शनिवार, 30 जनवरी 2016

‘उम्मीदों के संसार को बदलावों की दरकार’

‘उम्मीदों के संसार को बदलावों की दरकार’

लोकसभा चुनाव में भाजपा को अपने दम पर बहुमत मिला। ऐसी लहर चली भाजपा की, जिसमें सभी बह गये। कुछ का तो नामोनिशान ही बाकी नहीं बचा और कुछ बचे भी तो ऐसी लुंजपुंज हालत में कि लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल का दर्जा हासिल करने लायक सीटें भी नहीं पा सके। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव आज भी यह मानते हैं कि अगर उन्हें तनिक भी इस बात का एहसास होता कि उनके दल की ऐसी दुर्गति होगी तो वे हर्गिज लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ते। बिहार में नितीश ने शिकस्त से शर्मसार होकर सूबेदारी छोड़ दी। कांग्रेस के युवराज अज्ञातवास पर चले गये। राकांपा सुप्रीमो शरद पवार ने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया। आलम यह रहा कि तकरीबन आधे दर्जन सूबों में तो किसी गैरभाजपाई दल का खाता भी नहीं खुला। जाहिर है कि अगर जनता ने ढ़ाई दशक के बाद किसी एक दल को पूरा बहुमत सौंपने का फैसला किया तो उसके पीछे असीमित आशाएं व अपरिमित अपेक्षाएं भी जुड़ी थीं। लोगों को यकीन था कि अगर कांग्रेस को जड़ से उखाड़कर भाजपा को सत्ता में लाया जाए तो तमाम समस्याएं छू-मंतर हो जाएंगी। दरअसल रामराज आने की उम्मीद और अच्छे दिनों की आस पर यूं ही विश्वास नहीं किया गया था बल्कि इसे भाजपा ने भी भरपूर हवा दी थी। नरेन्द्र मोदी के तौर पर छप्पन ईंच का सीना रखनेवाले स्वघोषित ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ को प्रधानसेवक के तौर पर प्रस्तुत किया गया। थोक के भाव में वायदे किये गये, कुछ कर दिखाने के इरादे जताए गये। 60 सालों की खाई को पाटने के लिये 60 महीने का मौका मांगा गया। अच्छे दिन लाने की आस बंधाई गयी। एक भारत श्रेष्ठ भारत के निर्माण का भरोसा दिया गया। यूं लग रहा था कि मोदी की ताजपोशी होते ही तुलसीदास की परिकल्पना का ऐसा रामराज आ जाएगा जिसमें ‘दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज में काहु न व्यापा।’ खैर, अब जबकि मोदी सरकार के मौजूदा कार्यकाल का बीस महीना यानि एक-तिहाई वक्त बीत चुका है। ऐसे में पलटकर यह देखा जाना स्वाभाविक ही है कि मोदी को मसीहा मानने के नतीजे में क्या खोया और क्या पाया। इस खोने-पाने का हिसाब लगाने के क्रम में भले ही अच्छे दिन नहीं आ पाने की निराशा साफ झलक रही हो लेकिन अभी ऐसी स्थिति भी नहीं हुई है कि लोग सीताराम येचुरी से सहमत होकर यह कहने लगें कि ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन।’ यानि उम्मीद की डोर कमजोर जरूर हुई है लेकिन टूटी नहीं है। डोर के कमजोर होने की निशानी दिल्ली में भी दिखी है और बिहार में भी। साथ ही विभिन्न सूबों में हुए स्थानीय निकायों के चुनाव में भी हासिल हुई सिलसिलेवार हार ने भाजपा को जमीनी हकीकतों के प्रति खबरदार ही किया है कि कुछ तो गड़बड़ है जिसे सुधारने की जरूरत है। वैसे भी जिस तरह गाड़ी चल रही है उसमें अभी से सर्वे बताने लगे हैं कि अगर अभी चुनाव हुए तो राजग को तीन दर्जन सीटों का नुकसान हो सकता है। यह हाल है बीस महीने के बाद, अगर स्थितियां ऐसी ही रहीं तो अगले 40 महीने के बाद की स्थिति क्या होगी वह तो राम ही जाने। खैर, हकीकत तो यही है कि कहने को 26 केबिनेट मंत्री, 13 स्वतंत्र प्रभारवाले राज्यमंत्री और 26 राज्यमंत्रियों की फौज प्रधानमंत्री मोदी का सत्ता के संचालन में सहयोग कर रही है। लेकिन कामकाज का अधिकांश बोझ मोदी के कांधों पर ही दिख रहा है। मामला विदेश का हो या घरेलू शांति-सुरक्षा का, महंगाई की मार हो या घटती पैदावार, मामला रेल-खेल-तेल या धर्मधकेल का ही क्यों ना हो। बोलबाला ‘हर हर मोदी घर घर मोदी’ का ही दिखता है। हालांकि इसकी असली वजह चाहे कुछ भी हो लेकिन इस सच को भी तो झुठलाया नहीं जा सकता है कि जब विदेश के मामलों को खुद मोदी ही पूरी दिलचस्पी से निपटाने में यकीन रखते हैं तो सुषमा स्वराज सरीखी संगठन की सबसे अनुभवी व लोकप्रिय नेत्री को इस विभाग में जाया क्यों किया जा रहा है? जब वित्त विभाग की सिरदर्दी से ही अरूण जेटली को चैन नहीं मिल रहा तो सूचना-प्रसारण का अतिरिक्त बोझ उन पर क्यों डाला गया है जिसके नतीजे में इस विभाग से सरोकार रखनेवाले तमाम संबंधित पक्ष बुरी तरह त्रस्त हो रहे हैं। जब संसद में समन्वय बनाने के बजाय वेंकैया नायडू खुद ही आक्रमण का नेतृत्व करने की नीति अपना रहे हों तो यह पता करना लाजिमी तौर पर मुश्किल हो जाता है कि उन्हें संसद को चलाने के लिये संसदीय कार्यमंत्री बनाया गया है या विपक्ष को रोजाना नये गतिरोध का बहाना देने के लिये? जब किसानों की आत्महत्या का सिलसिला रोकने में नाकामी ही हाथ आ रही है तो नवगठित महत्वाकांक्षी कृषक कल्याण मंत्रालय को कृषिमंत्री राधामोहन सिंह के पास अतिरिक्त प्रभार के तौर पर पासंग बनाकर क्यों छोड़ा गया है? जब स्किल इंडिया का पूरा अभियान प्रधानमंत्री ही संचालित करते दिख रहे हैं तो राजीव प्रताप रूढ़ी को इसके लिये स्वतंत्र प्रभार देने की जरूरत ही क्या है? खैर, इस तरह के सवाल बहुत से हैं। लेकिन जवाब जहां से आना है वहां फिलहाल मौन की ही स्थिति है। हालांकि यह मौन अब अधिक लंबा नहीं खिंच सकता। वर्ना दो-तिहाई कार्यअवधि बीतने के बाद स्थितियां जितनी बिगड़ी हुई दिख रही हैं उसमें दिन दूनी और रात चैगुनी गति से इजाफा होना तय ही है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर

सोमवार, 25 जनवरी 2016

चेहरा क्या देखते हो, दिल में उतर कर देखो ना....

‘दिल को देखो, चेहरा ना देखो’

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मन की बात तो यही है कि ‘चेहरा क्या देखते हो, दिल में उतर कर देखो ना, मौसम पल में बदल जाएगा, पत्थर दिल भी पिघल जाएगा, मेरी मोहब्बत में है ऐसा असर, देखो ना...।’ उनकी पार्टी भाजपा भी लोगों को यही आगाह कर रही है कि ‘दिल को देखो चेहरा ना देखो, चेहरे ने लाखों को लूटा, दिल सच्चा और चेहरा झूठा।’ लेकिन मसला है कि अव्वल तो दिल चीरकर दिखाना मुमकिन नहीं है और दूसरे दिल में उतरकर किसी की अंदरूनी मंशा का मुआयना करने की फुर्सत भी किसी के पास नहीं है। सबकी अपनी जिन्दगी है, परेशानियां हैं, दुश्वारियां हैं, सपने हैं, उलझने हैं। कौन जहमत उठाए चेहरे के रंग का दिल की तस्वीर से मिलान करने की। यहां तो जो दिखता है वही बिकता है। दिखने और बिकने का वह गणित ही तो है जिससे चवन्नी के चिप्स और अठन्नी के काले-पीले शीतलपेय को दस-बीस रूपये का बाजार भाव मिल जाता है। अब कोई लाख समझाये कि ‘ठंडा मतलब टाॅयलेट क्लीनर’ लेकिन किसे फुर्सत है समझने की। यहां तो चट पैसा और झट तरावट का फार्मूला ही चाहिये सबको। भले ही उसकी अंदरूनी असलियत कितनी भी नुकसानदेह क्यों ना हो। ऐसी ही तस्वीर सियासत में भी दिखती है। यहां भी सबको तुरंत के मामले का फौरन से पेश्तर ही नतीजा चाहिये। भले ही बाद में जो भी सच सामने आए। सच सामने आने तक तो शुरूआती तस्वीर के तहत ही पूरा तिया-पांचा हो चुका होता है। मसलन दिल्ली का चुनाव हुआ तो यहां के दो-चार गिरजाघरों में असामाजिक तत्वों द्वारा की गयी चोरी-चकारी व तोड़फोड़ की वारदातों को ऐसा रंग दिया गया मानो इसाई समुदाय की स्थिति इराक व सीरिया के यजीदियों सरीखी हो गयी हो। मामले की गूंज विदेशों तक सुनाई पड़ी। केन्द्र की सरकार गुहार ही लगाती रह गयी कि मामले की तहकीकात हो जाने के बाद ही कोई राय कायम की जाये। मगर सच सामने आने तक सब्र रखने की समझाइश बेअसर रही और तुरत-फुरत में सामने दिख रही तस्वीर के नतीजे में केन्द्र में स्थापित सत्ताधारियों के अरमानों पर एक नवजात सियासी दल का झाड़ू फिर गया। सूबे के सत्तर की सत्ता में महज तीन तिनके ही बचे, बाकी सबका सफाया हो गया। ऐसा ही मामला बिहार चुनाव के दौरान भी दिखा जब बीफ के विवाद में असहिष्णुता का तड़का लगाकर सम्मानवापसी का जोरदार अभियान चलाया गया जिसका नतीजा वही हुआ जो दिल्ली में पहले ही दिख चुका था। भले ही बाद में पता चला हो कि ना बीफ के विवाद में कोई दम था और ना ही इसाईयों पर कोई संकट है। लेकिन यह सच सामने आने तक तो पूरा सियासी खेल समाप्त हो चुका था। अब फिर से ऐसी ही तस्वीर बन रही है दलितों के उत्पीड़न और अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर अतिक्रमण को लेकर। भले ही इसके पीछे का सच कुछ भी हो लेकिन मौजूदा तस्वीर के तहत उठ रहे सवालों ने सियासत में चटख रंग तो भर ही दिया है। शायद ही कोई इस हकीकत की तह में जाना चाहता हो कि आखिर रोहित वेमुला ने क्यों व किन हालातों में आत्महत्या की। सबकी ख्वाहिश है कि इस मामले को दलितों व गैरदलित बहुसंख्यकों के टकराव का रंग देकर आगामी दिनों में होने जा रहे पांच राज्यों के चुनावों में इसकी छटा बिखेरी जाये। वैसे भी मामले की जांच के लिये बने न्यायिक आयोग को अपनी रिपोर्ट देने के लिये तीन माह का वक्त दिया गया है। यानि जब तक अंदरूनी सच सामने आएगा तब तक सतही तस्वीर के तहत इसका सियासी दोहन हो चुका होगा। इसी प्रकार अलीगढ़ मुस्लिम विश्विविद्यालय को दारूल उलूम देवबंद सरीखी स्वायत्तता व स्वरूप दिलाने की लड़ाई के बीच भी यह सवाल सतह के नीचे दफन दिख रहा है कि आखिर देवबंद से एएमयू की तुलना कैसे की जा सकती है। बकौल एमजे अकबर, देवबंद ने आज तक सरकार से एक पैसा अनुदान नहीं लिया, वह समुदाय के सहयोग से शिक्षा का प्रसार व अपना विस्तार करता है। जबकि एएमयू अंग्रेजों के जमाने से ही सरकारी अनुदान पर आश्रित है। जाहिर है कि जनता की गाढ़ी कमाई से संचालित संस्थान को जब तमाम दबावों के बावजूद पंडित जवाहर लाल नेहरू की सरकार से लेकर लालबहादुर शाष्त्री व इंदिरा गांधी तक की सरकार ने संसद में अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देने से साफ इनकार कर दिया था तब मौजूदा सरकार किस आधार पर इसकी स्थिति में बदलाव की मांग स्वीकार कर सकती है। लेकिन पहले जो हुआ वह कहां तक जायज था अथवा संवैधानिक नजरिये से क्या होना उचित है, इस पर अदालत द्वारा सामने लाये जानेवाले सच का सब्र से इंतजार करना शायद ही किसी को गवारा हो। अलबत्ता तस्वीर तो यही दिखायी जाएगी कि मौजूदा सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों का हक मारा जा रहा है। यानि तह में उतरकर अंदरूनी हकीकत को परखने की फुर्सत मतदाताओं को शायद ही मिल सके। लेकिन मसला यह है कि सियासी तुफान में आरोप-प्रत्यारोप की बौछार से अटे-पटे चेहरे को देखकर ही स्वस्ति देने व खारिज करने की जो परंपरा चल निकली है उससे सियासी दलों को तो जो फायदा-नुकसान होना है वह होता रहेगा, लेकिन सब्र के साथ सच को जानने-समझने की समझदारी दिखाने के बजाय आनन-फानन में जारी तमाशे के तहत संवेदना, भावुकता व पूर्वाग्रह के आधार पर मतदान करने का निर्णायक नुकसान तो देश व समाज को ही झेलना पड़ेगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर

सोमवार, 18 जनवरी 2016

‘इहां कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं, जे तरजनी देखि मरि जाहीं’

‘इहां कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं, जे तरजनी देखि मरि जाहीं’

लक्षमण ने तो त्रेतायुग में ही परशुराम के सामने यह घोषणा कर दी थी कि समूचे हिन्दुस्तान में कोई भी कुम्हड़े की उस बतिया सरीखा सुकुमार, कमजोर या डरपोक नहीं है जो तर्जनी उंगली के इशारे से घबरा कर ही अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दे। इसके बावजूद भी पता नहीं क्यों यहां एक दूसरे को धमकाने-डराने की परंपरा सी चली आ रही है। जिसे देखो वही दूसरे को धमकाता दिख रहा है। घरवाले भी एक दूसरे को डराने में लगे हुए हैं और बाहरवाले भी। यहां तक कि सरहद के उस पार से भी धमकाने का सिलसिला जारी है। कभी परवेज मुशर्रफ यह बताकर डराने की कोशिश करते हैं कि पाकिस्तान ने परमाणु बमों का जखीरा शबेबारात के लिये तैयार नहीं किया है तो कभी लश्करे तैयबा का मुखिया हाफिज सईद पाकिस्तान के मिसाइलों की रेंज बताकर धमकाने की कोशिश कर है। अब कोई तो पूछे इनसे कि आपके मुल्क की मिसाइल कहां तक जा सकती है या आपके मुल्क ने परमाणु हथियार किस लिये बनाये हैं, यह तो खुल के बताया जाये तभी पता लगेगा। वर्ना आप शबेबारात में इसका जुलूस निकालो या आतंकवादियों से इसकी हिफाजत करने के लिये अपना दिवाला निकालो इससे किसी को क्या मतलब। रहा सवाल हिन्दुस्तान का तो, इसे जब दुनिया की सबसे बड़ी खुराफाती सैन्य ताकतों में शुमार होनेवाला चीन नहीं डरा पा रहा, तो आपका मुल्क तो वैसे भी हालिया जारी विश्व के दस सबसे शक्तिशाली सैन्य ताकतों की सूची में गिनने लायक भी नहीं माना गया है। खैर, कहने का तात्पर्य यह है कि वास्तविकता की पूरी जानकारी होने के बावजूद अगर पाकिस्तान की सामरिक औकात के बारे में बड़बोला बयान देकर भारत को डराने-धमकाने का प्रयास किया जा रहा है तो इसकी वजह को तो टटोलना ही पड़ेगा। यह देखना पड़ेगा कि आखिर भारत के साथ ऐसी भाषा में बात करने की हिमाकत क्यों की जा रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसी बात करनेवाले यह समझ रहे हैं कि चुंकि हमारे यहां विरोधियों के साथ इसी भाषा में संवाद किया जाता है लिहाजा वे भी हमें उसी भाषा में अपनी बात संप्रेषित करने का प्रयास कर रहे हैं। अगर सरहद पार के लोग ऐसा समझ रहे हैं तो इसमें उनकी कोई गलती नहीं है। बल्कि वे ऐसा ना समझें तो ही गलत होगा। क्योंकि जब हमारे मुल्क के हैदराबादी सियासी सूरमा यह कहते नजर आते हों कि महज आधे घंटे के लिये पुलिस हटा ली जाये तो देश के 24 करोड़ अल्पसंख्यक तमाम बहुसंख्यकों को सही पाठ पढ़ा देंगे तो पड़ोसी मुल्क के लोग आखिर क्या समझेंगे हमारी भाषा के बारे में? जहां समर्थकों को रामजादा और विरोधियों को हरामजादा बताया जाता हो, जहां एक को सबक सिखाने में कामयाब रहने के बाद दूसरे के ‘दंगल’ में मंगल करने का खुल्लमखुल्ला ऐलान किया जाता हो, जहां सांप्रदायिक नरसंहारों को ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ का नाम दिये जाने की परंपरा हो, जहां बड़ा पेड़ गिरने पर धरती कांपने और कार के नीचे आकर कुचल जानेवाले पिल्ले का उदाहरण देकर अपनी बात रखी जाती हो, जहां विरोधियों के लिये नपुंसक शब्द का इस्तेमाल करने से लेकर प्रधानमंत्री तक को सनकी व पागल बताने से परहेज नहीं बरता जाता हो, जहां सरकार गिराने व बनाने के लिये पड़ोसी मुल्क की खुफिया एजेंसी से सार्वजनिक तौर पर मदद मांगी जाती हो, जहां जननी-जन्मभूमि को डायन बताया जाता हो, जहां सांप्रदायिक आग में सियासी रोटी सेंकने की परंपरा बन गयी हो, और सबसे बड़ी बात यह कि जहां का निजाम ही इस तरह की हरकतें करता हो वहां के बारे में बाहरी लोगों की क्या धारणा बनेगी इसका आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। कहने को तो हमारे मुल्क में कानून इतना सख्त है कि किसी को पंद्रह मिनट तक लगातार घूरने के लिये भी दंड का प्रावधान है, लेकिन यह कितना लागू हो पाता है इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि उदाहरण के तौर पर याद दिलाये जा रहे उक्त कुछ बड़े बयानों पर भी किसी को कोई सजा नहीं सुनायी गयी है। सजा की बात या कानून लागू हो पाने हकीकतों से हटकर भी देखें तो यह जरूरी तो नहीं है कि केवल उतना ही कहने व करने से परहेज बरता जाये जितने के लिये संवैधानिक तौर पर सजा का प्रावधान हो। कुछ परिवार की और कुछ परिवेश की मर्यादा भी होती है और परंपरा भी। लेकिन जहां भाषा में मर्यादा और परंपरा का निम्नतम स्तर लगातार गोते लगाने का रिकार्ड कायम करता दिख रहा हो वहां के विरोधी भी तो वैसी ही भाषा में अपनी बात रखेंगे। वर्ना उनके नजरिये से शायद हम उनकी बात समझ ही ना सकें। अगर ऐसा नहीं होता को बुद्धिजीवियों का एक बड़ा अभिजात्य वर्ग ना तो हाफिज सईद के समकक्ष प्रवीण तोगडि़या को खड़ा करने की जुर्रत करता और ना ही परवेज मुशर्रफ का लहजा हैदराबाद के सियासी सूरमा के सुर से मेल खाता हुआ दिखाई देता। बहरहाल, दुश्मन की गोली का जवाब तो हमारी ओर से गोला दागकर दिया जा सकता है लेकिन उसे बोली में भी परास्त करने की जो प्रतिस्पर्धा घरेलू सियासी मैदान में चल रही है उसे कैसे जायज ठहराया जा सकता है। तहजीब का तकाजा तो यह है कि ‘हम दुश्मन से भी तू-तड़ाक ना करें, सिर्फ उसे नजरों में गिरा दें।’ ना सिर्फ सबकी नजर में बल्कि उसे उसकी नजर में भी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   नवकांत ठाकुर

शनिवार, 16 जनवरी 2016

‘सत्ता की व्यस्तता में संवेदना की शून्यता’

‘सत्ता की व्यस्तता में संवेदना की शून्यता’

सत्ता की ऊंचाई और संवेदना की गहराई के बीच आकाश-पाताल का अंतर तो होता ही है। लेकिन अपेक्षा भी तो उससे ही की जाती है जो शिखर पर होता है। उम्मीद की जाती है कि वह सबकी सुनेगा, सबकी अपेक्षाएं पूरी करेगा। जो जितनी ऊंचाई पर होता है उससे अपेक्षाएं भी उतनी ही ज्यादा की जाती हैं। लेकिन सत्ता की भी अपनी व्यस्तता है। उससे सभी जुड़े होते हैं तो उसे भी सबका सोचना होता है। सबके लिये कुछ ना कुछ करना होता है। हमेशा इस उधेड़बुन में जुटे रहना होता है ताकि वे अपेक्षाएं पूरी की जा सकें जो उससे लोगों ने लगा रखी हैं। लेकिन इस रस्साकशी में सबसे दुखद होता है शिखर पर संवेदना की कमी का एहसास होना। इस बारे में अटल विहारी वाजपेयी ने ठीक ही लिखा है कि ‘ऊँचे पहाड़ पर, पेड़ नहीं लगते, पौधे नहीं उगते, न घास ही जमती है, जमती है सिर्फ बर्फ, जो कफन की तरह सफेद और, मौत की तरह ठंडी होती है, खेलती खिलखिलाती नदी, जिसका रूप धारण कर, अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।’ यानि दूसरे शब्दों में कहें तो सत्ता के शिखर पर सियासत के लिये आवश्यक प्राणवायु कही जानेवाली संवेदना का घोर अभाव होता है। सत्ता की इस संवेदनहीनता का खामियाजा अक्सर सियासत में भुगतना पड़ता है जिसका दूसरा नाम ही ‘एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर’ है। इतिहास गवाह है कि सत्ता और सियासत के बीच संवेदना के संतुलन की डोर जितनी कमजोर रही, उसका खामियाजा भी उतना ही बड़ा भुगतना पड़ा है। लेकिन पीढि़यां बदलने में भले ही देर नहीं लगती हो लेकिन परंपराओं को बदलना हमेशा से बेहद मुश्किल रहा है। एक बार कोई परंपरा स्थापित हो जाये तो पीढि़यों तक उसके अनुसरण का सिलसिला चलता रहता है। यही बात सत्ता के शिखर पर संवेदना की शून्यता से भी जुड़ी है। हालांकि सियासत के लिये तो संवेदना के हथियार का इस्तेमाल हमेशा किया जाता है लेकिन सत्ता के शिखर से संवेदना की धारा बड़ी मुश्किल से निकलती है। निकलती भी है तो अक्सर सियासत का संतुलन साधने की आवश्यकता को ही पूरा करने के लिये। अगर सियासी जरूरत ना हो तो संवेदना की बरसाती नदी अक्सर विलुप्त ही रहती है। मिसाल के तौर पर मौजूदा दौर की ही बात करें तो सत्ता की व्यस्तता ने संवेदनहीनता को इस स्तर पर ला दिया है कि जिस बनारस की धरती ने प्रधानमंत्री को संसद में पहुंचाया है वहीं से तीन दफा सांसद चुने जा चुके शंकर प्रसाद जायसवाल का निधन हुए दस दिन का वक्त गुजर चुका है लेकिन अब तक ना तो प्रधानमंत्री ने संवेदना व्यक्त करने की औपचारिकता निभायी है और ना ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर पार्टी के किसी भी बड़े नेता ने अपने इस साथी के शोक-संतप्त परिवार के लिये दिलासे के दो शब्द कहे हैं। जाहिर है कि जहां अपने पुराने साथियों के लिये ही संवेदना की सरिता सूख चुकी हो वहां इस बात की आस करना तो व्यर्थ ही है कि जम्मू-कश्मीर में जिसे अपने समर्थन से पार्टी ने मुख्यमंत्री बनाया था उसके इलाज के दौरान नहीं तो उसके निधन के बाद ही सही, अपनी संवेदना जताने के लिये पार्टी के अध्यक्ष या सरकार के शीर्ष संचालक जम्मू-कश्मीर जाने की जहमत उठाएंगे। उन्हें न जाना था और ना वे गये। बस भेज दिया नितिन गडकरी के तौर पर अपना एक प्रतिनिधि, सईद परिवार को सांत्वना देने के लिये। अब इन दोनों मामलों को संवेदहीनता की पराकाष्ठा ना कहें तो और क्या कहें। पठानकोट पर हुए आतंकी हमले के प्रति प्रधानमंत्री की चुप्पी को कूटनीतिक मानते हुए कुछ देर के लिये उसकी अनदेखी भी की जा सकती है लेकिन जायसवाल के निधन की अनदेखी को तो अनदेखा नहीं किया जा सकता है। जिस जायसवाल ने काशी की धरती पर तीन बार कमल खिलाया, कभी विवादों में नहीं घिरे, भाजपा को वैश्य वर्ग का मजबूत आधार दिया, और बदले में कभी कुछ नहीं चाहा, कुछ नहीं मांगा। उनके निधन पर भी संगठन व सरकार की संवेदना ना जगे। यहां तक कि बनारस का सांसद होने की हैसियत से भी अपने पूर्ववर्ती अग्रज के प्रति संवेदना का प्रकटीकरण ना हो तो इसे संवदेनहीनता की पराकाष्ठा ही तो कहा जाएगा। इसी प्रकार जिस मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ जुड़कर पहली दफा भाजपा ने कश्मीर में सत्ता का स्वाद चखा, जिन्होंने तमाम विरोधों व मतभेदों को दरकिनार कर, कांग्रेस के बिना शर्त समर्थन को ठुकराकर, अपनी सोच व विचारधारा से समझौता करते हुए भविष्य की चिंता किये बगैर भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनायी, वे दिल्ली के एम्स में मृत्यु शैया पर पड़े हों और भाजपा अध्यक्ष या प्रधानमंत्री के पास उन्हें देखने की भी फुर्सत ना हो और उनकी मौत के बाद उनके शोक संतप्त परिवार को वे ढ़ाढ़स बंधाने भी ना जाये तो इसे संवेदनहीनता की पराकाष्ठा के अलावा और क्या नाम दिया जा सकता है। हालांकि इसे सत्ता की बेपरवाही भी कह सकते हैं और व्यस्तता या लाचारी भी। खैर, ना तो जासयसवाल के गुजरने से बनारस में फिलहाल भाजपा की सेहत पर कोई फर्क पड़नेवाला है और ना मुफ्ती के निधन से जम्मू-कश्मीर के सियासी समीकरण में कोई बदलाव आता दिख रहा है। लिहाजा क्या फर्क पड़ता है संवेदना जतायें या ना जतायें। लेकिन, फर्क तो पड़ता है। तत्काल ही सत्ता पर भले ही फर्क ना पड़े लेकिन सियासत पर संवेदनहीनता के मुजाहिरे का दूरगामी नकारात्मक असर पड़ता ही है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’  ( @ नवकांत ठाकुर )

सोमवार, 11 जनवरी 2016

"वापसी की दिशा में पहलकदमी, यानि लौट के बुद्धू घर को आये"

‘पुरानी डगर पर आ रहा है लौट कर वापस मुसाफिर’

मशहूर शायर जांनिसार अख्तर साहब अपनी एक रूबाई में बताते हैं कि ‘वो शाम को घर लौट कर आएंगे तो फिर, चाहेंगे कि सब भूलकर उनमें खो जाऊं, जब उन्हें जागना है मैं भी जागूं, जब नींद उन्हें आए तो मैं भी सो जाऊं।’ कायदे से तो यह रूबाई किसी भी सामान्य गृहणी के मनोभाव को अभिव्यक्त करती हुई दिखाई पड़ती है लेकिन मौजूदा सियासी माहौल के मद्देनजर ये पंक्तियां उन मतदाताओं की मनोदशा को भी परिलक्षित करती हुई नजर आती हैं जिनका सहयोग व समर्थन हासिल करना भाजपा का लक्ष्य रहा है। हालांकि हर राजनीतिक पार्टी का लक्ष्य रहता है समाज के सभी तबके-फिरके का अधिकतम समर्थन हासिल करना। जिसके लिये कभी विचारधारा का आधार लिया जाता है तो कभी परंपरा का। लेकिन इस मामले में भाजपा शायद इकलौती ऐसी पार्टी है जो शुरूआत से ही यह तय नहीं कर पायी है कि आखिर उसे किस राह पर निर्णायक रूप से आगे बढ़ना है। कभी तो वह कट्टर हिन्दू राष्ट्रवादिता का लबादा ओढ़े हुए दिखती है और कभी सामाजिक समरसता की बातें करके उन लोगों को रिझाने में मशगूल हो जाती है जो संघ परिवार की इस राजनीतिक शाखा पर कतई भरोसा नहीं कर सकते। जनसंघ से टूटकर अलग होने के बाद लंबे समय तक तो गैरकांग्रेसवाद की पतवार थामकर ही इसने अपनी सियासी नैया को दिशा दी और बाद में मंडल को थाम लिया। लेकिन कमंडल की कूटनीति के तहत जब संघियों की कोशिशों से मंदिर मसले का दावानल भड़का तब जाकर पार्टी को अपना अलग ईंधन नसीब हुआ और मंडल को कमंडल के नीचे दबाया जा सका। लेकिन राम के नाम पर अपना वजूद बड़ा करने और चैबीस दलों का ईंट-रोड़ा जोड़कर राजग के नाम से सत्ता का कुनबा खड़ा करने के बाद उसे एहसास हुआ कि केवल राम का नाम ही सत्ता पर एकाधिकार हासिल करने के लिये काफी नहीं है और अगर अपने दम पर बहुमत चाहिये तो समाज के उस तबके को भी अपने साथ जोड़ना होगा जिसे किसी भी कीमत पर भगवा रंग में रंगना गवारा नहीं है। तभी संघ के शीर्ष सैद्धांतिक मसलों को हाशिये पर डालने के साथ ही अटल हिमायत यात्रा भी निकाली गयी और बड़े पैमाने पर दाढ़ी-टोपीधारकों का सम्मेलन भी कराया गया। लेकिन ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम। 2004 में चैबे से छब्बे बनने के चक्कर में दुबे बनकर दुबकने के मजबूर होना पड़ा। हालांकि पार्टी के शीर्ष रणबांकुरों ने हार नहीं मानी और संघ की सलाहियतों को दरकिनार करते हुए धर्मनिरपेक्षता का प्रमाणपत्र हासिल करने के लिये जिन्ना की मजार तक दौड़ लगायी गयी। पर नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात निकला। यानि 2009 का मौका भी हाथ से फिसल गया। अब बारी थी 2014 की। पुराने अनुभवों से इतना तो पता ही था कि ना तो अकेले कमंडल में सत्ता समा सकती है और ना ही मंडल में। साथ ही कट्टर धर्मनिरपेक्षतावादी मतदाताओं से समर्थन की आस लगाना भी बेकार ही था। लिहाजा निकाला गया ऐसा फार्मूला जिसके तहत मतदाताओं के सामने मोदी सरीखे कट्टर हिन्दूराष्ट्रवादी का चेहरा और उनकी जात-बिरादरी का घालमेल करके मंडल-कमंडल का मिश्रण पेश कर दिया गया। मोदी का चेहरा आगे था लिहाजा ना जय श्रीराम के नारे की अलग से जरूरत थी और ना ही किसी अन्य वैचारिक-सैद्धांतिक प्रतिबद्धता को दर्शाने की। रही-सही कसर विरोधियों के बिखराव और कांग्रेस के प्रति जारी जनाक्रोश ने पूरी कर दी। नतीजन समग्रता में महज 32 फीसदी वोट पाकर पार्टी ने अपने दम पर लोकसभा में बहुमत हासिल कर लिया जबकि 68 फसदी वोट पाकर भी बाकियों को बाबाजी का ठुल्लू ही मिला। लेकिन इस गड़बड़झाले के बाद की तस्वीर में जिन्होंने मोदी को हिन्दू राष्ट्रवाद का पर्याय मानकर मतदान किया था वे ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे से बिदक गये और जिन बिरादरीवालों ने मोदी में अपना मसीहा देखा उनकी आस रेल-तेल से लेकर दाल के सवाल में उलझकर दम तोड़ गयी। दलितों-पिछड़ों की तुलना कुत्ते से किये जाने और आरक्षण व्यवस्था में बदलाव का संकेत मिलने के बाद तो बिरादरीवालों की रही-सही आस भी समाप्त हो गयी। नतीजन दिल्ली में दर्द मिला और बिहार में तो बंटाधार ही हो गया। बहुसंख्यकवाद की सियासत का फार्मूला इस कदर फेल हुआ कि अगड़े-पिछड़ों ने एक साथ नकार दिया। ऐसे में अब नये सिरे से स्थापित फार्मूले को अमल में लाने के अलावा दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है वर्ना परंपरागत मतदाताओं का भी मोहभंग होने की नौबत आयी तो अर्श से गिरने के बाद फर्श भी शायद ही नसीब हो। तभी तो जांची-परखी कमंडल की चिमनी को बयानों की फुंकनी से सुलगाने की कोशिशें लगातार जारी हैं। साथ ही गंगा को भी सूबों के सहयोग से नहीं बल्कि अपने दम पर अविरल-निर्मल करने के अलावा गैया को कसाई से बचाने की जुगत भी भिड़ाई जा रही है। वैसे भी विकास और सुशासन के बंबू पर सत्ता का तंबू ताने रखने के प्रयोग की हवा तो मोदी द्वारा गोद लिये गये आदर्श गांव जयापुर में ही निकल गयी जहां अकल्पनीय विकास की धारा बहाने के बावजूद भाजपा को मतदाताओं ने ठेंगा दिखा दिया। यानि अब मजबूरी तो है पुरानी विचारधारा पर लौटने की, लेकिन अपेक्षा है कि कोई इसके लिये ताना भी ना मारे। कोई ये ना कहे कि लौट के बुद्धू घर को आये। तभी तो वापसी की दिशा में पहलकदमी तो हो रही है मगर बेहद फूंक-फूंककर, संभल-संभलकर। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  

शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

‘है अगर हसरते दीदार तो सब्र रख, उस बेवफा का नकाब खिसकेगा जरूर’

‘माहौल घिर गया है बेसब्र आंधियों से’

नवकांत ठाकुर
पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्थित बुलंदशहर के बनवारीपुर-घंघरावाली में पैदा हुए पिछली सदी के शायर पुरूषोत्तम प्रतीक कहते हैं कि ‘क्यों लाल हो रहा है ये आसमान देखो, धरती नहीं रहेगी यूं बेजुबान देखो, माहौल घिर गया है बेसब्र आंधियों से, बरबाद हो ना जाये अपना जहान देखो।’ वाकई इन दिनों देश का सियासी-सामाजिक माहौल बेहद ही बेसब्र दिख रहा है। अक्षय कुमार कह रहे हैं कि अब पाकिस्तान में घुसकर दुश्मनों को मारने का वक्त आ गया है। विपक्षी दल पूछ रहे हैं कि कहां गया वह छप्पन इंच का सीना और कहां गयी वह बातें जो उन्होंने मुंबई पर हुए हमले के बाद कही थीं। यानि पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई के हिमायती सभी दिख रहे हैं। लेकिन शासन व्यवस्था खामोश है। खामोशी भी ऐसी कि हर बात पर प्रधानमंत्री की फौरी प्रतिक्रिया उगलनेवाला ट्विटर हैंडल भी पठानकोट के मसले पर मौन है। जाहिर है कि यह खामोशी बहुतों को बहुत खल रही है, और खले भी क्यों ना। आखिर जब पहले से पता चल चुका था कि आतंकी हमारी सरहद में दाखिल हो चुके हैं और उनके निशाने पर पठानकोट का एयरबेस है, इसके बाद भी उन्हें समय रहते रोकना-दबोचना तो दूर बल्कि तयशुदा मंजिल के चाक-चैबंद किले में दाखिल होने से रोक पाना भी संभव नहीं हो सका तो यह सब जानने के बाद किसे निराशा नहीं होगी। यह निराशा और बढ़ जाती है जब याद आता है कि आतंकियों से जारी मुठभेड़ के बारे में देश की आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेवारी संभालनेवाले गृहमंत्री भी इस कदर अंधेरे में थे कि उधर लड़ाई जारी थी और इधर वे आॅपरेशन समाप्ति का ऐलान कर रहे थे। प्रधानमंत्री कर्नाटक में व्यस्त थे और संचालन की कमान संभालनेवाले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की जुबान पर ताला था। हर तरफ बेचैनी थी, अफरातफरी थी और खामोश मुर्दानी थी। सामने आ रहे थे सिर्फ आतंकियों से लोहा ले रहे जवानों की शहादत के आंकड़े। उस पर तुर्रा यह कि बकौल गुहमंत्री, हम मुंहतोड़ जवाब देंगे। अब सवाल है कि तोड़ क्यों नहीं रहे मुंह, रोका किसने है, किस बात का इंतजार है? पूछा जा रहा है कि आखिर कब तक हम ही पीडि़त बने रहेंगे, कसमसाकर और छटपटाकर हर बार की तरह ना सिर्फ इस बार बल्कि भविष्य में भी विवश होकर बैठे रहना और पड़ोस से जारी परोक्ष युद्ध में एकतरफा तौर पर हर दर्द, जख्म और पीड़ा को सहन करते रहना ही हमारी नियति है क्या? पड़ोसी के टुकड़ों पर पलनेवाले रूबिया का अपहरण करें या जहाज को कंधार ले जाकर बंधक बनायें। हम तो सिर्फ समझौते की शर्तों के सामने झुकते ही आये हैं। हमला संसद पर हो, मुंबई में, पठानकोट में हो या कहीं और। हम हर बार सिर्फ जुबानी तैश-तेवर दिखा सकते हैं या बहुत हुआ तो पड़ोसी के साथ जारी शांति वार्ता को एकतरफा तौर पर बंद कर सकते हैं। इससे अधिक कभी कुछ हो पाने की मिसाल तो इतिहास में नदारद ही है। ऐसे में अब अगर इस दफा देश में आक्रोश है, गुस्सा है और कुछ कर गुजरने की चाहत है तो इसे कोई गलत कैसे कह सकता है। खैर, देश की इस भावना को गलत तो वह सरकार भी नहीं कह रही है जिससे उम्मीदें तो बहुत हैं लोगों को लेकिन अपेक्षाओं पर वह खरी नहीं उतर पा रही है। लेकिन इन तमाम निराशाओं के बीच कुछ बातें ऐसी भी हैं जिनसे उम्मीद जगती है पाकिस्तान के साथ अच्छे दिन आने की, संबंध सुधरने की, कुछ अच्छा होने की। मसलन इस दफा पहली बार पाकिस्तान ने यह स्वीकार किया है कि पठानकोट के हमलावर उसकी सरहद से ही घुसे थे। पहली बार उसने भारत में हुई आतंकी वारदात की तत्काल निंदा-भर्तस्ना की है। पहली बार उसने भरोसा दिलाया है कि जांच करके असली दोषियों को सजा दिलाने में वह हमारा सहायक बनेगा। पहली बार भारत में हुए आतंकी हमले के लिये अमेरिका सहित विश्व समुदाय ने पाकिस्तान पर उंगली उठायी है और उससे मामले को अंजाम तक पहुचाने की अपेक्षा प्रकट की है। साथ ही पहली बार कश्मीर और आतंकवाद को अलग करते हुए वह ऊफा में इस बात के लिये सहमत हुआ है कि आतंक पर अलग से पहले चर्चा होगी और कश्मीर सरीखे बाकी अन्य सभी मसलों पर अलग से सहमति व सहयोग की राह तलाशी जाएगी। यानि समग्रता में देखें तो मौजूदा सरकार ने पड़ोसी मुल्क के साथ इतना राब्ता तो कायम कर ही लिया है कि पठानकोट हमले के बाद भी दोनो तरफ के सियासी हुक्मरानों की परस्पर तल्ख बयानबाजी की परंपरा कुछ पीछे छूट गयी है और दोनों मिलजुल कर कुछ करते हुए दिखने के ख्वाहिशमंद नजर आ रहे हैं। यानि सही दिशा में एक शुरूआत होती हुई तो दिख रही है लेकिन निःसंदेह उलझन काफी जटिल है, पुरानी है। लिहाजा इसे सुलझाने का रास्ता भी लंबा और दुर्गम ही होगा जो हर कदम पर सख्त इम्तिहान भी लेगा लेकिन दोनों को अपने क्रोध, उन्माद और भावनाओं पर संयम रखना ही होगा। इसके अलावा कोई विकल्प ही नहीं है। बाकी विकल्प सिर्फ छलावा है, नजरों का धोखा है और दोनों के लिये आत्महंता डगर है जिस पर आगे बढ़ने का कोई मतलब ही नहीं है। यानि, पड़ोसी को सही राह पर लाने के लिये कोई भी कीमत चुकाने का खम ठोंकनेवालों को यही कहना मुनासिब होगा कि, ‘है अगर हसरते दीदार तो सब्र रख, उस बेवफा का नकाब खिसकेगा जरूर।’ ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’    

सोमवार, 4 जनवरी 2016

‘कछुए की मानिंद सिमट ना जाये फिर ये सिलसिला’

‘कछुए की मानिंद सिमट ना जाये फिर ये सिलसिला’

नवकांत ठाकुर
पठानकोट के एयर बेस पर हुए आतंकी हमले के बाद चारों तरफ आक्रोश है, उबाल है। हर किसी की जुबान पर बस यही सवाल है। अब क्या होगा इसके बाद? क्या दशकों से कछुआ चाल से चल रही दोस्ती व विश्वासबहाली की कोशिशों पर फिर विराम लग जाएगा। वार्ता का कछुआ फिर बंदूक की गर्जना से घबराकर खुद को अपने खोल में सिकोड़ लेगा, समेट लेगा। फिर इधर से यही सुर सुनाई देगा कि बोली और गोली को एक साथ स्वीकार नहीं किया जा सकता और जवाब में उधर से वही घिसी-पिटी आवाज आएगी कि सबकुछ इधर का ही किया-धरा है, उसे नाहक बदनाम करने के लिये। अब तक की परंपरा तो ऐसी ही रही है। बातचीत के माध्यम से सुलह-सफाई की गंभीर कोशिशें शुरू होते ही हर बार सीमापार से ऐसी वारदातों को अंजाम दे दिया जाता है जिससे पूरी प्रक्रिया खटाई में पड़ जाती है। मसलन वाजपेयी की लाहौर यात्रा के बाद हई कारगिल की लड़ाई ने वार्ता प्रक्रिया को सिरे से ध्वस्त कर दिया। उसके बाद कश्मीर मसले को निर्णायक मुकाम तक पहुंचाने की मनमोहन की कोशिशों पर मुंबई के हमले ने बट्टा लगा दिया। यहां तक कि मौजूदा मोदी सरकार द्वारा ऊफा में की गयी वार्ता प्रक्रिया बहाल करने की पहली कोशिश को कश्मीरी अलगाववादियों के प्रेम में पड़कर पड़ोसी मुल्क के सियासी हुक्मरानों ने ही पलीता लगा दिया। और हद तो यह है कि अब नवाज को जन्मदिन के तोहफे के तौर पर अपनी दोस्ती से नवाजने लाहौर जा पहुंचे मोदी को बदले में पठानकोट की घटना से पीठ पर वार सहने के लिये मजबूर होना पड़ा है। लिहाजा परंपरा व दस्तूर के मुताबिक एक बार फिर वार्ता की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना पैदा होना लाजिमी ही है। वह भी तब जबकि फिदायीन हमलावरों की टोली द्वारा हमले से ऐन पहले पाकिस्तानी आकाओं व रिश्तेदारों से की गयी बातचीत रिकार्ड की जा चुकी है और यह जानकारी भी सार्वजनिक हो गयी है कि पिछले महीने आईएसआई ने लश्करे तैयबा, जैशे मोहम्मद, हिजबुल मुजाहिदीन और बब्बर खालसा सरीखे आतंकी संगठनों के साथ मिल-बैठकर भारत में बड़े हमले को अंजाम देने की साजिश रची थी। यानि इस बात में तो शक की गुंजाइश भी नहीं है कि इस पूरी वारदात की पटकथा सरहद के उस पार से लिखी गयी और आत्मघाती हमलावरों का जत्था भी उधर से ही आया था। लिहाजा यह भी तय है कि पाकिस्तानी सेना, वहां के प्रशासन और आईएसआई ने भी इस वारदात को अंजाम देनेवालों की मदद अवश्य की होगी। लेकिन सवाल है कि जब यह पहले से पता था कि आतंकी संगठनों के साथ मिल-बैठकर आईएसआई किसी बड़ी वारदात को अंजाम देने की फिराक में है तो फिर बड़ा दिन के मौके पर नवाज से मिलने व उनके साथ निजी रिश्तों की शुरूआत के बहाने दोनों मुल्कों के बीच विश्वास बहाली की मजबूत पहलकदमी क्यों की गयी? क्या सोच कर की गयी? खैर, इसका जवाब ना तो मिला है और ना मिलने की उम्मीद है। लिहाजा जब जुबानी जवाब ना मिल रहा हो तो क्रिया की प्रतिक्रिया से कुछ जानने-समझने की कोशिश करना ही बेहतर होगा। और प्रतिक्रिया यह है कि जिस वक्त पठानकोट में आतंकी हमला होने की पुख्ता जानकारी मिलने के बाद एनएसजी को वहां भेजने की तैयारी चल रही थी, ऐन उसी वक्त दोनों मुल्कों के बीच परमाणु प्रतिष्ठानों की सूची भी साझा हो रही थी और एक-दूसरे के मुल्कों में कैद मछुआरों व आम नागरिकों की लिस्ट का भी आदान-प्रदान हो रहा था। इसी प्रकार हमले की सूचना सार्वजनिक होने के बाद गृहमंत्री व प्रधानमंत्री कार्यालय के राज्यमंत्री सहित विभिन्न केन्द्रीय मंत्री भी यही बता रहे थे कि जो ताकतें यह नहीं चाहती हैं कि दोनों मुल्कों के बीच अमन व दोस्ती कायम हो वे ही इस तरह की शरारतों के द्वारा वार्ता की गाड़ी को पटरी से उतारने का प्रयास कर रही हैं जिसका मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। यानि इन प्रतिक्रियाओं से इतना तो साफ है कि अब भारत की सरकार ने पाकिस्तान की सेना, उसकी आईएसआई और उसके आतंकी शुभचिंतकों की खुदमुख्तारी को भी समझ लिया है और वहां के सियासी हुक्मरानों की बेचारगी व लाचारगी को भी महसूस कर लिया है। लिहाजा सियासी हुक्मरानों के साथ बातचीत, दोस्ती व विश्वास बहाली की कोशिशों पर वहां की बाकी खुदमुख्तार ताकतों की साजिशों का साया पड़ने देना अब शायद ही गवारा किया जाए। यानि, उम्मीद तो यही है कि बातचीत अपनी जगह जारी रहेगी जबकि सेना को सेना से जवाब मिलेगा और आईएसआई की खुराफातों को हमारी खुफिया संस्थाएं व पुलिस प्रशासन के द्वारा नाकाम किया जाएगा। लेकिन पाकिस्तान के शुभचिंतक आतंकी संगठनों को कैसे मुंहतोड़ जवाब दिया जाए इसका खाका तैयार करना शायद अभी बाकी ही है। खैर, पाकिस्तानी सेना, आईएसआई और हमारी ओर के भी कुछ गद्दारों की पुश्तपनाही का लाभ उठाते हुए सरहद के उस पार से अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देनेवाले इन तत्वों को इनके अंजाम तक पहुंचाने का मार्ग तो तलाशना ही होगा लेकिन इस बहुआयामी कूटनीति के बीच अब असली परख होनी है दोनों मुल्कों के सियासी हुक्मरानों के बीच बने उस कथित निजी व मजबूत तालमेल की जिसके नतीजे में ही पहली बार पाकिस्तानी विदेश विभाग ने ना सिर्फ पठानकोट के वारदात की कड़े शब्दों में निंदा की है बल्कि आतंक के खिलाफ जारी लड़ाई में भरपूर मदद का भरोसा भी दिलाया है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’   

शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

भले देर से आये लेकिन दुरूस्त आएगी, आपदा आयी है तो राहत भी आएगी

‘आफत की आमद और राहत का तोहफा’

नवकांत ठाकुर
आफत-आपदा जब भी आती है। जहां भी आती है। उसके साथ जुड़ी होती है राहत की खबर भी। या यूं कहें कि आपदा आयी है तो राहत भी आएगी ही। भले देर से आये लेकिन दुरूस्त आएगी। यह फार्मूला सिर्फ प्राकृतिक आपदा पर ही लागू नहीं होता, सियासी आफत में भी अक्सर ऐसा ही होता है। मसलन इन दिनों देश के जिन शीर्ष नेताओं पर सबसे जबर्दस्त सियासी आफत आयी हुई है उनमें हेराल्ड केस में फंसे गांधी परिवार से लेकर डीडीसीए घोटाले के आरोपों में उलझे अरूण जेटली भी शामिल हैं। साथ ही आपदाग्रस्त नेताओं की सूची में विधानसभा सीट की सौदेबाजी से लेकर राशन घोटाले सरीखे तमाम आरोपों की मार झेल रहे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह भी हैं और ‘गाली कप्तान को तो गाली भी कप्तान को’ सरीखी दलीलों के तहत दिल्ली के बाद बिहार विधानसभा चुनाव में भी पार्टी की लुटिया डुबोने के लिये जिम्मेवार माने जा रहे अमित शाह भी। हालांकि इन नेताओं पर आयी सियासी आफत की खबरें तो लगातार सुर्खियों में बनी ही हुई हैं। लेकिन आफत के कारण उन्हें हासिल हो रही राहत के बारे में बहुत कम चर्चा हो रही है। बिल्कुल ना के बराबर। जबकि हकीकत तो यह है कि सियासी आफत के मुकाबले उन राहतों की अहमियत भी कतई कम नहीं है जो इस आफत के कारण ही इन नेताओं को मयस्सर हो रही हैं। मसलन हेराल्ड के मुकदमे में उलझने के बाद से सोनिया व राहुल को जितनी सिरदर्दियों का सामना करना पड़ रहा है वह जगजाहिर ही है। लेकिन इस परेशानी के कारण जमीनी स्तर पर उन्हें व उनकी पार्टी को कितना फायदा मिल रहा है इसकी झलक गुजरात व मध्यप्रदेश के बाद आज सामने आये छत्तीसगढ़ के स्थानीय निकायों के चुनावी नतीजों में भी देखा जा सकता है जहां तीसरे कार्यकाल के बाद अब भाजपा की चूलें हिलती हुई दिखने लगी हैं। तीनों ही सूबों में भाजपा का यह लगातार तीसरा कार्यकाल है। अपनी तरफ से उसने कांग्रेस मुक्त भारत अभियान की शुरूआत यहीं से की थी। लेकिन हालिया दिनों में हुए इन सूबों के स्थानीय निकाय के चुनावों में कांग्रेस ने जिस मजबूती के साथ अपना झंडा गाड़ा है और भाजपा का सफाया होने की शुरूआत हुई है उसमें हेराल्ड केस सरीखे उन मामलों की भूमिका को हर्गिज नकारा नहीं जा सकता है जिसके सामने आने के बाद से गांधी परिवार के प्रति सहानुभूति के बयार की धीमी मगर मजबूत शुरूआत का वातावरण बनने लगा है। ऐसी ही राहत की खबर वित्तमंत्री जेटली के लिये भी है जिनका नाम डीडीसीए के मामले में उछलने के कारण केन्द्रीय मंत्रिमंडल से उनको हटाये जाने की जोरदार मांग उठ रही है। सूत्र बताते हैं कि मकर संक्रांति के बाद केन्द्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल की पूरी योजना तैयार हो गयी थी और इसमें जेटली से सूचना व प्रसारण मंत्रालय वापस ले लिये जाने की तैयारी थी जिस पर वे वित्त मंत्रालय की व्यस्तताओं के कारण कथित तौर पर पूरा ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। लेकिन डीडीसीए के मामले के तूल पकड़ने के बाद अब जेटली के कार्यभार के साथ छेड़छाड़ की संभावना भी समाप्त हो गयी है क्योंकि ऐसा करने से यही संदेश प्रसारित होगा कि डीडीसीए के आरोपों में फंसने के कारण ही उनके पर कतरे गये हैं। इसी प्रकार आफत के साथ राहत की खबर रमन सिंह के लिये भी आयी है जिनसे छत्तीसगढ़ की एकछत्र सूबेदारी छिनने की संभावना काफी प्रबल दिख रही थी और उन्हें संभावित मंत्रिमंडल विस्तार में केन्द्र की राजनीति में लाने की योजना बनायी जा रही थी। लेकिन अचानक ही विधानसभा सीट फिक्सिंग के विवाद में उनके दामाद की कथित भूमिका के कारण सीधे तौर पर उनका नाम जुड़ने और चुनाव आयोग द्वारा पूरे मामले की जांच शुरू कर दिये जाने के बाद अब उनके कार्यभार में भी बदलाव की संभावनाएं सिरे से समाप्त हो गयी हैं। खैर, आफत के साथ सबसे बड़ी राहत भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को ही मिलती दिख रही है जिन्हें बिहार की हार का जिम्मेवार मानते हुए संघ व संगठन के भीतर यह बहस जोर पकड़ने लगी थी कि क्यों ना राष्ट्रीय राजनीति से उनकी छुट्टी कर दी जाये और गुजरात की राजनीति में वापस भेज दिया जाये। अगर ऐसा होता तो शाह के लिये इससे अधिक दुर्भाग्य की बात कुछ और नहीं हो सकती थी क्योंकि इतिहास में औपचारिक तौर पर भाजपा अध्यक्ष के रूप में उनका नाम भी नहीं जुड़ पाता। अभी तो वे राजनाथ सिंह के बचे हुए कार्यकाल को ही पूरा कर रहे हैं, उनका अपना औपचारिक स्वतंत्र कार्यकाल तो शुरू भी नहीं हुआ है। लेकिन भला हो आगामी दिनों में होने जा रहे उन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव का जिसमें पार्टी के लिये हार का वरण करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प ही नहीं हैं। हार के इस सिलसिले को सामने देखकर वे लोग कतई अध्यक्ष पद की जिम्मेवारी उठाने का हौसला नहीं दिखा रहे हैं जिनको संघ व संगठन से लेकर सरकार तक का विश्वास हासिल है। लिहाजा सिलसिलेवार पराजय की आफत ने शाह के लिये अध्यक्ष पद पर बरकरार रहने की राहत मुहैया करा दी है। खैर, आफत के कारण मिलनेवाली इन राहत की खबरों के बीच इस तथ्य की अनदेखी हर्गिज नहीं की जानी चाहिये कि ऐसी राहतें तात्कालिक ही होती हैं और आफत टलते ही राहत का सिलसिला समाप्त होने का जोखिम हमेशा बना रहता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’