गुरुवार, 29 नवंबर 2018

‘उसे कहो कि वो फिर से मुकर न जाए कहीं’

भारत-पाकिस्तान के रिश्ते इन दिनों जिस मोड़ से गुजर रहे हैं उसे सुप्रसिद्ध कवि बल्ली सिंह चीमा के शब्दों में कहें तो- ‘करो न शोर परिन्दा है डर न जाए कहीं, जरा-सा जीव है हाथों में मर न जाए कहीं, वो फिर नए वादों के साथ उतरा है, उसे कहो कि वो फिर से मुकर न जाए कहीं।’ वाकई पाकिस्तान के साथ भारत का जो तजुर्बा रहा है उसमें यह डर लगना स्वाभाविक है कि गले लगने के बहाने कहीं एक बार फिर हमारी पीठ में खंजर ना घोंप दिया जाए। तभी दूध से जलता आ रहा भारत इस बार करतारपुर काॅरिडोर की कथित छाछ भी फूंक-फूक कर पी रहा है। बेशक पाकिस्तान की कोशिश है करतारपुर काॅरिडोर के मामले में गर्मजोशी दिखाकर भारत को एक बार फिर शीशे में उतार लिया जाए और तमाम गतिरोधों को दूर कर रिश्तों पर जमी बर्फ को पूरी तरह पिघला दिया जाए। लेकिन पाकिस्तान की पुरानी करतूतें ऐसी नहीं हैं कि उस पर केवल इस वजह से भरोसा कर लिया जाए क्योंकि उसने दोस्ती की राह पर एक कदम आगे बढ़ते हुए करतारपुर काॅरिडोर को खोलने की दशकों पुरानी हमारी मांग पूरी कर दी है। तभी तो जहां एक ओर सार्क देशों की बैठक में भाग लेने के लिये पाकिस्तान जाने से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से इनकार कर दिया गया है वहीं दूसरी ओर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने फिर दोहराया है कि आतंकवाद का सिलसिला जारी रहते हुए पाकिस्तान के साथ औपचारिक बातचीत करना संभव ही नहीं है। हालांकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने बिल्कुल सच कहा है कि दोनों मुल्क एटमी हथियारों से लैस है लिहाजा आपसी मसलों को हल करने के लिये जंग कोई विकल्प ही नहीं है बल्कि जंग के बारे में सोचना भी पागलपन ही है। लेकिन सवाल है कि आखिर ऐसी सोच रखता कौन है और उस दिशा में हमेशा पहलकदमी करने के लिये आतुर कौन रहता है? यह भारत की ओर से की गई पहलकदमियों का ही नतीजा रहा है कि अमन की आशा को पूरा करने के लिये कभी शिमला में समझौता होता है तो कभी शर्म-अल-शेख में। कभी समझौता एक्सप्रेस को हरी झंडी दिखाई जाती है तो कभी कारवां-ए-अमन को आगे बढ़ाया जाता है। इसी कड़ी में अब करतारपुर काॅरिडोर को खोलने की दिशा में दोनों मुल्कों ने पहलकदमी की है। बेशक यह एक नई शुरूआत है, पाकिस्तान में नए निजाम द्वारा शासन की बागडोर संभाले जाने के बाद। लेकिन यह पहली बार नहीं है जब अमन की आशा जगाते हुए सरहद के दोनों तरफ के हुक्मरानों ने इस तरह की पहलकदमी की हो। ऐसी कोशिशें बार-बार और लगातार होती रही हैं। खास तौर से भारत की ओर से। भारत ने हमेशा ही पाकिस्तान को अमन और शांति की दिशा में आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया और बड़े भाई की हैसियत से तमाम पहलकदमियां भी कीं। लेकिन गिले-शिकवे भुलाकर गले लगने की पहलकदमियों के बदले में हर बार पाकिस्तान की ओर से भारत की पीठ में खंजर ही घोंपा गया। कभी संसद पर हमला कराया गया तो कभी कारगिल का युद्ध थोपा गया। कभी 26/11 के मुंबई हमलों की साजिश अंजाम दी गई तो कभी पठानकोट और उड़ी के सैन्य ठिकाने पर हमला हुआ। नतीजन अब स्थिति यह हो गई है कि करतारपुर साहिब काॅरिडोर खुलने के मौके पर भी भारत को एहतियातन कूटनीतिक सावधानी बरतने पर मजबूर होना पड़ रहा है। हालांकि ऐसा नहीं है कि करतारपुर काॅरिडोर खोलने को लेकर दोनों मुल्कों के बीच बनी सहमति से खुशी, उत्साह और उमंग में कोई कमी हो। बल्कि आजादी के बाद से ही इस काॅरिडोर को खोले जाने की जो मांग की जाती रही है उसके पूरा होने पर सियासतदानों से लेकर आम आवाम तक में काफी उत्साह और उमंग है। लेकिन इस उत्साह का अगर दिल खोलकर प्रदर्शन करने के प्रति संकोच दिखाया जा रहा है तो इसकी सबसे बड़ी वजह पाकिस्तान की हरकतों का वह पुराना इतिहास ही है जिसके तहत सुलह की हर बोली का जवाब नफरत की गोली से मिलता आया है। तभी तो पाकिस्तान की ओर से की जा रही खुराफाती हरकतों के प्रति दुख, तकलीफ और आक्रोश के कारण ही इस काॅरिडोर के पाकिस्तान की ओर के हिस्से के शिलान्यास के कार्यक्रम में जाने से पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने भी परहेज बरता है और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी। यहां तक कि नवजोत सिंह सिद्धू भी निजी हैसियत से ही वहां गए हैं। वर्ना अगर पाकिस्तान ने वाकई अमन की राह पकड़ते हुए खुराफाती आतंकी गतिविधियों को संरक्षण देना और उसका संचालन करना बंद कर दिया होता तो कोई कारण नहीं था कि सरहद के इस तरफ के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि इमरान खान होते और सरहद के उस तरफ के कार्यक्रम की शोभा बढ़ाने नरेन्द्र मोदी खुद ही जाते। लेकिन कहते हैं कि चोर अगर चोरी करना छोड़ भी दे तो हेराफेरी करना नहीं छोड़ सकता। शायद तभी इमरान द्वारा काॅरिडोर का शिलान्यास किये जाने के समारोह में आतंकी सरगना हाफिज सईद का सहयोगी और खालिस्तान समर्थक गोपाल चावला भी मौजूद था और पाकिस्तानी सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा से हाथ मिलाता हुआ भी नजर आया। समारोह में चावला की मौजूदगी पाकिस्तान द्वारा रिश्तों में विश्वास की चोरी हो या उसकी फौज द्वारा की गई हेराफेरी, लेकिन इसे नजरअंदाज तो कतई नहीं किया जा सकता। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

गुरुवार, 15 नवंबर 2018

‘जहां से हैं उम्मीदें, वहीं हो रही भाजपा की फजीहत’

जहां से उम्मीदें पाल रखी हों वहीं अगर फजीहत झेलनी पड़ जाए तो किस कदर निराशा का वातावरण बनने लगता है इसका बखूबी अंदाजा इन दिनों भाजपा को हो रहा है। दरअसल आगामी लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज करा कर सत्ता पर अपनी पकड़ बरकरार रखने की भाजपा की उम्मीदें इस बार पश्चिम बंगाल और ओडिशा के अलावा उन दक्षिणी सूबों पर टिकी हुई हैं जहां पिछले चुनाव में कथित मोदी लहर का कोई असर नहीं पड़ा था। हालांकि पूर्वोत्तर के विधानसभा चुनावों से लेकर ओडिशा व पश्चिम बंगाल तक में हुए स्थानीय निकायों के चुनावों में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराके भाजपा ने लोकसभा चुनाव में इन क्षेत्रों में बेहत प्रदर्शन की उम्मीदें कायम रखी हुई हैं लेकिन दक्षिणी राज्यों से भाजपा ने जितनी उम्मीदें पाली हुई हैं उसके पूरा हो पाने की संभावना लगातार कमजोर होती दिख रही है। दक्षिण भारत में भाजपा के लिये लिटमस टेस्ट कहे जाने वाले कर्नाटक में हुए लोकसभा के तीन और विधानसभा के दो सीटों के उपचुनाव का जो नतीजा सामने आया है उसने यह साफ कर दिया है तमाम कोशिशों के बावजूद दक्षिणी राज्यों के मतदाताओं का विश्वास जीतने में भाजपा कतई कामयाब नहीं हो पायी है। यह चुनाव ऐसे समय में हुआ है जब अगले साल के लोकसभा चुनाव का वक्त बेहद करीब है और तमाम पार्टियां केन्द्र की सत्ता पर कब्जा जमाने के लिये उतावलापन दिखा रही हैं। ऐसे समय में अगर लोकसभा की तीन में से अपनी जीती हुई केवल एक सीट पर ही बढ़त कायम रहे जबकि दो सीटों पर शिकस्त का सामना करना पड़े और विधानसभा की दोनों सीटें गंवानी पड़े तो समझा जा सकता है कि सूबे का माहौल किस कदर भाजपा के लिये बदस्तूर चुनौती बना हुआ है। हालांकि यह पहला उपचुनाव नहीं है जिसमें भाजपा को शिकस्त का सामना करना पड़ा हो बल्कि वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के  बाद से अब तक देश भर में 30 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए हैं जिनमें से भाजपा को केवल छह सीटें दोबारा जीतने में ही कामयाबी मिल पाई है। जबकि जिन 30 सीटों पर उपचुनाव हुए उनमें से कुल 16 भाजपा के कब्जेवाली थी और विपक्ष की जीती हुई केवल 14 सीटें ही थीं। लेकिन भाजपा को किसी भी उपचुनाव में विपक्ष के कब्जे वाली एक भी सीट जीतने में कामयाबी नहीं मिल सकी और उसने अपने कब्जे वाली दस सीटें भी गंवा दीं जिसके नतीजे में अब लोकसभा में उसकी सीटों का आंकड़ा 282 से घटकर 272 रह गया है। लेकिन अब तक हुए उपचुनावों का नतीजा सामने आने के बाद भाजपा को उम्मीद रहती थी कि स्थिति को सुधार लिया जाएगा जबकि अब स्थिति को सुधारने का वक्त बचा ही नहीं है। अब तो समय है जमीनी हकीकत को स्वीकार करते हुए स्थिति के मुताबिक ढ़लने और खुद को बदलने का ताकि संभावित नुकसान कम से कम किया जा सके। सच तो यह है कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने हिन्दी पट्टी के प्रदेशों में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन का रिकार्ड बना लिया था जिसके बाद अब आगामी चुनाव में इससे आगे बढ़ पाने की कोई राह ही नहीं बची है। बल्कि भाजपा को भी पता है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात सरीखे जिन पांच सूबों की सभी लोकसभा सीटों पर उसे पिछली बार सौ फीसदी सीटों पर जीत हासिल हुई थी और यूपी की अस्सी में से 73 सीटों पर उसने कामयाबी का झंडा गाड़ा था उस प्रदर्शन को दोहरा पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल है। ऐसे में उसकी निगाहें पूर्वोत्तर के अलावा दक्षिणी राज्यों पर ही टिकी हुई थीं और उत्तर व पश्चिमी राज्यों में संभावित नुकसान की भरपाई के लिये वह पूरब, पूर्वोत्तर और दक्षिण में ही अपने प्रदर्शन को सुधारने के अभियान में जुटी हुई थी। इसमें कर्नाटक का महत्व इसलिये भी बढ़ जाता है क्योंकि इसे दक्षिण भारत का प्रवेश द्वार कहा जाता है और दक्षिण में भाजपा की जीत का दरवाजा तभी खुल सकता है जब कर्नाटक में बेहतर प्रदर्शन की पक्की गारंटी हो जाए। लेकिन स्थिति यह है कि कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु की कुल 139 लोकसभा सीटों में से भाजपा को केवल कर्नाटक की 28 और आंध्र प्रदेश की 25 सीटों से ही कुछ आस है जबकि बाकी सूबों में उसका खाता ही खुल जाए तो बहुत बड़ी बात होगी। हालांकि आंध्र और कर्नाटक में भी भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव रोकने के लिये कांग्रेस ने मजबूत घेराबंदी कर दी है जिससे बच बेहद मुश्किल होने वाला है। दूसरी ओर बिहार और यूपी की कुल 120 सीटों में से बिहार की 40 सीटों पर उसके लिये मुकाबला बेहद कड़ा रहना स्वाभाविक ही है जबकि यूपी में अगर विपक्षी दलों का महागठजोड़ कायम हो गया तो भाजपा को लेने के देने पड़ सकते हैं। यानि समग्रता में देखा जाये तो लोकसभा की 543 में से दक्षिण और यूपी-बिहार की कुल 259 सीटें अलग कर दें तो बाकी बची 284 सीटों पर ही भाजपा इस समय विपक्ष को टक्कर देने की स्थिति में है और उसमें भी अगर भाजपा की कमजोर स्थिति वाली ओडिशा, पश्चिम बंगाल, जम्मू कश्मीर और पंजाब सरीखे सूबों की सीटों को अलग कर दें तो ऐसी सीटें ही दो सौ से कम बचती हैं जहां से वाकई भाजपा अपनी जीत की बुनियाद रखने में सक्षम हो सकती है। लिहाजा अब केन्द्र में भाजपा की वापसी की संभावनाएं तभी बन सकती हैं जब अव्वल तो विपक्ष का गठजोड़ ना बने और दूसरे अपनी मजबूत उपस्थिति वाली सीटों पर वह जीत दर्ज कराने में कामयाब हो सके। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर  #Navkant_thakur