शनिवार, 31 मार्च 2018

‘सुस्त कदम रास्ते और तेज कदम राहें’

‘सुस्त कदम रास्ते और तेज कदम राहें’

भाजपा के शिखर पुरूष कहे जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी की पंक्तियां हैं कि- ‘दांव पर सब कुछ लगा है रूक नहीं सकते, टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते।’ वाकई वाजपेयी की भाजपा, नरेन्द्र मोदी के मौजूदा दौर में ऐसे मोड़ पर आ गई है जहां से आगे बढ़ने का रास्ता सुस्त और वापसी की राहें बेहद तेज नजर आ रही हैं। बेशक पूर्वोत्तर का चुनाव परिणाम आने के बाद तक पार्टी को अजेय माना जाने लगा था लेकिन उसके कुछ ही दिनों सामने आए फूलपुर और गोरखपुर के चुनाव परिणामों ने पूरी तस्वीर बदल कर रख दी। भाजपा की इस हार ने तमाम गैर-भाजपाई दलों को यह भरोसा दिला कि जब गोरखपुर में भाजपा को हराया जा सकता है तो ऐसी कोई भी सीट नहीं है जहां उसे शिकस्त ना दी जा सके। सिर्फ जरूरत है गैर-भाजपाई वोटों का बिखराव रोकने की और ऐसा माहौल बनाने की जिससे मतदाताओं को आश्वस्त किया जा सके कि अगर उन्होंने भाजपा के खिलाफ वोट दिया तो वह बेकार नहीं जाएगा। इसी उत्साह का नतीजा है कि कांग्रेस की ओर से भी गैर-भाजपाई दलों की गोलबंदी का प्रयास जारी है और ममता बनर्जी व शरद पवार सरीखे नेतागण भी इस काम में जुट गए हैं। कई स्तरों पर यह प्रयास आरंभ हो गया है कि एक मजबूत मोर्चा बनाकर प्रादेशिक स्तर पर घेराबंदी करके भाजपा को धूल चटाई जा सके। दूसरी ओर भाजपा के भीतर भी अंदरूनी तौर पर कुछ ऐसे खेमे सक्रिय होते हुए दिख रहे हैं जिनमें गोरखपुर के चुनावी नतीजों से आशाओं व उम्मीदों का नए सिरे से संचार हुआ है और उनका मानना है कि अगर पार्टी को आगामी चुनाव में बहुमत के आंकड़े तक पहुंचने में कामयाबी नहीं मिल सकी तो प्रधानमंत्री पद के लिए उनके नाम की लाॅटरी लग सकती है। हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में भी मोदी को प्रधानमंत्री पद उम्मीदवार घोषित कराने के पीछे भी इन खेमों का आकलन यही था कि ऐसा करने से पार्टी को अधिकतम दो सौ सीटें मिल जाएंगी और बाद में मोदी के नाम पर अन्य दलों से समर्थन नहीं मिलने पर उनका प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ हो जाएगा। लेकिन मोदी से मेहनत करा कर सत्ता की मलाई पर कब्जा जमाने की सोच रखनेवालों की उम्मीदों पर मतदाताओं ने पानी फेर दिया और भाजपा के खाते में आवश्यकता से दस सीटें अधिक ही आ गईं। नतीजन पिछले चार साल से मोदी का निष्कंटक राज जारी है और उम्मीदों की आस में मोदी का नाम आगे करनेवालों के पास बेहतर परिस्थिति का इंतजार करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है। लेकिन सूत्र बताते हैं कि इनकी उम्मीदें एक बार फिर जग रही हैं और गोरखपुर के चुनावी नतीजों के बाद इन खेमों के नेताओं को यह यकीन होने लगा है कि उनका जो सपना 2014 में पूरा नहीं हो पाया वह इस बार अवश्य पूरा हो जाएगा। यही वजह है कि उनकी नजरें इस समीकरण पर टिक गई हैं कि अगर बाहर से समर्थन जुटाने की जरूरत पड़े तो ‘प्रदेश अभिमान’ के नाम पर अपने गृह राज्य की सभी पार्टियों के सांसदों का समर्थन हासिल किया जा सके। इसके अलावा अन्य दलों के साथ भी अपना अंदरूनी तालमेल मजबूत करने की कोशिशें जारी हैं ताकि मौके पर बहुमत साबित करने में कोई दिक्कत ना आए। यानि पार्टी के असंतुष्ट तबके में उम्मीदों के आॅक्सीजन का संचार आरंभ होता दिखने लगा है। इसके अलावा बीते दिनों हुए राज्यसभा के टिकटों के बंटवारे को लेकर भी एक बड़े तबके में नाराजगी का माहौल है। पहले आडवाणी को ठेंगा दिखाना और अब राज्यसभा भेजने के मामले में सशक्त दावेदारों को किनारे किया जाना भाजपा के मौजूदा निजाम के प्रति रोष, असंतोष व असहमति का सबब बन रहा है। रही सही कसर निर्णय प्रक्रिया में कथित मनमानी ने पूरी कर दी है। हालांकि भले ही अभी शीर्ष नेतृत्व के भय से असंतोष के ज्वालामुखी का लावा फूटकर ना बह रहा हो लेकिन आगामी दिनों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में मिलने वाली एक भी हार बड़े विस्फोट के साथ इस लावे के बहने का रास्ता खोल सकती है। अगर पार्टी के मौजूदा निजाम यानि मोदी और अमित शाह की जोड़ी की बात करें तो उनके लिए चुनौती है कि एक तरफ अगले आम चुनाव की तारीख की उल्टी गिनती शुरू होने वाली है और दूसरी तरफ कर्नाटक की चुनावी परीक्षा का सामना करने के अलावा साल के आखिर में राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ जैसे अपने दुर्ग को भी ढ़हने से बचाना है। हालांकि इस जोड़ी ने तमाम प्रतिकूलताओं जूझते हुए केन्द्र के साथ ही 21 राज्यों में प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर सत्ता हासिल करके पार्टी को देश के 68 फीसदी भू-भाग पर राजनीतिक कब्जा दिलाया है। सदस्यों की तादाद के लिहाज से विश्व की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में भाजपा का नाम दर्ज कराया है। यहां तक कि बकौल अमित शाह आज भाजपा के पास जो अपना मुख्यालय है वह भी विश्व के किसी भी राजनीतिक दल के मुख्यालय के मुकाबले कहीं अधिक भव्य, दिव्य व विस्तृत है। यानि हर लिहाज से इन्होंने भाजपा कोे ऐसी ऊंचाई पर ला दिया है जो किसी सपने के सच होने जैसा है। लेकिन यह भी सच है कि मौजूदा चुनौती से निपटने पर ही सफलता की गाथा का अगला अध्याय आरंभ होगा वर्ना बोरिया-बिस्तर गोल करने का मौका तलाशने वालों की चांदी होती देर नहीं लगेगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   @नवकांत ठाकुर  #Navkant_Thakur

गुरुवार, 22 मार्च 2018

‘पांव तले के तिनके से आंखों में घनेरी पीड़’



‘पांव तले के तिनके से आंखों में घनेरी पीड़’    

मौजूदा सियासी दौर में सत्तारूढ़ भाजपा के दो शीर्षतम संचालकों यानि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह से बेहतर संत कबीर की इस सीख का अनुभव शायद ही किसी को होगा कि- ‘‘तिनका कबहु न निन्दिये, जो पांवन तर होय, कबहुं उड़ी आंखिन पड़े, तो पीड़ घनेरी होय।’’ तिनका-तिनका जोड़कर केन्द्र से लेकर 22 राज्यों में सत्ता का घोंसला बनाने में भी ये कामयाबी हासिल कर चुके हैं और प्रतिकूल सियासी समीकरणों की आंधी में उसी घोंसले के तिनके इनके लिये भारी पीड़ का सबब भी बन रहे हैं। हालांकि घोंसले के तिनकों की ढ़ीली पड़ रही पकड़ को दोबारा मजबूती से गूंथने के प्रयासों के तहत सोहेलदेव-भासपा को अपने साथ जुड़े रहने के लिए मनाने में फिलहाल उन्हें कामयाबी मिल गयी है लेकिन जो तिनके बिखर चुके हैं उन्हें दोबारा गूंथने की राह नहीं मिल रही और जो दायें-बायें देखकर खिसकने की तैयारी में हैं उनको अपने साथ जोड़े रखने की बेहद कठिन चुनौती भी सिर पर खड़ी है। दरअसल तिनके और घोंसले की पूरी कहानी वर्ष 2014 के आम चुनावों से शुरू हुई जिसे सतही तौर पर ‘मोदी मैजिक’ का नाम दे दिया गया। जबकि वास्तव में वह सामूहिक लड़ाई की जीत थी जिसका चेहरा मोदी को बनाया गया था। हालांकि राजस्थान, गुजरात व मध्य प्रदेश सरीखे सूबों में हुई सीधी लड़ाई में कांग्रेस के विरूद्ध भड़की जनाक्रोश की आग में मोदी मैजिक का करिश्मा अवश्य चल निकला। लेकिन बिहार, महाराष्ट्र व उत्तर प्रदेश सरीखे सूबों में क्षेत्रीय दलों को अपने साथ जोड़कर ही भाजपा ने तिनका-तिनका एकत्र करते हुए कामयाबी की इबारत लिखी। उस चुनाव में तिनकों की अहमियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि केरल व तमिलनाडु सरीखे जिन सूबों में सीधी लड़ाई कांग्रेस से नहीं थी और बड़े क्षेत्रीय दलों को साधने में भी भाजपा को कामयाबी नहीं मिल सकी वहां मोदी मैजिक बेअसर रहा। यानि समग्रता में देखें तो 2014 का जनादेश सिर्फ मोदी के नाम पर नहीं मिला था बल्कि इसमें निर्णायक भूमिका निभाई थी कांग्रेस को सत्ता से खदेड़ने की जनभावना ने और इसमें भाजपा को मदद मिली थी उन स्थानीय व क्षेत्रीय ताकतों से जो अपने दम पर अपना खेल बनाने की ताकत भले ना रखते हों लेकिन किसी दूसरे का खेल बिगाड़ने की जिनमें बखूबी क्षमता है। हालांकि 2014 के चुनाव परिणामों ने राजनीतिक पंडितों को भी इस कदर चमत्कृत कर दिया कि वे पूरी जीत को मोदी मैजिक का नाम देकर स्थानीय ताकतों को इसके श्रेय में हिस्सेदारी देने में कंजूसी कर गए। लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को हकीकत की पूरी जानकारी थी और इसी वजह से अपने दम पर पूर्ण बहुमत के लिए आवश्यक आंकड़े से दस सीटें अधिक जीतने के बावजूद मोदी सरकार में राजग के उन तमाम घटक दलों को यथोचित हिस्सेदारी दी गई जिन्होंने पर्दे पर मुख्य भूमिका भले ना निभाई हो लेकिन गैर-कांग्रेसवाद की लहर को मोदी मैजिक में तब्दील करने में निर्णायक भूमिका निभाई थी। साथ ही 2014 के चुनाव को नजीर मानकर भाजपा के नए निजाम ने प्रादेशिक स्तर पर स्थानीय व छोटे-छोटे दलों को अपने साथ जोड़ना आरंभ कर दिया और इसका नतीजा यह रहा कि विधानसभा के चुनावों में एक के बाद एक भाजपा सफलता के झंडे गाड़ती चली गई। जिन सूबों में सही तरीके से चुनावी गठजोड़ नहीं हो सका और जहां सीधी लड़ाई कांग्रेस से नहीं थी वहां भाजपा को शिकस्त का सामना भी करना पड़ा और बिहार, दिल्ली व जम्मू कश्मीर सरीखे सूबे के मतदाताओं ने स्थानीय विकल्प को ही तरजीह देना बेहतर समझा। लेकिन इससे सबक लेकर भाजपा ने पूरे देश में तमाम गैर-कांग्रेसी सियासी ताकतों को अपने साथ जोड़ने का अभियान छेड़ दिया। तमाम सिद्धांतों व पूर्वाग्रहों से किनारा करते हुए बिहार में नीतीश कुमार को और जम्मू-कश्मीर में पीडीपी को राजग के साथ जोड़ा गया। पूर्वोत्तर में भी ऐसे-ऐसे दलों को अपने साथ जोड़ा गया जिन्हें सैद्धांतिक व वैचारिक तौर पर अब तक चिमटे से छूना भी गवारा नहीं किया जा रहा था। तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक के साथ पींगें बढ़ाई गईं और गोवा में सरकार बनाने के लिए छोटे सहयोगी दलों की जिद का मान रखने के लिए मनोहर पर्रिकर मुख्यमंत्री बनाकर भेजा गया। यानि भाजपा को जीत का मंत्र मिल गया था और उसकी साधना करके पार्टी ने अभूतपूर्व कामयाबी भी अर्जित की। लेकिन जिस मंत्र का मर्म पार्टी के शीर्ष दोनों रणनीतिकार बेहतर समझ रहे थे उसके बारे में पार्टी का प्रादेशिक नेतृत्व काफी हद तक आज भी अनजान ही है। नतीजन प्रादेशिक स्तर पर यथोचित सम्मान नहीं मिलने से अब राजग के घोंसले की एकजुटता प्रभावित होने लगी है। बिहार में जीतनराम मांझी ने राजग से किनारा किया है तो आंध्र प्रदेश में टीडीपी ने अलग राह पकड़ ली है। महाराष्ट्र में स्वाभिमानी शेतकारी संगठन कांग्रेसनीत संप्रग के साथ जुड़ रहा है जबकि शिवसेना ने अगला लोकसभा चुनाव अपने दम पर लड़ने की पहले ही घोषणा कर दी है। यूपी में भी अपना दल का बड़ा खेमा राजग से अलग हो चुका है और बिहार में लोजपा-जदयू की एक अलग खिचड़ी पक रही है। रालोसपा भी राजग में अपना भविष्य सुरक्षित नहीं समझ रहा। यानि तिनका तिनका जोड़कर जिस नीड़ का निर्माण हुआ उसके बिखरने की भूमिका बनने लगी है। ऐसे में घोंसले के तिनकों की आपसी कसावट में वृद्धि नहीं की गई तो चुनावी वर्ष में भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

शुक्रवार, 9 मार्च 2018

‘दो-दो काटे शून्य, साथ मिले तो बाईस’

‘दो-दो काटे शून्य, साथ मिले तो बाईस’

राजनीति का गणित अलग ही होता है। हर नए समीकरण के साथ इसके परिणाम का आंकड़ा घटता-बढ़ता रहता है। सामान्य गणितीय समीकरण में तो दो और दो हमेशा चार ही होता है। लेकिन राजनीति के आंकड़े इस हद तक अप्रत्याशित होते हैं कि दो और दो को आंखें मूंद कर कतई चार नहीं माना जा सकता। वह शून्य भी हो सकता है, तीन भी, पांच भी और बाईस भी। कई बार जोड़ने के लिए रखे गए दो और दो परस्पर एक दूसरे को काट कर शून्य भी बना देते हैं और कई बार दो और दो एक साथ मिलकर बाईस भी बन जाते हैं। हालांकि कोई भी सियासी गठजोड़ अक्सर दो और दो मिलकर बाईस बनने की उम्मीदों के साथ ही किया जाता है। लेकिन यूपी का राजनीतिक समीकरण जहां एक ओर भाजपा और अपना दल के गठजोड़ को लोकसभा चुनाव में आंकड़ों का ताज पहना देता है वहीं विधानसभा के चुनाव में सपा और कांग्रेस के गठजोड़ को सियासी शून्य की ओर धकेल देता है। इसलिये किसी भी गठजोड़ के भविष्य को लेकर निर्णायक तौर पर तो पहले से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन दो स्वतंत्र दलों के मिलन पर होने वाले रासायनिक समीकरण को पुरानी प्रक्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के आधार पर परखकर उसके भावी प्रदर्शन का मोटा-मोटी खाका तो खींचा ही जा सकता है। इस लिहाज से देखा जाए तो गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीट के लिए होने जा रहे उपचुनाव में बसपा ने सपा को अपना जो प्रायोगित समर्थन दिया है उसका अंजाम वैसा ही होने की उम्मीद अधिक दिख रही है जैसा विधानसभा के चुनाव में सपा और कांग्रेस के गठजोड़ का हुआ था। एक जैसा नतीजा आने की संभावना के पीछे इसकी वजहें भी एक जैसी ही हैं। मसलन जमीनी स्तर पर शीर्ष सपा नेता मुलायम सिंह यादव की पहचान गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति के चैम्पियन की थी। लेकिन भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिए सपा ने उसी कांग्रेस का हाथ थाम लिया जिसके खिलाफ उसके कार्यकर्ता दशकों से संघर्ष करते आए थे। नतीजन इस बेमेल गठजोड़ का नतीजा यह हुआ कि सपा और कांग्रेस के मतदाताओं ने अपने शीर्ष नेतृत्व के फैसले से निराश होकर भाजपा के पक्ष में गोलबंद हो जाना ही बेहतर समझा। परिणाम यह हुआ कि सपा सैंतालीस पर और कांग्रेस महज सात सीटों पर सिमट कर रह गई। अब लोकसभा उपचुनाव में भी परिस्थितियां वैसी ही दिख रही हैं। सपा और बसपा के बीच वर्ष 1995 से ही शीर्ष स्तर पर संवादहीनता, कटुता और जमीनी स्तर पर सीधी दुश्मनी का माहौल रहा है। ऐसे में अब अगर बसपा सुप्रीमो ने कथित सौदेबाजी के तहत एक राज्यसभा सीट के एवज में दो लोकसभा सीट पर समर्थन की बात कही है तो इसे जमीनी स्तर पर कार्यरूप देने के लिए दोनों दलों के उन मतदाताओं को एक मंच पर आना होगा जिनके लिए दशकों पुरानी रंजिश को एक झटके में भुला पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल हो सकता है। ऐसे में अगर अपने शीर्ष नेतृत्व के निर्देश से निराश होकर मतदाताओं का काफी बड़ा वर्ग भाजपा के पक्ष में गोलबंद हो जाए तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं कहा जाएगा। इसके अलावा सपा और कांग्रेस के एक मंच पर आने से उनका अवसरवादी चेहरा ही सामने आया था जिसे विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने स्वीकार नहीं किया। उसी प्रकार बसपा भी कल तक हर मामले में जिस सपा को कठघरे में खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ती थी उसके समर्थन में अचानक बहनजी का खुलकर मैदान में आ जाना मतदाताओं को किस हद तक स्वीकार्य होगा इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। रहा सवाल जातीय समीकरण का तो इसमें भी सपा और बसपा का गठजोड़ उसी प्रकार बेमेल दिख रहा है जिस प्रकार सपा और कांग्रेस की दोस्ती बेमेल साबित हुई थी। इस उपचुनाव में सपा के परंपरागत यादव और मुस्लिम मतदाता को मजबूती देने के लिए अपने दलित वोट को उसके साथ जोड़ने की बहनजी की कवायद का यह परिणाम भी सामने आ सकता है कि मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण के खिलाफ हिन्दू वोटर लामबंद हो जाएं। ऐसे में अगर चुनाव ने स्वाभाविक तौर पर सांप्रदायिक रंग पकड़ा तो बहनजी का दलित और सपा का यादव वोटबैंक किस हद तक उनके साथ जुड़ा रह पाएगा यह कहना भी मुश्किल है। वैसे भी बहनजी के परंपरागत मतदाताओं से अब तक सपा के दोनों परंपरागत समर्थक वर्ग की कभी नहीं बनी। जब भी कहीं सांप्रदायिक मामले सामने आए तो जमीनी टकराव अक्सर दलितों और मुस्लिमों के बीच ही हुआ है। जमीनी स्तर पर उनके बीच इतनी गहरी और चैड़ी खाई बनी हुई है जिसे अचानक किए गए एक फैसले से पूरी तरह पाट पाना कतई संभव नहीं हो सकता है। ऐसे में बहनजी ने भाजपा के बढ़ते प्रसार व जनाधार को देखते हुए अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के लिए सायकिल की सावारी के विकल्प को प्रायोगिक तौर पर आजमाने की जो पहलकदमी की है उसकी राहें फिलहाल तो कतई आसान नहीं दिख रही हैं। लेकिन सियासत खेल ही है असीमित संभावनाओं का। लिहाजा चुनावी नतीजा सामने आने से पहले निर्णायक तौर पर किसी नतीजे पर पहुंच जाना उचित नहीं होगा। इसलिए बेहतर यही होगा कि इस गठजोड़ के प्रदर्शन का इंतजार कर लिया जाए ताकि मतदाताओं के मूड का भी पता चल सके और आगामी दिनों के संभावित समीकरणों की तस्वीर भी साफ हो जाए। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’   @नवकांत ठाकुर  #Navkant_Thakur