‘परिणाम के कारणों को टटोलने की जरूरत’
बिना किसी कारण के कोई परिणाम सामने नहीं आता और हर परिणाम के पीछे कोई ना कोई कारण अवश्य छिपा होता है। यह और बात है कि अक्सर परिणाम के पीछे छिपे असली कारण को स्वीकार करने की हिम्मत बहुत कम लोग ही दिखा पाते हैं। मिसाल के तौर पर दिल्ली के तीनों नगर निगम के चुनावों का जो नतीजा सामने आया है उसके असली कारण को स्वीकार करने के बजाय आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से लेकर जमीनी कार्यकर्ताओं की टोली अलग सुर में अपनी रामायण बांच रही हो लेकिन आम दिल्लीवासियों को इसमें कुछ भी अप्रत्याशित, अस्वाभाविक या अनपेक्षित नहीं लगा है। दूसरे शब्दों में कहें तो अगर आम आदमी पार्टी को वाकई इस परिणाम का असली कारण समझ में नहीं आ रहा है तो इससे एक बात तो स्पष्ट है कि उसका जमीन से जुड़ाव नहीं रह गया है। निश्चित तौर पर यह संवादहीनता की स्थिति ही कही जाएगी जिसमें ना तो लोगों की बातें पार्टी समझ पा रही है और ना ही पार्टी की बातें लोगों की समझ में आ रही है। नतीजन लोगों को लग रहा है कि पार्टी की नजर में उनकी सोच और संवेदना की कोई अहमियत नहीं है लिहाजा स्वाभाविक तौर पर दिल्लीवालों ने पार्टी को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है। वर्ना ऐसा भी नहीं है कि इस पार्टी की सरकार ने दो साल में कोई काम ही ना किया हो। ‘बिजली का बिल हाफ और पानी का बिल माफ’ करने का चुनावी वायदा इसने पहले ही पूरा कर दिया है। मोहल्ला क्लीनिक के कारण स्वास्थ्य व चिकित्सा सुविधाओं में आए क्रांतिकारी परिवर्तन की यशगाथा कई विकसित देशों की मीडिया भी गा रही है। इसके अलावा पेयजल की आपूर्ति का दायरा बढ़ाने से लेकर जगह-जगह मुफ्त पेयजल की मशीनें भी लगाई गई हैं। भले ही मुफ्त वाई-फाई उपलब्ध कराने के चुनावी वायदे को पूरा करने और सार्वजनिक परिवहन की बिगड़ती स्थिति को सुधारने की दिशा में ‘बातें भरपूर और काम नदारद’ की हो लेकिन सरकारी स्कूलों की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। यानि समग्रता में देखें तो बेशक प्रचंड बहुमत के साथ जुड़ी हुई भारी जन-अपेक्षाओं को पूरा करने में सरकार को कामयाबी नहीं मिली हो लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सत्ता संभालने के बाद सरकार ने कोई काम ही नहीं किया है। जाहिर है कि अभी अपने वायदों को पूरा करने के लिए केजरीवाल सरकार के पास तीन साल का वक्त बाकी है और उम्मीद की जा सकती है कि काम-काज की मौजूदा रीति-नीति आगे भी जारी रहेगी और नित नए क्षेत्रों में लोगों को राहत मुहैया कराने में भी सरकार कतई कोताही नहीं बरतेगी। लेकिन मसला है कि इन तमाम हकीकतों के बावजूद अगर तीनों ही निगमों में पार्टी को काफी बड़े अंतर से दूसरे नंबर पर रहने के लिए मजबूर होना पड़ा है और वह भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में भी कहीं दिखाई नहीं पड़ी है तो इसकी कोई तो वजह अवश्य होगी। जरूरी नहीं है कि किसी एक वजह से ही जनता ने केजरीवाल के नेतृत्व को नकारने की पहल की है बल्कि इसकी कई वजहें अवश्य हैं जिसके कारण ‘काम का दाम’ इस सरकार को नहीं मिल पाया है। वाकई कहीं ना कहीं यह सरकार जमीन से कट सी गई है और आम लोगों की सरकार देने का जो वायदा किया गया था उसे पूरा करने के बजाय सरकार के शीर्ष संचालकों ने इस तरह की कार्यशैली अपनाई जिससे तानाशाही का आभास होने लगा। पहले तो संगठन में जिस तरह से प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव सरीखे संस्थापक सदस्यों को बुरी तरह बेआबरू करके दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका गया उससे लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आप की बेपरवाही का ही संदेश गया। उसके बाद अपने कार्यक्षेत्र के दायरे को बढ़ाने के लिए केन्द्र सरकार व उपराज्यपाल के साथ रोजाना की लड़ाई ठाने जाने से यही संदेश गया कि इन्हें जो जिम्मेवारी मिली है उसे पूरा करने से बचने का बहाना तलाशा जा रहा है। रही-सही कसर ऊटपटांग बयानबाजी ने निकाल दी और जनभागीदारी की नीति का विसर्जन करके सरकार ने खुद को एक ऐसी कोठरी में बंद कर लिया जहां तक लोगों की सीधी नजर पहुंच ही नहीं पा रही थी। जो पैसा दिल्ली के विकास पर खर्च होना चाहिए था उसे पार्टी के प्रचार पर खर्च किया जाना, जनता से जुड़ने की हर राह को अपनी ओर से बंद कर लेना, सत्ता संचालन की नीतियों का निर्धारण करने के क्रम में वैधानिक व्यवस्थाओं की अनदेखी करना, संवाद के बजाय विवाद खड़ा करके अपनी बात लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करना, पार्टी का विस्तार करने के लिए दिल्लीवासियों का दिल तोड़कर अन्य सूबों में अपनी पूरी ताकत झोंकना, नियुक्ति व स्थानांतरण की प्रक्रिया में मनमाने फैसले करते हुए पारदर्शिता व संवैधानिकता की अपेक्षाओं को अंगूठा दिखाना और अपनी ही कही बात से आपियों का बार-बार पलटना दिल्लीवासियों को इस कदर नागवार गुजरा कि उन्हें ठगे जाने का एहसास हो चला। नतीजन जनता द्वारा पार्टी को नकारा जाना तो पहले ही तय हो चुका था और इसकी झलक राजौरी गार्डन विधानसभा के उपचुनाव में ही दिख गयी थी। खैर, सियासत में कोई हार या जीत अंतिम नहीं होती और असीमित संभावनाओं का खेल ही राजनीति है। लिहाजा आवश्यकता है अपनी कमियों, खामियों व गलतियों को पहचान कर उनमें सुधार लाने की ताकि भविष्य को बेहतर किया जा सके। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant Thakur