शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

‘परिणाम के कारणों को टटोलने की जरूरत’

‘परिणाम के कारणों को टटोलने की जरूरत’

बिना किसी कारण के कोई परिणाम सामने नहीं आता और हर परिणाम के पीछे कोई ना कोई कारण अवश्य छिपा होता है। यह और बात है कि अक्सर परिणाम के पीछे छिपे असली कारण को स्वीकार करने की हिम्मत बहुत कम लोग ही दिखा पाते हैं। मिसाल के तौर पर दिल्ली के तीनों नगर निगम के चुनावों का जो नतीजा सामने आया है उसके असली कारण को स्वीकार करने के बजाय आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से लेकर जमीनी कार्यकर्ताओं की टोली अलग सुर में अपनी रामायण बांच रही हो लेकिन आम दिल्लीवासियों को इसमें कुछ भी अप्रत्याशित, अस्वाभाविक या अनपेक्षित नहीं लगा है। दूसरे शब्दों में कहें तो अगर आम आदमी पार्टी को वाकई इस परिणाम का असली कारण समझ में नहीं आ रहा है तो इससे एक बात तो स्पष्ट है कि उसका जमीन से जुड़ाव नहीं रह गया है। निश्चित तौर पर यह संवादहीनता की स्थिति ही कही जाएगी जिसमें ना तो लोगों की बातें पार्टी समझ पा रही है और ना ही पार्टी की बातें लोगों की समझ में आ रही है। नतीजन लोगों को लग रहा है कि पार्टी की नजर में उनकी सोच और संवेदना की कोई अहमियत नहीं है लिहाजा स्वाभाविक तौर पर दिल्लीवालों ने पार्टी को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है। वर्ना ऐसा भी नहीं है कि इस पार्टी की सरकार ने दो साल में कोई काम ही ना किया हो। ‘बिजली का बिल हाफ और पानी का बिल माफ’ करने का चुनावी वायदा इसने पहले ही पूरा कर दिया है। मोहल्ला क्लीनिक के कारण स्वास्थ्य व चिकित्सा सुविधाओं में आए क्रांतिकारी परिवर्तन की यशगाथा कई विकसित देशों की मीडिया भी गा रही है। इसके अलावा पेयजल की आपूर्ति का दायरा बढ़ाने से लेकर जगह-जगह मुफ्त पेयजल की मशीनें भी लगाई गई हैं। भले ही मुफ्त वाई-फाई उपलब्ध कराने के चुनावी वायदे को पूरा करने और सार्वजनिक परिवहन की बिगड़ती स्थिति को सुधारने की दिशा में ‘बातें भरपूर और काम नदारद’ की हो लेकिन सरकारी स्कूलों की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। यानि समग्रता में देखें तो बेशक प्रचंड बहुमत के साथ जुड़ी हुई भारी जन-अपेक्षाओं को पूरा करने में सरकार को कामयाबी नहीं मिली हो लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सत्ता संभालने के बाद सरकार ने कोई काम ही नहीं किया है। जाहिर है कि अभी अपने वायदों को पूरा करने के लिए केजरीवाल सरकार के पास तीन साल का वक्त बाकी है और उम्मीद की जा सकती है कि काम-काज की मौजूदा रीति-नीति आगे भी जारी रहेगी और नित नए क्षेत्रों में लोगों को राहत मुहैया कराने में भी सरकार कतई कोताही नहीं बरतेगी। लेकिन मसला है कि इन तमाम हकीकतों के बावजूद अगर तीनों ही निगमों में पार्टी को काफी बड़े अंतर से दूसरे नंबर पर रहने के लिए मजबूर होना पड़ा है और वह भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में भी कहीं दिखाई नहीं पड़ी है तो इसकी कोई तो वजह अवश्य होगी। जरूरी नहीं है कि किसी एक वजह से ही जनता ने केजरीवाल के नेतृत्व को नकारने की पहल की है बल्कि इसकी कई वजहें अवश्य हैं जिसके कारण ‘काम का दाम’ इस सरकार को नहीं मिल पाया है। वाकई कहीं ना कहीं यह सरकार जमीन से कट सी गई है और आम लोगों की सरकार देने का जो वायदा किया गया था उसे पूरा करने के बजाय सरकार के शीर्ष संचालकों ने इस तरह की कार्यशैली अपनाई जिससे तानाशाही का आभास होने लगा। पहले तो संगठन में जिस तरह से प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव सरीखे संस्थापक सदस्यों को बुरी तरह बेआबरू करके दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका गया उससे लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आप की बेपरवाही का ही संदेश गया। उसके बाद अपने कार्यक्षेत्र के दायरे को बढ़ाने के लिए केन्द्र सरकार व उपराज्यपाल के साथ रोजाना की लड़ाई ठाने जाने से यही संदेश गया कि इन्हें जो जिम्मेवारी मिली है उसे पूरा करने से बचने का बहाना तलाशा जा रहा है। रही-सही कसर ऊटपटांग बयानबाजी ने निकाल दी और जनभागीदारी की नीति का विसर्जन करके सरकार ने खुद को एक ऐसी कोठरी में बंद कर लिया जहां तक लोगों की सीधी नजर पहुंच ही नहीं पा रही थी। जो पैसा दिल्ली के विकास पर खर्च होना चाहिए था उसे पार्टी के प्रचार पर खर्च किया जाना, जनता से जुड़ने की हर राह को अपनी ओर से बंद कर लेना, सत्ता संचालन की नीतियों का निर्धारण करने के क्रम में वैधानिक व्यवस्थाओं की अनदेखी करना, संवाद के बजाय विवाद खड़ा करके अपनी बात लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करना, पार्टी का विस्तार करने के लिए दिल्लीवासियों का दिल तोड़कर अन्य सूबों में अपनी पूरी ताकत झोंकना, नियुक्ति व स्थानांतरण की प्रक्रिया में मनमाने फैसले करते हुए पारदर्शिता व संवैधानिकता की अपेक्षाओं को अंगूठा दिखाना और अपनी ही कही बात से आपियों का बार-बार पलटना दिल्लीवासियों को इस कदर नागवार गुजरा कि उन्हें ठगे जाने का एहसास हो चला। नतीजन जनता द्वारा पार्टी को नकारा जाना तो पहले ही तय हो चुका था और इसकी झलक राजौरी गार्डन विधानसभा के उपचुनाव में ही दिख गयी थी। खैर, सियासत में कोई हार या जीत अंतिम नहीं होती और असीमित संभावनाओं का खेल ही राजनीति है। लिहाजा आवश्यकता है अपनी कमियों, खामियों व गलतियों को पहचान कर उनमें सुधार लाने की ताकि भविष्य को बेहतर किया जा सके। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant Thakur

मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

‘मौजूदा परिणामों पर भविष्य की परिकल्पना’

‘मौजूदा परिणामों पर भविष्य की परिकल्पना’


मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य काफी हद तक गीता के उस ज्ञान की तरह दिखाई दे रहा है जिसमें कृष्ण ने अर्जुन के समक्ष विकल्प प्रस्तुत करते हुए कहा था कि युद्ध का परिणाम तो पहले से ही तय है लेकिन यह उस पर निर्भर है कि वह युद्ध में हिस्सेदारी करके श्रेय का सेहरा अपने सिर पर बांधना पसंद करता है अथवा रण से भागकर अपयश का भागी बनना बेहतर समझता है। इन दिनों ऐसा ही माहौल दिखाई दे रहा है आगामी दिनों में होने जा रहे राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति पद के चुनाव को लेकर जिसका अंतिम परिणाम हालिया दिनों में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों ने पहले ही तय कर दिया है। लेकिन परिणाम तय हो जाने के बावजूद लड़ाई में हिस्सेदारी करके इन तात्कालिक परिणामों का दूरगामी फायदा उठाने का विकल्प सभी पक्षों के समक्ष स्पष्ट तौर पर खुला हुआ है। इसका दिलचस्प पहलू यह है कि तयशुदा परिणामों की बेहतर समझ होने के बावजूद ना तो सत्ता पक्ष ने इस चुनाव को अपना निर्णायक साध्य समझने की गफलत पाली है और ना ही विपक्ष ने भविष्य का लक्ष्य साधने के लिए इसे साधन के तौर पर इस्तेमाल करने से परहेज बरतना उचित समझा है। बल्कि दोनों ही खेमे इस अवसर का उपयोग करते हुए नए सिरे से सियासी ध्रुवीकरण की कोशिशों में जुटे दिख रहे हैं। जहां एक ओर भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आगे करके 33 दलों को एक मंच पर लाकर केन्द्र सरकार की मजबूती का मुजाहिरा किया है वहीं दूसरी ओर साझा मसलों पर सहमति कायम करके कांग्रेस ने भी 13 दलों की एकजुटता का प्रदर्शन करने में कोई कोताही नहीं बरती है। कहने को तो भाजपा ने अपने सहयोगी व समर्थक दलों को इसलिए रात्रि भोज पर आमंत्रित किया ताकि सरकार के तीन साल के कामकाज के बारे में साथियों की राय जानी जाए जबकि कांग्रेस ने राष्ट्रपति से मोदी सरकार की तानाशाही की शिकायत करने के बहाने विरोधी एकता का सार्वजनिक तौर पर मुजाहिरा किया। हालांकि किसी भी पक्ष ने अब तक यह बताने की जहमत नहीं उठाई है कि अचानक ऐसी कौन सी परिस्थितियां उत्पन्न हो गयीं कि तीन साल तक साथियों व सहयोगियों से निर्धारित दूरी बनाकर चलने के बाद अचानक सबको साथ लेकर आगे बढ़ने की क्या जरूरत पड़ गयी। लेकिन कोई कहे ना कहे, पर सच तो यही है कि अब दोनों ही पक्षों को इस बात का बेहतर एहसास हो चला है कि दो साल बाद होने वाले आम चुनावों में अगर अपनी स्थिति मजबूत करनी है तो इसके लिए अधिक से अधिक दलों को अपने साथ जोड़ना ही होगा। इसके लिए अभी राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति चुनाव के रूप में मौका भी है और दस्तूर भी। जिसका लाभ उठाकर अपनी शक्ति व सामथ्र्य में इजाफा करने की बेहतर शुरूआत की जा सकती है। यही वजह है कि राष्ट्रपति चुनाव अब सिर्फ बेहतर प्रथम नागरिक के चयन की प्रक्रिया तक ही सीमित नहीं रहने वाला है। बल्कि इस मौके को भुनाते हुए सत्ता पक्ष भी अधिक से अधिक दलों को अपने नजदीक खींचने की कोशिश करेगा और संयुक्त विपक्ष की ओर से भी किसी ऐसे चेहरे को आगे किया जाएगा जिसके समर्थन में अधिकतम दलों को एक मंच पर लाया जा सके। यानि इतना तो तय है कि इस बार राष्ट्रपति का चयन सर्वसम्मति से हर्गिज नहीं होने जा रहा। वह भी तब जबकि सबको मालूम है कि भाजपा अपने बलबूते पर ही मनचाहे प्रत्याशी को राष्ट्रपति बनवाने की पूरी क्षमता रखती है। आज की तारीख में 13 सूबों में भाजपा का प्रत्यक्ष शासन है जबकि चार राज्यों में उसके समर्थन से सहयोगी दलों की सरकार चल रही है। लिहाजा भाजपा का मकसद सिर्फ मनचाहे प्रत्याशी को राष्ट्रपति बनवाने तक ही सीमित होता तो उसे 33 दलों को अपने साथ दिखाने के लिए रात्रि भोज का आयोजन करने की कोई जरूरत ही नहीं थी। इसी प्रकार विपक्ष के प्रत्याशी की सुनिश्चित हार स्पष्ट दिखाई पड़ने के बावजूद कांग्रेस की ओर से यह रणनीति नहीं अपनाई जाती कि सत्ता पक्ष की ओर से घोषित किए जाने वाले प्रत्याशी के खिलाफ संयुक्त विपक्ष का कोई उम्मदवार अवश्य खड़ा किया जाए। अगर कांग्रेस की मंशा सिर्फ देश को बेहतर राष्ट्रपति दिलाने की होती तो उसने यह विकल्प खुला रखा होता कि अगर सरकार ने उसके मनमाफिक व्यक्ति को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया तो वह उसका समर्थन भी कर सकती है। लेकिन कांग्रेस ने भी सरकार की ओर से घोषित किए जाने वाले प्रत्याशी का निश्चित तौर पर विरोध करने की रणनीति अपनाई है और सरकार का संचालन करनेवाली भाजपा ने भी साफ संकेत दे दिया है कि वह तमाम सहयोगियों से सहमति लेकर ही किसी को इस पद के लिए आगे करेगी। यानि राष्ट्रपति पद के चुनाव में आंकड़ों के आधार पर अभी से नतीजा निश्चित दिखाई पड़ने के बावजूद अगर टकराव की स्थिति बन रही है तो उसके पीछे सीधी राजनीति यही है कि ‘राष्ट्रपति चुनाव तो महज बहाना है, 2019 के आम चुनाव पर निशाना है।’ ऐसे में अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रपति चुनाव के बहाने गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति को अधिकतम ऊंचाई तक ले जाने के लिए कांग्रेस को मुख्यधारा की सियासत में अलग-थलग करने की भाजपा की कोशिशें सफल होती हैं या फिर हारी हुई लड़ाई को आधार बनाकर भावी जीत की राह पर आगे बढ़ने में कांग्रेस को कामयाबी मिलती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @Navkant Thakur

सोमवार, 10 अप्रैल 2017

‘मसलों की महक पर हावी मसालों की मादकता’

‘मसलों की महक पर हावी मसालों की मादकता’


बाजारू बावर्चीखाने केे पकवानों को सेहत के लिये नुकसानदेह बताए जाने की सबसे बड़ी वजह है पाव भर की मुर्गी को सवा किलो मसाले में पकाया जाना। स्वाभाविक है कि ऐसे खाने में सिर्फ मसाले का ही जायका मिलेगा। मुर्गी की महक तो गायब ही हो जाएगी। इन दिनों यही हो रहा है देश के सियासी बावर्चीखाने में। असली मसलों पर बेमानी मसाले की इतनी मोटी परत चढ़ाई जा रही है कि मसले नजर ही नहीं आ रहे और मसाले मैदान मार रहे हैं। नतीजन बहस का नतीजा सिफर रहना स्वाभाविक ही है। मिसाल के तौर पर शिवसेना के सांसद रविन्द्र गायकवाड़ के साथ हुए एयर इंडिया के विवाद में गायकवाड़ की गलती यही थी कि वे खुद पर काबू नहीं रख पाए और उन्होंने गुस्से में आकर चप्पल चला दिया। वर्ना एयर इंडिया ने जिस तरह से इन दिनों मनमानी की मिसाल कायम की हुई है उसकी सर्वसम्मति से संसद में निंदा होनी तय ही थी बशर्ते गायकवाड़ ने चप्पल चलाने के बजाय इस मसले को संसद में उठाया होता। एयर इंडिया की कार्यप्रणाली का एक नमूना पिछले पखवाड़े लोकसभा अध्यक्षा का बैगेज गायब हो जाने के मामले में भी दिखाई दिया जिसमें एयर इंडिया ने ना तो बुक किए गए बैगेज के सुरक्षा की जिम्मेवारी स्वीकारी, ना सीसीटीवी की फुटेज खंगालने की जहमत उठाई और ना ही बैगेज को उठा ले जाने वाले के खिलाफ कोई एक्शन लेना जरूरी समझा। गायकवाड़ के मामले में पचास हजार से अधिक की रकम का बिजनेस क्लास का टिकट देकर एयर इंडिया ने उन्हें ऐसे विमान में बैठा दिया जिसमें सिर्फ उस इकोनोमी क्लास की सीटें की उपलब्ध थीं जिसे पूर्ववर्ती कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के रसूखदार मंत्री शशि थरूर ‘कैटल क्लास’ करार दे चुके हैं। एयर इंडिया की इस मनमानी का विरोध करने के नतीजे में सार्वजनिक तौर पर अपशब्द व अपमान सहन करना उनसे संभव नहीं हो पाया और वे गुस्से में चप्पल चला बैठे। इसके बाद एयर इंडिया की मनमानी के मसले पर चप्पल का मसाला इस कदर हावी हुआ कि आखिरकार गायकवाड़ को लिखित माफी मांग कर एक ऐसे मामले का पटाक्षेप कराना पड़ा जिसमें वास्तविक पीड़ित वे खुद ही थे। मसलों की महक पर मसाले की मादकता हावी हो जाने के ऐसे तमाम मामले इन दिनों खुली आंखों से स्पष्ट देखे जा सकते हैं। मसलन अलवर में कथित गौ-रक्षकों की पिटाई से हुई गौ-तस्कर की मौत के मामले में भी असली मसला गौ-हत्या पर लगे प्रतिबंध को प्रभावी तौर पर लागू करने में प्रशासन को हासिल हो रही विफलता का ही है। लेकिन यह मुद्दा बहुसंख्यकों की गुंडागर्दी के कारण हुई अल्पसंख्यक की मौत का बनकर रह गया है और पूरी बहस से गौ-हत्या पर रोक के लिए बने कानून की विफलता सिरे से नदारद है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में अवैध बूचड़खानों पर कराई गई तालाबंदी के मामले में भी लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण को पहुंच रहे नुकसान का असली मसला बहस से बाहर है और इस पूरे मामले को ऐसे मनगढ़ंत मसालों में गर्क कर दिया गया है मानो यूपी की योगी सरकार लोगों के खान-पान, रहन-सहन और परिधान-परंपरा को मनमाने तरीके से नियंत्रित करना चाहती है। ऐसी ही तस्वीर यूपी में एंटी रोमियो दस्ते की तैनाती के मामले में भी देखी जा रही है जिसमें बहन-बेटियों की पीड़ा और तकलीफ से जुड़े असली मसले की अनदेखी करते हुए बहस छेड़ दी गई इस दस्ते के नामकरण को लेकर। मामले में मसाले का इस हद प्रयोग किया गया कि आवारा व सड़कछाप मनचलों की तुलना भगवान कृष्ण द्वारा बचपन में की गई उन शरारतों के साथ कर दी गई जिसे उन्होंने 12 वर्ष की उम्र के बाद कभी अंजाम नहीं दिया। योगी सरकार के फैसले का मजाक उड़ाते हुए यहां तक कहा गया कि पहले सुरक्षा के लिए बहन-बेटियां भाई को साथ लेकर घर से निकलती थीं और अब भाईयों को अपनी रक्षा के लिए बहनों के साथ निकलना पड़ रहा है। ये तमाम कुतर्क सिर्फ इसलिए ताकि असली मसले पर बहस ना छिड़ सके। इसी प्रकार तीन तलाक की कुरीति के कारण महिलाओं को झेलनी पड़ रही यातना के मसले को दबाने के लिए कभी समान नागरिक संहिता का विघटनकारी मसाला इस्तेमाल किया जा रहा है तो कभी पर्सनल लाॅ और शरियत की सांप्रदायिक बहस छेड़ी जा रही है। मसलों को मसाले में डुबो दिए जाने के कारण ना तो उस आम उपभोक्ता का दर्द सामने आ रहा जिसे 45 रूपये की दर से चीनी खरीदनी पड़ रही है और ना ही उन गन्ना किसानों के भुगतान की समस्या बहस के केन्द्र में आ पा रही है जिन्हें उनका हक दिलाने के लिए योगी सरकार को मैदान में कूदना पड़ा है। अलबत्ता मसले पर मसाले को हावी करके सरकार के उस फैसले को आलोचना के केन्द्र में लाने की कोशिश की जा रही है जिसके तहत मोदी सरकार ने चीनी की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करके उसकी कीमतों को काबू में रखने के मकसद से 50 लाख टन चीनी के शुल्क मुक्त आयात को हरी झंडी दिखाई है। ऐसे तमाम मामलों को समग्रता में टाटोलने पर चुटकी भर मसले में मुट्ठी भर मसालों का बेहिसाब इस्तेमाल किए जाने की जो तस्वीर सामने आ रही है उससे मसलों का हल कतई नहीं निकल सकता। अलबत्ता इफरात में मसालों का इस्तेमाल करने वाली सियासत को हजम करना लोगों के लिए अवश्य तकलीफदेह होता जा रहा है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur