शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

‘खतरा, खटका या सत्य का संकेत!’

‘खतरा, खटका या सत्य का संकेत!’

कोई भी बदलाव अनायास ही नहीं होता। उसके पीछे कोई वजह जरूर होती है और उसका कुछ ना कुछ संकेत पहले से ही अवश्य दिखने लगता है। इस लिहाज से देखा जाए तो दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव का नतीजा काफी कुछ कहता हुआ दिख रहा है। जिस डूसू में साल 2013 से ही कांग्रेस की छात्र इकाई एनएसयूआई को जीत नसीब नहीं हो पाई थी वहां इस बार उसने अध्यक्ष के साथ ही उपाध्यक्ष पद पर भी कब्जा कर लिया है जबकि संघ के अनुषांगिक व भाजपा के सहोदर छात्र संगठन एबीवीपी के खाते में सिर्फ सचिव व संयुक्त सचिव का पद ही आया है। भले भाजपा की ओर से इस हार पर कोई निराशा नहीं व्यक्त की जा रही हो और यह बताया जा रहा हो कि जिन सीटों पर जीत हासिल हुई है उसमें जीत-हार का फासला हजारों में है जबकि जिन पदों पर हार हुई है उस पर जय-पराजय का अंतर महज सैकड़ों में है। लेकिन सिर्फ इतना कह देने भर से खतरे की उस घंटी की आवाज को दबाया नहीं जा सकता है जो दूर से आती हुई सुनाई पड़ रही है। इस आवाज को महज भ्रम भी माना जा सकता था लेकिन इससे कुछ ही दिन पहले बवाना विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा को झेलनी पड़ी करारी शिकस्त और महज पांच दिन पूर्व जेएनयू छात्र संघ के चुनाव में अपेक्षित सफलता से महरूम रहने की हकीकत से यह स्पष्ट हो जाता है कि खतरे की घंटी की आवाज कोई भ्रम नहीं है बल्कि वह सच में सियासी फिजा में गूंज रही है। भाजपा का प्रदर्शन मध्य प्रदेश के स्थानीय निकायों के चुनावों में भी उस स्तर का नहीं रहा जैसी उसे उम्मीद थी और पंजाब विधानसभा चुनाव में भी नतीजा उसके खिलाफ ही रहा था। यानि ‘पार्लियामेंट से लेकर पंचायत तक’ हर स्तर पर जीत का परचम लहराने और कांग्रेस मुक्त भारत बनाने का जो अभियान भाजपा ने छेड़ा था उसकी सफलता का ग्राफ ढ़लान की ओर बढ़ने की अटकलों को सिरे से खारिज कर देना निहायत ही मुश्किल होता जा रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह दिख रही है युवाओं के बीच भाजपा की लोकप्रियता में उत्तरोत्तर कमी आना। भाजपा के राष्ट्रवाद का खुमार का असर कम होने की एक बड़ी वजह युवाओं के सपने पूरे नहीं हो पाने को भी माना जा सकता है जिसके कारण प्रधानमंत्री मोदी की मीठी बातें अब उन्हें इस हद तक लुभा नहीं पा रही हैं कि वे भाजपा का जुनून की हद तक समर्थन करें। बेशक इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि पिछले कई दशकों के बाद भारत को सशक्त, सक्षम व बेहतर नेतृत्व मिला है लेकिन इस सरकार ने जितने बेहतरीन प्रदर्शन की आशाएं जगाई थी उन अपेक्षाओं को पूरी तरह पूरा करने में यह सफल नहीं हो पाई है। खास तौर से युवाओं से जुड़े मसलों पर सरकार का प्रदर्शन निहायत औसत रहा है जिसके नतीजे में युवा मतदाताओं का काफी बड़ा वर्ग अब मोदी सरकार के करिश्माई नेतृत्व को लेकर निराश होता जा रहा है। अव्वल तो शिक्षा की सुलभता और गुणवत्ता के मामले में किसी ठोस सुधार की पहल होती हुई नहीं दिखी है और दूसरे शिक्षण-प्रशिक्षण के बाद रोजगार की दुर्लभता बदस्तूर बरकरार है। ऐसे में युवाओं का ना सिर्फ अपने भविष्य को लेकर चिंतित व निराश होना स्वाभाविक है बल्कि मोदी सरकार द्वारा दिखाए गए सपनों के पूरा हो पाने को लेकर निराशा में इजाफा होना भी लाजिमी ही है। जाहिर है कि इस सबका सीधा व प्रत्यक्ष असर चुनावों में ही दिखता है और छात्र संघों के चुनाव का नतीजा तो हमेशा से ही भविष्य का संकेत देता आया है। खास तौर से दिल्ली विश्वविद्यालय का कैंपस तो देश के सियासी भविष्य का संकेत देने के लिए पहले से ही विख्यात है। ऐसे में भाजपा को यह चिंता तो करनी ही होगी कि सियासी समुद्र में सफलता से दौड़ रही उसकी नाव में जो छेद होते दिख रहे हैं उसे समय रहते बंद किया जाए और हार के कारणों पर विचार करके उन कमियों व खामियों को सुधारने पर अपना ध्यान केन्द्रित किया जाए जिसके कारण उसकी बातें जादू जैसा असर नहीं दिखा पा रही है। बेशक ममता बनर्जी और शरद पवार सरीखे नेताओं का मानना हो कि जब तक मोदी के मुकाबले राहुल गांधी का चेहरा आगे बढ़ाया जाता रहेगा तब तक भाजपा के विजय रथ को लगातार आगे बढ़ने से कतई नहीं रोका जा सकता है। लेकिन इतिहास पर गौर करें तो राहुल अकेले ऐसे शीर्ष कांग्रेसी नेता नहीं हैं जिसे बेवकूफ व कमजोर माना गया हो बल्कि एक समय गूंगी गुडिया बताकर इंदिरा गांधी का भी मजाक उड़ाया जाता था और राजीव गांधी के व्यक्तित्व व विचारों को यह कह कर गंभीरता से नहीं लिया जाता था कि उन्हें व्यावहारिक बातों की कोई जानकारी ही नहीं है। लिहाजा मौजूदा वक्त में अगर राहुल को पप्पू कहकर दुष्प्रचारित किया जा रहा है तो इसे इतिहास द्वारा खुद को दोहराए जाने की नजर से भी देखा जा सकता है। लेकिन वक्त के साथ इंदिरा-राजीव की छवि भी बदली और राहुल की भी बदल सकती है। ऐसे में राहुल के प्रति अगर लोगों की संवेदना जाग गई और उनकी मासूमियत और इमानदारी पर मतदाताओं ने ममता दिखा दी तो भाजपा को सत्ता छोड़कर भागने के लिए भी मजबूर होना पड़ सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @नवकांत ठाकुर #Navkantthakur

सोमवार, 11 सितंबर 2017

‘हर तरफ अन्धी सियासत है, बताओ क्या करें’



‘हर तरफ अन्धी सियासत है, बताओ क्या करें’

उत्तर प्रदेश की पश्चिमी सरहद पर स्थित गाजियाबाद के रहनेवाले कवि योगेन्द्र दत्त शर्मा लिखते हैं कि, ‘हर तरफ अन्धी सियासत है, बताओ क्या करें? रेहन में पूरी रियासत है, बताओ क्या करें? झुण्ड पागल हाथियों का, रौंदता है शहर को, और अंकुश में महावत है, बताओ क्या करें?’ वाकई यह अंधी सियासत ही तो है। वर्ना एक महिला की हत्या के ऐसे मामले को रातों-रात इतना तूल दिए जाने की कोई दूसरी वजह समझ में नहीं आती जो एक खास विचारधारा के पक्ष में पत्रकारिता करती रही हो और इस काम में मर्यादा की लक्षमण रेखा लांघने के नतीजे में मानहानि के मामले में दोषी पाए जाने के बाद जमानत पर चल रही हो। यह सही है कि हत्या की कोई भी वारदात पूरी मानवता और सभ्य समाज के लिए किसी कलंक से कम नहीं है। लेकिन किसी हत्या के मामले को अपने हित में तूल देकर विरोधी विचारधारा या संगठन को सीधे तौर पर दोषी बता देना कैसे जायज माना जा सकता है। दरअसल पूरे मामले के असली घटनाक्रम पर गौर करें तो बेंगलुरु में वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की गोली मारकर हत्या कर दी गई। हमलावरों ने उनके घर में घुसकर उन्हें गोली मार दी। पुलिस अधिकारियों के मुताबिक 55 वर्षीय गौरी कार से अपने घर लौटी थी। जब वह गेट खोल रही थीं तभी मोटरसाइकिल सवार अज्ञात हमलावरों ने उन पर अंधाधुंध गोलियां चला दीं। इनमें से दो गोलियां उनके सीने में और एक माथे पर लगी जिससे उनकी मौके पर ही मौत हो गई। अब सवाल है कि इस हत्याकांड का मुख्य दोषी कौन है? निश्चित तौर पर मामले का पहला मुख्य दोषी तो उन पर गोलियां बरसाने वाला हत्यारा ही है। लेकिन उससे जरा भी कम दोषी प्रदेश की पुलिस व्यवस्था नहीं है जो अपने नागरिक की रक्षा कर पाने में अक्षम साबित हुई है। नागरिक भी ऐसा जो सरकार और नक्सलियों के बीच कड़ी का काम कर रहा हो। लेकिन ना तो किसी को इस बात की परवाह है कि वास्तव में इस हत्या को किसने अंजाम दिया और ना ही प्रदेश की कानून व्यवस्था पर उंगली उठाने की जहमत उठाई गई है। अलबत्ता इस हत्याकांड को ऐसे तरीके से परोसा जा रहा है मानो देश में स्वतंत्र आवाज उठानेवालों के लिए अब कोई जगह नहीं बची है और भारत में पत्रकारों को जान के लाले पड़े हुए हैं। बताने की कोशिश की जा रही है कि केन्द्र में सत्तारूढ़ दक्षिणपंथी या राष्ट्रवादी विचारधारा की सरकार के कार्यकाल में विरोधी विचारों के लिए कोई जगह नहीं बची है और गौरी की हत्या इसी वजह से की गई क्योंकि अव्वल वह पत्रकार थी और दूसरे वह दक्षिणपंथी विचारधारा का मुखर होकर विरोध करती थी। क्योंकि वह एक खास विचारधारा से जुड़ी हुई थी इसी वजह से उसकी हत्या कर दी गई। अब सवाल यह है कि जब अब तक यही नहीं पता चल पाया है कि उसकी हत्या क्यों और किसने की तब सीधे यह फैसला सुना दिए जाने को कैसे जायज ठहराया जा सकता है कि गौरी को इसलिए मार डाला गया है क्योंकि वह पत्रकार थी और उसकी लेखनी दक्षिणपंथी विचारधारा के खिलाफ आग उगलती रहती थी। लेकिन दुर्भाग्य से इस मामले को तटस्थता व निष्पक्षता के साथ समग्रता में देखने व समझने की ना तो कोशिश की जा रही है और ना ही किसी को समझने की इजाजत दी जा रही है। आलम यह है कि प्रदेश सरकार ने भी इस मामले को सियासी तौर पर भुनाने के लिए गौरी को राजकीय सम्मान के साथ दफनाने की पहल कर दी और कांग्रेस व वामपंथियों से लेकर तमाम भाजपा विरोधी राजनीतिक ताकतों ने इस मामले को लेकर मोदी सरकार पर निशाना साधना शुरू कर दिया। इसके अलावा मीडिया के एक वर्ग ने भी इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला साबित करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया और मानवाधिकारों पर नजर रखने वाली एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने भी इस हत्या पर चिंता जताते हुए यहां तक कह दिया कि यह घटना भारत में अभिव्यक्ति की आजादी की स्थिति के बारे में चिंता पैदा करती है। रही सही कसर अमेरिकी दूतावास ने औपचारिक तौर पर यह बयान जारी करके पूरी कर दी कि भारत में अमेरिकी मिशन, भारत व दुनिया भर में प्रेस की आजादी के समर्थकों के साथ मिलकर बेंगलुरु में सम्मानित पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या की निंदा करता है। यानि एक तरह से देखा जाए तो सबने यह मान लिया है कि गौरी की हत्या व्यवस्था व सत्ता विरोधी आवाज को दबाने के मकसद से की गई है। किसी को यह जानने की अब जरूरत ही नहीं है कि वास्तव में यह हत्या क्यों हुई? सबको चिंता सिर्फ इस बात की दिख रही है कि किसी भी तरह इस हत्याकांड की आड़ लेकर मोदी सरकार पर दबाव बनाया जाए और उसे तानाशाह साबित कर दिया जाए। निश्चित तौर पर यह स्थिति बेहद खतरनाक है क्योंकि पूरे मामले का खुलासा होने और हत्यारों के पकड़े जाने से पहले ही अपने सुविधानुसार मामले को अलग रंग देने और इसका यथासंभव दोहन करने की कोशिश की परंपरा भविष्य में दोधारी तलवार की तरह किसकी गर्दन पर कब गिरेगी इसके बारे में दावे से कोई कुछ नहीं कह सकता है। राजनीतिक नफा-नुकसान के तहत इल्हाम के आधार पर हकीकत को तोड़ने-मरोड़ने की परंपरा भविष्य के लिए बेहद खतरनाक संकेत दे रही है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur