सोमवार, 23 नवंबर 2015

‘बैठे-बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना’

नवकांत ठाकुर
‘साया बनकर साथ चलेंगे इसके भरोसे मत रहना, अपने हमेशा अपने रहेंगे इसके भरोसे मत रहना, सूरज की मानिंद सफर पर रोज निकलना पड़ता है, बैठे-बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना।’ मौजूदा दौर के सियासी समीकरणों को जहन में रखते हुए देखें तो हस्तीमल हस्ती द्वारा लिखी गयी इस गजल का हर मिसरा कांग्रेस को ही संबोधित किया गया महसूस होता है। वाकई इन दिनों कांग्रेस की हालत बेहद अजीब हो गयी है। कहां तो इसे केन्द्र से लेकर सूबायी स्तर तक पनप रहे सियासी दलों के भाजपा विरोधी महामिलाप के केन्द्र में होना चाहिये था लेकिन स्थिति यह है कि उसे इन महामिलापों की मजबूत नाकेबंदी से हासिल चुनावी सफलता में मामूली सी हिस्सेदारी हासिल करके ही संतुष्ट रह जाने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है। उसमें भी दुर्गति की पराकाष्ठा यह है कि यूपी सरीखे सूबे में जारी महामिलाप की कवायदों में सम्मानजनक साझेदारी के बजाय हासिल हो रहे दुत्कार के जहर को भी चुपचाप बर्दाश्त करने के अलावा उसे कोई दूसरी राह ही नजर नहीं आ रही है। सच पूछा जाये तो संसद से लेकर सड़क तक ही नहीं बल्कि क्षेत्रीय दलों की मजबूत मौजूदगी से महरूम कुछ गिने-चुने सूबों के अलावा तमाम प्रदेशों में कांग्रेस को कमोबेश ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। जिस बिहार में हासिल जीत के दम पर पार्टी में नयी संजीवनी का संचार हुआ है वहां भी अव्वल तो उसे राजद व जदयू के बीच हुई कड़ी सौदेबाजी में बची हुई सीटों का प्रसाद ही चुपचाप सहन करना पड़ा और उसके कोटे की अधिकांश सीटों पर लालू के कितने ‘लाल’ लड़े वह भी सर्वविदित ही है। यहां तक कि चुनाव प्रचार में भी राजद-जदयू के शीर्ष नेतृत्व ने कांग्रेस के साथ निर्धारित दूरी बदस्तूर कायम रखी और नितीश कुमार के शपथग्रहण समारोह को जिस तरह से राष्ट्रीय राजनीति में प्रधानमंत्री पद के नये दावेदार की ताजपोशी का स्वरूप दिया गया उसका खामोश साक्षी बनने के अलावा अगर राहुल गांधी के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था तो इसे राष्ट्रीय राजनीति की उस नयी करवट का संकेत ही माना जाएगा जिसमें कांग्रेस की प्रसंगिकता हाशिये की ओर अग्रसर दिख रही है। बिहार चुनाव में जीत का डंका बजाने के फौरन बाद पहली प्रतिक्रिया में जब लालू ने बनारस आकर नरेन्द्र मोदी के कामकाज के दावों की पोल-पट्टी खोलने का ऐलान किया तो सपा के शीर्ष संचालक परिवार ने छूटते ही यह स्पष्ट कर दिया कि काशी में अपने समधी के स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी। यानि सपा की समस्या किसी अन्य भाजपाविरोधी दल से नहीं है। परेशानी है तो सिर्फ कांग्रेस से ही है क्योंकि उसे बेहतर पता है कि अगर कांग्रेस को दुबारा पनपने का मौका दिया गया तो भविष्य में वह उसकी जमीन पर ही अपना झंडा गाड़ेगी। तभी तो मुलायम ने पूरी सख्ती के साथ यह एलान कर दिया है कि ना तो वे खुद कांग्रेस के साथ कोई राब्ता रखेंगे और ना ही किसी ऐसे के साथ सियासी सहचर्य कायम करेंगे जिसने अर्श की ओर उठने के लिये कांग्रेस को अपना कांधा उपलब्ध कराया हो। खैर, बिहार में तो अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे दलों की तिकड़ी में कांग्रेस को शामिल कर लिया गया जबकि यूपी में भी बहनजी के हाथी की पूंछ पकड़के वैतरणी पार करने का विकल्प उसके लिये खुला हुआ है लेकिन अगले साल होने जा रहे पांच राज्यों के चुनाव में ना तो पश्चिम बंगाल में उसे कोई अपने साथ जोड़ने के लिये तैयार है और ना ही तमिलनाडु या केरल में। यहां तक कि असम में अल्पसंख्यक मतदाताओं का नेतृत्व करनेवाले बदरूद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ से गठजोड़ करने में भी कांग्रेस को कई ऐसे समझौते करने पड़ सकते हैं जिस पर सिर्फ अफसोस ही जताया जा सकता है। यानि सतही तौर पर संसदीय सियासत में भले ही कांग्रेस काफी मजबूत नजर आ रही हो लेकिन अगर वह जमीन पर भाजपा विरोधी ताकतों का गुरूत्व केन्द्र बनने के बजाय अपने वजूद व वकार को पुनर्स्थापित करने के लिये स्थानीय व क्षेत्रीय दलों की कृपा की मंुहताज हो रही है तो निश्चित ही इस मामले की गंभीरता को कम करके आंकना कतई सही नहीं होगा। वह भी तब जबकि भाजपा की राह रोकने के लिये उसने किसी भी दल के साथ गठजोड़ करने का विकल्प पूरी तरह खुला रखा हुआ है। यानि समग्रता में देखा जाये तो अब लड़ाई सिर्फ ऐसे मोर्चे पर नहीं चल रही है जहां विरोधियों के बिखराव व टकराव के बीच महज 32 फीसदी वोटों के दम पर ही संसद में बहुमत जुटा लेनेवाली भाजपा के खिलाफ सब एकजुट हो रहे हैं बल्कि अब भाजपा व नरेन्द्र मोदी का विकल्प नहीं बन पाने के खामियाजे में कांग्रेस को ऐसे ध्रुवीकरण में हिस्सेदारी करनी पड़ रही है जहां उसकी स्थिति अवांक्षित रहबर की दिख रही है। हालांकि सूबायी सियासत में कमजोर निजी पैठ के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक विस्तार, प्रसार व फैलाव के दम पर केन्द्र में मजबूत मौजूदगी तो कांग्रेस की हर हालत में रहेगी बशर्ते राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का कोई नया विकल्प ना उभरे। लेकिन समस्या की जड़ में जाकर जूझने के बजाय प्रादेशिक स्तर पर परजीवी बनकर फलक के पताके का कलेवर बदलने की जद्दोजहद में ही उलझे रहने के नतीजे में भविष्य की चुनौतियों से निपटने में कांग्रेस को कितनी कामयाबी मिल पाएगी यह सवाल तो उठता ही है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

‘सड़क पर ही दिख रहा है संसद का भविष्य’

नवकांत ठाकुर
अगले सप्ताह से शुरू हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र में सरकार की कोशिश तो स्वाभाविक तौर पर यही रहेगी कि महज एक माह से भी कम अर्से के इस सत्र में अधिकतम विधेयकों को पारित करा लिया जाये ताकि मानसून सत्र में घुले-धुले कामकाज की यथासंभव भरपायी की जा सके। दूसरी ओर विपक्ष ने पहले ही यह स्पष्ट कर दिया है कि संसद को सुचारू ढंग से संचालित करने की जिम्मेवारी सरकार की है लिहाजा किन्ही कारणों से सत्र का कामकाज बाधित होने की पूरी जिम्मेवारी सत्तापक्ष की ही होगी। यानि विपक्ष ने संसद के संचालन में सरकार का सहयोग नहीं करने का अपना इरादा पहले ही जता दिया है। लिहाजा जब पूरी जिम्मेवारी सरकार पर ही आ गयी है तो लाजिमी है कि वह विपक्ष को संसद में शांति व सहयोग की सीधी राह पर लाने के लिये हरसंभव हथकंडा अपनाने से कतई गुरेज नहीं करेगी। तभी तो सत्तापक्ष ने साम-दाम-दंड-भेद सरीखी तमाम रणनीतियां अमल में लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। साम-नीति के तहत मान-मानौवल करके समझौते व सहमति की राह निकालने के लिये अरूण जेटली अपनी बिटिया की शादी में आमंत्रित करने के बहाने राहुल गांधी के घर भी गये जबकि दाम-नीति अपनाते हुए भूमि अधिग्रहण विधेयक में मनमाना बदलाव करने की जिद भी छोड़ दी गयी। इसके अलावा दंड-नीति पर अमल करते हुए राहुल पर लगे दोहरी नागरिकता व अघोषित विदेशी बैंकखाता रखने के आरोपों की पड़ताल शुरू कराने के अलावा शीर्ष कांग्रेसी परिवार के इकलौते दामाद राॅबर्ट वाड्रा पर लगे जमीन घोटाले के तमाम आरोपों की परतें भी उधेड़ी जा रही हैं और छह माह के भीतर ही उन्हें सलाखों के पीछे पहुंचा देने की धमकी भी दी जा रही है। साथ ही भेद-नीति के तहत कूटनीतिक वार से फूट डालकर विपक्ष को धराशायी करने के लिये सपा व राकांपा से लेकर अन्नाद्रमुक, बीजद, टीआरएस व तृणमूल कांग्रेस सहित कई छोटे-बड़े दलों को कथित तौर पर इस बात के लिये सहमत कर लिया गया है कि आगामी सत्र के दौरान संसद के कामकाज को बाधित करने के प्रयासों में वे कतई भागीदार ना बनें। यानि समग्रता में देखा जाये तो सत्तापक्ष ने पहले से ही तमाम तिकड़मों को अमल में लाते हुए संसद को बाधित करने के प्रयासों को धता बताने की पूरी तैयारी कर ली है। तभी तो तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों और कांग्रेस व वामपंथी दलों के पूर्वघोषित आक्रामक तेवरों के बावजूद सरकार की ओर से सीना ठोंककर यह विश्वास जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है कि शीतसत्र का हश्र हर्गिज मानसून सत्र सरीखा नहीं होगा और इसमें जीएसटी सरीखे तमाम महत्वाकांक्षी विधेयकों को अवश्य पारित करा लिया जाएगा। दूसरी ओर सरकार की उम्मीदों व कोशिशों को सदन के भीतर हंगामे व शोरशराबे में नाकाम करने की रणनीतियों के तहत विपक्षी ताकतों ने भी अभी से अपनी तमाम योजनाएं सार्वजनिक करने में कोई कोताही नहीं बरती है। इसी सिलसिले में कांग्रेस ने भाजपा की मातृसंस्था कही जानेवाली आरएसएस को अपने सीधे निशाने पर लेते हुए जहां एक ओर उसकी तुलना सिमी सरीखे प्रतिबंधित आतंकी संगठन से कर दी है वहीं दूसरी ओर देश में कथित तौर पर लगातार बढ़ रही असहिष्णुता के मसलों से लेकर सरकार की विदेशनीति, खाद्य पदार्थों की बढ़ती महंगाई व राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वियों के खिलाफ की जा रही दुर्भावनापूर्ण कानूनी कार्रवाई सरीखे मसलों को लेकर सड़क पर संघर्ष का औपचारिक बिगुल बजा दिया है। रहा सवाल सरकार द्वारा विपक्ष को डरा-धमकाकर संसद में सीधी व शांतिपूर्ण राह पर लाने की कोशिशों का तो इसके प्रति भी आक्रमण को ही बचाव के माकूल हथियार के तौर पर आजमाते हुए राहुल गांधी ने बेलाग लहजे में यह एलान कर दिया है कि वे डरनेवालों में से नहीं हैं और उनकी लड़ाई आगे भी जारी रहेगी अलबत्ता अगर सरकार में दम हो तो वह उनके खिलाफ जांच कराके उन्हें जेल में डालने की हिम्मत दिखाए। यानि कांग्रेस ने तो अपनी ओर से आर या पार की लड़ाई का खुला एलान कर दिया है जबकि साम-दाम-दंड-भेद के तमाम शस्त्रास्त्रों को नाकाम होता हुआ देखने के बाद सत्तापक्ष ने भी औपचारिक तौर पर दी गयी प्रतिक्रिया में साफ शब्दों में बता दिया है कि उसे जांच कराने की धमकी ना दी जाये क्योंकि 2जी, कोलगेट, राष्ट्रमंडल खेल व जमीन घोटाले से लेकर अवैध विदेशी बैंकखाते सरीखे मामलों सहित तमाम आरोपों की जांच पहले ही शुरू करा दी गयी है जिसमें जो भी दोषी पाया जाएगा उसे हर्गिज बख्शा नहीं जाएगा। यानि सड़क पर आर-पार की लड़ाई का एलान हो चुका है और देश की सीमाएं लांघकर कांग्रेस ने विश्व बिरादरी को यह संदेश प्रसारित कर दिया है कि मौजूदा सरकार के कार्यकाल में कुछ भी सकारात्मक होने की उम्मीद ना रखी जाये। इससे इतना तो स्पष्ट ही है कि सकारात्मक मसलों पर भी संसद में सरकार को विपक्ष का सहयोग मिलने की अब दूर-दूर तक कोई उम्मीद नहीं है। खैर, इस गतिरोध को तोड़ने के दिखावे में अब विभिन्न स्तरों पर सर्वदलीय बैठकों का दौर शुरू होना तो लाजिमी ही है लेकिन सड़क पर दिख रहे लड़ाई के स्वरूप से संसद के शीतसत्र की जो तस्वीर उभर रही है उससे यह पूरी तरह स्पष्ट है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत देश में लागू संसदीय शासन की मर्यादा, परंपरा व तकाजों के धुर्रे बिखरने का जो दुर्भाग्यपूर्ण सिलसिला मानसून सत्र में शुरू हुआ था वह बदस्तूर जारी ही रहनेवाला है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

‘हुआ है कत्ल तो कातिल भी होगा कोई जरूर’

नवकांत ठाकुर
इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि बिहार में भाजपा की उम्मीदों, अपेक्षाओं, सपनों व अरमानों का कत्ल तो हुआ ही है। जाहिर है कि अगर कत्ल हुआ है तो कोई कातिल भी होगा। ऐसा तो हो नहीं सकता कि बगैर किसी कातिल के ही कत्ल की वारदात हो जाये। ‘नो वन किल्ड जेसिका’ की परिकल्पना सिर्फ वाॅलीवुड ही कर सकता है। असल जिन्दगी में तो यह मुमकिन ही नहीं है। हालांकि इस पूरे मामले को अनजाने में हुई गलती के नतीजे में हुआ हादसा करार देकर भाजपा के शीर्ष रणनीतिकारों ने जिस तरह से इस पूरे अध्याय पर पूर्णविराम लगाने की पहल की है उसका सतही मतलब तो यही है कि पार्टी के शीर्ष संचालकों की नजर में इस पूरी घटना के लिये कोई जिम्मेवार ही नहीं है। लेकिन गहराई से देखा जाये तो पार्टी की शीर्ष नीतिनिर्धारक समिति कही जानेवाली पार्लियामेंट्री बोर्ड ने जिस तरह से सर्वसम्मति से यह स्वीकार किया है कि विरोधी पक्ष के एकजुट हो जाने के नतीजे में उनके वोटों का जिस भारी तादाद में परस्पर हस्तांतरण हुआ वह पार्टी की उम्मीदों के परे था और यही वजह रही कि जिस सूबे में लोकसभा चुनाव में उसे 40 में से 31 सीटें मिली थीं वहां इस दफा तमाम साथियों व सहयोगियों के साथ मिलकर भी विधानसभा की कुल 243 में से महज 58 सीटें ही हासिल हुईं जिसमें उसकी निजी हिस्सेदारी सिर्फ 53 की रही। यानि पार्लियामेंट्री बोर्ड ने भी दबे-ढंके लहजे में यह तो स्वीकार कर ही लिया है कि रणनीतिक स्तर पर काफी बड़ी गलती हुई है जिससे विरोधी खेमे को उम्मीदों से काफी अधिक वोट मिल गया। यानि संगठन के भीतर से निकले औपचारिक स्वरों ने सांसद भोला सिंह की कही उसी बात को प्रमाणिक माना है जिसके मुताबिक बिहार में पार्टी की उम्मीदों का कत्ल नहीं हुआ है बल्कि उसने आत्महत्या की है। लेकिन सवाल फिर वही खड़ा होता है कि अगर पार्टी ने आत्महत्या की है तो उसे ऐसा करने के लिये मजबूर किसने किया। खुशी से खुदकुशी तो कोई करता नहीं है। लिहाजा पार्टी की इस दशा के लिये कोई ना कोई तो जिम्मेवार होगा ही। लेकिन सवाल है कि इस वारदात की सर्वसम्मति से जिम्मेवारी तय कैसे की जाये। बुजुर्ग मार्गदर्शकों की राय में तो कातिल के शिनाख्त का काम उन्हें हर्गिज नहीं सौंपा जाना चाहिये जिन पर कत्ल का इल्जाम लग रहा हो। ऐसे में कातिल की पहचान का काम तो तब शुरू होगा जब पहले ऐसे चेहरों को तलाश लिया जाये जिनकी इस पूरे मामले में रत्ती भर भी भागीदारी ना हो। इस कसौटी पर तो निष्पक्ष पड़ताल में हर चेहरा दागदार ही नजर आ रहा है। जिन शीर्ष संचालकों पर पार्टी की नैया पार लगाने की जिम्मेवारी थी उनसे हुई चुक व गलतियों के बारे में तो ढ़ोल बज ही रहा है लेकिन कप्तान को ही हार के लिये जिम्मेवार साबित करने में जुटे खेमे की भी इस हार में कतई कम भूमिका नहीं रही है। मसलन, ऐन चुनाव से पहले लालकृष्ण आडवाणी द्वारा देश में दोबारा आपातकाल नहीं लगने का भरोसा देने से इनकार किये जाने की बात करें या यशवंत सिन्हा द्वारा बुजुर्गों के पक्ष में मोर्चा खोलते हुए मौजूदा निजाम की फजीहत किये जाने की। अरूण शौरी द्वारा मोदी सरकार को हर मोर्चे पर नाकाम बताये जाने से लेकर शत्रुघ्न सिन्हा द्वारा अपने शुभचिंतकों को भड़काने की कोशिशों को भी सामने रखकर देखा जाये तो मौजूदा निजाम को इस ताजा हार के लिये जिम्मेवार ठहराने की कोशिश करनेवालों की भी कहीं से भी कम जिम्मेवारी नजर नहीं आती है। खैर, समग्रता में देखें तो बिहार की करारी शिकस्त के लिये हर कोई दूसरों पर ही उंगली उठाने में जुटा हुआ है जबकि उसे यह नजर नहीं आ रहा कि उसकी खुद की एक उंगली भले ही किसी अन्य की ओर इशारा कर रही हों मगर शेष तीन उंगलियां उसकी खुद के करतूतों की ही गवाही दे रही हैं। वैसे भी जो शत्रुघ्न सिन्हा पूरे चुनाव के दौरान अपने संसदीय क्षेत्र में भी पार्टी का प्रचार करने के लिये निकलने के बजाय बाकी बतकहियों में मशगूल रहे हों, जो आडवाणी पूरे चुनाव के दौरान एक बार भी पार्टी को यह संदेश ना दे रहे हों कि पार्टी के पक्ष में प्रचार करने के लिये वे भी उत्सुक हैं, जो यशवंत पूरे परिदृश्य से ही लगातार गायब रहे हों, जो मुरली मनोहर जोशी अपने कानपुर के मतदाताओं के लिये भी अदृश्य चल रहे हों, जो शौरी विरोधी खेेमे से भी अधिक हमले करके सरकार व संगठन की साख को मटियामेट करने में जुटे रहे हों वे अगर इस हार के लिये किसी की जिम्मेवारी तय करने की लड़ाई लड़ते दिख रहे हैं तो इस लड़ाई की इमानदारी व नैतिकता पर सवाल खड़ा किये जाने को कैसे गलत कहा जा सकता है। वैसे भी संभव है कि आरक्षण के मसले से लेकर दादरी या पाकिस्तान सरीखे गलत बयानों से भले ही भाजपा से मतदाताओं के एक वर्ग का मोहभंग हुआ हो लेकिन ऐसी गलती करनेवालों द्वारा पार्टी को जीत दिलाने के लिये पूरे एक महीने तक की गयी जी-तोड़ व इमानदार मेहनत की कतई अनदेखी नहीं की जा सकती है। ऐसे में यह कहना ही सही होगा कि कत्ल तो हुआ ही है और इसके कातिल भी हैं लेकिन इसका हिसाब मांगनेवाले पहले अपनी बेगुनाही तो साबित करें। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   

शनिवार, 14 नवंबर 2015

‘जीत जरूरी तो है मगर किस कीमत पर?’

नवकांत ठाकुर
वाकई यह सवाल उठना लाजिमी है कि जीत के लिये जारी जंग में किस हद तक कुर्बानी देना जायज है। हालांकि कहते हैं कि इश्क और जंग में सब जायज होता है। लेकिन जंग में जीत के लिये जायज कुर्बानी पर विचार करने से परहेज बरतने के नतीजे में मुमकिन है कि जीत के बाद भी हार का ही एहसास हो। खास तौर से सियासी जंग की बात करें तो इसमें अगर देश और समाज का हित ही दांव पर लग जाये, समूची दुनियां हमारा माखौल उड़ाना शुरू कर दे और हमारे देश व देशवासियों का हर जगह उपहास होने लगे तो जंग के ऐसे रंग को कैसे जायज कहा जा सकता है? लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वस्थ सियासी जंग की पंरपरा का निर्वाह करने से परहेज बरतने का नतीजा कितना घातक हो सकता है यह बात शायद ही किसी को बताने की आवश्यकता हो। तभी तो अब तक हमारे देश में बदस्तूर इसी परंपरा का निर्वाह होता रहा है कि अपनी जान भले चली जाये मगर देश की आन-बान और शान पर हर्गिज बट्टा ना लगे। मगर शायद इन दिनों अब इस परंपरा के निर्वाह की चिंता किसी को नहीं रह गयी है। तभी तो विदेशी दौरों पर घरेलू सियासी प्रतिद्वन्द्वियों और अपने पूर्ववर्तियों की नीति व नीयत पर निशाना साधने से ना तो प्रधानमंत्री परहेज बरतते हैं और ना ही प्रधानमंत्री की जगहंसाई कराने का कोई भी मौका छोड़ना विपक्ष को गवारा हो रहा है। विश्वमंच पर देश की घरेलू राजनीति के टकराव ने ऐसा माहौल बना दिया है जिससे भारत की गरिमा, संप्रभुता और सम्मान को अब भारी खतरे का सामना करने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है। माना कि देश के भीतर पहली दफा कांग्रेस को ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है जिसने उसके अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है। हर मोर्चे पर उसे मतदाताओं के काफी बड़े वर्ग की विरक्ति का सामना करना पड़ रहा है। यहां तक कि बिहार के चुनाव में भी उसने लंबे अर्से के बाद जो संतोषजनक प्रदर्शन किया है उसे अगर वह अपनी जनस्वीकार्यता का प्रमाण व परिणाम मानने की खुशफहमी पाले तो इसे उसकी नादानी ही मानी जाएगी। ऐसे में स्वाभाविक है कि अभी कांग्रेस को लंबा संघर्ष करना पड़ेगा ताकि अपने दम पर अपने वजूद-वकार को दोबारा नयी बुलंदियों पर पहुंचाते हुए विरोधी पक्ष के प्रति देश के जनमानस में अस्वीकार्यता की जड़ें मजबूत की जा सकें। लेकिन इस लड़ाई में उसे इतना खयाल तो रखना ही पड़ेगा कि उसकी किसी भी हरकत से ना तो देशविरोधी ताकतों को संजीवनी मिले और ना ही भारत की गरिमा व संप्रभुता पर कोई आंच आये। हालांकि देश की सबसे अनुभवी राजनीतिक पार्टी होने के नाते उसने बाकियों के मुकाबले जंग की मर्यादा का बहुत कम मौकों पर ही उल्लंघन किया है लेकिन जिन कुछ मामलों में उसकी ओर से असहिष्णुता का प्रदर्शन किया जा रहा है उसके लिये बाकियों को तो ना चाहते हुए भी कुछ हद तक माफ किया जा सकता है लेकिन कांग्रेस द्वारा ऐसा किये जाने को कतई जायज नहीं कहा जा सकता है। मसलन अगर दादरी के मामले को लेकर आजम खान सरीखे नेता भारत सरकार की कार्यप्रणाली को संयुक्त राष्ट्र संघ के कठघरे में खड़ा करने की पहल करते हैं तो उसे किसी भी नजरिये से उचित नहीं मानेजाने के बावजूद कुछ हद तक उसकी अनदेखी की जा सकती है लेकिन तकरीबन छह दशकों तक देश पर एकछत्र राज करनेवाली कांग्रेस के शीर्ष नेताओं में शुमार होनेवाले सलमान खुर्शीद अगर पाकिस्तान की धरती पर खड़े होकर मुल्क के दुश्मनों की हिमायत व मिजाजपुर्सी करने के क्रम में भारत की विदेशनीति पर प्रहार करें तो इसे कैसे जायज कहा जा सकता है। वह भी तब जब ब्रिटेन की संसद को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री इस बात की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हों कि विश्वग्राम व्यवस्था के मौजूदा दौर में पाकिस्तान को पूरी तरह अलग-थलग कर दिया जाये। ऐसे मौके पर अगर सलमान साहब पाकिस्तान के प्रति भारत सरकार की नीति को गलत बतायें, आतंकवाद के साथ जारी लड़ाई में पाकिस्तान की भूमिका को जायज बताते हुए उसकी सराहना करें और पाकिस्तान के प्रति भारत सरकार की सख्त नीति को अफसोसनाक बतायें तो घरेलू राजनीतिक लड़ाई के इस आयाम को कैसे जायज कहा जा सकता है। इस्लामाबाद में प्रवचन देने के क्रम में सलमान ने तो यहां तक कह दिया कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लगातार अमन, शांति व भाईचारे की ही बात कर रहे हैं अलबत्ता भारत की ओर से उन्हें उचित जवाब नहीं मिल रहा है। जाहिर है कि जब सलमान सरीखे विपक्ष के शीर्ष कद्दावर नेता की ओर से विदेशी धरती पर खड़े होकर इस तरह की बयानबाजी की जाएगी तो इसका घरेलू राजनीति पर भले ही कोई अलग प्रभाव ना पड़े लेकिन विश्व मंच पर इसकी चर्चा भी होगी और देश की छवि पर इसका नकारात्मक असर भी होगा। साथ ही इससे हौसला अफजायी होगी उन भारत विरोधी विदेशी ताकतों की जो हमारेे घरेलू राजनीतिक टकराव की आग में घी डालकर अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने के मौके की तलाश में रहते हैं। खैर, घरेलू राजनीतिक लड़ाई के बीच किसी भी मंच से विरोधी खेमे की हिमायत करना तो बेहद ही मुश्किल है लेकिन देशहित की अनदेखी करके अपने घर की आग में देश विरोधी तत्वों को रोटी सेंकने का मौका देने को कैसे जायज ठहराया जा सकता है? ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  

शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध’

नवकांत ठाकुर
वाकई इन दिनों देश के हालात ऐसे दिख रहे हैं मानो किसी को इस बात की फिक्र ही नहीं है कि उसकी किस हरकत का क्या नतीजा निकलेगा। हर कोई खुद में ही मगन है। हर किसी की नजर में समूचा संसार उससे ही शुरू होकर उस पर ही समाप्त हो जा रहा है। लिहाजा अपने इस संसार में कोई किसी ऐसे को बर्दाश्त करने के लिये तैयार नहीं है जिससे उसकी सोच अलग हो या जिसकी सोच उसकी समझ से बाहर हो। हर कोई अपने डंडे से ही समाज को हांकने के प्रयास में जुटा है। ना कोई किसी की सुनने के लिये तैयार है ना समझने के लिये। हर तरफ ‘असहिष्णुता’ का ही बोलबाला है। लेखक, इतिहासकार और वैज्ञानिक अपना सम्मान लौटा रहे हैं, यह कहकर कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। इस सम्मान वापसी अभियान ने देश के बुद्धिजीवी वर्ग को दो-फाड़ कर दिया है। सियासत तो पहले से ही दो फाड़ है जिसमें एक पक्ष मौजूदा केन्द्र सरकार के साथ है और दूसरा खिलाफ। जो खिलाफ हैं वे इस कदर खिलाफत कर रहे हैं कि ना तो संसद को चलने देना उन्हें गवारा है और ना ही सरकार के किसी काम में सहयोग करना। हालांकि सरकार को सहयोग तो वे भी नहीं कर रहे हैं जिनसे इसकी उम्मीद की जाती है। तभी तो अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी ‘मूडीज’ को औपचारिक तौर पर यह बताने के लिये मजबूर होना पड़ा है अगर केन्द्र सरकार ने अपने खुराफाती साथियों व सहोदरों की हरकतों पर अंकुश नहीं लगाया तो वैश्विक स्तर पर भारत की विश्वसनीयता खतरे में पड़ सकती है। दूसरी ओर सत्तापक्ष को भी विरोधी सुर सुनना गवारा नहीं है। उसकी नजर में जो उसके समर्थक हैं वे ही राष्ट्रवादी हैं, बाकी तमाम पाकिस्तान परस्त। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय भी अगर संसद द्वारा पारित कानून को संविधान की मूल भावना के खिलाफ करार देते हुए उसे निरस्त करने की पहल करे तो सत्तापक्ष की नजर में सुप्रीम कोर्ट की सोच भी ना सिर्फ संदिग्ध बल्कि अस्वीकार्यता की हद तक गलत हो जाती है। खैर, असहिष्णुता का आलम यह है कि समाज का कोई भी तबका इससे अछूता नहीं दिख रहा है। मसलन गौमांस के मामले को लेकर जो विवाद चल रहा है उसमें जहां जिसकी लाठी मजबूत है वहां वह अपनी मनमानी करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। कर्नाटक व केरल में सार्वजनिक तौर पर गौमांस की दावत आयोजित हो रही है तो हिन्दी-पट्टी में गौवंश के मृत शरीर को ठिकाने लगाने के लिये सड़क मार्ग से कहीं बाहर ले जाने में भी जान जोखिम में आ रही है। इसी प्रकार ना तो पाकिस्तानी क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष को बीसीसीआई के दफ्तर में घुसने की इजाजत दी जा रही है और ना ही पाकिस्तानी कलाकारों को मुंबई में अपनी कला का प्रदर्शन करने की। भाषायी स्तर पर असहिष्णुता का आलम यह है कि समूचे संसार में भारत का नाम रौशन करनेवाली मैरीकाॅम के जीवन पर बनी फिल्म को उनके गृह प्रदेश मणिपुर में सिर्फ इसलिये प्रदर्शन की इजाजत नहीं मिल पाती है क्योंकि यह फिल्म हिन्दी भाषा में बनी है। यहां तक कि जब केन्द्रीय गृह मंत्रालय सरकारी कामकाज में हिन्दी को बढ़ावा देने की बात कहता है तो विभिन्न प्रदेशों से उठनेवाले विरोध के सुरों के सामने उसे घुटना टेकने के लिये मजबूर होना पड़ जाता है। असहिष्णुता की चपेट में आने से पहनावा भी नहीं बच पाया है। कहीं महिलाओं को जींस व शाॅट्स पहनने की इजाजत नहीं मिल रही है तो कहीं साड़ी-धोती व कुर्ते-पायजामे पर आपत्ति हो रही है। इसी प्रकार सांप्रदायिक स्तर पर असहिष्णुता का आलम यह है कि अगर गौमांस के कथित विवाद में घर में घुसकर किसी की हत्या कर जाती है तो मौके का मुआयना करने पहुचे केन्द्रीय नेताओं की जुबान से पीडि़त पक्ष के प्रति सांत्वना का एक शब्द भी नहीं निकलता है बल्कि किताबी ज्ञान बघारने के क्रम में वे स्थानीय प्रशासन को चेतावनी भरे लहजे में यह बताने से बाज नहीं आते हैं कि इस मामले में वास्तविक दोषी के अलावा किसी अन्य को छेड़ने की भी गुस्ताखी नहीं होनी चाहिये। इसी प्रकार किसी को मूर्ति विसर्जन के कारण गंगा मैली होती नजर आती है तो किसी को बकरीद के कारण। यहां तक कि कोई जम्मू कश्मीर में गौहत्या प्रतिबंधित किये जाने के खिलाफ सर्वोच्च अदालत में गुहार लगा रहा है तो कोई दीवाली में पटाखा फोड़े जाने के खिलाफ फरियाद कर रहा है। खैर, इस तरह के तमाम मामलों को समग्रता में देखा जाये तो ये सभी विवाद ना तो नये हैं और ना ही अनोखे। फर्क सिर्फ यह है कि पहले विवादित मसलों पर दो-टूक, कट्टर व आक्रामक रूख का मुजाहिरा करनेवाले आटे में नमक के बराबर ही हुआ करते थे जबकि आम जनमानस की सोच विविधता में एकता की भावना का परिचय देनेवाली सहिष्णुता, सामंजस्य व संतुलन की रहती थी। लेकिन इन दिनों स्थिति पूरी तरह उलट हो चली है और आटे की तादादवाले नमक बराबर बच गये हैं। लेकिन तादाद में कमी का कतई यह मतलब नहीं है कि इस हालात को सुधारने व अपने हिस्से के हिन्दुस्तान को अपने तरीके से बचाने व संवारने से उन्हें बचने का मौका मिल गया है। अलबत्ता रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में कहें तो, ‘समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध।’ ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’