‘उम्मीदों के संसार को बदलावों की दरकार’
लोकसभा चुनाव में भाजपा को अपने दम पर बहुमत मिला। ऐसी लहर चली भाजपा की, जिसमें सभी बह गये। कुछ का तो नामोनिशान ही बाकी नहीं बचा और कुछ बचे भी तो ऐसी लुंजपुंज हालत में कि लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल का दर्जा हासिल करने लायक सीटें भी नहीं पा सके। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव आज भी यह मानते हैं कि अगर उन्हें तनिक भी इस बात का एहसास होता कि उनके दल की ऐसी दुर्गति होगी तो वे हर्गिज लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ते। बिहार में नितीश ने शिकस्त से शर्मसार होकर सूबेदारी छोड़ दी। कांग्रेस के युवराज अज्ञातवास पर चले गये। राकांपा सुप्रीमो शरद पवार ने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया। आलम यह रहा कि तकरीबन आधे दर्जन सूबों में तो किसी गैरभाजपाई दल का खाता भी नहीं खुला। जाहिर है कि अगर जनता ने ढ़ाई दशक के बाद किसी एक दल को पूरा बहुमत सौंपने का फैसला किया तो उसके पीछे असीमित आशाएं व अपरिमित अपेक्षाएं भी जुड़ी थीं। लोगों को यकीन था कि अगर कांग्रेस को जड़ से उखाड़कर भाजपा को सत्ता में लाया जाए तो तमाम समस्याएं छू-मंतर हो जाएंगी। दरअसल रामराज आने की उम्मीद और अच्छे दिनों की आस पर यूं ही विश्वास नहीं किया गया था बल्कि इसे भाजपा ने भी भरपूर हवा दी थी। नरेन्द्र मोदी के तौर पर छप्पन ईंच का सीना रखनेवाले स्वघोषित ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ को प्रधानसेवक के तौर पर प्रस्तुत किया गया। थोक के भाव में वायदे किये गये, कुछ कर दिखाने के इरादे जताए गये। 60 सालों की खाई को पाटने के लिये 60 महीने का मौका मांगा गया। अच्छे दिन लाने की आस बंधाई गयी। एक भारत श्रेष्ठ भारत के निर्माण का भरोसा दिया गया। यूं लग रहा था कि मोदी की ताजपोशी होते ही तुलसीदास की परिकल्पना का ऐसा रामराज आ जाएगा जिसमें ‘दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज में काहु न व्यापा।’ खैर, अब जबकि मोदी सरकार के मौजूदा कार्यकाल का बीस महीना यानि एक-तिहाई वक्त बीत चुका है। ऐसे में पलटकर यह देखा जाना स्वाभाविक ही है कि मोदी को मसीहा मानने के नतीजे में क्या खोया और क्या पाया। इस खोने-पाने का हिसाब लगाने के क्रम में भले ही अच्छे दिन नहीं आ पाने की निराशा साफ झलक रही हो लेकिन अभी ऐसी स्थिति भी नहीं हुई है कि लोग सीताराम येचुरी से सहमत होकर यह कहने लगें कि ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन।’ यानि उम्मीद की डोर कमजोर जरूर हुई है लेकिन टूटी नहीं है। डोर के कमजोर होने की निशानी दिल्ली में भी दिखी है और बिहार में भी। साथ ही विभिन्न सूबों में हुए स्थानीय निकायों के चुनाव में भी हासिल हुई सिलसिलेवार हार ने भाजपा को जमीनी हकीकतों के प्रति खबरदार ही किया है कि कुछ तो गड़बड़ है जिसे सुधारने की जरूरत है। वैसे भी जिस तरह गाड़ी चल रही है उसमें अभी से सर्वे बताने लगे हैं कि अगर अभी चुनाव हुए तो राजग को तीन दर्जन सीटों का नुकसान हो सकता है। यह हाल है बीस महीने के बाद, अगर स्थितियां ऐसी ही रहीं तो अगले 40 महीने के बाद की स्थिति क्या होगी वह तो राम ही जाने। खैर, हकीकत तो यही है कि कहने को 26 केबिनेट मंत्री, 13 स्वतंत्र प्रभारवाले राज्यमंत्री और 26 राज्यमंत्रियों की फौज प्रधानमंत्री मोदी का सत्ता के संचालन में सहयोग कर रही है। लेकिन कामकाज का अधिकांश बोझ मोदी के कांधों पर ही दिख रहा है। मामला विदेश का हो या घरेलू शांति-सुरक्षा का, महंगाई की मार हो या घटती पैदावार, मामला रेल-खेल-तेल या धर्मधकेल का ही क्यों ना हो। बोलबाला ‘हर हर मोदी घर घर मोदी’ का ही दिखता है। हालांकि इसकी असली वजह चाहे कुछ भी हो लेकिन इस सच को भी तो झुठलाया नहीं जा सकता है कि जब विदेश के मामलों को खुद मोदी ही पूरी दिलचस्पी से निपटाने में यकीन रखते हैं तो सुषमा स्वराज सरीखी संगठन की सबसे अनुभवी व लोकप्रिय नेत्री को इस विभाग में जाया क्यों किया जा रहा है? जब वित्त विभाग की सिरदर्दी से ही अरूण जेटली को चैन नहीं मिल रहा तो सूचना-प्रसारण का अतिरिक्त बोझ उन पर क्यों डाला गया है जिसके नतीजे में इस विभाग से सरोकार रखनेवाले तमाम संबंधित पक्ष बुरी तरह त्रस्त हो रहे हैं। जब संसद में समन्वय बनाने के बजाय वेंकैया नायडू खुद ही आक्रमण का नेतृत्व करने की नीति अपना रहे हों तो यह पता करना लाजिमी तौर पर मुश्किल हो जाता है कि उन्हें संसद को चलाने के लिये संसदीय कार्यमंत्री बनाया गया है या विपक्ष को रोजाना नये गतिरोध का बहाना देने के लिये? जब किसानों की आत्महत्या का सिलसिला रोकने में नाकामी ही हाथ आ रही है तो नवगठित महत्वाकांक्षी कृषक कल्याण मंत्रालय को कृषिमंत्री राधामोहन सिंह के पास अतिरिक्त प्रभार के तौर पर पासंग बनाकर क्यों छोड़ा गया है? जब स्किल इंडिया का पूरा अभियान प्रधानमंत्री ही संचालित करते दिख रहे हैं तो राजीव प्रताप रूढ़ी को इसके लिये स्वतंत्र प्रभार देने की जरूरत ही क्या है? खैर, इस तरह के सवाल बहुत से हैं। लेकिन जवाब जहां से आना है वहां फिलहाल मौन की ही स्थिति है। हालांकि यह मौन अब अधिक लंबा नहीं खिंच सकता। वर्ना दो-तिहाई कार्यअवधि बीतने के बाद स्थितियां जितनी बिगड़ी हुई दिख रही हैं उसमें दिन दूनी और रात चैगुनी गति से इजाफा होना तय ही है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर