‘नाच ना जाने आंगन टेढ़ा’
पहले अरूणाचल प्रदेश फिर उत्तराखंड और अब मणिपुर। कतार में हिमाचल भी है और कर्नाटक भी। कहने को तो ये सभी अलग प्रदेश हैं लेकिन इन सभी कांग्रेसशासित सूबों की अंदरूनी कहानी काफी हद तक एक सी ही है। हर जगह नेतृत्व के खिलाफ बगावत की चिंगारी अंदर से ही उभरती दिख रही है। बहुत मुमकिन है कि उस चिंगारी को बाहर से हवा दी जा रही होगी। लेकिन आग जब अंदर से ही सुलग रही हो तो बाहरवालों को क्या दोष देना। बाहरवाले तो चाहेंगे ही कि घर टूटे ताकि उन्हें मलाई काटने का मौका मिल सके। इसी का नाम तो सियासत है, जिसमें इन दिनों कांग्रेस की स्थिति काफी हद तक दयनीय हो चली है। अरूणाचल में भी अपनी ही सरकार के खिलाफ बगावत का बिगुल कांग्रेसी विधायकों ने ही बजाया और उत्तराखंड में भी उसकी ही पुनरावृति हुई। अब मणिपुर भी उसी राह पर बढ़ता दिख रहा है। लेकिन कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व यह जताने में जुटा हुआ है मानो उसकी सरकारों को असंवैधानिक तरीके से सियासी विद्वेष की भावना के तहत अपदस्थ करने की कोशिश की जा रही है ताकि कांग्रेसमुक्त भारत के सपने को साकार किया जा सके। ऐसे में लाख टके का सवाल है कि आखिर दूसरों को दोष देने के बजाय आत्मचिंतन क्यों नहीं किया जा रहा? इस दिशा में विचार क्यों नहीं हो रहा कि एक के बाद हर सूबे में पार्टी के अपने ही विधायक बगावत की राह पकड़ने के लिये क्यों मजबूर हो रहे हैं। हालांकि ऐसे मामलों में राजनीतिक लाभ के लिये संवेदना की सियासत करना मजबूरी भी है और इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। लेकिन बंद दरवाजे के भीतर अगर बीमारी की पहचान करके उसका समुचित इलाज तलाशने की कोशिश नहीं की गयी तो यही नासूर जो उत्तराखंड के बाद अब मणिपुर में पनपता दिख रहा है वह आगे चलकर कर्नाटक को भी चपेट में ले सकता है और बाकी अन्य चार उन सूबों को भी जहां कांग्रेस की सरकार है। दरअसल पार्टी के भीतर जब एक ओर शीर्ष व कनिष्ठ स्तर के बीच संवादहीनता की स्थिति बन जाये और दूसरी ओर शीर्षतम स्तर पर वर्चस्व के टकराव व नीतिगत मसलों पर विरोधाभासी फरमान जारी होने की परंपरा शुरू हो जाये तो संगठन में टूट-फूट, बिखराव व टकराव की स्थिति उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। जब अरूणाचल प्रदेश में पार्टी के विधायक दल में टूट की स्थिति बनी तो मामले को सुलझाने व बातचीत करके सुलह-सहमति की राह तलाशने के बजाय अगर पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष राष्ट्रपति के पास जाकर सरकार बचाने की गुहार लगाने लगे तो लाजिमी है कि बागियों के पास संगठन से विद्रोह करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचेगा। यही मामला उत्तराखंड में भी देखा गया जहां बागियों को मनाने या उनकी बात सुनने की भी जहमत भी नहीं उठायी गयी और बहुमत का विश्वास खो चुके मुख्यमंत्री को सरकार बचाने के लिये कुछ भी कर गुजरने की पूरी छूट दे दी गयी। तभी तो वह स्टिंग भी सामने आया जिसमें सरकार बचाने के लिये रावत साहब अपने ही दल के विधायकों की बोली लगाते नजर आये। अब ऐसा ही कुछ मणिपुर में भी हो रहा है जहां कांग्रेस के 47 में से 25 विधायकों ने मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के खिलाफ बगावत का बिगुल बजा दिया है और उन्हें पद से हटाने की मांग पर अड़ गये हैं। जाहिर तौर पर वहां भी इबोबी के खिलाफ मोर्चा खोलनेवालों की वैसी ही कुछ मांग है जैसी अरूणाचल व उत्तराखंड के बागियों की थी। वहां भी तो पहले पार्टी के भीतर ही इंसाफ मांगने की कोशिश हुई और मुख्यमंत्री की मनमानी नीतियों के खिलाफ आलाकमान के सामने गुहार लगाने का प्रयास किया गया। लेकिन जब ना तो शीर्ष नेतृत्व से कोई तवज्जो मिली और ना ही सूबे की सियासत में सुधार होने की गुंजाइश बची तब थक-हारकर बागियों को आर-पार की निर्णायक लड़ाई छेड़ने के लिये विवश होना पड़ा। ऐसे में इतना तो स्पष्ट है कि अगर एक के बाद तमाम प्रदेशों में स्थापित नेतृत्व के खिलाफ विरोध व विद्रोह का दावानल एक सरीखा ही सुलग रहा है और उसका इलाज करने में भी हर जगह एक ही रणनीति अपनाई जा रही है तो निश्चित तौर पर संगठन में शीर्ष स्तर पर कुछ तो गड़बड़ है जिसे या तो समझा नहीं जा रहा है या फिर समझने के बावजूद नहीं समझने का प्रयास किया जा रहा है। अगर शीर्ष स्तर पर मामले को संभालने का शिद्दत से प्रयास होता तो कोई कारण ही नहीं है कि हरक सिंह रावत व विजय बहुगुणा सरीखे ऐसे नेताओं को अपनी ही पार्टी से अलग होकर अनिश्चितता की सियासी राह पर आगे बढ़ना पड़ता जिन्होंने सूबे में पार्टी को स्थापित करने के लिये अपनी पूरी उम्र खपा दी। ऐसे में आवश्यकता तो यह है कि बागियों को दुश्मन मानने के बजाय उनकी समस्याओं को समझा जाये, उनकी परेशानियों को दूर किया जाये और संगठन में समन्वय, सहभागिता व सहचर्य का माहौल मजबूत किया जाये। लेकिन विचित्र बात है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व सांगठनिक स्तर पर सामने आ रही अंदरूनी समस्याओं का ठीकरा विरोधियों पर फोड़कर खुद को दीन-हीन दिखाने व लोगों की संवेदना हासिल करने की रणनीति पर अमल करता दिख रहा है। जबकि सच तो यह है कि दूसरों को दोषी ठहराकर आंगन को ही टेढ़ा बताने से दूरगामी तौर पर कुछ भी हासिल नहीं होनेवाला है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #NavkantThakur