सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

अनवरत हो रहा विकास... मगर किसका?

अनवरत हो रहा विकास... मगर किसका?

देश को अंग्रेजों से आजादी मिले 71 साल होने को आए। तब से लेकर अब तक देश का लगातार विकास ही हो रहा है। तमाम सरकारें विकास में अपना योगदान देती आ रही हैं। इसका नतीजा भी दिख रहा है कि आज हमारा देश दुनियां की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि छठे नंबर पर आने के लिए हमने उस ब्रिटेन को जीडीपी की दौड़ में पीछे छोड़ा है जिसने हमें दो सौ साल तक अपना गुलाम बनाकर रखा। इसके अलावा अंतरिक्ष में हम मंगल तक पहुंच चुके हैं। जमीन पर भी पूरी दुनिया में किसी की मजाल नहीं है कि हमें अलग करके विश्व राजनीति के किसी समीकरण की कल्पना भी कर ले। हर क्षेत्र में विकास की तमाम ऊंचाइयां लांघते हुए वाकई हमारा देश विकासशील से विकसित होने की ओर छलांग लगा चुका है। लेकिन विकास की इस अनवरत यात्रा की राहों में हम इतने मशगूल हो गए हैं कि अब यह पता नहीं चल पा रहा कि आखिर इस राह की मंजिल कहां है और इसका मकसद क्या है। अगर सिर्फ कागजों में दिखाने के लिए विकास हो रहा है तब तो कहने या सुनने के लिए कुछ रह ही नहीं जाता है। क्योंकि देश के आम लोगों के लिए तो इस विकास यात्रा का आज भी कोई खास मायने या मतलब नहीं दिख रहा है। अलबत्ता भारत की मौजूदा तस्वीर उस रेल की तरह दिख रही है जिसमें आम आदमी जनरल डिब्बों में घास-भूसे की तरह ठुंसकर सफर करता है और खास आदमी अत्याधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस पूरे डब्बे के आकार के सैलून कोच में अकेले सफर का आनंद लेता है। कोई दूसरा झांक भी नहीं सकता उसके कोच में। ट्रेन में पहले, दूसरे व तीसरे दर्जे के वातानुकूलिक डिब्बे भी रहते हैं और स्लीपर क्लास भी होता है। लेकिन आम आदमी का जीवन जनरल से स्लीपर की औकात बनाने में बीत जाता है और स्लीपर वाला तीसरे दर्जे के वातानुकूलित डिब्बे में जाने की जद्दोजहद में जुटा रहता है। अलबत्ता ट्रेन की हालत हर दिन ऐसी ही दिखती है जैसे आम आदमी को घुसने या लटकने भर की इजाजत देकर उसने बहुत बड़ा एहसान कर दिया हो। तभी तो एक ओर दुनिया के 119 देशों में भुखमरी की स्थिति के बारे में आयी रिपोर्ट में भारत को शर्मनाक ढ़ंग से 100वें पायदान पर खड़ा होना पड़ा है। भुखमरी सूचकांक में हमसे बेहतर स्थिति में नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देश हैं। यह स्थिति तब है जबकि फोर्ब्स की हालिया सूची के मुताबिक विश्व के शीर्ष 10 धनवानों में सबसे ज्यादा भारत के ही लोग हैं। विकास के असंतुलन का आलम यह है कि एक ओर अंतरिक्ष को भेदकर मंगल पर ठिकाना बनाने की योजना बन रही है जबकि दूसरी ओर केरल में एक नीम-पागल आदिवासी युवक को पढ़े-लिखे सभ्य समाज के लोग सिर्फ इसलिये पीट-पीटकर मार डालते हैं क्योंकि उसने पेट की आग बुझाने के लिए एक किलो चावल चुराने का गुनाह कर दिया। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर विकास की अंधी दौड़ का मकसद क्या है? इसका निर्णायक मुकाम कहां है? अगर विकास का मकसद सबको पेट भर भोजन मुहैया कराना होता तो देश में भूख से मौतें नहीं हो रही होतीं। केरल में आदिवासी युवक को महज एक किलो चावल के पीछे अपनी जान नहीं गंवानी पड़ती। झारखंड में मां की गोद में सिर रखकर ‘भात-भात’ रटते हुए मासूम संतान को तड़पकर मरना नहीं पड़ता। यानि लोगों का पेट भरने के लिए तो नहीं हो रहा है यह विकास। यह विकास लोगों को तन ढ़ांपने का कपड़ा या सिर छिपाने की छत देने के लिए भी नहीं हो रहा है। अगर ऐसा होता तो दिल्ली की सड़कों पर ही सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ऐसे डेढ़ लाख लोगों का बसेरा नहीं होता जिनके पास कुछ भी नहीं है। इस कुछ भी नहीं होने का मतलब वाकई कुछ भी नहीं होना ही है। जब देश की राजधानी में यह स्थिति है तो बाकी इलाकों की व्यथा-कथा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यानि गुजरात में जो नारा दिया गया कि विकास पागल हो गया है वह कतई गलत नहीं था। पागल उसको ही तो कहते हैं जिसे पता ही नहीं कि वह क्या कर रहा है और क्यों कर रहा है। खैर, अगर यह भी मान लें कि 70 सालों से अनवरत होता आ रहा विकास देश और देशवासियों की खुशहाली के लिए है तब तो खुशहाली को ही विकास का पैमाना बनाना चाहिए था। जैसा कि भूटान ने बनाया हुआ है। वह जीडीपी के बजाए खुशहाली से अपनी तरक्की को नापता है। भूटान के लिए आम लोगों की खुशहाली मायने रखती है। भले इसके लिए जीडीपी के आंकड़ों को गर्त में ही क्यों ना पहुंचाना पड़े। इसका नतीजा यह है कि वहां के लोग खुश हैं। उन्हें किसी वैश्विक दौड़ या होड़ की परवाह नहीं है। वहां संतुष्टि और खुशहाली के साथ आवश्यक व अनवरत विकास भी हो रहा है। इसके उलट हमारे यहां जो विकास हो रहा है उसमें ना तो सबके लिए रोटी, कपड़ा व मकान की उपलब्धता सुनिश्चित हो रही है और ना ही पढ़ाई, दवाई और कमाई का सबको जुगाड़ मिल पा रहा है। यानि खुशहाली की कौन कहे यहां तो बुनियादी मसले ही हल नहीं हो पा रहे हैं। फिर किसका विकास, कैसा विकास, किस लिए विकास। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’  @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

‘‘सब्र...., आखिर कब तक....???’’

‘‘सब्र...., आखिर कब तक....???’’

एक बार फिर सुंजवां में वही हुआ जो पहले पठानकोट और उड़ी में हो चुका था। सरहद पार कर आतंकी आए और उन्होंने आर्मी कैंप पर धावा बोल दिया। अंदर घुसकर तबाही मचाने की कोशिश की और ऐसी जगह पोजीशन लेकर बैठ गए जहां से लंबे समय तक सुरक्षा बलों को छकाया जा सके। वैसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन्हें मार डालने में हमारे सुरक्षा बल हर बार कामयाब हो जाते हैं। अलबत्ता फर्क इस बात से पड़ता है कि उनसे निपटने में हमारे फौजियों को भी जान से हाथ धोना पड़ता है और सरहद के भीतर उन्हें शांतिकाल में शहादत देने के लिए विवश होना पड़ता है। इस वारदात को अंजाम देने के लिए उस तारीख का चयन किया जाना संकेतों में बहुत कुछ बता रहा है जिस दिन पांच साल पूर्व संसद हमले के आरोपी अफजल गुरू को फांसी दी गई थी। ऐसे में हमले के लिए आज की तारीख का चयन करने के पीछे की सोच और मकसद को भी समझने की जरूरत है। जिस वारदात को पाकिस्तानी आतंकी मनचाहे समय व तारीख पर अंजाम देने में सक्षम हैं उस हरकत को तो मौका मिलते ही कभी भी अंजाम दिया जा सकता था। फिर इसके लिए इस तारीख का चयन करने की आखिर क्या जरूरत थी? वास्तव में देखा जाए तो अफजल गुरू का मामला बेहद ही विचित्र है। कहीं ना कहीं उसको महिमामंडित करने का काम हमारी सियासत ने भी किया है और प्रचार के भूखे उन बुद्धिजीवियों ने भी जिनकी नजर में धर्मनिरपेक्ष होने के लिए मुस्लिम परस्त और हिन्दू विरोधी होना निहायत ही आवश्यक है। कहीं ना कहीं अफजल के बारे में यह मान लिया गया कि उसे देश के अल्पसंख्यकों का समर्थन हासिल है और इसी वजह से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसे फांसी पर चढ़ाए जाने का आदेश दे दिये जाने के बावजूद पहले तो सालों तक आदेश के अनुपालन को व्यवस्थागत पेंचो-खम में बुरी तरह उलझा कर रखा गया और बाद में जब उसे फांसी से बचाने का आरोप लगने पर तत्कालीन संप्रग सरकार की छवि खराब होने लगी तब कहीं जाकर उसे लटकाने की पहल की गई। लेकिन दूसरी ओर अफजल के कई प्रबुद्ध और नामचीन बुद्धिजीवी हिमायतियों ने उसे फांसी के फंदे से बचाने के लिए अंतिम समय तक अपनी कोशिशें जारी रखीं और इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय को ऐतिहासिक तरीके से रात के दो बजे सुनवाई करनी पड़ी। यहां तक कि अफजल को हीरो बनाने का प्रयास उसे फांसी दिए जाने के बाद भी जारी रहा और उसकी फांसी के बाद कई दिनों तक कश्मीर घाटी सुलगती रही, कफ्र्यू लगाना पड़ा और विरोध प्रदर्शनों में कई मौतें भी हुईं। अफजल के महिमामंडन का यह सिलसिला आज भी जारी है और जेएनयू जैसे संस्थान में ‘तुम कितने अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगा’ का नारा बुलंद होता रहता है और ऐसा करने वालों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए देश के कई बड़े राजनेता व बुद्धिजीवी सामने आते रहते हैं। बेहद स्वाभाविक है कि भारत के भीतर अफजल को लेकर होने वाली इन गतिविधियों पर पाकिस्तान की भी पैनी निगाहें लगी रही हैं जो पैदा होने के बाद से ही भारत के टुकड़े करने के लिए मरा जा रहा है। ऐसे में अफजल की बरसी के मौके को आतंक के शोलों से सजाने का मौका भला वह कैसे चुक सकता था वह भी तब जबकि उसे लगता है कि सोपोर के मूल निवासी अफजल के लिए ना सिर्फ कश्मीर घाटी में बल्कि देश की काफी बड़ी जमात के दिलों में भी भारी हमदर्दी है। पाक का यह नापाक अंदाजा कितना गलत है इसकी मिसाल तो अफजल के बेटे ने ही यह कह कर दे दी है कि वह हर्गिज अपने बाप की तरह भारत विरोधी नहीं हो सकता है। इसके बावजूद पाकिस्तान यह दुस्साहस दिखा रहा है कि भारत के भीतर आतंकियों को घुसाकर एक ओर दहशत का माहौल बनाया जाए, भारतीय सुरक्षा व्यवस्था को अधिकतम नुकसान पहुंचाया जाए और अफजल के कथित हमदर्दों को दोबारा जगाया जाए। ऐसे में लाजिमी है कि अब सब्र दिखाने का कोई मतलब नहीं रह गया है। बल्कि हमारे सब्र को अब अगर वह हमारी कमजोरी समझ ले तो इसमें उसकी कोई गलती नहीं होगी, क्योंकि भारत के आम लोगों को भी सब्र के इस प्रदर्शन से राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमजोरी का ही एहसास हो रहा है। आज ही सीरिया में इजरायल के एक एफ-16 विमान को ईरान ने गिराया तो बदले में इजरायल ने सीरिया के 16 ठिकानों को भारी बमबारी से ध्वस्त कर दिया। वह भी इसलिए क्योंकि सीरिया से लगती इजरायल की सीमा के भीतर एक ईरान निर्मित द्रोण घुस आया था जिसका संचालन सीरिया की जमीन से हो रहा था। उसी संचालन केन्द्र को ध्वस्त करने के लिए भेजे गए एफ-16 पर हमला किए जाने से चिढ़ कर इजरायल ने सीरिया के 16 महत्वपूर्ण सामरिक ठिकानों को जमींदोज कर दिया। स्वाभाविक है कि इस कड़े सबक के बाद सीरिया और ईरान की हिम्मत ही नहीं होगी कि वह इजरायल की ओर आंख उठा कर देखने की जुर्रत भी करे। काश इजरायल से दोस्ती के एवज में ऐसी हिम्मत, मर्दानगी और इच्छा शक्ति भी हमारी सरकार उससे थोड़ी देर के लिए उधार ले पाती तो पूरी तस्वीर का रूख चुटकियों में बदला जा सकता था। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

‘सपनों का ‘भारत’ के लिए ‘इंडिया’ से ईंधन’

‘सपनों का ‘भारत’ के लिए ‘इंडिया’ से ईंधन’ 

मोदी सरकार के मौजूदा कार्यकाल का अंतिम पूर्ण बजट होने के नाते अटकलें लगाई जा रही थी कि इसमें लोकलुभावन योजनाओं की झड़ी लगाकर वित्त मंत्री अरूण जेटली लोगों का दिल जीतने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इन अटकलों को बल देने की पहल भी प्रधानमंत्री मोदी ने ही की थी जब सत्र की शुरूआत के वक्त उन्होंने बताया था कि इस बार का बजट देश के सामान्य मानवी की आशाओं व अपेक्षाओं को पूर्ण करने वाला होगा। ऐसे में उम्मीदें उफान पर होनी ही थीं। तभी तो देश की व्यवस्था का आईना माना जाने वाला शेयर बाजार सुबह से ही कुलाचें भर रहा था। आधा बजट भाषण होने तक तो बाजार तकरीबन 200 से अधिक अंक तक चढ़ गया। लेकिन इस बार का राजस्व घाटा 3.6 फीसदी से कम होकर 3.4 फीसदी तक रहने की बात जेटली द्वारा स्वीकार करते ही शेयर बाजार ने गोता लगाते हुए गहराई की ऐसी पकड़ी कि बजट भाषण समाप्त होने तक बाजार ने तकरीबन साढ़े चार सौ अंकों की गिरावट दर्ज करा दी। इसके अलावा इलेक्ट्राॅनिक व सोशल मीडिया पर भी बजट की ऐसी नकारात्मक विवेचना होने लगी मानो जेटली ने बेड़ा पार करने के बजाय पूरी तरह बंटाधार कर दिया हो। खास तौर पर मध्यम व नौकरीपेशा वर्ग को बजट से कोई बड़ी राहत नहीं मिलने की बात जंगल में आग की तरह फैल गई और बजट की इस कदर चैतरफा आलोचना होने लगी कि विवश होकर प्रधानमंत्री को खुद सामने आना पड़ा और बजट की खासियत व विशेषताएं विस्तार से बतानी पड़ीं। इसके बाद वित्त मंत्री ने भी बजट की बारीकियां समझाईं और शाम ढ़लने से पूर्व ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी इसे विकासोन्मुख बजट साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। समय बीतने के साथ बाजार को भी बजट की विशेषताएं समझ में आने लगीं और आखिरकार सामान्य व मामूली गिरावट के साथ बाजार बंद हुआ। ऐसे में सवाल है कि आखिर यह बजट इतना पेंचीदा कैसे हो गया जिसकी खासियतों को सीधे तौर पर एक झटके में ही नहीं समझा जा सका। वर्ना अगर यह बजट इतना ही बुरा होता तो इसकी आलोचना में एक शब्द भी खर्च किए बिना कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हर्गिज चुपचाप संसद परिसर से बाहर नहीं निकले होते। वास्तव में देखा जाए तो इस बजट ने कई परंपराओं को तोड़ा है और इसमें कई सियासी संकेत भी छिपे हुए हैं। मसलन भारी घाटे का चुनावी लोकलुभावन बजट प्रस्तुत करने से परहेज बरत कर सरकार ने साफ तौर पर यह संकेत तो दे ही दिया है कि तय वक्त से पहले लोकसभा का चुनाव कराने का उसका कोई इरादा नहीं है। इसके अलावा शुरूआती कटु आलोचनाओं से वित्त मंत्री का बचाव करने के लिए जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी खुद सामने आए और बजट की तमाम खासियतों व बारीकियों को विस्तार से समझाया उससे यह भी पता चल गया कि बजट की दिशा व रूपरेखा का निर्धारण करने में संगठन व सरकार की पूर्ण सामूहिक एकमतता रही है और कसी भी स्तर या पैमाने पर इसे मनमाना या दिशाहीन नहीं होने दिया गया है। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों एक निजी समाचार चैनल को दिए गए साक्षात्कार में जो दावा किया था कि उन्हें या उनकी पार्टी को चुनावी या राजनीतिक लाभ दिलाने के बजाय इस बार का बजट देश के विकास को लाभ पहुंचाने वाला होगा, उस दावे पर भी यह बजट खरा उतरा है और देश के सामान्य मानवी की अपेक्षाओं को पूरा करने का उन्होंने जो भरोसा दिलाया था उस कसौटी पर भी बजट पूरी तरह सही साबित हुआ है। सच पूछा जाए तो गांव, गरीब, किसान, युवा, महिला, दलित, पीड़ित, शोषित और वंचित तबके की समस्याएं सियासी लाभ के लिए तो हमेशा से गिनाई जाती रही हैं लेकिन ऐसा कम ही देखा जाता है कि सरकार के बजट का अधिकतम हिस्सा इनके लाभ और उत्थान के लिए ही समर्पित कर दिया जाए। मसलन, इस बार के बजट में जिस तरह से 10 करोड़ परिवारों के पचास करोड़ लोगों को सालाना पांच लाख का स्वास्थ्य बीमा देने, कृषि उपज की लागत से डेढ़ गुना अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने, किसान क्रेडिट कार्ड का लाभ भू-स्वामियों के अलावा भूमिहीन बटाईदारों और मछली पालन व बागवानी करने वालों को भी दिलाने, आॅपरेशन ग्रीन के द्वारा आलू, प्याज व टमाटर के किसानों को सहायता, संरक्षा व बड़ा बाजार उपलब्ध कराने, उज्वला योजना के लाभार्थियों का लक्ष्य पांच करोड़ से बढ़ाकर आठ करोड़ करने, तपेदिक के मरीजों को पौष्टिक भोजन के लिए हर माह 500 रूपया देने और नए कर्मचारियों का शुरूआती तीन साल का पीएफ अंशदान सरकार द्वारा जमा कराए जाने सरीखे जो बजट प्रस्ताव प्रस्तुत किए गए हैं वे यही दर्शा रहे हैं कि बढ़ती अर्थव्यवस्था से होनेवाली कमाई का सीधा लाभ सरकार उन लोगों को देनेवाली है जिन्हें वाकई इसकी जरूरत है। हालांकि इसका बोझ उन लोगों पर अवश्य डाला गया है जिन्हें केन्द्र में रखकर अब बजट बनाए जाने की परंपरा रही है। लिहाजा तात्कालिक तौर पर मुखर आक्रोश दिखना स्वाभाविक है जिसकी चीख चिल्लाहट के बीच काम की बातें कुछ समय के लिए अनसुनी रह सकती हैं। लेकिन ‘भारत और इंडिया’ के बीच के अंतर व असंतुलन को याद करते हुए समग्रता में देखें तो यह बजट सपनों का भारत बनाने के लिए इंडिया से ईंधन का जुगाड़ करता दिख रहा है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’    @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur