शनिवार, 17 सितंबर 2016

‘रफू की ताकीद करनेवाले, कहां-कहां अब रफू करेंगे’

‘रफू की ताकीद करनेवाले, कहां-कहां अब रफू करेंगे’


सूबे में सत्तारूढ़ सपा की अंदरूनी हालत ऐसी ही दिख रही है जिसके बारे में कहा गया है कि ‘रफू की ताकीद करनेवाले कहां-कहां अब रफू करेंगे, लिबासे-हस्ती का हाल ये है, जगह-जगह से मसक रहा है।’ वाकई सपा की लगातार यत्र-तत्र-सर्वत्र मसकती दिख रही लिबासे-हस्ती को संभालने की कोशिश करनेवालों के लिये सबसे बड़ी चुनौती यही है कि आखिर रफू का काम शुरू कहां से किया जाये। हालत यह है कि एक सिरा पकड़ो तो दूसरा फिसल जाता है। एक को मनाओ तो दूसरा रूठ जाता है। वास्तव में प्रदेश ही नहीं बल्कि समूचा देश इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि सूबे में सत्तारूढ़ सपा के भीतर जो संग्राम छिड़ा हुआ है वह ना तो इतनी जल्दी समाप्त होनेवाला है और ना ही दबाने से दबनेवाला है। गनीमत है कि नेताजी की धुरी के प्रति सबकी आस्था बदस्तूर कायम है लिहाजा वे ठोक कर यह कहने का हौसला दिखा रहे हैं कि उनके रहते पार्टी में फूट नहीं हो सकती। हालांकि बेशक सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने पार्टी में जारी महासंग्रम पर काबू पाने के लिये खुद ही मोर्चा संभाल लिया है और सुलह के फार्मूले पर सहमति बनाने का प्रयास जोरों पर जारी है। लेकिन सूबे की आवाम से लेकर आला निजाम तक को यह बेहतर मालूम है कि चुनाव के मद्देनजर टकराव की लपटें सतही तौर पर फिलहाल बुझ भी जाएं मगर इसके भीतर सुलग रहा ज्वालामुखी निर्णायक तौर पर कभी ना कभी फूटेगा जरूर। और जब यह फूटेगा तो इसका लावा निश्चित तौर पर सपा की एकजुटता को अपने साथ बहा ले जाएगा। इस हकीकत से बाखबर होने के बावजूद जिस तरह से मामले की गहराई से सर्जरी करके पूरे मवाद व सड़े-गले हिस्से को काटकर निकालने के बजाए महज मरहम-पट्टी करके इस विषैले जख्म को दबाने-छिपाने की कोशिश की जा रही है वह निश्चित तौर पर आत्मघाती ही मानी जाएगी। वास्तव में देखा जाये तो सपा की ओर से पूरे विवाद की जो वजहें गिनायी जा रही हैं वह सतही तौर पर भले ही सटीक मालूम पड़ती हों लेकिन गहराई से परखने पर वह नकली ही दिखाई पड़ती है। पर्देदारी की लाख कोशिशों के बावजूद सपा का शीर्ष नेतृत्व इस हकीकत को दबा या छिपा नहीं सकता कि संगठन में जारी महासंग्राम की असली वजह ना तो अखिलेश को पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाया जाना है, ना शिवपाल से महत्वपूर्ण मंत्रालय छीना जाना और ना ही गायत्री प्रजापति सरीखे मंत्रियों को सरकार से रूखसत किया जाना। यहां तक कि केबिनेट सचिव के पद पर बदलाव किये जाने या आला नौकरशाहों को ताश के पत्तों की तरह फेंटे जाने को भी इस महासंग्राम की वजह मानना बेवकूफी ही होगी। वास्तव में ये सभी घटनाक्रम महज परिणाम है जिसका कारण है संगठन पर वर्चस्व की वह लड़ाई जो सत्ता से लेकर संगठन तक पर पूर्ण एकाधिकार कायम करने के लिये छिड़ी हुई है। इस जंग की पटकथा तभी से लिखी जा रही है जब से शिवपाल ने संगठन में जमीनी स्तर तक अपनी मजबूत पैठ बनानी शुरू कर दी थी जबकि मुलायम ने पुत्रमोह में संगठन व सरकार की कमान अखिलेश को सौंपने का फैसला किया था। जाहिर तौर पर हर खासो-आम की यही ख्वाहिश होती है कि उसका उत्तराधिकारी उसका अपना बेटा ही हो। बेटे को दरकिनार कर किसी अन्य को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने की तो किसी से अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। लिहाजा यही काम मुलायम ने भी किया तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था। उन्होंने अपने खून-पसीने से जिस सपा संगठन को खड़ा किया उसकी बागडोर वे अपने बेटे के हाथों में सौंपना चाह रहे हैं तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन सपा को सत्ता के शीर्ष पर लाकर खड़ा करने में उनके अन्य बंधु-बांधवों ने जो योगदान किया है उसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती। आज भी संगठन में जमीनी स्तर पर शिवपाल का जो प्रभाव है उसे झुठलाया नहीं जा सकता। ऐसे में अपने लिये पूरे मेहनताने की उनकी मांग को भी खारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन एक तरफ जोतने के एवज में पूरा खेत हथियाने की उनकी कोशिश और दूसरी ओर जोतने-बोने की जहमत उठाए बगैर खड़ी फसल को अपने खलिहान में लाने की अखिलेश की जिद के बीच जारी टकराव वास्तव में ऐसा ही है जैसे गाय को पाले-खिलाए कोई और, उसकी मलाई खाए कोई और। यह लंबे समय तक तो चल नहीं सकता। तभी तो अब गाय को पालने-खिलानेवाले और उसकी दूध-मलाई पर कब्जा जमानेवाले के बीच बुरी तरह ठन गयी है। ऐसे में परेशान है उस गाय का मालिक जो पकी उम्र और थके शरीर के साथ ना तो गाय की पूरी सेवा व हिफाजत करने में सक्षम है और ना ही अपनी कमजोर हाजमे के कारण इसकी दूध-मलाई से कोई वास्ता रखना चाहता है। बल्कि उसकी कोशिश है कि गाय की रस्सी अपने बेटे के हाथों में थमा दे ताकि वह उसे पाले भी और दुहे भी। लेकिन मसला है कि बेटे के घास से गाय का पूरा पेट नहीं भर सकता जिसके नतीजे में दूध-मलाई का संकट उत्पन्न होना तय है। ऐसे में अब देखना दिलचस्प होगा कि पूरा परिवार मिलजुल कर गाय की सेवा करते हुए मिल बांटकर दूध-मलाई खाना पसंद करता है या फिर आपसी झगड़े में गाय का दूध सुखाकर उसके साथ खुद को भी तबाह-बर्बाद कर लेता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

मंगलवार, 6 सितंबर 2016

दलित-मुस्लिम एका की काल्पनिक परिकल्पना

दलित-मुस्लिम समीकरण के अफसाने की हकीकत


भारत की राजनीति में दो धाराएं ऐसी हैं जो ना तो कभी सूखी हैं और ना कभी सूख सकती हैं। एक दलित सरोकार की धारा और दूसरी धर्मनिरपेक्षता की आड़ में बहनेवाली मुस्लिम तुष्टिकरण की धारा। इन दोनों धाराओं के अविरल-निर्मल प्रवाह की वजह है देश की आबादी में इनकी वह हिस्सेदारी जो सियासी नजरिये से काफी हद तक निर्णायक दिखाई पड़ती है। तभी तो इन्हें अपने साथ जोड़ने या इनके साथ पूरी शिद्दत से जुड़ने के लिये तमाम राजनीतिक पार्टियां हमेशा लालायित रहती हैं। अल्पसंख्यकवाद के नाम पर होनेवाली मुस्लिम सरोकार की सियासी धारा पर निगाह डालें तो भाजपा व शिवसेना सरीखे कुछ गिने-चुने राजनीतिक दलों को छोड़कर बाकी तमाम राजनीतिक पार्टियों के बीच हमेशा ही खुद को अल्पसंख्यकों का सबसे तगड़ा अलंबरदार साबित करने की होड़ चलती रही है। केन्द्र में भाजपा के समर्थन से चल रही वीपी सिंह की सरकार को दांव पर लगाकर लालू यादव द्वारा बिहार में लालकृष्ण आडवाणी के रामरथ का अश्वमेघ रोक कर उन्हें गिरफ्तार कराने की बात हो या मुलायम सिंह यादव द्वारा अयोध्या में निहत्थे कारसेवकों पर गोली चलवाने का मामला हो। इसके पीछे सीधे तौर पर अल्पसंख्यकों का भरोसा जीतने की सोच ही थी। यहां तक कि अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति के तहत ही राजीव गांधी की सरकार ने शाह बानो के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने के लिये संसद से ‘मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार) संरक्षण अधिनियम पारित कराया जबकि मुस्लिम वोटबैंक में कांग्रेस की हिस्सेदारी पुख्ता करने के लिये प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए डाॅ मनमोहन सिंह ने औपचारिक तौर पर यह एलान कर दिया कि देश के तमाम संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का ही है। इसी प्रकार संवैधानिक प्रावधानों की अवहेलना करते हुए सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था करने के लिये विधानसभा से कानून पारित कराये जाने के मामले हों या गौ-हत्या पर लगी बंदिशों को कमजोर करने की वकालत किये जाने की बात हो। हर मामले में सीधे तौर पर अल्पसंख्यकों का दिल जीतने की सोच ही छिपी रहती है। आखिर संसदीय लोकतांत्रिक शासन प्रणालीवाले मुल्क हिदुस्तान में जहां मुसलमानों की कुल आबादी तकरीबन 14 फीसदी से भी अधिक हो और उसमें भी पांच राज्यों में 26.6 फीसदी से लेकर 92.2 फीसदी, सात राज्यों में 11.5 फीसदी से लेकर 19.3 फीसदी और आठ राज्यों में आठ से साढ़े दस फीसदी के बीच मुसलमानों की आबादी हो वहां अल्पसंख्यकवाद की राजनीति का बोलबाला दिखना स्वाभाविक ही है। दूसरी ओर दलित सरोकार की सियासी धारा के अनवरत प्रवाह की वजह भी आबादी में राष्ट्रीय स्तर पर इनकी 16 फीसदी की हिस्सेदारी ही है। साथ ही संसद और विधानसभाओं में इन्हें 15 फीसदी आरक्षण भी हासिल है। ऐसे में दलित सरोकार की सियासी धारा में डूबने-उतराने और सराबोर होने का सुख भला कौन नहीं उठाना चाहेगा। आंकड़ों की नजर से सैद्धांतिक तौर पर देखा जाये तो इन दोनों धाराओं का संगम सियासत के सर्वोच्च शिखर को भी अपने में समाहित कर लेने में पूरी तरह सक्षम है। तभी तो बहुसंख्यकवाद की राजनीतिक राह पर चलते हुए महज 32 फीसदी वोटों के दम पर केन्द्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब रहनेवाली भाजपा को पटखनी देने के लिये जितने भी समीकरण टटोले जा रहे हैं उनमें दलित-मुस्लिम धारा का संगम ही सबसे गहरा व विस्तृत दिखाई पड़ रहा है। बाकी, गैर-भाजपावाद के बिहार में सफलतापूर्वक आजमाए जा चुके बेहद मजबूत सैद्धांतिक समीकरण को अन्य सूबों में व्यावहारिक जमीन ही मयस्सर नहीं हो पा रही है जबकि कांग्रेस व वामपंथियों का जो खूंटा कभी सियासी ध्रुवीकरण का केन्द्र हुआ करता था वह मौजूदा हालातों में मजबूत कहारों के कांधे का सहारा लिये बिना खड़े हो पाने की स्थिति में भी नहीं दिख रहा है। ऐसे में ले-देकर समीकरण बचता है दलित व अल्पसंख्यक धारा के सम्मिलन का, जिसमें कागजी व सैद्धांतिक तौर पर तो सत्ता के शिखर से भाजपा को बहा ले जाने की क्षमता स्पष्ट दिख रही है। तभी तो कुछ दिनों से गौ-हत्या व दलित उत्पीड़न के मामलों का परस्पर घालमेल करके ऐसा वातावरण बनाने की चैतरफा कोशिशें जोरों पर जारी हैं जिससे भावनात्मक तौर पर दलितों व अल्पसंख्यकों को करीब लाया जा सके और इन्हें केन्द्र की भाजपानीत राजग सरकार के खिलाफ एकजुट किया जा सके। इसके लिये कभी गुजरात में दलित-मुस्लिम रैली का आयोजन हो रहा है तो कभी जेएनयू में इस सिद्धांत पर व्याख्यान कराया जा रहा है। तस्वीर ऐसी उकेरी जा रही है मानो दलितों व मुस्लिमों के बीच कोई अलगाव-टकराव हो ही ना बल्कि बहुसंख्यकों व खास तौर से सवर्णों के खिलाफ इनका सबकुछ साझा ही हो। लेकिन सियासी समीकरण साधने के लिये इन दोनों धाराओं का संगम कराने का प्रयास कर रही ताकतों ने अव्वल तो 16 फीसदी आबादीवाले अनुसूचित जातियों के उस समूह को एकजुट दलित समझ लिया है जिनके बीच व्यावहारिक धरातर पर कई स्तरों पर परस्पर कट्टर छूआछूत का माहौल आज भी स्पष्ट देखा जा सकता है और दूसरे सामाजिक स्तर पर होनेवाले सांप्रदायिक टकराव के उन वास्तविक किरदारों की भी अनदेखी की जा रही है जिनके बीच कागजी तौर पर ही मजबूत एकजुटता की कल्पना संभव है वर्ना हकीकत में तो आपसी खून-खराबे का इनका लंबा इतिहास रहा है। ऐसे में सवर्णों से बिदका हुआ वर्ग भले ही कागजी तौर पर अल्पसंख्यकों के साथ जुड़ने के लिये तैयार दिख रहा हो लेकिन इनके बीच सांप्रदायिक स्तर पर जुड़ाव का कोई साझा आधार तैयार हो पाने की तो उम्मीद भी नहीं की जा सकती है। यानि अव्वल तो तमाम अनुसूचित जातियों का दलित मंच पर एकजुट हो पाना ही नामुमकिन की हद तक मुश्किल है और दूसरे तमाम दलितों को हर गली-कूचे व कस्बे-मोहल्ले में उन मुस्लिमों के साथ एकजुट करना भी नामुमकिन सरीखा ही है जिनके बीच तमाम सांप्रदायिक दंगों व हिंसक टकरावों में स्थानीय स्तर पर परस्पर घर-द्वार जलाने-उजाड़ने, माल-असबाब से लेकर आबरू-इज्जत लूटने-छीनने और एक-दूसरे के सखा-संतानों को मारने-काटने व अपंग-अपाहिज बनाने का इतिहास सदियों से लिखा जा रहा है। यहां तक कि तमाम कोशिशों व जद्दोजहद के बाद अगर इन दोनों धाराओं को समेट-बटोरकर न्यूनतम साझा सरोकारों के आधार पर इनका संगम करा भी दिया जाता है तो विरोधी पक्ष की ओर से फेंकी गयी संप्रदायवाद की जलती हुई तीली की मामूली सी चिंगारी भी इन्हें ऐन मौके पर परस्पर इतनी दूर लाकर खड़ा कर सकती है जिसके बारे में कल्पना करने से भी सिहरन पैदा हो जाती है। ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर दलित-मुस्लिम धारा का संगम कराने के सियासी प्रयासों पर तो यही कहा जा सकता है कि ‘हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन, दिल बहलाने के लिये गालिब ये खयाल अच्छा है।’ @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur