सोमवार, 28 सितंबर 2015

‘अनाड़ी का खेलना खेल का सत्यानाश’

नवकांत ठाकुर
‘अनाड़ी का खेलना खेल का सत्यानाश, पटरी हो खराब तो रेल का सत्यानाश, रहे अंधेरा रात भर तेल का सत्यानाश।’ यूं तो आनंद बख्शी साहब ने ये पंक्तियां वर्ष 1983 में आयी फिल्म ‘वो सात दिन’ के लिये लिखी थी लेकिन सियासी नजरिये से देखा जाये तो यह भाजपा के उन नेताओं की करतूतों का संभावित अंजाम बयान करती हुई नजर आती हैं जिनके अनाड़ीपन ने पार्टी के लिये भारी सिरदर्दी का सामान जुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वाकई पार्टी का शीर्ष संचालक खेमा इन दिनों भारी परेशानी से गुजर रहा है। उसकी समझ में ही नहीं आ रहा है कि अपने उन बयान बहादुर नेताओं की नादानियों से कैसे निपटा जाये जिनकी बेसिर पैर की बातें लगातार मीडिया की सुर्खियां जुटा रही हैं। इन नेताओं की नादानियों से निपट पाने में नाकामी का ही नतीजा है कि पार्टी के चाणक्य कहे जानेवाले अरूण जेटली भी यह स्वीकार करने से गुरेज नहीं करते हैं कि भाजपा ही शायद इकलौती ऐसी पार्टी है जो हर रोज एक नया बेवकूफ पैदा करने की क्षमता रखती है। हालांकि यह शेर सर्वविदित है कि ‘बेवकूफों की कमी नहीं जमाने में, एक ढृूंढो हजार मिलते हैं।’ लेकिन इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि अपने बेवकूफों के कारण जितनी सिरदर्दी भाजपा को झेलनी पड़ती है उतनी शायद ही किसी अन्य पार्टी को झेलनी पड़ती हो। खुद को सबसे अधिक अनुुशासित पार्टी बतानेवालनी भाजपा की अंदरूनी हकीकत यही है कि सांगठनिक अनुशासन की जितनी धज्जियां यहां उड़ाई जाती हैं उसकी मिसाल शायद ही कहीं और देखने को मिले। मसलन बिहार विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे को लेकर किसी भी दल के सांसद ने अपने शीर्ष नेतृत्व पर यह इल्जाम लगाने की जुर्रत नहीं की है कि उसने पैसे लेकर ऐसे लोगों को टिकट बेच दिया है जिनके लिये वोट मांगना भी बेशर्मी की इंतहा ही होगी। जाहिर तौर पर यह सीधे-सीधे अनुशासनहीनता की पराकाष्ठा ही है क्योंकि भाजपा में टिकट वितरण का काम कोई एक व्यक्ति नहीं करता बल्कि इसके लिये संगठन के तमाम शीर्ष संचालकों की एक चुनाव समिति बनी हुई है जिसमें सर्वसम्मति बनने के बाद ही किसी को भी पार्टी का टिकट दिये जाने का फैसला होता है। ऐसे में भाजपा द्वारा पैसे लेकर समाज विरोधी तत्वों, बाहुबलियों व अपराधियों को टिकट दिये जाने का जो खुल्लम खुल्ला इल्जाम पार्टी के सांसद आरके सिंह ने लगाया है वह सीधे तौर पर पार्टी तमाम शीर्ष संचालकों की सैद्धांतिक नैतिकता व वैचारिक शुचिता को ही कठघरे में खड़ा करता हुआ दिखाई देता है। जाहिर तौर पर किसी अन्य दल में किसी ने ऐसा करने की जुर्रत की होती तो उसका अंजाम क्या होता इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन भाजपा में ऐसा करनेवाले को भी इतनी इज्जत बख्शी जा रही है कि उसे मनाने, समझाने व चुप करने के लिये पार्टी अध्यक्ष को खुद ही दंडवत होना पड़ रहा है। खैर, पार्टी के लिये सिरदर्दी बढ़ाने का काम करनेवाले आरके अकेले नेता नहीं हैं। ऐसा करनेवालों की तो पूरी जमात दिखाई पड़ रही है। एक ओर पार्टी के ही नेतृत्व में चल रही महाराष्ट्र की सरकार ने गैरमराठी भाषियों को आॅटो-टैक्सी चलाने के काम से वंचित करने की मुनादी पिटवा दी है तो दूसरी ओर मध्य प्रदेश से आवाज आयी है कि मुसलमानों को बकरीद में अपने संतानों की कुर्बानी देनी चाहिये। कोई नवरात्र में मांस की बिक्री को प्रतिबंधित करने की मांग कर रहा है तो किसी को पाकिस्तान के प्रति भारत सरकार की नीतियां नहीं भा रही हैं। किसी की नजर में शिक्षा व नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था खटक रही है तो कोई संस्कृति की दुहाई देकर अल्पसंख्यकों की आजादी पर अंकुश लगाने की बात कर रहा है। किसी की परेशानी टिकट वितरण को लेकर है तो कोई बिहार में मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित नहीं किये जाने को लेकर बेचैन है। यहां तक कि नीतिगत व सैद्धांतिक मामलों में पार्टी की शीर्ष त्रिमूर्ति की मनमानी से संगठन का काफी बड़ा तबका बेहद नाराज दिखाई दे रहा है। टिकट वितरण में बाहरियों को तरजीह दिये जाने और लगभग 22 फीसदी निवर्तमान विधायकों को टिकट से वंचित कर दिये जाने के कारण संगठन में पनपे असंतोष ने भी शीर्ष नेतृत्व की सिरदर्दी में खासा इजाफा कर दिया है। उस पर तुर्रा यह कि पार्टी प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन भी यह संकेत देने से नहीं हिचक रहे हैं कि पार्टी में कुछ गड़बडि़यां तो हो ही रही हैं। इन तमाम मसलों को समग्रता में देखते हुए बिहार चुनाव पर पड़नेवाले इसके असल की कल्पना की जाये तो निश्चित तौर पर पार्टी के शीर्ष संचालकों की नींद हराम होना स्वाभाविक ही है। लेकिन मसला यह है कि संगठन के भीतर से उठनेवाली ऐसी बातों की गूंज को रोकना भी आवश्यक ही है कि जिसके कारण पार्टी मर्यादा, शुचिता व इमानदारी पर संदेह का वातावरण बन रहा हो। सवाल यह नहीं है कि किसी को व्यक्तिगत विचारों का इजहार करने से रोकना कहां तक उचित है बल्कि जरूरत इस बात की है कि नादानी व बेवकूफी की बातें करके मीडिया की सुर्खियां बटोरनेवाले छपास रोग से ग्रस्त नेताओं को सांगठनिक अनुशासन का पाठ पढ़ाया जाये। अन्यथा एक ही मसले पर अलग-अलग सुर सुनाई पड़ने के नतीजे में जमीनी स्तर पर पार्टी की विश्वसनीयता खतरे में पड़ सकती है जिसका नुकसान अंततोगत्वा संगठन की स्वीकार्यता पर पड़ना तय ही है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’

सोमवार, 21 सितंबर 2015

‘...... और काफिर ये समझता है कि मुसलमान हूं मैं’

नवकांत ठाकुर
‘जाहिदे तंग नजर ने मुझे काफिर जाना, और काफिर ये समझता है कि मुसलमान हूं मैं।’ वाकई इन दिनों आॅल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी की हालत ऐसी ही है। कल तक वे सियासी धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े झंडाबरदार माने जाते थे। उनका समर्थन ही किसी के लिये भी धर्मनिरपेक्षता का प्रमाणपत्र हुआ करता था। उन्होंने भी हिन्दुत्ववादी ताकतों के खिलाफ जमकर जहर उगलने का कोई मौका कभी हाथ से जाने नहीं दिया। कांग्रेसनीत संप्रग के साथ उनकी करीबी हमेशा बरकरार रही और वे हर उस खेमे के साथ हमेशा जुड़े रहे जिसने भाजपा के विरोध में मोर्चा खोलने की पहल की हो। लेकिन कहते हैं कि वक्त बदलते देर नहीं लगती है। तभी तो आज आलम यह है कि उनकी निजी धर्मनिरपेक्षता ही खतरे में दिख रही है। हिन्दी पट्टी की कोई भी पार्टी यह मानने के लिये तैयार ही नहीं है कि ओवैसी धर्मनिरपेक्ष हैं या धर्मनिरपेक्षता की सियासत करते हैं। सबकी नजर में इन दिनों ये उतने ही सांप्रदायिक बन गये हैं जितनी बाबरी की शहादत के दिनों से लेकर गुजरात में हुए दंगे के दौरान ही नहीं बल्कि काफी हद तक हालिया दिनों तक भी भाजपा हुआ करती थी। हालांकि धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर मुसलमानों का सबसे बड़ा खैर-ख्वाह होने का दम भरनेवाले कई राजनीतिक दलों की नजर में भाजपा आज भी उतनी ही सांप्रदायिक है जितना इन दिनों ओवैसी को बताया जा रहा है। लेकिन इसे ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे का करिश्मा कहें या खाड़ी देश जाकर मोदी द्वारा मक्का मस्जिद में दर्ज करायी गयी मौजूदगी। इन दिनों भाजपा को जमीनी स्तर पर पहले जैसा कट्टर हिन्दुत्ववादी साबित कर पाना काफी मुश्किल हो चला है। हालांकि इसकी एक वजह लोजपा सरीखे ऐसे दलों का राजग के साथ जुड़ना भी है जिसने मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग पर अड़े रहकर बिहार की सत्ता को अपने हाथों में लेने का सुनहरा मौका गंवा दिया था। जम्मू कश्मीर में सत्ता के लिये पीडीपी को गले लगाने की पहल, आरएसएस द्वारा अल्पसंख्यकों के प्रति खुलकर किया जा रहा प्रेम प्रदर्शन अथवा केन्द्र की विभिन्न योजनाओं का अधिकतम लाभ मुस्लिम समुदाय को मुहैया कराने का प्रयास। वजह चाहे जो भी, लेकिन हकीकत यही है कि इन दिनों भाजपा को राजनीतिक अछूत बताना या उस पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप मढ़ना अब पहले की तरह कतई आसान नहीं रह गया है। साथ ही इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि मुसलमानों के मन में अर्से से समाया हुआ भाजपा का भय अब लगातार कमजोर पड़ता दिख रहा है। लिहाजा मुसलमानों को भाजपा का भय दिखाकर उन्हें अपने साथ जोड़े रखने की रणनीति की कामयाबी से राजनीतिक दलों का भरोसा काफी हद तक हिल चुका है। लेकिन एक सच यह भी है कि आज भी मुस्लिम मतदाताओं का भाजपा पर इतना भरोसा नहीं जमा है कि वे उसके पक्ष में मतदान करने की पहल कर सकें। यही वजह है कि इन दिनों धर्मनिरपेक्षतावादी दलों द्वारा प्रयोग के तौर पर अल्पसंख्यकों को विकल्पहीन करके उनका समर्थन हासिल करने की रणनीति अपनाने की पहल की गयी है। बिहार में धर्मनिरपेक्ष महामोर्चे का गठन भी इसी प्रयोग के तहत हुआ है और यूपी में सपा-बसपा की एकजुटता का शगूफा भी इसी प्रयोग की नींव डालने के लिये छोड़ा गया था। लेकिन मसला यह है कि अल्पसंख्यकों को विकल्पहीन करके उनका समर्थन हासिल करने की रणनीति को जमीन पर आजमाने की पूरी योजना में ओवैसी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का फच्चर फंस गया है। सच तो यही है कि हिन्दी पट्टी के अल्पसंख्यक समुदाय का नेतृत्व पूरी तरह गैर-मुस्लिमों के हाथों में ही सिमटा हुआ है जिन्होंने बकौल ओवैसी, मुस्लिम समुदाय का केवल वोटबैंक के तौर पर ही इस्तेमाल किया है वर्ना अगर इस वर्ग के हित में जरा भी काम किया गया होता तो सामाजिक तौर पर आज भी इनकी इतनी बुरी गत नहीं बनी होती। यानि मुसलमानों के तमाम स्थापित मसीहाओं की नीति व नीयत के खिलाफ अब ओवैसी ने जंग छेड़ दी है। जाहिर है कि इस जंग का सीधा नुकसान उन धर्मनिरपेक्ष दलों को ही होगा जिन्होंने समाज के अन्य वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हुए मुसलमानों के समर्थन से अपनी सियासी साख कायम की हुई है। जबकि इसका फायदा सीधे तौर पर भगवा खेमे को ही मिलेगा जो मुस्लिम वोटबैंक के बिखराव को अपनी जीत की गारंटी मान रहा है। ऐसे में लालू यादव सरीखे मुसलमानों के मसीहा ने अब ओवैसी को भाजपा के बराबर का कट्टर सांप्रदायिक बताना आरंभ कर दिया है जिसकी तरक्की से देश में धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद कमजोर हो रही है। यहां तक कि कुछ धर्मनिरपेक्षतावादी तो ओवैसी को भाजपा का वोटकटवा एजेंट बताने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की मानें तो ओवैसी सरीखा हिन्दूविरोधी नेता भाजपा के भले का कोई काम करेगा ऐसा सोचना भी मूर्खतापूर्ण ही है। यानि समग्रता में देखा जाये तो अब ओवैसी ना इधर के बचे हैं ना उधर के रहे हैं। हालांकि कल तक मुसलमानों के समर्थन को ही धर्मनिरपेक्षता की कसौटी माने जाने के कारण ओवैसी देश के सर्वश्रेष्ठ धर्मनिरपेक्ष नेता माने जा रहे थे लेकिन अब उनकी छवि हर किसी के लिये सियासी अछूत की बन गयी है। वैसे यह पहला मौका है जब मुसलमानों का मसीहा कहलानेवालों को एक स्थापित मुस्लिम नेता ही धर्मनिरपेक्षता के लिये खतरा दिख रहा है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

गुरुवार, 17 सितंबर 2015

करवट बदल रही है बिहार की सियासत  

सहयोगियों के सब्र की कड़ी परीक्षा ले रही है भाजपा 

नवकांत ठाकुर

बिहार विधानसभा चुनाव के सियासी समीकरण में तब्दीलियों का सिलसिला लगातार जारी रहने के क्रम में धर्मनिरपेक्ष महामोर्चे ने नये सिरे से अपनी जमीनी कमजोरियों को दूर करने की कोशिशें तेज कर दी हैं जबकि कागजी तौर पर मजबूत स्थिति में नजर आ रहे भाजपानीत राजग के राहों की कठिनाइयां दिनोंदिन बढ़ती दिख रही है। जदयू, राजद व कांग्रेस की तिकड़ीवाले धर्मनिरपेक्ष महामोर्चे द्वारा यादव वोटबैंक में सेंध लगाने में जुटे राजद से निकाले जा चुके सीमांचल के कद्दावर सांसद पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी को चुनाव में हिस्सा नहीं लेने के लिये मनाने की कोशिश हो रही है। साथ ही मुस्लिम वोटबैंक की टूट को टालने के लिये असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम को धर्मनिरपेक्ष महामोर्चे में शामिल होने के लिये सहमत करने का प्रयास भी किया जा रहा है। इसके अलावा जिन निवर्तमान विधायकों को राजग में टिकट नहीं मिल पा रहा है उनको भी अपने पाले में लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। दूसरी ओर भाजपानीत राजग के भीतर सतही तौर पर भले ही कोई बड़ी समस्या नहीं दिख रही हो लेकिन अंदरूनी हकीकत यही है कि चुनावी समीकरण को साधने की दिशा में उसकी समस्याएं लगातार बढ़ी दिख रही हैं। अव्वल तो सीटों के बंटवारे में राजग के तमाम घटक दलों का हित टकराने के कारण सहमति की राह तैयार करने में काफी मुश्किलें आ रही हैं और दूसरे अपनी जीत सुनिश्चित करने के बजाय सहयोगी दल की हार पक्की करने की प्रतिस्पर्धा राजग में बढ़ती ही जा रही है। 
दरअसल पिछले कुछ दिनों तक कागजी समीकरण में परंपरागत वोटों के बिखराव के कारण जिस धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ की हालत काफी पतली नजर आ रही थी उसने अपनी इस कमजोरी को दूर करने में पूरी ताकत झोंक दी है। हालांकि अभी साफ तौर पर उसे इसका कोई ठोस या स्पष्ट फायदा हासिल नहीं हो पाया है लेकिन यादव वोटबैंक में सेंध लगा रहे पप्पू यादव को किसी भी मोर्चे में पनाह नहीं मिलने के कारण अब उनकी पार्टी अपने दम पर चुनाव लड़के फजीहत कराने के पक्ष में नहीं दिख रही है। दूसरी ओर सूबे की मुस्लिम बहुलतावाली 60 सीटों पर नजरें गड़ाए हुए ओवैसी को भी अगर ‘वोटकटवा’ व ‘भाजपा की अंदरूनी सहयोगी’ की नकारात्मक छवि से उबरना है तो उन्हें भी किसी ऐसे सशक्त सहयोगी की जरूरत होगी जिसके साथ जुड़कर सूबे की तीसरी ताकत के तौर पर वे खुद को स्थापित कर सकें। इसी जमीनी हकीकत को भांपते हुए पप्पू ने तो ओवैसी की ओर दोस्ती का हाथ आगे बढ़ा दिया है लेकिन अभी ओवैसी ही उहापोह की स्थिति में दिख रहे हैं। जाहिर है कि अगर पप्पू और ओवैसी का गठजोड़ हो गया तो धर्मनिरपेक्ष महामोर्चे का पूरा गणित ही गड़बड़ा सकता है। इसी संभावना से बचने के लिये शीर्ष राजद नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने ओवैसी को धर्मनिरपेक्ष महामोर्चे में शामिल होने का औपचारिक न्यौता दे दिया है जबकि सूत्रों के मुताबिक पप्पू को चुनाव से अलग रखने के लिये उनकी कांग्रेसी सांसद पत्नी रंजीता रंजन को लगाया जा चुका है। यानि व्यावहारिक रणनीतियों को अमल में लाते हुए अपनी कागजी कमजोरियों को दूर करने के लिये धर्मनिरपेक्ष महामोर्चे ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है। दूसरी ओर भाजपानीत राजग में सतही तौर पर भले ही एकजुटता दिख रही हो लेकिन सूत्रों की मानें तो जीती हुई सीटों का बंटवारा नहीं करने की नीति के कारण राजग के सभी घटक दलों में भारी आक्रोश का माहौल दिख रहा है जिसका रालोसपा की ओर से इजहार भी हो गया है। साथ ही सूत्रों की मानें तो खुद को दलितों का सबसे बड़ा नेता साबित करने की जंग में ना तो लोजपा अपना वोट हम को हस्तांतरित करने के लिये तैयार है और ना ही हम अपने समर्थकों को लोजपा के पक्ष में वोट करने के लिये प्रेरित करना चाहता है। दूसरी ओर जीती हुई सीटों का बंटवारा नहीं करने की भाजपा की नीति से नाराज होकर उसके सहयोगी भी अपने प्रभावक्षेत्र का परंपरागत वोट किसी अन्य सहयोगी के उम्मीदवार को हस्तांतरित करने के मूड में नहीं दिख रहे हैं। बहरहाल जहां एक ओर धर्मनिरपेक्ष महामोर्चा अपने उखड़े-बिखरे कील-कांटों को दुरूस्त करने में जुटा हुआ है वहीं राजग का खेमा आपस में ही एक-दूसरे के धुर्रे बिखेरने में लगा हुआ है। लिहाजा तेजी से आ रहे इन बदलावों के कारण बिहार का चुनावी समीकरण अब नयी करवट लेता हुआ दिख रहा है जो अंततोगत्वा निर्णायक भी साबित हो सकता है।  

सोमवार, 14 सितंबर 2015

‘खुदा जब हुस्न देता है, नजाकत आ ही जाती है’

नवकांत ठाकुर
कहते हैं कि ‘खुदा जब हुस्न देता है नजाकत आ ही जाती है।’ इसे अगर राजनीतिक नजरिये से देखें तो यह कहना भी गलत नहीं होगा कि ‘बस एक बार सत्ता मिल जाए तो सियासत आ ही जाती है।’ दरअसल सियासत केवल सत्ता हासिल करने के लिये ही नहीं बल्कि सत्ता को संभालने के लिये भी करनी पड़ती है और हमेशा से सत्ता को संभालने का मूलमंत्र रहा है ‘फूट डालो और राज करो।’ हालांकि सियासत की यह रणनीति सतही तौर पर तो उचित व नैतिक नहीं दिखती है लेकिन बुरी तरह उलझे हुए मामलों को सुलझाने व निपटाने के लिये कई दफा इसे अमल में लाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प ही उपलब्ध नहीं होता है। लिहाजा सत्ता की सिरदर्दियों से राहत पाने के लिये इस पर अमल करना आवश्यक हो जाता है। वैसे भी सत्ता में आने के बाद सियासत का यह हुनर सभी राजनीतिक दल सीख ही जाते हैं। अब तक तो यही देखा गया है कि ऊपरवाला जिसे सत्ता में बिठाता है उसे सियासत के इस हुनर से भी नवाज ही देता है। तभी तो इन दिनों केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के शीर्ष रणनीतिकार भी ‘फूट डालो और राज करो’ की रणनीति का सटीक इस्तेमाल करने के मामले में बेहद प्रवीण व सिद्धहस्त दिखाई पड़ रहे हैं। मिसाल के तौर पर गुजरात से उठी पटेल आरक्षण की आंधी को शांत करते हुए राजनीतिक क्षितिज पर अचानक धूमकेतु की मानिंद उभरे हार्दिक पटेल को नेपथ्य में भेजकर इस सिरदर्दी को सिरे से समाप्त करने से लेकर पूर्व सैनिकों के लिये एक समान पेंशन नीति लागू करने की दशकों पुरानी उलझन को सुलझाने तक के मामले में जिस खामोशी व खूबसूरती के साथ ‘फूट डालो और राज करो’ की रणनीति को अंजाम दिया गया है वह वाकई बेहद दिलचस्प है। इस रणनीति को अमल में लाते हुए हार्दिक पटेल की तो ऐसी हालत कर दी गयी है कि उनके द्वारा गठित संगठन ही अब उनको अपना नेता मानने के लिये तैयार नहीं दिख रहा है। खेल ऐसा हुआ कि पहले तो हार्दिक के भरोसेमंद सहयोगियों के काफी बड़े धड़े ने उनके नेतृत्व को मानने से इनकार करते हुए पाटीदार अमानत आंदोलन संगठन से रिश्ता तोड़कर अपनी अलग संस्था गठित कर ली और बाद में रही सही कसर संगठन के भीतर हार्दिक के खिलाफ उठी विद्रोह की लहर ने पूरी कर दी जिसके बाद संगठन की बागडोर छोड़ने की पेशकश करके हार्दिक लगातार हाशिये की ओर बढ़ने के लिये मजबूर हो गये हैं। हालांकि स्वाभाविक तौर पर हार्दिक को हाशिये पर भेजने के लिये अमल में लायी गयी इन तिकड़मों का सूत्रधार होने से भाजपा साफ इनकार कर रही है लेकिन हार्दिक के शुभचिंतकों का साफ तौर पर कहना है कि पटेल आरक्षण के आंदोलन की कमर तोड़ने व पटेल समुदाय को विभिन्न खेमों में बांट देने की पूरी साजिश को भाजपा ने ही अंजाम दिया है। वैसे भी उस सेक्स सीडी के सार्वजनिक होने के बाद हार्दिक की साख बुरी तरह प्रभावित हुई है जिसमें तीन युवक एक विदेशी काॅलगर्ल के साथ होटल में ऐश करते हुए दिख रहे हैं और चर्चा है कि उसमें हार्दिक भी शामिल हैं। खैर, ऐसा ही मामला ‘वन रैंक वन पेंशन’ के मसले को सुलझाने के क्रम में भी दिखा जिसमें एक बार तो सरकार यह मान गयी थी कि पेंशन का निर्धारण हर तीन साल के अंतराल में किया जाएगा लेकिन वह एक समान पेंशन नीति का लाभ स्वेच्छा से सेवानिवृति लेनेवाले पूर्व सैनिकों को नहीं देना चाहती थी। ऐसे में पूर्व सैनिकों के बीच फूट पड़ना लाजिमी ही था लिहाजा लंबी जिरह के बाद आखिरकार तय हुआ कि पेंशन का पुनरीक्षण पांच साल के अंतराल पर किया जाएगा और इसका लाभ स्वैच्छिक सेवानिवृति लेनेवालों को भी दिया जाएगा। इस फैसले की घोषणा के बाद पूर्वसैनिकों का संगठन अब दो-फाड़ दिख रहा है जिसमें काफी बड़ा धड़ा तो सरकार से संतुष्ट हो गया है जबकि कुछ लोग अभी तक आंदोलन पर डटे हुए हैं। वैसे भी इस आंदोलन में यह फूट नहीं पड़ती तो पूर्वसैनिक हर साल पेंशन का पुनरीक्षण किये जाने की मांग पर दशकों से डटे हुए थे जिसे स्वीकार करना किसी भी सरकार के लिये संभव नहीं हो पाया था। हालांकि फूट डालकर अपना उल्लू सीधा करने की रणनीति का मुजाहिरा पहले जदयू में जीतनराम मांझी को फोड़कर किया गया जिसके कारण धर्मनिरपेक्ष महामोर्चा को बिहार में महादलित मतदाताओं का समर्थन मिलना बेहद मुश्किल हो गया और बाद में मांझी को ही आगे करके राजग के सभी सहयोगियों को इस कदर लड़ा-भिड़ा दिया गया कि कल तक भाजपा से 141 सीटों की मांग कर रहे लोजपा, रालोसपा व हम अब जितना मिल जाये उसी में खुशी व्यक्त करने के लिये विवश हो गये हैं। इसी प्रकार लग तो यही रहा है कि भाजपा ने फूट डालने की कूटनीति अमल में लाकर ही संघ परिवार के अपने उन सहोदरों की चोंच पर भी ताला जड़ दिया है जो मूल वैचारिक सिद्धांतों से संगठन व सरकार के कथित स्खलन से आहत बताये जा रहे हैं। खैर, फूट डालकर राज करने की रणनीति की सटीकता व मारकता तो हमेशा से असंदिग्ध रही है लेकिन इसका प्रयोग करने के क्रम में यह बात अवश्य याद रखी जानी चाहिये कि हर क्षेत्र में सिर्फ इसी रणनीति पर निर्भरता के नतीजे में कहीं अपनी पूरी विश्वसनीयता ही संदिग्ध ना हो जाये। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’    

शनिवार, 12 सितंबर 2015

सपा भाजपा की जुगलबंदी से बढ़ी सियासी सरगर्मी 

मुलायम से मोदी की हमदर्दी के मायनों की तलाश तेज  

नवकांत ठाकुर

उत्तर प्रदेश की राजनीति में भले ही समाजवादी पार्टी और भाजपा के बीच छत्तीस का आंकड़ा हो और दोनों ही एक दूसरे की जड़ें खोदने व नुकसान पहुंचाने का कोई भी मौका छोड़ना कतई गवारा ना करते हों लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में इन दोनों दलों के दरमियान दिख रही सियासी जुगलबंदी के कारण राजनीतिक गलियारे के तापमान में लगातार इजाफा होता दिख रहा है। खास तौर से बिहार में सपा के धर्मनिरपेक्ष महामोर्चे से अलग होकर नितीश कुमार के प्रति हमलावर रूख अख्तियार करने, संसद की कार्यवाही को बाधित करने के मामले में सपा द्वारा कांग्रेस को कठघरे में खड़ा किये जाने, बिहार में जदयू, राजद व कांग्रेस की तिकड़ी द्वारा सपा को समुचित सम्मान नहीं दिये जाने के मामले को लेकर भाजपा द्वारा सपा के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन किये जाने और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा सार्वजनिक मंच से सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की तारीफ में कसीदा काढ़े जाने सरीखे घटनाक्रमों ने देश के राजनीतिक माहौल में भारी सरगर्मी पैदा कर दी है। हालांकि सपा व भाजपा की इस जुगलबंदी को लेकर जितने मुंह उतनी बातें सुनने को मिल रही हैं। कोई इसे केन्द्र के दबाव में सपा का समर्पण बता रहा है तो किसी की नजर में यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति दोनों दलों की एक समान सोच का नतीजा है। कुछ का मानना है कि मुलायम अपनी परंपरागत राजनीति ही अंजाम दे रहे हैं जिसका तात्कालिक फायदा भाजपा को मिल रहा है जबकि कुछ राजनीतिक पंडितों का यह भी मानना है कि राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस को अलग थलग करने की नीति के तहत ही भाजपा ने सपा के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व सहयोगात्मक रवैया अपनाया हुआ है। लेकिन इन तमाम कयासों व अटकलों के बीच कोई भी सियासी दल या राजनीतिक पंडित दावे से इन दोनों दलों की मौजूदा जुगलबंदी के पीछे का मकसद बता पाने में कतई सक्षम नहीं नहीं दिख रहा है। 
कायदे से देखा जाये तो सपा और भाजपा के बीच सार्वजनिक तौर पर दोस्ती का रिश्ता कायम होने की उम्मीद तो कतई नहीं की जा सकती है लेकिन पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रमों में जिस तरह से सपा की पहलकदमियों से भाजपा को फायदा मिलता दिख रहा है और भाजपा के सुर व स्वर भी सपा के प्रति बेहद नरम व सहानुभूतिपूर्ण दिख रहे हैं उससे इतना तो स्पष्ट है कि पर्दे के पीछे इन दोनों दलों के बीच कोई ना कोई खिचड़ी अवश्य पक रही है। तभी तो ना सिर्फ यूपी सरकार के कामकाज को लेकर शीर्ष भाजपाई नेताओं की ओर से जुबानी आलोचनाओं व तेवरों की तल्खी का बेहद अभाव दिख रहा है बल्कि औपचारिक तौर पर भी यूपी सरकार के प्रति सहयोगात्मक रूख का प्रदर्शन करने में कोई कोताही नहीं बरती जा रही है। कानून व्यवस्था की लचर हालत के कारण लड़कियों द्वारा बीच में ही पढ़ाई छोड़े जाने की घटनाओं में वृद्धि को लेकर जब केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री से सवाल किया जाता है तो वे यूपी सरकार के खिलाफ एक शब्द भी बोलने से परहेज बरतते हुए सिर्फ यह कहकर पल्ला झाड़ लेती हैं कि अगर ऐसा कोई मामला उनके संज्ञान में आया तो वे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से लड़कियों को सुरक्षा मुहैया कराने का अनुरोध अवश्य करेंगी। इसी प्रकार जब ऊर्जामंत्री पियूष गोयल से यूपी में बिजली की बदहाल व्यवस्था के बारे में पूछा जाता है तो उनका रटा-रटाया जवाब यही रहता है कि अगर प्रदेश सरकार चाहे तो सूबे के हर गांव-कस्बे को चैबीसों घंटे बिजली आपूर्ति सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी। गुहमंत्री राजनाथ सिंह को भी इन दिनों सूबे की कानून-व्यवस्था की स्थिति में कोई खामी नजर नहीं आ रही है। यहां तक कि प्रधानमंत्री खुद भी सपा सुप्रीमो की ओर से संसद में मिले सहयोग का गुणगान करते नहीं थक रहे हैं। इसके अलावा समूची भाजपा को इस बात का काफी मलाल है कि बिहार में जनता परिवार के घटक दलों ने सपा के सम्मान व स्वाभिमान को आहत करने की गुस्ताखी कैसे कर दी। जाहिर है कि भाजपा संगठन व केन्द्र सरकार के रवैये में सपा के प्रति दिख रही यह सहानुभूति बेवजह तो हो नहीं सकती और ऐसा भी नहीं हो सकता है कि सपा भी केन्द्र व बिहार की सियासत में बेवजह ही ऐसी पहलकदमियां करे जिसका सीधा लाभ भाजपा को ही मिलता हुआ दिखे। तभी तो रालोद का आरोप है कि सीबीआई की डर से सपा ने केन्द्र सरकार के सामने समर्पण किया हुआ है जबकि बसपा भी इन दोनों दलों के बीच अंदरूनी सांठगांठ होने का दावा करने से परहेज नहीं बरत रही है। यहां तक कि कांग्रेस भी मुलायम पर मतलबपरस्ती की राजनीति का आरोप लगाने में संकोच नहीं कर रही है जबकि जदयू को भी सपा की सियासी मंशा बेहद संदेहास्पद महसूस हो रही है।    

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

‘हवाबाजी व दगाबाजी बनाम हवालाबाजी की लफ्फाजी’

नवकांत ठाकुर
सियासी रंगमंच पर अक्सर अलग अलग वक्त में कुछ अलग अलग शब्दों का बड़ा शोर रहता है। मसलन लोकसभा चुनाव की सरगर्मियों के दौरान ‘अच्छे दिन’, ‘फेंक’ू और ‘पप्पू’ सरीखे शब्द हर तरफ छाये हुए थे। बाद में ‘चुनावी जुमला’ काफी चर्चा में रहा। अब इन दिनों ‘हवाबाजी’ और ‘दगाबाजी’ का बड़ा शोर है। इसमें एक ओर खड़ी दिख रही है केन्द्र की मोदी सरकार और दूसरी ओर खड़े हैं तमाम गैरभाजपाई दल। दोनों एक-दूसरे पर दनादन गोले दाग रहे हैं हवाबाजी और दगाबाजी के। कांग्रेस हो या सपा-बसपा, लालू हों या नितीश, ममता हों या केजरीवाल, या फिर ओवैसी या वामपंथी ही क्यों ना हों। सभी इस बात पर एकमत हैं कि मोदी सरकार पूरी तरह हवाबाजी पर ही टिकी हुई है। धरातल पर कुछ होता हुआ नहीं दिख रहा। तमाम चुनावी वायदे भुला दिये गये। ‘कहां तो वादा था चिरागां का हर घर के लिये, कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिये।’ ना कालाधन आया ना अच्छे दिन आए। उल्टे राह ऐसी पकड़ ली गयी है कि आम लोगों का जीना मुहाल है। दाल और प्याज भी गरीब को मयस्सर नहीं है। यानि विरोधियों के मुताबिक विकास व सुशासन की हवाबाजी करते हुए मोदी सरकार ने हर मामले में दगाबाजी ही की है। दूसरी ओर सत्तापक्ष की दलील है कि अपनी कमियां, खामियां, गलतियां व नाकामियां छिपाने के लिये विरोधी पक्ष सरकार पर निराधार प्रहार कर रहा है। इनके मुताबिक सियासी लाभ के लिये देश के साथ धोखेबाजी तो इनके विरोधी कर रहे हैं। कांग्रेस जीएसटी और भूमि अधिग्रहण विधेयक सरीखे विकासवादी सुधारात्मक पहलों पर अड़ंगा लगाकर देश को आगे बढ़ने से रोकना चाह रही है। क्षेत्रीय पार्टियां जनता को गुमराह करने के लिये बेमानी बयानों की हवाबाजी कर रही हैं। संसद को चलने नहीं दिया जा रहा। मंत्रियों को बदनाम करने के लिये कुतर्क गढ़े जा रहे हैं। थोक के भाव में शुरू की गयी जनहितकारी योजनाओं की अनदेखी की जा रही है और अपना पुराना पाप छिपाने के लिये सरकार से सौदेबाजी करने का प्रयास किया जा रहा है। यानि सत्ता पक्ष की नजर में दगाबाजी कर रहा है विपक्ष। खैर, दगाबाजी की शिकायत क्षेत्रीय दलों के बीच आपस में भी है। मसलन मुलायम सिंह यादव को शिकायत है कि लालू और नितीश की जोड़ी ने उनके साथ दगाबाजी की है। कहने को उन्हें जनता परिवार का मुखिया बना दिया गया लेकिन ना तो उन्हें समुचित सम्मान मिला और ना ही स्थान। बिहार की चुनावी रणनीति तय करने के क्रम में इनसे पूछा तक नहीं गया। ना ही एक भी सीट इनके लिये छोड़ी गयी। वह तो बाद में जब राकांपा ने महागठजोड़ से किनारा कर लिया तब उसके कोटे की तीन सीटों में लालू ने अपनी दो सीटें जोड़कर सपा को देने की घोषणा की। ऐसे में सपा प्रमुख को लगता है कि उनके साथ सिर्फ दगाबाजी ही नहीं हुई है बल्कि उन्हें सरासर अपमानित किया गया है। खैर, कहने को दगाबाजी व हवाबाजी का इल्जाम भले ही सभी एक दूसरे पर लगा रहे हों लेकिन इससे वास्तव में जमीनी छवि खराब हो रही है सत्तारूढ़ भगवा खेमे की। यानि अव्वल तो उसे किसी काम का श्रेय नहीं दिया जा रहा है, उल्टे उसकी योजनाओं में अड़ंगा डालने की पहल की जा रही है और साथ ही उसे ही दगाबाज भी बताया जा रहा है। हालांकि पहले तो विपक्ष के साथ समझौता करने का प्रयास भी किया गया ताकि कुछ काम आगे बढ़े। मसलन भूमि अधिग्रहण के मसले पर कदम वापस खींचने के पीछे सरकार को उम्मीद थी कि इससे जीएसटी को सदन से पारित कराने की राह आसान हो जाएगी। मगर हुआ इसका उल्टा। भूमि विधेयक पर सरकार के पीछे हटने से उत्साहित कांग्रेस ने अब जीएसटी में भी विरोध का फच्चर फंसा दिया है। नतीजन जीएसटी पारित कराने के लिये ‘होल्ड’ पर रखे गये संसद के मानसून सत्र का आखिरकार सत्रावसान करना ही बेहतर समझा गया। लेकिन इस नाकामी की टीस का ही नतीजा है कि अब प्रधानमंत्री ने हवाबाजी व दगाबाजी के जवाब में हवालेबाजी का जुमला उछाल दिया है। मोदी की मानें तो कालाधन के मामले में सरकार द्वारा बरती जा रही सख्ती के कारण हवालेबाजों में हड़कंप मचा हुआ है जिसके चलते वे हर मामले में सरकार की नीतियों का विरोध करने पर उतारू हो गये हैं। यानि मोदी का इशारा साफ है कि कालेधन के लपेटे में कांग्रेस भी आनेवाली है। लेकिन तथ्य यह भी है कि विदेशों में कालेधन का खाता रखनेवालों की सूची में कांग्रेस के शीर्ष परिवार का नाम शामिल बताकर लालकृष्ण आडवाणी बुरे फंस चुके हैं। बाद में उन्हें माफी भी मांगनी पड़ी थी और सूची में फेरबदल करके गांधी परिवार का नाम भी हटाना पड़ा था। हालांकि एक सच यह भी है कि उन दिनों भाजपा विपक्ष में थी। खैर अब ये उनका काम है कि अपनी कही बात को वे कैसे सत्यापित करेंगे या फिर इसे भी सियासी जुमलेबाजी बताकर कैसे अपनी बात से पीछे हटेंगे। लेकिन इन तमाम मामलों को समग्रता में देखा जाये तो यही समझ में आता है कि पहले हवाबाजी और दगाबाजी के बाद अब हवालेबाजी की इस लफ्फाजी के द्वारा हर कोई अपनी कमियों, खामियों व नाकामियों को ही छिपाने की कोशिश कर रहा है। इसमें जो जितना कामयाब हो जाये उसकी उतनी जय-जय। वर्ना जुमलेबाजी की पोल खुलने के बाद साख का संदिग्ध होना स्वाभाविक ही है। जैसी नजर वैसा नजरिया।  

सोमवार, 7 सितंबर 2015

‘आगाज के आईने में अंजाम की तस्वीर’

नवकांत ठाकुर
कहावत है कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। या यूं कहें कि आगाज के वक्त दिखनेवाले लक्षणों से ही अंजाम का पता लग जाता है। तभी तो लंका पर चढ़ाई करने के लिये जब भगवान श्रीराम की सेना ने कूच किया तो उस पल का उल्लेख करते हुए तुलसीदास ने राम चरितमानस में लिखा है कि ‘जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई, अगसुन भगयु रावनहि सोई। यही वजह है कि किसी भी काम का सूत्रपात करते वक्त अपशगुनों को दूर रखने की परंपरा सदियों से हमारे समाज में चली आ रही है। लेकिन मसला है कि तमाम कोशिशों के बावजूद अगर एक भी शुभ लक्षण नहीं दिख रहा हो आखिर किया भी क्या जा सकता है। यही हालत हो गयी है बिहार के चुनाव में गैरभाजपाई महागठजोड़ की। हालांकि चुनाव की औपचारिक घोषणा होनी अभी बाकी है लेकिन तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी चुनावी तैयारियों को काफी हद तक अंतिम रूप दे दिया है। ऐसे में अब जबकि चुनावी रणभेरी बजने की महज औपचारिकता ही बाकी है तो ऐसे वक्त में शुभ लक्षणों व अपशगुनों की ओर बरबस ही नजर खिंच जाना लाजिमी ही है। अब भले ही कोई इसे अंधविश्वास कहे लेकिन सच तो यही है धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ के लिये इन दिनों कुछ भी सही होता नहीं दिख रहा है। अव्वल तो ‘प्रथमे ग्रासे मक्षिका पातः’ की तर्ज पर जनता परिवार के सहोदरों का जुटान होने के साथ ही अलगाव की जो प्रक्रिया आरंभ हुई उसकी पूर्णाहुति समाजवादी पार्टी द्वारा निर्णायक तौर पर कर दिये जाने के मामले ने नितीश कुमार की अगुवाई में जारी चुनावी अभियान का उत्साह ही समाप्त कर दिया है। वैसे भी बिछड़े सभी बारी-बारी की तर्ज पर पहले जदयू से जीतनराम मांझी का और राजद से सीमांचल के दिग्गज नेता पप्पू यादव का अलग हो जाना, उसके बाद बेआबरू होकर एनसीपी का नितीश के कूचे से पलायन करना, जदयू से जमीनी नेताओं की भगदड़ शुरू होना, लालू के साथ नितीश की जुबानी जंग छिड़ना और अब आखिरकार सपा का भी जनता परिवार के गठन से मोहभंग होना यह बताने के लिये काफी है कि भाजपा विरोधी खेमे के ग्रह-नक्षत्र की चाल आरंभ से ही किस कदर वक्र दिख रही है। ऐसे में अगर चुनावी रैली में नितीश आपा खो रहे हैं तो यह उसी अपशगुन का नतीजा है जिसे शायद उन्होंने भी भांप लिया है। कहां तो सफर की शुरूआत भानुमति का कुनबा बनाने से हुई थी और अब आलम यह है कि महामोर्चे में गिनती के कुल तीन दल ही बच गये हैं। उसमें भी लालू के साथ कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के भावी तालमेल पर संशय के बादल ही छाये हुए हैं। नितीश ने वैसे भी लालू के साथ निर्धारित दूरी शुरू से ही कायम रखी हुई है। लेकिन मजबूरी तीनों की है कि अपने दम को तौलने का हौसला भी नहीं जुटा सकते। नितीश ने जब भी अपने दम पर चुनाव लड़ा तो उन्हें हमेशा मुंह की ही खानी पड़ी। लालू के ग्रहों की चाल लंबे समय से वक्री ही है। यहां तक कि अदालत द्वारा सजा सुनाए जाने के बाद वे वैसे भी ग्यारह साल तक कोई चुनाव लड़ने के काबिल नहीं बचे हैं। ऐसे में अपने संगठन को जिंदा रखने के लिये जहर के हर घूंट को स्वीकार करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प ही नहीं है। रहा सवाल कांग्रेस का तो उसे भी अपनी ताकत का पूरा इल्म है वर्ना देश की सबसे बड़ी पार्टी की अध्यक्षा होने के बावजूद गांधी मैदान की रैली में सोनिया गांधी को लालू व नितीश के मुकाबले चैथे पायदान पर खड़े होने के विकल्प को सहर्ष स्वीकार नहीं करना पड़ता। खैर, कहने को कोई कुछ भी कहे लेकिन हकीकत यही है कि बिहार में धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ की नींव मजबूरी में ही पड़ी है। लेकिन मजबूरी में एकजुट होकर मजबूती की आस लगाने की नौबत सपा की तो कतई नहीं है। उसे वैसे भी पता है कि बिहार में उसकी जमीनी हैसियत वैसी ही है जैसी यूपी में नितीश की जदयू या लालू के राजद की। तभी तो आज जब रामगोपाल यादव ने गठजोड़ में पूछ नहीं होने व एहसान के तौर पर महज पांच सीटें मिलने की पीड़ा को वजह बताकर नितीश के खेमे से अलग होने का ऐलान किया तो उनके द्वारा बतायी गयी यह वजह किसी को हजम नहीं हुई। इस मामले में विरोधियों का वह ताना ही काफी हद तक सही लग रहा है कि डूबते जहाज में सफर करने के बजाय सपा ने अपने बाहुबल से तैर कर दरिया पार करने की राह पकड़ना ही बेहतर समझा है। वैसे भी जनता परिवार की पहली अग्निपरीक्षा में ही परास्त होने का जोखिम उठाने का नतीजा यूपी में कार्यकर्ताओं पर नकारात्मक असर डाल सकता था। लिहाजा सपा की मौजूदा पहलकदमी तो जायज भी है और स्वाभाविक भी। लेकिन नितीश के महामोर्चे में अपशगुन का सिलसिला थम ही नहीं रहा। परसों अनंत सिंह ने जदयू से पल्ला झाड़ा तो कल रघुनाथ झा राजद से अलग हो गये। जहाज से कूदने की कतार में अभी और भी हैं जो सिर्फ उचित मौके की तलाश में हैं। खैर, जंग के मैदान में उतरने के बाद शगुन-अपशगुन की परवाह नहीं करना ही बेहतर है लेकिन आवश्यक है कि इन संकेतों को समझकर अपनी रणनीतियां दुरूस्त कर ली जाए। वर्ना आगाज के संकेतों ने अंजाम की झलक दिखा ही दी है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   

बुधवार, 2 सितंबर 2015

‘डीएनए’ की तकरार को धार देने में जुटी भाजपा

नितीश को सूबे के स्वाभिमान का प्रतीक नहीं बनने देगी भाजपा

नवकांत ठाकुर

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दिनों एक चुनावी रैली में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार के ‘डीएनए’ पर सवाल उठाकर जिस सियासी तार को छेड़ दिया था उसी का नतीजा है कि गैरभाजपाइ खेमे ने इस मसले को बिहारी अस्मिता व स्वाभिमान से जोड़कर इसे बड़े चुनावी मुद्दे की शक्ल देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। जाहिर है कि इस भावनात्मक मसले को तूफान बनता हुआ देखकर भाजपानीत एनडीए की परेशानी बढ़ना स्वाभाविक ही था लिहाजा अब तक समूचे भगवा खेमे ने इस मामले में अपनी ओर से चुप्पी साधे रखना ही बेहतर समझा था। लेकिन आज मोदी की भागलपुर में हुई रैली के साथ ही पहले चरण का चुनाव प्रचार अभियान समाप्त हो जाने के बाद इस पूरे अभियान की समीक्षा के लिये आयोजित हुई भाजपा के राष्ट्रीय पदाधिकारियों की बैठक में तय किया गया है कि अगर विरोधियों ने डीएनए के मसले पर बहस की चुनौती पेश कर दी है तो इस पर पीछे हटने की कोशिश हर्गिज ना की जाये। यही वजह है कि अब भाजपा ने भी नये सिरे से डीएनए के विवाद को पुरजोर तरीके से तूल देने की शुरूआत कर दी है और पार्टी की कोशिश है कि इस मामले को आधार बनाकर खुद को सूबे के स्वाभिमान के प्रतीक के तौर पर स्थापित करने की नितीश की कोशिशों को हर्गिज कामयाब नहीं होने दिया जाये। साथ ही आज की बैठक में यह भी तय हुआ है कि पार्टी के सीधे निशाने पर नितीश को ही रखा जाये और उनके सियासी चरित्र को कठघरे में खड़ा करते हुए मतदाताओं को यह संदेश देने की कोशिश की जाये कि नितीश वाकई धोखेबाजी के प्रतीक हैं और उनके इस राजनीतिक पहलू पर प्रहार करते हुए ही प्रधानमंत्री ने उनके डीएनए की शुचिता पर संदेह प्रकट किया था। 
राजधानी स्थित भाजपा मुख्यालय में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के अलावा केन्द्रीय मंत्रियों जेपी नड्डा व पियुष गोयल की मौजूदगी में पूरे दिन चली पार्टी के तमाम राष्ट्रीय पदाधिकारियों व प्रवक्ताओं की बैठक में मुख्य रूप से बिहार चुनाव के मसले पर ही चिंतन किया गया और पहले चरण के प्रचार अभियान की समीक्षा करने के साथ ही अगले हफ्ते से आरंभ होनेवाले दूसरे चरण के प्रचार अभियान की रूपरेखा को अंतिम रूप भी दिया गया। प्राप्त जानकारी के मुताबिक अब तक के प्रचार अभियान में जिस तरह से नितीश द्वारा राजद व कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने की पहल की गयी उस पर ही निशाना साधने की रणनीति में तब्दीली लाते हुए अब नितीश पर ही सीधा हमला करने का फैसला किया गया है। दरअसल लालू को जंगलराज का प्रतीक व कांग्रेस को भ्रष्टाचार की गंगोत्री के तौर पर प्रचारित करते हुए भाजपा अब तक मतदाताओं को यही बता रही थी इन दोनों के साथ रहकर नितीश बिहार में हर्गिज सुशासन स्थापित नहीं कर पाएंगे। जाहिर है कि इस तरह के प्रचार में सीधा निशाना लालू व कांग्रेस की ओर था जबकि नितीश के प्रति कोई ऐसी बड़ी बात सत्यापित नहीं हो पा रही थी जिससे जनता उन्हें सिरे से खारिज करने के लिये मजबूर हो जाये। इसी तकनीकी मसले पर विवेचना करने के बाद अब भाजपा ने सीधा नितीश को ही घेरने के लिये उसी डीएनए के मसले को हथियार बनाने का फैसला किया है जिसे भावनात्मक शक्ल देकर नितीश ने बिहार के स्वाभिमान के साथ जोड़ने की कोशिश की है। यही वजह है कि बैठक के बाद भाजपा के राष्ट्रीय सचिव श्रीकांत शर्मा ने नितीश पर सीधा हमला करते हुए उनके डीएनए में ही धोखेबाजी शामिल होने का आरोप लगाया है। श्रीकांत के मुताबिक नितीश का पूरा सियासी इतिहास ही धोखेबाजी से भरा हुआ है जिसके प्रति बिहार के लोगों को पूरी तरह जागरूक व सावधान करने में भाजपा कोई कसर नहीं छोड़ेगी। श्रीकांत के मुताबिक पहले चरण के चुनाव प्रचार में मिली कामयाबियों से भाजपा पूरी तरह संतुष्ट है और अब अगले चरण में सूबे की सभी नौ कमिश्नरियों में जोरदार प्रचार अभियान चलाया जाएगा जिसकी कार्ययोजना को काफी हद तक अंतिम रूप दे दिया गया है।    

मंगलवार, 1 सितंबर 2015

राजग में ‘हम किसी से कम नहीं’ की रार 

आज भी नहीं सुलझ सकी बिहार में सीट बंटवारे की गुत्थी

नवकांत ठाकुर

बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सीटों के बंटवारे को लेकर भाजपानीत राजग में जारी खींचतान का मसला लगातार उलझता दिख रहा है। जहां एक ओर भाजपा ने सूबे की कुल 243 सीटों में से कम से कम 180 सीटों पर अपनी दावेदारी बदस्तूर बरकरार रखी हुई है वहीं दूसरी ओर राजग के बाकी घटक दलों ने भी लगातार ‘हम किसी से कम नहीं’ का राग आलापना जारी रखा हुआ है। हालांकि इस विवाद का हल तलाशने की अनौपचारिक कोशिशों के तहत अपने सहयोगी दलों के साथ भाजपा की बातचीत काफी लंबे समय से जारी है लेकिन आज पहली दफा गठबंधन के सभी शीर्ष नेताओं की दिल्ली में हुई औपचारिक बैठक में भी इस मसले पर कोई आम राय नहीं बन सकी। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के निवास पर आज दोपहर के भोजन पर हुई बैठक के बारे में जानकारी देते हुए लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान ने स्वीकार किया है कि सीट बंटवारे को लेकर राजग के घटक दलों की बातचीत में भले ही कोई आम सहमति नहीं बन पायी हो लेकिन सभी दल इस बात पर पूरी तरह एकमत हैं कि अव्वल तो इस बार के चुनाव में पूरा गठजोड़ एक टीम के तौर पर एकजुट होकर मैदान में उतरेगा और दूसरे सीटों के बंटवारे के मसले पर जल्दी ही आम सहमति कायम कर ली जाएगी। पासवान ने उम्मीद जतायी है कि सीटों के बंटवारे को लेकर राजग के घटक दलों की इसी सप्ताह दोबारा बैठक आयोजित की जाएगी जिसमें आम सहमति से इस मामले को पूरी तरह सुलझा लिया जाएगा। 
आज की बैठक के लब्बोलुआब पर नजर डालें तो तकरीबन साढ़े तीन घंटे की मगजमारी के बाद एक बात तो तय कर ली गयी है कि अब चुनाव से पहले सूबे में राजग का विस्तार नहीं किया जाएगा। सूत्रों की मानें तो भाजपा की इच्छा थी कि सीमांचल के इलाके में यादव वोटबैंक में सेंध लगाने के लिये राजग के बागी सांसद पप्पू यादव के साथ अंदरूनी तौर पर सांठगांठ कर ली जाये लेकिन आज की बैठक में पार्टी अपने सहयोगी दलों को इस रणनीति पर अमल करने के लिये सहमत नहीं कर सकी। रामविलास पासवान की लोजपा से लेकर उपेन्द्र कुशवाहा की रालोसपा व जीतनराम मांझी की हम ने भी साफ शब्दों में भाजपा को बता दिया कि बिहार में राजग के चारों घटक दल ही आपस में तालमेल करके चुनाव लड़ें और इसके अलावा किसी भी अन्य दल या गठजोड़ के साथ कोई रिश्ता ना बनाया जाए। सहयोगियों की इस समवेत मांग को भाजपा ने भी स्वीकार कर लिया है लिहाजा अब यह तो साफ हो गया है कि बिहार में राजग की छतरी के नीचे इस दफा कुल चार पार्टियां ही दिखाई देंगी। लेकिन जिस मसले को लेकर आज की बैठक आयोजित की गयी थी उस पर कोई आम सहमति नहीं बन पाने के कारण इस बैठक को बेनतीजा करार देना ही बेहतर होगा। सूत्रों की मानें तो सीट बंटवारे को लेकर तमाम सहयोगी दल भाजपा पर इस बात का दबाव बनाने में जुटे हुए हैं कि जिस तरह पिछले विधानसभा चुनाव में उसने कुल 102 सीटों पर चुनाव लड़ा था और बाकी 141 सीटें अपनी तत्कालीन सहयोगी जदयू के लिये छोड़ दी थी उसी फार्मूले का इस बार भी अनुसरण किया जाये। जबकि भाजपा की कोशिश है कि इस बार वह कम से कम प्रदेश की 180 सीटों पर चुनाव लड़े ताकि अपने दम पर बहुमत का जुगाड़ किया जा सके। सूत्रों की मानें तो आज की बैठक में सहयोगियों की मांग पर भी विस्तार से बातचीत हुई और भाजपा की जिद पर भी। लेकिन कोई भी पक्ष आज कतई अपनी मांग से पीछे हटने के लिये सहमत नहीं हुआ जिसके कारण आम सहमति की कोई राह नहीं निकल सकी। हालांकि सूत्र बताते हैं कि ‘प्लान बी’ के तहत अगली बैठक के लिये भाजपा ने एक फार्मूला यह भी बनाया हुआ है कि वह खुद 160 सीटों पर चुनाव लड़े जबकि लोजपा को 40, रालोसपा को 25 और हम को 18 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिये सहमत किया जाये। लेकिन अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा के इस फार्मूले पर उसके बाकी सहयोगी दल सहमत होना गवारा करते हैं या फिर उसे किसी अन्य ‘प्लान सी’ के तहत कुछ और झुकने के लिये मजबूर होना पड़ता है।