गुरुवार, 26 जुलाई 2018

बहुत कठिन है डगर ‘संप्रग’ की....

कहने को भले ही अगली लोकसभा का गठन होने में दस महीने का वक्त बाकी हो लेकिन तमाम राजनीतिक दलों ने अभी से चुनावी बिसात पर अपनी गोटियां जमाने का काम युद्धस्तर पर आरंभ कर दिया है। जाहिर है कि कांग्रेस भी इसमें पीछे रहने का जोखिम नहीं उठा सकती है। लेकिन मसला है कि अब तक अमल में लायी जा रही रणनीतियां व कूटनीतियां जिस तरह से विफल होती दिख रही हैं उसके बाद अब नए सिरे से परिस्थितियों को अपने मन मुताबिक ढ़ालना और मोदी सरकार के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत विकल्प प्रस्तुत करना बेहद मुश्किल हो गया है। आलम यह है कि अव्वल तो अपने दम पर चुनावी भवसागर में उतरने पर डूबने का खतरा स्पष्ट दिख रहा है और दूसरे जिन छोटे-बड़े दलों को समेट-गूंथ कर संप्रग की नैया के निर्माण की योजना बनाई गई थी वह योजना भी परवान नहीं चढ़ पा रही है। ऐसे में अब अंतिम उपाय के तौर पर नैया के खिवैया का पद रिक्त रखने के अलावा कोई दूसरा विकल्प ही नहीं बचा है ताकि पद प्राप्ति के लोभ में सभी संगी-साथी मजबूती से आपस में जुड़े रहें और भाजपा के अन्य विरोधियों को भी यही लोभ-मोह दिखाकर संप्रग के साए तले एकत्र होने के लिये सहमत किया जा सके। इसी रणनीति के तहत कांग्रेस ने तय किया है कि वह प्रधानमंत्री पद के लिये अपनी दावेदारी की जिद पर नहीं अड़ेगी बल्कि नेतृत्व के मसले पर अब आमसहमति से ही अंतिम फैसला किया जाएगा। हालांकि सच तो यही है कि कांग्रेस ने बड़े दिल या बड़प्पन का प्रदर्शन करते हुए कांग्रेस ने यह फैसला नहीं किया है। बल्कि यह काफी हद तक ऐसा ही त्याग है जैसा वर्ष 2004 में सोनिया गांधी ने संप्रग को बहुमत मिलने के बाद प्रधानमंत्री पद का परित्याग करके किया था। उस वक्त प्रधानमंत्री का पद ग्रहण करने से परहेज बरतना सोनिया की मजबूरी थी और मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी छोड़ना कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की विवशता है। तब स्वीकार्यता आड़े आयी थी और अब संप्रग के पुनर्गठन की चुनौती है। वर्ना राहुल के नेतृत्व को गैर-भाजपाई विपक्ष के अधिकांश दला़ें ने काफी हद तक नकार दिया है। राहुल का चेहरा आगे करके चुनाव लड़ने की कांग्रेस की जिद के कारण ही अब तक संप्रग के एकीकरण की राह तैयार नहीं हो पाई है। इसी जिद के कारण विपक्षी खेमे के अधिकांश ऐसे दलों ने कांग्रेस से दूरी बढ़ानी शुरू कर दी जो वर्ष 2004-2014 के दौरान लगातार कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के साझीदार व समर्थक रहे थे और आज भी भाजपा के साथ उनका कोई तालमेल नहीं है। लेकिन संप्रग की नैया का राहुल को खिवैया बनाने की कांग्रेस की जिद ने गठजोड़ के पुराने घटक व समर्थक दलों के आपसी तालमेल व परस्पर विश्वास को अंदरूनी तौर पर इतना कमजोर कर दिया कि लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर पूरे दिन चली चर्चा के बाद देर रात हुए मतदान के दौरान कांग्रेस से अलग दिखने की कोशिशों के तहत ही शरद पवार की राकांपा और चंद्रशेखर राव की टीआरएस ने मतदान की प्रक्रिया में शिरकत करने से ही परहेज बरत लिया। दरअसल कांग्रेस के हाथों में समूचे विपक्ष का नेतृत्व सौंपने को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर सहमति का माहौल बनता नहीं दिख रहा है। महाराष्ट्र की एनसीपी, तमिलनाडु की अन्ना द्रमुक, ओडिशा की बीजद, तेलंगाना की टीआरएस और आंध्र प्रदेश की टीडीपी सरीखी स्थानीय स्तर पर बेहद ताकतवर समझी जानेवाली उन पार्टियों को अपने साथ जोड़कर राष्ट्रव्यापी महा-गठजोड़ बनाना भी कांग्रेस के लिये बड़ी चुनौती बन गयी है जो किसी भी सूरत में भाजपानीत राजग के साथ चुनावपूर्व गठजोड़ कायम नहीं कर सकते। यहां तक कि उत्तर प्रदेश और बिहार में महा-गठजोड़ का प्रयोग पूरी तरह सफल रहने के बावजूद एक ओर बसपा सुप्रीमो मायावती ने ऐलान कर दिया है कि सम्मानजनक संख्या में सीटें मिलने पर ही वे साझेदारी में चुनाव लड़ने का प्रस्ताव स्वीकार करेंगी और दूसरी ओर बिहार में राजद के शीर्ष संचालक कहे जानेवाले तेजस्वी यादव ने भी बता दिया है कि विपक्ष में प्रधानमंत्री पद के लिये राहुल के अलावा और भी चेहरे उपलब्ध हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। इसके अलावा कर्नाटक में भी कुमारस्वामी द्वारा सार्वजनिक तौर पर आंसू बहाये जाने, गठबंधन की सरकार चलाने में पेश आ रही परेशानियों की तुलना जहर के घूंट से किये जाने और एचडी देवेगौड़ा द्वारा चुनाव पूर्व गठजोड़ को अव्यावहारिक बताये जाने के बाद यह संभावना बेहद कम दिख रही है कि वहां संप्रग की सरकार होने के बावजूद लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ कोई मजबूत महा-गठजोड़ आकार ले पाएगा। यानि कांग्रेस को अब मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात व पंजाब सरीखे उस सूबों में अपने बलबूते पर ही कोई करिश्मा कर दिखाना होगा जहां उसकी भाजपा से सीधी टक्कर होने वाली है और तीसरी ताकत के लिये कोई जगह ही नहीं है। ऐसे में देश की मौजूदा सियासी तस्वीर को समग्रता में समझने की कोशिश करें तो अगले चुनाव में विपक्षी महा-गठजोड़ बनाकर गैर-भाजपाई वोटों का राष्ट्रीय स्तर पर बिखराव रोकने की तमाम कोशिशें नाकाम होती दिख रही हैं। ऐसी सूरत में होगा यह कि जिन सीटों पर भाजपा का मुकाबला किसी गैर-कांग्रेसी दल से होगा वहां ना चाहते हुए भी कांग्रेस ही भाजपा को लाभ पहुंचाएगी क्योंकि ऐसी सीटों पर गैर-भाजपाई वोटों में कांग्रेस के कारण ही बिखराव होगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @नवकांत ठाकुर 

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