‘सियासत से संवेदना की बेमानी उम्मीद’
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिये भाजपा की केन्द्रीय चुनाव समिति द्वारा किये गये टिकट वितरण ने ऐसी आग लगाई है जिसकी चपेट में आकर सूबे के अधिकांश भाजपाईयों की उम्मीदें स्वाहा हो गयी हैं। कहां तो उम्मीद जताई जा रही थी कि जिन जमीनी नेताओं ने लोकसभा की 80 में से 72 सीटों पर कमल खिलाने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी उन्हें पुरस्कार के तौर पर विधानसभा का टिकट अवश्य मिलेगा और कहां तो हालत यह हो गयी है कि सूबे के कई जनपदों की तमाम सीटों पर उन लोगों को टिकट दे दिया गया है जो ना सिर्फ दूसरे दलों से आये हैं बल्कि लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा की हार सुनिश्चित कराने के लिये उन्होंने एड़ी-चोटी का जोर लगाया हुआ था। बात चाहे बस्ती, हरदोई व उन्नांव की करें अथवा बाराबंकी, फैजाबाद व अम्बेडकर नगर जनपद की। सूबे के हर इलाके की तस्वीर कमोबेस एक सी ही है। यहां तक कि प्रदेश का हृदय क्षेत्र कहे जानेवाले लखनऊ में भी जब कुल नौ में से सात सीटें उन लोगों को दे दी जाती हों जिनका पूरा राजनीतिक जीवन ही भाजपा को कोसते-गरियाते गुजरा है तो फिर बाकी इलाकों का तो कहना ही क्या। हालांकि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने साफ कर दिया है कि इस दफा टिकट वितरण का इकलौता पैमाना उम्मीदवार की जीत दर्ज कराने की संभावना को ही बनाया गया है। जिस सीट पर जिसके जीत की संभावना सबसे मजबूत नजर आयी उसे टिकट दे दिया गया। इसमें यह नहीं देखा गया है कि टिकट का दावेदार वैचारिक व सैद्धांतिक तौर पर पार्टी के कितने करीब या दूर रहा है। यानि पार्टी को तो सिर्फ जीत से मतलब है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि टिकट वितरण में 40 फीसदी से भी अधिक सीटें बाहरी लोगों को देने के कारण किस कार्यकर्ता की भावना आहत हुई है या किसकी संवेदना को सदमा पहुंचा है। कुल मिलाकर संगठन ने तो अपनी राह तय कर ली है और लगे हाथों पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ने यह ऐलान भी कर दिया है कि घोषित उम्मीदवारों की सूची में फेरबदल की अब कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन अब असली परेशानी तो उस कार्यकर्ता को झेलनी है जिसे जमीन पर संगठन की जीत सुनिश्चित कराने के लिये मतदाताओं मनाना, समझाना व रिझाना है। उसकी समझ में खुद ही नहीं आ रहा कि आखिर ऐसा कैसे हो गया कि जिस जमीन को उसने दशकों की मेहनत से जोता-सींचा और अपने खून-पसीने की खाद से उपजाऊ बनाया वहां जब फसल काटने की बारी आई तो यह अधिकार उन लोगों को मिल गया जिन्होंने फसल का बीज ही नष्ट करने की कसम खाई हुई थी। जिनके साथ जमीनी संग्राम करते हुए कार्यकर्ताओं ने कमल खिलाने की लड़ाई लड़ी अब उनके लिये ही वोट मांगने मतदाताओं के पास वे जाएं भी तो किस मूंह से। अब तक जिनका विरोध किया उनका अचानक जयकारा लगाने के लिये भी तो 56 ईंच का ही सीना चाहिये। जमीन पर गद्दा बिछाकर हवा में गुलाटियां मारना और बात है। लेकिन सख्त-सपाट जमीन पर अचानक सिर के बल चलने की कलाकारी तो बिरलों को ही आती है। ऐसे में स्वाभाविक है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के फैसलों का विरोध तो होगा ही। वह हो भी रहा है। लखनऊ से लेकर इलाहाबाद तक और बनारस से लेकर दिल्ली तक। कार्यकर्ताओं की टोली कहीं भी अपने बड़े नेताओं के विरोध का कोई मौका नहीं छोड़ रही है। लेकिन सवाल है कि सियासत से संवेदना की उम्मीद टूटने के कारण मुखर हो रहे इस विरोध के प्रति कितनी संवेदना दिखाई जाये। क्यों दिखाई जाये? सिर्फ इसलिये क्योंकि भाजपा ने कार्यकर्ताओं की संवेदना से ज्यादा जीत की संभावना को तरजीह दी है। यहां विचारणीय है कि सत्ता के बिना सिर्फ सूखी संवेदना के दम पर संगठन से कार्यकर्ताओं को क्या हासिल हो सकता है? संगठन अगर सत्ता में आने के बाद कार्यकर्ताओं की अनदेखी करे और अपने हिस्से की मलाई विरोधियों को मुहैया कराये तो इसका विरोध किया जाना चाहिये। लेकिन ऐसा होने का ना तो कोई कारण दिख रहा है और ना ही कोई परंपरा रही है। बल्कि पार्टी की जीत में ही कार्यकर्ताओं का हित निहित रहता है। इस बात को जो कार्यकर्ता नही समझना चाहे उसका तो भगवान भी भला नहीं कर सकते। भलाई इसी में है कि विरोधी को भी अपना बनाया जाये। इसमें तो किसी का भला नहीं है कि अपनों का ही विरोध किया जाये। जिसे पार्टी ने टिकट दिया है उसकी भी अब जिम्मेवारी है कि वह जमीनी कार्यकर्ताओं की भावनाओं को समझे और उनके साथ तालमेल बनाकर आगे बढ़े। साथ ही कार्यकर्ताओं की भी जिम्मेवारी है कि वे पार्टी द्वारा पेश किये गये प्रत्याशी की जीत सुनिश्चित कराने में अपनी पूरी ताकत झोंक दें। वैसे भी सेना में किसे किस मोर्चे पर लगाया गया है यह बात मायने नहीं रखती। मायना होता है सेना की जीत का। जीती हुई राम की सेना का यथासंभव सहयोग करनेवाली गिलहरी से लेकर लंगूर-वानरों को भी आज तक स्नेह व सम्मान हासिल होता आ रहा है। वैसे भी जब भगवान कहे जानेवाले श्रीराम को भी अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिये विरोधी पक्ष के विभिषण को अपने साथ जोड़ना पड़ा था तब आज की सियासत में अगर विरोधी खेमे टूटकर आने वालों को हर जगह सिर-आंखों पर बिठाया जा रहा है तो इसमें गलत ही क्या है? ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur