मंगलवार, 26 जून 2018

‘इतनी मासूम दुश्मनी पर दोस्ती कुर्बान’

दोस्ती वह होती है जो खुशी, सहारा व ताकत दे और आपसी हितों को सुरक्षित करे। जबकि दुश्मनी में तो दुखी करने, सहारा छीनने, कमजोर करने और नुकसान पहुंचाने की कोशिश की जाती है। लेकिन जब दुश्मनी करने वाले एक दूसरे का नुकसान करने के बजाय परस्पर लाभ पहुंचाते दिखने लगें तो ऐसे रिश्ते की असलियत व हकीकत को लेकर जो असमंजस की स्थिति उत्पन्न होती है वही इन दिनों बीजेपी और पीडीपी के मौजूदा रिश्तों में भी दिख रही है। कहने को तो बीजेपी ने पीडीपी की महबूबा सरकार से समर्थन वापस ले लिया है और मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने अल्पमत में आने के बाद त्यागपत्र भी दे दिया है। गठबंधन टूटने के बाद दोनों दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी चला है और दोनों अपने पक्ष को सही बताने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। महबूबा सरकार से समर्थन वापस लेने का ऐलान करते वक्त बीजेपी ने स्पष्ट शब्दों में आरोप लगाया कि सूबे में शांति और विकास के लिये बनाई गई गठबंधन की सरकार अपने मकसद को हासिल करने में नाकाम रही है नतीजन इस सरकार को आगे भी बरकरार रखने का कोई औचित्य नहीं था। दूसरी अरो शांति और विकास का लक्ष्य हासिल नहीं हो पाने के बीजेपी के आरोप पर तो पीडीपी ने चुप्पी साध ली लेकिन पूरे मामले पर अपना पक्ष रखते हुए यह अवश्य कहा कि बीजेपी के साथ सहमति के आधार पर ही महबूबा ने सरकार चलाई लेकिन चुंकि उन्होंने सख्ती के बजाय वार्ता के माध्यम से शांति स्थापना का प्रयास किये जाने और धारा 370 को किसी भी हालत में नहीं हटाए जाने की बात पर जोर दिया इसी वजह से बीजेपी ने सरकार से समर्थन वापस लिया है। सरकार गिरने के बाद महबूबा ने अपनी उपलब्धियां भी गिनाईं कि उनके ही प्रयासों से बीजेपी ग्यारह हजार पत्थरबाज युवाओं पर से मुकदमा वापस लेने, रमजान के दौरान एकतरफा युद्धविराम घोषित करने और चाह कर भी जम्मू कश्मीर से 370 नहीं हटाने पर मजबूर हुई। हालांकि गठबंधन टूटने के बाद शुरूआती दौर में सामने आए दोनों पक्षों के बयानों से एक बार भी यह महसूस नहीं हुआ कि अचानक सरकार से समर्थन वापस लेने के बीजेपी के एकतरफा फैसले से पीडीपी को हताशा या निराशा हुई है अथवा महबूबा सरकार की जनविरोधी रीति-नीति से दुखी होकर बीजेपी ने यह कदम उठाया क्योंकि इसके अलावा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं बचा था। ना तो बीजेपी ने महबूबा सरकार की रीति-नीति की बखिया उधेड़ने की पहल की और ना ही पीडीपी ने बीजेपी पर राजनीतिक लाभ के लिये विश्वासघात करने का आरोप लगाया। यानि सतही तौर पर यही तस्वीर उभरी कि शांति और विकास का लक्ष्य पूरा नहीं होने के कारण बीजेपी ने खुद को महबूबा सरकार से अलग किया है और सूबे में राज्यपाल शासन लागू करके सख्ती से आतंकवाद को कुचलने का फैसला किया है क्योंकि महबूबा के मुख्यमंत्री रहते सुरक्षाबलों को एक सीमा से अधिक छूट देना संभव नहीं हो पा रहा था। लेकिन गहराई से परखने पर ऐसा लगता है कि दोनों दलों ने परस्पर लाभ के लिये आपसी सहमति से सरकार बनाई भी थी और आपसी रजामंदी से ही सरकार गिराई भी है। तभी तो दोनों ओर से ऐसे ही बयान सामने आए हैं जिससे कश्मीर घाटी में पीडीपी के पक्ष में विश्वास और सहानुभूति की लहर पैदा हो और सूबे के जम्मू व लद्दाख क्षेत्र सहित देश के बाकी हिस्सों में भाजपा पर लोगों का यकीन बढ़े। वैसे भी कश्मीर घाटी में भाजपा का कोई जनाधार नहीं है जबकि घाटी के बाहर पीडीपी का कोई ‘नाम लेवा पानी देवा’ नहीं है। लिहाजा दोनों दलों के बीच आई दूरी के बावजूद अगर दोनों पक्ष ऐसे ही आरोप लगा रहे हैं और ऐसे ही तथ्य सामने ला रहे हैं जिससे अपने प्रभाव वाले इलाकों में दोनों उसका लाभ उठा सकें तो जाहिर है कि इसे दुश्मनी की नजाकत, मासूमियत और शराफत के नजरिये से ही देखा जाएगा। लेकिन सवाल है कि अगर यह दुश्मनी का स्वरूप है तो फिर आखिर दोस्ती किसे कहते हैं? वैसे दुश्मनी इतनी प्यारी-न्यारी हो तो दोस्ती की जरूरत भी क्या है। तभी तो अपने जम्मू दौरे में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने भी महबूबा पर उतना ही आरोप लगाया जो घाटी में पीडीपी के लिये फायदेमंद हो और बाकी जगह बीजेपी को उसका लाभ मिले। अगर अमित शाह ने विकास की रकम भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ने या गबन-हजम कियेे जाने का आरोप लगाया होता तो पीडीपी की छवि खराब होती। लेकिन उन्होंने आरोप लगाया कि महबूबा सरकार ने सिर्फ कश्मीर घाटी के विकास पर ध्यान दिया और जम्मू व लद्दाख क्षेत्र के साथ सौतेला व्यवहार किया जिसके चलते सूबे के समग्र विकास का लक्ष्य हासिल नहीं हो पाया। जाहिर है कि जब दुश्मनी होने के बाद भी बीजेपी यह प्रमाणपत्र दे रही है कि सूबे के बाकी हिस्सों को छोड़कर महबूबा सरकार ने सिर्फ घाटी के हित में काम किया तो इससे घाटी में महबूबा के प्रति लोगों के स्नेह व विश्वास में वृद्धि होना स्वाभाविक ही है। खैर, तीन साल तक दोस्ती का फायदा उठाने के बाद अब दुश्मनी करके एक-दूसरे को लाभ दिलाने का प्रयास किस हद तक सफल होगा यह कहना तो मुश्किल है, लेकिन जनता को मूर्ख समझने वाले चतुर-सुजान को यह नहीं भूलना चाहिये कि- खैर खून खांसी खुशी वैर प्रीत मद्यपान, रहिमन दाबे ना दबे जानत सकल जहान। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।  @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
    

बुधवार, 6 जून 2018

‘‘डरे हुए हैं डराने वाले...’’

अक्सर यह देखा गया है कि जो दूसरों को डराने की कोशिश करता है वह भीतर से खुद ही डरा हुआ होता है। जो डरा हुआ नहीं होगा उसे दूसरे को डराने की जरूरत ही क्या है। लिहाजा अगर कोई किसी को डराने की कोशिश करता हुआ दिखाई दे तो आंखें मूंद कर यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि अपने डर को छिपाने के लिये ही दूसरे को डराने का प्रयास किया जा रहा है। डर के इसी मनोविज्ञान के कारण आक्रमण को ही बचाव के सबसे कारगर हथियार के तौर पर मान्यता मिली हुई है। लिहाजा सत्य को समझने व परखने के लिये आवश्यक है कि सतह पर चल रही गतिविधियों को यथा रूप में स्वीकार करने के बजाय गहराई में उतर कर मामले की असली वजह को जाना जाये और उसके बाद ही किसी नतीजे पर पहुंचा जाये। देश की मौजूदा राजनीतिक गतिविधियों को अगर इस नजरिये से देखें तो सतह की तस्वीर राजग की सेहत व एकजुटता के लिहाज से बेहद ही खराब दिखाई पड़ रही है। आलम यह है कि राजग के मौजूदा स्वरूप में निर्णायक भूमिका निभा रहे दलों ने इन दिनों भाजपा को धमकाने-डराने का अभियान सरीखा छेड़ दिया है। शिवसेना ताल ठोंक कर अकेले दम पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी है जबकि जदयू ने भी भाजपा की रीति-नीति से अलग रूख प्रदर्शित करना आरंभ कर दिया है। यूपी में ओमप्रकाश राजभर के सुर भी असहमति दर्शा रहे हैं और रामविलास पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा भी अंदरूनी तौर पर भाजपा से भरे बैठे हैं। लेकिन सवाल है कि आखिर यह सब हो क्यों रहा है। कहने को भले ही शिवसेना मोदी सरकार पर मतदाताओं से किये गये वायदे तोड़ने और मूल वैचारिक सिद्धांतों को छोड़ने का आरोप लगा रही हो जबकि जदयू द्वारा बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने का राग आलापा जा रहा हो लेकिन गहराई से परखा जाये तो यह सब दिखावा अपने डर को छिपाने के लिये ही किया जा रहा है। ऐसी ही आड़ लेकर बीते दिनों टीडीपी भी राजग से अलग हुई थी। वह भी तब जबकि टीडीपी की मांग के अनुरूप आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का कागजी सर्टीफिकेट भले ही नहीं दिया गया लेकिन जहां तक विशेष राज्य के तौर पर योजनाओं की सौगात देने की बात है तो उसमें केन्द्र ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इसके बावजूद अगर टीडीपी ने राजग से अलग होने का फैसला किया तो इसकी मुख्य वजह स्थानीय राजनीति में अपनी ढ़ीली पड़ती पकड़ और अल्पसंख्यक मतदाताओं के बीच अस्वीकार्यता का डर ही था। यही हाल महाराष्ट्र में शिवसेना का है जो आज भी यह स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है कि अब उसकी औकात इतनी बड़ी नहीं बची है कि वह सूबे में सबसे अधिक सीटों पर दावा कर सके या प्रदेश में राजग की कमान अपने हाथों में रख सके। यही वजह है कि उसने सीटों पर तालमेल नहीं होने के कारण ही महाराष्ट्र का विधानसभा चुनाव भी भाजपा से अलग होकर लड़ा था और अब लोकसभा चुनाव भी अपने दम पर लड़ने की बात कह रही है। हालांकि आज भी शिवसेना को कहीं ना कहीं यह उम्मीद है कि दबाव में आने पर भाजपा उसका वर्चस्व अवश्य स्वीकार कर लेगी और महाराष्ट्र की राजनीति में उसे बड़े भाई के तौर पर दोबारा स्वीकार करके उसे अपने से अधिक सीटें अवश्य देगी। इसी उम्मीद में उसने आज तक राजग का दामन नहीं छोड़ा है और प्रदेश से लेकर केन्द्र तक में वह भाजपा के साथ सत्ता में साझेदारी कर रही है। भाजपा भी यही उम्मीद जता रही है कि चुनाव से पहले शिवसेना को साथ मिल कर चुनाव लड़ने के लिये अवश्य मना लिया जाएगा। ऐसे में स्पष्ट है कि शिवसेना द्वारा भाजपा को उकसाने और धमकाने की जो कोशिशें हो रही हैं उसकी असली वजह प्रदेश की राजनीति में कमजोर पड़ने का डर ही है। इसी प्रकार बिहार में राजग के मौजूदा स्वरूप में अपनी भूमिका सुनिश्चित करने के लिये ही नीतीश कुमार भी भाजपा के खिलाफ सख्त तेवर दिखा रहे हैं वर्ना व्यावहारिक या सैद्धांतिक तौर पर जदयू का राजग से कोई मतभेद नहीं है। दरअसल बीते लोकसभा चुनाव में जब महागठबंधन में शामिल होकर जदयू ने राजग के खिलाफ चुनाव लड़ा तब राजग को बिहार की कुल 40 में से 31 सीटें मिली थीं जिसमें भाजपा को 22, पासवान की लोजपा को छह और कुशवाहा की आरएलएसपी को तीन सीटों पर जीत मिली थी। ऐसे में जदयू को डर सता रहा है कि इस बार राजग में उसके लिये शेष नौ सीटें ही बचेंगी जिस पर पिछली बार राजग को हार का सामना करना पड़ा था। यही हाल रामविलास पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा का भी है जिन्हें डर है कि जदयू के लिये उन्हें अपनी जीती हुई सीटों की कुर्बानी देनी पड़ सकती है। हालांकि भाजपा स्पष्ट कर चुकी है कि सीटों का तालमेल करने के दौरान सहयोगियों को कतई बलि का बकरा नहीं बनाया जाएगा और जीत के समीकरण की जरूरत के मुताबिक वह भी अपनी जीती हुई सीटों का मोह छोड़ने में कतई संकोच नहीं करेगी। लेकिन इस स्पष्टीकरण से उसके सहयोगियों का डर दूर नहीं हो पा रहा है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि अपने डर को छिपाए रखकर उसका इलाज करने के लिये भाजपा को डराने की रणनीति का क्या नतीजा निकलता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur