बुधवार, 12 फ़रवरी 2020

दिल्ली में हुई सामर्थ्य पर सरोकार की जीत

दिल्ली विधानसभा का चुनाव कई मायनों में बेहद खास भी रहा और भविष्य में इसे नजीर के तौर पर भी देखा जाएगा। सतही तौर पर तो यह पूरी तरह एकतरफा चुनाव रहा जिसमें आम आदमी पार्टी को लगातार तीसरी बार सरकार गठन का जनादेश मिला है। लेकिन गहराई से परखें तो अरविंद केजरीवाल को हासिल हुई जीत की हैट्रिक के पीछे जिन कारणों ने निर्णायक भूमिका निभाई और जिन वजहों ने भाजपा को हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया उस पर गहराई से विचार करने के बाद इस बार के चुनाव को किसी भी मायने में कतई आसान नहीं कहा जा सकता है। 

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि दिल्ली की चुनावी लड़ाई बेहद जोरदार रही। भीषण संघर्ष हुआ। तमाम मर्यादाएं और परंपराएं तार-तार हो गईं। मतदान के बाद भी टकराव का सिलसिला जारी रहा और मतगणना का नतीजा सामने आने तक अनिश्चितता का माहौल बना रहा। लेकिन जब नतीजा आया तो वह निश्चित तौर पर सबके लिये चैंकानेवाला रहा। ना तो केजरीवाल के सहयोगियों व समर्थकों ने इतनी बड़ी जीत की कल्पना की थी और ना ही भाजपा के रणनीतिकारों को इतनी करारी शिकस्त मिलने का सपने में भी अंदेशा हुआ था। यहां तक कि चुनावी लड़ाई को त्रिकोणीय बनाने और सत्ता की चाबी पर कब्जा जमाने के इरादे से मैदान में उतरी कांग्रेस के धुर विरोधियों ने भी शायद ही कभी कल्पना की होगी कि सूबे के नब्बे फीसदी से अधिक सीटों पर पार्टी की जमानत जब्त हो जाएगी और लगातार दूसरी बार उसे सीटों के लिहाज से शून्य पर सिमटने के लिये मजबूर होना पड़ेगा। 

लेकिन हुआ तो ऐसा ही है जिसकी कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। वह भी तब जबकि मतदान के बाद सामने आए एग्जिट पोल के नतीजों में भी भाजपा को कम से कम दहाई के अंक में सीटें मिलने का ही दावा किया जा रहा था। साथ ही केजरीवाल के पैरोकार भी चुनावी नतीजों की अनिश्चितता से इस कदर डरे हुए थे कि ईवीएम में हेरा-फेरी की शिकायत दर्ज कराने से लेकर चुनाव आयोग की कार्यशैली पर भी सार्वजनिक तौर पर उंगली उठाने से नहीं हिचक रहे थे। लिहाजा उम्मीद यही थी कि जिस दम-खम के साथ भाजपा ने चुनाव लड़ा और जिस तरह से चुनावी विमर्श पूरी तरह दो खेमों में विभाजित होता हुआ दिखाई पड़ा उसका परिणाम चुनावी नतीजों में भी दिखाई पड़ेगा और जीत-हार भले ही किसी की भी हो लेकिन दोनों ही पार्टियां सम्मानजनक संख्या में सीटें अवश्य हासिल करेंगी। 

लेकिन इस पूरे गुणा-भाग और अटकलों, समीकरणों व कयासों से अलग हटकर जो नतीजा सामने आया है वह अपने आप में एक अलग ही कहानी बयान कर रहा है। हालांकि केजरीवाल के समर्थकों का दावा है कि जनता जनार्दन ने भाजपा द्वारा चुनाव को सांप्रदायिक रंग देने के प्रयासों को खारिज किया है जबकि भाजपा के भक्तों की मानें तो दिल्ली के मतदाताओं ने बिजली बिल हाफ और पानी का बिल माफ करने के कारण केजरीवाल को दोबारा सत्ता में बिठाया है। इसके अलावा भी कई तरह के दावे किये जा रहे हैं और इन चुनावी नतीजों की वजहों को समझने के लिये तमाम नजरिये पेश किये जा रहे हैं। लेकिन सच पूछा जाये तो भाजपा के खिलाफ आप की जीत को सामर्थ्य पर सरोकार की जीत के नजरिये से ही देखा जाना चाहिये। 

विश्व की सबसे बड़ी और भारत की सबसे ताकतवर पार्टी भाजपा के पास हर तरह का सामर्थ्य था मतदाताओं को रिझाने, मनाने और बहलाने-फुसलाने का जबकि आप की सरकार अपने जन-सरोकार के सहारे ही मैदान में थी। भाजपा ने अपने पूरे सामर्थ्य का भरपूर प्रयोग करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जिसके तहत उसने देश भर के अपने तमाम सांसदों, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और केन्द्र व प्रदेशों के पदाधिकारियों को मैदान में उतार दिया। दिल्ली सरीखे महज सत्तर सीटों की विधानसभावाले अपूर्ण राज्य में ‘चप्पा-चप्पा भाजपामय’ करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी। 

लेकिन चुंकि अंतिम फैसला जनता जनार्दन को ही करना था और जनता ने सामर्थ्य से प्रभावित होने के बजाय सरोकार वाली सरकार चुनना ही बेहतर समझा। ऐसी सरकार जिसने राजस्व का अधिकतम हिस्सा आम लोगों को सीधा लाभ देने में खर्च किया हो। स्वास्थ्य व शिक्षा के क्षेत्र में कायाकल्प की राह पकड़ी हो। आम लोगों पर कर व बिलों का न्यूतमम बोझ डालते हुए उन्हें सरकारी संसाधनों का अधिकतम लाभ दिया हो। जिसके शासन की जन-सरोकारवादी प्राथमिकताएं सर्वविदित हों और नेतृत्व भी इमानदार, एकजुट, मजबूत और निष्पक्ष हो। दूसरी ओर भाजपा थी जिसकी ना तो दिल्ली को लेकर कोई स्पष्ट नीति थी, ना कोई मुख्यमंत्री पद का चेहरा था और ना ही जमीनी कार्यकर्ताओं की चुनाव में पूछ थी। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इसी जुगत में जुटा रहा कि येन-केन-प्रकारेण बहुसंख्यक मतदाताओं की राष्ट्रवादी संवेदना को कुरेद कर अधिकतम वोट बटोरा जाये। इसके लिये जहरीले व विभाजनकारी बयानों की बरसात भी हुई और बहुसंख्यकों को काल्पनिक चुनौतियों से डराने का प्रयास भी हुआ। 

लेकिन सामर्थ्य और सरोकार के बीच हुए इस सीधे टकराव में जन-सरोकारों को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की राह पर चल रही केजरीवाल सरकार के मुकाबले सुनहरे भविष्य का सपना दिखाकर ज्वलंत समस्याओं की अनदेखी करनेवाली भाजपा को खारिज करके दिल्ली के जनता-जनार्दन ने केन्द्रीय से लेकर तमाम सूबाई शासन, प्रशासन और सियासी दलों को स्पष्ट लहजे में यह समझा दिया है कि- ‘भूखे भजन न होई गोपाला, पकड़ो अपनी कंठी माला।’ ‘‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’’  @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

‘सवाल सारे गलत हैं, जवाब झूठे हैं’

मौजूदा दौर के जमीनी हालातों पर नजर डालें तो हर तरफ कमजोरियों का ही आलम है। खास तौर से अर्थव्यवस्था की कमजोरी तो जगजाहिर ही है। खेती-मजदूरी कमजोर, आयात-निर्यात कमजोर, उत्पादन-उपभोग कमजोर, मांग-आपूर्ति कमजोर, क्रेता-विक्रेता कमजोर। हर तरफ सिर्फ कमजोरी ही कमजोरी। उस पर तुर्रा यह कि कमजोरी दूर करने के लिये बनाए जा रहे नीतियों-नियमों के शिलाजीत, शतावरी, क्रौंच बीज, मूसली और अश्वगंधा सरीखे तमाम जड़ी-बूटियों का तगड़ा डोज भी मर्ज पर उल्टा ही असर कर रहा है। ज्यों-ज्यों दवा की खुराक बढ़ाई जा रही है त्यों-त्यों मरीज मरणासन्न होता जा रहा है। 

हालांकि इस कमजोरी की चपेट में तो फिलहाल समूचा संसार ही है। लिहाजा थोड़ी देर के लिये उस कमजोरी की तत्काल अनदेखी भी की जा सकती है। लेकिन देश में उससे भी कमजोर स्थिति में है विश्वास, यकीन, भरोसा, ट्रस्ट। यह ना तो विपक्ष को सरकार पर है, ना सरकार को विरोधियों पर और ना ही आवाम को निजाम पर। हर तरफ माहौल है तनातनी का, टकराव का और भारी अविश्वास का। सबकी अपनी ढ़फली है और अपना राग है। किसी की जुबान पर चैता है तो किसी के कंठ से फूट रहा फाग है। हर तरफ आग ही आग है। धुआँ-धुआँ है और हुआँ-हुआँ है। इस धुआँ-धुआँ सी धुंध और हुआँ-हुआँ के शोर में ना तो सही तस्वीर दिखाई पड़ रही है और ना ही सच्ची बात सुनाई पड़ रही है। 

मसला जन्म ले चुके संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) का हो, प्रसूति की प्रक्रिया से गुजर रहे राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) का अथवा गर्भाधान के प्रयासों की संदिग्धता से जूझ रहे राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी (एनआरसी) का। तमाम मसलों को लेकर असमंजस, उहापोह और बेचैनी का माहौल है। इसी बीच किसी ने अफवाह उड़ा दी कि कौआ कान ले गया तो लोग अपना कान टटोलने के बजाय कौए को पकड़ने के लिये दौड़ पड़े। कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक के कुछ लोग कौए को पकड़ने के लिये दौड़ पड़े ताकि कान वापस पा सकें और कुछ लोग उनके पीछे इस प्रयास में दौड़े कि उन्हें कान कटने के अफवाहों की हकीकत से अवगत करा सकें। बाकी बचे लोग जो ना आगे दौड़े और ना पीछे, वे इस अफरातफरी, मारामारी और हिंसा-प्रतिहिंसा को देखकर हतप्रभ ठगे से रह गए। ना उन्हें कान का होश रहा ना कौए का। हालांकि बाद में सरकार के समझाने पर कान टाटोलने के बाद लोग कुछ हद तक आश्वस्त अवश्य हुए हैं लेकिन विपक्षी ताकतें उन्हें अब यह समझा रही हैं कि भले ही फिलहाल कान सुरक्षित हो लेकिन कौआ कुछ ऐसा लेकर अवश्य उड़ा है जिसके बिना कान के होने या ना होने का कोई मतलब ही नहीं है। 

एनआरसी और एनपीआर के मामले में फंसे पेंच को देखते हुए लोगों को भी अंदरखाने यह डर सता रहा है कि कुछ तो गड़बड़ अवश्य है। वर्ना पिछली बार जो एनपीआर तैयार किया गया उसमें सिर्फ 15 सवाल ही पूछे गए थे लेकिन इस बार 21 सवालों की सूची का जवाब मांगा जानेवाला है। सवाल भी ऐसे जिनका जवाब हासिल करने के बाद सरकार को अलग से एनआरसी कराने की शायद ही जरूरत महसूस हो। मसलन इस बार सबको अपने माता-पिता का सिर्फ नाम ही नहीं बताना होगा बल्कि उनके जन्म स्थान और जन्म की तारीख का भी खुलासा करना पड़ेगा। हालांकि फिलहाल उसका कागजी प्रमाण भले ही ना मांगा जा रहा हो लेकिन आगे चलकर दी गई जानकारी यदि गलत पायी गयी तो सरकार को झांसा देने का अंजाम क्या हो सकता है यह जानने के लिये शायद ही किसी को वकालत की ऊँची डिग्री की आवश्यकता हो। लेकिन एक तरफ ऐसी हकीकतें हैं तो दूसरी तरफ उसके बारे में विस्तार से बतानेवालों की अलग-अलग जुबान, लहजे और भाषाएं भी हैं जिनका आपस में कोई तालमेल ही नहीं है। विरोधी कह रहे हैं कि भारी जनविरोध से सचेत होकर सरकार अब एनआरसी को एनपीआर की शक्ल में ला रही है ताकि लोगों को धोखे में रखा जा सके जबकि सरकार की ओर से सफाई आई है कि अव्वल तो एनपीआर में पूछे जानेवाले सवालों को अंतिम रूप नहीं दिया गया है और दूसरे परंपरागत एनपीआर प्रक्रिया का एनआरसी से कोई लेना देना ही नहीं है। 

अब सवाल है कि किसको सही समझें और किसको गलत? जनसंख्या के आंकड़े जुटानेवालों को तो कथित तौर पर 21 सवालों की फेहरिश्त के मुताबिक प्रशिक्षण दिया गया है। लिहाजा उसी आधार पर एक बार फिर कौए की चोंच में कान की आशंका महसूस हो रही है। लेकिन सरकार उस फेहरिश्त को ही फिलहाल खारिज कर रही है ताकि लोगों को कान की यथास्थिति यथावत महसूस हो। इसमें यह समझना मुश्किल है कि कौन सच्चा है और कौन झूठा। सवाल उठा डिटेंशन सेंटर का, तो प्रधानमंत्री ने उसके अस्तित्व को ही नकार दिया। लेकिन उसकी मौजूदगी दिखा कर दोबारा पूछने पर कहा गया कि इसे हमने नहीं बनाया, सवाल पूछनेवाले ही बना चुके हैं। सवाल उठा एनआरसी का तो इस पर प्रधानमंत्री का सुर अलग है, गृहमंत्री का साज अलग है और विपक्ष की आवाज अलग। ऐसे तमाम सवालों और जवाबों के बीच कहीं कोई तालमेल या एक-सूत्रता ही नहीं है। शायद इन्हीं हालातों के मद्देनजर तहसीन मुनव्वर ने लिखा है कि- ‘सितारे सारे सभी माहताब झूठे हैं, जमीं के जितने भी हैं आफताब झूठे हैं, जो शाम होते ही घर-घर में पूछे जाते हैं, सवाल सारे गलत हैं जवाब झूठे हैं।’ 'जैसी नजर वैसा नजरिया।' #Navkant_Thakur

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

भावी ‘मर्ज’ के भय से उभरा मौजूदा ‘दर्द’

वर्ष 2014 तक पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए तमाम गैर-मुस्लिमों को शरणार्थी और मुसलमानों को घुसपैठिया करार देते हुए गैर-मुस्लिमों को नागरिकता से नवाजने के लिये बनाए गए संशोधित नागरिकता कानून को लेकर पूरा देश बुरी तरह उबल रहा है। कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक विरोध की आग धधकती दिखाई दे रही है। इस आग में घी का काम किया है इस कानून के खिलाफ हुए हिंसक प्रदर्शन के दौरान जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में घुसकर पुलिस द्वारा छात्रों पर बल प्रयोग किये जाने की घटना ने।
हालांकि छात्रों के साथ मारपीट के मामले को लेकर देश के 22 से भी अधिक विश्वविद्यालयों में सरकार विरोधी प्रदर्शन होने की बात तो गृहमंत्री अमित शाह भी स्वीकार कर रहे हैं लेकिन वे यह मानने के लिये तैयार नहीं हैं कि इससे सरकार के खिलाफ राष्ट्रव्यापी विरोध की कोई तस्वीर उभर रही है। उनकी तो दलील है कि अगर देश के तकरीबन ढ़ाई सौ सरकारी विश्वविद्यालयों में से सिर्फ 22 में सरकार के खिलाफ आवाज उठाई गई है तो इसे सामान्य विरोध के नजरिये से ही देखा जाना चाहिये और इस मसले को अधिक तूल नहीं दिया जाना चाहिये। साथ ही उनकी समझ में तो यह बात भी नहीं आ रही है कि आखिर संशोधित नागरिकता कानून को लेकर इतना बवाल क्यों कट रहा है। वह भी तब जबकि इस कानून की किसी भी धारा में किसी की भी नगारिकता समाप्त करने का कोई प्रावधान ही नहीं किया गया है। अलबत्ता यह कानून तो भारत के नागरिकों के लिये बनाया ही नहीं गया है बल्कि इसका मकसद तो तीन पड़ोसी मुल्कों से आए घुसपैठियों की दशकों पुरानी समस्या का इलाज करना और धार्मिक आधार पर इन देशों में प्रताड़ित व विलुप्त हो रहे सभी अल्पसंख्यकों को यहां की नागरिकता प्रदान करना है।
निश्चित तौर पर गृहमंत्री ही नहीं बल्कि उनसे जुड़े तमाम संगठनों, सैद्धांतिक सहोदरों और सियासी साथियों की नजर से देखने पर भी संशोधित नागरिकता कानून में ऐसी कोई बात राई-रत्ती भर भी दिखाई नहीं पड़ती है जिसको लेकर पूरा देश सुलग उठे। सभी विरोधी आपसी मतभेदों को भुलाकर एक स्वर से सरकार के खिलाफ सड़क पर हल्ला बोलने लगें। तमाम खासो-आम हाहाकार-चित्कार करे और पूरे शासन-प्रशासन को हर स्तर पर असहज स्थिति का सामना करना पड़े। लेकिन ऐसा हो तो रहा ही है। लिहाजा बड़ा सवाल है कि आखिर इस मामले को लेकर दर्द का ऐसा सैलाब सड़क पर क्यों और किस वजह से उमड़ रहा है? सतही तौर पर देखने से तो यह समझना वाकई बेहद मुश्किल है कि आखिर समूचे देश में मोदी सरकार के खिलाफ विरोध और विद्रोह की आग क्यों धधक रही है लेकिन गहराई से परखने पर ना सिर्फ पूरी तस्वीर स्पष्ट हो जाती है बल्कि तमाम विरोध प्रदर्शन भी जायज दिखाई पड़ते हैं।
दरअसल दर्द का जो सैलाब सड़क पर दिखाई पड़ रहा है उसकी असली वजह वह भावी मर्ज है जो निजाम की ओर से आवाम को दिये जाने का ऐलान संसद में गृहमंत्री ने सीना ठोंक कर किया है। वास्तव में आवाम की ओर से निजाम के खिलाफ ऐलाने जंग की दो बड़ी वजहें हैं। पहली तो संशोधित नागरिकता कानून लागू होने से देश के उन इलाकों में जमीनी स्तर पर होने वाला भाषाई, सांस्कृतिक व सियासी परिवर्तन है जिसका तात्कालिक खामियाजा और बोझ वहां के मौजूदा स्थानीय नागरिकों और उनकी भावी पीढ़ियों के सिर पर वज्रपात करेगा। साथ ही विरोध की दूसरी वजह है आगामी दिनों में तैयार होने वाले राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी में अपना नाम शामिल कराने के लिये आवश्यक कागजात व दस्तावेज नहीं दिखा पाने वाले देशवासियों के साथ इस नागरिकता कानून को आधार बनाकर होने वाले भेदभाव का डर।
अभी बीते दिनों असम में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश व निगरानी के तहत बनायी गयी एनआरसी की अंतिम सूची में 19 लाख से अधिक लोगों की घुसपैठिये के तौर पर पहचान हुई है। बताया जाता है कि इनमें से 12 लाख घुसपैठिये गैर-मुस्लिम हैं जिनको नए नागरिकता कानून के तहत यहां स्थानीय निवासियों की तरह रहने-बसने का अधिकार मिल जाएगा और बाकियों के लिये गुवाहाटी उच्च न्यायालय के निर्देश पर डिटेंशन सेंटर बनाया जा रहा है जहां उन्हें तमाम अधिक अधिकारों से वंचित करके सिर्फ जीने का हक ही दिया जाएगा। यही वजह है कि नागरिकता कानून का पहला व स्वाभाविक विरोध असम से ही सामने आया है जहां गैर-मुस्लिम विदेशी घुसपैठियों को वहां की नागरिकता मिल जाने के बाद असमिया संस्कार व संस्कृति का बंगालीकरण हो जाने की पूरी संभावना है। इसके अलावा जिन मुस्लिमों को तमाम अधिकारों से वंचित करके डिटेंशन सेंटर में रखा जाएगा उनमें भी बड़ी तादाद में ऐसे लोग शामिल हैं जिनके पुरखों ने भी कभी भारत के बाहर कदम नहीं रखा। यानी वे भारतीय होने का कागजी प्रमाण उपलब्ध नहीं करा पाने के कारण ही नागरिकता से वंचित किये जा रहे हैं।
असम के इस अनुभव के बाद अब पूरे देश में पहले नागरिकता कानून और उसके बाद एनआरसी को लागू करने के सरकार के ऐलान को लेकर भय, घबराहट, आशंका और आक्रोश का माहौल बनना स्वाभाविक ही है। वैसे भी सच तो यही है कि देश के करोड़ों गरीब, असहाय व बेघर-बेसहारा लोग जब अपने जिंदा होने का कागजी प्रमाण प्रस्तुत करने में भी असमर्थ हैं तब वे नागरिकता साबित करने के लिये आवश्यक दस्तावेज कैसे व कहां से लाकर दिखा पाएंगे। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ Navkant Thakur

गुरुवार, 24 जनवरी 2019

‘वक्ता ही हैं सभी, श्रोता कोई नहीं’

बचपन से ही हमें यह सिखाया जाता है कि अच्छा वक्ता बनने की अनिवार्य शर्त है कि पहले अच्छा श्रोता बना जाए। जो अच्छा श्रोता नहीं होगा वह अच्छा वक्ता भी नहीं बन सकता। लिहाजा बोलना कम और सुनना अधिक चाहिये। साथ ही जितना सुना गया उसे अधिक से अधिक गुनना, धुनना और बुनना चाहिये। उसके बाद वैचारिक व सैद्धांतिक बुनावट और कसावट के साथ जुबान से जो बातें निकलेंगी वही अच्छे वक्ता के तौर पर समाज में पहचान दिलाएंगी। यह तो हुई सैद्धांतिक बात। अब अगर व्यवहारिक तौर पर देखें तो माहौल ऐसा है जिसमें सुनने व समझने की ना तो फितरत बची है और ना ही आदत। बस बोलते जाना है। भले उन बातों में कोई तथ्य या प्रामाणिकता हो या ना हों। कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क सिर्फ इस बात से पड़ता हैं कि एक ही बात को कितनी बार दोहराया जा रहा है। इन दिनों देश की सियासत में इसी एकसूत्रीय रणनीति पर अमल हो रहा है। बात चाहे सत्तापक्ष की करें या विपक्ष की। सुनने, समझने, गुनने, धुनने और बुनने की लंबी प्रक्रिया के बाद ही कुछ बोलने की परंपरा अब बीते दिनों की बात बन कर रह गई है। लेकिन सवाल है कि बातों में तथ्य, सत्य, गंभीरता, प्रामाणिकता और विश्वसनीयता तो तब आएगी जब किसी भी मामले पर बोलने से पहले इसके तमाम पहलुओं के बारे में सुनकर विश्लेषण व चिंतन-मनन करके कोई ठोस राय कायम की जाए। लेकिन अगर कोई बोलने की रौ में सुनना-समझना गवारा ही ना कर रहा हो तो उसकी वही हालत होती है जो इन दिनों कांग्रेस और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी की दिख रही है। कायदे से देखें तो कांग्रेस ने आगामी चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा को घेरने के लिये जिन मुद्दों को मुख्य हथियार के तौर पर चुना है उसमें से एक भी औजार ऐसा नहीं है जो सत्य, तथ्य व प्रामाणिकता की धार व मजबूती से चमक-दमक रहा हो। कांग्रेस ने एक ओर राफेल के मुद्दे को आगे करके चैकीदार को चोर बताने की पहल की है तो दूसरी ओर ईवीएम की कमियां-खामियां गिना कर वह सरकारी तंत्र को बेईमान साबित करने पर तुली हुई है। इसके अलावा नोटबंदी के नुकसान गिनाकर वह आम लोगों की संवेदना बटोरना चाहती है तो जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स का नाम देकर सरकार को लुटेरी साबित करने में जुटी हुई है। साथ ही किसानों के लिये कर्जमाफी का वायदा करके वह जमीनी स्तर पर अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने में लगी है। ये पांच ही वह बड़े मुद्दे हैं जिसके पंच से कांग्रेस की कोशिश है भाजपा को धराशायी करने की। लेकिन इन पांचों मसलों को अलग-अलग टटोलें तो इनमें से एक भी मुद्दा तथ्य व सत्य से ढ़ला ठोस हथौड़ा नहीं है जिससे मोदी सरकार के ताबूत में कील ठोंकी जा सके बल्कि ये सभी मनगढ़ंत बातों की हवा से फूले हुए गुब्बारे ही हैं जो सांच के आंच को एक क्षण भी शायद ही बर्दाश्त कर पाएं। इन पांचों मसलों को सिलसिलेवार ढंग से परखें तो राफेल खरीद के मामले को ही नहीं बल्कि ईवीएम में गड़बड़ी के सवाल को भी पूरी तरह देखने, परखने और समझने के बाद सुप्रीम कोर्ट पहले ही खारिज कर चुका है। राफेल के मामले में कांग्रेस के तमाम सवालों का जवाब संसद में सरकार भी दे चुकी है और मामले से जुड़ी फ्रांस सरकार और दसौं कंपनी से लेकर रिलायंस तक की ओर से पूरे तथ्यों व प्रमाणों के साथ स्थिति स्पष्ट की जा चुकी है। ईवीएम को हैक करना अगर संभव होता तो चुनाव आयोग द्वारा हैक करने के लिये तीन दिन का वक्त दिये जाने का इन्होंने सदुपयोग कर लिया होता। रहा सवाल जीएसटी का तो अगर ये इतना ही खराब है तो जीएसटी लागू करने से लेकर जीएसटी काउंसिल तक में हर फैसला अब तक बहुमत के बजाय सर्वसम्मति से क्यों हुआ? कांग्रेस ने नीति-नियम के निर्धारण से किनारा अथवा विरोध क्यों नहीं किया? नोटबंदी इतनी गलत थी तो राहुल गांधी नोट बदलने के लिये कतार में लगने के बजाय सड़क पर संघर्ष के लिये क्यों नहीं उतरे। मामले को न्यायालय में खींचकर सरकार को शर्मिंदा क्यों नहीं किया? इसी प्रकार किसानों की कर्ज माफी की बात करना भी कांग्रेस के लिये ऐसा ही है जैसे सहेज कर रखने के बजाय अपने ही हाथों से फाड़ी गई चादर पर पैबंद लगाने की बात की जा रही हो। हालांकि ऐसा नहीं है कि बिना सोचे-समझे और सिर्फ बोलते चले जाने के लिये बोलना केवल कांग्रेस और राहुल का शगल है बल्कि ऐसी ही फितरत और आदत का मुजाहिरा सत्तारूढ़ भाजपा भी कर रही है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी। वर्ना जिस राम मंदिर मसले के विवाद को सुलझाने के लिये सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आड़ लेकर अध्यादेश लाने से बचने की कोशिश की जा रही है उसी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सबरीमला के मसले पर दिये गये फैसले को सार्वजनिक मंच से ललकारने व दुत्कारने का दुस्साहस कतई नहीं किया जाता। यहां तक कि अगस्ता खरीद घोटाले को चुनावी मुद्दा बनाने के लिये प्रधानमंत्री द्वारा मीडिया रिपोर्ट का हवाला नहीं दिया जाता जबकि इसका कथित राजदार क्रिश्चन मिशेल सरकार की पकड़ में आ चुका है। यानि बोलने से पहले सोचना और सोचने के लिये सुनना जब किसी को गवारा ही नहीं है तो उनकी बातों की कितनी गंभीरता, विश्वसनीयता व प्रामाणिकता रहेगी इसे आसानी से समझा जा सकता है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’     @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur 

शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

‘क्या बने बात जब कांग्रेस से बात बनाए ना बने’



बात बनने से पहले ही बिगड़ती हुई दिखे तो कैसा महसूस होता है यह कोई कांग्रेस से पूछे। कहां तो कोशिश थी सभी दलों को साथ जोड़कर महागठबंधन बनाने की ताकि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा की राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत घेराबंदी की जा सके। लेकिन स्थिति यह है कि किसी भी सूबे में कांग्रेस के साथ कांधे से कांधा मिलाने के लिये कोई तैयार ही नहीं है। हालांकि सबको मालूम है कि चुनावी नतीजा भाजपा के खिलाफ आने के बाद भी अपना कद ऊंचा करने के लिये उसे कांग्रेस के कांधे पर ही चढ़ना होगा। लेकिन इस समय जबकि कांग्रेस को अपनी सियासी डोली को चुनावी सफर में आगे बढ़ाने के लिये क्षेत्रीय दलों के कांधे की जरूरत है तो एक के बाद एक सभी उससे कन्नी काटते दिख रहे हैं। अपने कांधे पर कांग्रेस का वजन उठाने के लिये कोई तैयार नहीं है। यूपी में तो बसपा, सपा व रालोद यानि बुआ, बबुआ और ताऊ की तिकड़ी ने पहले ही कांग्रेस से किनारा कर लिया। लेकिन चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी को भी तेलंगाना में कांग्रेस के साथ गठजोड़ करके चुनाव लड़ने का बेहद बुरा हश्र झेलने के बाद अब आंध्र प्रदेश में हाथ का साथ पकड़ने से परहेज बरतने में ही अपनी भलाई दिख रही है। यहां तक कि लोकसभा की महज सात सीटों वाले सूबे दिल्ली में सत्तारूढ़ अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी कांग्रेस की लाख कोशिशों के बावजूद उसके साथ जुड़ने के लिये तैयार नहीं है। जबकि इस गठबंधन में बाधक बन रहे अजय माकन का प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा भी हो गया और प्रदेश कांग्रेस की कमान 80 वर्षीया बुजुर्ग नेत्री शीला दीक्षित को भी सौंप दी गई ताकि आप के साथ संबंध कायम करने में कोई परेशानी ना हो। लेकिन केजरीवाल कांग्रेस को ऊंचा उठाने के लिये अपना कांधा लगाने को कतई तैयार नहीं हैं। आलम यह है कि कर्नाटक में कांग्रेस ने जिस जेडीएस की सरकार बनवाई वह भी बुरी तरह बिदकी हुई है। जेडीएस के शीर्ष नेता एचडी देवेगौड़ा तो काफी पहले ही यह बता चुके हैं कि कांग्रेस के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन तार्किक नहीं है। लेकिन मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी जिस तरह कांग्रेसियों से दुखी होकर रो-गा रहे हैं कि उनकी स्थिति क्लर्क की बन कर रह गई है ऐसे में कौन सोच सकता है कि कांग्रेस को सियासी बेड़ा पार करने के लिये जेडीएस अपने कांधे पर सवार होने की इजाजत देगी। उधर ओडिशा में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की बीजू जनता दल तो पहले ही अपना सफर अपने दम पर तय करने का इरादा जता चुकी है जबकि छत्तीसगढ़ में भी अजीत जोगी विधानसभा की तरह लोकसभा चुनाव अपने दम पर ही लड़ने का इरादा जाहिर कर चुके हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस इस डर से कांग्रेस को अपना कांधा मुहैया कराने के लिये तैयार नहीं है कि कहीं कल को वामदलों के साथ मिलकर वह उसके लिये खतरे का तूफान ना खड़ा कर दे जबकि केरल में वामदल कतई कांग्रेस को अपने करीब नहीं आने देना चाह रहे हैं। असम में भी स्थानीय दलों के साथ कांग्रेस का समझौता नहीं हो पा रहा है जबकि जम्मू-कश्मीर में एनसी और पीडीपी के बीच फंसी कांग्रेस तय ही नहीं कर पा रही है कि इधर जाए या उधर जाए। यानि समग्रता में देखें तो राष्ट्रीय स्तर पर तस्वीर ऐसी बन रही है कि लोकसभा के कुल 543 में से 269 सीटों के लिये सांसद चुननेवाले उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, असम, छत्तीसगढ़, जम्मू कश्मीर, कर्नाटक, केरल, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और दिल्ली सरीखे ग्यारह सूबों में यह अभी से तय है कि कांग्रेस को चुनावी वैतरणी पार करने के लिये कोई मजबूत कांधा मयस्सर नहीं हो पाएगा। इन तमाम सूबों में चुनाव त्रिकोणीय होगा जिसमें सबसे बड़ी स्थानीय ताकत का सहयोग कांग्रेस को नहीं मिल पाएगा। दरअसल बीते दिनों हुए चुनाव के नतीजों ने यह उम्मीद प्रबल कर दी है कि इस बार जनमानस का बहुमत भाजपा के खिलाफ जाने वाला है। जबकि कांग्रेस ने बेशक आमने-सामने की लड़ाई में राजस्थान व मध्य प्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ तक में भाजपा को शिकस्त देने में कामयाबी हासिल कर ली हो लेकिन उसकी राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के विकल्प के तौर पर स्वीकार्यता नहीं होने की बात से भी सभी वाकिफ हैं। हालांकि कांग्रेस को साथ लेकर गैर-भाजपाई गठजोड़ बनाने का लाभ भी सबको दिखाई पड़ रहा है लेकिन इसमें स्थानीय ताकतों को अपना हित सुरक्षित नजर नहीं आ रहा है। आखिर राजनीति है भी असीमित संभावनाओं को संभव कर दिखाने का खेल। उसमें भी माहौल इतना बेहतर है कि भाजपा सिमटती दिख रही है और कांग्रेस की स्वीकार्यता में कोई इजाफा नहीं दिख रहा। ऐसे में अगर तीसरी ताकतें कांग्रेस को ऊंचा उठाने के लिये अपना कांधा लगाने के बजाय अपने ही कद को ऊंचा करने की रणनीति बना रही हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। भले ही बाद में सत्ता के शिखर को छूने के लिये आवश्यक ऊंचाई हासिल कर पाना कांग्रेस के कांधे पर सवार हुए बिना संभव ना हो सके। लेकिन कांग्रेस को किनारे लगाकर त्रिकोणीय व बहुकोणीय टकराव में अपना फायदा देखनेवालों को यह नहीं भूलना चाहिये कि विरोधियों के ऐसे ही बिखराव ने बीते आम चुनाव में महज 32 फीसदी वोट पाने वाली भाजपा को अपने दम पर पूर्ण बहुमत का आंकड़ा हासिल करा दिया था। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर 


मंगलवार, 8 जनवरी 2019

‘सामाजिक समस्याओं पर धार्मिक रंग चढ़ाने की सियासत’

सियासत सिर्फ मौजूदा समस्याओं पर ही नहीं होती बल्कि सियासत के लिये समस्याएं खड़ी भी की जाती हैं और उन पर मनचाहा रंग चढ़ा कर लोगों की भावनाओं को सुलगाया और भड़काया भी जाता है। खास तौर से धर्म, परंपरा व रीति-रिवाजों को सबसे अधिक अहमियत देने वाले भारतीय समाज में अपनी सियासी पकड़ मजबूत करने के लिये किसी भी मसले को जाति व धर्म की भावनाओं के साथ जोड़ने की कोशिशें यूं तो लगातार चलती रहती हैं लेकिन मौसम चुनाव का हो तो सामाजिक मसलों को मजहबी रंग देकर परवान चढ़ाने की होड़ में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। इन दिनों ऐसी ही कोशिशें तीन तलाक के मसले पर भी हो रही है, गौ-हत्या के मामले में भी और सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे पर भी। इन तीनों मामलों में धर्म का पक्ष प्रबल दिखाने की कोशिश हर तरफ से की जा रही है। इसके पीछे रणनीति है कि मामला जब धार्मिक रंग लेगा तभी लोगों की भावनाएं उसके साथ गहराई से जुड़ेंगी और समाज में वैचारिक, सैद्धांतिक व व्यावहारिक स्तर पर ऐसा विभाजन हो पाएगा जिसका पूरा राजनीतिक लाभ लिया जा सके। यही वजह है कि ना तो राजनीति करनेवाले इन मसलों पर धार्मिक रंग चढ़ाने में कोई कसर छोड़ रहे हैं और ना ही राजनीति के कृपा प्रसाद से तृप्त होने की कामना रखनेवाले धर्म के धंधेबाज ही इन मामलों में राजनीतिक दृष्टिकोण को स्थापित करने में अपना सहयोग व समर्थन देने में गुरेज कर रहे हैं। जबकि वास्तव में देखा जाए तो ये तीनों मसले ऐसे हैं जो सीधे तौर पर सामाजिक कुरीतियों से जुड़े हैं। इनका कोई ठोस तार्किक धार्मिक आधार उपलब्ध ही नहीं है। इन्हें आधार मिल रहा है बेसिर-पैर की किंवदंतियों और कपोल-कल्पित कहानियों से जो किसी भी धर्म के स्थापित सिद्धांतों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। अगर तीन तलाक की व्यवस्था का कोई धार्मिक आधार उपलब्ध होता तो दुनिया के दो दर्जन से अधिक इस्लामिक देशों में दशकों पहले इस कुप्रथा पर दंडात्मक प्रतिबंध हर्गिज नहीं लगाया जाता। वास्तव में तीन तलाक का मामला धार्मिक मसला है ही नहीं। यह सामाजिक समस्या है। तभी तो इस कुप्रथा के खिलाफ दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने ना सिर्फ इस व्यवस्था को महिलाओं के प्रति अन्याय करनेवाली कुरीति का नाम देते हुए इसे असंवैधानिक बताया बल्कि इस पर प्रतिबंध लगाने का उपाय करने के लिये केन्द्र सरकार को निर्देश भी दिया। यानि वास्तव में देखें तो महिला को विवाह व्यवस्था में बराबरी का हक देने के लिये ही तीन तलाक को दंडनीय बनाने के लिये केन्द्र सरकार द्वारा कानून लाने की कोशिश की जा रही है जिसे लोकसभा ने तो पारित कर दिया है लेकिन मामले को धर्म के चश्मे से देखनेवालों ने अपना वोट बैंक दुरूस्त करने के लिये इसे राज्यसभा में अटका-लटका दिया है। इसी प्रकार गौ-हत्या की बात करें तो अगर इस्लाम में यह इतना ही सबाब यानि पुण्य का काम होता तो इस्लामिक संगठनों व जानकारों की काफी बड़ी जमात इसके खिलाफ खड़ी ही नहीं होती और कहीं से भी इसे रोकने का कभी कोई फतवा ही सामने नहीं आता। इस काम को अंजाम देनेवाले बूचड़खानों में हिन्दुओं और मुसलमानों की हिस्सेदारी और भागीदारी को अलग करके नहीं देखा जा सकता। गौ-हत्या करनेवाले को सीधे तौर पर मुसलमानों का प्रतिनिधि मान लेना और इसके लिये पूरी कौम को जिम्मेवार ठहरा देना निहायत ही अनुचित है क्योंकि मुस्लिम समाज का बहुत बड़ा तबका ना सिर्फ गौ-हत्या व गौ-मांस के सेवन को निहायत ही गलत मानता है बल्कि उनमें से कई ऐसे हैं जो किसी भी हिन्दू से अधिक गौ-भक्त हैं और गौ-सेवा का काम कर रहे हैं। इसी प्रकार अगर सनातन धर्म की किसी भी मान्यता या परंपरा में गर्भधारण करने में सक्षम महिलाओं को अछूत मानने का कोई आधार होता तो इस धर्म के सर्वाेच्च केन्द्र माने जानेवाले ज्योतिर्लिंगों, शक्ति पीठों या चार धामों के गर्भगृह में भी महिलाओं के प्रवेश को लेकर अवश्य ही कोई अलग मान्यता, परंपरा या व्यवस्था होती। लेकिन सनातन धर्म के इन सर्वोच्च व सर्वमान्य केन्द्रों में महिलाओं को हर तरह से पुरूषों के बराबर ही दर्शन व पूजन का अधिकार हासिल है। ऐसी सूरत में यह समझ से परे है कि गर्भधारण करने में सक्षम आयु वर्ग की महिलाओं को मंदिर से दूर रखने के पीछे आखिर क्या धार्मिक, वैदिक अथवा तार्किक-प्रामाणिक आधार हो सकता है? कहने का तात्पर्य यह है कि मामला चाहे तीन तलाक का हो, गौ-हत्या का अथवा सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का। ये सभी समस्याएं वास्तव में सामाजिक हैं जिसमें गैरबराबरी, खुराफाती और बदमाशी से भरी हुई सोच छिपी हुई है जिसका प्रतिकार अवश्य किया जाना चाहिये। लेकिन मसला है कि आम लोगों की भावना से जुड़े इन मसलों का राजनीतिक लाभ तब तक नहीं मिल सकता जब तक इस पर धर्म का पक्का मुलम्मा ना चढ़ाया जाए और इन समस्याओं को धर्म विशेष के साथ मजबूती से जोड़ा ना जाए। यही वजह है कि धर्म के ठेकेदारों व धंधेबाजों ने राजनीतिक दलों की इस छुपी हुई मंशा को पूरा करने में अपना सहयोग देते हुए समाज को धार्मिक आधार पर विभाजित करने और इन मसलों को धार्मिक रंग देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लिहाजा आवश्यक है कि लोग जागरूक हों और सही-गलत का फर्क समझें वर्ना अंधविश्वास और मासूमियत के दोहन का सिलसिला बदस्तूर चलता ही रहेगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

‘फेडरल फ्रंट की दुधारी तलवार का राजनीतिक वार’

विज्ञान की नजर में निर्वात की परिकल्पना सैद्धांतिक ही है, व्यावहारिक कतई नहीं है। प्रकृति के किसी भी आयाम में निर्वात के लिये कोई स्थान नहीं है। बल्कि यूं कहें तो गलत नहीं होगा कि निर्वात की अवस्था ही अपने आप में अप्राकृतिक है। प्रकृति हमेशा इसके सख्त खिलाफ रहती है और इसके अस्तित्व को मिटाने के लिये हमेशा प्रयत्नशील रहती है। ऐसा प्रकृति के हर आयाम में दिखता है। प्रकृति की ही तरह राजनीति में भी निर्वात के लिये कहीं कोई जगह नहीं होती। सैद्धांतिक तौर पर भले ही निर्वात की अवस्था दिखाई पड़े लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह संभव ही नहीं है। खास तौर से तात्कालिक तौर पर तो कभी निर्वात यानि शून्यता की स्थिति बनती ही नहीं है। इसकी परिकल्पना को हमेशा दूरगामी तौर पर ही दिखाया-बताया जाता है। ठीक वैसे ही जैसे हालिया दिनों तक यह बताया जा रहा था कि मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री मोदी का कोई दूसरा विकल्प उभर कर सामने आ ही नहीं सकता। लेकिन कल तक दूर से दिखाई पड़नेवाली निर्वात, शून्यता अथवा विकल्पहीनता की परिकल्पना का आज की तारीख में कोई अस्तित्व ही महसूस नहीं हो रहा है। बल्कि अब तो यह चर्चा भी तेजी से जोर पकड़ रही है कि मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल भी पाएगा या नहीं? खास तौर से हालिया चुनावों में कांग्रेस को मिली संजीवनी से स्पष्ट हो गया कि भाजपा की राहें उतनी आसान नहीं रहनेवाली हैं जितना उसने भौकाल बनाया हुआ है। साथ ही इन चुनावों से यह भी साफ हो गया कि इस बार क्षेत्रीय दलों के उभार को रोक पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल होगा। इसमें भाजपा के लिये सबसे परेशानी की स्थिति वह होती जिसमें उसके तमाम विरोधी एक मंच पर एकत्र हो जाते। हालांकि इसकी कोशिशें बहुत हुईं लेकिन कोई सार्थक परिणाम नहीं निकल सका। समाजवादियों के विलय की बात आई तो जिस सपा को अगुवा बनाने की कोशिश की गई उसने ही अपनी पहचान मिट जाने की चुनौती से डर कर किनारा कर लिया। उसके बाद संयुक्त मोर्चा बनाने की बात आई तो नेतृत्व के सवाल पर मामला बिगड़ गया। बाद में कांग्रेस ने अपनी अगुवाई में राष्ट्रव्यापी महागठजोड़ बनाने का प्रयास किया तो प्रधानमंत्री पद पर उसकी दावेदारी को स्वीकार्यता नहीं मिलने के कारण उसे अपने कदम पीछे खींचने पड़े। यहां तक कि क्षेत्रीय दलों का प्रदेश स्तरीय मोर्चा बनाने के ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू और शरद पवार के प्रयास भी सफल नहीं हो सके। यानि विपक्ष को एक मंच पर लाना तराजू पर मेढ़क तौलने सरीखा दुरूह काम ही बना रहा। लेकिन कहते हैं कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है। लिहाजा भाजपा विरोधी वोटों का बंटवारा रोकने की राह अब स्पष्ट तौर पर निकलती दिखाई पड़ रही है और इसकी नींव रखी है तेलंगाना के मुख्यमंत्री व टीआरएस सुप्रीमो के चंद्रशेखर राव ने। दरअसल अब तक के तमाम प्रयास इस वजह से फलीभूत नहीं हो सके क्योंकि किसी एक दल की राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी हैसियत ही नहीं थी कि वह विपक्ष की धुरी बन सके। लिहाजा अब दो-स्तरीय घेरेबंदी का फार्मूला अमल में लाया जा रहा है और प्रयास हो रहा है कि जिन सूबों में कांग्रेस की स्थिति और उपस्थिति मजबूत है वहां कांग्रेस को साथ लेकर मोर्चाबंदी की जाये और जहां कांग्रेस को साथ लेने से कोई फायदा मिलने की उम्मीद नहीं है अथवा जिस सूबे की क्षेत्रीय ताकतें अपने इलाके में कांग्रेस को दोबारा पनपने व बढ़ने का मौका नहीं देना चाहती वह कांग्रेस व भाजपा से बराबर दूरी कायम करते हुए गठित होनेवाले फेडरल फ्रंट को अपना समर्थन दे। इस फेडरल फ्रंट के गठन की परिकल्पना को अमली जामा पहनाने के लिये ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ चंद्रशेखर राव की बातचीत का पहला चरण भी पूरा हो गया है। इसके अलावा सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ भी उनकी मुलाकात होनेवाली है जो अपने विधायक को मध्य प्रदेश में मंत्री नहीं बनाए जाने के कारण कांग्रेस से नाराज बताए जा रहे हैं। इस फ्रंट के घटक दलों में सभी अलग-अलग सूबों के क्षत्रप हैं लिहाजा चुनाव होने तक किसी की महत्वाकांक्षा आपस में नहीं टकराने वाली है। ना तो टीडीपी और सपा-बसपा के बीच सीट समझौते का कोई सवाल पैदा होता है और ना ही बीजेडी का तृणमूल कांग्रेस के साथ। यानि महत्वाकांक्षाओं के टकराव की फिलहाल कोई संभावना ही नहीं है। अलबत्ता इस फ्रंट के गठन से जमीनी स्तर पर यह संदेश तो जाएगा ही कि कांग्रेस और भाजपा के अलावा भी कोई तीसरा विकल्प है जिसके घटक दलों में कोई तनाव और विवाद नहीं है और वे सभी अलग-अलग सूबों में सफलता के साथ सरकार चला रहे हैं अथवा चला चुके हैं। निश्चित ही इस पहल से तीसरे विकल्प की मजबूती के प्रति मतदातओं को आश्वस्त किया जा सकेगा। हालांकि इस पूरे समीकरण में भाजपा इतनी ही उम्मीद पाल सकती है कि उसके विरोधी वोटों का बंटवारा हो जाए और त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति में उसे जीत की राह पर आगे निकलने का मौका मिल जाए। लेकिन इस संभावना को भी नकारा नहीं जा सकता है कि भाजपा विरोधी वोटों का बंटवारा ही ना हो और जिस सीट पर कांग्रेसनीत महागठजोड़ और फेडरल फ्रंट में से जिसकी बढ़त बने उसके पक्ष में ही भाजपा विरोधी मतों का ध्रुवीकरण हो जाए। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया। @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur