क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाएं राष्ट्रीय दलों को किस कदर हैरान व परेशान करती रही हैं यह सर्व-विदित ही है। तभी तो मोदी-शाह की जुगल जोड़ी के राष्ट्रीय राजनीति में प्रादुर्भाव से पूर्व गठबंधन सरकारों के दौर में लालकृष्ण आडवाणी को एक जनसभा में औपचारिक तौर पर मतदाताओं से अपील करनी पड़ी थी कि वे भाजपा को वोट नहीं देना चाहें तो बेशक ना दें लेकिन किसी क्षेत्रीय पार्टी को वोट देने से बेहतर होगा कि वे कांग्रेस को अपना वोट दे दें। जाहिर तौर पर इस आह्वान के पीछे आडवाणी का वह दर्द ही छिपा हुआ था जो अटल युग में गठबंधन की सरकार चलाने के दौरान भाजपा को क्षेत्रीय दलों से मिला था। हालांकि अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर पाने वालों क्षेत्रीय दलों के समर्थन से ही मजबूती मिलती है लेकिन इसके एवज में जो कीमत चुकानी पड़ती है उसका दर्द ऐसा होता है कि सहा भी ना जाए और किसी से कहा भी ना जाए। इन दिनों ऐसा ही दर्द भाजपा को भी झेलना पड़ रहा है जिसने लोकसभा में हासिल पूर्ण बहुमत के ताव में बीते साढ़े चार सालों तक अपने समर्थक दलों को मनमर्जी से हाथ उठाकर जो भी दे दिया वे उससे ही संतुष्टि जताते रहे और सही मौके का इंतजार करते रहे। किसी ने उफ तक नहीं की और कोई ऐसी मांग भी सामने नहीं रखी जिससे वह भाजपा की नजरों में खटक जाए। लेकिन अब आगामी आम चुनावों की नजदीकियों को देखते हुए राजग के घटक दलों में असंतोष भी उभरने लगा है और उनकी महत्वाकांक्षाएं भी कुलाचें मारने लगी हैं। ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि भाजपा को अगर दोबारा सत्ता में आना है तो उसे इनको अपने साथ लेकर चलना ही होगा। लेकिन इन दलों के सामने ऐसी कोई विवशता नहीं है। सरकार भाजपा बनाये या कांग्रेस अथवा कोई अन्य मोर्चा। इनकी ख्वाहिश तो बस इतनी ही है कि जो भी सरकार बने वह मजबूर बने। तभी उसे मजबूती देने के एवज में इनकी दसों उंगलियां घी में होंगी और सिर कढ़ाही में। वर्ना अभी की तरह दया से हासिल खैरात पर ही निर्भर रहकर उन्हें पिछलग्गू बनकर चलना होगा और सरकार का जयकार करना होगा। खैर, अभी यह कहना तो जल्दबाजी होगी कि आगामी सरकार मजबूत बनेगी या मजबूर। लेकिन दोनों ही सूरतों के लिये अपनी मजबूती सुनिश्चित करने के मकसद से तमाम क्षेत्रीय दलों ने अभी से अपनी तैयारियां तेज कर दी हैं। इसी सिलसिले में जिस तरह से बसपा ने कांग्रेस की बांह मरोड़ी हुई है उसी प्रकार राजग के घटक दलों ने भी भाजपा की सींग पकड़ कर उसे नाच नचाना शुरू कर दिया है। इन दलों का साफ तौर पर कहना है कि वे गठबंधन में तभी शामिल होंगे जब उनकी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति की जाएगी और सम्मानजनक संख्या में सीटें आवंटित की जाएंगी। यानि इन दलों का विकल्प खुला हुआ है कि जिधर अधिक मान-सम्मान मिलेगा और भविष्य सुनिश्चित दिखाई देगा उधर कूच करने में ये कतई देर नहीं लगाएंगे। इसके लिये दबाव बढ़ाने की शुरूआत जदयू ने की तो भाजपा ने उसे बिहार में अपने बराबर सीटें देने का वायदा करके उसे मना लिया। लेकिन जदयू से समझौता होने के बाद से रालोसपा और लोजपा फैल गए हैं। लोजपा ने ना सिर्फ अपनी जीती हुई तमाम सीटों पर दावा ठोंक दिया है बल्कि उसने अपने शीर्षतम नेता रामविलास पासवान के लिये भाजपा से राज्यसभा की सीट भी मांगी है। इसके अलावा कांग्रेस छोड़कर लोजपा में शामिल हुए मणिशंकर पांडेय के लिये पार्टी ने यूपी में भी हिस्सेदारी मांगी है। उधर रालोसपा ने भी साफ कर दिया है कि पिछली बार की तरह उसे बिहार की तीन लोकसभा सीटें नहीं दी गई तो वह गठबंधन से बाहर निकलने के विकल्पों पर भी विचार कर सकती है। भाजपा पर दबाव बढ़ाने के लिये रालोसपा ने मध्य प्रदेश की 66 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार भी उतार दिये हैं। बताया जाता है कि लोजपा और रालोसपा को लपकने के लिये राजद की अगुवाई वाला महागठबंधन भी जुगत बिठा रहा है और इन दोनों दलों को भाजपा द्वारा आवंटित की गई सीटों से अधिक सीटें देने का प्रलोभन भी दिया जा रहा है। दूसरी ओर यूपी में अपना दल हो या सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी। दोनों की ओर से भाजपा पर अधिकतम सीटों का पुरजोर दबाव है। इसी प्रकार शिवसेना भी भाजपा पर इस बात के लिये दबाव बनाए हुए है कि महाराष्ट्र में उसे अधिकतम सीटें आवंटित की जाएं और गुजरात, गोवा व मध्य प्रदेश में भी उसे हिस्सेदारी दी जाए। वर्ना आगामी चुनाव में अपनी खिचड़ी अलग पकाने का ऐलान तो पहले ही किया जा चुका है। ऐसी ही मांगें बाकी दलों की ओर से भी आगे की जा रही हैं और स्थिति यह है कि भाजपा के लिये राजग को पिछले चुनाव की शक्ल में बरकरार रख पाना भारी सिरदर्दी का सबब बनता जा रहा है। वैसे भी बिहार, पंजाब, दिल्ली और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों और यूपी के गोरखपुर व फूलपुर सरीखे गढ़ों के उपचुनावों ने यह तो बता ही दिया है कि ना तो मोदी की कोई राष्ट्रव्यापी लहर चलनेवाली है और ना ही भाजपा अपने दम पर अजेय हो सकती है। ऐसे में भाजपा की विवशता है सबको साथ लेकर चलने की और उसकी इस विवशता का अधिकतम दोहन करने से भला कोई क्यों पीछे रहे? ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
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