मंगलवार, 31 जनवरी 2017

‘सियासत से संवेदना की बेमानी उम्मीद’

‘सियासत से संवेदना की बेमानी उम्मीद’


उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिये भाजपा की केन्द्रीय चुनाव समिति द्वारा किये गये टिकट वितरण ने ऐसी आग लगाई है जिसकी चपेट में आकर सूबे के अधिकांश भाजपाईयों की उम्मीदें स्वाहा हो गयी हैं। कहां तो उम्मीद जताई जा रही थी कि जिन जमीनी नेताओं ने लोकसभा की 80 में से 72 सीटों पर कमल खिलाने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी उन्हें पुरस्कार के तौर पर विधानसभा का टिकट अवश्य मिलेगा और कहां तो हालत यह हो गयी है कि सूबे के कई जनपदों की तमाम सीटों पर उन लोगों को टिकट दे दिया गया है जो ना सिर्फ दूसरे दलों से आये हैं बल्कि लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा की हार सुनिश्चित कराने के लिये उन्होंने एड़ी-चोटी का जोर लगाया हुआ था। बात चाहे बस्ती, हरदोई व उन्नांव की करें अथवा बाराबंकी, फैजाबाद व अम्बेडकर नगर जनपद की। सूबे के हर इलाके की तस्वीर कमोबेस एक सी ही है। यहां तक कि प्रदेश का हृदय क्षेत्र कहे जानेवाले लखनऊ में भी जब कुल नौ में से सात सीटें उन लोगों को दे दी जाती हों जिनका पूरा राजनीतिक जीवन ही भाजपा को कोसते-गरियाते गुजरा है तो फिर बाकी इलाकों का तो कहना ही क्या। हालांकि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने साफ कर दिया है कि इस दफा टिकट वितरण का इकलौता पैमाना उम्मीदवार की जीत दर्ज कराने की संभावना को ही बनाया गया है। जिस सीट पर जिसके जीत की संभावना सबसे मजबूत नजर आयी उसे टिकट दे दिया गया। इसमें यह नहीं देखा गया है कि टिकट का दावेदार वैचारिक व सैद्धांतिक तौर पर पार्टी के कितने करीब या दूर रहा है। यानि पार्टी को तो सिर्फ जीत से मतलब है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि टिकट वितरण में 40 फीसदी से भी अधिक सीटें बाहरी लोगों को देने के कारण किस कार्यकर्ता की भावना आहत हुई है या किसकी संवेदना को सदमा पहुंचा है। कुल मिलाकर संगठन ने तो अपनी राह तय कर ली है और लगे हाथों पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ने यह ऐलान भी कर दिया है कि घोषित उम्मीदवारों की सूची में फेरबदल की अब कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन अब असली परेशानी तो उस कार्यकर्ता को झेलनी है जिसे जमीन पर संगठन की जीत सुनिश्चित कराने के लिये मतदाताओं मनाना, समझाना व रिझाना है। उसकी समझ में खुद ही नहीं आ रहा कि आखिर ऐसा कैसे हो गया कि जिस जमीन को उसने दशकों की मेहनत से जोता-सींचा और अपने खून-पसीने की खाद से उपजाऊ बनाया वहां जब फसल काटने की बारी आई तो यह अधिकार उन लोगों को मिल गया जिन्होंने फसल का बीज ही नष्ट करने की कसम खाई हुई थी। जिनके साथ जमीनी संग्राम करते हुए कार्यकर्ताओं ने कमल खिलाने की लड़ाई लड़ी अब उनके लिये ही वोट मांगने मतदाताओं के पास वे जाएं भी तो किस मूंह से। अब तक जिनका विरोध किया उनका अचानक जयकारा लगाने के लिये भी तो 56 ईंच का ही सीना चाहिये। जमीन पर गद्दा बिछाकर हवा में गुलाटियां मारना और बात है। लेकिन सख्त-सपाट जमीन पर अचानक सिर के बल चलने की कलाकारी तो बिरलों को ही आती है। ऐसे में स्वाभाविक है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के फैसलों का विरोध तो होगा ही। वह हो भी रहा है। लखनऊ से लेकर इलाहाबाद तक और बनारस से लेकर दिल्ली तक। कार्यकर्ताओं की टोली कहीं भी अपने बड़े नेताओं के विरोध का कोई मौका नहीं छोड़ रही है। लेकिन सवाल है कि सियासत से संवेदना की उम्मीद टूटने के कारण मुखर हो रहे इस विरोध के प्रति कितनी संवेदना दिखाई जाये। क्यों दिखाई जाये? सिर्फ इसलिये क्योंकि भाजपा ने कार्यकर्ताओं की संवेदना से ज्यादा जीत की संभावना को तरजीह दी है। यहां विचारणीय है कि सत्ता के बिना सिर्फ सूखी संवेदना के दम पर संगठन से कार्यकर्ताओं को क्या हासिल हो सकता है? संगठन अगर सत्ता में आने के बाद कार्यकर्ताओं की अनदेखी करे और अपने हिस्से की मलाई विरोधियों को मुहैया कराये तो इसका विरोध किया जाना चाहिये। लेकिन ऐसा होने का ना तो कोई कारण दिख रहा है और ना ही कोई परंपरा रही है। बल्कि पार्टी की जीत में ही कार्यकर्ताओं का हित निहित रहता है। इस बात को जो कार्यकर्ता नही समझना चाहे उसका तो भगवान भी भला नहीं कर सकते। भलाई इसी में है कि विरोधी को भी अपना बनाया जाये। इसमें तो किसी का भला नहीं है कि अपनों का ही विरोध किया जाये। जिसे पार्टी ने टिकट दिया है उसकी भी अब जिम्मेवारी है कि वह जमीनी कार्यकर्ताओं की भावनाओं को समझे और उनके साथ तालमेल बनाकर आगे बढ़े। साथ ही कार्यकर्ताओं की भी जिम्मेवारी है कि वे पार्टी द्वारा पेश किये गये प्रत्याशी की जीत सुनिश्चित कराने में अपनी पूरी ताकत झोंक दें। वैसे भी सेना में किसे किस मोर्चे पर लगाया गया है यह बात मायने नहीं रखती। मायना होता है सेना की जीत का। जीती हुई राम की सेना का यथासंभव सहयोग करनेवाली गिलहरी से लेकर लंगूर-वानरों को भी आज तक स्नेह व सम्मान हासिल होता आ रहा है। वैसे भी जब भगवान कहे जानेवाले श्रीराम को भी अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिये विरोधी पक्ष के विभिषण को अपने साथ जोड़ना पड़ा था तब आज की सियासत में अगर विरोधी खेमे टूटकर आने वालों को हर जगह सिर-आंखों पर बिठाया जा रहा है तो इसमें गलत ही क्या है? ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

सोमवार, 23 जनवरी 2017

‘अब सियासत में राय बुजुर्गों से नहीं ली जाती’

‘अब सियासत में राय बुजुर्गों से नहीं ली जाती’


जवानी के दिनों में मुनव्वर राणा साहब ने भी यही लिखा था कि ‘इश्क में राय बुजुर्गों से नहीं ली जाती, आग बुझते हुए चूल्हों से नहीं ली जाती, इतना मोहताज न कर चश्मे-बसीरत मुझको, रोज इम्दाद चरागों से नहीं ली जाती।’ लिहाजा अगर आज के दौर में बुजुर्गों को हाशिए पर भी जगह मिलनी मुश्किल होती जा रही है तो इसके लिये उबलते जोशो-खूं वाली पीढ़ी को ही तो इकलौता दोषी नहीं ठहराया जा सकता। कहीं ना कहीं गलतियां तो कई मोर्चों पर हुई हैं जिसका परिणाम इस संवेदनहीनता के तौर पर सामने आ रहा है। वर्ना सनातन सत्य की तरह समाज के हर तबके के बुजुर्गों की हालत एक जैसी कतई नहीं होती। लेकिन बुजुर्गों को अगर सबसे अधिक उपेक्षा किसी एक क्षेत्र में झेलनी पड़ रही है तो वह सियासत ही है। सियासत में तो बजुर्गों को इस लायक भी नहीं समझा जाता कि वक्त-बेवक्त उनकी खोज-खबर ले ली जाये। अगर हालचाल जानने की पहल भी की जाती है तो बकायदा मीडिया का काफिला साथ लेकर ताकि यह संदेश दिया जा सके कि बुजुर्गों का कितना ध्यान रखा जा रहा है। यानि खाट पर पड़े अंतिम घड़ियां गिन रहे बुजुर्ग का भी अपनी सियासत चमकाने के लिये तो इस्तेमाल किया जाता है लेकिन उनके चेहरे की चमक बढ़ाने का प्रयास करना किसी को गवारा नहीं होता। और इस मामले में हर सियासी दल का रिकार्ड काफी हद तक एक जैसा ही है। मिसाल के तौर पर जार्ज फर्नांडीज, अटल बिहारी वाजपेयी, जसवंत सिंह, जगन्नाथ मिश्र, वीएस अच्युतानंदन, कैलाश जोशी और प्रियरंजन दासमुंशी सरीखे जिन नेताओं की भारतीय राजनीति में कभी तूती बोलती थी वे आज कहां और किस हाल में हैं इसकी सुध लेना भी गवारा नहीं किया जा रहा है। खैर, ये तो ऐसे नाम हैं जिनके चाहनेवालों को सिर्फ इतने से ही सुकून मिल रहा है कि ये जीवित हैं और इनकी सांसें चल रही हैं। वर्ना अब ये लोग इस स्थिति में बचे ही नहीं हैं कि दोबारा अपने पैरों पर खड़े होकर सत्ता के गलियारों में चहलकदमी भी कर सकें। लेकिन सियासत ने तो उनको भी किनारे लगाने से गुरेज नहीं किया है जो ना सिर्फ स्वस्थ और सक्षम हैं बल्कि आज भी उनकी जुबान से फिसली हुई बातें मीडिया की सुर्खियों में छा जाने की क्षमता रखती है। इनके साथ ऐसा बर्ताव हो रहा है मानो इनका सक्षम होना ही बाकियों के लिये सिरदर्दी हो। तभी तो कभी लालकृष्ण आडवाणी को सार्वजनिक तौर पर अपने दर्द का इजहार करते हुए यह गुहार लगाने के लिये मजबूर होना पड़ता है कि मौजूदा माहौल को बर्दाश्त करने से बेहतर है कि संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया जाये। कभी मुलायम सिंह यादव को भावुक होकर यह अपील करनी पड़ती है कि उनके हाथ से सपा की बागडोर ना छीनी जाये। यहां तक कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके कद्दावर कांग्रेसी नेता नारायण दत्त तिवारी को अगर उम्र के दसवें दशक में धुर विरोधी भाजपा के करीब जाने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है तो निश्चित तौर पर इसके पीछे कहीं ना कहीं उस उपेक्षा का ही दंश है जो उन्हें संगठन के भीतर झेलना पड़ रहा है। हालांकि अपनों से मिला दर्द तो ऐसा ही होता है जिसे चुपचाप सहने के अलावा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं होता। तभी तो मार्गदर्शक के नाम पर मूकदर्शक बना दिये गये आडवाणी व डाॅ जोशी सरीखे नेताओं ने अब तक इस बात की भी शिकायत नहीं की है कि ढ़ाई साल पहले गठित किये गये मार्गदर्शक मंडल की आज तक एक भी औपचारिक बैठक क्यों नहीं बुलाई गई है। लेकिन तिवारी सरीखे जुझारू नेता की जिजिविषा को सलाम करना होगा कि आज भी वे अपनी बात जुबानी तौर पर कहने के बजाय ऐसा कुछ करके दिखा देते हैं कि बिना कहे ही उनकी बात से खलबली मच जाती है। तभी तो तिवारी का अमित शाह के निवास पर जाना ही ही इतनी बड़ी खबर बन गया कि उस पर औपचारिक तौर पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिये कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व को भी मजबूर होना पड़ा। लेकिन तिवारी ने अपनी जुबान से फिर भी कुछ नहीं कहा। अलबत्ता उनकी संगठन में हो रही उपेक्षा को बयां किया उनके उस पुत्र ने जिसका भविष्य संवारने के लिये वे शाह के घर की चैखट पर पहुंचे थे। बताया गया कि जो तिवारी किसी समय यूपी व उत्तराखंड की सियासी धुरी हुआ करते थे, उन्हें आज की पीढी के नेता मांगने पर भी मिलने का वक्त देना गवारा नहीं कर रहे हैं। जाहिर है कि ऐसी फजीहत झेलने के बाद अगर तिवारी सरीखे नेता को संगठन का दामन छोड़ने के लिये विवश होना पड़ता है तो यह उनकी या उनके उम्र की तौहीन नहीं है बल्कि यह परिचायक है उस नैतिक स्खलन का जिसका मुजाहिरा इन दिनों हर तरफ खुलेआम किया जा रहा है। लेकिन बुजुर्गों के साथ ऐसा उपेक्षापूर्ण व्यवहार करनेवाले शायद यह भूल रहे हैं कि कल को उन्हें भी इस उम्र में आना है और तब उनके साथ ऐसा व्यवहार होगा तो वे कैसे इसे झेल पाएंगे। लिहाजा बलिया जनपद स्थित छब्बी गांव निवासी ओमप्रकाश यती के लिखे शेर में कुछ हेर-फेर करके आज यह याद रखने की जरूरत है कि ‘ये जंगल कट गये तो किसके साए में गुजर होगी, हमेशा इन बुजुर्गों को अपने साथ रहने दो।’ ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

बुधवार, 11 जनवरी 2017

कोई यूं बेवफा नहीं होता....

‘कुछ तो मजबूरियां होंगी मेरे सरकार की’

‘कुछ मिट्टी की और कुछ कुम्हार की, कुछ तो मजबूरियां होंगी मेरे सरकार की।’ वाकई, ‘कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, कोई यूं बेवफा नहीं होता।’ बेवफाई भी ऐसी अव्वल दर्जे की कि जिस बीज को खुद ही बोया, उगाया, सींचा और मौसम की मार व दुश्मनों के वार बचाते हुए फर्श से उठाकर अर्श की बुलंदी पर ला खड़ा किया, उसका ही समूल नाश करने पर आमादा हो जाया जाये। कायदे से तो उस पेड़ की घनी छांव में अपने बुढ़ापे की अंतिम घड़ियां शांति व सुकून के साथ गुजारने की इच्छा होनी चाहिये थी और कहां बूढ़ापे की थकी-मांदी हड्डियां लहराते हुए कुल्हाड़ी हाथ में लेकर हरे-भरे फलदार पेड़ को जमींदोज करने की कोशिशें की जा रही हैं। यह भी नहीं सोचा जा रहा कि अगर यह पेड़ नष्ट हो गया तो अंतिम वक्त में किसका सहारा बचेगा। हालांकि जिन लोगों को ना तो किसान के हितों की कोई परवाह है और ना ही पेड़ की बुलंदी से कोई फायदा मिलने की उम्मीद है, वे तो चाहेंगे ही कि किसान को समझा-बुझाकर उसके ही हाथों उसका पेड़ कटवा दिया जाये, ताकि कुछ नहीं तो लकड़ी का तमगा ही हासिल हो। लेकिन पता नहीं किसान की अक्ल पर कैसा पत्थर पड़ गया है कि जिस पेड़ को मौजूदा बुलंदी देने में उसने अपनी पूरी उम्र खपा दी, अब उसे ही जड़ से उखाड़ने की हर मुमकिन कोशिशों में जुटा दिख रहा है। निश्चित तौर पर ऐसा कदम उठानेवाला किसान या तो अपने भले-बुरे की चिंता छोड़कर सिर्फ वर्तमान की समस्या सुलझा लेना चाहता है या फिर वह चाहकर भी अपने मन की बात पर अमल नहीं कर पा रहा है। अपने महाजन की मनमानी बर्दाश्त, स्वीकार व अंगीकार करना उसकी मजबूरी बन चुकी है। उनकी बतायी राह पर चलने के अलावा उसके पास दूसरा विकल्प ही नहीं है। वर्ना वह ऐसा हर्गिज नहीं कहता कि पेड़ से उसे कोई परेशानी नहीं है बल्कि पेड़ से लिपटी हुई उस बेल ने उसे दुखी किया हुआ है जिससे खुद को अलग करने के लिये पेड़ कतई तैयार नहीं है। दूसरी ओर पेड़ भी यह बताने से नहीं हिचक रहा है कि उसका पालक-संरक्षक इन दिनों बड़ी साजिश का शिकार हो गया है और उसका महाजन उससे ऐसे काम करवाना चाहता है जिसका नुकसान पेड़ और किसान दोनों को उठाना पड़ेगा। इसी वजह से पेड़ ने भी अपने सुरक्षा कवच को मजबूती से कस लिया है ताकि किसान के कांधे पर रखे महाजन की कुल्हाड़ी से अपनी हिफाजत कर सके। आलम यह है कि किसान और पेड़ भले ही आमने-सामने दिख रहे हों लेकिन इनके बीच इस लड़ाई की कोई बड़ी वजह दिखाई नहीं पड़ रही है। वैसे भी किसान ने पूरी जिन्दगी जिस पेड़ को सींच-पाल कर बड़ा किया वह अब अपने दम पर किसान को बुढ़ापे में शांति-सुकून की छांव ही नहीं बल्कि अपने द्वारा उपार्जित मीठा फल भी ताउम्र खिलाने में कतई कोताही नहीं बरत सकता है। तुलनात्मक तौर पर भी देखा जाये तो इस किसान के मुकाबले काफी अधिक संसाधन संपन्न व सिंचित-उपजाऊ जमीन के मालिकों का बोया बीज ऐसा बिगड़ा कि वह ना तो छांव दे पाने के काबिल बन सका और ना ही फल दे पाने के। ऐसे में ऊसर-बंजर जमीन पर सीमित संसाधनों के बूते पर बोया गया बीज अगर व्यापक छायादार और फलदार हो गया है तो किसान के लिये यह भी कम बड़े गर्व की बात नहीं है। इसके बावजूद किसान है कि महाजन के चंगुल में फंसकर पेड़ को ही काटने पर आमादा है। दूसरी तरफ पेड़ भी उस बेल का मोह छोड़ने के लिये तैयार नहीं है जो उससे लिपटकर अपना अस्तित्व कायम रखते हुए उसे यह भरोसा दिलाने की हर-मुमकिन कोशिशों में है कि अगर कटने की नौबत आयी तो पहला वार उस पर होगा उसके बाद ही कुल्हाड़ी की धार पेड़ को छू पाएगी। यानि इतना तो स्पष्ट है कि किसान संचालित हो रहा है महाजन से और पेड़ को उम्मीदें हैं खुद से लिपटी बेल से। ऐसे में सवाल है कि आखिर किसान की ऐसी कौन सी मजबूरी है कि वह सब-कुछ जानते व समझते हुए भी महाजन से अपना पीछा नहीं छुड़ा पा रहा है। अगर समस्या सिर्फ बेल से होती और महाजन की इसमें कोई भूमिका नहीं होती तो पेड़ ने किसान के एक इशारे पर ही उस बेल से खुद को अलग कर लिया होता जिसे पेड़ और किसान के आपसी रिश्ते में बाधक बताने की कोशिश हो रही है। लेकिन पेड़ को लग रहा है कि बेल का तो बहाना है, वास्तव में वह ही महाजन का निशाना है। ऐसे में वह क्यों उस बेल को खुद से अलग करे जो कुल्हाड़ी का पहला वार खुद पर झेलने के लिये पहले से ही तैयार है। यानि पेड़ की नजर से देखें तो उसकी जान का ग्राहक किसान नहीं है, बल्कि उसके महाजन हैं। जबकि किसान का नजरिया पेड़ से लिपटी बेल के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त दिख रहा है। लिहाजा बेहतर यही होगा कि पेड़ व किसान एक हो जाएं और पेड़ खुद को बेल से व किसान खुद को अपने महाजन से अलग कर ले। साहिर लुधियानवी ने कहा भी है कि ‘तार्रूफ रोग हो जाये तो उसको भूलना बेहतर, ताल्लुक बोझ बन जाये तो उसको तोड़ना अच्छा, वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।’ ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur