट के बारे में भाजपा से कुछ पूछा जाये तो वह यह कहते हुए सीधे कांग्रेस पर उंगली उठा देती है कि जिसने दस साल के कार्यकाल में सरकारी खजाने का 15 लाख करोड़ रूपया हजम कर लिया हो उसे भ्रष्टाचार के बारे में कोई सवाल करने का नैतिक अधिकार ही नहीं है। दूसरी ओर असम में 15 साल के शासनकाल का हिसाब देने के बजाय कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व केन्द्र सरकार की नाकामियां गिनाकर ही चुनावी भवसागर पार कर लेने में जुटा हुआ है। हालांकि कांग्रेस तो अपने साठ साल के राष्ट्रव्यापी शासन का हिसाब-किताब देना भी गवारा नहीं करती अलबत्ता हर सवाल के जवाब में भाजपा की ओर उंगली उठाकर अपना चेहरा छिपाने से उसे कतई गुरेज नहीं है। खैर, विरोधियों पर उंगली उठाकर अपना चेहरा छिपाने में तो ममता बनर्जी भी कम उस्ताद नहीं हैं जिन्होंने कोलकाता में हुए फ्लाईओवर हादसे की पूरी जिम्मेवारी वामदलों की पूर्ववर्ती सरकार पर थोप दी है। लेकिन वे यह बताना जरूरी नहीं समझती कि जब उन्हें ‘परिवर्तन’ के लिये जनता का समर्थन मिला था तो पिछली सरकार द्वारा उपकृत की गयी कंपनी को ही इनका भी वरदहस्त क्यों मिलता रहा और जब रेल मंत्रालय इनकी मुट्ठी में था तब काली सूची में शामिल इसी कंपनी को बारामुला-उधमपुर में रेल टनल बनाने का ठेका क्यों दे दिया गया। जाहिर है कि हर सवाल के जवाब में उंगली उठाने की कोशिशें वास्तव में अपना चेहरा बचाने की रणनीति का ही हिस्सा रहती हैं। तभी तो पनामा पेपर्स के मामले में सीधे तौर पर आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू कराने के बजाय भाजपा यह याद दिला रही है कि उसके सभी सांसदों ने जब संसद के दोनों सदनों में अपना कोई विदेशी खाता नहीं होने का शपथपत्र दाखिल किया तो कांग्रेस के शीर्ष संचालक परिवार ने इसमें जरा भी दिलचस्पी नहीं ली और बकौल संबित पात्रा, सोनिया की आलमारी खुल जाये तो पूरा कालाधन बिखरा नजर आएगा। जाहिर है कि ऐसी दलीलों का तो कोई जवाब हो भी नहीं सकता है। लेकिन मसला है कि अपना चेहरा छिपाने के लिये दूसरों पर उंगली उठाने की रणनीति अगर सियासी सफलता की गारंटी दिला सकती तो ना भाजपा की बिहार में बुरी गत होती और ना ही एक के बाद एक विभिन्न कांग्रेसशासित सूबों में आंतरिक विद्रोह का बवंडर उठता। खैर, आम मतदाताओं के सामने दूसरों की गलतियां परोसकर अपनी कमियां छिपाने की रणनीति का कभी-कभार तात्कालिक लाभ अवश्य मिल सकता है बशर्ते बाद में ढ़ोल की पोल खुलने पर होनेवाले नुकसान की भरपाई करने का जोखिम उठाने के लिये तैयार रहा जाए। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @नवकांत ठाकुर #NavkantThakur