सोमवार, 22 जनवरी 2018

‘हाय, आप ने यह क्यों किया...??’

‘हाय, आप ने यह क्यों किया...??’    


इन दिनों लावारिस फिल्म का वह गाना जब भी याद आता है तो दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी यानि आप का ही खयाल आता है कि, आप का क्या होगा, जनाबे आली...। जिन 21 विधायकों को आप नेे संसदीय सचिव के पद पर नियुक्त किया था उनमें से एक ने पंजाब चुनाव से पहले खुद ही इस्तीफा दे दिया और उस सीट पर हुए उप-चुनाव में भाजपा के सहयोग से अकाली दल ने जीत दर्ज करा ली। बाकी बचे बीस विधायकों की विधानसभा से सदस्यता रद्द किए जाने का प्रस्ताव चुनाव आयोग द्वारा राष्ट्रपति के पास भेज दिए जाने के बाद अब इन माननीयों की कुर्सी जमींदोज होने की महज औपचारिकता ही बाकी बची है। अदालत ने भी चुनाव आयोग की सिफारिश पर अंतरिम रोक लगाने से इनकार कर दिया है। ऐसे में ये बीस भी अब निपटे हुए ही माने जा रहे हैं। हालांकि बीस विधायकों का समर्थन हट जाने के बावजूद दिल्ली में आप की सरकार को फिलहाल कोई खतरा नहीं दिख रहा क्योंकि सूबे की सत्तर सदस्यीय विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा छत्तीस का है जबकि इन बीस विधायकों को अलग भी कर दें तो विधानसभा में आप के 46 विधायक बचते हैं। लेकिन बड़ा सवाल है कि आखिर ऐसी नौबत ही क्यों आई कि पार्टी को अपने बीस विधायक कुर्बान कराने पड़े। वह भी लाभ के पद की बंदरबांट के कारण। जाहिर है सवाल तो उठेंगे ही। अपने विधायकों को संतुष्ट करने के लिए चोर दरवाजे से सत्ता की मलाई में हिस्सेदारी देने की जो रणनीति अपनाई गई वह दिल्लीवालों के लिए आप से तो कतई अपेक्षित नहीं थी। क्योंकि यह वही आप है जिसने अलग तरह की राजनीति करने का वायदा करके सार्वजनिक जीवन में पदार्पण किया था। बात-बात में जनादेश लेने, हर काम पारदर्शिता से करने, जनता की सहभागिता से सरकार ही नहीं बल्कि संगठन भी चलाने, सत्ता मिलने पर सरकारी बंगला, गाड़ी व अन्य सुख-सुविधाएं नहीं लेने, साप्ताहिक तौर पर जनता दरबार लगाने, जनता को राजा बनाने और खुद सेवक बनकर काम करने सरीखे ना जाने कितने ऐसे वायदे किए थे अरविंद केजरीवाल ने। उस वक्त जब उन्होंने अन्ना हजारे के जनलोकपाल आंदोलन की जमीन कब्जा करके आप का गठन करते हुए सक्रिय राजनीति में कदम रखा था। ऐसे में स्वाभाविक है कि जिन लोगों ने केजरीवाल की उन बातों पर भरोसा करके उनके साथ जुड़ने या उन्हें अपना सहयोग व समर्थन देने की पहल की थी वे आज ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। अपेक्षाओं की उपेक्षा का सवाल पिछले दिनों तब भी उठा था जब आप ने उन लोगों को राज्यसभा का टिकट नहीं दिया जो वाकई इसके हकदार थे। आप ने अपने जिन तीन उम्मीदवारों को राज्यसभा में भेजा है उस सूची का सबसे पहला नाम ही केजरीवाल के पुराने सखा कहे जाने वाले उन संजय सिंह का है जिन पर पंजाब विधानसभा चुनाव के समय पैसे लेने से लेकर तमाम तरह के गंभीर आरोप लगे जिसके चलते पार्टी ने उन्हे बीच अभियान में प्रदेश इंचार्ज के पद से किनारे कर दिया था। दूसरा नाम दिल्ली के एक बड़े व्यवसायी सुशील गुप्ता का है जो पिछले कुछ माह तक कांग्रेस में थे और वर्ष 2013 में मोतीनगर से कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं। इसी प्रकार तीसरा नाम चार्टर्ड एकाउंटेंट नारायण दास गुप्ता का है जो अब तक आम आदमी पार्टी की खाता-बही संभालते रहे हैं और पार्टी पर चंदे व फंड की गडबड़ियों के जितने भी आरोप लगे उस सबका कर्ता-धर्ता उन्हें ही बताया जाता है। यानि तीनों नाम ऐसे ही सामने आए जिससे पार्टी की नीति और नीयत को लेकर जिनके विश्वास को गहरा सदमा लगा उनमें आप के कई विधायक, वरिष्ठ-कनिष्ठ जमीनी नेताओं की बहुत बड़ी जमात और पार्टी से खदेड़े जा चुके संस्थापकों के अलावा दिल्ली की वह जनता भी है जिसने बदलाव, सुधार व बेहतरी की आशा में बड़ी उम्मीदों के साथ प्रदेश की 70 में से 67 सीटों पर केजरीवाल के प्रत्याशियों को जीत दिलाई थी। वह भी तब जबकि उससे कुछ माह पूर्व हुए मतदान में त्रिशंकु विधानसभा का गठन होने के बाद महज 49 दिन तक कांग्रेस के समर्थन से सरकार चलाने में ही केजरीवाल की सांस फूल गई थी और उन्होंने दिल्ली का भविष्य दांव पर लगाकर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। लेकिन लोकसभा चुनाव में वाराणसी की जनता द्वारा खारिज किए जाने के बाद दोबारा केजरीवाल दिल्ली वापस लौटे और यहां की गलियों में घूम-घूमकर लोगों से सार्वजनिक तौर पर माफी मांगी। लोकलुभावन वायदों की झड़ी भी लगाई और ऐसा प्रचारित किया मानो अब अगर उन्हें दिल्ली की जनता ने दोबारा मौका दिया तो वे प्रदेश में रामराज ला देंगे। ऐसा रामराज जहां जनता होगी मालिक और सेवक होंगे नेता। लेकिन सत्ता का स्वाद चखते ही आप के तेवर और कलेवर में ऐसा परिवर्तन आया कि लोग ठगे से रह गए। संवैधानिक तौर पर जितनी कुर्सी बांट सकते थे उसके अलावा भी तमाम ओहदों व पदों की बंदरबांट हुई और जब कुछ नहीं सूझा तो 21 विधायकों को संसदीय सचिव ही बना दिया। अब दलील दे रहे हैं कि संसदीय सचिवों ने कोई कमाई नहीं की। लेकिन सवाल है कि अगर कोई आदमी किसी मकान में अवैध तरीके से घुसने के बाद पकड़ा जाए तो क्या उसे इसलिए बच निकलने का मौका दिया जा सकता है क्योंकि उसने चोरी नहीं की है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

शनिवार, 13 जनवरी 2018

‘उल्टी गंगा बह रही, राजनीति के घाट’    

कहने-सुनने में भले अटपटा लगे लेकिन सच यही है कि वाकई कहीं-कहीं गंगा उल्टी भी बहती है। जब आगे बढ़ने के लिए सीधी राह ना मिल रही हो तो कुछ दूर उल्टी दिशा में बह कर नई राह गंगा भी तलाशती है और राजनीति भी। यह बात और है कि जहां गंगा उल्टी बहती है वहां उसके महिमा और महात्म्य में काफी इजाफा हो जाता है जबकि सियासत उल्टी दिशा में बहने पर आलोचनाओं का शिकार होने लगती है। उसकी प्रामाणिकता व शुचिता पर सवालिया लगने लगते हैं और उल्टी धारा को दिखावा करार दिया जाने लगता है। हालांकि यह अलग बहस का विषय है कि जब उल्टी बहने पर भी गंगा के पानी की पवित्रता व गुणवत्ता पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ता है तो फिर राजनीति की धारा उल्टी बहने पर मैली व गंदली क्यों हो जाती है? शायद इसका कारण धारा के बहाव के मकसद में ही छिपा है। गंगा बहती है सबको तारने, उबारने व संवारने के लिए जबकि राजनीति की दिशा तय होती है वोटरों को लुभाने, रिझाने और सत्ता-व्यवस्था पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए। यानि सिर्फ सत्ता का स्वार्थ साधने के लिए उल्टी-सीधी राह पकड़ने के कारण राजनीति आलोचनाओं के केन्द्र में आती है जबकि परमार्थ के मकसद से आगे बढ़ने के लिए आवश्यकता के मुताबिक उल्टी दिशा में बहने से भी परहेज नहीं करना गंगा का ऐसा गुण बन जाता है जो उसकी पवित्रता, स्वीकार्यता और पूजनीयता को बेहद ऊंचे आयाम पर पहुंचा देता है। लेकिन तमाम आलोचनाओं के बावजूद राजनीति अपने रंग-ढ़ंग, दशा-दिशा, तेवर-कलेवर व रीति-नीति में जरूरत के मुताबिक रद्दोबदल करने से कभी पीछे नहीं हटती। बल्कि यूं कहा जाए तो ज्यादा सही होगा कि उल्टी गंगा बहाने में जिस संगठन या शख्सियत को जितनी महारथ हासिल रहती है वह सियासत में उतना ही अधिक सफल होता है। मिसाल के तौर पर कांग्रेस की 70 साल की सियासी सफलता के पीछे सबसे बड़ी वजह यही रही कि सैद्धांतिक तौर पर उसने अपनी वास्तविक दिशा का किसी को पता नहीं चलने दिया। जिस किसी भी कसौटी पर परखा जाता कांग्रेस उसमें ही अव्वल दिखाई देती थी। ब्राह्मण परिवार द्वारा संचालित होने के कारण बहुसंख्यकों की सबसे सगी भी कांग्रेस ही थी और धर्मनिरपेक्षता की जबर्दस्त पैरोकारी के कारण अल्पसंख्यकों के हितों की सबसे बड़ी हिमायती भी कांग्रेस ही थी। रामलला की पूजा के लिए बाबरी मस्जिद का ताला भी कांग्रेस ने ही खुलवाया और अल्पसंख्यकों को सरकारी खर्च पर हज कराने का इंतजाम भी कांग्रेस ने ही किया। आपातकाल लागू करके अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरा भी कांग्रेस ने ही बिठाया और लोगों को शासन से सूचना हासिल करने का अधिकार भी कांग्रेस ने ही दिया। उल्टी-सीधी राह पर एक-समान गति से आगे बढ़ने में महारथ के कारण ही देश की हिन्दी-पट्टी पर भी कांग्रेस का ही कब्जा था और हिन्दी विरोधी आंदोलन की आग में दशकों तक दहकते रहे दक्षिणी राज्यों में भी कांग्रेस का ही डंका बजता था। पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक हर जगह बस कांग्रेस ही कांग्रेस थी। सीधी सोच वाले उसकी सीधी धारा से सम्मोहित थे जबकि उल्टी सोच वालों को साधने में उसकी ऊटपटांग कूटनीतियां कामयाब हो जाती थीं। लेकिन खेल बिगड़ा तब जब वह उल्टी-सीधी धारा के बीच संतुलन नहीं बना पाई। एंटनी कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक कांग्रेस के पतन का मुख्य कारण ही यही है कि अल्पसंख्यक हितैषी छवि को निखारने के चक्कर में उसका स्वरूप बहुसंख्यक विरोधी का दिखने लगा। अब बीमारी पकड़ में आ चुकी है तो इलाज भी करना ही होगा। गुजरात में मंदिरों, मठों व घाटों का चक्कर लगाते हुए खुद को पुरजोर तरीके से ब्राह्मण नेता के रूप में प्रस्तुत करके राहुल गांधी ने जो इलाज की प्रक्रिया शुरू की उसका परिणाम भी सुखद ही रहा। वोट फीसद में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई, सीटों की तादाद में भी संतोषजनक इजाफा हुआ और भाजपा को दहाई के आंकड़े में समेटने में वे कामयाब हो गए। यानि जरूरत के मुताबिक दिशा बदलते ही दशा सुधरने लगी। अब यही फार्मूला कांग्रेस कर्नाटक में भी आजमाने जा रही है जहां गुजरात माॅडल पर भाजपा के मोर्चा खोलते ही मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने पुरजोर आवाज में जता दिया कि वे भी हिन्दू ही हैं। इसी प्रकार बंगाल की 30 फीसदी अल्पसंख्यक आबादी की सर्वस्वीकार्य नेत्री बनने के लिए जिस ममता बनर्जी ने दुर्गा प्रतिमा के विसर्जन में अड़ंगा लगाया, रामनवमी का जुलूस निकालने पर त्यौरियां दिखाईं और सरस्वती पूजा के रंग में भंग डालने का भरपूर प्रयास किया वही ममता बनर्जी अब वोट बैंक का विस्तार करने के लिए उल्टी धारा में बहते हुए ब्राह्मण सम्मेलन करवाने और गऊ-दान करने की कवायदें कर रही हैं। जबकि बहुसंख्यकवाद की राजनीति को सर्वोच्च शिखर पर पहुंचाने वाली भाजपा अब पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक सम्मेलन कराने जा रही है। यानि अपनी धारा के उलट बहकर मतदाताओं को रिझाने-फुसलाने की कोशिश ममता भी कर रही है और भाजपा भी। हालांकि गद्दी पर कोई भी विराजमान हो इससे सत्ता के स्वरूप और सत्ताधारियों की सोच पर कोई फर्क नहीं पड़ता। तभी तो जो आंकड़े पहले कांग्रेस प्रस्तुत करती थी वही अब भाजपा कर रही है और जो योजनाएं कांग्रेस ने इजाद की थी उन्हें ही सुधार कर भाजपा आगे बढ़ा रही है। लेकिन सियासत का अनुभव यही है कि दशा सुधारने के लिए दिशा बदलने की कूटनीति जब उल्टी पड़ती है तो बड़ी बे-भाव की पड़ती है। ‘जैसी नजर, वैस नजरिया।’  @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur