बुधवार, 31 अक्तूबर 2018

‘साथियों को संतुष्ट करने की चुनौती इधर भी है, उधर भी’

क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाएं राष्ट्रीय दलों को किस कदर हैरान व परेशान करती रही हैं यह सर्व-विदित ही है। तभी तो मोदी-शाह की जुगल जोड़ी के राष्ट्रीय राजनीति में प्रादुर्भाव से पूर्व गठबंधन सरकारों के दौर में लालकृष्ण आडवाणी को एक जनसभा में औपचारिक तौर पर मतदाताओं से अपील करनी पड़ी थी कि वे भाजपा को वोट नहीं देना चाहें तो बेशक ना दें लेकिन किसी क्षेत्रीय पार्टी को वोट देने से बेहतर होगा कि वे कांग्रेस को अपना वोट दे दें। जाहिर तौर पर इस आह्वान के पीछे आडवाणी का वह दर्द ही छिपा हुआ था जो अटल युग में गठबंधन की सरकार चलाने के दौरान भाजपा को क्षेत्रीय दलों से मिला था। हालांकि अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर पाने वालों क्षेत्रीय दलों के समर्थन से ही मजबूती मिलती है लेकिन इसके एवज में जो कीमत चुकानी पड़ती है उसका दर्द ऐसा होता है कि सहा भी ना जाए और किसी से कहा भी ना जाए। इन दिनों ऐसा ही दर्द भाजपा को भी झेलना पड़ रहा है जिसने लोकसभा में हासिल पूर्ण बहुमत के ताव में बीते साढ़े चार सालों तक अपने समर्थक दलों को मनमर्जी से हाथ उठाकर जो भी दे दिया वे उससे ही संतुष्टि जताते रहे और सही मौके का इंतजार करते रहे। किसी ने उफ तक नहीं की और कोई ऐसी मांग भी सामने नहीं रखी जिससे वह भाजपा की नजरों में खटक जाए। लेकिन अब आगामी आम चुनावों की नजदीकियों को देखते हुए राजग के घटक दलों में असंतोष भी उभरने लगा है और उनकी महत्वाकांक्षाएं भी कुलाचें मारने लगी हैं। ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि भाजपा को अगर दोबारा सत्ता में आना है तो उसे इनको अपने साथ लेकर चलना ही होगा। लेकिन इन दलों के सामने ऐसी कोई विवशता नहीं है। सरकार भाजपा बनाये या कांग्रेस अथवा कोई अन्य मोर्चा। इनकी ख्वाहिश तो बस इतनी ही है कि जो भी सरकार बने वह मजबूर बने। तभी उसे मजबूती देने के एवज में इनकी दसों उंगलियां घी में होंगी और सिर कढ़ाही में। वर्ना अभी की तरह दया से हासिल खैरात पर ही निर्भर रहकर उन्हें पिछलग्गू बनकर चलना होगा और सरकार का जयकार करना होगा। खैर, अभी यह कहना तो जल्दबाजी होगी कि आगामी सरकार मजबूत बनेगी या मजबूर। लेकिन दोनों ही सूरतों के लिये अपनी मजबूती सुनिश्चित करने के मकसद से तमाम क्षेत्रीय दलों ने अभी से अपनी तैयारियां तेज कर दी हैं। इसी सिलसिले में जिस तरह से बसपा ने कांग्रेस की बांह मरोड़ी हुई है उसी प्रकार राजग के घटक दलों ने भी भाजपा की सींग पकड़ कर उसे नाच नचाना शुरू कर दिया है। इन दलों का साफ तौर पर कहना है कि वे गठबंधन में तभी शामिल होंगे जब उनकी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति की जाएगी और सम्मानजनक संख्या में सीटें आवंटित की जाएंगी। यानि इन दलों का विकल्प खुला हुआ है कि जिधर अधिक मान-सम्मान मिलेगा और भविष्य सुनिश्चित दिखाई देगा उधर कूच करने में ये कतई देर नहीं लगाएंगे। इसके लिये दबाव बढ़ाने की शुरूआत जदयू ने की तो भाजपा ने उसे बिहार में अपने बराबर सीटें देने का वायदा करके उसे मना लिया। लेकिन जदयू से समझौता होने के बाद से रालोसपा और लोजपा फैल गए हैं। लोजपा ने ना सिर्फ अपनी जीती हुई तमाम सीटों पर दावा ठोंक दिया है बल्कि उसने अपने शीर्षतम नेता रामविलास पासवान के लिये भाजपा से राज्यसभा की सीट भी मांगी है। इसके अलावा कांग्रेस छोड़कर लोजपा में शामिल हुए मणिशंकर पांडेय के लिये पार्टी ने यूपी में भी हिस्सेदारी मांगी है। उधर रालोसपा ने भी साफ कर दिया है कि पिछली बार की तरह उसे बिहार की तीन लोकसभा सीटें नहीं दी गई तो वह गठबंधन से बाहर निकलने के विकल्पों पर भी विचार कर सकती है। भाजपा पर दबाव बढ़ाने के लिये रालोसपा ने मध्य प्रदेश की 66 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार भी उतार दिये हैं। बताया जाता है कि लोजपा और रालोसपा को लपकने के लिये राजद की अगुवाई वाला महागठबंधन भी जुगत बिठा रहा है और इन दोनों दलों को भाजपा द्वारा आवंटित की गई सीटों से अधिक सीटें देने का प्रलोभन भी दिया जा रहा है। दूसरी ओर यूपी में अपना दल हो या सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी। दोनों की ओर से भाजपा पर अधिकतम सीटों का पुरजोर दबाव है। इसी प्रकार शिवसेना भी भाजपा पर इस बात के लिये दबाव बनाए हुए है कि महाराष्ट्र में उसे अधिकतम सीटें आवंटित की जाएं और गुजरात, गोवा व मध्य प्रदेश में भी उसे हिस्सेदारी दी जाए। वर्ना आगामी चुनाव में अपनी खिचड़ी अलग पकाने का ऐलान तो पहले ही किया जा चुका है। ऐसी ही मांगें बाकी दलों की ओर से भी आगे की जा रही हैं और स्थिति यह है कि भाजपा के लिये राजग को पिछले चुनाव की शक्ल में बरकरार रख पाना भारी सिरदर्दी का सबब बनता जा रहा है। वैसे भी बिहार, पंजाब, दिल्ली और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों और यूपी के गोरखपुर व फूलपुर सरीखे गढ़ों के उपचुनावों ने यह तो बता ही दिया है कि ना तो मोदी की कोई राष्ट्रव्यापी लहर चलनेवाली है और ना ही भाजपा अपने दम पर अजेय हो सकती है। ऐसे में भाजपा की विवशता है सबको साथ लेकर चलने की और उसकी इस विवशता का अधिकतम दोहन करने से भला कोई क्यों पीछे रहे? ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

‘सवाल सीबीआई की आग में राख होती साख का’

वाकई गजब की आग दहक उठी है सीबीआई सरीखी ऐसी संस्था में जो स्वायत्त है, खुद-मुख्तार है। जिसकी स्वायत्तता को बरकरार रखने के इंतजाम कागजी तौर पर इतने ठोस हैं कि सरकार भी सीबीआई के मुखिया को ना तो अपनी मर्जी से पद से हटा सकती है और ना ही उसके दो वर्ष के तयशुदा कार्यकाल की सीमा में कोई फेरबदल कर सकती है। चुंकि सीबीआई के मुखिया की नियुक्ति में प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शामिल होते हैं लिहाजा ये तीनों मिलकर ही इस संस्था में कोई फेरबदल कर सकते हैं। ऐसे किलानुमा स्वायत्तता की व्यवस्था के बाद अगर संस्था के दो शीर्षतम अधिकारी आपस में लड़ जाएं, दोनों एक-दूसरे को भ्रष्ट व रिश्वतखोर साबित करने में जुट जाएं और दोनों की यह लड़ाई अदालत की दहलीज तक पहुंच जाए तो मामले की असाधारण संगीनता का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। संस्था भी वह जो कि देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी हो। ऐसे में दांव पर सिर्फ उस संस्था की साख ही नहीं लगती बल्कि देश की प्रतिष्ठा और सरकार की प्रशासनिक क्षमता भी सवालों के घेरे में आ जाती है। लिहाजा जब सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना ने लंबे समय से जारी अपने शीतयुद्ध को सार्वजनिक तौर पर आर-पार की लड़ाई में तब्दील करने की पहलकदमी कर दी तो सरकार के लिये मूकदर्शक बन कर तमाशा देखते रहना नामुमकिन हो गया। हालांकि इन दोनों के बीच लंबे समय से जारी शीतयुद्ध की सरकार अंतिम वक्त तक अनदेखी ही करती रही। ना तो वर्मा द्वारा अस्थाना की पदोन्नति का विरोध किये जाने का गंभीरता से संज्ञान लिया गया और ना ही अस्थाना द्वारा वर्मा के खिलाफ की जाने वाली शिकायतों को कभी विशेष महत्व दिया गया। सरकार साक्षी भाव से तटस्थ और निष्पक्ष ही बनी रही। लेकिन बात जब एफआईआर दर्ज कराने और अस्थाना की गिरफ्तारी की संभावना तक पहुंच गई तब कुछ ऐसा बच ही नहीं गया जिसकी अनदेखी की जा सके। बात केवल इन दोनों की आपसी लड़ाई की नहीं बल्कि मामला सीबीआई की साख का हो गया जिस पर यह तोहमत लग रही थी कि अपराधियों से रिश्वत लेकर सीबीआई के शीर्ष अधिकारी जांच को बाधित करते हैं और मुजरिमों को राहत पहुंचाते हैं। ऐसे में यह मानना पड़ेगा कि सीमित विकल्पों के बावजूद सरकार ने जो प्रभावी कदम उठाए उससे बेहतर और कुछ भी नहीं हो सकता था। हालांकि इन दोनों की लड़ाई में कौन पीड़ित-प्रताड़ित है और कौन साजिशकर्ता मास्टरमाइंड इसका फैसला तो समुचित व निष्पक्ष जांच के बाद ही होगा। लेकिन फिलहाल सरकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती थी सीबीआई की साख को बरकरार रखना, संस्था के काम को प्रभावित होनेे से बचाना और निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करना। इन चुनौतियों से निपटने के लिये सरकार ने ना सिर्फ कार्रवाई में निष्पक्षता सुनिश्चित की बल्कि दोनों के साथ एक-बराबर सलूक करते हुए पूरे मामले को निर्णायक परिणति तक पहुंचाने का प्रभावी इंतजाम भी कर दिया। सरकार ने लंबी छुट्टी पर भेजा तो दोनों को भेजा। एसआईटी से दोनों की बराबर जांच कराने की बात कही गई। दोनों के कार्यालय को एक बराबर तरीके से खंगाला गया और उसमें संस्था के किसी तीसरे को घुसने की इजाजत नहीं दी गई। सीबीआई की कमान भी नंबर तीन कहे जानेवाले नागेश्वर राव को सौंपी गयी जिन्होंने दोनों द्वारा नियुक्त किये गये उनके करीबी अधिकरियों का थोक के भाव में तबादला सुनिश्चित किया। यानि समग्रता में देखें तो विवश होकर सरकार द्वारा सीबीआई में किये गये हस्तक्षेप को किसी भी लिहाज से कतई पक्षपातपूर्ण नहीं कहा जा सकता है। ऐसे में बेहतर होता कि सरकार द्वारा विवशता में उठाए गए इस कदम का एहतराम और सम्मान किया जाता। लेकिन चुनावी वर्ष होने के कारण हर मामले का राजनीतिक पहलू उभारने और सरकार की शासन व प्रशासन क्षमता पर उंगली उठाकर अपनी राजनीति चमकाने का मौका भला कोई कैसे हाथ से जाने दे सकता है। तभी तो वर्मा को सीबीआई का निदेशक बनाये जाने का विरोध करनेवाले अब उन्हें लंबी छुट्टी पर भेजे जाने का भी विरोध कर रहे हैं। विरोध कभी इस स्तर का कि वर्मा के कांधे पर बंदूक रखकर सवोच्च न्यायालय से ऐसा कारतूस हासिल करने का प्रयास किया जा रहा है जिससे सरकार की पगड़ी पर सीधा निशाना दागा जा सके। कांग्रेस तो एक कदम और आगे बढ़ गई और उसने सीबीआई की साख बचाने के लिये सरकार द्वारा उठाए गए कदमों को असंवैधानिक व नियमों के खिलाफ बताते हुए पूरे मामले को राफेल सौदे से जोड़ दिया। जबकि यह सामान्य समझ की बात है कि आखिर राफेल खरीद के मामले से सीबीआई का क्या संबंध हो सकता है? सीबीआई को जब ना तो सरकार ने और ना ही अदालत ने राफेल सौदे की जांच के लिये अधिकृत किया है तो यह कहना वाकई मजाकिया ही है कि राफेल की जांच करने का प्रयास करने के कारण वर्मा पर सरकार का नजला गिरा है। खैर इश्क, जंग और सियासत में जो ना हो जाए वह कम है। वैसे अगर एक मिनट के लिये यह मान भी लिया जाए कि सरकार ने पूरे मामले में बहुत ही गलत किया है तो समस्या गिनाने वालों को कोई ऐसा समाधान भी बताना चाहिये ताकि सीबीआई की साख भी सलामत रहे, दोषियों की पहचान भी हो और निर्दोष को प्रताड़ना से भी बचाया जा सके? ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

‘नहीं होने का सवाल ही नहीं था अकबर का इस्तीफा’

इतिहास गवाह है कि किसी भी बड़े आंदोलन की शुरूआत के वक्त उसका उपहास ही होता है। लोग मजाक उड़ाते हैं, फब्तियां कसते हैं और कटाक्ष करते हैं। लेकिन इस शुरूआती प्रतिरोध को झेल कर आंदोलन आगे बढ़ जाए तो फिर उसकी अनदेखी की जाने लगती है। जब अनदेखी से भी आंदोलन की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता तो अनर्गल प्रलाप करके उसके नकारात्मक पहलुओं को जोर-शोर से उजागर करने का प्रयास किया जाता है। लेकिन इस आखिरी चुनौती से भी आंदोलन टूटता या डिगता नहीं है तो फिर धीरे-धीरे उसके पक्ष में जन-स्वीकार्यता का माहौल बनने लगता है। वही इतिहास महिलाओं के आंदोलन ‘मी-टू’ के साथ भी दोहराया गया है। पहले तो आंदोलन का भरपूर मजाक बनाया गया और पीड़िताओं के प्रति अशोभनीय टिप्पणियां की गईं। बाद में मी-टू के मामलों की अनदेखी भी की गई ताकि ये कहानियां आई-गई होकर समाप्त हो जाएं। यहां तक मामलों को सांप्रदायिक रंग देने और राजनीतिक तौर पर विभाजित करने की भी कोशिश हुई। लेकिन जब तमाम प्रतिरोधों को झेल कर भी पीड़िताएं अड़ी रहीं, डटी रहीं और पीछे नहीं हटीं तो अब उन्हें समाज से स्वीकृति, सहानुभूति और सहयोग भी मिलने लगा है। मी-टू को पहला समर्थन फिल्म इंडस्ट्री से मिला जहां उन लोगों को हाशिये पर धकेला जाने लगा है जिन पर महिलाओं का शोषण करने के आरोप लगे हैं। उसके बाद न्यूज इंडस्ट्री ने मी-टू पीड़िताओं के पक्ष में खड़े होने की पहल की। तमाम खबरिया संस्थानों में उन लोगों को लंबी छुट्टियों पर भेजा जा रहा है और नौकरी से बर्खास्त किया जा रहा है जिन पर महिलाओं ने छेड़छाड़, उत्पीड़न या यौन शोषण के आरोप लगाए हैं। सामाजिक मूल्यों के प्रति अपनी नैतिक प्रतिबद्धता का प्रदर्शन करने के क्रम में स्वतः स्फूर्त तरीके से पीड़ित महिलाओं के साथ हमदर्दी और सहबद्धता दिखाते हुए अब राजनीतिक दल भी मी-टू के मामलों को लेकर सजग हुए हैं और विपक्ष से लेकर सत्तापक्ष तक ने मामलों का संज्ञान लेते हुए ठोस कार्रवाई आरंभ कर दी है। इसी के नतीजे में पहले युवक कांग्रेस यानि एनएसयूआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष फिरोज खान से इस्तीफा लिया गया और अब केन्द्रीय विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर को अपने पद से त्याग पत्र देने के लिये विवश किया गया है। हालांकि इन दोनों मामलों को कांग्रेस और भाजपा के बीच नैतिकता की जंग में बढ़त लेने की प्रतिस्पर्धा के तौर पर नहीं देखा जा सकता। बल्कि सच तो यह है कि जिस दिन अकबर पर आरोप लगानेवाली महिलाएं सामने आ गईं उसी दिन भाजपा में रहते हुए अकबर के सार्वजनिक जीवन पर पूर्णविराम लग जाने की बात तय हो गयी। वैसे भी भाजपा का इतिहास रहा है कि महिलाओं के मामले में नाम आने के बाद किसी भी कद या पद के नेता पर कठोरतम कार्रवाई करने में हिचक नहीं दिखाई गई है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण संजय जोशी हैं जिनकी कथित सेक्स सीडी सामने आने के फौरन बाद उन्हें ना सिर्फ केन्द्रीय संगठन महामंत्री के पद से बल्कि पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से भी निष्कासित कर दिया गया। हालांकि बाद में इस बात का सबूत भी सामने आ गया कि जो सीडी संजय जोशी की बतायी जा रही थी उसमें दिख रहे महिला-पुरूष आपस में पति-पत्नी थे। लेकिन इसके बाद भी जोशी को मुख्यधारा की राजनीति में वापसी करने का मौका नहीं दिया गया। इसी प्रकार मेघालय के राज्यपाल के खिलाफ जब राजभवन की महिला कर्मचारियों ने प्रधानमंत्री कार्यालय में शिकायत भेजी तो तत्काल कार्रवाई करते हुए उन्हें पद से हटा दिया गया और अब शायद ही किसी को पता हो कि इन दिनों संघ और भाजपा की सेवा में अपना पूरा जीवन खपा देनेवाले वी. षणमुगनाथन कहां और किस हाल में निर्वासित एकाकी जीवन बिता रहे हैं। मध्यप्रदेश के वरिष्ठ नेता व वित्तमंत्री राघवजी पर जब यौन-उत्पीड़न करने का आरोप लगा तो उन्हें भी किनारे लगा दिया गया। ऐसा ही नाम तरूण विजय का भी है जिन पर शहला मसूद नामक महिला के साथ अंतरंग संबंध रखने का आरोप लगा तो उन्हें सक्रिय राजनीति से बाहर फेंक दिया गया। बताया तो यहां तक जाता है कि पार्टी के संगठन मंत्री राम माधव को केवल इसी वजह से राज्यसभा में नहीं भेजा गया क्योंकि उन पर कुछ आपत्तिजनक इल्जामों की अफवाह उड़ गयी थी। यूपी का सह-प्रभारी रहते हुए भाजपा को लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक सफलता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले रामेश्वर चैरसिया की कहानी भी कुछ इसी प्रकार की बतायी जाती है। यानि कहने का तात्पर्य यह कि अनैतिक संबंधों के आरोपों को लेकर भाजपा हमेशा ही संवेदनशील रही है और आरोपी नेताओं के खिलाफ कठोरतम कार्रवाई करती रही है। भले ही आरोपी संगठन में सबसे ताकतवर ओहदे पर विराजमान संजय जोशी सरीखा राष्ट्रीय महामंत्री ही क्यों ना हो। ऐसे में जब कभी ना कभी विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर की करतूतों से आहत होने वाली बीसियों महिलाएं सामने आकर आरोप लगा रही थीं तब यह कल्पना से भी परे था कि भाजपा संगठन या मोदी सरकार में किसी भी स्तर पर  उनका बचाव किया जाएगा। वैसे भी जब सुषमा स्वराज और मेनका गांधी से लेकर से लेकर स्मृति ईरानी तक ने ही नहीं बल्कि आरएसएस में नंबर दो ही हैसियत रखनेवाले दत्तात्रेय होसबोले ने भी मी-टू मूवमेंट को खुल कर सराहने में कसर नहीं छोड़ी तब सिर्फ इंतजार ही बाकी था कि अकबर खुद पद छोड़ेंगे या धक्का देकर हटाए जाएंगे। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

‘देने में दिक्कत मगर लेने को लालायित’

कहते हैं कि समूचा संसार लेन-देन पर ही टिका हुआ है। ग्रंथों में पुनर्जन्म और कर्म-फल का जो सिद्धांत बताया गया है वह भी व्यवहारिक तौर पर लेन-देन से ही जुड़ा हुआ है। लिहाजा बात चाहे व्यक्ति की हो या प्रकृति की। लेन-देन में संतुलन बनाए रखना आवश्यक भी है, अपेक्षित भी और अनिवार्य भी। लेकिन प्रकृति के इस सनातन सत्य को झुठलाने में जुटे हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल। वे सिर्फ लेना चाहते हैं, लेकिन बदले में कुछ देना उन्हें कतई गवारा नहीं होता। हालांकि यह इंसानी फितरत है कि जहां से उसे पाने की उम्मीद होती है वहां पूरी झोली खोलकर बैठ जाता है लेकिन जब देने की बारी आती है तो जेब में बटुआ इस बुरी तरह अटक जाता है कि निकाले नहीं निकलता। लेकिन फिर भी लोग कुछ पाने के लिये कुछ ना कुछ देते ही हैं। बेशक मन मसोसकर, पूरी तरह जांच परख कर और जमकर मोल-भाव करने के बाद ही सही। लेकिन केजरीवाल की रीत उल्टी है। उनकी नीति तो यही दिखाई पड़ती है कि अव्वल तो किसी को कुछ नहीं देना और जिससे कुछ पाना है उसे तो निश्चत ही कुछ भी नहीं देना। मिसाल के तौर पर केजरीवाल साहब अपनी आम आदमी पार्टी का राष्ट्रीय स्तर पर प्रसार करने के लिये बुरी तरह लालायित हैं। खास तौर से उत्तर प्रदेश पर उनकी पैनी नजरें गड़ी हुई हैं। हो भी क्यों ना। आखिर लोकसभा का चुनाव लड़ने वे भी तो पहुंचे ही थे वाराणसी। लेकिन उसमें मिली हार की टीस आज भी कहीं ना कहीं उनके दिल को कचोट रही होगी। तभी अब वे संभल कर काम कर रहे हैं। फिलहाल उनकी पार्टी की सक्रियता दिल्ली से सटे पश्चिमी यूपी के इलाकों में अधिक देखी जा रही है। इनकी दिली-ख्वाहिश है कि दिल्ली वालों की तरह इस इलाके के लोग भी इन्हें ही अपना नेता मानें और इनकी ही पार्टी के पक्ष में मतदान करें। लेकिन इसके बदले में वे यहां के लोगों को कुछ भी नहीं देना चाहते। यहां तक कि इन इलाकों के लोगों को पहले से ही दिल्ली में पढ़ाई और दवाई की जो सहूलियत मिली हुई उस पर भी इन्होंने अंकुश लगा दिया। बकायदा सरकारी आदेश जारी कर दिया गया कि दिल्ली सरकार के अस्पतालों में दिल्ली के मतदाताओं को ही इलाज में प्राथमिकता दी जाए और इसके अलावा किसी को भी मुफ्त जांच, दवा या भर्ती की सहूलियत ना दी जाए। चुंकि यह आदेश यूपी से सटे दिल्ली के कड़कड़डूमा इलाके में स्थित गुरू तेगबहादुर अस्पताल में भी लागू हुआ जिसकी सीधी मार पश्चिमी यूपी के लोगों पर ही पड़ी क्योंकि उनके पास दिल्ली का मतदाता पहचान पत्र नहीं होने के कारण पहले से चल रहा इलाज भी रोक दिया गया। खैर, गनीमत रही कि अब दिल्ली उच्च न्यायालय ने राजधानी को मिनी इंडिया का नाम देते हुए यहां इस तरह के तुगलकी फरमानों को लागू करने से इनकार कर दिया है। लेकिन अदालत के इस इनकार के बावजूद केजरीवाल सरकार यूपी के लोगों को चिकित्सा की सहूलियत से वंचित करने के लिये अब सुप्रीम कोर्ट का रूख करने की बात कह रही है। यानि यूपी के लोगों से उन्हें अपेक्षाएं तो भरपूर हैं लेकिन स्वेच्छा से सुई के नोंक बराबर सहूलियत देना भी गवारा नहीं है। खैर, उनके इस कदम को दिल्ली वालों के हित में बताकर मामले के दूसरे पहलू को उजागर किया जा सकता है। लेकिन वह भी तब किया जा सकता था जब वे दिल्ली के लोगों को ही सरकारी खजाने से कुछ सहूलियत देना गवारा करते। इस लिहाज से देखें तो केजरीवाल की रीति-नीति की कलई तेल के खेल में पूरी तरह खुल गई है। दरअसल बीते दिनों दिल्ली, यूपी, पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ की एक संयुक्त बैठक हुई जिसमें तय हुआ कि इन पांचो जगह डीजल-पेट्रोल की कीमतें एक समान की जाएंगी ताकि आम लोगों को राहत मिल सके। लेकिन जब केन्द्र सरकार ने डीजल-पेट्रोल की कीमतों में ढ़ाई रूपए की कटौती करते हुए राज्य सरकारों से भी ढ़ाई रूपये की कमी करने की गुजारिश की तो बाकी राज्यों ने तो लोगों को पांच रूपये प्रति लीटर की राहत दे दी लेकिन केजरीवाल सरकार ने अपनी ओर से लोगों को राहत देने के बजाय ऐसा शगूफा छोड़ दिया जिससे लगे कि वह आम लोगों को राहत दिलाने के लिये बुरी तरह परेशान है। केजरीवाल ने केन्द्र की ओर से की ढ़ाई रूपये की कटौती को नाकाफी बताते हुए मांग कर दी कि उसे कम से कम दस रूपये प्रति लीटर की कटौती करनी चाहिये। अपनी ओर से वैट में कटौती करने के बजाय वे चारों ओर ढ़ोल बजाते फिर रहे हैं कि केन्द्र ने लोगों को बेवकूफ बनाया है वर्ना अगर वाकई उसे लोगों की परवाह होती तो वह ढ़ाई के बजाय दस रूपये की कटौती करता। यानि देना कुछ नहीं और गाल बजाना जोर-शोर से। देने के नाम पर तो उनके हाथ तो दिल्ली के उन सफाई कर्मचारियों का वेतन भी आसानी से नहीं निकलता जिनकी पहचान यानि झाड़ू को इन्होंने अपनी पार्टी का चुनाव निशान बनाया हुआ है। नतीजन आए दिन यहां कूड़ा-कचरा उठानेवालों की हड़ताल होती रहती है और पूरी राजधानी सड़ांध मारते कूड़े का ढ़ेर दिखाई पड़ती है। लेकिन मसला है कि केजरीवाल को समझाए कौन? क्योंकि वह ऐसे समुदाय से आते हैं जो किसी को गाली देने से पहले भी सौ-बार सोचता है कि- देना क्यूं?  ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2018

‘भूमि परा कर गहत अकासा’ की स्थिति में बसपा


कहते हैं कि जिसके पास खोने के लिये कुछ नहीं होता उसके सामने पाने के लिये सारा जहान होता है। यही स्थिति है बसपा सुप्रीमो मायावती की। आखिर बचा ही क्या है उनके पास खोने के लिए? लोकसभा में पिछली बार ही बसपा का पूरी तरह सफाया हो गया था। इस बार सूबे की विधानसभा में भी हाथी की सवारी करके महज 19 विधायक ही जीत दर्ज कराने में कामयाब हो पाए हैं। सच पूछा जाए तो वर्ष 2007 के चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग के दम पर 206 सीटें जीत कर सूबे में अपनी सरकार बनाने वाली बसपा का बेड़ा तो 2012 के विधानसभा चुनाव में ही गर्क हो गया जब उसे महज 80 सीटों पर ही जीत नसीब हुई और 126 सीटें उसके हाथों से फिसल गईं। लेकिन वहां से संभलने के बजाय बसपा का हाथी चुनावी दलदल में नीचे की ओर ही धंसता चला गया और इस बार के विधानसभा चुनाव में तो उसे सिर्फ 19 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। यानि अब बसपा के पास गंवाने के लिये कुछ नहीं बचा है। कुछ नहीं बचने का मतलब वाकई पल्ले में कुछ नहीं होना ही है क्योंकि अपने मौजूदा विधायकों की तादाद के दम पर बसपा राज्यसभा की एक भी सीट नहीं जीत सकती। लेकिन संसद या विधानसभा में सीटों की तादाद की बात अलग कर दें तो जमीन पर बसपा की स्थिति उतनी प्रतिकूल नहीं है। बीते लोकसभा चुनाव में बसपा ने भले ही एक भी सीट ना जीती हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर चार फीसदी से अधिक और यूपी में भी बीस फीसदी से अधिक वोट हासिल करके जनाधार के मामले में वह देश की तीसरी सबसे ताकतवर पार्टी के तौर पर सामने आई। इसी प्रकार यूपी विधानसभा के लिये पिछले साल हुए चुनाव में भी बसपा के खाते में सवा बाईस फीसदी वोट आए। यानि इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद बसपा का परंपरागत वोटबैंक लगातार उसके साथ पूरी तरह जुड़ा हुआ है लिहाजा पार्टी को शून्य या समाप्त मान लेना कतई उचित नहीं होगा। ऐसे में बसपा के पास दो विकल्प हैं। या तो वह महा-गठजोड़ में शामिल होकर अपनी वापसी के लिये सुरक्षित राह अपनाए जिसमें सीमित तादाद में सीटों पर लड़ने के बावजूद उसके पास सम्मानजनक संख्या में सीटें जीतने की संभावना बन सकती है। लेकिन इस विकल्प पर अमल करने के नतीजे में उसे केन्द्र की राजनीति में अग्रिम मोर्चे पर आने का लोभ-मोह छोड़ना होगा और कांग्रेस का हाथ मजबूत करने में सहभागी बनना होगा। लेकिन दूसरा विकल्प यह है कि बसपा ‘तूफानों से आंख मिलाए, सैलाबों पर वार करे, मल्लाहों का चक्कर छोड़े, तैर कर दरिया पार करे।’ फिलहाल बसपा ने दूसरे विकल्प को आजमाने की ही राह पकड़ी है ताकि अपने बाजुओं की ताकत को तौलने और जमीनी स्तर पर बह रही हवाओं की दशा-दिशा का ठोस आकलन करने के बाद ही लोकसभा चुनाव के लिये निर्णायक रणनीति बनाई जाए। इसी वजह से पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसने कांग्रेस से किनारा करके अपनी अलग राह पकड़ी है। खास तौर से उसे संभावना टटोलनी है मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जहां उसने तीसरी ताकत के तौर पर उभरने का लक्ष्य निर्धारित किया है। अब तमाम संभावनाएं इस बात पर टिकी हैं कि जमीनी स्तर पर भाजपा की मजबूती यथावत बरकरार है अथवा मतदाता विकल्प की तलाश में हैं। अगर विकल्प की तलाश के प्रति मतदाताओं का रूझान सामने आया तो कांग्रेस और भाजपा के साथ समानांतर दूरी कायम करके चलना ही बसपा के लिये मुनासिब होगा। वैसे भी मतदाताओं द्वारा विकल्प की तलाश किया जाना तीसरी ताकतों के लिये बेहद शुभ संकेत होगा क्योंकि इससे लोकसभा चुनाव में खंडित जनादेश आने की संभावना प्रबल हो जाएगी। हालांकि बसपा इकलौती पार्टी नहीं है जो खंडित जनादेश का सपना देख रही है और केन्द्र में मजबूर सरकार बनने की दुआ कर रही है। बल्कि एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी दलों से लेकर टीडीपी तक की ख्वाहिश यही है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेसनीत संप्रग और भाजपानीत राजग में से जो भी आगे निकले उसका सफर अधिकतम डेढ़-सौ से दौ-सौ सीटों के बीच ही ठहर जाए। ऐसी सूरत में तीसरी ताकतों को आगे आने का सुनहरा मौका मिलेगा और उसमें भी जिसकी जितनी संख्या भारी होगी उसकी उतनी ही प्रबल दावेदारी होगी सत्ता की मलाई में अधिकतम हिस्सेदारी की। इसी सोच के तहत कांग्रेस और भाजपा से अलग हटकर कई धाराएं अपनी दिशा तलाश रही हैं जिसमें मायावती से लेकर ममता बनर्जी और शरद पवार का नाम मुख्य रूप से शामिल है। चुंकि मायावती के पास फिलहाल खोने के लिये कुछ भी नहीं बचा है लिहाजा अगर वह ‘भूमि परा कर गहत अकासा’ यानि जमीन से उठकर पूरे आसमान को पकड़ने का प्रयास कर रही है तो इसमें कुछ भी गलत या अस्वाभाविक नहीं है। वैसे भी मौजूदा राजनीतिक हालातों में बसपा के पास दोबारा सोशल इंजीनियरिंग की उस रणनीति को आजमाने का मौका है जिसके दम पर उसने पिछले दशक में यूपी में अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। अगर यह रणनीति कामयाब रही तो तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने का बसपा के पास इस बार बेहतरीन मौका है जिसे सिर्फ अपने अस्तित्व पर आए तात्कालिक खतरे से डर कर गंवाना किसी भी लिहाज से कतई उचित नहीं होगा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur