शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

‘सियासत में सुरक्षा बनाम सुरक्षा की सियासत’

‘सियासत में सुरक्षा बनाम सुरक्षा की सियासत’

सियासत में सुरक्षा की बात हो या सुरक्षा के सियासत की। यह मसला तो सदाबहार है। कभी किसी की सुरक्षा में कटौती हो जाये तो सियासत शुरू। कभी संघ प्रमुख मोहन भागवत सरीखे लोगों की सुरक्षा व्यवस्था मजबूत की जाये तो उस पर भी सियासत। सुरक्षा घेरा सियासी सवालों का सबब बनता ही रहता है। यह मसला निर्धारित अंतराल पर देश के अलग-अलग कोनों से इतनी दफा उठता रहता है कि अब इसे आम तौर पर कोई भी ज्यादा गंभीरता से नहीं लेता। सुरक्षा के मसले पर जब भी हायतौबा मचती है तो मान लिया जाता है कि यह सियासत चमकाने की ही कोशिश है। लेकिन असली मुश्किल तब पेश आती है जब सियासत में मौजूद खतरों के मद्देनजर सुरक्षा को स्वीकार करने के बजाय बड़े नेतागण अपनी सियासी जरूरतों को पूरा करने के लिये सुरक्षा घेरे के प्रति बेपरवाही बरतना शुरू कर देते हैं। इस मामले में सबसे पहला नाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ही आता है जो सबसे अधिक खतरे में होने के बावजूद सुरक्षा घेरे को तोड़ने का रिकार्ड बनाने की ओर अग्रसर हैं। आज भले ही समूचे देश को मायूस करते हुए सियाचीन के शेर लांस नायक हनुमनथप्पा कोप्पड़ ने चिरनिद्र को अंगीकार कर लिया है, लेकिन छह दिनों तक बर्फ की 25 फीट मोटी परत के नीचे से दबे रहने के बाद भी उनके जिन्दा निकल आने और दिल्ली स्थित सेना के आरआर अस्पताल में उन्हें दाखिल कराये जाने की खबर प्रधानमंत्री को जैसी ही पता चली तो वे फौरन वहां जाने के लिये लपक लिये। जितनी शीघ्रता से उन्होंने वहां की दौड़ लगायी उतने कम समय में ना तो रास्ते को महफूज करना संभव था और ना ही उनके रूट को परंपरागत तरीके से अभेद्य बनाया जा सकता था। लेकिन सुरक्षा के प्रति लापरवाही की पराकाष्ठा का मुजाहिरा करते हुए वे दनदनाते हुए हनुमनथप्पा को देखने के लिये निकल पड़े। यह तो गनीमत रही कि सुरक्षा काफिला उनका अनुसरण कर रहा था और उनकी यात्रा निर्विघ्न समाप्त हो गयी वर्ना ऐसी लापरवाही का क्या अंजाम हो सकता है इससे शायद ही कोई अनजान हो। खैर, यह तो महज बानगी ही है मोदी द्वारा सुरक्षा घेरे के प्रति बेपरवाही बरते जाने की। अलबत्ता उनकी ऐसी हरकतें तो तभी से जारी हैं जब वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पूरे देश में धुंआधार चुनाव प्रचार कर रहे थे। उन दिनों पटना के गांधी मैदान में हुई जनसभा को संबोधित करने के लिये उन्होंने जिस तरह से तमाम सुरक्षा सलाहों की अनदेखी करते हुए लगातार हो रहे बम धमाके के बीच ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे को पहली दफा खुलकर बुलंद करने की पहल की थी, उसके साक्षी रहे लोगों को आज भी जब उस दिन का मंजर याद आता है तो उनके रौंगटे खड़े हो जाते हैं। तब से लेकर अब तक मोदी ने सुरक्षा से खिलवाड़ करने का सिलसिला लगातार जारी रखा हुआ है। भाजपा मुख्यालय में आयोजित हुए दीपावली मिलन के पिछले दो आयोजनों में पत्रकारों को अपने साथ सेल्फी खींचने का मौका देने के लिये वे जिस कदर खचाखच भरे पंडाल में भीड़ के बीच कूद पड़ते हैं उसका नतीजा किस कदर खतरनाक हो सकता है यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है। स्वतंत्रता दिवस के समारोह से लेकर गणतंत्रता दिवस की परेड तक के आयोजन में लोगों से हाथ मिलाने, बच्चों को दुलारने और आम लोगों को अपनत्व का एहसास कराने के लिये सुरक्षा घेरे को तोड़कर भीड़ के करीब चले जाना इनका शगल बन गया है। भले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल सार्वजनिक तौर पर उनसे ऐसा नहीं करने की लाख अपील करते फिरें लेकिन इनकी कानों पर जूं तक नहीं रेंगती है। विदेश यात्रा से लौटने के क्रम में सड़क पर मौजूद समर्थकों से अचानक गाड़ी रोककर मिलना-जुलना, विदेश दौरे में भी आस्ट्रेलिया से लेकर खाड़ी तक में अपना संबोधन सुनने आये लोगों से हाथ मिलाने पहुंच जाना, संसद की कैंटीन के खाने का स्वाद लेने के लिये अचानक वहां आ धमकना, प्रधानमंत्री के तौर पर सियाचीन जाने की योजना को सुरक्षा तंत्र से अंतिम समय तक छिपाये रखना और रन फाॅर युनिटी सरीखे सार्वजनिक दौड़ के आयोजन में भीड़ का हिस्सा बनने की कोशिश करना इनकी पहचान बनती जा रही है। अब इसके लिये सुरक्षा व खुफिया तंत्र हलकान होता है तो होता रहे, इनकी बला से। इन्होंने तो मानो सुरक्षा की परवाह नहीं करने की कसम खा रखी है। वैसे मोदी अकेले नहीं हैं जो सुरक्षा घेरे से बेपरवाह होकर अक्सर भीड़ का हिस्सा बन जाना पसंद करते हों। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तो आवश्यक सुरक्षा लेने से ही इनकार कर देते हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को भी अपनी सुरक्षा में तैनात दस्ते को चकमा देकर चंपत हो जाने में महारथ हासिल है। अब इन नेताओं को कौन समझाये कि सुरक्षा सलाहों की अनदेखी के नतीजे में ही देश को ना सिर्फ महात्मा गांधी की हत्या का दंश भुगतना पड़ा बल्कि अगर इंदिरा गांधी ने अपनी निजी सुरक्षा में फेरबदल करने और राजीव गांधी ने भीड़ से निर्धारित दूरी बनाकर रहने की ठोस खुफिया सलाहों को मान लिया होता तो उनसे असमय जुदाई का दुख देश को नहीं भुगतना पड़ता। खैर, सियासत में लोगों से मिलने-जुलने और उन्हें अपनेपन का एहसास कराने की भी अपनी अहमियत है लेकिन इसके लिये सुरक्षा से खिलवाड़ किये जाने को कैसे जायज ठहराया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   @ नवकांत ठाकुर

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

‘विरोधी के हमलों से अपना हित साधने की सियासत’

‘विरोधी के हमलों से अपना हित साधने की सियासत’

निराली है राजनीति और निराला है इसका रंग-ढ़ंग। इसमें हर चमकनेवाली चीज सोना नहीं होती और आंखों से देखा हुआ भी हमेशा सच नहीं होता। होता कुछ और है, दिखता कुछ और। यहां विरोधियों का हमला हमेशा अहितकर नहीं होता, बल्कि अपना हित साधने के लिये विरोधी के हमले को भी हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की पुरानी परंपरा रही है। लेकिन बाहर से दिखनेवाले सियासी खेल की अंदरूनी हकीकत अक्सर बनावटी प्रपंच के पर्दे में पहले भी दबी रह जाती थी और आज भी अधिकांश मामलों की असली रामकहानी अनजानी ही रह जाती है। मसलन गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल की बिटिया को सूबे की सरकार द्वारा करोड़ों की जमीन कौडि़यों की कीमत पर आवंटित कर दिये जाने के मामले को ही देखें तो सतही तौर यही दिखता है कि इस कथित घपलेबाजी की जानकारियां विरोधी दलों ने पाताल तोड़कर निकाली हैं। लेकिन मौजूदा कालखंड के सियासी समीकरणों से तो यही लगता है कि ना तो विरोधियों को इस मामले की जानकारी हासिल करने के लिये कोई पातालतोड़ मेहनत करनी पड़ी होगी और ना ही इसके संभावित असर से उन्हें सीधे तौर पर कोई फायदा मिलना है। अलबत्ता अगर यह वार सटीक बैठा तो शुचिता व पारदर्शिता को ही अपनी पूंजी बतानेवाली आनंदीबेन को नैतिक आधार पर कोई कड़ा फैसला लेना पड़ सकता है जिसका सीधा लाभ उनकी पार्टी को ही मिलेगा। अलबत्ता विपक्ष का हित तो इसमें निहित है कि आनंदीबेन ही अगले साल होनेवाले सूबे के विधानसभा चुनाव की कमान संभालें ताकि उनकी उस बढ़ती अलोकप्रियता का फायदा उठाया जा सके जिसने पिछले दिनों स्थानीय निकायों के चुनावों में भाजपा का बेड़ा गर्क कर दिया। ऐसे में अगर मौजूदा हंगामे के बीच वे स्वयं ही उच्च नैतिक मानदंडों का अनुपालन करते हुए पद छोड़ने का फैसला कर लें तो उनके प्रति पनपनेवाली सहानुभूति की लहर भी भाजपा के लिये फायदेमंद हो जाएगी और सत्ता में बदलाव करने की मौजूदा आवश्यकता भी पूर्ण हो जाएगी। दूसरी संभावना यह भी है कि चुंकि जमीन आवंटन का फैसला मोदी की सरकार ने किया था लिहाजा आनंदीबेन विरोधी स्वरों को शांत करने का कोई ठोस कदम उठाकर अपनी सत्ता सुरक्षित भी कर सकती हैं। लेकिन ऐसे में अगर सूबे का चुनाव परिणाम नकारात्मक रहा तो उसका ठीकरा आनंदीबंन पर ही फूटेगा, मोदी-शाह की जोड़ी पर इसकी कोई जिम्मेवारी नहीं होगी। यानि जब इस पूरे हंगामे का सीधा फायदा हर हालत में भाजपा के मौजूदा शीर्ष नेतृत्व को ही मिलना है तब इन अटकलों को कैसे नकारा जा सकता है कि इस आग का जलावन अंदर से ही निकला है जिसमें विपक्ष ने तो सिर्फ अपने विरोध की माचिस ही सुलगायी है। खैर, विरोधियों के हंगामे का अपने फायदे के लिये इस्तेमाल करने की अटकलें तब भी लगीं जब छत्तीसगढ़ की राजनीति में अजित जोगी को निपटाने के लिये सीटों की सौदेबाजी का सबूत सार्वजनिक हुआ और चिक्की खरीद घोटाले के मामले को लेकर सूबे की सबसे तगड़े जनाधारवाली नेत्री पंकजा मुंडे पर आरोपों की बरसात हुई। लेकिन दिलचस्प तथ्य है कि ऐसे तमाम मामलों के पीछे की अंदरूनी कहानी अव्वल तो कभी सामने ही नहीं आ पाती है और अगर किसी को कुछ उड़ती-फिरती भनक मिल भी जाये तो उसे गल्प-कल्प कहकर हंसी में उड़ा दिया जाता है। खैर, सियासत में विरोधियों के हंगामे का अपने मनमुताबिक इस्तेमाल की परंपरा आज की नहीं है। सियासत के चतुर-सुजान खिलाड़ी अक्सर इस दांव का इस्तेमाल करते रहे हैं। मसलन इराक युद्ध के दौरान जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पर मित्र राष्ट्रों की ओर से इस बात का दबाव बनाया गया कि वे भारतीय फौज को जंग में हिस्सेदारी निभाने का निर्देश दें तो इस समस्या का समाधान उन्होंने वामपंथी विरोधियों को अपनी ही सरकार के खिलाफ सड़क पर उतार कर निकाला था। उन्हें करना सिर्फ इतना पड़ा कि वामदलों के कुछ शीर्ष नेताओं को उन्होंने चाय पर चर्चा के लिये बुलाया और बातों ही बातों में धीरे से यह सुर्रा छोड़ दिया कि भारतीय फौज की इराक युद्ध में हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिये मित्र राष्ट्रों की ओर से पड़ रहे दबाव पर विचार करना आवश्यक हो गया है। वाजपेयी की जुबान से यह सुनते ही वामपंथी भड़क उठे और चाय की चर्चा को जुबानी जंग में तब्दील कर दी। वामपंथी नेताओं की टोली बुरी तरह भड़क उठी जबकि वे चिरपरिचित मुस्कान के साथ चुपचाप चाय चुस्कियां लेते रहे। आखिर में अपने प्याले की पूरी चाय निपटाने के बाद चर्चा को विराम देते हुए वाजपेयी ने काॅमरेडों को सिर्फ यही कहा कि प्रधानमंत्री निवास के प्रांगण में चीखने-चिल्लाने के बजाय अगर वे संसद से सड़क तक अपनी आवाज बुलंद करें तो कुछ बात भी बने। इसके बाद जो हुआ वह इतिहास बन गया। समूचे देश में इराक पर हुए अमेरिकी हमले के खिलाफ इस कदर व्यापक स्तर पर विरोध प्रदर्शन हुआ कि उसकी खबर सुनने के बाद मित्र राष्ट्रों के किसी भी राष्ट्राध्यक्ष की इतनी हिम्मत ही नहीं हुई कि वह दोबारा वाजपेयी से भारतीय फौज को इराक भेजने की बात कहने की जुर्रत भी कर सके। यानि सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। खैर, विरोधियों की लाठी से अपने गले में पड़े सांप को हटाने की राजनीति का पारदर्शिता व नैतिकता से भले ही कोई वास्ता ना हो लेकिन गोपनीयता के साथ सियासी समीकरणों को दुरूस्त करने की इन्हीं कूटनीतियों का नाम तो राजनीति है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर

बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

‘फिर कलेवर बदलने की जुगत में है जादूगर’

‘फिर कलेवर बदलने की जुगत में है जादूगर’


मौजूदा सियासी दौर के सबसे सफल जादूगर का खिताब तो निर्विवाद रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ही मिल सकता है। भले अभी उनकी जादूगरी की चमक कुछ फीकी दिख रही हो लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में उनको सीधी टक्कर देने की हैसियत तो आज भी किसी की नहीं है। ऐसे में इन्हें यह सहूलियत तो हासिल ही है कि ये अभी आराम से अपनी छवि को संवार सकें, निखार सकें। वैसे भी जब अभी से यह पता चल चुका है कि मौजूदा दौर में कायम हो रही छवि दूरगामी तौर पर भारी नुकसान का सबब बन सकती है तो क्यों ना अभी से उससे पीछा छुड़ाने की शुरूआत कर दी जाए। नेक काम में विलंब करने से कोई फायदा तो होना नहीं है। शायद यही वजह है कि मोदी ने अपनी छवि बदलने का अभियान अविलंब आरंभ कर देने का मन बना लिया है। दरअसल उनकी छवि इन दिनों ऐसी गढ़ दी गयी है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के शब्दों में कहें तो उनकी अगुवाई में ‘सूट-बूट की सरकार’ चल रही है जिसका देश के आम मेहनतकश लोगों के हितों से कोई लेना देना ही नहीं है। उनका मन देश में कम और विदेश में ही अधिक रमता है। किसानों से उन्हें ऐसी चिढ़ है कि खेती की जमीन उद्योगपतियों को देने के लिये वे भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन करने के लिये संसद से सहमति लेने में नाकाम रहते हैं तो मनमाने तौर पर अध्यादेश जारी करके मनमानी नीति लागू करने से भी परहेज नहीं बरतते हैं। देश के दो तिहाई लोग भले ही फटेहाली, तंगहाली व भुखमरी का सामना कर रहे हों लेकिन वे लखटकिया सूट पहनकर इतराने से भी संकोच नहीं करते हैं। उन्हें ना तो दलितों की फिक्र है, ना मजदूरों की, ना किसानों की, ना अल्पसंख्यकों की और ना ही महिलाओं की। वे तो मस्त हैं अपनी मस्ती में। व्यस्त हैं सत्तासुख की बस्ती में। यही छवि गढ़ने में उनके तमाम विरोधी तभी से जुटे हुए हैं जबसे उन्होंने सत्ता की बागडोर संभाली है। कहावत है कि किसी झूठ को जितनी दफा दोहराया जाये, उसके सच होने का संदेह उतना ही मजबूत होता चला जाता है। तभी तो विरोधियों द्वारा बनायी गयी इस नकारात्मक छवि ने उनके उस जादू को जमीन पर पटक दिया है जिसके दम पर उन्होंने लोकसभा चुनाव में भाजपा को अपने दम पर पूर्ण बहुमत दिलाया था। नतीजन दिल्ली से लेकर बिहार तक में उनका जादू विफल हो गया और पार्टी औंधे मुंह गिरी। हालांकि इससे राष्ट्रीय राजनीति में उनके वजूद व वकार की मजबूती में तो कोई कमी नहीं आयी है और हालिया सर्वे यही बताते हैं कि अगर आज भी लोकसभा का चुनाव कराया जाये तो मोदी को टक्कर देने की स्थिति में कोई नहीं है। लेकिन दिल्ली और बिहार से लेकर विभिन्न सूबों के स्थानीय निकायों के चुनावों में भी हासिल हो रही सिलसिलेवार शिकस्त ने उस दूरगामी खतरे की ओर तो इशारा कर ही दिया है कि अगर मोदी की मौजूदा छवि में सुधार नहीं किया गया तो इसका दूरगामी असर बेहद नकारात्मक साबित हो सकता है। तभी तो मोदी ने बिना देरी किये अभी से अपनी छवि बदलने की कवायदें शुरू कर दी हैं। ‘कल करे सो आज कर, आज करे सो अब’ की तर्ज पर। वैसे अपनी बदलने में मोदी को हासिल महारथ से तो सब वाकिफ ही हैं। जब पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव थे तो उनकी छवि बेहद मासूम, मेहनती व शर्मीले सांगठनिक नेता की थी जो ना तो मीडिया से अधिक सरोकार रखता हो और ना आम जनता में जनाधार बनाने का ख्वाहिशमंद हो। बाद में जब गुजरात भेजे गये तो उनकी छवि बेहद शातिर, जोड़-तोड़ में माहिर, अपने हित को सर्वोपरि रखने और विरोधी को कतई बर्दाश्त नहीं करनेवाले नेता की बन गयी। यहां तक कि 2002 के दंगों के बाद तो वे कट्टर हिन्दूवादी तानाशाह के तौर पर पहचाने जाने लगे जिन्हें नरभक्षी तक बता दिया गया। जब प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल हुए तो उस कट्टरवादी छवि से किनारा करते हुए सौम्यता, सरलता, सादगी, मिलनसारिता और समरसता का लबादा ओढ़ लिया। बाद में ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे और अंत्योदय के इरादे के साथ सर्वप्रिय जननेता की छवि बनाने की कोशिश तो की लेकिन इस बार एकजुट विरोधियों ने उनकी छवि को तहस-नहस कर दिया। लेकिन अब एक बार फिर वे अपनी छवि बदलने की योजना में जुट रहे हैं। शुरूआत हो रही है किसान हितैषी रंग को गाढ़ा करने से। इसके लिये सिर्फ 28 फरवरी को यूपी के रूहेलखंड इलाके में ही नहीं बल्कि 18 को मध्यप्रदेश में, 21 को उड़ीसा स्थित बड़गढ़ में और 27 को कर्नाटक में भी व्यापक किसान महारैली करने जा रहे हैं। इसमें बखान होगा ‘स्वाइल हेल्थकार्ड’ के पांच करोड़ लाभार्थियों को मिले लाभ का, प्रधानमंत्री सिंचाई योजना का, आपदा राहत के नियमों की ढ़ील का और फसल बीमा योजना का। सूत्रों की मानें तो अब उनकी विदेश यात्राएं भी बेहद आवश्यक होने पर ही होंगी और चुनावी कार्यक्रमों में भी वे अग्रिम मोर्चे से दूर रहेंगे। ऐसी और भी कई तब्दीलियों और नयेपन का मुजाहिरा वे खुद भी करेंगे, उनकी सरकार भी करेगी और संगठन भी। लेकिन विरोधियों द्वारा आजमाये जा रहे दुष्प्रचार के हथियार में आस्तीन के सांपों के जहर का इस्तेमाल अनवरत जारी रहने का नतीजा छवि सुधारने की सकारात्मक कोशिशों पर तो अपना असर डालेगा ही। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर     

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

‘नदारद मानसून के बीच बगीचा लहलहाने की चुनौती’

‘नदारद मानसून के बीच बगीचा लहलहाने की चुनौती’

तमाम अटकलों, कयासों, अंतर्विरोधों व टकरावों के बावजूद निर्विरोध तरीके से भाजपा की कमान अमित शाह के हाथ में आ गयी है। लेकिन असली चुनौती की शुरूआत तो अब होनेवाली है। ना सिर्फ शाह के लिये बल्कि भाजपा के लिये भी। बेशक संगठन को नयी शक्ल देने के मामले में शाह कतई जल्दबाजी में नहीं दिख रहे हों। लेकिन अधिक देर करने का विकल्प भी उनके पास नहीं है। अब तक तो एक तरफ सत्ता का हनीमून चल रहा था और दूसरी तरफ संगठन का संचालन भी वैकल्पिक व कार्यवाहक तरीके से करने के बावजूद कोई खास परेशानी नहीं आ रही थी। लिहाजा सांगठनिक स्तर पर भी काफी प्रयोग हुए और सैद्धांतिक व वैचारिक मसलों पर भी जमकर ढ़ील ली गयी। मगर इस तरह से तो अब संगठन कतई नहीं चल सकता। सच तो यही है कि मौजूदा हालातों में पार्टी ना तो उस विस्तार को कायम रख पा रही है जो उसे लोकसभा चुनाव में हासिल हुई थी और ना ही सरकार के कामकाज की जानकारी जमीन तक पहुंचाने की जिम्मेवारी का अपेक्षित तरीके से समुचित निर्वहन करने में कामयाब हो रही है। वर्ना प्रधानमंत्री को सरकार के कामकाज का प्रचार प्रसार करने के लिये अपने केन्द्रीय मंत्रियों से ढि़ंढ़ोरची का काम लेने के लिये हर्गिज मजबूर नहीं होना पड़ता। वैसे सरकार के स्तर पर तो काफी काम हो रहा है लेकिन समस्या है कि अव्वल तो काम की रफ्तार संतोषजनक नहीं है और दूसरे जितना काम हो भी रहा है उसका प्रचार-प्रसार करने में पार्टी नाकाम साबित हो रही है। कहने को तो ग्यारह करोड़ की सदस्य संख्या के साथ भाजपा ना सिर्फ भारत की बल्कि विश्व की सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर अपनी पहचान कायम कर चुकी है। लेकिन इस कागजी हैसियत का जमीन पर कोई लाभ होता हुआ नहीं दिख रहा है। तभी तो बिहार में जहां भाजपा ने मोबाइल पर मिस्डकाॅल के माध्यम से 90 लाख से भी अधिक लोगों को अपना सदस्य बनाने में कामयाबी हासिल की वहां विधानसभा चुनाव में पार्टी को महज 92,85,574 वोटों से ही संतोष करना पड़ा। यानि संगठन के मोर्चे पर गड़बडि़यां स्पष्ट दिख रही हैं। वैसे भी शीर्ष नेताओं की स्थापित टोली के सत्ता के संचालन में व्यस्त हो जाने से पार्टी का कामकाज ऐसे लोगों के हाथों में आ गया है जो अब तक अपनी दक्षता, कुशलता व जनप्रियता साबित करने में असमर्थ रहे हैं। हालांकि इस कमी को पाटने के लिये मध्य प्रदेश से कैलाश विजयवर्गीय व संघ से राम माधव सरीखे संगठन के संचालन का लंबा अनुभव रखनेवाले नेताओं को राष्ट्रीय राजनीति में अवश्य लाया गया है लेकिन इतने भर से बात बनती हुई नहीं दिख रही है। आलम यह है कि सतही तौर पर समूचा संगठन सिर्फ शाह में ही समाहित होकर रह गया है जिसके नतीजे में इस दफा ना तो संघ को उनका कोई विकल्प मिला और ना ही बगावत की हद तक आक्रामक तेवरोंवाले मार्गदर्शकों के हिमायतियों की टोली किसी अन्य चेहरे को शाह के मुकाबले खड़ा करने में कामयाब हो पायी। लेकिन सूत्रों की मानें तो शाह के नाम पर स्वस्ति देने के क्रम में ही संघ ने यह बता दिया है कि संगठन का मौजूदा स्वरूप उसे कतई स्वीकार्य नहीं है। ऐसे में शाह के नये सिपहसालारों की टोली में अब आमूलचूल परिवर्तन होना तय ही है। खास तौर से जनाधारवाले क्षत्रपों, महिलाओं व युवाओं को तरजीह देकर भविष्य के लिये पार्टी की नयी पीढ़ी के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। महिलाओं को संगठन में तरजीह देने के मामले में अभी तक पार्टी में महासचिव व उपाध्यक्ष के पद पर सिर्फ एक-एक महिलाओं को ही स्थान मिला हुआ है। जबकि बिहार में नितीश ने शराबबंदी करके और नौकरियों में 35 फीसदी आरक्षण देकर महिलाओं की गोलबंदी करने की पहल कर दी है। साथ ही उत्तर प्रदेश से लेकर पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु तक में महिला नेत्रियों के साथ ही पार्टी का सीधा चुनावी दंगल होनेवाला है और जम्मू कश्मीर में सहयोगी दल की महिला मुख्यमंत्री के साथ ही सत्ता की साझेदारी करनी है। इसके अलावा राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस सरीखे ऐसे दल के साथ आर-पार का मुकाबला करना है जिसकी बागडोर महिला के हाथ में ही है। ऐसे में संगठन में शीर्ष स्तर पर महिलाओं को तरजीह देने के अलावा वैसे भी पार्टी के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हालांकि बदलाव की इस तरह की आवश्यकताओं से आरएसएस भी वाकिफ है और संगठन के शीर्ष रणनीतिकार व शुभचिंतक भी। लेकिन जरूरत है उस खुशफहमी से उबरने की जिसके नशे ने ना सिर्फ दिल्ली व बिहार में पार्टी का बेड़ा गर्क कर दिया है बल्कि सरकार की छवि भी इस कदर बिगाड़ दी है कि महज बीस माह के भीतर ही जमीनी स्तर पर मोदी लहर से पनपा जनता के विश्वास व भरोसे का मानसून पूरी तरह नदारद हो गया है। लिहाजा अब सियासत के खेत में सत्ता का बगीचा उगाने के लिये पार्टी को खुद ही कुआं खोदकर भरोसे का पानी इकट्ठा करना होगा। वर्ना मानसूनी बारिश के भरोसे रहकर महज मेहनत का दिखावा, कागजी बुआई और जुबानी जुम्बिश की सिंचाई का नतीजा फिर उन्हीं काटों की पैदावार के तौर पर सामने आ सकता है जो ना सिर्फ बिहार और दिल्ली में नमूदार हो चुका है बल्कि आगामी दिनों में होनेवाले पांच राज्यों के चुनावों में जगजाहिर हो सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’    @ नवकांत ठाकुर