एक बार फिर संसद में सरकार के खिलाफ विपक्ष द्वारा अविश्वास का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया है। भारतीय संसद के इतिहास का पहला अविश्वास प्रस्ताव वर्ष 1963 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार के खिलाफ लाया गया था और अंतिम बार वर्ष 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को अविश्वास के प्रस्ताव का सामना करना पड़ा। उसके डेढ़ दशक बाद यह 27वीं बार है जब भारतीय संसद अविश्वास प्रस्ताव की साक्षी बनने जा रही है। इसमें दिलचस्प बात यह है कि अब तक केवल एक ही बार ऐसा मौका आया जब अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में अधिक वोट पड़ जाने के कारण सरकार को सत्ता से हटना पड़ा। वर्ना तमाम अविश्वास प्रस्तावों का इतिहास असफलता का ही रहा है। इस बार भी कोई नया इतिहास लिखे जाने की उम्मीद ना तो विपक्ष को है और ना ही सत्ता पक्ष को। भले ही श्रीमती सोनिया गांधी ने सवालिया लहजे में पूछा हो कि कौन कहता है कि उनके पास संख्याबल नहीं है। लेकिन उन्हें भी बेहतर पता है कि चिराग लेकर ढ़ूंढ़ने से भी शायद ही कोई मिले जो यह स्वीकार करे कि लोकसभा में विपक्ष के पास मोदी सरकार को धूल चटाने के लिये आवश्यक संख्याबल उपलब्ध है। उधर सरकार की ओर से अनंत कुमार ने खम ठोंकते हुए कह दिया है कि शुक्रवार को सुबह ग्यारह बजे से आरंभ होने जा रहे अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के बाद शाम छह बजे जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपना जवाब प्रस्तुत करेंगे तो उसके बाद होने वाले मत विभाजन में निश्चित ही विपक्षी खेमे से भी सरकार के पक्ष में काफी वोट पड़ेंगे। यानि विपक्ष की कोशिश है सत्ता पक्ष में सेंध लगाने की और सरकार का दावा है कि वह विपक्षी एकता की कलई खोल देगी। लेकिन इन दावों की गहराई से पड़ताल करें तो वास्तव में यह कहने भर का ही अविश्वास प्रस्ताव नजर आ रहा है बल्कि इसके पीछे अपने विश्वास को मजबूत करने का प्रयास ही छिपा हुआ दिख रहा है। विपक्ष का अपना अलग विश्वास है और सत्ता पक्ष का अपना अलग। आखिर सरकार ने मानसून सत्र के पहले ही दिन अविश्वास प्रस्ताव को स्वीकार करने की जो पहल की है वह केवल अपने संख्याबल के विश्वास को परखने के लिये हर्गिज नहीं की है। मोदी सरकार के शीर्ष संचालकों को तो यह पहले से ही पता है कि इस समय लोकसभा के कुल 534 में से 273 सांसद भाजपा के ही हैं और राजग के घटक दलों के संख्याबल को भी जोड़ लिया जाए तो आंकड़ा 314 तक पहुंच जाता है। यानि सरकार के पास पूर्ण बहुमत के लिये आवश्यक संख्या से काफी अधिक सांसदों का समर्थन उपलब्ध है। इसके बाद भी अगर सरकार ने संसद के बीते सत्र में टीडीपी की भारी मांग के बावजूद उसे संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाने का मौका नहीं दिया और इस सत्र के पहले ही दिन उसकी मांग को एक ही झटके में स्वीकार कर लिया है तो इसके पीछे निश्चित ही गहरी कूटनीति छिपी हुई है। दूसरी ओर विपक्ष भी अपनी ताकत से कतई अनभिज्ञ नहीं है। तभी तो सपा के प्रधान महासचिव रामगोपाल यादव ने बेलाग लहजे में कहा है कि विपक्ष के पास भले ही सरकार गिराने के लिये आवश्यक नंबर नहीं है लेकिन इस अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा से सरकार को सवालों के कठघरे में खड़ा करने की सुविधा मिलेगी और सवालों का जवाब देने से सरकार बच नहीं पाएगी। यानि विपक्ष का मकसद भी अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से सरकार गिराना नहीं बल्कि अपनी बात को दूर तक पहुंचाना है जबकि सरकार का मकसद भी विपक्ष से अपना बचाव करना नहीं है बल्कि अविश्वास प्रस्ताव को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करके विपक्ष को ऐसी चोट पहुंचाना है जिससे वह आगामी चुनावों तक हर्गिज संभल ना सके। दरअसल यह लड़ाई अपनी जीत सुनिश्चित करने की नहीं बल्कि अपने उस विश्वास को मजबूत करने की है जिसके तहत हर पक्ष आगामी चुनावों का ताना-बाना बुन रहा है। कांग्रेस की कोशिश है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ एक ऐसा महा-गठजोड़ तैयार किया जाये ताकि भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव रोक कर मोदी सरकार की वापसी की संभावनाओं पर विराम लगाया जा सके। दूसरी ओर सरकार की कोशिश है कि महा-गठजोड़ के प्रयास को प्रायोगिक स्तर पर ही इस कदर कमजोर कर दिया जाए कि विपक्षियों के बीच साथ मिल कर चुनाव लड़ने के लिये आवश्यक आपसी विश्वास की जमीन ही खिसक जाए। इसी प्रकार विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के माध्यम से अपने तमाम आरोपों को देश के समक्ष रखने और संसद के रिकार्ड में दर्ज कराने में कामयाबी मिलेगी जबकि सरकार को सहूलियत होगी कि वह अपने चार साल के कामकाज का पूरा हिसाब किताब संसद के माध्यम से जनता जनार्दन के समक्ष प्रस्तुत कर सके। इसके अलावा विपक्ष का प्रयास होगा कि सत्ता पक्ष में सेंध लगाकर भाजपा के समर्थकों व संगी-साथियों की तादाद में कमी लाए और देश को यह बताए कि राजग की एकता व मजबूती का दावा किस कदर खोखला है जबकि सरकार का प्रयास होगा कि वह विपक्षी खेमे में सेंध लगाकर विरोधियों के आत्मबल को इस कदर कमजोर कर दे कि वे अपनी जीत के विश्वास के प्रति आश्वस्त होकर चुनाव लड़ने की स्थिति में ही ना आ सकें। यानि समग्रता में देखें तो इस अविश्वास प्रस्ताव का मतलब कुछ और है, मकसद कुछ और। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur
बहुत अच्छा लेख है
जवाब देंहटाएंDhanyavaad sir..
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