‘जीत जरूरी तो है मगर किस कीमत पर?’
नवकांत ठाकुर
वाकई यह सवाल उठना लाजिमी है कि जीत के लिये जारी जंग में किस हद तक कुर्बानी देना जायज है। हालांकि कहते हैं कि इश्क और जंग में सब जायज होता है। लेकिन जंग में जीत के लिये जायज कुर्बानी पर विचार करने से परहेज बरतने के नतीजे में मुमकिन है कि जीत के बाद भी हार का ही एहसास हो। खास तौर से सियासी जंग की बात करें तो इसमें अगर देश और समाज का हित ही दांव पर लग जाये, समूची दुनियां हमारा माखौल उड़ाना शुरू कर दे और हमारे देश व देशवासियों का हर जगह उपहास होने लगे तो जंग के ऐसे रंग को कैसे जायज कहा जा सकता है? लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वस्थ सियासी जंग की पंरपरा का निर्वाह करने से परहेज बरतने का नतीजा कितना घातक हो सकता है यह बात शायद ही किसी को बताने की आवश्यकता हो। तभी तो अब तक हमारे देश में बदस्तूर इसी परंपरा का निर्वाह होता रहा है कि अपनी जान भले चली जाये मगर देश की आन-बान और शान पर हर्गिज बट्टा ना लगे। मगर शायद इन दिनों अब इस परंपरा के निर्वाह की चिंता किसी को नहीं रह गयी है। तभी तो विदेशी दौरों पर घरेलू सियासी प्रतिद्वन्द्वियों और अपने पूर्ववर्तियों की नीति व नीयत पर निशाना साधने से ना तो प्रधानमंत्री परहेज बरतते हैं और ना ही प्रधानमंत्री की जगहंसाई कराने का कोई भी मौका छोड़ना विपक्ष को गवारा हो रहा है। विश्वमंच पर देश की घरेलू राजनीति के टकराव ने ऐसा माहौल बना दिया है जिससे भारत की गरिमा, संप्रभुता और सम्मान को अब भारी खतरे का सामना करने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है। माना कि देश के भीतर पहली दफा कांग्रेस को ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है जिसने उसके अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है। हर मोर्चे पर उसे मतदाताओं के काफी बड़े वर्ग की विरक्ति का सामना करना पड़ रहा है। यहां तक कि बिहार के चुनाव में भी उसने लंबे अर्से के बाद जो संतोषजनक प्रदर्शन किया है उसे अगर वह अपनी जनस्वीकार्यता का प्रमाण व परिणाम मानने की खुशफहमी पाले तो इसे उसकी नादानी ही मानी जाएगी। ऐसे में स्वाभाविक है कि अभी कांग्रेस को लंबा संघर्ष करना पड़ेगा ताकि अपने दम पर अपने वजूद-वकार को दोबारा नयी बुलंदियों पर पहुंचाते हुए विरोधी पक्ष के प्रति देश के जनमानस में अस्वीकार्यता की जड़ें मजबूत की जा सकें। लेकिन इस लड़ाई में उसे इतना खयाल तो रखना ही पड़ेगा कि उसकी किसी भी हरकत से ना तो देशविरोधी ताकतों को संजीवनी मिले और ना ही भारत की गरिमा व संप्रभुता पर कोई आंच आये। हालांकि देश की सबसे अनुभवी राजनीतिक पार्टी होने के नाते उसने बाकियों के मुकाबले जंग की मर्यादा का बहुत कम मौकों पर ही उल्लंघन किया है लेकिन जिन कुछ मामलों में उसकी ओर से असहिष्णुता का प्रदर्शन किया जा रहा है उसके लिये बाकियों को तो ना चाहते हुए भी कुछ हद तक माफ किया जा सकता है लेकिन कांग्रेस द्वारा ऐसा किये जाने को कतई जायज नहीं कहा जा सकता है। मसलन अगर दादरी के मामले को लेकर आजम खान सरीखे नेता भारत सरकार की कार्यप्रणाली को संयुक्त राष्ट्र संघ के कठघरे में खड़ा करने की पहल करते हैं तो उसे किसी भी नजरिये से उचित नहीं मानेजाने के बावजूद कुछ हद तक उसकी अनदेखी की जा सकती है लेकिन तकरीबन छह दशकों तक देश पर एकछत्र राज करनेवाली कांग्रेस के शीर्ष नेताओं में शुमार होनेवाले सलमान खुर्शीद अगर पाकिस्तान की धरती पर खड़े होकर मुल्क के दुश्मनों की हिमायत व मिजाजपुर्सी करने के क्रम में भारत की विदेशनीति पर प्रहार करें तो इसे कैसे जायज कहा जा सकता है। वह भी तब जब ब्रिटेन की संसद को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री इस बात की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हों कि विश्वग्राम व्यवस्था के मौजूदा दौर में पाकिस्तान को पूरी तरह अलग-थलग कर दिया जाये। ऐसे मौके पर अगर सलमान साहब पाकिस्तान के प्रति भारत सरकार की नीति को गलत बतायें, आतंकवाद के साथ जारी लड़ाई में पाकिस्तान की भूमिका को जायज बताते हुए उसकी सराहना करें और पाकिस्तान के प्रति भारत सरकार की सख्त नीति को अफसोसनाक बतायें तो घरेलू राजनीतिक लड़ाई के इस आयाम को कैसे जायज कहा जा सकता है। इस्लामाबाद में प्रवचन देने के क्रम में सलमान ने तो यहां तक कह दिया कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लगातार अमन, शांति व भाईचारे की ही बात कर रहे हैं अलबत्ता भारत की ओर से उन्हें उचित जवाब नहीं मिल रहा है। जाहिर है कि जब सलमान सरीखे विपक्ष के शीर्ष कद्दावर नेता की ओर से विदेशी धरती पर खड़े होकर इस तरह की बयानबाजी की जाएगी तो इसका घरेलू राजनीति पर भले ही कोई अलग प्रभाव ना पड़े लेकिन विश्व मंच पर इसकी चर्चा भी होगी और देश की छवि पर इसका नकारात्मक असर भी होगा। साथ ही इससे हौसला अफजायी होगी उन भारत विरोधी विदेशी ताकतों की जो हमारेे घरेलू राजनीतिक टकराव की आग में घी डालकर अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने के मौके की तलाश में रहते हैं। खैर, घरेलू राजनीतिक लड़ाई के बीच किसी भी मंच से विरोधी खेमे की हिमायत करना तो बेहद ही मुश्किल है लेकिन देशहित की अनदेखी करके अपने घर की आग में देश विरोधी तत्वों को रोटी सेंकने का मौका देने को कैसे जायज ठहराया जा सकता है? ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
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