‘सियासत में सुरक्षा बनाम सुरक्षा की सियासत’
सियासत में सुरक्षा की बात हो या सुरक्षा के सियासत की। यह मसला तो सदाबहार है। कभी किसी की सुरक्षा में कटौती हो जाये तो सियासत शुरू। कभी संघ प्रमुख मोहन भागवत सरीखे लोगों की सुरक्षा व्यवस्था मजबूत की जाये तो उस पर भी सियासत। सुरक्षा घेरा सियासी सवालों का सबब बनता ही रहता है। यह मसला निर्धारित अंतराल पर देश के अलग-अलग कोनों से इतनी दफा उठता रहता है कि अब इसे आम तौर पर कोई भी ज्यादा गंभीरता से नहीं लेता। सुरक्षा के मसले पर जब भी हायतौबा मचती है तो मान लिया जाता है कि यह सियासत चमकाने की ही कोशिश है। लेकिन असली मुश्किल तब पेश आती है जब सियासत में मौजूद खतरों के मद्देनजर सुरक्षा को स्वीकार करने के बजाय बड़े नेतागण अपनी सियासी जरूरतों को पूरा करने के लिये सुरक्षा घेरे के प्रति बेपरवाही बरतना शुरू कर देते हैं। इस मामले में सबसे पहला नाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ही आता है जो सबसे अधिक खतरे में होने के बावजूद सुरक्षा घेरे को तोड़ने का रिकार्ड बनाने की ओर अग्रसर हैं। आज भले ही समूचे देश को मायूस करते हुए सियाचीन के शेर लांस नायक हनुमनथप्पा कोप्पड़ ने चिरनिद्र को अंगीकार कर लिया है, लेकिन छह दिनों तक बर्फ की 25 फीट मोटी परत के नीचे से दबे रहने के बाद भी उनके जिन्दा निकल आने और दिल्ली स्थित सेना के आरआर अस्पताल में उन्हें दाखिल कराये जाने की खबर प्रधानमंत्री को जैसी ही पता चली तो वे फौरन वहां जाने के लिये लपक लिये। जितनी शीघ्रता से उन्होंने वहां की दौड़ लगायी उतने कम समय में ना तो रास्ते को महफूज करना संभव था और ना ही उनके रूट को परंपरागत तरीके से अभेद्य बनाया जा सकता था। लेकिन सुरक्षा के प्रति लापरवाही की पराकाष्ठा का मुजाहिरा करते हुए वे दनदनाते हुए हनुमनथप्पा को देखने के लिये निकल पड़े। यह तो गनीमत रही कि सुरक्षा काफिला उनका अनुसरण कर रहा था और उनकी यात्रा निर्विघ्न समाप्त हो गयी वर्ना ऐसी लापरवाही का क्या अंजाम हो सकता है इससे शायद ही कोई अनजान हो। खैर, यह तो महज बानगी ही है मोदी द्वारा सुरक्षा घेरे के प्रति बेपरवाही बरते जाने की। अलबत्ता उनकी ऐसी हरकतें तो तभी से जारी हैं जब वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पूरे देश में धुंआधार चुनाव प्रचार कर रहे थे। उन दिनों पटना के गांधी मैदान में हुई जनसभा को संबोधित करने के लिये उन्होंने जिस तरह से तमाम सुरक्षा सलाहों की अनदेखी करते हुए लगातार हो रहे बम धमाके के बीच ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे को पहली दफा खुलकर बुलंद करने की पहल की थी, उसके साक्षी रहे लोगों को आज भी जब उस दिन का मंजर याद आता है तो उनके रौंगटे खड़े हो जाते हैं। तब से लेकर अब तक मोदी ने सुरक्षा से खिलवाड़ करने का सिलसिला लगातार जारी रखा हुआ है। भाजपा मुख्यालय में आयोजित हुए दीपावली मिलन के पिछले दो आयोजनों में पत्रकारों को अपने साथ सेल्फी खींचने का मौका देने के लिये वे जिस कदर खचाखच भरे पंडाल में भीड़ के बीच कूद पड़ते हैं उसका नतीजा किस कदर खतरनाक हो सकता है यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है। स्वतंत्रता दिवस के समारोह से लेकर गणतंत्रता दिवस की परेड तक के आयोजन में लोगों से हाथ मिलाने, बच्चों को दुलारने और आम लोगों को अपनत्व का एहसास कराने के लिये सुरक्षा घेरे को तोड़कर भीड़ के करीब चले जाना इनका शगल बन गया है। भले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल सार्वजनिक तौर पर उनसे ऐसा नहीं करने की लाख अपील करते फिरें लेकिन इनकी कानों पर जूं तक नहीं रेंगती है। विदेश यात्रा से लौटने के क्रम में सड़क पर मौजूद समर्थकों से अचानक गाड़ी रोककर मिलना-जुलना, विदेश दौरे में भी आस्ट्रेलिया से लेकर खाड़ी तक में अपना संबोधन सुनने आये लोगों से हाथ मिलाने पहुंच जाना, संसद की कैंटीन के खाने का स्वाद लेने के लिये अचानक वहां आ धमकना, प्रधानमंत्री के तौर पर सियाचीन जाने की योजना को सुरक्षा तंत्र से अंतिम समय तक छिपाये रखना और रन फाॅर युनिटी सरीखे सार्वजनिक दौड़ के आयोजन में भीड़ का हिस्सा बनने की कोशिश करना इनकी पहचान बनती जा रही है। अब इसके लिये सुरक्षा व खुफिया तंत्र हलकान होता है तो होता रहे, इनकी बला से। इन्होंने तो मानो सुरक्षा की परवाह नहीं करने की कसम खा रखी है। वैसे मोदी अकेले नहीं हैं जो सुरक्षा घेरे से बेपरवाह होकर अक्सर भीड़ का हिस्सा बन जाना पसंद करते हों। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तो आवश्यक सुरक्षा लेने से ही इनकार कर देते हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को भी अपनी सुरक्षा में तैनात दस्ते को चकमा देकर चंपत हो जाने में महारथ हासिल है। अब इन नेताओं को कौन समझाये कि सुरक्षा सलाहों की अनदेखी के नतीजे में ही देश को ना सिर्फ महात्मा गांधी की हत्या का दंश भुगतना पड़ा बल्कि अगर इंदिरा गांधी ने अपनी निजी सुरक्षा में फेरबदल करने और राजीव गांधी ने भीड़ से निर्धारित दूरी बनाकर रहने की ठोस खुफिया सलाहों को मान लिया होता तो उनसे असमय जुदाई का दुख देश को नहीं भुगतना पड़ता। खैर, सियासत में लोगों से मिलने-जुलने और उन्हें अपनेपन का एहसास कराने की भी अपनी अहमियत है लेकिन इसके लिये सुरक्षा से खिलवाड़ किये जाने को कैसे जायज ठहराया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर