गुरुवार, 31 मार्च 2016

‘नाच ना जाने आंगन टेढ़ा’

‘नाच ना जाने आंगन टेढ़ा’

पहले अरूणाचल प्रदेश फिर उत्तराखंड और अब मणिपुर। कतार में हिमाचल भी है और कर्नाटक भी। कहने को तो ये सभी अलग प्रदेश हैं लेकिन इन सभी कांग्रेसशासित सूबों की अंदरूनी कहानी काफी हद तक एक सी ही है। हर जगह नेतृत्व के खिलाफ बगावत की चिंगारी अंदर से ही उभरती दिख रही है। बहुत मुमकिन है कि उस चिंगारी को बाहर से हवा दी जा रही होगी। लेकिन आग जब अंदर से ही सुलग रही हो तो बाहरवालों को क्या दोष देना। बाहरवाले तो चाहेंगे ही कि घर टूटे ताकि उन्हें मलाई काटने का मौका मिल सके। इसी का नाम तो सियासत है, जिसमें इन दिनों कांग्रेस की स्थिति काफी हद तक दयनीय हो चली है। अरूणाचल में भी अपनी ही सरकार के खिलाफ बगावत का बिगुल कांग्रेसी विधायकों ने ही बजाया और उत्तराखंड में भी उसकी ही पुनरावृति हुई। अब मणिपुर भी उसी राह पर बढ़ता दिख रहा है। लेकिन कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व यह जताने में जुटा हुआ है मानो उसकी सरकारों को असंवैधानिक तरीके से सियासी विद्वेष की भावना के तहत अपदस्थ करने की कोशिश की जा रही है ताकि कांग्रेसमुक्त भारत के सपने को साकार किया जा सके। ऐसे में लाख टके का सवाल है कि आखिर दूसरों को दोष देने के बजाय आत्मचिंतन क्यों नहीं किया जा रहा? इस दिशा में विचार क्यों नहीं हो रहा कि एक के बाद हर सूबे में पार्टी के अपने ही विधायक बगावत की राह पकड़ने के लिये क्यों मजबूर हो रहे हैं। हालांकि ऐसे मामलों में राजनीतिक लाभ के लिये संवेदना की सियासत करना मजबूरी भी है और इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। लेकिन बंद दरवाजे के भीतर अगर बीमारी की पहचान करके उसका समुचित इलाज तलाशने की कोशिश नहीं की गयी तो यही नासूर जो उत्तराखंड के बाद अब मणिपुर में पनपता दिख रहा है वह आगे चलकर कर्नाटक को भी चपेट में ले सकता है और बाकी अन्य चार उन सूबों को भी जहां कांग्रेस की सरकार है। दरअसल पार्टी के भीतर जब एक ओर शीर्ष व कनिष्ठ स्तर के बीच संवादहीनता की स्थिति बन जाये और दूसरी ओर शीर्षतम स्तर पर वर्चस्व के टकराव व नीतिगत मसलों पर विरोधाभासी फरमान जारी होने की परंपरा शुरू हो जाये तो संगठन में टूट-फूट, बिखराव व टकराव की स्थिति उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। जब अरूणाचल प्रदेश में पार्टी के विधायक दल में टूट की स्थिति बनी तो मामले को सुलझाने व बातचीत करके सुलह-सहमति की राह तलाशने के बजाय अगर पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष राष्ट्रपति के पास जाकर सरकार बचाने की गुहार लगाने लगे तो लाजिमी है कि बागियों के पास संगठन से विद्रोह करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचेगा। यही मामला उत्तराखंड में भी देखा गया जहां बागियों को मनाने या उनकी बात सुनने की भी जहमत भी नहीं उठायी गयी और बहुमत का विश्वास खो चुके मुख्यमंत्री को सरकार बचाने के लिये कुछ भी कर गुजरने की पूरी छूट दे दी गयी। तभी तो वह स्टिंग भी सामने आया जिसमें सरकार बचाने के लिये रावत साहब अपने ही दल के विधायकों की बोली लगाते नजर आये। अब ऐसा ही कुछ मणिपुर में भी हो रहा है जहां कांग्रेस के 47 में से 25 विधायकों ने मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के खिलाफ  बगावत का बिगुल बजा दिया है और उन्हें पद से हटाने की मांग पर अड़ गये हैं। जाहिर तौर पर वहां भी इबोबी के खिलाफ मोर्चा खोलनेवालों की वैसी ही कुछ मांग है जैसी अरूणाचल व उत्तराखंड के बागियों की थी। वहां भी तो पहले पार्टी के भीतर ही इंसाफ मांगने की कोशिश हुई और मुख्यमंत्री की मनमानी नीतियों के खिलाफ आलाकमान के सामने गुहार लगाने का प्रयास किया गया। लेकिन जब ना तो शीर्ष नेतृत्व से कोई तवज्जो मिली और ना ही सूबे की सियासत में सुधार होने की गुंजाइश बची तब थक-हारकर बागियों को आर-पार की निर्णायक लड़ाई छेड़ने के लिये विवश होना पड़ा। ऐसे में इतना तो स्पष्ट है कि अगर एक के बाद तमाम प्रदेशों में स्थापित नेतृत्व के खिलाफ विरोध व विद्रोह का दावानल एक सरीखा ही सुलग रहा है और उसका इलाज करने में भी हर जगह एक ही रणनीति अपनाई जा रही है तो निश्चित तौर पर संगठन में शीर्ष स्तर पर कुछ तो गड़बड़ है जिसे या तो समझा नहीं जा रहा है या फिर समझने के बावजूद नहीं समझने का प्रयास किया जा रहा है। अगर शीर्ष स्तर पर मामले को संभालने का शिद्दत से प्रयास होता तो कोई कारण ही नहीं है कि हरक सिंह रावत व विजय बहुगुणा सरीखे ऐसे नेताओं को अपनी ही पार्टी से अलग होकर अनिश्चितता की सियासी राह पर आगे बढ़ना पड़ता जिन्होंने सूबे में पार्टी को स्थापित करने के लिये अपनी पूरी उम्र खपा दी। ऐसे में आवश्यकता तो यह है कि बागियों को दुश्मन मानने के बजाय उनकी समस्याओं को समझा जाये, उनकी परेशानियों को दूर किया जाये और संगठन में समन्वय, सहभागिता व सहचर्य का माहौल मजबूत किया जाये। लेकिन विचित्र बात है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व सांगठनिक स्तर पर सामने आ रही अंदरूनी समस्याओं का ठीकरा विरोधियों पर फोड़कर खुद को दीन-हीन दिखाने व लोगों की संवेदना हासिल करने की रणनीति पर अमल करता दिख रहा है। जबकि सच तो यह है कि दूसरों को दोषी ठहराकर आंगन को ही टेढ़ा बताने से दूरगामी तौर पर कुछ भी हासिल नहीं होनेवाला है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’   @नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

शनिवार, 26 मार्च 2016

दुनियां करे सवाल तो हम क्या जवाब दें ....

‘दुनियां करे सवाल तो हम क्या जवाब दें’

वाकई इन दिनों भाजपा सहित संघ परिवार के तमाम अनुषांगिक संगठनों से जुड़े लोगों के मन में साहिर साहब का यही सवाल सुलग रहा है कि ‘दुनियां करे सवाल तो हम क्या जवाब दें, तुमको ना हो खयाल तो हम क्या जवाब दें।’ यह सवाल लाजिमी भी है। क्योंकि लोग तो पूछेंगे कि विपक्ष में रहने के दौरान जो बड़ी-बड़ी बातें की जा रही थीं उन्हें सत्ता में आने के बाद क्यों भुला दिया गया। बातें सिद्धांतों की, विचारों की और सुनहरे सपनों की। कहते हैं कि भाजपा अलग ही मिट्टी-पानी की पार्टी है जो सत्ता की बजाय सिद्धांतों की सियासत करती है। लिहाजा सत्ता पर पूरी बहुमत से कब्जा हो जाने के बाद सिद्धांतों से किनारा किये जाने पर सवाल तो उठेंगे ही। कहां गये वो सिद्धांत जो कहते थे कि देश में एक भी बांग्लादेशी घुसपैठिये को रहने-बसने की इजाजत नहीं दी जाएगी। कहां गयी वह सोच जो समूचे देश के लिये ‘एक प्रधान, एक विधान और एक निशान’ की बात कहती थी। बातें तो गऊ रक्षा की भी की जाती थी और भव्य राममंदिर की भी। लेकिन अब तमाम बातें खुले में रखे कपूर की मानिंद गायब दिख रही हैं। कहने को तो असम के लिये जारी किये गये विजन डाक्यूमेंट में एक बार फिर भाजपा ने दोहराया है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों को हर्गिज देश की सरहद में दाखिल नहीं होने दिया जाएगा। लेकिन सवाल यह है कि अब जबकि केन्द्र की सत्ता संभाले हुए पार्टी को तकरीबन दो साल का वक्त होने जा रहा है तो वह कितने बांग्लादेशियों को असम से खदेड़ कर सरहद के उस पार भेजने में कामयाब हुई है? तरूण गोगोई के शब्दों में जवाब तो सिफर ही है, यानि निल बटा सन्नाटा। ऐसे में अगर पार्टी के ताजा वायदे को विरोधियों द्वारा ‘नये जुमले’ का नाम दिया जा रहा है तो इसमें गलत ही क्या है? कहने को तो अमित शाह ने केवल प्रधानमंत्री के उस वायदे को ही चुनावी जुमला बताया था जिसमें उन्होंने विदेशों में जमा भारतीयों का कालाधन वापस आ जाने के नतीजे में हर किसी के हिस्से में 17 लाख रूपया आने की बात कही थी। लेकिन हकीकत तो यही है कि चुनावी जुमला सिर्फ वही नहीं था। अलबत्ता लच्छेदार भाषा में की गयी संघ परिवार के विचारों व मूलभूत सिद्धांतों से जुड़ी तमाम बातें भी अब जुमलेबाजी सरीखी ही महसूस हो रही हैं। तभी तो पिछले हफ्ते हुई पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रखर राष्ट्रवाद के अलावा उन तमाम मसलों पर पूरी तरह चुप्पी साध ली गयी जो भाजपा की पहचान से जुड़े मुद्दे माने जाते रहे हैं। ना गऊरक्षा की कोई बात हुई और ना ही धारा 370 की। राममंदिर और समान नागरिक संहिता का मसला तो हाशिये पर भी नहीं रहा। उस पर तुर्रा यह कि कार्यकारिणी का औपचारिक समापन करते हुए प्रधानमंत्री ने ‘विकास, विकास और विकास’ के एजेंडे पर ही ध्यान केन्द्रित रखने का निर्देश देते हुए कार्यकर्ताओं को सख्त लहजे में समझा दिया कि वे व्यर्थ के मुद्दों में हर्गिज ना उलझें। अब प्रधानमंत्री ने किन मुद्दों को व्यर्थ बताया यह समझाने में तो गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी उलझकर रह गये। लेकिन अगर जीतेन्द्र सिंह द्वारा धारा 370 का मुद्दा उठाये जाने पर उन्हें चुप करा दिया जाता हो और साक्षी महाराज द्वारा वर्ष 2019 से पूर्व ही अयोध्या में भव्य राममंदिर का निर्माण कार्य पूरा हो जाने का एलान किये जाने पर पार्टी नेतृत्व असहज हो जाता हो तो यह समझने में शायद ही किसी को मुश्किल पेश आएगी कि प्रधानमंत्री ने किन मसलों को व्यर्थ बताने की कोशिश की है। सच तो यह है कि खुद को ‘बीफ भक्षक’ बतानेवाले मंत्रीपद पर शोभायमान हैं और गौमांस को प्रतिबंधित किये जाने की मांग करनेवाले गौभक्तों की टोली को गुजरात के राजकोट में सामूहिक आत्महत्या करने के लिये विवश होना पड़ा है। अलबत्ता अपने मूलभूत सिद्धांतों में शामिल प्रखर राष्ट्रवाद के मसले का झंडा आगे रखते हुए ‘भारत माता की जय’ का नारा अवश्य गुलंद किया जा रहा है लेकिन ना कश्मीर में पाकिस्तान का झंडा लहरानेवाली आसिया अंद्राबी पर कोई सख्ती हो रही है और ना ही 370 की कट्टर समर्थक पीडीपी के साथ साझेदारी की सरकार बनाने में कोई संकोच महसूस किया जा रहा है। बल्कि कश्मीर में कदम रखते ही शायद ‘राष्ट्रवाद’ का मसला भी वैसे ही व्यर्थ हो जा रहा है जैसे केरल व नागालैंड सरीखे सूबों में गऊ रक्षा का मुद्दा। अलबत्ता पूरा जोर है ना सिर्फ सत्ता पर अपनी पकड़ को सलामत रखने पर बल्कि अनछुए इलाकों में अपना विस्तार करने पर भी। ऐसे में वैचारिक व सैद्धांतिक मसले अगर व्यर्थ लग रहे हैं तो यह काफी हद तक वैसा ही है जैसे सवर्णों के वोट को अपनी बपौती जागीर समझकर दलितों व पिछड़ों को लुभाने के लिये पूरी ऊर्जा झोंक दिया जाना। अब इसका नतीजा अगर बिहार जैसा ही रहा तो मुश्किल हो भी सकती है लेकिन फिलहाल तो पार्टी को वैसा कुछ होता हुआ दिख नहीं रहा। लिहाजा सैद्धांतिक मसलों पर जुमलेबाजी की भी जरूरत नहीं समझी जा रही है। लेकिन पेंच उन लाखों भाजपाई कार्यकर्ताओं व स्वयंसेवकों के सामने फंसा हुआ है जो इन तमाम मसलों पर पूछे जानेवाले सवालों का कुछ भी जवाब देने की स्थिति में नहीं हैं और खुद ही यह सवाल करते हुए महसूस हो रहे हैं कि ‘दुनियां करे सवाल तो हम क्या जवाब दें.....?’ ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

शुक्रवार, 18 मार्च 2016

‘सियासी समीकरणों पर हावी जिद का जुनून’

‘सियासी समीकरणों पर हावी जिद का जुनून’

किसी भी लक्ष्य को हासिल करने की पहली सीढ़ी होती है जुनून की हद तक जिद ठानना। लेकिन जिद ठानने से पहले आवश्यक है लक्ष्य का निर्धारण। लक्ष्य ऐसा हो जिसकी शुचिता, प्रामाणिकता, वैद्यता व सर्वस्वीकार्यता भी हो। तभी उसे हासिल करने की राह में कोई अकेला भी निकले तो उसके पीछे लोग जुड़ते हैं और कारवां बनता व बढ़ता चला जाता है। लेकिन अगर लक्ष्य ही ऐसा हो जो नैतिकता, वैधानिकता व व्यवहार्यता की कसौटी पर खरा ना उतरे तो ऐसे लक्ष्य के निर्धारकों के साथी, सहयोगी व समर्थक अधिक दिनों तक एकजुट नहीं रह पाते। नतीजन ऐसे लक्ष्य को हासिल करने के लिये ठानी गयी जिद के कारण भले ही आरंभिक व तात्कालिक तौर पर चैतरफा परेशानियों, समस्याओं व अव्यवस्थाओं का बोलबाला दिखाई दे लेकिन गुजरते वक्त के साथ ऐसे मसलों की जिद लगातार कमजोर होकर आखिरकार अपना अस्तित्व ही खो देती है। यहां तक कि कई बार जिद ठाननेवाले भी अपने लक्ष्य से ना सिर्फ विमुख हो जाते हैं बल्कि अपने ही द्वारा तय किये गये लक्ष्य का कड़ा विरोध करने से परहेज नहीं बरतते हैं। पिछले कुछ दशकों में ही ऐसे कई उदाहरण सामने आये हैं जब पहले तो किसी गलत मसले पर जुनून की हद तक जिद ठानी गयी लेकिन बाद में उस लक्ष्य की कमियों व खामियों से अवगत होने के बाद तयशुदा लक्ष्य की विपरीत दिशा में पहलकदमी करने से परहेज नहीं बरता गया। मसलन जब राजीव सरकार ने कामकाज के कम्प्यूटरीकरण की नींव रखी तो तमाम विरोधी दलों, गैरराजनीतिक संगठनों व सामाजिक संस्थाओं की ओर से इसका भारी विरोध किया गया। दलील दी जा रही थी कि जब इंसानों का काम कम्प्यूटर करने लगेगा तो इंसान क्या करेंगे। लेकिन अब ये हालत है कि कम्प्यूटर का विरोध करनेवाले ही डिजिटल इंडिया के सबसे बड़े पैरोकार बने हुए हैं। यही हालत हुई जब कांग्रेसनीत संप्रग की पिछली सरकार ने सरकारी सब्सिडी का लाभ आधार को आधार बनाकर ही लोगों को दिये जाने का प्रस्ताव रखा। तब तो लोगों की निजता का अधिकार छिन जाने का हौव्वा खड़ा करके ऐसी हाय तौबा मचायी गयी कि आधार को कानूनी व संवैधानिक स्वीकार्यता मिलना भी संभव नहीं हो सका। लेकिन उस दौरान आधार का सबसे प्रबल विरोध करनेवालों की टोली जब सत्ता में आयी तो उसे अपनी सोच बदलनी पड़ी। अब तो वे आधार के इतने प्रबल पैरोकार बनकर सामने आये हैं कि जब उन्हें लगा कि इसके विधेयक को राज्यसभा से पारित कराने में परेशानी हो सकती है तो संसदीय व्यवस्था का सहारा लेकर इन्होंने इसे ‘मनी बिल’ की शक्ल में लोकसभा में पेश कर दिया क्योंकि किसी भी ‘मनी बिल’ को अटकाने, लटकाने, खारिज करने या उसमें संशोधन करने का राज्यसभा को अधिकार ही नहीं है। यानि समग्रता में देखें तो अगर लक्ष्य जनलोकपाल लागू कराने सरीखा हो तो एक सामान्य नौकरशाह के पीछे भी समूचा देश खड़ा हो जाता है और एक ऐसी राजनीतिक पार्टी पैदा होती है जो अपने गठन के डेढ़ साल के भीतर ही 96 फीसदी सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ दिल्ली प्रदेश की सत्ता पर कब्जा कर लेती है। लेकिन अगर लक्ष्य हो सोने पर एक फीसदी एक्साइज ड्यूटी के बजटीय प्रस्ताव को खारिज कराने का तो तत्कालीन विपक्ष की गलत सोच के कारण स्वर्णकारी की आड़ में कालेधन को छिपाने का कारोबार करनेवालों को वर्ष 2012 में भले ही इस मामले में कामयाबी मिल गयी हो लेकिन इस दफा तो काले को सफेद करनेवालों को निराशा ही हाथ आनेवाली है। भले ही उन्होंने आड़ ले रखी हो आम स्वर्णकारों के हितों की लेकिन चुंकि इस व्यवस्था का ना तो ग्राहकों पर कोई असर पड़ना है और ना ही सामान्य मेहनतकश स्वर्णकारों पर। अलबत्ता इससे सोने के पूरे साम्राज्य की जन्म-कुंण्डली सरकार के सामने खुलकर आ जाने के कारण इसमें जारी गोरखधंधे पर नकेल कस जाएगी और कालाधन खपाने का यह रास्ता बंद हो जाएगा लिहाजा शुरूआत में जिन व्यापारी संगठनों ने स्वर्णकारों के आंदोलन को अपना समर्थन दिया था, वे भी अब लगातार पीछे हटते दिख रहे हैं। खैर, जुनून की हद तक ऐसी ही जिद का नजारा दिख रहा है ‘भारत माता की जय’ कहलवाने और गर्दन पर छुरी होने के बावजूद यह नहीं कहने को लेकर। इसमें कायदे से देखें तो अव्वल तो किसी भी भारतवासी की राष्ट्रभक्ति पर सवाल उठाना ही बेमानी है और दूसरे इतनी स्वतंत्रता तो सबको मिलनी ही चाहिये कि वह चाहे तो अपने देश के मानचित्र में मां की छवि देखे अथवा अपने महबूब की। अगर किसी का मजहब खुदा के अलावा किसी और का वंदन-पूजन करने की इजाजत नहीं देता तो इसे सम्मानपूर्वक स्वीकार करके उसके दिल से निकली ‘जय हिंद’ और ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ की बुलंद व पुरकशिश आवाज को ही पर्याप्त क्यों ना मान लिया जाये। लेकिन जिद है, तो है। खैर, राजनीतिक लाभ के लिये ठानी जानेवाली ऐसी जिद भले ही तात्कालिक तौर पर स्थापित सियासी समीकरणों पर भारी पड़ जाये लेकिन आखिरकार भारी अफरातफरी के बाद जब इसकी हकीकत सामने आती है तो इसके आधारहीन लक्ष्य का कोई अस्तित्व ही नहीं बचता है। बल्कि ऐसे में शर्मसार होना पड़ता है उन्हें जो बिना आगे-पीछे की हकीकत को पहचाने ही बेतुकी जिद ठान बैठते हैं। लेकिन भले ही बाद में सब कुछ सही हो जाये और पूरे मामले को भुला दिया जाये लेकिन इससे होनेवाले तात्कालिक नुकसान की भरपायी तो नामुमकिन ही है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 
@नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

सोमवार, 14 मार्च 2016

‘आधी आबादी के हितों की सियासी पैरोकारी’

‘आधी आबादी के हितों की सियासी पैरोकारी’

चुनावी राजनीति का प्राणवायु तो वोट ही है। लिहाजा राजनीति का वोट केन्द्रित होना लाजिमी ही है। तभी तो राजनीतिज्ञों की हर कथनी और करनी को वोटों के समीकरण से जोड़कर देखे जाने की पुरानी परंपरा रही है। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि हर राजनीतिक दल को मतदाताओं के जिस वर्ग से समर्थन हासिल होने की उम्मीद दिखती है वह उधर ही लुढ़क जाता है। इसके लिये कभी तुष्टिकरण का सहारा लिया जाता है तो कभी एक को निशाने पर रखकर दुसरे को लुभाने की तरकीब आजमायी जाती है। इसी वोटकेन्द्रित राजनीति के कारण विचारधाराएं भी स्थापित होती हैं और सिद्धांत भी। तभी तो कल तक ‘तिलक तराजू और तलवार को जूते चार’ मारने का आह्वान करनेवालों को जब समझ आता है कि सीमित मतदातावर्ग के सहारे असीमित लक्ष्य हासिल कर पाना संभव नहीं है तो वे अपने सिद्धांतों में तब्दीली करके ‘हाथी’ को गणेश व ब्रह्मा, विष्णु, महेश का प्रतीक बताने से भी परहेज नहीं करते हैं। कोई देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला हक होने की बात करता है तो कोई बहुसंख्यकवाद की राजनीति को नये आयाम तक पहुंचाने की कोशिशों में जुटा दिखता है। यहां दोस्ती भी वोट के लिये होती है और दुश्मनी भी। कभी दुश्मनों के बीच दोस्ती का दिखावा होता है तो कभी दोस्तों के बीच दुश्मनी का। हालांकि अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक और अगड़े-पिछड़े की सियासी धुरी अपनी जगह बदस्तूर कायम है लेकिन लंबे समय से जारी खींचतान के कारण इसमें इतना अधिक घालमेल हो गया है कि अब इसके आकर्षण व चमक में पहलेवाली बात नहीं दिख रही। अब तो पुराने समीकरणों को नये हालातों में प्रभावी तौर पर लागू करना भी बेहद मुश्किल हो चला है। अब ना तो भाजपा पहले जैसी अछूत या मनुवादी है और ना ही राष्ट्रीय राजनीति में अल्पसंख्यक मतों का एकमुश्त ध्रुवीकरण संभव हो पा रहा है। दलित व आदिवासी समाज में भी क्षेत्रीय व सूबाई स्तर पर भारी बिखराव का माहौल है। ऐसे में इन दिनों एक नया प्रयोग उस आधी आबादी को अपने साथ जोड़ने का चल रहा है जिस पर सांप्रदायिक व भावनात्मक सियासी शगूफों का असर सबसे कम होता है और जो खामोशी से मतदान करके पूरा खेल बदल देने की कूवत रखती है। आधी आबादी के वोट की ताकत का एहसास सबसे मजबूत तरीके से पहले मध्य प्रदेश में व बाद में बिहार में सबको हो चुका है। यहां तक कि ओडिशा की स्थायी सरकार को भी इसी आधी आबादी के मजबूत समर्थन से ताकत मिलती रही है। यही वजह है कि इन दिनों महिलाओं का दिल जीतकर उनको अपने पक्ष में लामबंद करने की होड़ सी चल पड़ी है। सूबाई स्तर पर देखें तो महिलाओं का दिल जीतने के लिये बिहार में शराबबंदी का ऐलान करने से लेकर नकली शराब बनानेवालों के लिये मौत की सजा तक का प्रावधान किया जा रहा है। आलम यह है कि कोई सूबा बेटियों को सायकिल बांट रहा है, कोई लैपटाॅप तो कोई वजीफा। कोई लाडली लक्ष्मी योजना चलाकर हर बेटी को लखपती बना रहा है तो कहीं बेटी के जन्म के शगुन से लेकर कन्यादान तक का खर्च वहन करने में भी सरकार सहायक बन रही है। कहीं वृद्ध माताओं को तीर्थाटन कराने की योजनाएं संचालित हो रही हैं तो कहीं राज्य परिवहन की बसों में महिलाओं को मुफ्त यात्रा का कूपन बांटा जा रहा है। आलम यह है कि हर प्रदेश का सत्ताधारी दल खुद को सबसे बड़ा महिला हितैषी साबित करने की होड़ में है। स्थानीय चुनावों में महिलाओं के लिये आरक्षण का इंतजाम करने की बात हो या नौकरियों में महिलाओं को प्राथमिकता देने की। हर सरकार बढ़-चढ़कर महिला सशक्तिकरण की राह पर अग्रसर है। यहां तक कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान बताते हैं कि वे अपने सूबे की सभी महिलाओं के भाई हैं और खुद को मामा कहकर संबोधित किया जाना ही पसंद करते हैं। यानि समग्रता में देखें तो देश की आधी आबादी इन दिनों वोट बैंक की राजनीति का नया केन्द्र बनकर सामने आयी है जिसका सहयोग व समर्थन हासिल करने की कोशिशों में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। इसमें दिलचस्प बात यह है कि परंपरागत सियासी हथकंडों व भावनात्मक शगूफों से महिलाओं को बरगलाना संभव नहीं होने के कारण सबोंको अब इन्हें सीधा फायदा पहुंचाने की योजनाएं भी लागू करनी पड़ रही हैं और विकास व सुशासन की राह पर आगे भी बढ़ना पड़ रहा है। तभी तो केन्द्र सरकार के तमाम विभागों ने भी महिलाओं को केन्द्र में रखकर नयी-नयी योजनाओं को जमीन पर उतारना आरंभ कर दिया है। मसलन चूल्हे की कीमत पर गैस का कनेक्शन देने की बात हो या महिला बैंक का विस्तार करने की, सुकन्या समृद्धि योजना का विस्तार करने की, महिला को ही परिवार के मुखिया की मान्यता देने की या महिलाओं को ट्रेन में सीट बदलने की सहूलियत देने की। यहां तक कि विधायिका में आरक्षण देने की कटिबद्धता भी अब स्पष्ट दिख रही है। बहरहाल, वोट बैंक के तौर पर महिलाओं को एक अलग नजरिये से देखे जाने की इस नयी परंपरा से मौजूदा पितृसत्तात्मक समाज को यह तो समझ ही जाना चाहिये कि आगामी दिनों में इस वोट बैंक पर कब्जे का सियासी संघर्ष लगातार तेज होनेवाला है जिसके नतीजे में महिला आरक्षण का विरोध करने के बहाने मुलायम सिंह यादव सरीखे नेताओं द्वारा दी जाती रही दलीलें अब कतई स्वीकार्य नहीं हो सकती हैं। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

शुक्रवार, 11 मार्च 2016

‘कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त.....’

‘कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त.....’

इन दिनों देश का सियासी माहौल ऐसा दिख रहा है मानो हर तरफ आंसुओं की बाढ़ आयी हुई हो। सरकार हो या विपक्ष, सभी टेसुए बहा रहे हैं। यहां तक कि सियासी दलों के गैरसियासी मुखौटों की आंखों से भी आंसुओं की बरसात हो रही है और सामाजिक सरोकारवाले संगठनों की आखें भी सुर्ख पनीली दिख रही हैं। आलम यह है कि ऐसा कोई ढ़ूंढ़े से नहीं मिल रहा जिसके सीने में आग और आंखों में नमी ना हो। जिसकी निगाहों से देखें तो मौजूदा व्यवस्था व हालातों में कहीं कोई कमी ना हो। सरकार अपनी किस्मत को रो रही है और विपक्ष रो रहा है सरकार की करतूतों पर। बाकियों को देश व देशवासियों की बदहाली खाए जा रही है। हमेशा की तरह सबकी सोच यही है कि उसके अलावा बाकी सभी देश को रसातल में गर्क करने पर आमादा हैं। एक वही है जिसने बचाया हुआ है, देश व समाज को टूटने से, डूबने से और लुटने से। कोई भी यह मानने के लिये तैयार नहीं कि वह अपने हित और अपने फायदे के लिये रो रहा है। अलबत्ता स्यापा हर तरफ देशहित का ही हो रहा है। सरकार का गम है कि उसे ऐसे विपक्ष को झेलना पड़ रहा है जो किसी भी मामले में कतई सहयोग करके राजी नहीं है। नतीजन देश के विकास की गाड़ी राज्यसभा की दहलीज से निकल ही नहीं पा रही है। यानि देश की उन सभी समस्याओं को लेकर सरकार रो रही है जिसे वह हल तो कर सकती है लेकिन उसे ऐसा करने नहीं दिया जा रहा है। अब सवाल है कि लोकसभा की लड़ाई के वक्त तो यह बताया ही नहीं था कि जितने वायदे किये जा रहे हैं वे सभी शर्तों के अधीन हैं। शर्त राज्यसभा में बहुमत की, विपक्ष के सहयोग की और विधानसभाओं के चुनाव में जीत की। तब तो ऐसी हवा बांधी थी मानो इनकी सरकार बनी नहीं कि तमाम समस्याएं उड़न-छू। लेकिन जादूई वायदों को जमीन पर उतारने में नाकाम रहने की तोहमत लगने की शुरूआत होने के साथ ही देश के नाम पर रोना-पीटना शुरू कर दिया गया है। दूसरी ओर विपक्ष रो रहा है सरकार की मनमानी पर और उसकी जनविरोधी नीतियों पर। दलील यह कि इससे देश के आम लोगों का जीना दुश्वार हो रहा है और देशहित से जुड़े मसले कमजोर पड़ रहे हैं। सरकार को कोसने और आम लोगों की बदहाली का रोना रोने के क्रम में अपने आंसुओं की बाढ़ में ये उन यादों को जलसमाधि देने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं कि अपने राज में इन्होंने देश को किस तरह का ‘रामराज’ दिया था। खैर, अब तो कन्हैया भी कह रहा है कि उसे देश से नहीं बल्कि देश के लिये आजादी चाहिये। आजादी चाहिये भूख से, गरीबी से, बदहाली से, बेबसी से, असमानता से और भेदभाव से। वह भी देश के लिये ही अपना सीना कूट रहा है और आम लोगों की भीषण पीड़ा के संताप में जार-जार रो रहा है। कन्हैया द्वारा जिस सोच व तेवरों का मुजाहिरा किया जा रहा है उससे तो ऐसा ही लग रहा है कि पिछली सरकारों के कार्यकाल में देश का भारी विकास हो रहा था जिसे मौजूदा सरकार ने विनाश की कगार पर पहुंचा दिया है। अब ऐसी सोचवालों को विस्तार से यह तो बताना ही चाहिये कि पिछली सरकार के वक्त उन्हें क्या-क्या सहूलियतें हासिल थीं जो अब नहीं है। लेकिन अपनी सहूलियत बताना जब किसी और को गवारा नहीं हो रहा तो वही क्यों बताये। देश में आजादी सिर्फ अभिव्यक्ति की तो है नहीं, असहज सवालों के जवाब में चुप्पी साधने की भी तो स्वतंत्रता है ही जिसका सबसे बेहतर उपयोग पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हमेशा से करते रहे हैं। खैर,  सीना तो सर्राफ भी कूट रहे हैं। वजह है सोने की खरीद-बिक्री पर एक फीसदी एक्साइज ड्यूटी लगा दिया जाना। उन्हें गम है उस आम आदमी के दर्द का जो एक्साईज ड्यूटी बढ़ने के कारण गहने की कीमतों में होनेवाली वृद्धि का शिकार बनेगा। जाहिर है उन्हें रोना तो आएगा ही। लेकिन असली हकीकत यही होती तो कहना ही क्या था। अलबत्ता सच तो यह है कि एक्साइज आयद हो जाने के बाद अब उन्हें यह सच सरकार से साझा करना पड़ेगा कि कब, कहां से कितना सोना आया और गया। यानि सोने की पूरी जन्मकुण्डली होगी सरकार के हाथ में जिस पर कालेधन का काला टीका लगाकर खुद को टैक्स की मार से बचाने की कोई राह ही नहीं बचेगी। इसी प्रकार मनसे सुप्रीमो राज ठाकरे को चिंता है वोट बैंक बचाने की, जबकि रोना रो रहे हैं मराठियों के हितों का और फरमान जारी कर रहें हैं कि गैरमराठियों के आॅटो-टैक्सी को सरेराह फूंक दिया जाये। यानि समग्रता में देखें तो हर रोता हुआ चेहरा यही जता रहा है कि वह अपने लिये नहीं बल्कि देश के लिये रो रहा है। हाय रे देश, हाय रे देशहित। पूरी हाय-हाय देश के लिये। यह हाय-हाय भी ऐसी जिसे दिख कर किसी का भी दिल पिघल जाए, कलेजा कांप जाए, रूदालियों की भी रूलाई फूट पड़े। लेकिन काश इन आंसुओं, स्यापों व चित्कारों की हकीकत वही होती जो दूर से दिखती है। वह नहीं होती जिसे साहिर लुधियानवी के शब्दों में कहें तो ‘कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त, सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया।’ ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’   @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

बुधवार, 2 मार्च 2016

भीड़ तमाशा करे या भीड़ तमाशाई हो.....

‘आरक्षण की आग पर राजनीति की रोटी’

कहते हैं कि ‘भीड़ तमाशा करे या भीड़ तमाशाई हो, दांव पर हर हाल में इंसानियत ही होती है।’ वास्तव में इन्हीं पंक्तियों को चरितार्थ किया है हरियाणा में जाट आरक्षण की मांग को लेकर हुए आंदोलन ने। हालांकि यह मांग कहां तक जायज है अथवा किस हद तक आवश्यक है, इस पर अलग से बहस हो सकती है। लेकिन आरक्षण के लिये आंदोलन को ऐसा रूप देना जिसमें पूरा सूबा जल उठे, बीस हजार करोड़ से भी अधिक की निजी व सरकारी संपत्ति स्वाहा हो जाये, दर्जनों लोग झटके में हलाल हो जाएं, हजारों लोग शारीरिक व आर्थिक तौर पर अपंग-अपाहिज हो जाएं, दुकानें लूटी जाएं, मकानों को जलाया जाए, सार्वजनिक संपत्तियों व सुविधाओं का होलिका दहन हो, कानून-व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया जाए और पानी, बिजली व सड़क से लेकर रेलमार्ग को भी ध्वस्त व क्षतिग्रस्त कर दिया जाए, इसे कैसे जायज ठहराया जा सकता है? हालांकि सवाल यह भी है कि एक नेताविहीन स्वतःस्फूर्त जनाक्रोश की ऐसी वीभत्स अभिव्यक्ति केवल आरक्षण की मांग को लेकर हुई इसे इसे कैसे मान लिया जाये। वैसे भी इस हिंसक, वीभत्स व अमानवीय आंदोलन के कारण चैतरफा बदनामी झेल रहा जाट समुदाय अगर आंदोलन के इस स्वरूप को सही बताने की हिम्मत नहीं दिखा रहा है तो निश्चित ही इसमें कुछ तो ऐसा छिपा हुआ अवश्य है जिसे जाट आरक्षण के आंदोलन की आड़ में दबाया-छिपाया जा रहा है। खैर, चुंकि मामला जाट आरक्षण की मांग से जुडा हुआ है तो इस लिहाज से देखें तो हकीकत यही है कि देश के आठ राज्यों में मौजूद जाटों की आबादी को अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में तो स्थान मिला लेकिन इस सूची में शामिल अन्य जातियों की तरह उन्हें आरक्षण व्यवस्था का पूरा लाभ नहीं मिल सका। खास तौर से मंडल आयोग की जिस रिपोर्ट के तहत केन्द्र की मौजूदा आरक्षण व्यवस्था संचालित हो रही है उसमें ओबीसी के तहत जाटों को मान्यता ही नहीं मिली हुई है। उस सूची में जाट के बजाय जाति का नाम दर्ज है ‘चिल्ला जाट’, जिसका कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं है। दूसरी ओर हरियाणा की पूर्ववर्ती भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में जाटों को विशेष पिछड़ा वर्ग का दर्जा देते हुए उनके लिये सूबे में दस फीसदी आरक्षण की व्यवस्था तो कर दी लेकिन इस प्रक्रिया में संवैधानिक व कानूनी व्यवस्थाओं का अनुपालन नहीं किया गया और पिछड़ावर्ग आयोग की सहमति नहीं ली गयी जिसके नतीजे में अदालत ने इस व्यवस्था पर रोक लगा दी। यानि समग्रता में देखा जाये तो जाटों के साथ अन्याय तो हुआ ही है। लेकिन सवाल है कि यह अन्याय किया किसने? भाजपा इसके लिये कांग्रेस को दोषी बताती है जबकि कांग्रेस का कहना है कि अगर अदालत में भाजपा की मौजूदा सरकार ने हुड्डा सरकार द्वारा लागू की गयी आरक्षण व्यवस्था का मजबूती से समर्थन किया होता तो उन्हें आरक्षण के लाभ से वंचित नहीं होना पड़ता। खैर, अब तो भाजपा भी जाटों को आरक्षण का लाभ दिलाने के लिये कटिबद्ध दिख रही है और इसके लिये पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने वेंकैया नायडू की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति भी बना दी है। लेकिन सियासत यहां भी जारी है। वर्ना आरक्षण का विधेयक जब सरकार को सदन में लाना है तो इसके लिये समिति का गठन पार्टी के स्तर पर क्यों किया गया? साथ ही इस पांच सदस्यीय समिति में हरियाणा के जाट नेताओं के बजाय उत्तर प्रदेश के नेताओं को तरजीह क्यों दी गयी। यानि इतना तो साफ है कि जाटों को आरक्षण देकर भाजपा इसका राजनीतिक लाभ भी उठाना चाहती है। खास तौर से यूपी के विधानसभा चुनाव में जहां पश्चिमी जनपदों में जाटों का समर्थन ही निर्णायक होता है। लिहाजा कांग्रेस का यह आरोप तो विचारणीय ही है कि जाटों के आंदोलन को भाजपा ने ही अपने राजनीतिक लाभ के लिये भड़काया। लेकिन अगर पूर्व मुख्यमंत्री हुड्डा के सलाहकार रहे प्रो. वीरेन्द्र सिंह की बातचीत के आॅडियो टेप में जरा भी सच्चाई है तो इसमें शक की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती है कि इस पूरे आंदोलन की पटकथा कांग्रेसियों ने ही लिखी थी। वैसे भी यह सर्वविदित तथ्य है कि अगर भाजपा के खिलाफ जाट समुदाय आंदोलन की राह पकड़ता है तो इसका सीधा लाभ कांग्रेस व उसके सहयोगी दलों को ही मिलेगा। यानि इस आंदोलन के कारण भारी बदनामी झेल रहे जाटों को आरक्षण का कब, कैसे व कितना लाभ मिलेगा यह तो अभी कोई नहीं बता सकता लेकिन इसमें शायद ही किसी को कोई शक हो कि इस आंदोलन का सियासी लाभ कांग्रेस के खाते में भी जा सकता है और भाजपा के भी। खैर, इस पूरे मामले का एक सुखद पहलू यह भी है कि जाटों ने अब यह बेहतर समझ लिया है कि अपने राजनीतिक लाभ के लिये सियासी दलों ने उनके आंदोलन को ऐसा स्वरूप दे दिया जिसमें इंसानियत की भावना के लिये कोई जगह ही नहीं बची। तभी तो हुड्डा को उनके अपने गृहक्षेत्र में ही भूमिगत होने के लिये मजबूर होना पड़ा है और मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को भी हर जगह हूटिंग झेलनी पड़ रही है। लेकिन अब सांप के गुजर जाने के बाद लकीर पीटने का फायदा ही क्या। जो होना था वह तो हो ही गया और अपने पीछे ऐसी गहरी कालिख छोड़ गया है जिसे अपने दामन से छुड़ाना जाटों के लिये कतई आसान नहीं होगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 
नवकांत ठाकुर #NavkantThakur