सोमवार, 30 जुलाई 2018

‘मजबूत व्यवस्था में पिसता मजबूर आदमी’


राजधानी दिल्ली सिर्फ एक शहर या महानगर नहीं है। यह मिनी भारत भी है। देश का शायद ही कोई ऐसा जिला-जनपद होगा जहां के लोग दिल्ली में ना रहते हों। जाहिर है कि जहां पूरे भारत के लोग रहते हैं वहां देश के हर कोने की सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान और बोल-वचन ही नहीं बल्कि समूचे देश में जमीनी स्तर पर मौजूद गुण-अवगुण और (सु या कु) व्यवस्था के भी दर्शन होंगे ही। लेकिन होता यह है कि गुण का प्रसार तो बाद में होता है अवगुण अपने पांव काफी तेजी से फैला लेता है। पूरे तालाब को गंदा करने के लिये सिर्फ एक सड़ी हुई मछली ही काफी होती है और समूचे गुलिस्तान को विरान करने के लिये एक ही उल्लू काफी होता है। लेकिन यहां तो समूचे देश का गुण कम और दुर्गुण अधिक आ गया है। तभी तो दिल्ली का दामन दिनों-दिन इस कदर दागदार और तार-तार होता जा रहा है कि अब यह कहने में भी शर्म आने लगी है कि यह दिलवालों की दिल्ली है। सच पूछा जाये तो अब दिल्ली की व्यवस्था के संचालकों में दिल नाम की कोई चीज चिराग लेकर ढूंढ़ने से भी बमुश्किल ही मिल पाती है। देश के बाकी हिस्सों में हालात शायद ही इतने बुरे हों जितने दिल्ली में हैं। यहां आदमी की सुविधा के लिये व्यवस्था नहीं है बल्कि सुविधा के साथ व्यवस्था के संचालन में सहभागी बनना आदमी की विवशता है। यहां आदमी के लिये व्यवस्था नहीं बदलती बल्कि व्यवस्था के मुताबिक आदमी को ढ़लना-बदलना पड़ता है। यहां आदमी की किसी समस्या के लिये व्यवस्था कतई जिम्मेवार नहीं होती, अलबत्ता व्यवस्था की समस्याओं के लिये आदमी को जिम्मेवार अवश्य बताया जाता है। यहां बिना उफ किये चुपचाप व्यवस्था को सहते-ढ़ोते रहना आदमी की अनिवार्य जिम्मेवारी है। हालांकि जो लोग दिल्ली की इस हकीकत से वाकिफ नहीं हैं उनके लिये ये बातें अचरज का सबब हो सकती हैं लेकिन यहां आदमी और व्यवस्था के बीच का रिश्ता महीनों या वर्षों नहीं बल्कि दशकों से ऐसा ही चला आ रहा है। यहां व्यवस्था मजबूत है और आदमी मजबूर। तभी तो एक नीम-पागल मां और दरिद्र रिक्शाचालक पिता की तीन बेटियां भूख से दम तोड़ देती हैं लेकिन इसके लिये पूरी व्यवस्था के किसी भी अंग की जिम्मेवारी तय नहीं होती। हालांकि मौत भूख से हुई है तो राजनीति भी होगी ही। तभी उंगली भी उठ रही है और दोषारोपण भी हो रहा है। कांग्रेस ने केन्द्र की भाजपा और दिल्ली की आप सरकार को जिम्मेवार बताया है। भाजपा, कांग्रेस के शासन में हुए ‘खुल्ला खेल फर्रूखाबादी’ और आप सरकार के नाराकरापन को जिम्मेवार बता रही है। उधर आप सरकार व्यवस्था के सिर पर मामले की जिम्मेवारी का ठीकरा फोड़ रही है। रही व्यवस्था की बात तो उसका तर्क है कि बीते कई सालों से उसके पास कोटा ही खाली नहीं है कि नया राशन कार्ड बन सके। यानि भूख से हुई तीन मासूम बहनों की मौत की शर्मनाक घटना के लिये यहां कोई जिम्मेवार नहीं है। वह भी तब जबकि साल 2013 में संसद ने खाद्य सुरक्षा कानून पारित किया तो लगा कि अब देश में कोई भूखा नहीं सोएगा। सबको भर पेट भोजना अवश्य मिलेगा। लेकिन इस कानून को यहां की व्यवस्था ने इस तरह लागू किया कि भूखे तक तो रोटी पहुंची नहीं अलबत्ता राशन पाने का हक उन्हें मिला जिनके लिये यह राहत नहीं मुनाफा है। व्यवस्था को चढ़ावा चढ़ाने के एवज में हासिल मुनाफा। वैसे बिना चढ़ावे के प्रसाद मिले भी तो कैसे? क्योंकि जिन नियम-कायदों के तहत 15 लाख परिवारों के राशन कार्ड बनाए गए उसमें शर्त रखी गई कि एक लाख सालाना से अधिक आमदनी वाले परिवारों को राशन नहीं दिया जा सकता। साथ ही एक अनिवार्य शर्त थी कि कार्ड उनका ही बनेगा जिनके पास रिहाइश का प्रमाण भी उपलब्ध हो। यानि नियम ऐसा जिसे बिना चढ़ावे के पूरा नहीं किया जा सकता। वर्ना जिसके पास दिल्ली में रिहाइश का प्रमाण पत्र होगा उसकी आमदनी सिर्फ एक लाख सालाना कैसे हो सकती है और जिसकी कमाई सिर्फ एक लाख होगी वह दिल्ली जैसे शहर में परिवार कैसे पाल सकेगा। इस झोल की पोल तब खुली जब राशन वितरण के लिये बायोमैट्रिक व्यवस्था लागू की गई। तब कुल चार लाख कार्डधारक ऐसे गायब हुए कि उनका कुछ अता-पता ही नहीं चला। इनमें डेढ़ लाख कार्डधारक तो ऐसे थे जिन्होंने सालाना 25 हजार की आमदनी दर्शाकर वह अंत्योदय कार्ड हासिल कर लिया जिसमें सामान्य राशन कार्ड के मुकाबले काफी अधिक सरकारी सुविधाएं मिलती हैं। लेकिन इन कार्डों को निरस्त करने की जहमत नहीं उठाई गई क्योंकि दिल्ली की गरीब हितैषी सरकार के संचालकों ने इसमें अड़ंगा लगा दिया। नतीजन जिस मंडावली में तीन बहनों की भूख से मौत हुई है वहां कोटा खाली नहीं होने के कारण वर्ष 2015 से अब तक एक भी नया राशन कार्ड बनाया ही नहीं गया है। यही स्थिति समूची दिल्ली की है। अब ऐसे में अगर कोई पूछे कि इस पूरी अव्यवस्था की जिम्मेवारी किसकी है तो शायद ही इसका कोई जिम्मेवार साबित हो सके। लिहाजा जब भूख से तीन बच्चियों की मौत की खबर सुर्खियों में आती है तो दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री इसका ठीकरा व्यवस्था पर फोड़ते हैं। वैसे एक मिनट के लिये उनकी बात मान भी ली जाए तो सवाल उठता है कि अगर ऐसी व्यवस्था के भरोसे रहना है तो फिर सरकार की क्या जरूरत है? ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर

गुरुवार, 26 जुलाई 2018

बहुत कठिन है डगर ‘संप्रग’ की....

कहने को भले ही अगली लोकसभा का गठन होने में दस महीने का वक्त बाकी हो लेकिन तमाम राजनीतिक दलों ने अभी से चुनावी बिसात पर अपनी गोटियां जमाने का काम युद्धस्तर पर आरंभ कर दिया है। जाहिर है कि कांग्रेस भी इसमें पीछे रहने का जोखिम नहीं उठा सकती है। लेकिन मसला है कि अब तक अमल में लायी जा रही रणनीतियां व कूटनीतियां जिस तरह से विफल होती दिख रही हैं उसके बाद अब नए सिरे से परिस्थितियों को अपने मन मुताबिक ढ़ालना और मोदी सरकार के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत विकल्प प्रस्तुत करना बेहद मुश्किल हो गया है। आलम यह है कि अव्वल तो अपने दम पर चुनावी भवसागर में उतरने पर डूबने का खतरा स्पष्ट दिख रहा है और दूसरे जिन छोटे-बड़े दलों को समेट-गूंथ कर संप्रग की नैया के निर्माण की योजना बनाई गई थी वह योजना भी परवान नहीं चढ़ पा रही है। ऐसे में अब अंतिम उपाय के तौर पर नैया के खिवैया का पद रिक्त रखने के अलावा कोई दूसरा विकल्प ही नहीं बचा है ताकि पद प्राप्ति के लोभ में सभी संगी-साथी मजबूती से आपस में जुड़े रहें और भाजपा के अन्य विरोधियों को भी यही लोभ-मोह दिखाकर संप्रग के साए तले एकत्र होने के लिये सहमत किया जा सके। इसी रणनीति के तहत कांग्रेस ने तय किया है कि वह प्रधानमंत्री पद के लिये अपनी दावेदारी की जिद पर नहीं अड़ेगी बल्कि नेतृत्व के मसले पर अब आमसहमति से ही अंतिम फैसला किया जाएगा। हालांकि सच तो यही है कि कांग्रेस ने बड़े दिल या बड़प्पन का प्रदर्शन करते हुए कांग्रेस ने यह फैसला नहीं किया है। बल्कि यह काफी हद तक ऐसा ही त्याग है जैसा वर्ष 2004 में सोनिया गांधी ने संप्रग को बहुमत मिलने के बाद प्रधानमंत्री पद का परित्याग करके किया था। उस वक्त प्रधानमंत्री का पद ग्रहण करने से परहेज बरतना सोनिया की मजबूरी थी और मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी छोड़ना कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की विवशता है। तब स्वीकार्यता आड़े आयी थी और अब संप्रग के पुनर्गठन की चुनौती है। वर्ना राहुल के नेतृत्व को गैर-भाजपाई विपक्ष के अधिकांश दला़ें ने काफी हद तक नकार दिया है। राहुल का चेहरा आगे करके चुनाव लड़ने की कांग्रेस की जिद के कारण ही अब तक संप्रग के एकीकरण की राह तैयार नहीं हो पाई है। इसी जिद के कारण विपक्षी खेमे के अधिकांश ऐसे दलों ने कांग्रेस से दूरी बढ़ानी शुरू कर दी जो वर्ष 2004-2014 के दौरान लगातार कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के साझीदार व समर्थक रहे थे और आज भी भाजपा के साथ उनका कोई तालमेल नहीं है। लेकिन संप्रग की नैया का राहुल को खिवैया बनाने की कांग्रेस की जिद ने गठजोड़ के पुराने घटक व समर्थक दलों के आपसी तालमेल व परस्पर विश्वास को अंदरूनी तौर पर इतना कमजोर कर दिया कि लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर पूरे दिन चली चर्चा के बाद देर रात हुए मतदान के दौरान कांग्रेस से अलग दिखने की कोशिशों के तहत ही शरद पवार की राकांपा और चंद्रशेखर राव की टीआरएस ने मतदान की प्रक्रिया में शिरकत करने से ही परहेज बरत लिया। दरअसल कांग्रेस के हाथों में समूचे विपक्ष का नेतृत्व सौंपने को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर सहमति का माहौल बनता नहीं दिख रहा है। महाराष्ट्र की एनसीपी, तमिलनाडु की अन्ना द्रमुक, ओडिशा की बीजद, तेलंगाना की टीआरएस और आंध्र प्रदेश की टीडीपी सरीखी स्थानीय स्तर पर बेहद ताकतवर समझी जानेवाली उन पार्टियों को अपने साथ जोड़कर राष्ट्रव्यापी महा-गठजोड़ बनाना भी कांग्रेस के लिये बड़ी चुनौती बन गयी है जो किसी भी सूरत में भाजपानीत राजग के साथ चुनावपूर्व गठजोड़ कायम नहीं कर सकते। यहां तक कि उत्तर प्रदेश और बिहार में महा-गठजोड़ का प्रयोग पूरी तरह सफल रहने के बावजूद एक ओर बसपा सुप्रीमो मायावती ने ऐलान कर दिया है कि सम्मानजनक संख्या में सीटें मिलने पर ही वे साझेदारी में चुनाव लड़ने का प्रस्ताव स्वीकार करेंगी और दूसरी ओर बिहार में राजद के शीर्ष संचालक कहे जानेवाले तेजस्वी यादव ने भी बता दिया है कि विपक्ष में प्रधानमंत्री पद के लिये राहुल के अलावा और भी चेहरे उपलब्ध हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। इसके अलावा कर्नाटक में भी कुमारस्वामी द्वारा सार्वजनिक तौर पर आंसू बहाये जाने, गठबंधन की सरकार चलाने में पेश आ रही परेशानियों की तुलना जहर के घूंट से किये जाने और एचडी देवेगौड़ा द्वारा चुनाव पूर्व गठजोड़ को अव्यावहारिक बताये जाने के बाद यह संभावना बेहद कम दिख रही है कि वहां संप्रग की सरकार होने के बावजूद लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ कोई मजबूत महा-गठजोड़ आकार ले पाएगा। यानि कांग्रेस को अब मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात व पंजाब सरीखे उस सूबों में अपने बलबूते पर ही कोई करिश्मा कर दिखाना होगा जहां उसकी भाजपा से सीधी टक्कर होने वाली है और तीसरी ताकत के लिये कोई जगह ही नहीं है। ऐसे में देश की मौजूदा सियासी तस्वीर को समग्रता में समझने की कोशिश करें तो अगले चुनाव में विपक्षी महा-गठजोड़ बनाकर गैर-भाजपाई वोटों का राष्ट्रीय स्तर पर बिखराव रोकने की तमाम कोशिशें नाकाम होती दिख रही हैं। ऐसी सूरत में होगा यह कि जिन सीटों पर भाजपा का मुकाबला किसी गैर-कांग्रेसी दल से होगा वहां ना चाहते हुए भी कांग्रेस ही भाजपा को लाभ पहुंचाएगी क्योंकि ऐसी सीटों पर गैर-भाजपाई वोटों में कांग्रेस के कारण ही बिखराव होगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @नवकांत ठाकुर 

सोमवार, 23 जुलाई 2018

‘नुक्स है कुछ मेरे बयान में क्या...???’




अमरोहा में जन्मे उर्दू के महान शायर जाॅन एलिया भले ही हिन्दुस्तान के बंटवारे के बाद पाकिस्तान में रह-बस गए लेकिन उनकी कलम से एक ऐसी गजल निकली जो पूरी तरह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के दिल की आवाज बनने के काबिल है। जाॅन लिखते हैं कि- ‘‘उम्र गुजरेगी इम्तहान में क्या? अब भी हूं मै तेरी अमान में क्या? मेरी हर बात बेअसर ही रही, नुक्स है कुछ मेरे बयान में क्या? मुझको तो कोई टोकता भी नहीं, यही होता है खानदान मे क्या? बोलते क्यो नहीं मेरे अपने, आबले पड़ गये जबान में क्या?’’ राहुल वाकई बीते लंबे समय से इसी मसले से जूझ रहे हैं। वर्ना ऐसा कैसे हो सकता कि कोई जान-बूझकर ऐसी बातें और हरकतें करे जिससे उसकी किरकिरी हो, फजीहत हो। लिहाजा लग यही रहा है कि अव्वल तो राहुल को यह पता नहीं चल रहा कि उनसे क्या गलती हो रही है और दूसरे जिन लोगों पर फीडबैक पहुंचाने और सही सलाह देने की जिम्मेवारी है वे अपने कर्तव्य को इमानदारी से अंजाम नहीं दे रहे हैं। नतीजन उनकी जायज व वाजिब बातें भी उनकी हरकतों व गलतियों के बोझ तले दम तोड़ रही हैं। ऐसी ही तस्वीर दिखी लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान भी। यूं तो राहुल ने कितना सच बोला और किस हद तक झूठ का सहारा लिया इस पर अलग से बहस हो सकती है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि उनका भाषण काफी नपा-तुला, ओजस्वी, आक्रामक और धारदार था। अपने संबोधन को भावनात्मक रूप देते हुए युवाओं, महिलाओं, दलितों व अल्पसंख्यकों को संदेश देने में भी वे सफल रहे। मोदी सरकार की रीति-नीति पर प्रहार करते हुए यह साबित करने की कोशिश भी कामयाब रही कि किस तरह सरकार चुनिंदा उद्योगपतियों को भरपूर लाभ पहुंचाने के लिये आम लोगों की जेब से पैसा निचोड़ रही है। यानि कुल मिलाकर उनका भाषण ठीक वैसा ही था जिसकी मुख्य विपक्षी दल के शीर्ष नेता से अपेक्षा रहती है। लेकिन पूरा गुड़ गोबर हो गया उनकी हरकतों से। उन्होंने कुछ ऐसी हरकतें कर दीं जिसे कतई मर्यादित, संसदीय, अपेक्षित या अनुकरणीय नहीं कह सकते। तभी उनका भाषण हाशिये पर रह गया और हरकतों के कारण उनकी जमकर आलोचना हो रही है। पहली गलती यह हुई कि जब उन्होंने राफेल विमान सौदे को लेकर रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण पर गलतबयानी का आरोप लगाया तब अपनी सफाई देने के लिये तुरंत निर्मला खड़ी हुईं लेकिन राहुल ने उन्हें बोलने का मौका ना देते हुए अपना भाषण लगातार जारी रखा। जबकि परंपरा है कि अगर संसद में कोई मंत्री कुछ कहने के लिये खड़ा होता है तो उस समय बोल रहा सदस्य तत्काल चुप होकर बैठ जाता है। लेकिन राहुल ने ऐसा नहीं किया। हालांकि इसके लिये लोकसभा अध्यक्षा ने राहुल को सभ्य भाषा में मर्यादा और परंपरा की याद भी दिलाई लेकिन राहुल की कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। इसके बाद दूसरी गलती उन्होंने अकाली दल की सांसद व केन्द्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल के बारे यह कहके कर दी कि भाषण में व्यवधान के दौरान जब सदन की कार्रवाई कुछ मिनटों के लिये स्थगित हुई तब वे उनकी ओर मुस्कुराते हुए देख रही थीं। जाहिर है कि किसी महिला के लिये ऐसी बात कहना हर लिहाज से बेहद गलत व अमर्यादित आचरण ही कहा जाएगा। तभी बिफरते हुए हरसिमरत ने उनसे पूछ लिया कि आज वे कौन सा नशा करके आए हैं? इसके बाद सबसे बड़ी गलती राहुल ने प्रधानमंत्री मोदी के गले लगने के बहाने उनके गले पड़कर की। गले लगना तो तब कहेंगे जब दो लोग एक साथ गले मिलने के लिये अपनी बांहें फैलाएं। लेकिन जब किसी बैठे हुए आदमी के पास जाकर कोई अचानक उसके गले में बांहों का फंदा डालकर उससे चिपट जाए तो इसे गले पड़ना कहा जाएगा। वैसे भी संसद के भीतर इस तरह के आचरण को कतई सामान्य, शिष्ट या संसदीय नहीं माना जा सकता। तभी इसके लिये लोकसभा अध्यक्षा की ओर कड़ी बात भी कही गई और हरसिमरत को भी यह कहने का मौका मिल गया कि यह मुन्नाभाई का मंच नहीं है जहां पप्पी-झप्पी डाली जाए। राहुल की इस हरकत को राजनाथ सिंह ने भी चिपको आंदोलन का नाम देकर चुटकी लेने में कसर नहीं छोड़ी। लेकिन सबसे आखिर में राहुल ने बेहद ही बचकाने तरीके से आंख मारकर यह जताने की जो कोशिश की कि मानो ऐसी हरकतें करके उन्होंने कोई बड़ा मैदान मार लिया हो वह सबसे अफसोसनाक था। इसका सीधा सा मतलब है कि उन्हें अपनी हरकतों का कोई अफसोस नहीं है और वे कतई यह नहीं मान सकते हैं कि उनसे कोई गलती हुई है। हालांकि लोकसभा अध्यक्षा ने बाद में राहुल को अपने बेटे जैसा बताते हुए उनकी गलतियों को बचपना समझ कर अनदेखा करने की पहल अवश्य की लेकिन यह बचपना था, मासूमियत थी, सरासर बदमाशी या आत्ममुग्धता की निशानी? आत्ममुग्धता इसलिये क्योंकि तमाम गलतियों के बाद राहुल की जुबान से साॅरी का एक छोटा सा औपचारिक अल्फाज भी नहीं निकला। बल्कि वे अपनी हरकतों पर अभीभूत होकर अपने पक्ष के सांसदों की ओर देखकर आंख मारते नजर आए। इस पूरे प्रकरण से हुआ यह है कि विरोधियों द्वारा उनकी पप्पू की जो छवि बनायी जाती रही है उसे इन्होंने खुद ही पूरी मजबूती से स्वीकार व अंगीकार कर लिया है जिसके लिये सिर्फ अफसोस ही जताया जा सकता है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

गुरुवार, 19 जुलाई 2018

‘विश्वास को परखने के लिए अविश्वास का प्रस्ताव’


एक बार फिर संसद में सरकार के खिलाफ विपक्ष द्वारा अविश्वास का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया है। भारतीय संसद के इतिहास का पहला अविश्वास प्रस्ताव वर्ष 1963 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार के खिलाफ लाया गया था और अंतिम बार वर्ष 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को अविश्वास के प्रस्ताव का सामना करना पड़ा। उसके डेढ़ दशक बाद यह 27वीं बार है जब भारतीय संसद अविश्वास प्रस्ताव की साक्षी बनने जा रही है। इसमें दिलचस्प बात यह है कि अब तक केवल एक ही बार ऐसा मौका आया जब अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में अधिक वोट पड़ जाने के कारण सरकार को सत्ता से हटना पड़ा। वर्ना तमाम अविश्वास प्रस्तावों का इतिहास असफलता का ही रहा है। इस बार भी कोई नया इतिहास लिखे जाने की उम्मीद ना तो विपक्ष को है और ना ही सत्ता पक्ष को। भले ही श्रीमती सोनिया गांधी ने सवालिया लहजे में पूछा हो कि कौन कहता है कि उनके पास संख्याबल नहीं है। लेकिन उन्हें भी बेहतर पता है कि चिराग लेकर ढ़ूंढ़ने से भी शायद ही कोई मिले जो यह स्वीकार करे कि लोकसभा में विपक्ष के पास मोदी सरकार को धूल चटाने के लिये आवश्यक संख्याबल उपलब्ध है। उधर सरकार की ओर से अनंत कुमार ने खम ठोंकते हुए कह दिया है कि शुक्रवार को सुबह ग्यारह बजे से आरंभ होने जा रहे अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के बाद शाम छह बजे जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपना जवाब प्रस्तुत करेंगे तो उसके बाद होने वाले मत विभाजन में निश्चित ही विपक्षी खेमे से भी सरकार के पक्ष में काफी वोट पड़ेंगे। यानि विपक्ष की कोशिश है सत्ता पक्ष में सेंध लगाने की और सरकार का दावा है कि वह विपक्षी एकता की कलई खोल देगी। लेकिन इन दावों की गहराई से पड़ताल करें तो वास्तव में यह कहने भर का ही अविश्वास प्रस्ताव नजर आ रहा है बल्कि इसके पीछे अपने विश्वास को मजबूत करने का प्रयास ही छिपा हुआ दिख रहा है। विपक्ष का अपना अलग विश्वास है और सत्ता पक्ष का अपना अलग। आखिर सरकार ने मानसून सत्र के पहले ही दिन अविश्वास प्रस्ताव को स्वीकार करने की जो पहल की है वह केवल अपने संख्याबल के विश्वास को परखने के लिये हर्गिज नहीं की है। मोदी सरकार के शीर्ष संचालकों को तो यह पहले से ही पता है कि इस समय लोकसभा के कुल 534 में से 273 सांसद भाजपा के ही हैं और राजग के घटक दलों के संख्याबल को भी जोड़ लिया जाए तो आंकड़ा 314 तक पहुंच जाता है। यानि सरकार के पास पूर्ण बहुमत के लिये आवश्यक संख्या से काफी अधिक सांसदों का समर्थन उपलब्ध है। इसके बाद भी अगर सरकार ने संसद के बीते सत्र में टीडीपी की भारी मांग के बावजूद उसे संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाने का मौका नहीं दिया और इस सत्र के पहले ही दिन उसकी मांग को एक ही झटके में स्वीकार कर लिया है तो इसके पीछे निश्चित ही गहरी कूटनीति छिपी हुई है। दूसरी ओर विपक्ष भी अपनी ताकत से कतई अनभिज्ञ नहीं है। तभी तो सपा के प्रधान महासचिव रामगोपाल यादव ने बेलाग लहजे में कहा है कि विपक्ष के पास भले ही सरकार गिराने के लिये आवश्यक नंबर नहीं है लेकिन इस अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा से सरकार को सवालों के कठघरे में खड़ा करने की सुविधा मिलेगी और सवालों का जवाब देने से सरकार बच नहीं पाएगी। यानि विपक्ष का मकसद भी अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से सरकार गिराना नहीं बल्कि अपनी बात को दूर तक पहुंचाना है जबकि सरकार का मकसद भी विपक्ष से अपना बचाव करना नहीं है बल्कि अविश्वास प्रस्ताव को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करके विपक्ष को ऐसी चोट पहुंचाना है जिससे वह आगामी चुनावों तक हर्गिज संभल ना सके। दरअसल यह लड़ाई अपनी जीत सुनिश्चित करने की नहीं बल्कि अपने उस विश्वास को मजबूत करने की है जिसके तहत हर पक्ष आगामी चुनावों का ताना-बाना बुन रहा है। कांग्रेस की कोशिश है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ एक ऐसा महा-गठजोड़ तैयार किया जाये ताकि भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव रोक कर मोदी सरकार की वापसी की संभावनाओं पर विराम लगाया जा सके। दूसरी ओर सरकार की कोशिश है कि महा-गठजोड़ के प्रयास को प्रायोगिक स्तर पर ही इस कदर कमजोर कर दिया जाए कि विपक्षियों के बीच साथ मिल कर चुनाव लड़ने के लिये आवश्यक आपसी विश्वास की जमीन ही खिसक जाए। इसी प्रकार विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के माध्यम से अपने तमाम आरोपों को देश के समक्ष रखने और संसद के रिकार्ड में दर्ज कराने में कामयाबी मिलेगी जबकि सरकार को सहूलियत होगी कि वह अपने चार साल के कामकाज का पूरा हिसाब किताब संसद के माध्यम से जनता जनार्दन के समक्ष प्रस्तुत कर सके। इसके अलावा विपक्ष का प्रयास होगा कि सत्ता पक्ष में सेंध लगाकर भाजपा के समर्थकों व संगी-साथियों की तादाद में कमी लाए और देश को यह बताए कि राजग की एकता व मजबूती का दावा किस कदर खोखला है जबकि सरकार का प्रयास होगा कि वह विपक्षी खेमे में सेंध लगाकर विरोधियों के आत्मबल को इस कदर कमजोर कर दे कि वे अपनी जीत के विश्वास के प्रति आश्वस्त होकर चुनाव लड़ने की स्थिति में ही ना आ सकें। यानि समग्रता में देखें तो इस अविश्वास प्रस्ताव का मतलब कुछ और है, मकसद कुछ और। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’  @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

सोमवार, 16 जुलाई 2018

‘बड़े की जगह पर बेहतर का चयन’

क्रिकेटर सचिन तेंडुलकर और अभिनेत्री रेखा के अलावा देश की सबसे अमीर महिलाओं में गिनी जानेवाली अनु आगा व नेहरू-गांधी परिवार के सबसे विश्वासपात्र वकीलों में शुमार किये जानेवाले के. पराशरण का कार्यकाल पूरा होने के बाद उनके स्थान पर राज्यसभा के लिये मनोनीत किये जाने वाले नामों को देखकर तो यही लगता है कि इनको आगे लाने में ठोस सियासी समीकरणों के अलावा इस बात का भी खास ध्यान रखा गया है कि पूर्ववर्ती मनोनीत सांसदों की तरह ये निष्क्रिय ना रहें। हालांकि इन चारों के नामों पर अंतिम मुहर लागने से पहले यह विकल्प भी उपलब्ध था कि पिछली सरकार की तरह बड़े नामों व चमकदार चेहरों को आगे बढ़ाकर समाज के उच्च व अभिजात्य वर्ग की वाहवाही लूटी जा सके। बताया जाता है कि कुछ बड़े व स्वनाम धन्य लोगों को राज्यसभा के लिये मनोनीत करने पर विचार भी किया गया लेकिन आखिरकार यही तय हुआ कि ऐसे लोगों को संसद की सदस्यता दी जाये जो सदन की बैठकों में सक्रियता के साथ शामिल हों ताकि उनके अनुभव व ज्ञान का देश व समाज को लाभ मिले। साथ ही राजनीतिक व सैद्धांतिक समीकरणों का असर भी मनोनीत सांसदों की सूची पर स्पष्ट दिख रहा है क्योंकि जिन राज्यों में जिस तबके के बीच सत्तारूढ़ भाजपा को अपनी पैठ बढ़ानी व बनानी है उसका भी इन नामों के चयन में खास ध्यान रखा गया है। वास्तव में देखा जाये तो रेखा या सचिन जैसे बड़े व चमकदार नामों को संसद के लिये मनोनीत किये जाने से देश व समाज को कुछ भी हासिल नहीं हुआ। अव्वल तो इन्होंने सदन की बैठकों में नाम मात्र के लिये ही उपस्थिति दर्ज कराई और दूसरे पूरे कार्यकाल के दौरान ये लोग काफी हद तक निष्क्रिय ही बने रहे। आंकड़े बताते हैं कि छह साल के कार्यकाल के दौरान रेखा की महज पांच फीसदी जबकि सचिन सिर्फ सात फीसदी ही सदन की बैठकों में उपस्थिति दर्ज हुई। इनके पास इतनी फुर्सत ही नहीं होती थी कि सांसद के तौर पर ये सदन की बैठक में शामिल हो सकें। वह भी तब जबकि मोदी सरकार के कार्यकाल में देश व समाज के हित में सार्थक काम करने का मौका मुहैया कराते हुए संसद ने रेखा को वर्ष 2016 में फूड, कंज्यूमर अफेयर्स और पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन की समिति का और सचिन को भी उसी वर्ष इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी से जुड़ी समिति का सदस्य भी बनाया लेकिन इस अवसर का उपयोग करने की भी उन्होंने कोई जरूरत महसूस नहीं की जिसके कारण समिति में उनके योगदान का कोई ब्यौरा उपलब्ध नहीं है। इसके अलावा सांसद होने के नाते सरकार से सवाल पूछना और जनहित के विधेयक पेश करना भी उनकी जिम्मेवारी थी लेकिन रेखा ने तो दिखाने या गिनाने के लिये भी कभी कोई सवाल नहीं पूछा अलबत्ता सचिन ने जरूर पूरे छह साल में तकरीबन दो दर्जन सवाल पूछे। जाहिर है कि ऐसे में बड़े नामों व चमकदार चेहरों को सांसद के तौर पर मनोनीत करने से देश व समाज का कितना भला होता यह शायद ही किसी को अलग से बताने की जरूरत पड़े। उनके स्थान पर जिन लोगों को इस बार सरकार की सिफारिश व राष्ट्रपति की मंजूरी से राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया है उनसे यह उम्मीद करना कतई गलत नहीं होगा कि वे ना सिर्फ सदन में पूरी तरह अपनी सक्रियता दिखाएंगे बल्कि अपनी मुखर व प्रखर सोच व व्यक्तित्व का लाभ देश व समाज को भी पहुंचाएंगे। इस बार जिन चार नामों का चयन किया गया है उनमें यूपी के सोनभद्र जिले के रॉबर्ट्सगंज लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से तीन बार सांसद रहे रामशकल जाने-माने किसान नेता व दलित विचारक हैं जबकि राकेश सिन्हा राष्ट्रवादी विचारों को मीडिया के माध्यम से प्रखरता के साथ प्रस्तुत करने के लिए जाने जाते हैं। इसी प्रकार महाराष्ट्र की सोनल मानसिंह ना सिर्फ मशहूर नृत्यांगना व पद्म विभूषण, पद्म भूषण और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हैं बल्कि मुखर-प्रखर वक्ता व विचारक के तौर पर भी जानी जाती हैं। इसी प्रकार ओडिशा के जाने-माने पाषाण-मूर्तिकार रघुनाथ महापात्रा के ज्ञान, दक्षता व लोकप्रियता को लेकर हर्गिज शक-सुबहा नहीं किया जा सकता है। यानि ये चारों नाम ऐसे हैं जिनसे संसद में व्यापक सक्रियता की उम्मीद करना कतई गलत नहीं होगा। साथ ही इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि इन चारों का चयन करने से सरकार को लेकर उस तबके के बीच सकारात्मक संदेश प्रसारित होगा जिसका सीधा राजनतिक लाभ भाजपा को ही मिलेगा। जहां एक ओर रामशकल को आगे लाकर यूपी के किसानों व दलितों का संसद के ऊपरी सदन में प्रतिनिधित्व दिखाया व बढ़ाया गया है वहीं भाजपा की मातृ संस्था आरएसएस के मुखर विचारक व कायस्थ समाज के बिहारी प्रतिनिधि के तौर पर राकेश सिन्हा को आगे किए जाने का राजनीतिक संदेश भी दूर तक जाना तय ही है। इसके अलावा सोनल मानसिंह का नाम महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि पश्चिम बंगाल से लेकर दक्षिण भारत तक में मौजूद कला व संस्कृति में रूचि रखने वालों के बीच सकारात्मक संदेश देने वाला है जबकि महापात्रा की प्रसिद्धि ओडिसा में भाजपा के प्रति भावनात्मक जुड़ाव की राह तैयार करेगी। कुल मिलाकर इस बार बड़े के बजाय बेहतर नामों के चयन की जो पहल हुई है वह सियासी नजरिये से भी लाभदायक है और इनसे देश व समाज को भी भरपूर लाभ मिलने से कतई इनकार नहीं किया जा सकता। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’  @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur