सोमवार, 28 दिसंबर 2015

‘पड़ोसी के साथ रिश्ते में पर्देदारी पर हंगामा’

‘पड़ोसी के साथ रिश्ते में पर्देदारी पर हंगामा’

नवकांत ठाकुर
प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की सरजमीं पर कदम क्या रखा, हंगामे की पोटली खुल गयी। हर तरफ हंगामा, हर तरफ गुस्सा। आक्रोश इधर भी है और उधर भी। अलबत्ता उधर तो हाफिज सईद सरीखे अमन के दुश्मन हंगामा मचा रहे हैं जबकि इधर बवाल काटनेवाले वे हैं जिनके शख्सियत की पाकीजगी पर कतई सुबहा नहीं किया जा सकता है। चाहे कांग्रेस हो या शिवसेना, यशवंत सिन्हा हों या केसी त्यागी। या फिर दिल्ली में सत्तारूढ़ एएपी ही क्यों ना हो। हर कोई प्रधानमंत्री के पाकिस्तान दौरे से बौखलाहट में है। इनके शब्द भले ही अलग हों लेकिन भाव यही है कि नरेन्द्र मोदी क्यों गये पाकिस्तान? जरूरत क्या थी वहां जाने की। दोनों मुल्कों के रिश्तों में ऐसी कौन सी तब्दीली आ गयी है जिससे बात इस हद तक पहुंच गयी कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधायी देने और उनकी नातिन की शादी से पहले मेंहदी के रस्म में शरीक होकर उसे शुभकामनाएं देने के लिये देशहित को हाशिये के हवाले करते हुए देश व विपक्ष को विश्वास में लिये बिना ही मोदी अचानक काबुल से लौटते हुए पाकिस्तान में उतर गये। मोदी के इस दौरे का विरोध करनेवालों को मलाल इस बात का है कि आखिर निजी रिश्ता निभाने के लिये पाकिस्तान की करतूतों को क्यों भुला दिया गया। मोदी कैसे भूल गये पंजाब की आग को, आतंक के झाग को, खून भरे फाग को, संसद हमले के दाग को, मुंबई के दुर्भाग्य को और गुलाम कश्मीर के भाग को। हेमराज के परिजनों की आस को, देश के विश्वास को, हजारों बेगुनाह मकतूलों के संत्रास को और पाक की नापाकियत के एहसास को भुलाकर अचानक मोदी का पाकिस्तान पहुंच जाना इस तरफ बहुतों को अखर रहा है। जाहिर है कि मोदी की इस यात्रा का विरोध इसलिये तो कतई नहीं किया जा रहा है क्योंकि उनकी राष्ट्रभक्ति पर किसी को कोई संदेह है। बल्कि किसी को आशंका यह भी नहीं है कि देशहित को अलग करके दोस्ती के लिये वे कोई ऐसा समझौता कर गुजरेंगे जिससे देश को जरा भी ठगे जाने का एहसास हो। लेकिन सवाल है पाकिस्तान की नापाक नीयत का और उसकी विश्वासघाती नीतियों का जिसके जाल में इससे पहले के हमारे कई प्रधानमंत्री फंस चुके हैं और देश को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है। वाजपेयी बस लेकर लाहौर गये लेकिन वापसी में झेलना पड़ा कारगिल का युद्ध। मनमोहन सिंह ने सुलह की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहा तो शर्मअल शेख के समझौते में बलूचिस्तान में धधक रही अलगाववाद की आग का गुनहगार बताने की कोशिश हुई भारत को। जब मनमोहन कश्मीर मसला हल करने के करीब पहुंचे तो मुंबई पर ऐसा भीषण हमला कर दिया जिसकी चिंगारी ने गुफ्तगू के सहारे सुलह की गफलत को भस्म कर दिया। खैर, इस हकीकत को तो कतई भुलाया नहीं जा सकता है कि जितने जख्म हमें पाकिस्तान ने दिये हैं उतना किसी ने नहीं दिया। बल्कि यूं कहें तो ज्यादा सही होगा कि हमारे तमाम जख्मों, बाहरी परेशानियों, समस्याओं व सिरदर्दियों का गुनहगार इकलौता पाकिस्तान ही है। दूसरी ओर पाक की नापाकियत का सबब ना सिर्फ कश्मीर है बल्कि बांग्लादेश भी है जिसे विश्व मानचित्र पर खुदमुख्तार वजूद देने के लिये पाकिस्तान को तोड़ दिया गया। साथ ही बलूचिस्तान की आग के लिये भी वह हमें ही जिम्मेवार समझता है। यहां तक कि एक विफल राष्ट्र होने के लिये भी उसकी नजर में हम ही गुनहगार हैं और हमारे कारण ही उसे चीन और अमेरिका से लेकर विभिन्न इस्लामिक मुल्कों की खैरात का मोहताज बनना पड़ा है। यानि जख्मों से कलेजा छलनी इधर भी है और उधर भी है। उस पर तुर्रा यह कि हमारी मौजूदा सरकार ने एक ओर उसकी आतंकपरस्ती को दुनिया में बेनकाब कर दिया है जिससे वैश्विक मदद की इमदाद आधे से भी कम रह गयी है और दूसरी ओर सरहद पर उसकी फौज जम्हाई भी ले तो उसके मंुह में बारूद भर दिया जा रहा है। यहां तक कि हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल ने उसके लिये इतनी सिरदर्दी का सामना इकट्ठा करवा दिया है कि उसकी खुराफाती आईएसआई को अपने मसले सुलझाने से ही फुर्सत नहीं मिल रही। साथ ही कश्मीरी अलगाववादियों को औकात में रहने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है। बातचीत का दरवाजा हमारी मर्जी से खुल भी रहा है और बंद भी हो रहा है। उसकी कोई शर्त स्वीकार नहीं की जा रही और आर्थिक गतिविधियां भी ऐसी हैं जिसमें भारत के हित को ही तरजीह दी जा रही है। यानि उसकी चैतरफा घेराबंदी का काम तो पूरा हो चुका है जिसमें फंसकर वह कसमसा भी रहा है और छटपटा भी रहा है। लेकिन कोई रास्ता तो खोलना ही पड़ेगा जिससे दोस्ती के लिये आवश्यक विश्वास बहाली कायम हो सके। वह रास्ता भी सियासी ही हो सकता है। उसकी सेना, आतंकी शुभचिंतकों या आईएसआई से तो बातचीत के हिमायती हम हो ही नहीं सकते। लिहाजा क्या बुरा है कि दोनों मुल्कों के शीर्ष नेता परस्पर दोस्ती का रिश्ता कायम करें और उनके रिश्ते इस हद तक सहज हों कि मेलजोल में सरहद की दीवार आड़े ना आये। वैसे भी ढि़ढ़ोरा पीटकर औपचारिक बातचीत की कोशिशों के अंजाम का इतिहास तो सर्वविदित ही है। क्यों ना टेढ़ी उंगली के बजाय एक बार सीधी उंगली से भी घी निकालने की कोशिश करें। वह भी खामोशी से, चुपके-चुपके। ताकि इन कोशिशों को किसी की नजर ना लगे। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’

गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

‘जाके प्रभु दारूण दुख देहीं, वाकी मति पहिले हर लेहीं’

‘मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना’

नवकांत ठाकुर
कहते हैं कि ‘जाके प्रभु दारूण दुख देहीं, वाकी मति पहिले हर लेहीं।’ तभी तो बुरा वक्त आने पर खुद से ही ऐसी गलतियां होनी शुरू हो जाती हैं जिसका परिणाम बेहद ही नकारात्मक निकलता है। मिसाल के तौर पर इन दिनों अपनों से लेकर परायों तक के निशाने पर आये दिख रहे अरूण जेटली सरीखे मौजूदा दौर के चाणक्य कहे जानेवाले नेता ने भी विपरीत व असहज स्थिति में उलझने के बाद एक के बाद लगातार इतनी गलतियां कर दी हैं कि इसे अपने पैर पर खुद कुल्हारी मारना ही माना जाएगा। बीते कई सालों से जिन आरोपों के पुलिंदे को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हुए कीर्ति आजाद द्वारा लगातार किये जा रहे हमलों से जेटली का बाल भी बांका नहीं हो रहा था उन्ही आरोपों की चंद चिंदियां अरविंद केजरीवाल के दल एएपी द्वारा सार्वजनिक तौर पर उड़ाये जाने के बाद से ही परिस्थितियों ने ऐसी पलटी मारी है कि अब सियासी हलकों में उनकी इमानदारी व शुचिता पर गंभीर सवालिया निशान लगने शुरू हो गये हैं। कोई उनके खिलाफ लगाये जा रहे आरोपों की संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराये जाने की मांग कर रहा है तो कोई उन्हें निर्दोष साबित होने तक अपने पद का परित्याग करने की सलाह दे रहा है। एएपी ने दिल्ली की सत्ता का इस्तेमाल करते हुए आरोपों की जांच के लिये आयोग गठित कर दिया है वहीं दूसरी ओर बकौल प्रधानमंत्री, कांग्रेस ने इस मसले को तूल देकर सरकार की छवि पर भ्रष्टाचार की कालिख चस्पां करने का अभियान छेड़ दिया है। इसमें संगठन व सरकार ने औपचारिक तौर पर जेटली के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करने में कोई कोताही नहीं बरती है और संसद के शीतसत्र का अवसान होने के फौरन बाद ही कीर्ति को पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिये संगठन से निलंबित करते हुए उन्हें चैदह दिनों के भीतर इस बात का जवाब देने के लिये कहा गया है कि क्यों ना उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया जाये। यानि संगठन ने कीर्ति पर सख्ती की तलवार चला दी है और जेटली ने भी खुद पर भ्रष्टाचार की कालिख उछालनेवालों पर दस करोड़ रूपये की मानहानि का दावा अदालत में दायर कर दिया है। जाहिर है कि इन तथ्यों के नजरिये से देखा जाये तो ना सिर्फ सरकार से लेकर संगठन तक ने जेटली के पक्ष में मजबूत किलेबंदी कर दी है बल्कि विरोधियों को अदालत में घसीटकर जेटली ने अपनी नैतिक व व्यावहारिक शुचिता प्रमाणित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन मसला यह है कि सियासत सिर्फ तथ्यों पर निर्भर नहीं होती। इसमें छवि का बड़ा महत्व होता है। मोदी सरीखे नेता अपने पूरे चुनावी अभियान में एक बार भी जयश्रीराम का नारा नहीं लगाने के बावजूद हिन्दू हृदय सम्राट माने जाते हैं जबकि राम मंदिर आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभानेवाले लालकृष्ण आडवाणी को 2009 के लोकसभा चुनाव में बहुसंख्यकों ने सिरे से नकार देना ही बेहतर समझा। मौजूदा मामले में भी जब तक जेटली ने खुद पर लग रहे आरोपों को गंभीरता से नहीं लिया तब तक कीर्ति के आरोप भी बासी लग रहे थे और ‘मारो और भागो’ की सियासत करनेवाले केजरीवाल को भी इस मामले में अधिक गंभीरता से नहीं लिया जा रहा था। लेकिन जैसे ही जेटली ने जुलूस के साथ जाकर आरोप लगानेवालों पर अदालत में मानहानि का दावा किया वैसे ही यह पूरा मामला समूचे देश में चर्चा का विषय बन गया। यहां तक कि भाजपा संगठन के भीतर भी इस मामले के उछलने से कईयों का दिल बाग-बाग हो गया। तभी तो जब संसद में जेटली के खिलाफ औपचारिक तौर पर अपनी बात रखने के लिये कीर्ति ने शून्यकाल में अपने दिल की बात कहने के हक का इस्तेमाल किया तो उस दौरान पार्टी के किसी सांसद ने दिखावे के लिये भी उनको रोकना या टोकना जरूरी नहीं समझा। अब आलम यह है कि जेटली की नैतिकता, शुचिता व इमानदारी पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। कोई भी यह मानने के लिये तैयार नहीं है कि उनके डीडीसीए का अध्यक्ष रहते हुए 140 करोड़ की लागत से तैयार हुए विश्वस्तरीय फिरोजशाह कोटला स्टेडियम के निर्माण में कोई घपला-घोटाला नहीं हुआ है। यानि तथ्यों के आधार पर जेटली भले ही खुद को मजबूत मान रहे हों लेकिन उनकी छवि पर तो बट्टा लगा ही है। अब बाकी मुद्दे गौण हैं और जेटली की शुचिता पर राष्ट्रीय बहस जारी है। पार्टी में भी अब यह बहस तो शुरू होगी ही कि क्या किसी नेता पर सिर्फ इसलिये उंगली नहीं उठायी जा सकती क्योंकि वह अपने दल का है? राष्ट्रहित को तरजीह देते हुए उसके खिलाफ उपलब्ध भ्रष्टाचार से जुड़े तथ्यों को सार्वजनिक करने पर अगर पार्टी से निलंबन व निष्कासन का सामना करना पड़े तो ‘राष्ट्र प्रथम, संगठन दोयम और स्वयं निम्नतम’ के नारे का दिखावा क्यों? यानि इस मामले में जितने भी कदम उठाये गये उनका असर अब यह हुआ है कि अव्वल तो भ्रष्टाचार में जेटली की संलिप्तता का मसला हर खासोआम की जुबान पर चढ़ गया है और दूसरे संगठन में वैचारिक व सैद्धांतिक स्तर पर नयी बहस व टकराव की स्थिति पैदा हो गयी है। दूसरे शब्दों में कहें तो कीर्ति को संगठन से भले ही निकाल दिया जाये लेकिन संगठन व सरकार की छवि पर लगा दाग अब लगातार पुख्ता ही होता जाएगा और जेटली के लिये स्थितियां दिनोंदिन असहज ही होती चली जाएंगी। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

‘आशियाने में आग लग रही घर के चिराग से’



‘आशियाने में आग लग रही घर के चिराग से’

जिन चिरागों पर दारोमदार हो घर में उजाले का वे ही अगर आशियाना खाक करने पर आमादा हो जाएं तो बाकी घरवालों को कितनी परेशानियों, समस्याओं व जगहंसाइ का सामना करना पड़ सकता है यह शायद ही किसी को अलग से समझाने की जरूरत पड़े। खास तौर से सियासत में चिराग ही अगर आशियाने में आग लगाने का जुगाड़ ढूंढ़ने लगे फिर तो कहना ही क्या। हालांकि आशियाने को खाक करके अपने वजूद और वकार में नयी बुलंदी लाने की रणनीति के तहत अगर चिराग ने बागी तेवर अपनाया हो फिर तो एक बार के लिये उसके प्रति सहानुभूति भी जतायी जा सकती है या फिर उसके नजरिये से भी पूरे माजरे को समझने का प्रयास किया सकता है। लेकिन बिना किसी फायदे के बेवजह चिराग भड़क उठे और आशियाने को लीलने के लिये तत्पर हो जाये तो ऐसे चिरागों को क्या कहा जाये। इसमें एक तथ्य यह भी है कि चिरागों की ज्वलनशीलता तो सबको झेलनी पड़ती है लेकिन आशियाना वही खाक होता है जिसमें आग के भड़कने का सामान भी हो। मिसाल के तौर पर बिहार में अपने ही खेमे को खाक करने पर आमादा चिरागों की कमी ना राजग में थी और ना ही महागठबंधन में। लेकिन महागठबंधन के बागी चिराग अपनी आग में खुद ही स्वाहा हो गये जिसने आशियाने की रौनक में इजाफा ही किया जबकि राजग के खुराफाती चिरागों को अपने पक्ष के अरमानों को जला डालने में जो कामयाबी मिली उसमें आशियाने की अंदरूनी कमियों, खामियों व गलतियों ने बारूद का काम किया। नतीजन अपनी रौशनी में खुद भी पूरी तरह नहा पाने की क्षमता नहीं रखनेवाले चिरागों ने खेमे में मौजूद बारूद का इस्तेमाल करके सूबे में राजग के तमाम अरमानों को सिरे से खाक कर दिया। कहने का तात्पर्य यह कि कोई भी चिराग तब तक आशियाने को खाक करने में कामयाब नहीं हो सकता जब तक घर में रखे किसी ज्वलनशील सामान के साथ उसका तालमेल ना हो। तभी तो भाजपा के चिरागों ने अपने ही आशियाने को खाक करने के लिये दिल्ली में सत्तारूढ़ एएपी को जो चिंगारी मुहैया करायी है उससे संगठन की सेहत पर कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है। अलबत्ता चिराग की नीयत अवश्य बेनकाब हो गयी है जिसकी सफाई देने के लिये उसे संगठन की ओर से समन भेज दिया गया है। दरअसल वाकया है पार्टी के चाणक्य कहे जानेवाले केन्द्रीय वित्तमंत्री अरूण जेटली से जुड़ा हुआ। उनकी निजी हैसियत और रसूख से तो पार्टी के कई चिराग हमेशा से जलते रहे हैं लेकिन उनके खिलाफ कोई ठोस मुद्दा तलाशने में अब तक किसी को कामयाबी नहीं मिल पायी है। लेकिन कहते हैं कि जैसे भूखे को चांद में भी रोटी ही नजर आती है और प्यासे को रेत के सेहरा में भी समुंदर का भरम हो जाता है वैसे ही उनके खिलाफ शिद्दत से कोई ठोस मामला तलाशनेवालों की डीडीसीए के अध्यक्ष के तौर पर वर्ष 1999 से 2013 तक उनके द्वारा निभायी गयी जिम्मेवारियों पर नजर पड़ी तो इसी दौरान उनकी अगुवाई में 141 करोड़ की भारी भरकम लागत से निर्मित फिरोजशाह कोटला स्टेडियम में इन बागियों को फर्जीवाड़ा नजर आने लगा। वे यह मान बैठे कि अगर इमानदारी की हिस्सेदारी के हिसाब से उसमें दस फीसदी रकम भी इधर-उधर हुई होगी तो 14-15 करोड़ के घपले-घोटाले का बोझ तो जेटली के कांधे पर आ ही जाएगा। सूत्र बताते हैं कि इसी खुराफाती सोच के साथ इन बागी चिरागों ने कांग्रेसनीत संप्रग के दूसरे कार्यकाल में कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी को यह बताकर जेटली के खिलाफ भड़का दिया कि उनके दामाद राॅबर्ट वाड्रा के खिलाफ हो रहे हमलों का संचालन जेटली ही कर रहे हैं। जाहिर है कि ऐसी बात जानने के बाद सोनिया का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया और बागियों की पौ-बारह हो गयी। सरकार ने डीडीसीए के अध्यक्ष के तौर पर जेटली के पूरे कार्यकाल की जांच का जिम्मा ‘सीरियस फ्राॅड इन्वेस्टिगेशन आॅफिस’ यानि एसएफआईओ को दे दिया। उसने पूरी जांच-पड़ताल के बाद ना सिर्फ जेटली को क्लीन चिट दे दी बल्कि उनके कार्यकाल के दौरान डीडीसीए में कुछ भी घपला-घोटाला होने से उसने साफ इनकार कर दिया। खैर, इस जांच रिपोर्ट के बाद कांग्रेस ने तो इस मामले में गलत जानकारी देनेवाले बागियों से किनारा कर लिया लेकिन अब इन्हें अरविंद केजरीवाल के तौर पर नया विस्फोटक मिल गया जिसने भाजपा से निजी दुश्मनी पाल ली है। बागियों ने कानूनी तौर पर पिट चुके इसी मसले की फाइलें केजरीवाल को दे दी जिसे एएपी ने हाथों-हाथ लपकते हुए जेटली की छवि खराब करने की जंग छेड़ दी। एएपी को उम्मीद तो यही थी कि भाजपा से बुरी तरह चिढ़ी बैठी कांग्रेस सरीखी पार्टियां इस जंग में उसका सहयोग अवश्य करेंगी लेकिन पूरे मामले की हकीकतों से पहले ही अवगत हो चुकी कांग्रेस ने इसे संसद में उठाना भी जरूरी नहीं समझा। लिहाजा एक बार फिर बागी चिरागों के अरमान धरे रह जाने की उम्मीद ही प्रबल दिख रही है। खैर, सियासत में प्रतिद्वन्द्विता को तो गलत नहीं कहा जा सकता है लेकिन इस टकराव में आशियाना ही ध्वस्त करने पर आमादा हो जानेवालों को इतना तो याद रखना ही चाहिये कि जिस चारदीवारी ने बाहरी तूफानों से महफूज रखकर उनके अस्तित्व को आकार, आधार और विस्तार दिया है, उसके झरोखे का एक पर्दा भी जल जाने की सूरत में इनके अपने वजूद का क्या होगा? ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’    @नवकांत ठाकुर

सोमवार, 14 दिसंबर 2015

‘बेसबब तो नहीं हैं मजहबी मजदूरों की अंगड़ाइयां’

‘बेसबब तो नहीं हैं मजहबी मजदूरों की अंगड़ाइयां’

नवकांत ठाकुर
मुनव्वर राणा साहब का कहना है कि ‘हां इजाजत है अगर कोई कहानी और है, इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है, मजहबी मजदूर सब बैठे हैं इन्हें कुछ काम दो, इक इमारत शहर में काफी पुरानी और है।’ वाकई मजहबी मजदूरों की फौज इन दिनों खाली बैठी हुई ही नजर आ रही है। हालांकि इसका यह कतई मतलब नहीं है कि अब कोई पुरानी इमारत बची ही नहीं है या इन मजदूरों का हौसला पस्त हो गया है। ना तो इमारतें खत्म हुई हैं और ना ही मजहबी मजदूरों की नीति या नीयत में कोई अंतर आया है। अलबत्ता सन्92 के मजदूरों का जोश, जीवट और जुनून तो आज भी बदस्तूर बरकरार है। ये तो आज भी इस इंतजार में हैं कि दुबारा इन्हें कुछ काम मिले। लेकिन मसला यह है कि अब वे ना तो बंधुआ मजदूरी करना चाहते हैं और ना ही मनरेगा की माफिक न्यूनतम मजदूरी लेकर अपने उस काम को अंजाम देने के लिये तैयार हैं जिसमें वे सिद्धहस्त हैं, प्रवीण हैं, कुशल हैं। बल्कि अब उनकी महत्वाकांक्षा अधिकतम मजदूरी का पक्का वायदा लेने के बाद ही उस काम को हाथ में लेने की है जिससे इनकी नजर में ठेकेदार को असीमित मुनाफा होना पूरी तरह तय है। दरअसल इनके पिछले काम का परिणाम भले ही आशा से अधिक फलदायक रहा हो लेकिन इसका पूरा प्रतिफल उन्हें नहीं मिला जिन्होंने मैदान में उतर कर मजदूरी की। अपना खून पसीना बहाकर पुरानी इमारत को जमींदोज किया। बल्कि इसका फायदा तो वास्तव में उन ठेकेदारों के हिस्से में ही आया जिन्होंने सियासी निशाना साधने के लिये मजदूरों के कांधे का इस्तेमाल किया। मजदूर तो मुगालते में ही रह गये जबकि मलाई के कटोरे पर ठेकेदारों का कब्जा हो गया। हालांकि कुछ मजदूरों को सांत्वना पुरस्कार के तौर पर कुछ पारितोषिक अवश्य मिला लेकिन वह भी कुछ गिने-चुने अकुशल, अर्धकुशल व सहायक मजदूरों के हिस्से में ही आया। असली कारीगरों को तो ‘बाबाजी का ठुल्लु’ ही मिला। खैर, उस दौर के अधिकांश अगली पांत के कारीगर या तो परलोक सिधार चुके हैं या फिर सिधारने की कतार में खड़े हैं। जबकि ठेकेदारों की तीसरी पीढ़ी भी अब तक उनकी कारीगरी के एवज में हासिल मलाई को जमकर मथ रही है और मूल से अधिक हो चुके ब्याज के दम पर मौज मार रही है। लिहाजा तत्कालीन कारीगरों के जो सहायक अब पूरी तरह तप-पककर सबल-प्रबल हो चुके हैं उन्हें शिद्दत से यह मलाल होना लाजिमी ही है कि काश उस ब्याज में उन्हें भी कुछ हिस्सा मिल पाता। इसके अलावा तत्कालीन वरिष्ठ कारीगरों की दूसरी पीढ़ी भी अब नये काम की तलाश में शिद्दत से जुटी हुई है ताकि पिछली बार की कसर भी अबकी बार ही निकाल ली जाये। साथ ही अब मजहबी मजदूरों की एक नयी फौज भी तैयार हो चुकी है जो पिछले ठेके के दौरान या तो नाबालिग थी या फिर बेहद पिछली कतार में रहकर जिसने नगण्य सी भूमिका निभाई थी। दूसरी ओर मुनाफे की मलाई पर कब्जा जमा लेनेवालों की तीसरी पीढ़ी सतही तौर पर तो विरासत में हासिल मूल और अपने दम पर कमाये उसके ब्याज से जमकर मौज उड़ाती दिख रही है लेकिन अंदरूनी हकीकत यही है कि उस काम का परिणाम अब दिनों-दिन विलुप्त व विस्मृत होता जा रहा है। नतीजन अब किसी नये काम को हाथ में लेना तीसरी पीढ़ी की मजबूरी बनती जा रही है। वैसे भी बुजुर्गों के काम-काज व रीति-नीति को अमल में लाने के अलावा इनकी ना तो कोई दूसरी पहचान है ना गति। लिहाजा नया काम तो ये भी हाथ लेना चाहते हैं ताकि एक बार फिर नये सिरे से सियासी पूंजी जमा की जाये और लंबे अर्से तक उसका आनंद लिया जाये। लेकिन मसला यह है कि इस काम को जमीनी स्तर पर अंजाम देने में सिद्धहस्त मजदूरों व कारीगरों की फौज अब अपनी पुरानी पीढ़ी की गलतियां नहीं दोहराना चाहती। तभी तो उसने सन्92 में खुदी नींव पर नयी इमारत तामीर कराने से लेकर काशी व ब्रज तक की पुरानी इमारतों की ओर इशारा करते हुए मुजफ्फरनगर और दादरी में अपनी अंगड़ाई की झलक भले दिखा दी हो लेकिन नए ठेके के एवज में मिलनेवाली मजदूरी व संभावित सियासी सफलता की मलाई में से अपनी अधिकतम हिस्सेदारी पहले से तय कर लेना चाहती है। जाहिर है कि ठेकेदारों को मजदूरों व कारीगरों का यह अडि़यल रवैया कतई रास नहीं आ सकता है लिहाजा उनके प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार के दिखावे का सिलसिला लगातार जारी है। खैर, मजदूरों व कारीगरों की अंगड़ाई और उसके प्रति ठेकेदारों के उपेक्षाभाव को तो वास्तव में दिखावा मानना ही उचित होगा क्योंकि अंग, बंग व कलिंग से लेकर द्वारिका क्षेत्र तक ही नहीं बल्कि दक्षिण व उत्तर-पूर्व में भी इन ठेकेदारों की नैया का कहीं कोई ऐसा खिवैया नहीं है जो उसे सत्ता के बंदरगाह तक सफलतापूर्वक पहुंचाने में समर्थ हो। तभी तो ठेकेदारों व मजदूरों का एकजुट होकर अपने परंपरागत धंधे को नये मुकाम तक ले जाना तय माना जा रहा है। लेकिन त्वरित सफलता का नया फार्मूला तलाश रहे इन मजहबी ठेकेदारों व मजदूरों से अदम गोंडवी के शब्दों में इतनी इल्तिजा तो की ही जा सकती है कि, ‘हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेडि़ये, अपनी कुर्सी के लिये जज्बात को मत छेडि़ये, हैं कहां हिटलर हलाकू जार या चंगेज खां, मिट गये सब कौम की औकात को मत छेडि़ये।’ ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

शनिवार, 12 दिसंबर 2015

‘ये समझदारों की दुनियां है विरोधाभास की’

‘ये समझदारों की दुनियां है विरोधाभास की’

नवकांत ठाकुर
कबीर परंपरा के कवि माने जानेवाले रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी साहब की मानें तो ‘मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की, ये समझदारों की दुनियां है विरोधाभास की, आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत, वो कहानी है महज प्रतिशोध की संत्रास की।’ वाकई राजतंत्र हो या लोकतंत्र, सियासत का इतिहास अक्सर प्रतिशोध की स्याही से ही लिखा जाता है। यानि सियासत को प्रतिशोध से अलग करके देख पाना बेहद ही मुश्किल है। तभी तो मौजूदा दौर में भी जिन सियासी सरगर्मियों ने संसद से सड़क तक कोहराम मचाया हुआ है उसकी असली वजह प्रतिशोध को ही बताया जा रहा है। प्रतिशोध यानि बदला, रिवेंज, इंतकाम। चुंकि सियासत में इंतकाम की परंपरा हमेशा से चली आ रही है लिहाजा अगर खुद की गलतियों के कारण भी कुछ खामियाजा भुगतना पड़ रहा हो तो उसे विरोधी पक्ष के बदले की कार्रवाई बताकर खुद के लिये जन सहानुभूति अर्जित करने का प्रयास करना बेहद आसान हो जाता है। तभी तो मौजूदा दौर का मजेदार तथ्य यह है कि भले ही सभी पक्ष इस बात पर एकमत हों कि सियासी दाल में प्रतिशोध की आंच से ही उबाल आया हुआ है लेकिन कोई भी पक्ष यह स्वीकार करने के लिये कतई तैयार नहीं है कि बदले की कार्रवाई उसकी ओर से की जा रही है। कांग्रेस की मानें तो सत्ताधारी भाजपा की ओर से उसके शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ राजनीतिक द्वेष के तहत बदले की कार्रवाई की जा रही है जबकि भाजपा की मानें तो लोकसभा चुनाव में मिली शिकस्त का बदला लेने के लिये ही कांग्रेस किसी भी सूरत में देश को उन्नति की राह पर आगे नहीं बढ़ने देना चाह रही है। इसी प्रकार सपा का कहना है कि उत्तर प्रदेश की सरकार को विकास व जनहित का काम करने से रोकने के लिये केन्द्र की ओर से मिलनेवाली मदद में लगातार कटौती की जा रही है जबकि केन्द्र की मानें तो अपने लिये सहानुभूति अर्जित करने के मकसद से ही सूबे की सपा सरकार बेवहज रोना-गाना कर रही है। इसी प्रकार पी चिदंबरम इस बात की चुनौती दे रहे हैं कि भाजपा को जो भी बदला लेना हो वह सीधा उनसे ले, उनके बेटे को 2जी घोटाले के मामले में ना फंसाए जबकि ममता बनर्जी का कहना है कि अगर हिम्मत है तो केन्द्र के इशारों पर काम कर रही सीबीआई उसे पकड़ के दिखाए। अरविंद केजरीवाल दावा करते हैं कि दिल्ली में मिली हार से बौखलायी भाजपा अब केन्द्र की ताकत का इस्तेमाल करके सूबे की जनता का जीना दुश्वार कर रही है जबकि तमाम गैरभाजपायी दल इस बात पर एकमत हैं कि मौजूदा केन्द्र सरकार आरएसएस की विचारधारा के विरोधियों को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। दूसरी ओर भाजपा की दलील है कि उसे लोकसभा में मिला हुआ बहुमत विरोधियों को हजम नहीं हो रहा है जिसके कारण उसके खिलाफ चैतरफा असहिष्णुता दिखायी जा रही है और राजनीतिक बदले के तहत उसकी तमाम महत्वाकांक्षी योजनाओं को किसी ना किसी बहाने से राज्यसभा की दहलीज के भीतर ही दफन कर दिया जा रहा है। यानि समग्रता में देखें तो इस समय हर पक्ष खुद को निरीह, मासूम व निर्दोष बताते हुए विरोधी पक्ष पर अपने खिलाफ साजिश रचने का इल्जाम लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। अपनी नजर में सभी बेहद भोले-भाले और सीधे-सादे हैं। कांग्रेसी इतने भोले कि अदालत के समन को भी प्रधानमंत्री कार्यालय की साजिश मानकर संसद का चक्का जाम कर देते हैं। अब कौन इनसे पूछे कि इसमें सरकार या संसद क्या कर सकती है। इसी प्रकार सत्तापक्ष भी इतना मासूम है कि संसद में शांति का माहौल ना बन रहा हो और उसके द्वारा प्रस्तावित विधेयकों को बाकियों का समर्थन नहीं मिल रहा हो तो वह इसे विरोधियों द्वारा प्रतिशोध की भावना के तहत किया जा रहा विरोध मान बैठता है। अब इन्हें कौन याद दिलाये कि जब ये निचले सदन में लोकसभा की बहुमत का लाभ लेकर वहां अपनी मनमानी करेंगे तो विरोधी पक्ष भी इन्हें राज्यसभा में मनमाना जवाब देगा ही। वैसे भी सदन में शांति व सहमति कायम करने की जिम्मेवारी तो इनकी ही है जिसके लिये अव्वल तो गंभीर प्रयास होता नहीं दिखता और अगर कभी पानी नाक से ऊपर उठने के बाद कुछ हाथ-पैर मारा भी जाता है तो देर से हुई इस क्रिया पर नकारात्मक प्रतिक्रिया ही सामने आती है। खैर, अपनी कमियां, खामियां और गलतियां स्वीकारना किसी को गवारा नहीं है। सबको शिकायत है कि विरोधी पक्ष उसके खिलाफ राजनीतिक बदले की भावना के तहत कार्रवाई कर रहा है। हर जगह बदले का ही बोलबाला है। आलम यह है कि किसी को जुकाम भी आये तो नजला विरोधियों पर ही गिरता है। ऐसे में आम लोगों की स्थिति वाकई बड़ी विचित्र हो चली है। किसको वह सही माने और किसको गलत। विपक्ष संसद ना चलने दे तो भी नुकसान देश का ही और सरकार अगर मनमानी करे तो उसका खामियाजा भी देश को ही उठाना पड़ेगा। यानि पक्ष-विपक्ष की चक्की में पिस रहा है देश और देश की असली समस्याएं हाशिये पर पड़ी अपनी अनदेखी का रोना रो रही हैं। ऐसे में देश के आम लोगों के दिल की आवाज भी अदम गोंडवी साहब के इस शेर में ही छिपी हुई महसूस हो रही है कि ‘सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिये, गर्म रखें कब तलक नारों से दस्तरखान को।’ ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

सोमवार, 7 दिसंबर 2015

‘इधर जाऊं, उधर जाऊं या किधर जाऊं’

‘इधर जाऊं, उधर जाऊं या किधर जाऊं’

नवकांत ठाकुर

यूं तो शकील बदांयुनी साहब ने ‘पालकी’ के लिये लिखा था कि ‘मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं, बड़ी मुश्किल में हूं अब किधर जाऊं।’ लेकिन मौजूदा सियासी माहौल में ये शब्द भाजपा की अंदरूनी हालत को ही बयां करते हुए महसूस होते हैं। वाकई भाजपा के लिये यह तय करना बेहद मुश्किल दिख रहा है कि वह इधर जाए, उधर जाए या किधर जाए। खास तौर से सांगठनिक स्तर पर सर्वसम्मति से आगे की दिशा निर्धारित करना फिलहाल उसके लिये नामुमकिन की हद तक मुश्किल ही दिख रहा है। हालांकि हार-जीत का सिलसिला तो सियासत में चलता ही रहता है लेकिन अगर पुरस्कार के लिये जीत को पैमाना बनाया जाएगा तो हार के लिये जिम्मेवारी भी तय करनी ही होगी। इससे बचा नहीं जा सकता। हालांकि अभीतक हार के लिये पार्टी में किसी को जिम्मेवार ठहराने की परंपरा नहीं रही है लेकिन परंपरा तो यह भी नहीं थी कि जीत को सामूहिक उपलब्धि मानने के बजाय किसी एक को इसका महानायक बताते हुए उसे विशेष तौर पर पुरस्कृत किया जाये। पहले तो हार भी सामूहिक होती थी और जीत भी। लेकिन इस दफा ऐसा नहीं हुआ। अलबत्ता यूपी का चुनाव प्रभारी रहते हुए सूबे में पार्टी को चमत्कारी परिणाम दिलानेवाले अमित शाह को लोकसभा चुनाव में हासिल जीत का महानायक करार दे दिया गया और पुरस्कार के तौर पर उनके हाथों में पूरे संगठन की कमान दे दी गयी। इससे जाहिर तो यही हुआ कि जीत सिर्फ शाह और मोदी की जोड़ी के कारण ही हासिल हुई है। लेकिन अब जबकि दिल्ली के बाद ना सिर्फ बिहार बल्कि गुजरात के स्थानीय निकायों में भी पार्टी को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी है तब सामूहिक नेतृत्व पर जिम्मेवारी डालकर किसी एक को इसके लिये दोषी ठहराने से परहेज बरता जा रहा है। जाहिर है कि ऐसे में सांगठनिक स्तर पर असंतोष का वातावरण तो बनेगा ही। बकौल शत्रुघ्न सिन्हा, अगर ताली कप्तान के हिस्से में आती है तो गाली भी कप्तान के ही हिस्से में आनी चाहिये। यानि अब मसला कप्तान पर आकर ठहर गया है। हालांकि दिलचस्प तथ्य यह है कि अभी अध्यक्ष के तौर पर शाह का अपना कार्यकाल आरंभ ही नहीं हुआ है। वे तो संगठन की जिम्मेवारी से मुक्त करके सत्ता के मोर्चे पर तैनात किये गये राजनाथ सिंह के बचे-खुचे कार्यकाल को पूरा कर रहे हैं जो कि अगले महीने समाप्त होने जा रहा है। लिहाजा नये अध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर संगठन में उत्सुकता, मगजमारी, प्रतिस्पर्धा व खींचतान का वातावरण बनना लाजिमी ही है। तभी तो इस मसले पर संगठन में तीन अलग-अलग धाराएं स्पष्ट दिख रही हैं। एक धारा शाह को ही इस पद पर बरकरार रखने की वकालत कर रही है जबकि दूसरी धारा किसी ऐसे को अध्यक्ष बनाने की सलाह दे रही है जिसका राष्ट्रीय राजनीति में अपना ठोस वकार-वजूद भी हो। साथ ही एक तीसरी धारा ऐसी भी है जो गुजरात में लगातार बिगड़ रहे सियासी समीकरण को संभालने के लिये शाह को वहां भेजने की जरूरत तो स्वीकार कर रहा है लेकिन पार्टी के नये अध्यक्ष के तौर पर वह किसी कद्दावर व आक्रामक नेता की नियुक्ति किये जाने के पक्ष में नहीं है। अलबत्ता इसकी मांग है कि अध्यक्ष के पद पर श्याम जाजू सरीखे ऐसे व्यक्तित्व की ताजपोशी की जाये जो ना सिर्फ सत्ता के शीर्ष संचालकों का भरोसेमंद हो बल्कि संगठन को सरकार की बी-टीम के तौर पर आगे ले जाये और किसी भी मसले पर सरकार से टकराव के बारे में सोचने की भी जहमत ना उठाए। जाहिर है कि जब तीन अलग धाराएं बह रही हैं तो उनमें आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा भी होगी। तभी तो सतही तौर पर अध्यक्ष पद की होड़ में अकेले दौड़ते दिख रहे शाह को अंदरूनी रूप से बेहद कड़ी प्रतिस्पर्धा झेलनी पड़ रही है। सूत्रों की मानें तो इसमें शाह को सबसे कड़ी टक्कर फिलहाल नितिन गडकरी से मिल रही है जिन्हें राजनीतिक साजिश के तहत ऐसे मामले में फंसाकर लोकसभा चुनाव की तैयारियों के आगाज के वक्त ही पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ने के लिये मजबूर किया गया जिसका बाद में कोई आधार ही नहीं मिला। पड़ताल में पूरा मामला हवा-हवाई ही पाया गया। अब इसका प्रायश्चित करते हुए अगर संघ की ओर से उन्हें दुबारा पार्टी की कमान सौंपने की कोशिश की जाती है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात ही नहीं है। वैसे भी 2009 के चुनाव में पार्टी को मिली करारी हार के बाद अपने तीन साल के कार्यकाल में गडकरी ने संगठन को इतना मजबूत कर दिया था कि 2014 के चुनाव में भाजपा को अपने दम पर हासिल बहुमत में उनके योगदान को कतई भुलाया नहीं जा सकता है। साथ ही उनमें ना सिर्फ संगठन को मोदी सरकार के समतुल्य खड़ा करने की क्षमता है बल्कि हार के अनवरत सिलसिले से संगठन को उबारने की कुशलता व दक्षता का भी वे अपने कार्यकाल में सफल व चमत्कारी मुजाहिरा कर चुके हैं जिसके दम पर लोकसभा चुनाव से काफी पहले ही राज्यसभा में तत्कालीन विपक्ष को बहुमत हासिल हो गया था। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि सत्ता की सुख-सुविधा छोड़कर संगठन की सिरदर्दी ओढ़ना उन्हें गवारा तो हो। वह भी तब जबकि आगामी दिनों में होने जा रहे तकरीबन आठ राज्यों के चुनाव में संभावित सिलसिलेवार हार से बच पाना पार्टी के लिये नामुमकिन की हद तक मुश्किल दिख रहा है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

‘पक गयी हैं आदतें.... आदत बुरी बला’

नवकांत ठाकुर
हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ गजलकार दुष्यंत कुमार ने आदतों को आधार बनाकर क्या खूब लिखा है कि ‘पक गयी हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं, पत्थरों में चीख हर्गिज कारगर होगी नहीं, सिर्फ शायर देखता है कहकहों की असलियत, हर किसी के पास तो ऐसी नजर होगी नहीं।’ वाकई पकी हुई आदतों को बदल पाना अक्सर नामुमकिन हो जाता है। यूं तो जीवन के हर क्षेत्र में पकी हुई आदतें अक्सर पगबाधा का ही काम करती हैं लेकिन सियासत की राहों में मौके की नजाकत व परिस्थितियों की मांग के मुताबिक आदतों में आवश्यक तब्दीली नहीं लाने का नतीजा अक्सर अनुमान से भी अधिक नकारात्मक हो जाता है। तभी तो आदतों में सुधार का प्रयास तो अक्सर सभी करते ही रहते हैं। लेकिन आदत तो आदत ठहरी। जो आसानी से बदल जाये वह आदत ही क्यों कहलाये। यह आदत ही तो है कि अन्ना आंदोलन की उपज माने जानेवाले अरविंद केजरीवाल केन्द्र सरकार से अपनी मांगें मनवाने के लिये मुख्यमंत्री पद पर रहने के बावजूद खुली सड़क पर लंबे वक्त तक धरना देने से खुद को रोक नहीं पाते हैं। कांग्रेस भी सत्ता में रहे या ना रहे लेकिन कांग्रेसियों की सत्ता की हनक कभी नहीं जाती। संसद में जो भी काम होगा वह उनकी मर्जी से होगा, वर्ना नहीं होगा। कोई भी विधेयक तभी पारित होगा जब वह कांग्रेस को पसंद आ जाये, वर्ना संसद को बाधित कर दिया जाएगा। उसके शीर्षनेता मनमाने तरीके से सदन में बोलेंगे, नहीं बोलेंगे। कोई कुछ नहीं बोल सकता। किसी भी सरकारी विभाग में कांग्रेसी नेताओं के सिफारिशी पत्रों की आवक में आज भी कोई कमी नहीं आयी है। आलम यह है कि सत्ताधारी दल होने के बावजूद भाजपा के नेताओं द्वारा भेजे गये सिफारिशी पत्रों से किसी को लाभ मिले या ना मिले लेकिन कांग्रेस के नेताओं का सिफारिशी पत्र बदस्तूर कारगर साबित हो रहा है। यानि समग्रता में कहा जाये तो सत्ता की आदत है कांग्रेस और कांग्रेस की आदत है सत्ता। कार्यपालिका आज भी कांग्रेस को जितनी तरजीह व स्वीकार्यता देती है उतनी शायद ही कभी भाजपा सरीखे किसी अन्य सत्ताधारी दल को मयस्सर हो सके। जाहिर है कि कार्यपालिका भी अपनी इस आदत से ही मजबूर है वर्ना कायदे से उसका दलगत राजनीति से लेना-देना क्या? खैर, आदत के हाथों मजबूर तो भाजपा भी है। विपक्ष में रहने के दौरान किये जानेवाले बर्ताव को ही सत्ता में आने के बाद भी जारी रखने को आदत ना कहें तो और क्या कहें? तभी तो असहिष्णुता के मसले पर लोकसभा में हुई चर्चा के दौरान जब मोहम्मद सलीम ने एक राष्ट्रीय पत्रिका में छपे आलेख का हवाला देते हुए राजनाथ सिंह पर कुछ ऐसी बात कहने की तोहमत लगा दी जो उन्होंने कभी कही ही नहीं थी तो इससे आहत होकर राजनाथ ने विपक्षी नेता के अंदाज में सलीम को धमका दिया कि अगर वे अपनी उस बात को वापस नहीं लेंगे तो पूरी भाजपा सदन से वाॅकआउट कर जाएगी। इसी प्रकार हर हफ्ते-दस दिन पर कांग्रेसी नेताओं से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर भाजपा द्वारा संवाददाता सम्मेलन आयोजित करने की परंपरा बदस्तूर जारी है मानो वह आज भी विपक्ष में रहने के कारण भ्रष्टाचारियों का कुछ भी बिगाड़ पाने के प्रति विवश ही हो। संसद में बोलने का मौका पाकर सांसदों से लेकर केन्द्रीय मंत्री भी इस कदर उत्साहित हो जाते हैं मानो वे आज भी विपक्ष में ही हों। तभी तो विभिन्न मसलों को लेकर संसद में हंगामे का शोर जितना सत्तापक्ष की कुर्सियों से गूंजता है उतनी आवाजें विपक्ष के खेमे से भी नहीं निकलती हैं। इसी प्रकार लोकसभा में मंत्री के बयान पर सवाल-जवाब करने की व्यवस्था व परंपरा नहीं रहने के बावजूद मौजूदा सरकार के मंत्री हर सांसद के सभी सवालों का विस्तार से जवाब देने के लिये हमेशा लालायित दिखते हैं। भले इससे नियम टूटे या परंपरा, मगर आदत नहीं छूटनी चाहिये, हमेशा व हर मसले पर बोलते रहने की। यहां तक कि प्रधानमंत्री भी विपक्षी नेता की मानिंद खुलकर बोलने के लिये इस कदर विख्यात हो गये हैं कि राजनीतिक गलियारे में इन दिनों यह मजाक चल निकला है कि पहले के प्रधानमंत्री थे जो शुरू ही नहीं होते थे और एक यह हैं जो रूकते ही नहीं हैं। खैर, यह तो हुई मजाक की बात जो मजाक है भी और शायद नहीं भी। लेकिन गंभीर बात तो यह है कि जनसंघ के दिनों से ही लगातार विपक्ष में रहने की आदत ने भाजपा के अधिकांश वरिष्ठ-कनिष्ठ नेताओं को ऐसा बना दिया है कि उनसे सत्ताधारियों सरीखे सोच व बर्ताव की झलक भी नहीं मिल रही है। नतीजन निचले स्तर के नेता-कार्यकर्ता अपनी ही सरकार की आलोचना करने से परहेज नहीं बरतते हैं जबकि संगठन को सत्ता हासिल होने जाने के बावजूद शीर्ष नेताओं का कार्यकर्ताओं व समर्थकों के साथ पुराना बर्ताव ही बदस्तूर जारी है और संघ से लेकर संगठन तक से जुड़े लोगों की तमाम अपेक्षाएं विवशता के प्रदर्शन की आड़ में की जा रही उपेक्षा की भेंट चढ़ जा रही हैं। नतीजन, सत्ता, संघ व संगठन की तिकड़ी तिराहे पर आमने-सामने दिख रही है जिसका नकारात्मक परिणाम दिल्ली व बिहार के विधानसभा चुनाव से लेकर गुजरात के स्थानीय निकायों में दिख ही चुका है और हर स्तर पर पुरानी आदतों से ही चिपके रहने का नतीजा आगे भी ऐसा ही सामने आने से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

बुधवार, 2 दिसंबर 2015

‘गले क्या मिले, गले ही पड़ गये’

नवकांत ठाकुर
बशीर बद्र साहब फरमाते हैं कि ‘कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, ये नये मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो।’ यानि तपाक से किसी के भी गले लग जाने की फितरत वालों से जहां आम तौर पर लोग हाथ मिलाना भी मुनासिब नहीं समझते हों वहां अगर कोई गले लगने के बहाने किसी के गले पड़ जाये तो सामने वाले की स्थिति कितनी विचित्र हो सकती है इसकी सबसे बेहतरीन व ताजा मिसाल अरविंद केजरीवाल ही हैं। कहां तो ये यह सोचकर बिहार गये थे कि प्रादेशिक व राष्ट्रीय स्तर पर कायम हो रही गैरभाजपावादी सियासी मोर्चाबंदी में हिस्सेदारी करेंगे, अल्पसंख्यक समुदाय के स्थापित हितैषियों संग मंच साझा करके अपने वोटबैंक का भरोसा बरकरार रखेंगे, सूबाई स्तर पर सहयोगियों की तादाद में इजाफा करके राष्ट्रीय राजनीति में अपना वजूद-वकार मजबूत करेंगे, भाजपा विरोधी अभियान में बोली से सियासी गोली दागनेवाली टोली से मिल रहे अनवरत सहयोग के लिये उसका शुक्रिया अदा करेंगे और दिल्ली की अपनी सरकार को हल्के में नहीं लेने की केन्द्र को नसीहत भी देंगे। यानि अरमान तो बहुत पाले थे केजरीवाल ने लेकिन हुआ यूं कि लालू के साथ मंच पर गलबहियां करके ऐसे फंसे कि ना इधर के बचे ना उधर के रहे। भगवा खेमे ने उस गलबहियां की बड़ी-बड़ी तस्वीरों का बैनर-पोस्टर लगवाकर केजरीवाल की भ्रष्टाचार विरोधी साख पर सवालिया निशान लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस ने भी मौके पर चैका ठोंकते हुए उनकी भ्रष्टाचार विरोधी सियासत को दिखावा साबित करना शुरू कर दिया। रही सही कसर पूरी करते हुए अन्ना आंदोलन के वे पुराने साथी भी जमकर जहर उगलने में जुट गये जिन्हें दिल्ली की सियासत पर केजरीवाल का कब्जा होने के बाद से सिर्फ रूसवाई की हाथ आयी है।  जाहिर है कि अपनी साख पर हो रहे इस चैतरफा हमले का माकूल जवाब तो इन्हें देना ही था। लेकिन जवाब देने की हड़बड़ी में वे यह कहकर और भी ज्यादा गड़बड़ी कर बैठे कि वे तो सिर्फ गैरभाजपाई गठजोड़ के प्रति समर्थन व्यक्त करने बिहार गये थे अलबत्ता लालू ने ही ना सिर्फ उन्हें गले लगा लिया बल्कि सियासी लड़ाई में एकजुटता दिखाने के लिये अपने साथ हाथ भी उठवा लिया जबकि वे तो लालू से हाथ भी नहीं मिलाना चाहते थे। अब ऐसी बात सुनकर इनके प्रति लालू का मन खट्टा होना तो स्वाभाविक ही है। नतीजन इनकी हालत यही हो गयी है कि ‘ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम, ना इधर के रहे ना उधर के रहे।’ इस पर चुटकी लेते हुए अन्ना ने भी कह दिया है कि वह तो अच्छा हुआ कि केजरीवाल से उनका नाता पहले ही टूट गया वर्ना लालू के साथ इनकी गलबहियांवाली तस्वीर से उनकी साख पर भी बट्टा लग जाता। यानि देश की मौजूदा सियासी तस्वीर में एक बार फिर केजरीवाल पूरी तरह अकेले पड़ गये हैं। हालांकि लालू से इनका गले मिलना या लालू का इनके गले पड़ना, बात वही है कि चाकू तरबूज पर गिरे या तरबूज चाकू पर। गलबहियां प्रकरण में नुकसान केजरीवाल का ही होना था जो हुआ भी। हालांकि लालू के साथ गलबहियां की तस्वीर प्रचारित-प्रकाशित होने के कारण उठे तूफान को वे यह कहकर भी रफा-दफा कर सकते थे कि लालू की बिटिया और मुलायम सिंह यादव के पौत्र की शादी में शिरकत करते हुए नरेन्द्र मोदी ने जो शिष्टाचार निभाया वही दस्तूर निभाने के लिये ये भी लालू से गले मिल लिये। लेकिन विरोधियों की चैतरफा घेरेबंदी से बौखलाकर लालू के साथ अपनी वैचारिक, सैद्धांतिक व राजनीतिक दूरी का प्रदर्शन करने के क्रम में इन्होंने ऐसी बात कह दी जिसके नतीजे में हुए नुकसान को तो विध्वंस का नाम देना ही ज्यादा सही होगा। दूसरी ओर लालू ने केजरीवाल के साथ जैसी राजनीति की है वह तो सीधे तौर पर कूटनीतिक साजिश ही मानी जाएगी जिसके तहत दिल्ली में कांग्रेस की फसल काटनेवाले केजरीवाल की सैद्धांतिक व वैचारिक जड़ पर प्रहार करके उन्होंने राहुल गांधी का दिल जीतने की रणनीति बनायी थी। सूत्र बताते हैं कि अपने दोनों बेटों को सूबाई स्तर पर सियासत में स्थापित करने के बाद अब वे लोकसभा चुनाव में गच्चा खा चुकी अपनी बिटिया को कांग्रेस के सहयोग से राष्ट्रीय राजनीति में दाखिल कराने का ख्वाब बुन रहे हैं। जाहिर तौर पर अपनी कूटनीति में लालू पूरी तरह कामयाब रहे हैं जबकि केजरीवाल को इसका भारी नुकसान झेलना पड़ा है। खैर, समग्रता में देखा जाये तो इस पूरे घटनाक्रम से यह तो साबित हो ही गया है कि लगातार दो दफा दिल्ली के मतदाताओं का विश्वास जीतने में कामयाब रहने के बावजूद कूटनीतिक सियासत की शह-मात के खेल में केजरीवाल आज भी पूरी तरह कच्चे ही हैं। बहरहाल लालू से दूरी दिखाने के चक्कर में अपेक्षित व परंपरागत सियासी जुमला उछालने के बजाय सख्त बयान देकर केजरीवाल ने अपने समर्थकों को यह संदेश तो दे ही दिया है कि अगर सियासी तौर पर कभी कोई गलती हो जाये तो उस पर लीपापोती करने के बजाय साफ तौर पर सच को स्वीकारने में कतई हिचक नहीं दिखायी जानी चाहिये। हालांकि ऐसी सियासत से स्वाभाविक तौर पर तात्कालिक नुकसान, परेशानी व जगहंसाई अवश्य झेलनी पड़ती है लेकिन दूरगामी तौर पर इससे ना सिर्फ अपने समर्थकों के विश्वास को बरकरार रखा जा सकता है बल्कि विरोधियों की तमाम साजिशों से बच निकलकर अपनी ठोस छवि की चमक में इजाफा भी किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’     

सोमवार, 23 नवंबर 2015

‘बैठे-बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना’

नवकांत ठाकुर
‘साया बनकर साथ चलेंगे इसके भरोसे मत रहना, अपने हमेशा अपने रहेंगे इसके भरोसे मत रहना, सूरज की मानिंद सफर पर रोज निकलना पड़ता है, बैठे-बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना।’ मौजूदा दौर के सियासी समीकरणों को जहन में रखते हुए देखें तो हस्तीमल हस्ती द्वारा लिखी गयी इस गजल का हर मिसरा कांग्रेस को ही संबोधित किया गया महसूस होता है। वाकई इन दिनों कांग्रेस की हालत बेहद अजीब हो गयी है। कहां तो इसे केन्द्र से लेकर सूबायी स्तर तक पनप रहे सियासी दलों के भाजपा विरोधी महामिलाप के केन्द्र में होना चाहिये था लेकिन स्थिति यह है कि उसे इन महामिलापों की मजबूत नाकेबंदी से हासिल चुनावी सफलता में मामूली सी हिस्सेदारी हासिल करके ही संतुष्ट रह जाने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है। उसमें भी दुर्गति की पराकाष्ठा यह है कि यूपी सरीखे सूबे में जारी महामिलाप की कवायदों में सम्मानजनक साझेदारी के बजाय हासिल हो रहे दुत्कार के जहर को भी चुपचाप बर्दाश्त करने के अलावा उसे कोई दूसरी राह ही नजर नहीं आ रही है। सच पूछा जाये तो संसद से लेकर सड़क तक ही नहीं बल्कि क्षेत्रीय दलों की मजबूत मौजूदगी से महरूम कुछ गिने-चुने सूबों के अलावा तमाम प्रदेशों में कांग्रेस को कमोबेश ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। जिस बिहार में हासिल जीत के दम पर पार्टी में नयी संजीवनी का संचार हुआ है वहां भी अव्वल तो उसे राजद व जदयू के बीच हुई कड़ी सौदेबाजी में बची हुई सीटों का प्रसाद ही चुपचाप सहन करना पड़ा और उसके कोटे की अधिकांश सीटों पर लालू के कितने ‘लाल’ लड़े वह भी सर्वविदित ही है। यहां तक कि चुनाव प्रचार में भी राजद-जदयू के शीर्ष नेतृत्व ने कांग्रेस के साथ निर्धारित दूरी बदस्तूर कायम रखी और नितीश कुमार के शपथग्रहण समारोह को जिस तरह से राष्ट्रीय राजनीति में प्रधानमंत्री पद के नये दावेदार की ताजपोशी का स्वरूप दिया गया उसका खामोश साक्षी बनने के अलावा अगर राहुल गांधी के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था तो इसे राष्ट्रीय राजनीति की उस नयी करवट का संकेत ही माना जाएगा जिसमें कांग्रेस की प्रसंगिकता हाशिये की ओर अग्रसर दिख रही है। बिहार चुनाव में जीत का डंका बजाने के फौरन बाद पहली प्रतिक्रिया में जब लालू ने बनारस आकर नरेन्द्र मोदी के कामकाज के दावों की पोल-पट्टी खोलने का ऐलान किया तो सपा के शीर्ष संचालक परिवार ने छूटते ही यह स्पष्ट कर दिया कि काशी में अपने समधी के स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी। यानि सपा की समस्या किसी अन्य भाजपाविरोधी दल से नहीं है। परेशानी है तो सिर्फ कांग्रेस से ही है क्योंकि उसे बेहतर पता है कि अगर कांग्रेस को दुबारा पनपने का मौका दिया गया तो भविष्य में वह उसकी जमीन पर ही अपना झंडा गाड़ेगी। तभी तो मुलायम ने पूरी सख्ती के साथ यह एलान कर दिया है कि ना तो वे खुद कांग्रेस के साथ कोई राब्ता रखेंगे और ना ही किसी ऐसे के साथ सियासी सहचर्य कायम करेंगे जिसने अर्श की ओर उठने के लिये कांग्रेस को अपना कांधा उपलब्ध कराया हो। खैर, बिहार में तो अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे दलों की तिकड़ी में कांग्रेस को शामिल कर लिया गया जबकि यूपी में भी बहनजी के हाथी की पूंछ पकड़के वैतरणी पार करने का विकल्प उसके लिये खुला हुआ है लेकिन अगले साल होने जा रहे पांच राज्यों के चुनाव में ना तो पश्चिम बंगाल में उसे कोई अपने साथ जोड़ने के लिये तैयार है और ना ही तमिलनाडु या केरल में। यहां तक कि असम में अल्पसंख्यक मतदाताओं का नेतृत्व करनेवाले बदरूद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ से गठजोड़ करने में भी कांग्रेस को कई ऐसे समझौते करने पड़ सकते हैं जिस पर सिर्फ अफसोस ही जताया जा सकता है। यानि सतही तौर पर संसदीय सियासत में भले ही कांग्रेस काफी मजबूत नजर आ रही हो लेकिन अगर वह जमीन पर भाजपा विरोधी ताकतों का गुरूत्व केन्द्र बनने के बजाय अपने वजूद व वकार को पुनर्स्थापित करने के लिये स्थानीय व क्षेत्रीय दलों की कृपा की मंुहताज हो रही है तो निश्चित ही इस मामले की गंभीरता को कम करके आंकना कतई सही नहीं होगा। वह भी तब जबकि भाजपा की राह रोकने के लिये उसने किसी भी दल के साथ गठजोड़ करने का विकल्प पूरी तरह खुला रखा हुआ है। यानि समग्रता में देखा जाये तो अब लड़ाई सिर्फ ऐसे मोर्चे पर नहीं चल रही है जहां विरोधियों के बिखराव व टकराव के बीच महज 32 फीसदी वोटों के दम पर ही संसद में बहुमत जुटा लेनेवाली भाजपा के खिलाफ सब एकजुट हो रहे हैं बल्कि अब भाजपा व नरेन्द्र मोदी का विकल्प नहीं बन पाने के खामियाजे में कांग्रेस को ऐसे ध्रुवीकरण में हिस्सेदारी करनी पड़ रही है जहां उसकी स्थिति अवांक्षित रहबर की दिख रही है। हालांकि सूबायी सियासत में कमजोर निजी पैठ के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक विस्तार, प्रसार व फैलाव के दम पर केन्द्र में मजबूत मौजूदगी तो कांग्रेस की हर हालत में रहेगी बशर्ते राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का कोई नया विकल्प ना उभरे। लेकिन समस्या की जड़ में जाकर जूझने के बजाय प्रादेशिक स्तर पर परजीवी बनकर फलक के पताके का कलेवर बदलने की जद्दोजहद में ही उलझे रहने के नतीजे में भविष्य की चुनौतियों से निपटने में कांग्रेस को कितनी कामयाबी मिल पाएगी यह सवाल तो उठता ही है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

‘सड़क पर ही दिख रहा है संसद का भविष्य’

नवकांत ठाकुर
अगले सप्ताह से शुरू हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र में सरकार की कोशिश तो स्वाभाविक तौर पर यही रहेगी कि महज एक माह से भी कम अर्से के इस सत्र में अधिकतम विधेयकों को पारित करा लिया जाये ताकि मानसून सत्र में घुले-धुले कामकाज की यथासंभव भरपायी की जा सके। दूसरी ओर विपक्ष ने पहले ही यह स्पष्ट कर दिया है कि संसद को सुचारू ढंग से संचालित करने की जिम्मेवारी सरकार की है लिहाजा किन्ही कारणों से सत्र का कामकाज बाधित होने की पूरी जिम्मेवारी सत्तापक्ष की ही होगी। यानि विपक्ष ने संसद के संचालन में सरकार का सहयोग नहीं करने का अपना इरादा पहले ही जता दिया है। लिहाजा जब पूरी जिम्मेवारी सरकार पर ही आ गयी है तो लाजिमी है कि वह विपक्ष को संसद में शांति व सहयोग की सीधी राह पर लाने के लिये हरसंभव हथकंडा अपनाने से कतई गुरेज नहीं करेगी। तभी तो सत्तापक्ष ने साम-दाम-दंड-भेद सरीखी तमाम रणनीतियां अमल में लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। साम-नीति के तहत मान-मानौवल करके समझौते व सहमति की राह निकालने के लिये अरूण जेटली अपनी बिटिया की शादी में आमंत्रित करने के बहाने राहुल गांधी के घर भी गये जबकि दाम-नीति अपनाते हुए भूमि अधिग्रहण विधेयक में मनमाना बदलाव करने की जिद भी छोड़ दी गयी। इसके अलावा दंड-नीति पर अमल करते हुए राहुल पर लगे दोहरी नागरिकता व अघोषित विदेशी बैंकखाता रखने के आरोपों की पड़ताल शुरू कराने के अलावा शीर्ष कांग्रेसी परिवार के इकलौते दामाद राॅबर्ट वाड्रा पर लगे जमीन घोटाले के तमाम आरोपों की परतें भी उधेड़ी जा रही हैं और छह माह के भीतर ही उन्हें सलाखों के पीछे पहुंचा देने की धमकी भी दी जा रही है। साथ ही भेद-नीति के तहत कूटनीतिक वार से फूट डालकर विपक्ष को धराशायी करने के लिये सपा व राकांपा से लेकर अन्नाद्रमुक, बीजद, टीआरएस व तृणमूल कांग्रेस सहित कई छोटे-बड़े दलों को कथित तौर पर इस बात के लिये सहमत कर लिया गया है कि आगामी सत्र के दौरान संसद के कामकाज को बाधित करने के प्रयासों में वे कतई भागीदार ना बनें। यानि समग्रता में देखा जाये तो सत्तापक्ष ने पहले से ही तमाम तिकड़मों को अमल में लाते हुए संसद को बाधित करने के प्रयासों को धता बताने की पूरी तैयारी कर ली है। तभी तो तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों और कांग्रेस व वामपंथी दलों के पूर्वघोषित आक्रामक तेवरों के बावजूद सरकार की ओर से सीना ठोंककर यह विश्वास जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है कि शीतसत्र का हश्र हर्गिज मानसून सत्र सरीखा नहीं होगा और इसमें जीएसटी सरीखे तमाम महत्वाकांक्षी विधेयकों को अवश्य पारित करा लिया जाएगा। दूसरी ओर सरकार की उम्मीदों व कोशिशों को सदन के भीतर हंगामे व शोरशराबे में नाकाम करने की रणनीतियों के तहत विपक्षी ताकतों ने भी अभी से अपनी तमाम योजनाएं सार्वजनिक करने में कोई कोताही नहीं बरती है। इसी सिलसिले में कांग्रेस ने भाजपा की मातृसंस्था कही जानेवाली आरएसएस को अपने सीधे निशाने पर लेते हुए जहां एक ओर उसकी तुलना सिमी सरीखे प्रतिबंधित आतंकी संगठन से कर दी है वहीं दूसरी ओर देश में कथित तौर पर लगातार बढ़ रही असहिष्णुता के मसलों से लेकर सरकार की विदेशनीति, खाद्य पदार्थों की बढ़ती महंगाई व राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वियों के खिलाफ की जा रही दुर्भावनापूर्ण कानूनी कार्रवाई सरीखे मसलों को लेकर सड़क पर संघर्ष का औपचारिक बिगुल बजा दिया है। रहा सवाल सरकार द्वारा विपक्ष को डरा-धमकाकर संसद में सीधी व शांतिपूर्ण राह पर लाने की कोशिशों का तो इसके प्रति भी आक्रमण को ही बचाव के माकूल हथियार के तौर पर आजमाते हुए राहुल गांधी ने बेलाग लहजे में यह एलान कर दिया है कि वे डरनेवालों में से नहीं हैं और उनकी लड़ाई आगे भी जारी रहेगी अलबत्ता अगर सरकार में दम हो तो वह उनके खिलाफ जांच कराके उन्हें जेल में डालने की हिम्मत दिखाए। यानि कांग्रेस ने तो अपनी ओर से आर या पार की लड़ाई का खुला एलान कर दिया है जबकि साम-दाम-दंड-भेद के तमाम शस्त्रास्त्रों को नाकाम होता हुआ देखने के बाद सत्तापक्ष ने भी औपचारिक तौर पर दी गयी प्रतिक्रिया में साफ शब्दों में बता दिया है कि उसे जांच कराने की धमकी ना दी जाये क्योंकि 2जी, कोलगेट, राष्ट्रमंडल खेल व जमीन घोटाले से लेकर अवैध विदेशी बैंकखाते सरीखे मामलों सहित तमाम आरोपों की जांच पहले ही शुरू करा दी गयी है जिसमें जो भी दोषी पाया जाएगा उसे हर्गिज बख्शा नहीं जाएगा। यानि सड़क पर आर-पार की लड़ाई का एलान हो चुका है और देश की सीमाएं लांघकर कांग्रेस ने विश्व बिरादरी को यह संदेश प्रसारित कर दिया है कि मौजूदा सरकार के कार्यकाल में कुछ भी सकारात्मक होने की उम्मीद ना रखी जाये। इससे इतना तो स्पष्ट ही है कि सकारात्मक मसलों पर भी संसद में सरकार को विपक्ष का सहयोग मिलने की अब दूर-दूर तक कोई उम्मीद नहीं है। खैर, इस गतिरोध को तोड़ने के दिखावे में अब विभिन्न स्तरों पर सर्वदलीय बैठकों का दौर शुरू होना तो लाजिमी ही है लेकिन सड़क पर दिख रहे लड़ाई के स्वरूप से संसद के शीतसत्र की जो तस्वीर उभर रही है उससे यह पूरी तरह स्पष्ट है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत देश में लागू संसदीय शासन की मर्यादा, परंपरा व तकाजों के धुर्रे बिखरने का जो दुर्भाग्यपूर्ण सिलसिला मानसून सत्र में शुरू हुआ था वह बदस्तूर जारी ही रहनेवाला है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

‘हुआ है कत्ल तो कातिल भी होगा कोई जरूर’

नवकांत ठाकुर
इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि बिहार में भाजपा की उम्मीदों, अपेक्षाओं, सपनों व अरमानों का कत्ल तो हुआ ही है। जाहिर है कि अगर कत्ल हुआ है तो कोई कातिल भी होगा। ऐसा तो हो नहीं सकता कि बगैर किसी कातिल के ही कत्ल की वारदात हो जाये। ‘नो वन किल्ड जेसिका’ की परिकल्पना सिर्फ वाॅलीवुड ही कर सकता है। असल जिन्दगी में तो यह मुमकिन ही नहीं है। हालांकि इस पूरे मामले को अनजाने में हुई गलती के नतीजे में हुआ हादसा करार देकर भाजपा के शीर्ष रणनीतिकारों ने जिस तरह से इस पूरे अध्याय पर पूर्णविराम लगाने की पहल की है उसका सतही मतलब तो यही है कि पार्टी के शीर्ष संचालकों की नजर में इस पूरी घटना के लिये कोई जिम्मेवार ही नहीं है। लेकिन गहराई से देखा जाये तो पार्टी की शीर्ष नीतिनिर्धारक समिति कही जानेवाली पार्लियामेंट्री बोर्ड ने जिस तरह से सर्वसम्मति से यह स्वीकार किया है कि विरोधी पक्ष के एकजुट हो जाने के नतीजे में उनके वोटों का जिस भारी तादाद में परस्पर हस्तांतरण हुआ वह पार्टी की उम्मीदों के परे था और यही वजह रही कि जिस सूबे में लोकसभा चुनाव में उसे 40 में से 31 सीटें मिली थीं वहां इस दफा तमाम साथियों व सहयोगियों के साथ मिलकर भी विधानसभा की कुल 243 में से महज 58 सीटें ही हासिल हुईं जिसमें उसकी निजी हिस्सेदारी सिर्फ 53 की रही। यानि पार्लियामेंट्री बोर्ड ने भी दबे-ढंके लहजे में यह तो स्वीकार कर ही लिया है कि रणनीतिक स्तर पर काफी बड़ी गलती हुई है जिससे विरोधी खेमे को उम्मीदों से काफी अधिक वोट मिल गया। यानि संगठन के भीतर से निकले औपचारिक स्वरों ने सांसद भोला सिंह की कही उसी बात को प्रमाणिक माना है जिसके मुताबिक बिहार में पार्टी की उम्मीदों का कत्ल नहीं हुआ है बल्कि उसने आत्महत्या की है। लेकिन सवाल फिर वही खड़ा होता है कि अगर पार्टी ने आत्महत्या की है तो उसे ऐसा करने के लिये मजबूर किसने किया। खुशी से खुदकुशी तो कोई करता नहीं है। लिहाजा पार्टी की इस दशा के लिये कोई ना कोई तो जिम्मेवार होगा ही। लेकिन सवाल है कि इस वारदात की सर्वसम्मति से जिम्मेवारी तय कैसे की जाये। बुजुर्ग मार्गदर्शकों की राय में तो कातिल के शिनाख्त का काम उन्हें हर्गिज नहीं सौंपा जाना चाहिये जिन पर कत्ल का इल्जाम लग रहा हो। ऐसे में कातिल की पहचान का काम तो तब शुरू होगा जब पहले ऐसे चेहरों को तलाश लिया जाये जिनकी इस पूरे मामले में रत्ती भर भी भागीदारी ना हो। इस कसौटी पर तो निष्पक्ष पड़ताल में हर चेहरा दागदार ही नजर आ रहा है। जिन शीर्ष संचालकों पर पार्टी की नैया पार लगाने की जिम्मेवारी थी उनसे हुई चुक व गलतियों के बारे में तो ढ़ोल बज ही रहा है लेकिन कप्तान को ही हार के लिये जिम्मेवार साबित करने में जुटे खेमे की भी इस हार में कतई कम भूमिका नहीं रही है। मसलन, ऐन चुनाव से पहले लालकृष्ण आडवाणी द्वारा देश में दोबारा आपातकाल नहीं लगने का भरोसा देने से इनकार किये जाने की बात करें या यशवंत सिन्हा द्वारा बुजुर्गों के पक्ष में मोर्चा खोलते हुए मौजूदा निजाम की फजीहत किये जाने की। अरूण शौरी द्वारा मोदी सरकार को हर मोर्चे पर नाकाम बताये जाने से लेकर शत्रुघ्न सिन्हा द्वारा अपने शुभचिंतकों को भड़काने की कोशिशों को भी सामने रखकर देखा जाये तो मौजूदा निजाम को इस ताजा हार के लिये जिम्मेवार ठहराने की कोशिश करनेवालों की भी कहीं से भी कम जिम्मेवारी नजर नहीं आती है। खैर, समग्रता में देखें तो बिहार की करारी शिकस्त के लिये हर कोई दूसरों पर ही उंगली उठाने में जुटा हुआ है जबकि उसे यह नजर नहीं आ रहा कि उसकी खुद की एक उंगली भले ही किसी अन्य की ओर इशारा कर रही हों मगर शेष तीन उंगलियां उसकी खुद के करतूतों की ही गवाही दे रही हैं। वैसे भी जो शत्रुघ्न सिन्हा पूरे चुनाव के दौरान अपने संसदीय क्षेत्र में भी पार्टी का प्रचार करने के लिये निकलने के बजाय बाकी बतकहियों में मशगूल रहे हों, जो आडवाणी पूरे चुनाव के दौरान एक बार भी पार्टी को यह संदेश ना दे रहे हों कि पार्टी के पक्ष में प्रचार करने के लिये वे भी उत्सुक हैं, जो यशवंत पूरे परिदृश्य से ही लगातार गायब रहे हों, जो मुरली मनोहर जोशी अपने कानपुर के मतदाताओं के लिये भी अदृश्य चल रहे हों, जो शौरी विरोधी खेेमे से भी अधिक हमले करके सरकार व संगठन की साख को मटियामेट करने में जुटे रहे हों वे अगर इस हार के लिये किसी की जिम्मेवारी तय करने की लड़ाई लड़ते दिख रहे हैं तो इस लड़ाई की इमानदारी व नैतिकता पर सवाल खड़ा किये जाने को कैसे गलत कहा जा सकता है। वैसे भी संभव है कि आरक्षण के मसले से लेकर दादरी या पाकिस्तान सरीखे गलत बयानों से भले ही भाजपा से मतदाताओं के एक वर्ग का मोहभंग हुआ हो लेकिन ऐसी गलती करनेवालों द्वारा पार्टी को जीत दिलाने के लिये पूरे एक महीने तक की गयी जी-तोड़ व इमानदार मेहनत की कतई अनदेखी नहीं की जा सकती है। ऐसे में यह कहना ही सही होगा कि कत्ल तो हुआ ही है और इसके कातिल भी हैं लेकिन इसका हिसाब मांगनेवाले पहले अपनी बेगुनाही तो साबित करें। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   

शनिवार, 14 नवंबर 2015

‘जीत जरूरी तो है मगर किस कीमत पर?’

नवकांत ठाकुर
वाकई यह सवाल उठना लाजिमी है कि जीत के लिये जारी जंग में किस हद तक कुर्बानी देना जायज है। हालांकि कहते हैं कि इश्क और जंग में सब जायज होता है। लेकिन जंग में जीत के लिये जायज कुर्बानी पर विचार करने से परहेज बरतने के नतीजे में मुमकिन है कि जीत के बाद भी हार का ही एहसास हो। खास तौर से सियासी जंग की बात करें तो इसमें अगर देश और समाज का हित ही दांव पर लग जाये, समूची दुनियां हमारा माखौल उड़ाना शुरू कर दे और हमारे देश व देशवासियों का हर जगह उपहास होने लगे तो जंग के ऐसे रंग को कैसे जायज कहा जा सकता है? लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वस्थ सियासी जंग की पंरपरा का निर्वाह करने से परहेज बरतने का नतीजा कितना घातक हो सकता है यह बात शायद ही किसी को बताने की आवश्यकता हो। तभी तो अब तक हमारे देश में बदस्तूर इसी परंपरा का निर्वाह होता रहा है कि अपनी जान भले चली जाये मगर देश की आन-बान और शान पर हर्गिज बट्टा ना लगे। मगर शायद इन दिनों अब इस परंपरा के निर्वाह की चिंता किसी को नहीं रह गयी है। तभी तो विदेशी दौरों पर घरेलू सियासी प्रतिद्वन्द्वियों और अपने पूर्ववर्तियों की नीति व नीयत पर निशाना साधने से ना तो प्रधानमंत्री परहेज बरतते हैं और ना ही प्रधानमंत्री की जगहंसाई कराने का कोई भी मौका छोड़ना विपक्ष को गवारा हो रहा है। विश्वमंच पर देश की घरेलू राजनीति के टकराव ने ऐसा माहौल बना दिया है जिससे भारत की गरिमा, संप्रभुता और सम्मान को अब भारी खतरे का सामना करने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है। माना कि देश के भीतर पहली दफा कांग्रेस को ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है जिसने उसके अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है। हर मोर्चे पर उसे मतदाताओं के काफी बड़े वर्ग की विरक्ति का सामना करना पड़ रहा है। यहां तक कि बिहार के चुनाव में भी उसने लंबे अर्से के बाद जो संतोषजनक प्रदर्शन किया है उसे अगर वह अपनी जनस्वीकार्यता का प्रमाण व परिणाम मानने की खुशफहमी पाले तो इसे उसकी नादानी ही मानी जाएगी। ऐसे में स्वाभाविक है कि अभी कांग्रेस को लंबा संघर्ष करना पड़ेगा ताकि अपने दम पर अपने वजूद-वकार को दोबारा नयी बुलंदियों पर पहुंचाते हुए विरोधी पक्ष के प्रति देश के जनमानस में अस्वीकार्यता की जड़ें मजबूत की जा सकें। लेकिन इस लड़ाई में उसे इतना खयाल तो रखना ही पड़ेगा कि उसकी किसी भी हरकत से ना तो देशविरोधी ताकतों को संजीवनी मिले और ना ही भारत की गरिमा व संप्रभुता पर कोई आंच आये। हालांकि देश की सबसे अनुभवी राजनीतिक पार्टी होने के नाते उसने बाकियों के मुकाबले जंग की मर्यादा का बहुत कम मौकों पर ही उल्लंघन किया है लेकिन जिन कुछ मामलों में उसकी ओर से असहिष्णुता का प्रदर्शन किया जा रहा है उसके लिये बाकियों को तो ना चाहते हुए भी कुछ हद तक माफ किया जा सकता है लेकिन कांग्रेस द्वारा ऐसा किये जाने को कतई जायज नहीं कहा जा सकता है। मसलन अगर दादरी के मामले को लेकर आजम खान सरीखे नेता भारत सरकार की कार्यप्रणाली को संयुक्त राष्ट्र संघ के कठघरे में खड़ा करने की पहल करते हैं तो उसे किसी भी नजरिये से उचित नहीं मानेजाने के बावजूद कुछ हद तक उसकी अनदेखी की जा सकती है लेकिन तकरीबन छह दशकों तक देश पर एकछत्र राज करनेवाली कांग्रेस के शीर्ष नेताओं में शुमार होनेवाले सलमान खुर्शीद अगर पाकिस्तान की धरती पर खड़े होकर मुल्क के दुश्मनों की हिमायत व मिजाजपुर्सी करने के क्रम में भारत की विदेशनीति पर प्रहार करें तो इसे कैसे जायज कहा जा सकता है। वह भी तब जब ब्रिटेन की संसद को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री इस बात की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हों कि विश्वग्राम व्यवस्था के मौजूदा दौर में पाकिस्तान को पूरी तरह अलग-थलग कर दिया जाये। ऐसे मौके पर अगर सलमान साहब पाकिस्तान के प्रति भारत सरकार की नीति को गलत बतायें, आतंकवाद के साथ जारी लड़ाई में पाकिस्तान की भूमिका को जायज बताते हुए उसकी सराहना करें और पाकिस्तान के प्रति भारत सरकार की सख्त नीति को अफसोसनाक बतायें तो घरेलू राजनीतिक लड़ाई के इस आयाम को कैसे जायज कहा जा सकता है। इस्लामाबाद में प्रवचन देने के क्रम में सलमान ने तो यहां तक कह दिया कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लगातार अमन, शांति व भाईचारे की ही बात कर रहे हैं अलबत्ता भारत की ओर से उन्हें उचित जवाब नहीं मिल रहा है। जाहिर है कि जब सलमान सरीखे विपक्ष के शीर्ष कद्दावर नेता की ओर से विदेशी धरती पर खड़े होकर इस तरह की बयानबाजी की जाएगी तो इसका घरेलू राजनीति पर भले ही कोई अलग प्रभाव ना पड़े लेकिन विश्व मंच पर इसकी चर्चा भी होगी और देश की छवि पर इसका नकारात्मक असर भी होगा। साथ ही इससे हौसला अफजायी होगी उन भारत विरोधी विदेशी ताकतों की जो हमारेे घरेलू राजनीतिक टकराव की आग में घी डालकर अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने के मौके की तलाश में रहते हैं। खैर, घरेलू राजनीतिक लड़ाई के बीच किसी भी मंच से विरोधी खेमे की हिमायत करना तो बेहद ही मुश्किल है लेकिन देशहित की अनदेखी करके अपने घर की आग में देश विरोधी तत्वों को रोटी सेंकने का मौका देने को कैसे जायज ठहराया जा सकता है? ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  

शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध’

नवकांत ठाकुर
वाकई इन दिनों देश के हालात ऐसे दिख रहे हैं मानो किसी को इस बात की फिक्र ही नहीं है कि उसकी किस हरकत का क्या नतीजा निकलेगा। हर कोई खुद में ही मगन है। हर किसी की नजर में समूचा संसार उससे ही शुरू होकर उस पर ही समाप्त हो जा रहा है। लिहाजा अपने इस संसार में कोई किसी ऐसे को बर्दाश्त करने के लिये तैयार नहीं है जिससे उसकी सोच अलग हो या जिसकी सोच उसकी समझ से बाहर हो। हर कोई अपने डंडे से ही समाज को हांकने के प्रयास में जुटा है। ना कोई किसी की सुनने के लिये तैयार है ना समझने के लिये। हर तरफ ‘असहिष्णुता’ का ही बोलबाला है। लेखक, इतिहासकार और वैज्ञानिक अपना सम्मान लौटा रहे हैं, यह कहकर कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। इस सम्मान वापसी अभियान ने देश के बुद्धिजीवी वर्ग को दो-फाड़ कर दिया है। सियासत तो पहले से ही दो फाड़ है जिसमें एक पक्ष मौजूदा केन्द्र सरकार के साथ है और दूसरा खिलाफ। जो खिलाफ हैं वे इस कदर खिलाफत कर रहे हैं कि ना तो संसद को चलने देना उन्हें गवारा है और ना ही सरकार के किसी काम में सहयोग करना। हालांकि सरकार को सहयोग तो वे भी नहीं कर रहे हैं जिनसे इसकी उम्मीद की जाती है। तभी तो अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी ‘मूडीज’ को औपचारिक तौर पर यह बताने के लिये मजबूर होना पड़ा है अगर केन्द्र सरकार ने अपने खुराफाती साथियों व सहोदरों की हरकतों पर अंकुश नहीं लगाया तो वैश्विक स्तर पर भारत की विश्वसनीयता खतरे में पड़ सकती है। दूसरी ओर सत्तापक्ष को भी विरोधी सुर सुनना गवारा नहीं है। उसकी नजर में जो उसके समर्थक हैं वे ही राष्ट्रवादी हैं, बाकी तमाम पाकिस्तान परस्त। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय भी अगर संसद द्वारा पारित कानून को संविधान की मूल भावना के खिलाफ करार देते हुए उसे निरस्त करने की पहल करे तो सत्तापक्ष की नजर में सुप्रीम कोर्ट की सोच भी ना सिर्फ संदिग्ध बल्कि अस्वीकार्यता की हद तक गलत हो जाती है। खैर, असहिष्णुता का आलम यह है कि समाज का कोई भी तबका इससे अछूता नहीं दिख रहा है। मसलन गौमांस के मामले को लेकर जो विवाद चल रहा है उसमें जहां जिसकी लाठी मजबूत है वहां वह अपनी मनमानी करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। कर्नाटक व केरल में सार्वजनिक तौर पर गौमांस की दावत आयोजित हो रही है तो हिन्दी-पट्टी में गौवंश के मृत शरीर को ठिकाने लगाने के लिये सड़क मार्ग से कहीं बाहर ले जाने में भी जान जोखिम में आ रही है। इसी प्रकार ना तो पाकिस्तानी क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष को बीसीसीआई के दफ्तर में घुसने की इजाजत दी जा रही है और ना ही पाकिस्तानी कलाकारों को मुंबई में अपनी कला का प्रदर्शन करने की। भाषायी स्तर पर असहिष्णुता का आलम यह है कि समूचे संसार में भारत का नाम रौशन करनेवाली मैरीकाॅम के जीवन पर बनी फिल्म को उनके गृह प्रदेश मणिपुर में सिर्फ इसलिये प्रदर्शन की इजाजत नहीं मिल पाती है क्योंकि यह फिल्म हिन्दी भाषा में बनी है। यहां तक कि जब केन्द्रीय गृह मंत्रालय सरकारी कामकाज में हिन्दी को बढ़ावा देने की बात कहता है तो विभिन्न प्रदेशों से उठनेवाले विरोध के सुरों के सामने उसे घुटना टेकने के लिये मजबूर होना पड़ जाता है। असहिष्णुता की चपेट में आने से पहनावा भी नहीं बच पाया है। कहीं महिलाओं को जींस व शाॅट्स पहनने की इजाजत नहीं मिल रही है तो कहीं साड़ी-धोती व कुर्ते-पायजामे पर आपत्ति हो रही है। इसी प्रकार सांप्रदायिक स्तर पर असहिष्णुता का आलम यह है कि अगर गौमांस के कथित विवाद में घर में घुसकर किसी की हत्या कर जाती है तो मौके का मुआयना करने पहुचे केन्द्रीय नेताओं की जुबान से पीडि़त पक्ष के प्रति सांत्वना का एक शब्द भी नहीं निकलता है बल्कि किताबी ज्ञान बघारने के क्रम में वे स्थानीय प्रशासन को चेतावनी भरे लहजे में यह बताने से बाज नहीं आते हैं कि इस मामले में वास्तविक दोषी के अलावा किसी अन्य को छेड़ने की भी गुस्ताखी नहीं होनी चाहिये। इसी प्रकार किसी को मूर्ति विसर्जन के कारण गंगा मैली होती नजर आती है तो किसी को बकरीद के कारण। यहां तक कि कोई जम्मू कश्मीर में गौहत्या प्रतिबंधित किये जाने के खिलाफ सर्वोच्च अदालत में गुहार लगा रहा है तो कोई दीवाली में पटाखा फोड़े जाने के खिलाफ फरियाद कर रहा है। खैर, इस तरह के तमाम मामलों को समग्रता में देखा जाये तो ये सभी विवाद ना तो नये हैं और ना ही अनोखे। फर्क सिर्फ यह है कि पहले विवादित मसलों पर दो-टूक, कट्टर व आक्रामक रूख का मुजाहिरा करनेवाले आटे में नमक के बराबर ही हुआ करते थे जबकि आम जनमानस की सोच विविधता में एकता की भावना का परिचय देनेवाली सहिष्णुता, सामंजस्य व संतुलन की रहती थी। लेकिन इन दिनों स्थिति पूरी तरह उलट हो चली है और आटे की तादादवाले नमक बराबर बच गये हैं। लेकिन तादाद में कमी का कतई यह मतलब नहीं है कि इस हालात को सुधारने व अपने हिस्से के हिन्दुस्तान को अपने तरीके से बचाने व संवारने से उन्हें बचने का मौका मिल गया है। अलबत्ता रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में कहें तो, ‘समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध।’ ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’     

शनिवार, 31 अक्तूबर 2015



‘दूसरे की फतह के लिये तीसरों का मोर्चा’

नवकांत ठाकुर
अपने फायदे के लिये कोई दूसरों से लड़े तो इसमें अनोखा क्या है। मजा तो तब है जब दूसरे के फायदे के लिये तीसरों के बीच जंग छिड़े। दूसरे के फायदे के लिये जब कोई तीसरा पक्ष मोर्चा खोलता है तो वह चर्चा का विषय बनता ही है। दूसरे के लिये किसी तीसरे द्वारा मोर्चा खोले जाने की कहानी कितनी दिलचस्प होती है इसका सहज अंदाजा रामायण की लोकप्रियता से लगाया जा सकता है जिसमें दूसरे की पत्नी के लिये तीसरे से लोहा लेनेवाले हनुमान, जटायु व सम्पाती सरीखे किरदारों की कहानी भी है और सुग्रीव को राजपाट दिलाने के लिये नाहक ही बालि का वध कर देनेवाले राम की भी गाथा है। यहां तक कि दूसरे के साथ हो रहे अन्याय के लिये अपने कुल खानदान का विनाश करा देने के पीछे विभीषण का इसमें कोई निजी स्वार्थ रहा हो ऐसी आशंका आज तक किसी ने भी नहीं जतायी है। ऐसा ही मामला महाभारत का भी है जिसमें दूसरे को उसका हक दिलाने के लिये तीसरे पक्ष के समूल नाश में अगर श्रीकृष्ण सहायक नहीं बनते तो शायद यह लड़ाई होती ही नहीं। कहने का तात्पर्य यह कि जब भी किसी दूसरे के हक में कोई तीसरा पक्ष मोर्चा खोलने की पहल करता है तो वह मामला लोगों की दिलचस्पी के केन्द्र में आ ही जाता है। तभी तो इन दिनों प्रियंका को कांग्रेस की बागडोर दिलाने के लिये एमएल फोतेदार द्वारा लिखी किताब ‘द चिनार लिव्स’ के सार्वजनिक होने का भी बेसब्री से इंतजार हो रहा है और राहुल गाधी को कांग्रेस की कमान दिलाने के लिये दिग्विजय सिंह द्वारा खोला गया मोर्चा भी दिलचस्पी का केन्द्र बना हुआ है। इसमें दिलचस्प बात यह है कि फोतेदार के दावे को सही मानते हुए कांग्रेस ने स्वर्गीय इंदिरा गांधी की इच्छा को पूरा करने के क्रम में प्रियंका को संगठन की बागडोर सौंप भी दी तो इससे बाकियों का भले जो भी नफा-नुकसान हो लेकिन फोतेदार को तो इससे कतई कोई फायदा नहीं होना है। वैसे भी फोतेदार की अब कोई फायदा लेने की उम्र भी नहीं बची है। काफी हद तक ऐसा ही मामला दिग्गी राजा का भी है जो राहुल को पार्टी की कमान दिलाने के लिये सांगठनिक व सार्वजनिक तौर लंबे समय से लगातार मोर्चा खोले हुए हैं। हालांकि उनका मोर्चा अब तक संगठन में राहुल के नाम पर सर्वसम्मति बनाने व राहुल विरोधियों को सामने आने के लिये उकसाने के अलावा ‘मैया’ पर ‘भैया’ को बड़ी जिम्मेवारी देने का दबाव बनाने में ही जुटा हुआ था। लेकिन जब से फोतेदार ने कांग्रेस के लिये राहुल को अस्वीकार्य करार देने के क्रम में राहुल के पक्ष में मोर्चा खोलनेवालों को सोनिया गांधी के चापलूस की संज्ञा से नवाजते हुए यह खुलासा किया है कि इंदिराजी प्रियंका में ही अपनी छवि देखती थीं और उन्हें ही परिवार की सियासी विरासत सौंपने के पक्ष में थीं, तब से दिग्विजय की बेचैनी बुरी तरह बढ़ गयी है। अब फोतेदार के जवाब में उन्होंने बेहद ही आक्रामक मोर्चा खोलते हुए यहां तक कह दिया है कि अध्यक्ष वही बनेगा जिसे सोनिया चाहेंगी। यानि ताजा तस्वीर के तहत अब राहुल और प्रियंका के पक्ष-प्रतिपक्ष में दिग्विजय और फोतेदार आमने-सामने आ गये हैं। वैसे भी पार्टी में ना तो राहुल के समर्थकों की कोई कमी है और ना ही प्रियंका में ही इंदिरा की छवि देखनेवालों की। लिहाजा ‘भाई-बहन’ के हित में मोर्चा खोलनेवाले तीसरों का टकराव आगे क्या स्वरूप लेगा यह कहना तो अभी मुश्किल है लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती है कि दूसरे के हित में जिन तीसरों ने मोर्चा खोलने की पहल की है उनको निजी तौर पर शायद ही कोई फायदा मिल सके। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि सियासत में अपने नुकसान की भरपाई करने के लिये दूसरे के कांधे पर बंदूक रखकर तीसरे को निशाना बनाने की परंपरा हमेशा से चली आ रही है। तभी तो भाजपा में भी जब यशवंत व शत्रुघ्न सरीखे लोगों को अपने नुकसान की भड़ास निकालनी होती है तो वे अपनी लड़ाई खुद लड़ने के बजाय लालकृष्ण आडवाणी सरीखे नेताओं के हित में पार्टी के मौजूदा निजाम पर चढ़ाई करने से भी परहेज नहीं बरतते हैं। यानि मामला यही दिखता है कि वे दूसरे के फायदे के लिये तीसरे से लड़ाई लड़ रहे हैं जिसमें उनका अपना कोई लोभ-लाभ नहीं छिपा है। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि ‘कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त, सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया।’ लिहाजा गहराई में उतर कर देखा जाये तो दूसरे के पक्ष में लड़नेवाले तीसरे भी अक्सर निष्पक्ष नहीं होते हैं। इस लड़ाई में उनका भी लोभ-लाभ छिपा ही रहता है। भले वह दिखे या ना दिखे। तभी तो प्रियंका के पक्ष में सोनिया के खिलाफ फोतेदार की वह टीस निकल रही है जिसके तहत मौजूदा दौर में उन्हें हाशिये पर रहने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है और दिग्विजय की वह चाहत भी सर्वविदित ही है जिसके तहत वे राहुल को आगे लाने की आड़ में अपनी छवि ‘किंग मेकर’ के तौर पर पुख्ता करना चाहते हैं। खैर, दूसरे के पक्ष में तीसरों की लड़ाई की कहानियों के उस पक्ष की अक्सर अनदेखी कर दी जाती है जिसमें लड़ाई का मुख्य किरदार अक्सर रामायण की सीता की मानिंद आखिरकार खुद को ठगा हुआ ही महसूस करता है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ 

सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

‘काश जनता को दे सुनाई, सफाई और दुहाई’

नवकांत ठाकुर
अपने चरम की ओर अग्रसर हो रहे बिहार के चुनाव की ताजा तस्वीर का सबसे अनोखा पहलू है सफाई और दुहाई का। मान्यता यही है कि रक्षात्मक अवस्था को अंगीकार कर लेनेवाले खेमे से ही सफाई और दुहाई का स्वर सबसे अधिक मुखर होकर निकलता है। लेकिन बिहार में सफाई और दुहाई भी सबसे अधिक उसी भगवा खेमे से निकल रही है जो अति आक्रामक तेवर और कलेवर के साथ पूरे चुनाव अभियान में पिला हुआ है। एक ओर तो यह खेमा ऐसी अति आक्रामकता का परिचय दे रहा है कि बिहार में उसे जीत नसीब नहीं हुई तो मानो अनर्थ हो जाएगा। तभी तो इस खेमे के चारों घटक दलों के राष्ट्रीय अध्यक्षों ने अपने पूरे राष्ट्रीय संगठन, लाव-लश्कर व दल-बल के साथ पिछले एक महीने से पटना में ही अपना डेरा जमाया हुआ है और पूरा चुनाव निपटने तक वे सभी वहीं डटे रहनेवाले हैं। यहां तक कि प्रधानमंत्री से लेकर तमाम राजग शासित सूबों के मुख्यमंत्रियों को ही नहीं बल्कि केन्द्र सरकार के भी तमाम शीर्ष संचालकों व मंत्रियों से लेकर सांसदों को भी बिहार में पूरी तरह झोंक दिया गया है। रही सही कसर पूरी करने के लिये सिनेमाई सितारों को भी जमीन पर उतारने में कोताही नहीं बरती जा रही है। आलम यह है कि दिल्ली के सियासी गलियारों में सत्ता पक्ष इस कदर नदारद दिख रहा है मानों राष्ट्रीय राजनीति की ही नहीं बल्कि देश की राजनीतिक राजधानी की भी विस्तारित शाखा पटना में स्थापित हो गयी हो। भगवा खेमे की ओर से ऐसी आक्रामकता का मुजाहिरा किया जा रहा है कि तमाम सियासी गतिविधियां बिहार से शुरू होकर बिहार पर समाप्त हो जा रही हैं। बिहार ही ओढ़ना, बिहार ही बिछाना। बिहार ही सुनना, बिहार ही सुनाना। बिहार से बाहर कुछ दिख ही नहीं रहा। ऐसे में कायदे से तो विरोधी पक्ष की बोलती बंद हो जानी चाहिये थी। उसकी बातें नक्कारखाने में बजनेवाली तूती की मानिंद गुम होकर रह जानी चाहिये थी। उसकी बातों पर तो किसी का कान या ध्यान टिकना ही नहीं चाहिये था। लेकिन हो रहा है बिल्कुल उल्टा। सवाल उठा रहे हैं विरोधी और जवाब देने में गड़बड़ हो रही है भगवा खेमे को। पूरी ऊर्जा सफाई और दुहाई देने में ही खप जा रही है। हालांकि चुनाव अभियान की शुरूआत में तो राजग विरोधी महागठबंधन ही सफाई पेश करता दिख रहा था। लेकिन यह स्थिति तब तक थी जब तक आरोप-प्रत्यारोपों की जुबानी गेंदबाजी विकास और सुशासन के पिच पर हो रही थी। शुरूआती कुछ ओवरों के बाद जैसे ही पिच का मिजाज बदला और विकास व सुशासन की नमी सूखने के बाद मर्यादा की परत टूटते ही निजी आक्षेपों के अलावा जातिगत व सांप्रदायिक सियासत की धूल उड़नी आरंभ हुई वैसे ही सफाई व दुहाई की रक्षात्मक बैटिंग करके अपना विकेट बचाये रखना भगवा खेमे की मजबूरी बनती चली गयी। आखिरकार नौबत यहां तक आ पहुंची है कि महंगाई का मसला उठने पर भी सफाई आती है भगवा खेमे से कि नितीश सरकार की नीतियों के कारण ही दाल महंगी हुई है। दुहाई यह कि केन्द्र करे भी तो क्या करे। लेकिन लगे हाथों जब नहले पर दहले के तौर पर पूछ लिया जाता है कि बाकी सूबों में भी दाल महंगी क्यों है तो  समूचा भगवा खेमा सारा काम छोड़कर बस सफाई और दुहाई देने में जुट जाता है। मसला कुछ भी क्यों ना हो, सफाई और दुहाई भगवा खेमे से ही सुनाई देती है। आरक्षण पर संघ प्रमुख के बयान से उपजे विवाद पर सफाई, प्रधानमंत्री के डीएनएवाले बयान पर सफाई, केन्द्रीय मंत्री द्वारा दलित की तुलना कुत्ते से किये जाने के विवाद पर सफाई, सूबे में मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित नहीं करने के मसले पर सफाई, पटना में प्रधानमंत्री व पार्टी अध्यक्ष की होर्डिंग हटाये जाने पर सफाई, प्रधानमंत्री की रैलियों में कटौती किये जाने पर सफाई, गौमांस के मसले पर अनवरत जारी बतकहियों पर सफाई, गैरमराठी भाषियों के प्रति महाराष्ट्र सरकार की नीतियों पर सफाई, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास करने के इल्जामों पर सफाई, भाजपाशासित राज्यों में मौजूद कमियों व खामियों पर सफाई, कालेधन के सवाल पर सफाई, हरित व गुलाबी क्रांति के बवाल पर सफाई। मौजूदा दौर की समस्याओं पर सफाई, अच्छे दिन के वायदों पर सफाई। सत्ता के संचालन की रीति पर सफाई, कथित विफल विदेशनीति पर सफाई। हर बात पर दुहाई, बात बात पर सफाई। अब तो हालत यह हो चली है कि भगवा खेमे से निकलनेवाली अधिकांश बातें दुहाई से आरंभ होकर सफाई पर ही समाप्त हो रही हैं। लेकिन मसला यह है कि अभी तो सूबे की महज एक तिहाई सीटों पर ही मतदान पूरा हुआ है, दो-तिहाई सीटों की अग्निपरीक्षा बाकी ही है। तीन चरणों का मतदान बाकी है। यानि अभी तो असली काम बाकी है। सीमांचल-मिथिलांचल में मोदी लहर की निष्क्रियता की चुनौती से निपटना है। दलित वोटों के अपने ठेकेदारों की अहम की लड़ाई को सुलटाना है। जनता को विरोधियों के खिलाफ भड़काना है। बिहार में परिवर्तन के लिये जनोन्माद पनपाना है। अपनी जरूरत जनता को जतानी है, विरोधियों की कमियां व खामियां लोगों को बतानी है। जाहिर है कि चुनाव अभियान के असली चरम का दौर अभी बाकी ही है। ऐसे में सफाई और दुहाई में उलझने के बजाय विरोधियों पर पूरी ऊर्जा के साथ चढ़ाई करने में बरती जा रही कोताही का नतीजा बेहद नकारात्मक भी साबित हो सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

‘पिता की प्रतिष्ठा में चार चांद लगाने की चुनौती’

नवकांत ठाकुर
पश्चिम चंपारण के रामनगर में जब कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी और लालू यादव के लाडले तेजस्वी यादव ने मंच साझा किया तो एकबारगी बिहार विधानसभा चुनाव की बहुआयामी तस्वीर का वह पहलू नमूंदार हो गया जिसके तहत विरासत की सियासत को आगे ले जाते हुए पिता की प्रतिष्ठा में चार चांद लगाने की चुनौती इन जैसे युवाओं के कांधे पर आ पड़ी है। हालांकि राजनीति में वंशवाद को बढ़ावा देना कितना उचित है या इसे कौन किस हद तक आगे बढ़ा रहा है इस मसले पर ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तर्ज पर जितना कहा या सुना जाये वह कम ही है। लिहाजा फिलहाल इस विषय को छेड़ने से परहेज बरतते हुए तटस्थ भाव से बिना कोई पूर्वाग्रह पाले अगर बिहार की मौजूदा चुनावी तस्वीर का अवलोकन किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह चुनाव सिर्फ सत्ता पर अधिपत्य स्थापित करने के लिये नहीं हो रहा है। इसके और भी कई आयाम हैं। कई और भी पहलू हैं। जिसमें एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इस चुनाव के माध्यम से सूबे की सियासत में पीढि़यों का निर्णायक परिवर्तन भी होना है। खास तौर से बिहार की सियासत में अब तक शीर्ष पर काबिज रहे चेहरों ने अपनी राजनीतिक विरासत अपने उत्तराधिकारियों को हस्तांतरित करने के लिये इस चुनाव को चुनने की जो पहल की है उसके नतीजे में इस बार की चुनावी जंग ने बेहद दिलचस्प रूख अख्तियार कर लिया है। सूबे की सत्ता पर तकरीबन डेढ़ दशक तक एकछत्र राज करनेवाले राजद सुप्रीमो लालू यादव से लेकर सूबे के सबसे ताकतवर दलित नेता व लोजपा के मुखिया रामविलास पासवान ही नहीं बल्कि सतह से शिखर का सफर तय करते हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पर अपना कब्जा जमा चुके हम के संस्थापक जीतनराम मांझी ने भी इस बार के चुनाव में ही अपनी सियासी विरासत युवा पीढ़ी के हवाले करने की दिली ख्वाहिश का खुलकर मुजाहिरा करने में कोई संकोच नहीं किया है। इसके अलावा राष्ट्रीय राजनीति में खुद को स्थापित करते हुए परिवार की राजनीतिक विरासत को संभालने की अपनी दक्षता व सक्षमता को प्रमाणित करने लिये राहुल गांधी ने भी कहीं ना कहीं बिहार के मौजूदा चुनाव को ही चुनना बेहतर समझा है। हालांकि हकीकत यही है कि किसी भी चुनाव की तरह इस बार भी तकरीबन सभी राजनीतिक दलों में स्थापित नेताओं के भाई-भतीजों व बाल-बच्चों की बहार छायी हुई है लेकिन गौर से देखा जाये तो इस बार दिलचस्पी का केन्द्र सोनिया, लालू, पासवान व मांझी के बच्चे ही हैं जिनके सामने खुद को साबित व स्थापित करते हुए अपने वंश की विरासत में चार चांद लगाने की चुनौती भी है। इसमें पासवान के सांसद पुत्र चिराग ने लोकसभा चुनाव में ही पिता की छत्रछाया में रहते हुए अपनी पार्टी को सही दिशा देकर खुद को साबित व लोजपा को दोबारा स्थापित करने में कामयाबी हासिल कर ली है। वह चिराग का ही दबाव था जिसे स्वीकार करते हुए पासवान ने अपनी मृतप्राय हो चुकी पार्टी को राजग के साथ जोड़ा और नतीजन मोदी लहर पर सवार होकर सूबे की छह लोकसभा सीटों पर अप्रत्याशित जीत दर्ज कराने में कामयाबी हासिल की। लेकिन वह दौर हवा के रूख को भांपने का था जिसमें चिराग पूरी तरह सफल रहे। लेकिन इस बार चुनौती है आर पार की लड़ाई में सूबे की महज सोलह फीसदी सीटों पर लड़ते हुए सिरमौर बनने की। जाहिर है कि इस चुनौती को सफलतापूर्वक पार करने में अगर चिराग कामयाब हो गये तो ना सिर्फ लोजपा की बागडोर पूरी तरह उनके हाथों में आ जाएगी बल्कि पिता की प्रतिष्ठा में चार चांद लगाते हुए खुद को साबित व स्थापित करने में भी वे निर्णायक सफलता हासिल कर लेंगे। इसी प्रकार राहुल गांधी ने इस बार भी पार्टी के अध्यक्ष पद की जिम्मेवारी उठाने से परहेज बरतते हुए जिस तरह से बिहार के चुनावी रण की कमान अपने हाथों में ली है उससे एक बात तो साफ है कि जब तक अपने दम पर वे कोई बड़ा जमीनी मोर्चा फतह नहीं कर लेते तब तक वे पार्टी को नेतृत्व देने के लिये आगे नहीं आना चाह रहे हैं। ये काफी हद तक ऐसा ही है जैसे लालू ने अपने तेजस्वी को जमीनी मोर्चा फतह करने के लिये अग्रिम मोर्चे पर तैनात कर दिया है। अगर फतह हुई तो ना सिर्फ निर्विरोध तौर पर राजद उन्हें सहर्ष अपना मुखिया स्वीकार कर लेगी बल्कि सूबे में धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ की सरकार बनने की सूरत में उपमुख्यमंत्री पद पर उनकी ताजपोशी भी तय ही है। इसके अलावा लोगों की नजरें मांझी के बेटे संतोष सुमन पर भी टिकी हुई हैं जिन्हें बड़ी खामोशी के साथ इस बार सियासत में आगे बढ़ने का मौका मुहैया कराया गया है। जाहिर तौर पर मांझी ने अपना पूरा जीवन लगाकर अपनी जो राजनीतिक विरासत खड़ी की है उसे उम्र के चैथेपन में वे अपने उत्तराधिकारी के हवाले करना चाह ही रहे हैं। लेकिन मसला है कि पहले उनके बेटे को जनता की स्वीकार्यता मिले और उसी आधार पर पार्टी में उसके कद को विस्तार दिया जाये। यानि समग्रता में देखें तो इस बार दांव पर सिर्फ सूबे की सत्ता ही नहीं है, विरासत की सियासत को संभालने की दक्षता, सक्षमता व स्वीकार्यता साबित करने की चुनौती भी है जिसमें सफलता या असफलता का नतीजा निश्चित तौर पर बेहद दूरगामी व निर्णायक साबित होनेवाला है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ 

सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

‘भीड़ के सामने दांव पर इंसानियत’

नवकांत ठाकुर
‘भीड़ तमाशा करे या भीड़ तमाशायी हो, दांव पर हर हाल में इंसानियत ही होती है।’ वाकई भीड़ का मनोविज्ञान अलग ही होता है। कायदे से तो इंसानों की भीड़ के जुटान में इंसानियत की भावना का उफान दिखना चाहिये। लेकिन आम तौर पर ऐसा होता नहीं है। इंसान जब भीड़ का हिस्सा बन जाये तो अक्सर उसके भीतर का इंसान गायब हो जाता है। उस पर हावी हो जाता है हैवान जिसके वशीभूत होकर वह जो ना कर गुजरे वह कम। अगर ऐसा नहीं होता तो दादरी के बिसराड़ा गांव में महज एक अफवाह को सुनकर इकट्ठा हुई भीड़ अधेड़ पिता व उसके युवा पुत्र को इस धराधाम से रूखसत करने पर हर्गिज उतारू नहीं होती। गनीमत रही कि जिस्म का हर पुर्जा तुड़वा लेने के बाद भी पुत्र के जिस्मानी पिंजड़े ने प्राण-पखेरू को आजाद नहीं होने दिया। लेकिन पिता का जीवन भीड़ की बलि चढ़ गया। अब ऐसी भीड़ को इंसानों का जुटान कहें भी तो कैसे? शर्मनाक यह है कि जो लोग भीड़ का हिस्सा नहीं थे वे भी अब इस पूरे मामले को जाति, मजहब व खान-पान सरीखे मसलों से जोड़कर अपनी अंदरूनी पाशविकता का मुजाहिरा करने से पीछे नहीं हट रहे हैं। सतही तौर पर तो किसी को कोई सही लग सकता है और दूसरे को कोई और। लेकिन गहराई में झांकें तो भीड़ का तांडव समाप्त होने के बाद के पूरे घटनाक्रम में कोई ऐसा नहीं है जिसे दूध का धुला या पाक-साफ कहा जा सके। पीडि़त परिवार के लिये कुछ लोग हमदर्द बनकर खड़े हो गये हैं तो कुछ की हमदर्दी भीड़ के साथ जुड़ गयी है। दूसरी ओर जिस पुलिस प्रशासन पर भरोसा करके हमारा समाज चैन की नींद सोना चाहता है उसकी सोच-समझ का तो कहना ही क्या। उसकी पहली कोशिश तो पीडि़त पक्ष के भीतर व्याप्त हुई असुरक्षा की भावना को दूर करने की होनी चाहिये थी लेकिन उसने सबसे पहले यह मालूम करना निहायत आवश्यक समझा कि जिस अफवाह को सच मानकर भीड़ ने हैवानियत का तांडव किया उसके पीछे की सच्चाई क्या है। लिहाजा पुलिस ने पहला काम किया पीडि़त के खाने की जांच कराने का। वह तो गनीमत रही कि जिस भोजन को ग्रहण करने के इल्जाम में पीडि़त पक्ष को भीड़ का कोपभाजन बनना पड़ा वह बात जांच में सिरे से गलत पायी गयी। वर्ना अगर अफवाह सच साबित हो जाती तो पता नहीं पीडि़त पक्ष को ही अपराधी साबित करनेवालों का सैलाब भी आ सकता था। खैर, मसला यह है कि क्या किसी को केवल इस बात के लिये हलाक किया जा सकता है कि वह ऐसी चीज क्यों खा रहा है जो उसके मजहब में तो हलाल है लेकिन भीड़ का मजहब उसे हराम मान रहा है? क्या समाज में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का राज कायम होगा और गरीब की गाय कोई भी हांक ले जाये? फिर क्या जरूरत है कानून की या संविधान की। सरकार की या प्रशासन की। ऐसे में तो जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी दावेदारी। जहां जिस समुदाय की तादाद अधिक होगी वह किसी अन्य मजहब को माननेवालों पर भी अपनी सोच थोपने के लिये स्वतंत्र होगा। देश के किसी हिस्से में दुधारू मवेशी को काट कर खाना गुनाह माना जाएगा तो किसी अन्य हिस्से में मैला खानेवाले पशु को मारकर खानेवालों की खैर नहीं होगी। कहीं शाकाहारियों की भीड़ तांडव मचाएगी तो कहीं मांसाहारियों के दबाव में कंठी-माला का विसर्जन करना मजबूरी बन जाएगी। आखिर यह समाज किस दिशा में जा रहा है इसकी कभी तो फिक्र करनी ही होगी। क्या हम किसी को पीने-खाने, पहनने-ओढ़ने और अपने मजहब के मुताबिक आचरण करने की आजादी भी नहीं दे सकते। सवाल बहुत हैं लेकिन जवाब नदारद है। जवाब तो तब मिले जब कोई अपनी जवाबदेही लेना गवारा करे। यहां तो हर कोई एक-दूसरे को आरोपों व इल्जामों में लपेट कर खुद को पाक-साफ साबित करने में जुटा हुआ है। पुलिस की मानें तो अचानक उठी अफवाह के कारण शुरू हुई हैवानियत के लिये तो समूचा समाज जिम्मेवार है। प्रदेश सरकार की मानें तो पूरा किया धरा केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा का है जो समाज का माहौल बिगाड़कर अपनी राजनीति चमकाने में जुटी हुई है। भाजपा की मानें तो कानून व्यवस्था प्रदेश की सरकार के हाथों में है लिहाजा इस पूरे मामले की सीधी जिम्मेवारी उसकी ही है। इसके अलावा कांग्रेस व एएपी से लेकर बसपा व एमआईएम सरीखी तमाम तीसरी पार्टियां भाजपा व सपा को बराबर का दोषी मान रही हैं। उस पर तुर्रा ये कि पीडि़त पक्ष की मानें तो हमलावर जिस मजहब के थे उसी कौम के लोगों ने बचाने का भी काम किया, फिर किसे दोषी कहें और किसे बेगुनाह। यानि, हर किसी का एक बयान है और हर किसी की एक प्रतिक्रिया है। सबका अपना-अपना नजरिया है जिसमें केवल वही पाक-साफ व बेगुनाह है। लेकिन हकीकत यही है कि इस हैवानियत के हम्माम में सभी एक समान नंगे हैं और इंसानियत की हत्या में बराबर के भागीदार हैं। हर किसी को अपनी चिंता है। कोई अपना वोटवैंक बचाने में जुटा है तो कोई नयी जमीन तलाशने में। कोई अपनी नौकरी बचाने में जुटा है तो कोई अपना चेहरा। इस पूरी आपाधापी में जब कोई अपनी गलती मानना तो दूर बल्कि महसूस करना भी गवारा नहीं कर रहा हो तो ऐसे में खुद को कैसे तसल्ली दी जाये कि अब आगे से ऐसा नहीं होगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

‘मित्रता की मिठास में अविश्वास का जहर’

नवकांत ठाकुर
यूं तो हर रिश्ते की बुनियाद विश्वास पर ही टिकी होती है लेकिन मित्रता के मामले में विश्वास की भूमिका कुछ अधिक ही होती है। खून के रिश्तों में कितनी ही दुश्मनी क्यों ना हो जाये लेकिन रक्तसंबंधों में बदलाव नहीं हो सकता। जिसके साथ जो संबंध है वह हमेशा रहेगा ही। भले रिश्ते में मिठास रहे या खटास। लेकिन मित्रता का रिश्ता सिर्फ विश्वास पर ही टिका होता है। विश्वास जितना मजबूत होगा मित्रता भी उतनी ही अटूट होगी। विश्वास की बुनियाद हिलते ही यह रिश्ता सिरे से समाप्त हो जाता है। इन दिनों विश्वास का यही संकट दिख रहा है भारत और नेपाल की मित्रता में। कहने को तो दोनों अलग देश हैं लेकिन बेटी-रोटी का है। भारत से लगती नेपाल की 1700 किलोमीटर लंबी सरहद के दोनों ओर के बाशिंदों को आज तक शायद ही यह महसूस हुआ हो कि इस पार या उस पार में कोई अंतर है। वैसे भी नेपाल को दुनिया के साथ को जोड़ने की कड़ी भी भारत ही है। नेपाल को नमक-तेल से लेकर तमाम जरूरी सामानों की उपलब्धता भारत से ही होती है। भारत में सरकार किसी भी दल या गठबंधन की क्यों ना हो लेकिन नेपाल व नेपालियों को हमेशा हर मामले में अपने अटूट हिस्से सरीखा ही सम्मान व स्थान दिया गया। लेकिन लगता है कि हमारी इस मित्रता पर किसी की बुरी नजर पड़ गयी है। तभी तो नेपाल के संविधान निर्माताओं ने वहां कुछ ऐसी व्यवस्थाएं लागू करने की पहल कर दी है जिसके नतीजे में हर उस नेपाली के हक व अख्तियार में कटौती हो गयी है जिसने भारत के साथ रोटी-बेटी का राब्ता कायम किया हुआ है। हालांकि भारत ने आज तक ना तो कभी नेपाल की संप्रभुता या अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप करने की कोशिश की है और ना ही भारत की नीतियां ऐसा करने की इजाजत देती हैं। बल्कि भारत तो हमेशा ही नेपाल की एकता, अखंडता व संप्रभुता के रक्षक के तौर पर खड़ा रहा है। लेकिन मसला है कि जब भारत से बहू ब्याह कर लाने पर उसे अगर सात साल तक नागरिकता देने से भी नेपाल का नया संविधान इनकार कर रहा हो तो उसे बेहतरीन व्यवस्था बताकर उसका स्वागत कैसे किया जा सकता है। तभी तो भारत ने नेपाल की इस नयी पहल का सिर्फ संज्ञान लेते हुए इस पर कोई भी प्रतिक्रिया देने से परहेज बरत लिया है। लेकिन भारत की यह चुप्पी भी नेपाल को सहन नहीं हो रही। वह इसे नकारात्मक समझ रहा है। अब उसे कौन समझाये कि उसके अंदरूनी मामलों को अच्छा या बुरा कहनेवाले हम होते ही कौन हैं। अगर उसने इस पर सलाह मांगी होती तो शायद परिस्थितियां ऐसी नहीं होती कि पूरे तराई इलाके में संविधान को जलाया जा रहा होता या तमाम मैदानी बाशिंदे आंदोलन पर उतारू होते। लेकिन नेपाल के नये संविधान के निर्माण में भारत की भूमिका सिर्फ इतनी ही है कि उसे लोकतांत्रिक व्यवस्था व एक लिखित संविधान लागू करने के लिये इस तरफ से हमेशा प्रोत्साहित किया जाता रहा है। खैर, नेपाल के नेताओं को पता नहीं मित्रता की मिठास का जायका बदलने के लिये चीन का कौन सा स्वाद रास आ गया है कि वे इन दिनों अपने दोनों बड़े पड़ोसियों के साथ बराबर का संतुलन साधने का राग आलापने लगे हैं। जाहिर तौर पर यह चीन की ही खुराफात है कि उसने नेपाल में यह भ्रम फैला दिया है कि नये संविधान का विरोध करने के लिये तराई के मधेसियों को भारत ही भड़का रहा है और मधेसी आंदोलन के कारण ठप्प पड़ी ट्रकों की आवाजाही वास्तव में भारत द्वारा की गयी आर्थिक नाकेबंदी का नतीजा है। भारत के प्रति फैलाये गये भ्रम का ही नतीजा है कि नेपाल में 42 भारतीय टीवी चैनलों का प्रसारण प्रतिबंधित कर दिया गया है और सिनेमाघरों में हिन्दी फिल्म दिखाने पर भी रोक लगायी जा रही है। इसके पीछे वजह बतायी जा रही है भारत की उस कथित नीति को जिससे नेपाल की एकता, अखंडता व संप्रभुता को खतरा उत्पन्न हो रहा है। अब इस बेसिर-पैर की गलतफहमी पर क्या कहा जा सकता है। लेकिन मसला है कि इस मामले में चुप भी नहीं बैठा जा सकता क्योंकि भारत व नेपाल के बीच गलतफहमी का बीज बोकर चीन अपनी जड़ें जमाने में जुट गया है। जाहिर है कि यह स्थिति बेहद चिंताजनक है। ना सिर्फ भारत के लिये बल्कि इससे कहीं अधिक नेपाल के लिये जिसकी सत्ता का संचालन कर रहे नेताओं को चीन की चालबाजियां  या तो समझ नहीं आ रहीं या वे जानबूझकर नासमझी का ढ़ोंग कर रहे हैं। तभी तो वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा को खुले तौर पर प्रधानमंत्री से यह अपील करनी पड़ी है कि वे नेपाल के मसले की अनदेखी ना करें और दोनों देशों के रिश्तों की प्रगाढ़ता में कमी आने से पहले ही नेपाल में व्याप्त भ्रम, गफलत व गलतफहमी को दूर करने की ठोस पहल करें। हालांकि नेपाल की नियति आज उसे जिस मोड़ पर ले आयी है उसके लिये पूरी तरह उसकी अपनी नीतियां ही जिम्मेवार हैं लेकिन कोई दुश्मन अगर हमारे सगे भाई को भड़का रहा हो और उसे गलत राह पर ले जा रहा हो तो अपने मासूम भाई को उसके हाल पर छोड़कर सिर्फ ‘तेल देखो और तेल की धार देखो’ की नीति पर अमल किये जाने को कैसे उचित कहा जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  

सोमवार, 28 सितंबर 2015

‘अनाड़ी का खेलना खेल का सत्यानाश’

नवकांत ठाकुर
‘अनाड़ी का खेलना खेल का सत्यानाश, पटरी हो खराब तो रेल का सत्यानाश, रहे अंधेरा रात भर तेल का सत्यानाश।’ यूं तो आनंद बख्शी साहब ने ये पंक्तियां वर्ष 1983 में आयी फिल्म ‘वो सात दिन’ के लिये लिखी थी लेकिन सियासी नजरिये से देखा जाये तो यह भाजपा के उन नेताओं की करतूतों का संभावित अंजाम बयान करती हुई नजर आती हैं जिनके अनाड़ीपन ने पार्टी के लिये भारी सिरदर्दी का सामान जुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वाकई पार्टी का शीर्ष संचालक खेमा इन दिनों भारी परेशानी से गुजर रहा है। उसकी समझ में ही नहीं आ रहा है कि अपने उन बयान बहादुर नेताओं की नादानियों से कैसे निपटा जाये जिनकी बेसिर पैर की बातें लगातार मीडिया की सुर्खियां जुटा रही हैं। इन नेताओं की नादानियों से निपट पाने में नाकामी का ही नतीजा है कि पार्टी के चाणक्य कहे जानेवाले अरूण जेटली भी यह स्वीकार करने से गुरेज नहीं करते हैं कि भाजपा ही शायद इकलौती ऐसी पार्टी है जो हर रोज एक नया बेवकूफ पैदा करने की क्षमता रखती है। हालांकि यह शेर सर्वविदित है कि ‘बेवकूफों की कमी नहीं जमाने में, एक ढृूंढो हजार मिलते हैं।’ लेकिन इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि अपने बेवकूफों के कारण जितनी सिरदर्दी भाजपा को झेलनी पड़ती है उतनी शायद ही किसी अन्य पार्टी को झेलनी पड़ती हो। खुद को सबसे अधिक अनुुशासित पार्टी बतानेवालनी भाजपा की अंदरूनी हकीकत यही है कि सांगठनिक अनुशासन की जितनी धज्जियां यहां उड़ाई जाती हैं उसकी मिसाल शायद ही कहीं और देखने को मिले। मसलन बिहार विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे को लेकर किसी भी दल के सांसद ने अपने शीर्ष नेतृत्व पर यह इल्जाम लगाने की जुर्रत नहीं की है कि उसने पैसे लेकर ऐसे लोगों को टिकट बेच दिया है जिनके लिये वोट मांगना भी बेशर्मी की इंतहा ही होगी। जाहिर तौर पर यह सीधे-सीधे अनुशासनहीनता की पराकाष्ठा ही है क्योंकि भाजपा में टिकट वितरण का काम कोई एक व्यक्ति नहीं करता बल्कि इसके लिये संगठन के तमाम शीर्ष संचालकों की एक चुनाव समिति बनी हुई है जिसमें सर्वसम्मति बनने के बाद ही किसी को भी पार्टी का टिकट दिये जाने का फैसला होता है। ऐसे में भाजपा द्वारा पैसे लेकर समाज विरोधी तत्वों, बाहुबलियों व अपराधियों को टिकट दिये जाने का जो खुल्लम खुल्ला इल्जाम पार्टी के सांसद आरके सिंह ने लगाया है वह सीधे तौर पर पार्टी तमाम शीर्ष संचालकों की सैद्धांतिक नैतिकता व वैचारिक शुचिता को ही कठघरे में खड़ा करता हुआ दिखाई देता है। जाहिर तौर पर किसी अन्य दल में किसी ने ऐसा करने की जुर्रत की होती तो उसका अंजाम क्या होता इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन भाजपा में ऐसा करनेवाले को भी इतनी इज्जत बख्शी जा रही है कि उसे मनाने, समझाने व चुप करने के लिये पार्टी अध्यक्ष को खुद ही दंडवत होना पड़ रहा है। खैर, पार्टी के लिये सिरदर्दी बढ़ाने का काम करनेवाले आरके अकेले नेता नहीं हैं। ऐसा करनेवालों की तो पूरी जमात दिखाई पड़ रही है। एक ओर पार्टी के ही नेतृत्व में चल रही महाराष्ट्र की सरकार ने गैरमराठी भाषियों को आॅटो-टैक्सी चलाने के काम से वंचित करने की मुनादी पिटवा दी है तो दूसरी ओर मध्य प्रदेश से आवाज आयी है कि मुसलमानों को बकरीद में अपने संतानों की कुर्बानी देनी चाहिये। कोई नवरात्र में मांस की बिक्री को प्रतिबंधित करने की मांग कर रहा है तो किसी को पाकिस्तान के प्रति भारत सरकार की नीतियां नहीं भा रही हैं। किसी की नजर में शिक्षा व नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था खटक रही है तो कोई संस्कृति की दुहाई देकर अल्पसंख्यकों की आजादी पर अंकुश लगाने की बात कर रहा है। किसी की परेशानी टिकट वितरण को लेकर है तो कोई बिहार में मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित नहीं किये जाने को लेकर बेचैन है। यहां तक कि नीतिगत व सैद्धांतिक मामलों में पार्टी की शीर्ष त्रिमूर्ति की मनमानी से संगठन का काफी बड़ा तबका बेहद नाराज दिखाई दे रहा है। टिकट वितरण में बाहरियों को तरजीह दिये जाने और लगभग 22 फीसदी निवर्तमान विधायकों को टिकट से वंचित कर दिये जाने के कारण संगठन में पनपे असंतोष ने भी शीर्ष नेतृत्व की सिरदर्दी में खासा इजाफा कर दिया है। उस पर तुर्रा यह कि पार्टी प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन भी यह संकेत देने से नहीं हिचक रहे हैं कि पार्टी में कुछ गड़बडि़यां तो हो ही रही हैं। इन तमाम मसलों को समग्रता में देखते हुए बिहार चुनाव पर पड़नेवाले इसके असल की कल्पना की जाये तो निश्चित तौर पर पार्टी के शीर्ष संचालकों की नींद हराम होना स्वाभाविक ही है। लेकिन मसला यह है कि संगठन के भीतर से उठनेवाली ऐसी बातों की गूंज को रोकना भी आवश्यक ही है कि जिसके कारण पार्टी मर्यादा, शुचिता व इमानदारी पर संदेह का वातावरण बन रहा हो। सवाल यह नहीं है कि किसी को व्यक्तिगत विचारों का इजहार करने से रोकना कहां तक उचित है बल्कि जरूरत इस बात की है कि नादानी व बेवकूफी की बातें करके मीडिया की सुर्खियां बटोरनेवाले छपास रोग से ग्रस्त नेताओं को सांगठनिक अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाये। अन्यथा एक ही मसले पर अलग-अलग सुर सुनाई पड़ने के नतीजे में जमीनी स्तर पर पार्टी की विश्वसनीयता खतरे में पड़ सकती है जिसका नुकसान अंततोगत्वा संगठन की स्वीकार्यता पर पड़ना तय ही है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’

सोमवार, 21 सितंबर 2015

‘...... और काफिर ये समझता है कि मुसलमान हूं मैं’

नवकांत ठाकुर
‘जाहिदे तंग नजर ने मुझे काफिर जाना, और काफिर ये समझता है कि मुसलमान हूं मैं।’ वाकई इन दिनों आॅल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी की हालत ऐसी ही है। कल तक वे सियासी धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े झंडाबरदार माने जाते थे। उनका समर्थन ही किसी के लिये भी धर्मनिरपेक्षता का प्रमाणपत्र हुआ करता था। उन्होंने भी हिन्दुत्ववादी ताकतों के खिलाफ जमकर जहर उगलने का कोई मौका कभी हाथ से जाने नहीं दिया। कांग्रेसनीत संप्रग के साथ उनकी करीबी हमेशा बरकरार रही और वे हर उस खेमे के साथ हमेशा जुड़े रहे जिसने भाजपा के विरोध में मोर्चा खोलने की पहल की हो। लेकिन कहते हैं कि वक्त बदलते देर नहीं लगती है। तभी तो आज आलम यह है कि उनकी निजी धर्मनिरपेक्षता ही खतरे में दिख रही है। हिन्दी पट्टी की कोई भी पार्टी यह मानने के लिये तैयार ही नहीं है कि ओवैसी धर्मनिरपेक्ष हैं या धर्मनिरपेक्षता की सियासत करते हैं। सबकी नजर में इन दिनों ये उतने ही सांप्रदायिक बन गये हैं जितनी बाबरी की शहादत के दिनों से लेकर गुजरात में हुए दंगे के दौरान ही नहीं बल्कि काफी हद तक हालिया दिनों तक भी भाजपा हुआ करती थी। हालांकि धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर मुसलमानों का सबसे बड़ा खैर-ख्वाह होने का दम भरनेवाले कई राजनीतिक दलों की नजर में भाजपा आज भी उतनी ही सांप्रदायिक है जितना इन दिनों ओवैसी को बताया जा रहा है। लेकिन इसे ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे का करिश्मा कहें या खाड़ी देश जाकर मोदी द्वारा मक्का मस्जिद में दर्ज करायी गयी मौजूदगी। इन दिनों भाजपा को जमीनी स्तर पर पहले जैसा कट्टर हिन्दुत्ववादी साबित कर पाना काफी मुश्किल हो चला है। हालांकि इसकी एक वजह लोजपा सरीखे ऐसे दलों का राजग के साथ जुड़ना भी है जिसने मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग पर अड़े रहकर बिहार की सत्ता को अपने हाथों में लेने का सुनहरा मौका गंवा दिया था। जम्मू कश्मीर में सत्ता के लिये पीडीपी को गले लगाने की पहल, आरएसएस द्वारा अल्पसंख्यकों के प्रति खुलकर किया जा रहा प्रेम प्रदर्शन अथवा केन्द्र की विभिन्न योजनाओं का अधिकतम लाभ मुस्लिम समुदाय को मुहैया कराने का प्रयास। वजह चाहे जो भी, लेकिन हकीकत यही है कि इन दिनों भाजपा को राजनीतिक अछूत बताना या उस पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप मढ़ना अब पहले की तरह कतई आसान नहीं रह गया है। साथ ही इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि मुसलमानों के मन में अर्से से समाया हुआ भाजपा का भय अब लगातार कमजोर पड़ता दिख रहा है। लिहाजा मुसलमानों को भाजपा का भय दिखाकर उन्हें अपने साथ जोड़े रखने की रणनीति की कामयाबी से राजनीतिक दलों का भरोसा काफी हद तक हिल चुका है। लेकिन एक सच यह भी है कि आज भी मुस्लिम मतदाताओं का भाजपा पर इतना भरोसा नहीं जमा है कि वे उसके पक्ष में मतदान करने की पहल कर सकें। यही वजह है कि इन दिनों धर्मनिरपेक्षतावादी दलों द्वारा प्रयोग के तौर पर अल्पसंख्यकों को विकल्पहीन करके उनका समर्थन हासिल करने की रणनीति अपनाने की पहल की गयी है। बिहार में धर्मनिरपेक्ष महामोर्चे का गठन भी इसी प्रयोग के तहत हुआ है और यूपी में सपा-बसपा की एकजुटता का शगूफा भी इसी प्रयोग की नींव डालने के लिये छोड़ा गया था। लेकिन मसला यह है कि अल्पसंख्यकों को विकल्पहीन करके उनका समर्थन हासिल करने की रणनीति को जमीन पर आजमाने की पूरी योजना में ओवैसी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का फच्चर फंस गया है। सच तो यही है कि हिन्दी पट्टी के अल्पसंख्यक समुदाय का नेतृत्व पूरी तरह गैर-मुस्लिमों के हाथों में ही सिमटा हुआ है जिन्होंने बकौल ओवैसी, मुस्लिम समुदाय का केवल वोटबैंक के तौर पर ही इस्तेमाल किया है वर्ना अगर इस वर्ग के हित में जरा भी काम किया गया होता तो सामाजिक तौर पर आज भी इनकी इतनी बुरी गत नहीं बनी होती। यानि मुसलमानों के तमाम स्थापित मसीहाओं की नीति व नीयत के खिलाफ अब ओवैसी ने जंग छेड़ दी है। जाहिर है कि इस जंग का सीधा नुकसान उन धर्मनिरपेक्ष दलों को ही होगा जिन्होंने समाज के अन्य वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हुए मुसलमानों के समर्थन से अपनी सियासी साख कायम की हुई है। जबकि इसका फायदा सीधे तौर पर भगवा खेमे को ही मिलेगा जो मुस्लिम वोटबैंक के बिखराव को अपनी जीत की गारंटी मान रहा है। ऐसे में लालू यादव सरीखे मुसलमानों के मसीहा ने अब ओवैसी को भाजपा के बराबर का कट्टर सांप्रदायिक बताना आरंभ कर दिया है जिसकी तरक्की से देश में धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद कमजोर हो रही है। यहां तक कि कुछ धर्मनिरपेक्षतावादी तो ओवैसी को भाजपा का वोटकटवा एजेंट बताने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की मानें तो ओवैसी सरीखा हिन्दूविरोधी नेता भाजपा के भले का कोई काम करेगा ऐसा सोचना भी मूर्खतापूर्ण ही है। यानि समग्रता में देखा जाये तो अब ओवैसी ना इधर के बचे हैं ना उधर के रहे हैं। हालांकि कल तक मुसलमानों के समर्थन को ही धर्मनिरपेक्षता की कसौटी माने जाने के कारण ओवैसी देश के सर्वश्रेष्ठ धर्मनिरपेक्ष नेता माने जा रहे थे लेकिन अब उनकी छवि हर किसी के लिये सियासी अछूत की बन गयी है। वैसे यह पहला मौका है जब मुसलमानों का मसीहा कहलानेवालों को एक स्थापित मुस्लिम नेता ही धर्मनिरपेक्षता के लिये खतरा दिख रहा है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’