बुधवार, 27 दिसंबर 2017

‘भावी चुनौतियों का तोड़ निकालने पर जोर’

‘भावी चुनौतियों का तोड़ निकालने पर जोर’


गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे सामने आ जाने और कर्नाटक के अलावा तीन पूर्वोत्तरी राज्यों के विधानसभा चुनाव का औपचारिक शंखनाद होने के बीच अगले महीने होने जा रही भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में चिंतन-मंथन का केन्द्र नवनियुक्त कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ही रहनेवाले हैं। बेशक भाजपा ने बीते दिनों हुए चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ अपनी सरकार बनाने में कामयाबी हासिल कर ली हो लेकिन गुजरात की सरकार बचाने के लिए भाजपा को जिस कदर नाको चने चबाने पड़े उसके मद्देनजर आगामी चुनावों में कांग्रेस की ओर से मिलनेवाली कड़ी टक्कर से निपटने की राह तलाशना ही इस बार की कार्यकारिणी बैठक का मुख्य एजेंडा रहनेवाला है। खास तौर से नवनियुक्त अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के बदले हुए तेवर और कलेवर ने भाजपा की चिंताएं स्वाभाविक तौर पर बढ़ा दी हैं। यहां तक की गुजरात में भाजपा को दहाई के आंकड़े में सिमटने के लिए मजबूर करके राहुल ने अपनी बढ़ती लोकप्रियता व जनस्वीकार्यता भी साबित कर दी है। ऐसे में भाजपा कतई राहुल को अब हल्के में नहीं ले सकती और अगर आगामी चुनावों में उसे अपनी जीत का सिलसिला बरकरार रखना है तो इसके लिए उसे राहुल की ओर से मिल रही चुनौतियों का समय रहते कोई ठोस तोड़ निकालना ही होगा। वैसे भी पार्टी के तमाम शुभचिंतकों को बखूबी पता है कि जिस तरह से भाजपा के जनाधार में सेंध लगने की शुरूआत हो गई है उसे समय रहते नहीं रोका गया तो लोकसभा चुनाव में पिछला प्रदर्शन दोहरा पाना निहायत ही नामुमकिन हो जाएगा। गुजरात चुनाव के नतीजों ने भाजपा को किस कदर मायूस किया है इसका सहज अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि चुनावी नतीजा सामने आने के फौरन बाद मीडिया के माध्यम से देश को संदेश देने के क्रम में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने एक बार भी यह जिक्र नहीं किया कि पिछली बार के मुकाबले इस बार उन्हें काफी कम सीटें क्यों मिली हैं। वे बार-बार वोटों में एक फीसद की बढ़ोत्तरी की दुहाई देते रहे और इसे ही बड़ी उपलब्धि बताते रहे। लेकिन अगर उनकी बात को सही माना जाए तो इस लिहाज से भी भाजपा की हार ही हुई है क्योंकि कांग्रेस के वोट में तो इस बार साढ़े चार फीसदी की वृद्धि हुई है। सच तो यह है कि बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा को जितने वोट मिले थे उसे अगर विधानसभा वार देखा जाए तो पार्टी के खाते में 160 से अधिक सीटें आनी चाहिए थीं और इसी वजह से भाजपा ने भी 150 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य सामने रखकर चुनाव लड़ा था। लेकिन गुजरात में निर्णायक साबित हुआ नोटा का वह बटन जिसने कांग्रेस की दस सीटें कम करा दीं और रही सही कसर बसपा व राकांपा सरीखी तीसरी ताकतों ने पूरी कर दी जिन्होंने तकरीबन एक दर्जन से अधिक सीटों पर गैर-भाजपाई वोटों में सेंध लगाकर कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। इस तरह भाजपा की जीत की पटकथा तैयार हुई और दहाई के अंकों में सिमट कर पार्टी किसी तरह अपनी सरकार बचाने में कामयाब हो गयी। लेकिन जिन परिस्थितियों में अपनी लाज बचाते हुए गुजरात की सत्ता पर अपनी पकड़ बरकरार रखने में भाजपा कामयाब हुई है उसके बाद स्वाभविक तौर पर भावी रीति-नीति पर चर्चा करके निष्कंटक राह तलाशने की जद्दोजहद होनी ही है। वैसे भी अमित शाह यह स्वीकार कर चुके हैं कि गुजरात के नतीजों पर स्थानीय नेतृत्व के साथ चिंतन अवश्य किया जाएगा लेकिन वे कहें या ना कहें सच यही है कि जब गुजरात के सबसे सुरक्षित माने जानेवाले गढ़ में भाजपा को लाज का संकट उत्पन्न हो सकता है तो यह निश्चित तौर पर खतरे संकेत है और इसका राष्ट्रव्यापी असर दिखने की संभावना से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है। दूसरी तरफ कांग्रेस के नए निजाम की आक्रामकता और तेवरों ने विपक्ष का पूरा कलेवर ही बदल कर रख दिया है। गैर-भाजपाई ताकतों के बीच कांग्रेस के नेतृत्व की स्वीकार्यता को अब कहीं से भी चुनौती मिलने की उम्मीद नहीं बची है। बिखरे हुए विपक्ष का फायदा उठाते हुए भाजपा ने जो राज कायम किया है उसकी इस हकीकत को नकारा नहीं जा सकता है कि लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को तकरीबन 32 फीसदी वोट ही मिले थे जबकि उसके खिलाफ 68 फीसदी वोट पड़े थे। लेकिन विरोधी वोटों के बंटवारे ने लोकसभा में भी भाजपा को जीत दिलाई और आज की तारीख में 19 राज्यों में उसकी प्रत्यक्ष या परोक्ष सरकार बनवा दी है। ऐसे में विपक्ष के समक्ष सिर्फ वोटों का बिखराव रोकने की चुनौती है जबकि भाजपा को अब अपने दम पर जनसमर्थन जुटा कर सत्ता पर अपनी पकड़ बरकरार रखनी है। जाहिर तौर पर असली चुनौती का वक्त अब बेहद करीब आता जा रहा है क्योंकि इस बार मौजूदा सरकार का सही मायनों में आखिरी बजट ही पेश होना है। अगले साल इसे अंतरिम बजट के तौर पर महज औपचारिकता निभाने का ही मौका मिल पाएगा। ऐसे में अब अगले एक साल की कमाई ही वह पूंजी होगी जिसके दम पर सियासी बाजार में चुनावी बहार लूटने या गांठ की दौलत लुटाने की नौबत आएगी। लिहाजा ऐसे मौके पर होनेवाले भाजपाइयों के जुटान को पिछली मेहनत की थकान से उबार कर समय रहते जमीनी स्तर पर सक्रिय करने में हासिल होनेवाली कामयाबी ही पार्टी की भावी दशा-दिशा तय करेगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 
@नवकांत ठाकुर  #Navkant_Thakur

गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

‘एक हाथ से बजे न ताली’

‘एक हाथ से बजे न ताली’

गुजरात विधानसभा के चुनाव प्रचार पर विराम लगने के बाद अब थोड़ी शांति और आराम का समय उन सभी दलों के शीर्ष नेताओं को मिल गया है जो लंबी, थकाऊ और काफी हद तक उबाऊ चुनाव प्रचार में जी-जान से जुटे हुए थे। वाकई इस दौरान उन्हें सांस लेने की फुर्सत भी बमुश्किल ही मिल पा रही थी। आखिर मामला ही ऐसा था जिसमें एक तरफ कांग्रेस का भविष्य दांव पर था और दूसरी तरफ मोदी लहर का भविष्य। लिहाजा कांटे की टक्कर तो होनी ही थी। हालांकि चुनाव परिणाम का पलड़ा किस ओर झुकेगा इसके बारे में सबकी अपनी उम्मीदें हैं, अपने समीकरण हैं और अपने कयास हैं। स्वाभाविक तौर पर चुनावी नतीजों का बेसब्री से इंतजार भी सबको है। लेकिन चुनाव परिणाम के लिए हो रहे इंतजार के बीच एक बात तो माननी ही पड़ेगी कि टक्कर जोरदार हुई। जमकर प्रचार हुआ और दोनों ही पक्ष ने जमीन पर अपना जलवा बिखेरने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस हो या भाजपा। दोनों ही दलों का पूरा शीर्ष नेतृत्व जमीन पर जमा हुआ नजर आया। पिछले 22 सालों से लगातार सूबे की सत्ता पर काबिज भाजपा को कांग्रेस ने किस कदर टक्कर दी है इसका सहज अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले चुनावों तक दिल्ली से प्रचारकों का आयात करने में संकोच करने वाली गुजरात भाजपा इकाई ने इस बार संगठन से लेकर सरकार तक के तमाम चेहरों को सूबे की सियासत में झोंक दिया। कोई नाम ऐसा नहीं बचा जिसने गुजरात जाकर पसीना ना बहाया हो। जाहिर तौर पर ऐसी जोरदार टक्कर में लोगों की दिलचस्पी होनी ही थी। लेकिन दुर्भाग्य से इस पूरी सियासी रस्साकशी ने ना सिर्फ गुजरात के मतदाताओं को बल्कि देश के आम लोगों को भी बुरी तरह निराश किया। यह चुनाव सही मायने में आम लोगों से जुड़ ही नहीं पाया। आम लोगों की समस्याएं सतह पर आ ही नहीं पाई। पूरा चुनाव प्रचार ऐसे आभासी और बेमानी मसलों पर केन्द्रित हो गया जिससे आम लोगों का कोई लेना देना ही नहीं है। कायदे से तो इतनी जोरदार सियासी रस्साकशी में जन सरोकार के मसलों पर ही जोरदार बहस होनी चाहिए थी। सत्तारूढ़ पक्ष को अपने अब तक के काम-काज का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना चाहिए था और विपक्ष को मौजूदा व्यवस्था व शासन-प्रशासन की कमियां-खामियां उजागर करते हुए अपनी ठोस भावी योजनाएं प्रस्तुत करनी चाहिए थी। लेकिन हुआ इसके उलट। ना सत्ताधारियों को अपने काम-काज का हिसाब पेश करने के लिए मजबूर किया जा सका और ना ही आम जन सरोकार के मुद्दे चुनाव में हावी हो सके। बल्कि अश्लील सीडी से शुरू हुई चुनावी गरमाहट मंदिर यात्रा के माध्यम से आगे बढ़ी और अंतिम समय में आकर अटकी गाली-गलौज व आभासी राष्ट्रवाद पर। दोनों पक्षों ने नकारात्मक चुनाव प्रचार की इंतहा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। किसी ने भी अपने उस पहलू को उजागर करके चुनाव प्रचार करने की कोशिश ही नहीं की जिससे प्रभावित होकर मतदाता उसकी ओर खिंचे चले आएं। बल्कि दोनों में इस बात की शर्त लगी दिखी कि कौन एक-दूसरे पर कितना अधिक कीचड़ उछाल सकता है। बात कभी निजी संबंधों को लेकर हुई तो कभी पहनावे को लेकर। पसंद-नापसंद पर भी कटाक्ष किए गए और मर्दानगी व नपुंसकता को भी जांच-परख का आधार बनाया गया। मेल-मुलाकातों को लेकर एक दूसरे पर निशाना साधा गया और अवकाश व पर्यटन की भी बात हो गयी। यहां तक कि कौन क्या खाकर काले से गोरा हो गया इस पर भी जोरदार चर्चा हुई। लेकिन किसी ने यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि आम आदमी किस हाल में है। महंगाई ने किस कदर उसका जीना मुहाल किया हुआ है। विकास से रोजगार को जोड़ने में कामयाबी क्यों नहीं मिल पा रही। किसानों की बदहाली क्यों दूर नहीं हो रही। क्यों प्रधानमंत्री के गृह जिले में भी विकास का पूरा विस्तार नहीं हो पाया है। ऐसा कोई भी मुद्दा सिरे से उठ ही नहीं पाया जिससे आम आदमी सीधे तौर पर जुड़ सके। अलबत्ता राहुल गांधी ने सोशल मीडिया के माध्यम से जन सरोकार से जुड़े कुल चैदह सवाल अवश्य किये। लेकिन उन सवालों को जब कांग्रेसियों और मीडिया ने ही तवज्जो नहीं दी तो सत्तापक्ष ही क्यों इस को लेकर गंभीरता दिखाता। जब पूछनेवाला ही गंभीर ना हो तो बतानेवाले को क्या गर्ज पड़ी है गंभीरता दिखाने की। अलबत्ता इस चुनाव में शुचिता व मर्यादा की धज्जियां उड़ाने में सबने अपनी पूरी ऊर्जा झोंक दी। प्रधानमंत्री पद की गरिमा भी तार-तार हुई और इस पद की गरिमा को बचाने की सोच कहीं भी नहीं दिखी। यहां तक कि भाजपा और कांग्रेस जहां बाहर एक-दूसरे से लड़ते-भिड़ते व टकराते दिखे वहीं अंदरूनी तौर पर इन्हें अपने संगठन के भीतर आपस में भी विभिन्न स्तरों पर जूझना पड़ा। खुल कर भले कोई इसे स्वीकार ना करे लेकिन यह सर्वविदित तथ्य है कि कांग्रेस के भीतर भी राहुल को गुजरात को नाकाम करने की साजिशें जोरों पर चलती रहीं और भाजपाइयों का भी एक बड़ा तबका मोदी लहर की नाकामी में अपनी कामयाबी तलाशता दिखा। ऐसी बहुस्तरीय व बहुआयामी लड़ाई में शुचिता, प्रतिष्ठा और मर्यादा का तार-तार होना स्वाभाविक ही था। लेकिन इस तथ्य को नकारा भी नहीं जा सकता कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती। लिहाजा सूबे के चुनाव को इस निचले व छिछले स्तर पर ले जाने के लिए सभी बराबर के ही दोषी हैं। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

सोमवार, 6 नवंबर 2017

‘पकी-पकाई खिचड़ी का फैलता रायता’

‘पकी-पकाई खिचड़ी का फैलता रायता’


व्यावहारिक तौर पर भले ऐसा ही होता हो लेकिन सैद्धांतिक तौर पर यह समझना हमेशा मुश्किल रहा है कि खेत गदहे ने खाया तो मार जुलाहे को क्यों पड़ी। लेकिन अगर तेली का तेल जलने पर मशालची का दिल जलने की वजह समझ में आ जाए तो गदहे की करनी का फल जुलाहे को मिलने की बात आसानी से समझी जा सकती है। इन दोनों कहावतों में कारण और परिणाम के बीच परस्पर कोई तालमेल नहीं होने के बावजूद अंदरूनी तौर पर जुड़ी हुई उस कड़ी की ओर स्पष्ट इशारा किया गया है जिसके कारण एक की करनी का फल दूसरे को भुगतना पड़ता है। अगर मशालची की तेल में आसक्ति ना हो और गदहे से जुलाहे का हित ना जुड़ा ना हो तो ऐसी कहावतें ही ना बनें। ऐसा ही संबंध इन दिनों खिचड़ी और रायते के बीच दिख रहा है। हमेशा से यही बताया गया है कि खिचड़ी के चार यार, घी पापड़ दही अचार। साथ ही खिचड़ी के साथ चोखा-भरता का भी स्वाभाविक संयोग हो जाता है। लेकिन रायते का तो इससे कभी कोई रिश्ता ही नहीं रहा है। दूर-दूर तक खिचड़ी और रायते का कोई संबंध नहीं है। ना व्यावहारिक, ना सैद्धांतिक और ना ही स्वाभाविक। इसके बावजूद पक रही खिचड़ी का रायता फैलने की कहानी अक्सर सुनाई पड़ जाती है। यह पहले भी होता रहा है और अब भी हो रहा है। वर्ना खिचड़ी को औपचारिक तौर पर देश का राष्ट्रीय व्यंजन घोषित कराने के लिए पकाई जा रही खिचड़ी पर सियासत का रायता हर्गिज नहीं फैलाया जाता। हालांकि इस बात की तहकीकात विभिन्न स्तरों पर जोर-शोर से जारी है कि यह विचार कहां, क्यों और किसके दिमाग में उपजा कि राष्ट्रीय पशु, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय गीत, राष्ट्रीय पर्व, राष्ट्रीय चिन्ह और राष्ट्रीय नदी की ही तर्ज पर भारत का एक औपचारिक राष्ट्रीय व्यंजन भी होना चाहिए। साथ ही यह बात भी अब तक साफ नहीं हो पाई है कि आवाम से लेकर निजाम तक ने अनौपचारिक तौर पर राष्ट्रीय व्यंजन के रूप में खिचड़ी के नाम का प्रस्ताव कैसे स्वीकार कर लिया। लेकिन यह बात समझना कतई मुश्किल नहीं है कि इसे इतनी व्यापक स्वीकृति कैसे मिल गई और इसके नाम का प्रस्ताव होने से समाज के कुछ चुनिंदा मुट्ठी भर लोग क्यों चिढ़े हुए हैं। दरअसल कुछ लोग अपनी चिढ़ के कारण ही पहचाने जाते हैं। अगर वे बाल की खाल ना निकालें तो कोई उन्हें पहचाने ही ना। तभी तो हमारे समाज में आज तक किसी भी मसले पर आम सहमति ना तो बन पाई है और ना बन पाने की उम्मीद की जा सकती है। हालांकि इस तरह की असहमतियों को ‘विविधता में एकता’, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’, ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था की खूबसूरती’ और ‘सबका साथ सबका विकास’ सरीखे बड़े-बड़े गूढ़ार्थ वाले शब्दों के पर्दे में ढ़ांप दिया जाता है और व्यवस्था की गाड़ी बहुमत की पटरी पर लगातार आगे बढ़ती रहती है। लेकिन बहुमत से पकाई जा रही खिचड़ी पर सर्वसम्मति की छौंक लगाने का प्रयास ही विरोधी स्वरों के रायते को फैल कर अपना अस्तित्व दर्शाने पर विवश कर देता है। ऐसा ही इस बार खिचड़ी को राष्ट्रीय व्यंजन घोषित कराने की कोशिशों के मामले में भी हो रहा है। अगर इसे सर्वसम्मति की छौंक से महकाने का प्रयास नहीं किया जाता तो सनातन असहमति के वाहकों को विरोध का रायता फैलाने के लिए आगे नहीं आना पड़ता। चुंकि खिचड़ी के गुणगान में आवाम से लेकर निजाम तक ने अपनी बहुमत का भरपूर प्रयोग किया लिहाजा विरोधियों को भी आगे आकर अपनी बात रखने के लिए विवश होना पड़ा। किसी ने कहा कि रोजगार देना तो सरकार से संभव नहीं हो रहा इसलिये बेरोजगारों द्वारा मजबूरी में खाई जानेवाली खिचड़ी को महिमामंडित करके उन्हें भरमाने पर प्रयास किया जा रहा है। किसी का तर्क यह था कि खिचड़ी को ही राष्ट्रीय व्यंजन क्यों बनाया जाए, बिरयानी को क्यों नहीं। ऐसा तर्क देने वालों ने खिचड़ी और बिरयानी का भी सांप्रदायिक तौर पर विभाजन करने की पुरजोर कोशिश की। साथ ही कईयों ने गरीब के भोजन को चर्चा में लाए जाने को गरीबों का अपमान भी बताया। यानि खिचड़ी का नाम सामने आते ही रोजगार, गरीबी और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मसले को धार देने की कोशिशें शुरू हो गई और राष्ट्रीय व्यंजन के मसले पर सियासत का रायता इस कदर फैलने लगा कि खिचड़ी का रंग भी सियासत के संग कदमताल करता दिखा। लेकिन सभी खाद्य पदार्थों को खुद में समाहित करने की क्षमता रखने के बावजूद अपने सर्वसुलभ स्वरूप को हर हाल में बरकरार रखने वाली खिचड़ी पर रायता फैलाकर उसे बेस्वाद व कसैला करने की कोशिशें परवान नहीं चढ़ पाईं और खिचड़ी ना सिर्फ पकी बल्कि इतनी और ऐसी पकी कि पूरी दुनिया के मुंह में पानी आ गया। खिचड़ी ने विश्व रिकार्ड भी बनाया और यह बता दिया कि वह क्यों सबकी मजबूरी भी है और चहेती भी। वाकई वह खिचड़ी ही है जिसके साथ तमाम देशवासियों का जुड़ाव भी है और लगाव भी। हर प्रांत, पंथ व प्रतिमानों में खिचड़ी की उपयोगिता की असली वजह सबको अपने में समाहित कर लेने की उसकी क्षमता ही है और हर नए मिलावट के साथ उसके स्वाद, सुगंध और स्वरूप में नजर आने वाली भिन्नता से उसके स्वरूप को विराटता ही मिलती है, उसके अस्तित्व को इससे कोई खतरा नहीं होता है। ऐसा ही है हमारा भारत और ऐसी ही है हमारी खिचड़ी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

‘तेरा जाना... दिल के अरमानों का लुट जाना’

‘तेरा जाना... दिल के अरमानों का लुट जाना’


राहुल गांधी को औपचारिक तौर पर कांग्रेस की कमान सौंपे जाने की अब महज औपचारिकता ही बाकी रह गई है। पार्टी अध्यक्षा सोनिया गांधी ने भी कह दिया है कि इस औपचारिकता को यथाशीघ्र पूरा करने में अब अधिक विलंब नहीं किया जाएगा। यानि प्रतीक्षा है तो सिर्फ शुभ मुहूर्त और लग्न की। लेकिन मसला सिर्फ लग्न-मुहूर्त का होता तो गुरूदासपुर लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव के नतीजों के तत्काल बाद ही इस काम को अंजाम दे दिया गया होता। या फिर नांदेड़ के स्थानीय निकायों का नतीजा भी इस काम को अंजाम देने के लिए पर्याप्त था। लेकिन सवाल तो उस छुट्टी का है जो राहुल कब, किस लिए, कैसे और किससे मांगते हैं, यह किसी को नहीं पता। पता इतना ही चलता है कि राहुल भैया फिर चले गए छुट्टी पर। कई बार बता कर जाते हैं और कई बार बिना बताए। मगर जाते जरूर हैं। और जाने के क्रम में वे यह भी नहीं देखते हैं कि उनका जाना कांग्रेस और कांग्रेसियों के लिए कितना नुकसानदेह या फायदेमंद होगा। उनको जाना होता है और वे चल देते हैं। अपने जाने के लिए वे अक्सर जिस वक्त व माहौल को चुनते हैं उसके मद्देनजर हर कांग्रेसी के दिल से यही आवाज निकलती होगी जोे अनाड़ी फिल्म के लिए शैलेन्द्र साहब ने लिखा था कि, ‘तेरा जाना... दिल के अरमानों का लुट जाना, कोई देखे... बन के तकदीरों का मिट जाना।’ वाकई, बनने की राह पर अग्रसर होने के बाद तकदीर की रेखाएं अचानक कैसे मिट जाती हैं और दिल के अरमान कैसे लुट जाते हैं, इसके सच्चे भुक्तभोगी असल में कांग्रेसी कुनबे से प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर जुड़े लोग ही हैं। हर कांग्रेसी का दिल ही जानता है कि राहुल के अचानक छुट्टी पर चले जाने का नतीजा उनके लिए कितना नकारात्मक होता है। हालांकि परिस्थितियां जब अनुकूल थीं और विभिन्न सूबों से लेकर केन्द्र तक में कांग्रेस की सरकार थी तब उनके रहने या जाने पर ना तो किसी की खास नजर जाती थी और ना ही उससे पार्टी की सेहत पर कोई प्रभाव पड़ता था। लेकिन वर्ष 2014 में राष्ट्रीय राजनीति में पार्टी का सूपड़ा साफ होने के बाद तमाम कांग्रेसियों की अपेक्षाएं व उम्मीदें राहुल पर आकर टिक गईं। सबको उनसे किसी करिश्मे की उम्मीद थी। लेकिन राहुल तो ठहरे राहुल... उनको क्या फर्क पड़ता है कि कौन उनसे क्या चाहता है और कौन उनके बारे में क्या सोचता है। उनको तो अपने मन की करनी थी, सो वे करते रहे। इसमें सबसे दिलचस्प बात यह है कि राजनीति की मुख्य धारा में शामिल होते हुए भी अमूमन राहुल काफी हद तक सार्वजनिक जीवन के प्रति निश्चेष्ट व उदासीन ही रहते हैं। लेकिन जब उनको छुट्टी पर जाना होता है उससे कुछ दिन पहले से वे काफी सक्रिय हो जाते हैं। ऐसा लगता है मानो स्कूल का बच्चा अपनी छुट्टी का होमवर्क पूरा कर रहा हो। ताकि छुट्टी के दौरान पढ़ाई का झंझट ही ना रहे। तभी तो छुट्टी पर जाने से ठीक पहले उन्होंने मोदी सरकार को संसद से सड़क तक घेरते हुए भूमि अधिग्रहण कानून के मसले पर जमीन-आसमान एक कर दिया। ऐसा दबाव बनाया कि सरकार को प्रस्तावित कानून वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन इस आंदोलन की शुरूआत करके राहुल कहां नदारद हो गए यह किसी को पता नहीं चला। पता सिर्फ इतना चला कि वे छुट्टी मनाने चले गए हैं। नतीजन इस पूरे आंदोलन का श्रेय व राजनीतिक लाभ कांग्रेस को मिलते-मिलते रह गया और बनती हुई तकदीर की रेखाएं अचानक मिट गईं। इसी प्रकार यूपी में खाट सभा करते-करते ही वे किधर खिसक लिए और कांग्रेस को सपा की सायकिल के कैरियर पर बिठाकर कहां निकल लिए यह किसी को पता नहीं चला। साथ ही बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान महागठबंधन के गठन में निर्णायक मध्यस्थ की भूमिका निभाने के बाद पूरे चुनाव में राहुल कहीं नहीं दिखे। माना जाता है कि काम कितना ही जरूरी क्यों ना हो लेकिन राहुल के लिए अपनी छुट्टी से जरूरी कोई काम नहीं होता। नतीजन उनके धुर विरोधी उन्हें ‘पार्ट टाईम पाॅलिटीशियन’ कहकर उनका मजाक बनाते रहते हैं और सोशल मीडिया पर भी ‘आ गए राहुल, छा गए राहुल’ का नारा अक्सर बुलंद होता रहता है। अभी गुजरात चुनाव में कांग्रेस को चमकाने और दक्षिणी सूबों में पार्टी का विस्तार करने की पुरजोर कोशिशों में जुटे राहुल का इस सप्ताह सदेह दर्शन नहीं होना भी सोशल मीडिया में खूब चर्चित हो रहा है। लोग चटखारे लेने लगे हैं कि राहुल फिर छुट्टियां मनाने चले गए हैं। हालांकि सोशल मीडिया के माध्यम से वे लगातार सक्रिय हैं और खबरों में बने हुए हैं। लेकिन उनकी वास्तविक उपस्थिति आखिरी बार पिछले सप्ताह प्रणब मुखर्जी के पुस्तक विमोचन में ही दर्ज हो सकी। लिहाजा राहुल के कद का नेता अगर अचानक कहीं ना दिखे तो उनके बारे में कयासों व अटकलों का दौर शुरू होना स्वाभाविक ही है। वह भी तब जबकि उनकी छुट्टियों का इतिहास की ऐसा रहा हो कि किसी मामले को उफान पर लाकर खुद कपूर की तरह रंगमंच से काफूर हो जाएं। खैर, राहुल की छुट्टियों को लेकर जितने मुंह उतनी बातें तो हमेशा से होती रही हैं और आगे भी होती रहेंगी। लेकिन यह राहुल को ही तय करना होगा कि अपने मजे के लिए वे कांग्रेस और कांग्रेसियों को कब तक सजा दिलाते रहेंगे। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

‘खतरा, खटका या सत्य का संकेत!’

‘खतरा, खटका या सत्य का संकेत!’

कोई भी बदलाव अनायास ही नहीं होता। उसके पीछे कोई वजह जरूर होती है और उसका कुछ ना कुछ संकेत पहले से ही अवश्य दिखने लगता है। इस लिहाज से देखा जाए तो दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव का नतीजा काफी कुछ कहता हुआ दिख रहा है। जिस डूसू में साल 2013 से ही कांग्रेस की छात्र इकाई एनएसयूआई को जीत नसीब नहीं हो पाई थी वहां इस बार उसने अध्यक्ष के साथ ही उपाध्यक्ष पद पर भी कब्जा कर लिया है जबकि संघ के अनुषांगिक व भाजपा के सहोदर छात्र संगठन एबीवीपी के खाते में सिर्फ सचिव व संयुक्त सचिव का पद ही आया है। भले भाजपा की ओर से इस हार पर कोई निराशा नहीं व्यक्त की जा रही हो और यह बताया जा रहा हो कि जिन सीटों पर जीत हासिल हुई है उसमें जीत-हार का फासला हजारों में है जबकि जिन पदों पर हार हुई है उस पर जय-पराजय का अंतर महज सैकड़ों में है। लेकिन सिर्फ इतना कह देने भर से खतरे की उस घंटी की आवाज को दबाया नहीं जा सकता है जो दूर से आती हुई सुनाई पड़ रही है। इस आवाज को महज भ्रम भी माना जा सकता था लेकिन इससे कुछ ही दिन पहले बवाना विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा को झेलनी पड़ी करारी शिकस्त और महज पांच दिन पूर्व जेएनयू छात्र संघ के चुनाव में अपेक्षित सफलता से महरूम रहने की हकीकत से यह स्पष्ट हो जाता है कि खतरे की घंटी की आवाज कोई भ्रम नहीं है बल्कि वह सच में सियासी फिजा में गूंज रही है। भाजपा का प्रदर्शन मध्य प्रदेश के स्थानीय निकायों के चुनावों में भी उस स्तर का नहीं रहा जैसी उसे उम्मीद थी और पंजाब विधानसभा चुनाव में भी नतीजा उसके खिलाफ ही रहा था। यानि ‘पार्लियामेंट से लेकर पंचायत तक’ हर स्तर पर जीत का परचम लहराने और कांग्रेस मुक्त भारत बनाने का जो अभियान भाजपा ने छेड़ा था उसकी सफलता का ग्राफ ढ़लान की ओर बढ़ने की अटकलों को सिरे से खारिज कर देना निहायत ही मुश्किल होता जा रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह दिख रही है युवाओं के बीच भाजपा की लोकप्रियता में उत्तरोत्तर कमी आना। भाजपा के राष्ट्रवाद का खुमार का असर कम होने की एक बड़ी वजह युवाओं के सपने पूरे नहीं हो पाने को भी माना जा सकता है जिसके कारण प्रधानमंत्री मोदी की मीठी बातें अब उन्हें इस हद तक लुभा नहीं पा रही हैं कि वे भाजपा का जुनून की हद तक समर्थन करें। बेशक इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि पिछले कई दशकों के बाद भारत को सशक्त, सक्षम व बेहतर नेतृत्व मिला है लेकिन इस सरकार ने जितने बेहतरीन प्रदर्शन की आशाएं जगाई थी उन अपेक्षाओं को पूरी तरह पूरा करने में यह सफल नहीं हो पाई है। खास तौर से युवाओं से जुड़े मसलों पर सरकार का प्रदर्शन निहायत औसत रहा है जिसके नतीजे में युवा मतदाताओं का काफी बड़ा वर्ग अब मोदी सरकार के करिश्माई नेतृत्व को लेकर निराश होता जा रहा है। अव्वल तो शिक्षा की सुलभता और गुणवत्ता के मामले में किसी ठोस सुधार की पहल होती हुई नहीं दिखी है और दूसरे शिक्षण-प्रशिक्षण के बाद रोजगार की दुर्लभता बदस्तूर बरकरार है। ऐसे में युवाओं का ना सिर्फ अपने भविष्य को लेकर चिंतित व निराश होना स्वाभाविक है बल्कि मोदी सरकार द्वारा दिखाए गए सपनों के पूरा हो पाने को लेकर निराशा में इजाफा होना भी लाजिमी ही है। जाहिर है कि इस सबका सीधा व प्रत्यक्ष असर चुनावों में ही दिखता है और छात्र संघों के चुनाव का नतीजा तो हमेशा से ही भविष्य का संकेत देता आया है। खास तौर से दिल्ली विश्वविद्यालय का कैंपस तो देश के सियासी भविष्य का संकेत देने के लिए पहले से ही विख्यात है। ऐसे में भाजपा को यह चिंता तो करनी ही होगी कि सियासी समुद्र में सफलता से दौड़ रही उसकी नाव में जो छेद होते दिख रहे हैं उसे समय रहते बंद किया जाए और हार के कारणों पर विचार करके उन कमियों व खामियों को सुधारने पर अपना ध्यान केन्द्रित किया जाए जिसके कारण उसकी बातें जादू जैसा असर नहीं दिखा पा रही है। बेशक ममता बनर्जी और शरद पवार सरीखे नेताओं का मानना हो कि जब तक मोदी के मुकाबले राहुल गांधी का चेहरा आगे बढ़ाया जाता रहेगा तब तक भाजपा के विजय रथ को लगातार आगे बढ़ने से कतई नहीं रोका जा सकता है। लेकिन इतिहास पर गौर करें तो राहुल अकेले ऐसे शीर्ष कांग्रेसी नेता नहीं हैं जिसे बेवकूफ व कमजोर माना गया हो बल्कि एक समय गूंगी गुडिया बताकर इंदिरा गांधी का भी मजाक उड़ाया जाता था और राजीव गांधी के व्यक्तित्व व विचारों को यह कह कर गंभीरता से नहीं लिया जाता था कि उन्हें व्यावहारिक बातों की कोई जानकारी ही नहीं है। लिहाजा मौजूदा वक्त में अगर राहुल को पप्पू कहकर दुष्प्रचारित किया जा रहा है तो इसे इतिहास द्वारा खुद को दोहराए जाने की नजर से भी देखा जा सकता है। लेकिन वक्त के साथ इंदिरा-राजीव की छवि भी बदली और राहुल की भी बदल सकती है। ऐसे में राहुल के प्रति अगर लोगों की संवेदना जाग गई और उनकी मासूमियत और इमानदारी पर मतदाताओं ने ममता दिखा दी तो भाजपा को सत्ता छोड़कर भागने के लिए भी मजबूर होना पड़ सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @नवकांत ठाकुर #Navkantthakur

सोमवार, 11 सितंबर 2017

‘हर तरफ अन्धी सियासत है, बताओ क्या करें’



‘हर तरफ अन्धी सियासत है, बताओ क्या करें’

उत्तर प्रदेश की पश्चिमी सरहद पर स्थित गाजियाबाद के रहनेवाले कवि योगेन्द्र दत्त शर्मा लिखते हैं कि, ‘हर तरफ अन्धी सियासत है, बताओ क्या करें? रेहन में पूरी रियासत है, बताओ क्या करें? झुण्ड पागल हाथियों का, रौंदता है शहर को, और अंकुश में महावत है, बताओ क्या करें?’ वाकई यह अंधी सियासत ही तो है। वर्ना एक महिला की हत्या के ऐसे मामले को रातों-रात इतना तूल दिए जाने की कोई दूसरी वजह समझ में नहीं आती जो एक खास विचारधारा के पक्ष में पत्रकारिता करती रही हो और इस काम में मर्यादा की लक्षमण रेखा लांघने के नतीजे में मानहानि के मामले में दोषी पाए जाने के बाद जमानत पर चल रही हो। यह सही है कि हत्या की कोई भी वारदात पूरी मानवता और सभ्य समाज के लिए किसी कलंक से कम नहीं है। लेकिन किसी हत्या के मामले को अपने हित में तूल देकर विरोधी विचारधारा या संगठन को सीधे तौर पर दोषी बता देना कैसे जायज माना जा सकता है। दरअसल पूरे मामले के असली घटनाक्रम पर गौर करें तो बेंगलुरु में वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की गोली मारकर हत्या कर दी गई। हमलावरों ने उनके घर में घुसकर उन्हें गोली मार दी। पुलिस अधिकारियों के मुताबिक 55 वर्षीय गौरी कार से अपने घर लौटी थी। जब वह गेट खोल रही थीं तभी मोटरसाइकिल सवार अज्ञात हमलावरों ने उन पर अंधाधुंध गोलियां चला दीं। इनमें से दो गोलियां उनके सीने में और एक माथे पर लगी जिससे उनकी मौके पर ही मौत हो गई। अब सवाल है कि इस हत्याकांड का मुख्य दोषी कौन है? निश्चित तौर पर मामले का पहला मुख्य दोषी तो उन पर गोलियां बरसाने वाला हत्यारा ही है। लेकिन उससे जरा भी कम दोषी प्रदेश की पुलिस व्यवस्था नहीं है जो अपने नागरिक की रक्षा कर पाने में अक्षम साबित हुई है। नागरिक भी ऐसा जो सरकार और नक्सलियों के बीच कड़ी का काम कर रहा हो। लेकिन ना तो किसी को इस बात की परवाह है कि वास्तव में इस हत्या को किसने अंजाम दिया और ना ही प्रदेश की कानून व्यवस्था पर उंगली उठाने की जहमत उठाई गई है। अलबत्ता इस हत्याकांड को ऐसे तरीके से परोसा जा रहा है मानो देश में स्वतंत्र आवाज उठानेवालों के लिए अब कोई जगह नहीं बची है और भारत में पत्रकारों को जान के लाले पड़े हुए हैं। बताने की कोशिश की जा रही है कि केन्द्र में सत्तारूढ़ दक्षिणपंथी या राष्ट्रवादी विचारधारा की सरकार के कार्यकाल में विरोधी विचारों के लिए कोई जगह नहीं बची है और गौरी की हत्या इसी वजह से की गई क्योंकि अव्वल वह पत्रकार थी और दूसरे वह दक्षिणपंथी विचारधारा का मुखर होकर विरोध करती थी। क्योंकि वह एक खास विचारधारा से जुड़ी हुई थी इसी वजह से उसकी हत्या कर दी गई। अब सवाल यह है कि जब अब तक यही नहीं पता चल पाया है कि उसकी हत्या क्यों और किसने की तब सीधे यह फैसला सुना दिए जाने को कैसे जायज ठहराया जा सकता है कि गौरी को इसलिए मार डाला गया है क्योंकि वह पत्रकार थी और उसकी लेखनी दक्षिणपंथी विचारधारा के खिलाफ आग उगलती रहती थी। लेकिन दुर्भाग्य से इस मामले को तटस्थता व निष्पक्षता के साथ समग्रता में देखने व समझने की ना तो कोशिश की जा रही है और ना ही किसी को समझने की इजाजत दी जा रही है। आलम यह है कि प्रदेश सरकार ने भी इस मामले को सियासी तौर पर भुनाने के लिए गौरी को राजकीय सम्मान के साथ दफनाने की पहल कर दी और कांग्रेस व वामपंथियों से लेकर तमाम भाजपा विरोधी राजनीतिक ताकतों ने इस मामले को लेकर मोदी सरकार पर निशाना साधना शुरू कर दिया। इसके अलावा मीडिया के एक वर्ग ने भी इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला साबित करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया और मानवाधिकारों पर नजर रखने वाली एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने भी इस हत्या पर चिंता जताते हुए यहां तक कह दिया कि यह घटना भारत में अभिव्यक्ति की आजादी की स्थिति के बारे में चिंता पैदा करती है। रही सही कसर अमेरिकी दूतावास ने औपचारिक तौर पर यह बयान जारी करके पूरी कर दी कि भारत में अमेरिकी मिशन, भारत व दुनिया भर में प्रेस की आजादी के समर्थकों के साथ मिलकर बेंगलुरु में सम्मानित पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या की निंदा करता है। यानि एक तरह से देखा जाए तो सबने यह मान लिया है कि गौरी की हत्या व्यवस्था व सत्ता विरोधी आवाज को दबाने के मकसद से की गई है। किसी को यह जानने की अब जरूरत ही नहीं है कि वास्तव में यह हत्या क्यों हुई? सबको चिंता सिर्फ इस बात की दिख रही है कि किसी भी तरह इस हत्याकांड की आड़ लेकर मोदी सरकार पर दबाव बनाया जाए और उसे तानाशाह साबित कर दिया जाए। निश्चित तौर पर यह स्थिति बेहद खतरनाक है क्योंकि पूरे मामले का खुलासा होने और हत्यारों के पकड़े जाने से पहले ही अपने सुविधानुसार मामले को अलग रंग देने और इसका यथासंभव दोहन करने की कोशिश की परंपरा भविष्य में दोधारी तलवार की तरह किसकी गर्दन पर कब गिरेगी इसके बारे में दावे से कोई कुछ नहीं कह सकता है। राजनीतिक नफा-नुकसान के तहत इल्हाम के आधार पर हकीकत को तोड़ने-मरोड़ने की परंपरा भविष्य के लिए बेहद खतरनाक संकेत दे रही है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

साझी विरासत के बहाने सियासी विरासत की चिंता

साझी विरासत के बहाने सियासी विरासत की चिंता


सियासत में होना और दिखना अमूमन अलग ही रहता है। होता कुछ और है, दिखता कुछ और। दिख तो यह रहा है कि राष्ट्रीय राजनीति में विकल्पहीनता के निर्वात ने दिनों-दिन क्षीण व दीन-हीन होते जा रहे विपक्षी दलों को इतना आकुल-व्याकुल कर दिया है कि वे आपसी मतभेदों को भुलाकर किसी भी बहाने एकजुट हो जाने के लिए बुरी तरह बेचैन हो उठे हैं। इस बेचैनी का ही नतीजा है कि बिना किसी चेहरे और बिना ठोस एजेंडे के ही तमाम भाजपा विरोधी ताकतें उस साझी विरासत को बचाने के बहाने एकजुट होने का प्रयास कर रही हैं जिसमें उनका कुछ भी साझा नहीं है। ना तो सैद्धांतिक तौर पर उनकी कोई आपसी साझेदारी रही है और ना ही व्यावहारिक तौर पर ऐसा कुछ दिखाई दे रहा है जो उनके बीच साझा हो। अलबत्ता मौजूदा समस्याएं अवश्य ही सबकी साझा हैं जिसे तथाकथित विरासत की चाशनी में लपेटकर आम लोगों को ऐसी कहानी सुनाने का प्रयास किया गया है जिसका कोई आदि-अंत ही नहीं है। मौजूदा शासक वर्ग के खिलाफ एकजुट होकर आंदोलन करने के लिए भले ही देश ही साझी विरासत को बचाने की आड़ ली जा रही हो लेकिन दीवार के पीछे की हकीकत को टटोलने से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि यह आंदोलन वास्तव में अपनी सियासी विरासत को बचाने के लिए छेड़ा जा रहा है। चुंकि सियासी विरासत को बचाने की समस्या साझी है इसलिए आंदोलन भी साझेदारी में ही करना होगा। वर्ना सियासी विरासत के समाप्त होने का सिलसिला अगर यूं ही चलता रहा तो जल्दी ही सबकी झोली खाली हो जाने वाली है और वे चाहकर भी अपने उत्तराधिकारियों के लिए कोई विरासत नहीं छोड़ पाएंगे। यानि साझी विरासत को बचाने का आंदोलन बाहर से जितना विस्तृत, व्यापक व विशाल दिखाई पड़ता है, वह अंदरूनी तौर पर उतना ही संकुचित, सीमित व साजिशपूर्ण है। यहां तक कि जिस शरद यादव ने साझी विरासत को बचाने के आंदोलन को खड़ा करने का बीड़ा उठाया है उनके मन में भी देश की साझी विरासत की कितनी चिंता है इसके बारे में उनके निकट सहयोगी भी दावे से कुछ नहीं कह सकते। अलबत्ता अपनी सियासी विरासत को बचाने और उसे अगली पीढ़ी को सौंपने के लिए वे कितने बेचैन हैं इसकी फुसफुसाहट अवश्य सुनाई देने लगी है। बताया जा रहा है कि साझी विरासत को बचाने की आड़ लेकर वे जिस विपक्षी एकता का ताना-बाना बुन रहे हैं उसके पीछे की कहानी पुत्रमोह से ही जुड़ी हुई है। खास तौर से बिहार में जदयू के राजग के जुड़ जाने की आड़ लेकर वे जिस नाराजगी का इजहार कर रहे हैं उसकी असली वजह उनका पुत्रमोह ही है। वर्ना जिस जदयू को उन्होंने खुद ही स्थापित किया हो उसको तोड़ने के लिए वे उस कांग्रेस से शक्ति हर्गिज नहीं लेते जिसका विरोध करके ही उन्होंने अपनी राजनीतिक पहचान कायम की है। लेकिन बताया जाता है शरद अब अपने बेटे शांतनु बुंदेला को राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित करना चाहते हैं। शांतनु ने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक और लंदन यूनिवर्सिटी से मास्टर डिग्री हासिल की है और पिछले लोकसभा चुनाव में जब शरद यादव मधेपुरा से चुनाव लड़ रहे थे तब शांतनु ने ही उनके चुनाव प्रचार की कमान संभाली थी। हालांकि शरद ने अब तक अपनी सियासी विरासत शांतनु को सौंपने की अंदरूनी मंशा को सार्वजनिक नहीं किया है लेकिन जदयू के शीर्ष स्तर से मिली जानकारी के मुताबिक उन्होंने नीतीश कुमार को इसके लिए मनाने, रिझाने व समझाने की तमाम कोशिशें करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लेकिन नीतीश ने उन्हें कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया था जिसके बाद से ही वे नीतीश से नाराज चल रहे हैं और जदयू के साथ वैसा लगाव-जुडाव महसूस नहीं कर पा रहे हैं जो उनसे अपेक्षित है। वे हर हालत में अपने बेटे के लिए मधेपुरा लोकसभा की वही सीट सुरक्षित कराना चाहते हैं जहां से वे संसद के लिए चुने जाते रहे हैं। बेशक पैदाइशी तौर पर शरद का बिहार से कोई नाता-रिश्ता ना हो लेकिन मधेपुरा को उन्होंने अपनी चुनावी कर्मस्थली बनाया हुआ है और इस बात का पूरा पुख्ता इंतजाम भी कर चुके हैं कि वहां उन्हें अब कोई बाहरी बताने की हिम्मत नहीं कर सकता है। जाहिर है कि उस सीट को वे अपने बेटे के बजाय किसी और के लिए छोड़ना कतई गवारा नहीं कर सकते हैं जबकि जदयू में रहते हुए अपनी मनचाही कर पाना उनके लिए नामुमकिन की हद तक मुश्किल हो चला है। लेकिन पुत्रमोह की पट्टी आंखों पर पड़ जाए तो सियासी डगर का सफर किधर मुड़ जाए यह कोई नहीं जानता। भले इसके लिए कुछ भी कीमत क्यों ना चुकानी पड़े। तभी तो सियासी विरासत को आगे बढ़ाने के एवज में अब शरद भी वैसी ही कीमत चुकाने की राह पर आगे बढ़ते दिख रहे हैं जो गांधी, यादव और चौटाला सरीखे कई परिवार अदा कर रहे हैं। इन सभी परिवारों की समस्याएं साझी हैं और भाजपा के रूप में इनकी समस्याओं की जड़ भी साझा ही है लिहाजा साझी विरासत को बचाने के आंदोलन की आड़ लेकर इनके एक मंच में जुटने को कतई अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता है। लेकिन साझी विरासत के बंबू पर सियासी विरासत का तंबू तो तब खड़ा होगा जब इनके साझा एजेंडे की जमीन पर आम लोगों को यकीन हो पाएगा। जिसकी संभावना दूर-दूर तक नहीं दिख रही है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

गुरुवार, 10 अगस्त 2017

‘सतह पर कुछ और है गहराई में कुछ और’

‘सतह पर कुछ और है गहराई में कुछ और’

अब तक यही होता आया है कि बेमानी मसलों पर मारामारी के कारण असली मुद्दे हाशिए पर रह जाते थे। जो काम होना चाहिए वह हो नहीं पाता था और बेमतलब का बवाल कटता रहता था। लेकिन मौजूदा निजाम की कार्यप्रणाली इस तरह की है कि जिसमें बवाल अपनी जगह कटता रहता है और काम अपनी जगह होता रहता है। ऐसे में विरोधियों के लिए मुश्किल यह हो जाती है कि आखिर वे सरकार का घेराव किस मसले पर करें। असली काम तो इतनी चतुराई से अंजाम दिया जाता है कि उसका सीधे तौर पर विरोध करने की किसी की हिम्मत ही नहीं होती और जिन कथित ज्वलंत मसलों पर विरोध की आंच सुलगाने का प्रयास किया जाता है उस पर सरकार के रणनीतिकार निर्णायक तौर पर ऐसा पानी फेर देते हैं कि विरोध का मसला ही समाप्त हो जाता है। मिसाल के तौर पर विपक्ष ने सरकार को दलित विरोधी साबित करने की पुरजोर कोशिश की लेकिन एक ही झटके में दलित समाज के व्यक्ति को राष्ट्रपति पद पर बिठाकर सरकार ने मुद्दे को ही समाप्त कर दिया। विपक्ष ने गौ-रक्षकों की गुंडागर्दी का मसला उठाया तो प्रधानमंत्री ने खुद ही उसके खिलाफ इतने कड़े तेवर दिखा दिए कि विपक्ष के पास कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं। हर वह मसला जिसे आधार बनाकर सरकार पर वार करने का प्रयास किया गया उसे पूरी तरह भोथरा व ध्वस्त करने में सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। यानि विपक्ष की हर चालबाजी को सरकार ने अपनी चतुराई से नाकाम करने का सिलसिला लगातार जारी रखा हुआ है लेकिन सरकार जिस चालाकी के साथ अपने मूलभूत सैद्धांतिक व वैचारिक प्रतिबद्धताओं को अमली जामा पहनाने में जुटी हुई है उस तरफ या तो विपक्ष की नजर ही नहीं जा रही है या फिर उसकी काट कर पाने का कोई ठोस हथियार उपलब्ध नहीं होने के कारण उसकी अनदेखी करना ही बेहतर समझा जा रहा है। वास्तव में देखा जाए तो सत्तारूढ़ भाजपा पर अक्सर यह आरोप लगता रहा है कि जब वह सत्ता में आती है तो सिद्धांतों से पल्ला झाड़ते हुए अपने वैचारिक मसलों से किनारा कर लेती है। हालांकि इस बात पर अलग से बहस हो सकती है कि भाजपा ने सिद्धांतों व विचारों का कितना पोषण और कितना दोहन किया है लेकिन एक बात पर कोई विवाद नहीं हो सकता कि सिद्धांतों को सर्वोपरि मानने से भाजपा ने कभी परहेज नहीं बरता है। मसला चाहे राम मंदिर का हो, समान नागरिक संहिता का हो या फिर धारा 370 का। इन मसलों पर सैद्धांतिक व वैचारिक प्रतिबद्धता दर्शाने में भाजपा कभी नहीं हटी। लेकिन मसला है कि अब तक उसके पास राजनीतिक तौर पर इतनी ताकत ही नहीं थी कि वह अपने सिद्धांतों व विचारों को अमली जामा पहनाने का सपना भी देख सके। लेकिन अब मौका भी मिला है और पार्टी इस मौके को पूरी तरह भुना भी रही है। तभी तो एक तरफ उसने सैद्धांतिक तौर पर अपेक्षित सियासी सपनों को खुद ही पूरा करना आरंभ कर दिया है जबकि उन मामलों को अदालत के माध्यम से निपटाने का निर्णायक प्रयास किया जा रहा है जो संवैधानिक व कानूनी प्रक्रियाओं से जुड़े हुए हैं। सच पूछा जाए तो भाजपा से सैद्धांतिक अपेक्षाएं यही रही हैं कि वह राम मंदिर बनाने, धारा 370 हटाने और समान नागरिक संहिता लागू कराने की राह तैयार कर दे और ‘सब सुधरेंगे तीन सुधारे, नेता कर कानून हमारे’ के नारे को हकीकत में बदल दे। जहां तक नारे को हकीकत में बदलने की बात है तो इसमें मोदी सरकार ने काफी हद तक सफलता हासिल कर ली है। नेताओं को सुधारने के लिए बेनामी कानूनों में संशोधन, कालेधन के खिलाफ लड़ाई, चुनाव सुधार की प्रक्रिया और लालबत्ती की समाप्ति सरीखे कदम उठाए गए है जबकि जीएसटी लागू करके ‘एक देश एक कर’ के विचार को मूर्त रूप देते हुए करों में सुधार का भी इंतजाम कर दिया गया है। इसके अलावा अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे बेमानी, अप्रासंगिक व उलझाऊ कानूनों को थोक के भाव में निरस्त करने और मौजूदा कानूनों को चुस्त-दुरूस्त करके व्यवस्था को सरल-सुगम तरीके से संचालित करने की कोशिशें युद्धस्तर पर जारी हैं। इसके अलावा पार्टी की पहचान से जुड़े सैद्धांतिक व वैचारिक मसलों की बात करें तो जहां एक ओर राम मंदिर के मामले की सर्वोच्च न्यायालय में त्वरित सुनवाई की शुरूआत होने जा रही है वहीं दूसरी ओर समान नागरिक संहिता के एक बड़े तकाजे को पूरा करने के लिए सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में ऐसा इंतजाम कर दिया है कि यह कुप्रथा अब समाप्त होने की कगार पर आ गई है। इस मामले की सुनवाई पूरी हो चुकी है और तीन तलाक की व्यवस्था के निरस्त होते ही पर्सनल लाॅ की व्यवस्था महत्वहीन हो जाएगी और स्वाभाविक तौर पर समान नागरिक संहिता को लागू करने की राह निकल आएगी। रहा सवाल धारा 370 का तो उसकी जान अटकी है संविधान के अनुच्छेद 35-ए में जिसे वर्ष 1954 में संसद से पारित कराए बिना सिर्फ राष्ट्रपति की सहमति के सहारे संविधान का हिस्सा बना दिया गया। जाहिर तौर पर इसकी संवैधानिक मान्यता को सर्वोच्च न्यायालय में दी गई चुनौती अपना रंग अवश्य ही दिखाएगी। यानि तयशुदा लक्ष्य की दिशा में सरकार इतनी दूर निकल गई है कि उसकी राह के आड़े आ पाना विपक्ष के लिए संभव ही नहीं दिख रहा है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

सोमवार, 31 जुलाई 2017

‘दुनियावी बाजार में बिकाऊओं की कतार’

‘दुनियावी बाजार में बिकाऊओं की कतार’

मानो या ना मानो। सच यही है कि इस संसार में कुछ भी ऐसा नहीं है जो बिकाऊ ना हो। बल्कि दुनिया को अगर बाजार मान लिया जाए तो यहां की हर चीज बिकाऊ है। यहां किसी को कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता। पूरी कीमत अदा करनी ही पड़ती है। जो कीमत दे पाता है, माल उसका हो जाता है। हालांकि बेशक यहां कुछ भी मुफ्त ना हो और हर चीज की कीमत तय हो लेकिन आवश्यक नहीं है कि कीमत का आंकलन पैसे से ही होता हो। कुछ चीजें प्यार के दो बोल के बदले भी मिल जाती हैं और कुछ के लिए बहुत कुछ न्यौछावर भी करना पड़ता है। कुछ के लिए रातों की नींद और दिन के चैन का भी भुगतान करना पड़ता है और कुछ चीजें दो बूंद टसुओं या एक प्यारी सी मुस्कान के बदले में भी मिल जाती हैं। कहने का मतलब यह कि किसी को कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता। साथ ही किसी की भी कीमत हमेशा एक सी नहीं रहती। वक्त और जरूरत के हिसाब से हर चीज की कीमत में घट-बढ़ होती रहती है। जाहिर तौर पर जब कीमत परिवर्तनशील है तो उसकी अदायगी की औकात के हिसाब से मालिकाना हक में बदलाव होना स्वाभाविक ही है। लिहाजा किसी को अगर कोई चीज हासिल होती हुई दिखाई दे रही हो तो आंख मूंद कर यह मान लेना चाहिए कि उसे पाने के लिए उसने कुछ ना कुछ कीमत निश्चित ही अदा की होगी। इस लिहाज से देखा जाए तो इन दिनों भाजपा को विरोधी खेमों से थोक के भाव में जो समर्थक मिल रहे हैं उसे मुफ्त का माल तो हर्गिज नहीं माना जा सकता है। निश्चित तौर पर इसके लिए उसने कड़ी साधना की है। वर्ना पूरी सहूलियत व पूर्ण बहुमत के साथ चल रही बिहार की सरकार का पूरा समीकरण अचानक रातों-रात कैसे बदल सकता था। हालांकि यह बदलाव रातोें-रात हुआ या पूर्वनिर्धारित व तयशुदा रणनीति के साथ किया गया इस पर अलग से बहस हो सकती है लेकिन इस बात में तो विवाद का कोई आधार ही नहीं है कि जो हुआ वह ना तो मुफ्त में हुआ और ना ही किस्मत से हो गया। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में भी सपा व बसपा के विधान पार्षदों द्वारा परिषद की सदस्यता से इस्तीफा देकर सीट खाली किए जाने से भाजपा की जरूरतों की जो पूर्ति होती हुई दिख रही है उस फायदे के बदले में भाजपा को कुछ भी भुगतान नहीं करना पड़ा होगा ऐसा कैसे माना जा सकता है। कैसे यकीन किया जा सकता है कि गुजरात में कांग्रेसी विधायकों के बीच भाजपा में शामिल होने की जो होड़ मची है वह फायदा भी भाजपा को मुफ्त में मिल रहा है। यानि इस बात पर तो कोई बहस ही नहीं हो सकती कि जो कुछ भी हो रहा है अथवा होनेवाला है उसमें से कुछ भी इत्तफाकन नहीं है। सबके पीछे एक सोची-समझी रणनीति छिपी हुई है और सबके बदले में आवश्यक कीमत की अदायगी भी हुई है। हालांकि यह तो कतई नहीं मानना चाहिए कि हमारे माननीयों को सीधे तौर पर कोई ‘कैश-काइंड’ के बदले खरीद सकता है लेकिन यह कहने में किसी को कोई झिझक नहीं हो सकती कि माननीय बिक तो रहे ही हैं। अब यह बात तो माननीयों को ही बतानी होगी कि इसके बदले में उन्हें क्या मिला है। संभव है कि बदले में सिर्फ प्यार, विश्वास, सुरक्षा और भरोसा ही मिला हो या फिर यह भी संभव है कि इसके एवज में उन्हें वह मिला हो जो वे बताना ही ना चाहें। वैसे बताना चाहें तो बता ही दें। खैर, किसे किस रूप में क्या और कितना मिला यह लेने वाला जाने और देने वाला जाने। वह चाहे तो बताए या फिर ना बताए। उसकी मर्जी। अलबत्ता बड़ा सवाल है कि इस लेन देन में बेशक लेनदार और देनदार ने कितना ही मुनाफा कूटा हो लेकिन इससे चुनाव व्यवस्था की शुचिता और मतदाताओं के भरोसे का जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई कैसे होगी? अब कैसे कोई मतदाता इस बात के लिए निश्चिंत हो पाएगा कि उसने जिस व्यक्ति, दल या गठबंधन को अपना समर्थन दिया है वह अपने पूरे कार्यकाल तक उनकी उम्मीद व भरोसे पर डटा रहेगा। मिसाल के तौर पर नीतीश के चेहरे को आगे करके भाजपा विरोधी महागठबंधन ने बिहार में जो जनादेश हासिल किया उसमें सूबे के मतदाताओं की यह सोच ही निर्णायक रही थी कि उन्हें सूबे की सत्ता पर भाजपा को काबिज नहीं होने देना था। ऐसे में अगर नीतीश ने महागठबंधन को तोड़ कर विधायकों की तादाद के हिसाब से विधानसभा में चैथे पायदान पर खड़ी भाजपा को अपने साथ सत्ता में साझेदार बनाने की पहल कर दी है और सबसे अधिक विधायकों वाले दल को अपना बहुमत साबित करने का मौका भी नहीं मिल पाया है तो नए गठबंधन को महाठगबंधन का नाम ना दें तो और क्या कहें? निश्चित तौर पर जिनको भी इधर से उधर होता हुआ देखा जा रहा है उसके पीछे सबसे बड़ी वजह उनकी मौजूदा कीमत अदा करने में इधर वाले की असमर्थता ही है। लिहाजा जिसे अपनी मौजूदा कीमत के मुताबिक अपनी दशा-दिशा निर्धारित करनी हो उसके लिए दरवाजे तो खुले ही हैं। लेकिन कीमत में परिवर्तन के साथ ही जिसका मालिकाना हक बदल जाए उसकी शुचिता पर तो सवालिया निशान लग ही जाता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर   #NavkantThakur

सोमवार, 24 जुलाई 2017

‘दो नावों में एक पांव पर सियासी संतुलन’

‘दो नावों में एक पांव पर सियासी संतुलन’

बेशक आम तौर पर माना जाता हो कि, ‘समझ समझ के समझ को समझो, समझ समझना भी एक समझ है।’ लेकिन सियासत में समझ को समझ से समझने की कोशिश में अक्सर कुछ भी समझ पाना बेहद मुश्किल हो जाता है। तभी तो बिहार में नीतीश कुमार की सियासी पैंतरेबाजी को वे लालू यादव भी नहीं समझ पा रहे जिनकी समझ पर कोई नासमझ भी संदेह नहीं कर सकता। लिहाजा जब लालू की समझदानी में नीतीश की कारस्तानी नहीं समा रही तो लालू के लाल कौन से ऐसे लालबुझक्कड़ हैं? तभी तो तेजप्रताप ने बेलाग लहजे में यह स्वीकार कर लिया कि नीतीश को सिर्फ नीतीश ही समझ सकते हैं। वाकई ऐसी सियासत को कोई क्या समझे जिसमें नरेन्द्र मोदी के साथ अपनी तस्वीर प्रकाशित होने भर से बिदककर राजग का बरसों पुराना याराना एक झटके में तोड़ लिया जाए और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को रात्रि भोज पर निमंत्रित करने के बाद खिलाने से इनकार करके बुरी तरह जलील किया जाए। लेकिन जब वही मोदी प्रधानमंत्री बन जाएं तो नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक के तमाम ऐसे मसलों पर उनकी सार्वजनिक सराहना की जाए जिसकी समूचे विपक्ष द्वारा कड़ी आलोचना की जा रही हो। यहां तक कि विपक्षी महागठजोड़ के चुनावी प्रयोग का चेहरा बनने के बाद विपक्षी एकता के लिए बुलाई जानेवाली तमाम बैठकों से खुद को दूर रखा जाए और विपक्ष द्वारा घोषित राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी को समर्थन देने से भी इनकार कर दिया जाए, लेकिन किसी भी बैठक में शिरकत करने के लिए जब भी मोदी का बुलावा आए तो नंगे पांव दौड़ लिया जाए। ऐसे में कोई कैसे समझ सकता है कि आखिर नीतीश वास्तव में किसके साथ हैं? कांग्रेसनीत धर्मनिरपेक्षतावादी विपक्ष के साथ या भाजपानीत राष्ट्रवादी सत्तापक्ष के साथ। इसी प्रकार यूपी में जिस भाजपा के हाथों सपा को शर्मनाक शिकस्त का सामना करना पड़ा हो उसके साथ सपा के शीर्ष संचालक परिवार का बर्ताव कांग्रेसियों की हलक के नीचे नहीं उतर रहा। एक तरफ तो यूपी में सबसे कट्टर भाजपा विरोधी की छवि सपा ने ही हथियाई हुई है और दूसरी तरफ मोदी के साथ कनफुसकी भी मुलायम ही करते हैं और अखिलेश ऐलान करते हैं कि योगी सरकार के प्रदर्शन को आंकने के लिए सब्र के साथ इंतजार किया जाए। यहां तक कि शिवपाल खुलेआम यह ऐलान करते हैं कि सपा नेतृत्व का फैसला चाहे जो भी हो लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में उनके विधायकों की टोली भाजपा के प्रत्याशी के पक्ष में ही मतदान करेगी। उस पर तुर्रा यह कि बकौल शिवपाल, उन्हें ऐसा करने के लिए मुलायम ने ही कहा है। अब ऐसे में सपा की सियासत को समझना कांग्रेस के लिए मुहाल होना स्वाभाविक ही है। हालांकि यह अगल बात है कि नीतीश की राजनीति राजद को और सपा की सियासत कांग्रेस को किस प्रकार की दिखाई दे रही है। लेकिन एक आम आदमी की नजर से देखा जाए तो बिहार में जदयू और यूपी में सपा की राजनीति ‘दो नावों पर एक पांव’ वाली ही है। औपचारिक व सैद्धांतिक तौर पर तो ये दोनों दल कांग्रेसनीत विपक्ष के साथ ही जुड़े हुए हैं। बिहार में कांग्रेस व राजद के दम पर ही नीतीश की सरकार चल रही है और यूपी की राजनीति में वापसी करने के लिए सपा भी कांग्रेस व बसपा को अपने साथ जोड़ कर आगे बढ़ने की रणनीति को ही अमली जामा पहनाने में जुटी हुई है। इसके बावजूद अगर ये दोनों दल भाजपानीत राजग के साथ अंदरूनी तौर पर परस्पर समझदारी से सहयोग का गठजोड़ कायम रखना चाहते हैं तो इसका निहितार्थ समझने के लिए इन दोनों दलों की जमीनी समस्याओं व सिरदर्दियों पर नजर डालना बेहद आवश्यक है। जदयू की बात करें तो बेशक वहां सरकार का चेहरा नीतीश को बनाया गया हो लेकिन साझेदारी के तहत सत्ता की मलाई में हिस्सेदारी बंटा रहे राजद व कांग्रेस की करतूतों ने ही नीतीश को इस कदर मजबूर कर दिया है कि वे इन दोनों पर नकेल डालने के लिए इनके साझे दुश्मन के साथ दोस्ती का दिखावा करें। नीतीश सरकार बदनाम हुई शिक्षा व्यवस्था चैपट होने को लेकर लेकिन उस विभाग पर कांग्रेस का कब्जा है। सूबे की स्वास्थ्य व्यवस्था को चैपट करने की कारस्तानी कर रहे हैं लालू के लाल। रही-सही कसर लालू परिवार की अकूत संपत्ति का मामला सामने आने के नतीजे में लगे भ्रष्टाचार के दाग ने पूरी कर दी। लेकिन नीतीश की मजबूरी है कि वे चाह कर भी किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकते। लिहाजा विवश होकर वे विपक्ष की नाव से अपना एक पांव बाहर निकाल कर भविष्य की सुरक्षा का इंतजाम ना करें तो और क्या करें। इसी प्रकार जब सपा सरकार के कार्यकाल में हुए कारनामों का बखान अपनी चुनावी सभाओं में खुद प्रधानमंत्री मोदी कर चुके हों तो अब सरकार बनने के बाद उसकी बखिया उधेड़ा जाना तो तय ही है। ऐसे में विपक्ष की नाव पर निर्भर होकर डूबने की प्रतीक्षा करने से तो बेहतर ही है कि एक पांव बढ़ाकर सरकार से मनुहार करते हुए गुहार लगाई जाए कि बखिया उधेड़ने की कार्रवाई में यथासंभव बचाव की गुंजाइश रखी जाए। लेकिन अपनी ही उत्पादित समस्या से बचाव के लिए दो नाव पर एक साथ पांव रखनेवालों को यह भी याद रखना चाहिए कि दो नाव के सवार का ना तो कभी बेड़ा पार हुआ है और ना हो सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #navkantthakur

बुधवार, 12 जुलाई 2017

‘सलीम ने बचाया अब सलीम को बचाओ’

‘सलीम ने बचाया अब सलीम को बचाओ’


अनंतनाग में आतंकी हमला करने के लिए सावन महीने के पहले सोमवार को चुनना, अमरनाथ की यात्रा से वापस लौट रहे श्रद्धालुओं की बस को निशाना बनाना और गुजरात नंबर की बस में घुसकर तमाम निर्दोष व निहत्थे यात्रियों को जान से मारने की कोशिश करना यह बताने के लिए काफी है कि आतंकियों का मंसूबा क्या था। बेशक सौ तरह की बातों के बहाने यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि गुजरात नंबर की बस का आतंकियों के हत्थे चढ़ जाना महज एक इत्तेफाक था लेकिन वास्तव में देखा जाए तो यह कोई इत्तेफाक नहीं था। इत्तेफाक सिर्फ टायर पंचर हो जाना था जिसके कारण बस के आगे चल रही रोड ओपनिंग टीम से उसका संपर्क समाप्त हो गया। वर्ना टुकड़ों में सामने आ रही खबरों, जानकारियों व तथ्यों को जोड़ कर देखा जाए तो अनंतनाग की आतंकी वारदात का पूरा घटनाक्रम कोई इत्तेफाक नहीं था बल्कि बकायदा सोची-समझी रणनीति के तहत इस दानवी कुकृत्य को अंजाम दिया गया। मसलन खुफिया सूत्र बताते हैं कि आतंकियों ने घटनास्थल की रेकी भी की थी। उन्हें पता था कि बुरहान वानी की मौत की बरसी के बाद सुरक्षाकर्मी राहत की सांस लेंगे। उन्हें यह भी पता था कि अंधेरा हो जाने के बाद भी जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग पर रोड ओपनिंग टीम की सुरक्षा में पर्यटकों की गाड़ियां आती-जाती रहती हैं। उन्हें वारदात की धमक दूर तक सुनानी थी। इसके लिए बड़ी गाड़ी को ही उन्हें निशाना बनाना था। वे दो मोटरसाइकिलों पर सवार थे। यानि उन्हें घात लगाकर मुठभेड़ नहीं करनी थी बल्कि बिजली की तरह वारदात को अंजाम देकर धुएं की तरह गायब हो जाना था। मामले की चर्चा अधिक हो इसके लिए जम्मू-कश्मीर से बाहर की गाड़ी को निशाना बनाया गया। साथ ही इसके लिए सोमवार का दिन चुना गया क्योंकि सावन माह के दौरान हिन्दू समाज में सोमवार का खास महत्व है। इस दौरान देश-दुनियां से हिन्दू समाज के लोग अमरनाथ की यात्रा पर आते हैं। उन्हें देश के मौजूदा माहौल का भी पूरा अंदाजा था क्योंकि एक तरफ गौ-हत्या व तीन तलाक सरीखे मामले को लेकर सांप्रदायिक स्तर पर वैचारिक तनातनी का माहौल है तो दूसरी तरफ बंगाल से लेकर केरल तक में सांप्रदायिक टकराव की आग धधक रही है। ऐसे में चेतन भगत सरीखे स्वनामधन्य बुद्धिजीवियों के शब्दों में यह खबर सामने आना देश के सांप्रदायिक माहौल को बुरी तरह बिगाड़ सकता था कि हिन्दू तीर्थयात्रियों की मुस्लिम आतंकियों ने सामूहिक हत्या की है। लेकिन इस पूरे मामले में सबसे सुखद इत्तेफाक रहा बस चालक का मुस्लिम होना। तभी तो आतंकी हमले के बाद दो नाम सबसे ज्यादा चर्चा में हैं। मीडिया हो या सोशल मीडिया, हर जगह सलीम और इस्माइल की बातें हो रही हैं। एक तरफ आतंकी इस्माइल ने भगवान शिव के सात भक्तों की जान ली तो वहीं दूसरी ओर बस ड्राइवर शेख सलीम गफूर ने दिलेरी दिखाते हुए 50 से ज्यादा शिव भक्तों की जान बचा ली। हुआ यूं कि सावन का पहला सोमवार होने के कारण अमरनाथ यात्रा मार्ग पर सामान्य से ज्यादा चहल पहल थी। बाबा बर्फानी के हिमलिंग का दर्शन करने के बाद श्रद्धालुओं की बस लेकर सलीम चल दिया। इत्तेफाक से रास्ते में उसकी बस का टायर पंचर हो गया जिसकी वजह से रोड ओपनिंग टीम आगे निकल गई। बस ठीक होकर अभी चली ही थी कि अचानक आतंकियों ने गोलीबारी शुरू कर दी। लेकिन गुजरात स्थित वलसाड के रहने वाले सलीम ने दिलेरी दिखाते हुए हमले के दौरान यात्रियों से भरी बस को तेजी से भगाना शुरू कर दिया और पुलिस पिकेट के पास जाकर ही उसने बस रोकी। इस तरह सलीम ने आतंकियों के मंसूबे पर पानी फेर दिया, क्योंकि आतंकी अगर बस में चढ़ जाते तो उस बस में सवार एक भी यात्री बच नहीं सकता था। हमले के वक्त बस में करीब 56 लोग सवार थे। सलीम की मानें तो उस वक्त खुदा ने उसे आगे बढ़ते रहने की हिम्मत दी थी इसलिए उसने अंधाधुंध फायरिंग से बचाते हुए बस को तेज गति से भगाया और यात्रियों के प्राणों की रक्षा हो सकी। अब इस मामले को एक अलग पहलू से देखें तो इस पूरी वारदात को अंजाम देनेवाला आतंकी इस्माइल भी सलीम की तरह मुस्लिम ही था लेकिन सलीम ने फरिश्ते का किरदार अदा किया जबकि इस्माइल ने इन्सानियत का गला घोंटा है। बताया जा रहा है कि लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी इस्माइल ने अपने तीन अन्य साथियों के साथ मिलकर इस वारदात को अंजाम दिया। बेशक सलीम को इस बहादुरी का पारितोषिक तो मिलना ही चाहिए और उसे वीरता पुरस्कार से नवाजा ही जाना चाहिए। उसने सिर्फ यात्रियों की जान ही नहीं बचाई बल्कि समूचे मुस्लिम समाज की आबरू को बचा लिया। उसने देश की गंगा-जमुनी संस्कृति को सवालों में घिरने से बचाया और प्रधानमंत्री मोदी के उस यकीन की रक्षा की जिसके नाते उन्होंने अमेरिका की धरती पर सीना ठोंक कर कहा था कि भारत का कोई भी मुसलमान राष्ट्रद्रोही नहीं हो सकता है। वाकई सलीम सलाम के काबिल है। लेकिन अफसोसनाक बात है कि कुछ शरारती तत्व सलीम पर संदेह जताते हुए सवाल उठा रहे हैं कि, बस पंचर क्यों हुई? दो टायर कैसे पंचर हुए? दोनों पंचर एक साथ सुधारने की क्या जरूरत थी? वगैरह वगैरह। अब इन्हें कैसे समझाया जाए कि अगर सलीम की इस्माइल से मिलीभगत होती तो आज 7 के बजाए 56 लाशें गिर चुकी होतीं। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
@नवकांत ठाकुर #navkantthakur

शुक्रवार, 16 जून 2017

‘पहले आप, पहले आप’ का निहितार्थ

‘सब्र से चल रहा शह मात का खेल’


चुनाव आयोग द्वारा अगले महीने होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए नामांकन दाखिल करने की अधिसूचना जारी कर दिए जाने के साथ ही औपचारिक तौर पर नामांकन प्रक्रिया का आगाज हो गया है। नामांकन दाखिल करने की अंतिम तारीख 28 जून है। एक जुलाई तक नाम वापस वापस लिए जा सकेंगे। 17 जुलाई को वोटिंग होगी और 20 जुलाई को मतगणना होगी। इस पूरी चुनावी प्रक्रिया में देश के कुल 4896 निर्वाचित प्रतिनिधि अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे। यानि इतना तो तय है कि 20 जुलाई को नए राष्ट्रपति का नाम सामने आ जाएगा। लेकिन लाख टके का सवाल अब भी बना हुआ है कि आखिर वह कौन होगा जिसे देश का प्रथम नागरिक बनने का सौभाग्य हासिल होगा। अभी तक ना तो सत्ता पक्ष ने अपने उम्मीदवार का चेहरा आगे किया है और ना ही विपक्ष ने। दोनों ओर से चूहे बिल्ली का खेल ही चल रहा है। दोनों की कोशिश है कि आगे बढ़ कर किसी का नाम सामने ना किया जाए बल्कि विरोधी पक्ष की ओर से पेश किए जाने वाले उम्मीदवार का नाम सामने आने की प्रतीक्षा की जाए। शह-मात के इस खेल में सत्ता पक्ष ने भी विभिन्न दलों से बातचीत करके बहुमत के आंकड़े का जुगाड़ करने के लिए तीन सदस्यीय कमेटी गठित कर दी है और विपक्ष ने भी सर्वमान्य चेहरे की तलाश के लिए दस सदस्यीय कमेटी बना दी है। दोनों ओर से कमेटी-कमेटी का खेल शुरू हो गया है। वास्तव में देखा जाए तो राष्ट्रपति के पद पर अपने पसंदीदा उम्मीदवार को जीत दिलाने लायक पर्याप्त वोट ना तो सत्ता पक्ष के पास उपलब्ध है और ना ही विपक्ष के पास। बल्कि भाजपा व कांग्रेस से समानांतर दूरी बनाकर चलनेवाले दलों की तीसरी ताकत के पास ही वह निर्णायक चाबी है जो किसी भी पक्ष के उम्मीदवार के लिए राष्ट्रपति भवन का ताला खोल सकता है। यही वजह है कि सरकार की कोशिश विपक्षी खेमे में सेंध लगाने की है जबकि कांग्रेसनीत विपक्ष का प्रयास है कि गैर-भाजपाई दलों को अपने साथ जोड़कर बहुमत के आंकड़े का जुगाड़ किया जाए। साथ ही विरोधी खेमे में सेंध लगाने को लेकर दोनों ही पक्ष पूरी तरह आशान्वित भी हैं। इतिहास गवाह है कि पिछले दो बार के राष्ट्रपति चुनाव में भाजपानीत राजग की एकता पहले ही तार-तार हो चुकी है और दोनों ही बार शिवसेना ने गठबंधन धर्म को दरकिनार कर कांग्रेस की ओर से पेश किए गए उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने में कोई संकोच नहीं किया। वह भी तब जबकि भाजपा के साथ उसके रिश्ते इतने खराब नहीं थे कि उसे विधानसभा व स्थानीय निकाय का चुनाव अपने दम पर लड़ने के लिए मजबूर होना पड़े। लिहाजा इस दफा वह भाजपा के उम्मीदवार को समर्थन देने के लिए आगे आएगी या नहीं इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। यानि भाजपा के समक्ष इस चुनाव को लेकर दोहरी चुनौती है। अव्वल तो उसे राजग की एकता को बरकरार रखना होगा और दूसरे विरोधी खेमे में सेंध लगाकर बहुमत के आंकड़े का जुगाड़ करना होगा। दूसरी ओर कांग्रेसनीत विपक्ष की राह भी कतई आसान नहीं दिख रही है। कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या तो धुर भाजपा विरोधी दलों को किसी एक नाम पर सहमत करने की है जिसके आसार दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहे। दूसरी चुनौती उस चेहरे के लिए बहुमत का जुगाड़ करने की भी है। इसके लिए तीसरे पाले में खड़े उन दलों को इसे अपने साथ जोड़ना होगा जो ना तो राजग का हिस्सा हैं और ना ही संप्रग का। इसमें कांग्रेस को किस हद तक सफलता मिल पाएगी इसके बारे में कुछ भी दावा नहीं किया जा सकता है क्योंकि तमाम गैर-भाजपाई दलों को एक मंच पर लाना काफी हद तक तराजू में मेंढ़क तौलने सरीखा नामुमकिन की हद तक मुश्किल काम है। राष्ट्रपति पद के लिए जो नाम सपा को पसंद आए वही बसपा को भी पसंद हो और वामपंथी व तृणमूल भी उस पर सहमति दे दें इसकी उम्मीद काफी कम है। फिर आम आदमी पार्टी, जदयू व राजद से लेकर राकांपा, टीआरएस व द्रमुक सरीखे धुर भाजपा विरोधी दलों को भी उसी नाम को समर्थन देने के लिए सहमत करना होगा और इस बात की उम्मीद भी पालनी होगी कि उस नाम पर राजग में भगदड़ मच जाए ताकि सत्ता पक्ष में सेंध लगाने की कोशिशें कामयाब हो सकें। जाहिर है कि ऐसा कोई सर्वस्वीकार्य नाम तलाशना काफी हद तक असंभव ही है। इसी प्रकार भाजपा के समक्ष भी यही चुनौती है कि किसी ऐसे चेहरे को उम्मीदवार बनाया जाए जिसे उन सभी 33 दलों की स्वीकार्यता हासिल हो जिन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में ही 2019 का अगला लोकसभा चुनाव लड़ने पर अपनी सहमति दी हुई है। लेकिन ऐसा हो पाना मुमकिन नहीं दिख रहा क्योंकि एक तरफ शत्रुघ्न सिन्हा ने लालकृष्ण आडवाणी का नाम उछाल दिया है तो दूसरी तरफ राजग का काफी बड़ा खेमा गैर-संघी गुण-सूत्र वाले सर्वमान्य उम्मीदवार की मांग कर रहा है और शिवसेना ने तो संघ सुप्रीमो मोहन भागवत से लेकर एमएस स्वामीनाथन तक का नाम उछालकर अपनी खुराफाती नीयत का संकेत अभी से दे दिया है। यानि चेहरे का चकल्लस इधर भी है और उधर भी। सेंधमारी की ख्वाहिश इधर भी है और उधर भी। लिहाजा बेहतर यही है कि एक दूसरे के सब्र का जमकर इम्तिहान लिया जाए क्योंकि एक की गलती दूसरे की जीत निश्चित ही सुनिश्चित कर देगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर #navkantthakur

सोमवार, 12 जून 2017

‘हजारों बंदिशें ऐसी कि हर बंदिश पे दम निकले’

‘हजारों बंदिशें ऐसी कि हर बंदिश पे दम निकले’

स्वतंत्र भारत का स्वतंत्र नागरिक होने का सैद्धांतिक मतलब तो यही है कि हम कहीं भी, कभी भी, कुछ भी कहने या करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं बशर्ते इससे किसी दूसरे की स्वतंत्रता का हनन ना होता हो। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो आजादी उस जिम्मेवारी का ही दूसरा नाम है जिसके तहत दूसरों की खुशियों, इच्छाओं व अपेक्षाओं का जितना अधिक ध्यान रखा जाएगा उसी अनुपात में हमें भी इसका आनंद मिलता रहेगा। लेकिन मसला है कि इन दिनों हर किसी को एक दूसरे से कुछ ज्यादा ही परेशानी होने लगी है। हर बात पर परेशानी और कई दफा तो बिना बात के ही परेशानी। मसलन कौन क्या खा रहा है, इससे परेशानी। कौन कैसे रह रहा है, इससे परेशानी। कौन क्या बोल रहा है, इससे परेशानी। कौन क्या पहन रहा है, इससे परेशानी। कौन किस विचार या सिद्धांत को मान रहा है, इससे परेशानी। कौन कब, कैसे व किसकी पूजा-इबादत कर रहा है, इससे परेशानी। यहां तक कि कौन परेशान है, इससे परेशानी और कौन परेशान नहीं है, इससे भी परेशानी। यानि इन दिनों परेशानियों का कोई ओर-छोर ही नहीं दिख रहा है। इन तमाम परेशानियों ने समूचे देश को बुरी तरह परेशान कर रखा है। कोई किसी को किसी भी बात की रत्ती भर भी आजादी देने के पक्ष में नहीं दिख रहा है। चाहे आवाम हो या निजाम, सबकी ख्वाहिश ही नहीं बल्कि कोशिश भी यही है कि उसके मन-मुताबिक ही समूचा संसार संचालित हो। नतीजन तमाम तरह की बंदिशें इस हद तक थोपी जा रही हैं कि आज अगर चचा गालिब जिंदा होते तो निश्चित तौर पर ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले’ के बजाय यही कह रहे होते कि ‘हजारों बंदिशें ऐसी कि हर बंदिश पे दम निकले।’ आखिर कहते भी क्यों नहीं? जब बंदिश आयद करने की हद यहां तक पहुंच जाए कि गाय के दूध से रोजा इफ्तार करने की ताकीद करते हुए मांस खानेवाले की बोटी नोंच लेने की धमकी दी जाने लगे, अजान की आवाज से नींद में खलल पड़ने की दुहाई दी जाने लगे, तीसरे मुल्क में हो रहे भारत-पाक मैच को टीवी पर देखने से रोकने की कोशिश होने लगे और आजम खां सरीखे वरिष्ठ नेता महिलाओं को घर में कैद होकर रहने की सलाह देने लगें तो इन बंदिशों से छटपटाहट होना स्वाभाविक ही है। आलम यह है कि समूचे विश्व में बुर्के पर पर प्रतिबंध लगाने की प्रक्रिया चल रही है जबकि हमारे देश में अगर जायरा वसीम ‘दंगल’ सरीखी प्रेरणादायक फिल्म में एक मासूम बच्ची की भूमिका निभाती है तो उसे जान से मारने की धमकी मिलने लगती है। यहां तक कि अगर फातिमा शेख, दीपिका पादुकोण या प्रियंका चोपड़ा सरीखी महिलाएं अपने मनमुताबिक परिधान धारण करती हैं तो सोशल मीडिया पर तूफान आ जाता है। महाराष्ट्र में एक युवा अपनी प्रेयसी के कहने पर बीच सड़क पर घुटनों के बल बैठकर प्यार का इजहार करता है तो उसका इस हद तक विरोध होता है कि उसे अपना शहर छोड़कर भागने के लिए मजबूर होना पड़ता है। ऐसे में सवाल है कि इन बंदिशों के बीच आजादी के मायने की तलाश कैसे की जाए। कैसे कहें कि हम आजाद मुल्क के आजाद बाशिंदे हैं जबकि अपनी मर्जी से किसी पार्टी को वोट देने के नतीजे में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोगों को घर में घुसकर मारा-पीटा जाता हो। अपनी मर्जी से कोई बालिग जोड़ा अगर किसी बंद कमरे में एक-दूसरे के साथ कुछ वक्त बिताना चाहे तो उसे इसकी आजादी नहीं मिल पाती। जहां नाबालिगों की शादी कर देना आम बात हो लेकिन उसी समाज में बालिगों को अपनी मर्जी से शादी करने या साथ रहने की इजाजत हासिल ना हो। वहां आजादी का क्या मतलब है इस पर विचार तो करना ही पड़ेगा। विचार तो इस बात पर भी करना पड़ेगा कि कोई कैसे किसी को इस बात के लिए रोक-टोक सकता है कि वह क्या खाए और क्या पिए? कहीं शराब पर प्रतिबंध लगाकर महिला वोटरों को रिझाने की कोशिश हो रही है तो कहीं मांसाहारी खाने को प्रतिबंधित करने का प्रयास करके बहुसंख्यक मतदाताओं की सहानुभूति बटोरी जा रही है। कहीं दुर्गापूजा के बाद प्रतिमा का विसर्जन करने के लिए अदालत से आदेश पारित कराना पड़ रहा है तो कहीं मस्जिद से लाउडस्पीकर उतारने की मांग जोर पकड़ रही है। कोई संस्कृत को स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने पर अड़ा है तो किसी को प्रादेशिक भाषा पर हिन्दी का बढ़ता प्रभाव बर्दाश्त नहीं हो रहा है। स्थिति इतनी विकट हो गई है कि गंगा जमुनी सामन्जस्य के प्रति समाज का सरोकार लगातार समाप्त होता जा रहा है और एक ऐसी व्यवस्था को पनपाने का प्रयास हो रहा है जिसमें ताकतवर को यह हक हासिल हो कि वह कमजोर को अपने मनमुताबिक तरीके से जीवन-यापन करने के लिए मजबूर कर सके। बंदिशों की समस्या तब और विकराल हो जाती है जब खास सिद्धांत या विचार को माननेवालों की सत्ता भी अपनी ओर से बंदिशों में इजाफा करने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। लेकिन भारत का स्वरूप और स्वभाव कभी ऐसा नहीं रहा है कि यहां के तमाम नागरिक किसी एक मत, पंथ, मजहब, सिद्धांत या विचार को स्वीकार कर लें लिहाजा विविधता में एकता की व्यवस्था को जितना दबाने की कोशिश होगी वह उतनी ही प्रखरता और मुखरता से उजागर होकर अवश्य सामने आएगी। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’   @नवकांत ठाकुर #navkantthakur   

मंगलवार, 30 मई 2017

‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध’

‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध’

‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।’ यह रचना है राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की। जो बेशक बीते दशकों के कालखंड में तत्कालीन राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में लिखी गई थी। लेकिन इसकी प्रासंगिकता जितनी मौजूदा समय में दिख दे रही है उतनी शायद उस वक्त भी ना रही हो, जब यह कविता कागज पर अवतरित हुई थी। आज वाकई अपराध का भागी सिर्फ व्याघ्र नहीं दिख रहा। दरअसल व्याघ्र की तो प्रकृति प्रदत्त प्रवृत्ति ही है शिकार करके अपना भरण-पोषण करने की। लिहाजा बाघ-शेर तो शिकार करेंगे ही और राजनीति दल सियासत करेंगे ही। इसके लिए उन्हें यह कहना कि फलां मसले पर सियासत मत करो काफी हद तक ऐसा ही है जैसे बाघ-शेर को यह समझाया जाए कि वह अमुक जीव का शिकार ना करे। वास्तव में देखा जाए तो यह संभव ही नहीं है कि जन-जुड़ाव के मसले पर राजनीति ना हो। बल्कि जो मसला आम लोगों से जितना अधिक जुड़ा होगा उस पर राजनीति भी उतनी ही अधिक होगी। अलग-अलग पक्ष होंगे, सबके अलग विचार होंगे और सबका अलग नजरिया होगा। जिसे जिस नजर से देखना मुनाफे का सौदा महसूस होगा वह मसले को उसी नजर से देखेगा। लिहाजा किसी भी मामले को तूल देने की कोशिश करनेवाली पार्टी को इसके लिए कोसना तो बेकार ही है। वास्तव में कोसे जाने के हकदार और असली अपराधी तो वे हैं जो भले ही वोटों की राजनीति ना करते हों लेकिन सही को सही और गलत को गलत कहने की पहल तब करते हैं जब उन्हें अपना उल्लू सीधा होता हुआ नजर आए। वर्ना शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर धंसा कर वातावरण से अलग-विलग रहना ही बेहतर समझते हैं। ऐसे लोगों ने ही समाज को आज इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया जहां किसी भी मसले की वही तस्वीर दिखाई पड़ती है जो राजनीतिक पार्टियां दिखाना चाहती हैं। राजनीति से अलग हटकर कहीं कोई बात ना तो सुनाई पड़ रही है और ना ही दिखाई दे रही है। जबकि यह सबको भली-भांति मालूम है कि फूट डालकर राज करने की जुगत तलाशने का नाम ही राजनीति है। लिहाजा मामला कश्मीर में हो रही पत्थरबाजी का हो या रामपुर में दलित बेटी के साथ अल्पसंख्यक समुदाय के आवारा लड़कों द्वारा की गई सरे-राह बदसलूकी का। मामला कन्नूर में बीच सड़क पर गाय काटकर पैशाचिक तरीके से बीफ पार्टी आयोजित करने का हो या भारत की पीठ में कटार घोंपने की कोशिश कर रहे पाकिस्तान की आवाम के साथ गलबहियां करने की मांग का। या फिर तीन तलाक का मसला ही क्यों ना हो। हर मामले में समाज का एक वर्ग कांग्रेस की अगुवाई वाले गैर-भाजपाई विपक्ष व इन्हें अपना खेवनहार समझनेवाले कथित अल्पसंख्यकवादी धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों के विचारों से प्रभावित है तो दूसरा वर्ग भाजपानीत राजग व इसके कथित राष्ट्रवादी समर्थक संगठनों के विचारों से। लिहाजा टकराव तो होना ही है। लेकिन इस टकराव को टालने और समाज को सही दिशा में आगे ले जाने की जिम्मेवारी समाज के जिस गैर-सियासी तबके पर है वह पूरी तरह खामोश है और खुद को तटस्थ दिखा रहा है। लेकिन अगर यह खामोशी और तटस्थता कश्मीर के पत्थरबाजों पर पैलेट गन का इस्तेमाल किए जाने या पत्थरबाजों की भीड़ के मुखिया को मानव ढ़ाल के तौर पर इस्तेमाल किए जाने के मामले में भी कायम रहती तो इसे जायज माना जा सकता था। यही तटस्थता अगर बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा द्वारा गऊ रक्षा का मसला उठाए जाने पर भी कायम रहती तो कन्नूर की वारदात के बाद छाई मुर्दानी चुप्पी को वाजिब कहा जा सकता था। लेकिन यह कैसी तटस्थता है जो बंगाल में रामनवमी का जुलूस निकालने से रोकने, सरस्वती पूजा के आयोजन की इजाजत नहीं मिलने या दुर्गा पूजा के बाद प्रतिमा का विसर्जन करने से तीन दिनों तक रोके जाने के मामले में तो दिखाई पड़ती है लेकिन अगर सोनू निगम सरीखा कोई गायक अजान की आवाज से नींद में खलल पड़ने की बात कह देता है तो इस तटस्थता के सब्र का बांध टूट जाता है? यही वही तटस्थता है जिसे ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे- इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह’ के नारे में अभिव्यक्ति की आजादी दिखाई पड़ती है लेकिन श्मशान की तुलना कब्रिस्तान से किया जाना सांप्रदायिक महसूस होता है। जल्लीकट्टू का मामला इसे निरीह पशु पर अत्याचार का दिखाई पड़ता है लेकिन चैराहे पर गाय काटकर बीफ पार्टी आयोजित किए जाने के मामले पर इसे सांप सूंघ जाता है। यही वह तटस्थता है जो सावरकर को तो महान मानना स्वीकार नहीं करता है लेकिन अफजल गुरू का बचाव करने में अपनी शान समझता है। आज इस तटस्थता से रामपुर की बहन भी इंसाफ की गुहार लगा रही है और यूपी के मुख्यमंत्री भी इसे ललकार रहे हैं। लेकिन मुर्दानी खामोशी टूटने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही। कहीं से यह आवाज नहीं आ रही कि वाकई उन पाकिस्तानियों का पूरी तरह बहिष्कार किया जाए जो हमारे सैनिकों का सिर काटे जाने पर उफ तक नहीं करते। कोई गैर सियासी आवाज ना तो पत्थरबाजों के खिलाफ आ रही और ना तीन तलाक की पीड़िताओं के पक्ष में। ऐसे में कल को जब यह गैर-सियासी आवाज किसी अन्य मसले पर बुलंद होगी तो क्यों ना माना जाए कि वह तटस्थ नहीं है बल्कि अपने हितों का समीकरण साधने के लिए उठाई जा रही है। लिहाजा संभ्रांत बौद्धिकता का दिखावा करने वाला जो वर्ग अपनी सहूलियत के लिए समाज को संघर्ष व टकराव के दोराहे पर छोड़कर दूर से मजे ले रहा है उसे इस बात पर भी विचार कर लेना चाहिए कि वर्तमान भले ही उसकी किसी भूमिका की गवाही ना दे लेकिन इतिहास उसे निश्चित ही दोषी ठहराएगा और कतई माफ नहीं करेगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

बुधवार, 10 मई 2017

‘भाग्यं फलति सर्वदा, न विद्या न च पौरूषम्’

‘देने वाला जब भी देता, देता छप्पर फाड़ के...’

वाकई किस्मत से बढ़के कुछ भी नहीं है। तभी तो कहा गया है कि ‘भाग्यं फलति सर्वदा, न विद्या न च पौरूषम्।’ किस्मत मेहरबान हो तो परिस्थितियां किस कदर अनुकूल होती चली जाती हैं इसे भाजपा को देखकर आसानी से समझा जा सकता है। भाजपा पर किस्मत किस कदर मेहरबान है यह शायद ही किसी को अलग से समझाने या बताने की जरूरत पड़े। वर्ष 2014 के बाद से सामने आए तमाम चुनावी नतीजे इसकी मुनादी खुद ही कर रहे हैं। लेकिन मजाल है कि भाजपा के नेतागण इसका जरा सा भी श्रेय किस्मत को दे दें। वे तो मतदाताओं के समर्थन, अपनी सरकारों के प्रदर्शन और कार्यकर्ताओं के समर्पण को ही इसका पूरा श्रेय देते हैं। लेकिन यह किस्मत ही तो है कि जहां भी भाजपा हाथ डालती है वहां बंजर में बगीचा गुलजार हो जाता है। सूखे में भी कमल खिल जाता है। यह किस्मत का करिश्मा ही तो है कि इन दिनों भाजपा के भक्त दिन दूनी और रात चैगुनी तरक्की कर रहे हैं जबकि विरोधियों का बुरी तरह बंटाधार हो रहा है। हालांकि इस पर अलग से बहस हो सकती है कि विरोधी खेमेे में मची उठापटक, भगदड़ और हड़कंप में भाजपा के स्लीपर सेल की क्या भूमिका रही है लेकिन इस बात से तो कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि इन दिनों भाजपा की किस्मत इतनी बुलंद चल रही है कि जो भी उसकी ओर बुरी नजर डालने की जुर्रत करता है उसके बुरे दिन शुरू हो जाते हैं। चाहे उत्तर प्रदेश की सपा-बसपा हो या बिहार का धर्मनिरपेक्ष गठबंधन, पूर्वी भारत की भद्रजनों की पार्टी हो या दिल्ली की आम आदमी पार्टी, या फिर दक्षिण के द्रविड़ दल ही क्यों ना हों। भाजपा के तमाम विरोधियों की हालत तकरीबन एक जैसी ही है। वे अपनी अंदरूनी समस्याओं को सुलझाने में ही इस कदर व्यस्त हैं कि उन्हें भाजपा के अश्वमेघ के घोड़े की मनमानी व मनचाही सरपट दौड़-भाग को रोकने की दिशा में कोई ठोस कदम उठाने की फुर्सत ही नहीं मिल रही है। कहां तो पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से ही इस बात पर मगजमारी शुरू हो गयी थी कि महज 32 फीसदी वोटों की बदौलत लोकसभा में पूर्ण बहुमत हासिल करके अपने दम पर सरकार बनाने में कामयाब रहनेवाली भाजपा के विरोध में पड़े 68 फीसदी वोटों को कोई एकजुट मंच मुहैया करा दिया जाए तो उसे चुनाव मैदान में आसानी से चारों खाने चित किया जा सकता है। लेकिन यह कागजी समीकरण आज तक कागजों पर ही सिमटा हुआ है और बिहार विधानसभा चुनाव में हुए महागठबंधन के प्रयोग को मिली सफलता को अपवाद के तौर पर अलग कर दिया जाए तो कहीं भी दोबारा वैसी एकजुटता कायम करने में गैर-भाजपाईयों को अब तक कामयाबी नहीं मिल पाई है। यहां तक कि बंगाल के चुनाव में कांग्रेस-वाम गठजोड़ में शामिल होना तृणमूल को रास नहीं आया तो यूपी के चुनाव में सपा-कांग्रेस के साथ तालमेल बिठाने से बहनजी ने ही इनकार कर दिया। अब बहनजी भी माथा पीट रही हैं और तृणमूल सुप्रीमो ममता दीदी भी वाम-कांग्रेस के साथ सियासी कदमताल करने के प्रति उत्सुक दिख रही हैं। लेकिन यह भाजपा की किस्मत ही है कि उसके तमाम विरोधी अंदरूनी मारकाट से इस कदर लहुलुहान हो रहे हैं कि उन्हें निजी समस्याओं को परे हटाकर सामूहिक मसलों का समाधान करने की दिशा में कदम बढ़ाने का मौका ही नहीं मिल पा रहा है। यूपी में एक तरफ यादव परिवार अपने ही अंतर्कलह में उलझकर यह तय नहीं कर पा रहा है कि आगामी चुनावों में किस पर भरोसा किया जाए या किससे सावधान रहा जाए, तो दूसरी तरफ बहनजी के लिए न सिर्फ अपनी सियासी विरासत को बचाए रखने की चुनौती है बल्कि विरासत के वारिस को बचाने की समस्या ने भी उन्हें बुरी तरह उलझाया हुआ है। दूसरी ओर बिहार में लालू व उनके लाल ने ऐसा कमाल किया हुआ है कि जदयू को अपनी पूरी ताकत राजद का रसूख और अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखने में ही झोंकनी पड़ रही है। ओडिशा में नवीन पटनायक के लिए अपने संगठन को संभाले रखना ही मुश्किल हो रहा है जबकि तमिलनाडु में अम्मा के गुजर जाने के बाद अब करूणानिधि की सांसों की डोर पर ही द्रविड़ राजनीति की बागडोर टिकी हुई है। पूर्वी भारत में अपने वजूद को बचाए रखने की चुनौती का सामना कर रहे वाममोर्चे की हालत बुजुर्गों की चैपाल सरीखी हो गयी है जहां नई पीढ़ी झांकने की भी जहमत नहीं उठाना चाहती। वर्ना ऐसा कैसे हो सकता था कि दिल्ली की तकरीबन डेढ़ करोड़ की आबादी में से वाम दलों के हिस्से में महज कुल 53 वोट ही आएं। इस सबसे अलग आम आदमी पार्टी के तौर पर वैकल्पिक राजनीति की जो उम्मीद जगी थी उसका झाड़ू तिनका-तिनका बिखर रहा है और अपने ही चिराग उसका घर जलाने पर आमादा दिख रहे हैं। यानि किस्मत की मेहरबानी से भाजपा की दसों उंगलियां घी में और सिर कढ़ाही में है। हालांकि इस सब के बीच यह सत्य भी अकाट्य ही है कि किस्मत भी उस पर ही मेहरबान होती है जो पूरी तत्परता, तल्लीनता व समर्पण के साथ लक्ष्य को हासिल करने का प्रयत्न करता है। वर्ना हाथ पर हाथ रखकर सिर्फ किस्मत के भरोसे बैठे रहनेवाले को ना तो आज तक कुछ मिला है और ना कभी कुछ मिल सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @नवकांत ठाकुर #NavkantThakur   

मंगलवार, 2 मई 2017

‘फिर ये एहसान कि हम छोड़ के जाते भी नहीं’

‘फिर ये एहसान कि हम छोड़ के जाते भी नहीं’


‘जिनको मतलब नहीं रहता वे सताते भी नहीं, जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं, मुंतजिर हैं दमे-रूखसत कि ये मर जाए तो जाएं, फिर ये एहसान कि हम छोड़ के जाते भी नहीं।’ इन चंद पंक्तियांे को मौजूदा सियासी हालातों के साथ जोड़कर देखें तो ऐसा लगता है मानो दाग देहलवी साहब ने अपनी लेखनी से उन बुजुर्गों की अंदरूनी फितरत ही बताई है जो ना खुद सुकून से जीने के ख्वाहिशमंद हैं और ना दूसरों को चैन से जीने देना चाहते हैं। उनकी नजर में दुनियां की पूरी व्यवस्था के केन्द्र में वे ही हैं और जो वे सोचते हैं सिर्फ वही सही है, बाकी सब गलत। अपनी सोच-समझ से अलग वे ना तो कुछ सुनने-समझने की जहमत उठाना गवारा करते हैं और ना किसी भी सूरत में यह मानने के लिए राजी होते हैं कि उनकी बात नहीं मानने वाला भी सही हो सकता है। मिसाल के तौर पर अन्ना हजारे को ही देखें तो पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से लेकर दिल्ली नगर निगम का चुनाव परिणाम सामने आने तक उन्होंने अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को जिस तरह से लगातार अपने सीधे निशाने पर रखा है उससे निश्चित तौर पर खुद को ‘दूसरा गांधी’ बताने के उनके दावे का खोखलापन की जाहिर हुआ है। माना कि अरविंद ने जन-लोकपाल आंदोलन के मंच को राजनीति के लिए अपना आधार बनाने के क्रम में अन्ना की सौ फीसदी सहमति लेना जरूरी नहीं समझा, लेकिन इस तथ्य को भी तो भुलाया नहीं जा सकता है कि जन-लोकपाल आंदोलन के वास्तविक सूत्रधार अरविंद ही थे और उन्होंने ही आंदोलन को प्रभावी बनाने के लिए इसकी मशाल अन्ना के हाथों में सौंपी थी। यानि अन्ना को जिस अरविंद ने अपने आंदोलन के नेतृत्व की बागडोर सौंपी उस पर अगर अन्ना यह इल्जाम लगा रहे हैं कि उन्होंने राजनीतिक लाभ के लिए उनके आंदोलन का मंच ‘हाईजैक’ कर लिया तो इससे अधिक हास्यास्पद बात कोई दूसरी नहीं हो सकती। वास्तव में अन्ना ने तो खुद ही अपने आप को इस्तेमाल करने का मौका अरविंद को उपलब्ध कराया और जब तक अरविंद की राह से वे सहमत रहे तब तक उनका साथ बना रहा लेकिन जब अरविंद ने आंदोलन को सियासत का माध्यम बना लिया तो वे उससे अलग हो गए। यानि अरविंद के फैसले से असहमत होकर जब अन्ना ने उस मंच से खुद को अलग कर लिया तब उन्हें अरविंद के मामलों से कोई मतलब भी नहीं रखना चाहिए था। लेकिन ऐसा ना करके अन्ना ने अरविंद के जले पर नमक छिड़कने का कोई भी मौका आज तक अपने हाथों ने जाने नहीं दिया है। नतीजन अगर केजरीवाल के सबसे करीबी सहयोगी मनीष सिसोदिया का सब्र कथित तौर पर जवाब दे गया और उन्होंने अन्ना को धोखेबाज से लेकर भाजपा का एजेंट तक बतानेवाले ट्वीट को रि-ट्वीट कर दिया तो इसके लिए उन्हें कतई गलत नहीं कहा जा सकता है। हालांकि सियासी नफा-नुकसान को तौलने के बाद मनीष ने अपना एकाउंट हैक कर लिए जाने की दलील देते हुए अन्ना की शान में कतई गुस्ताखी नहीं करने का संकल्प भी दोहराया है लेकिन सच यही है कि जिस तरह से लगातार अन्ना ने केजरीवाल की छवि खराब करने और उन्हें धोखेबाज, लालची व तानाशाह साबित करने का प्रयास जारी रखा है उसके मद्देनजर अगर केजरीवाल का कोई समर्थक अन्ना पर निशाना साधे तो इसकी जिम्मेवारी निश्चित तौर पर अन्ना की ही मानी जाएगी। वास्तव में देखा जाए तो अक्सर समाज में इस बात की बड़ी चर्चा होती है कि बुजुर्गों को वह सम्मान और स्थान नहीं मिल पा रहा है जिसके वह हकदार हैं। हालांकि यह चर्चा कोई नई नहीं है बल्कि पीढ़ियों के बीच मतभेद व टकराव का सिलसिला सनातन काल से बदस्तूर जारी है जिसमें बुजुर्गों को सही और नयी पीढ़ी को गलत ठहराने की परंपरा भी लगातार चलती आ रही है। लेकिन सवाल है कि ऐसे बुजुर्गों को गलत क्यों ना कहा जाए जो नई पीढ़ी की सोच के साथ तालमेल बिठाते हुए उसके अनुरूप ढ़लने की कोशिश करने के बजाय अपनी पुरानी सोच के हिसाब से मौजूदा दौर को हांकने की कोशिशों में जुटे रहते हैं। खुद के हितों को सर्वोपरि मनवाने की जिद छोड़कर अगर अन्ना ने केजरीवाल को कल्पना के अनुरूप उड़ान भरने की छूट देते हुए सफलता का आशिर्वाद दिया होता तो उन्हें दिल्ली सरकार की ओर से निश्चित तौर पर वैसा ही स्थान व सम्मान मिलता जैसा पंडित नेहरू की सरकार ने महात्मा गांधी को दिया था। लेकिन जब केजरीवाल के लिए अन्ना गांधी नहीं बन पाए तो स्वाभाविक तौर पर अन्ना के लिए केजरीवाल भी नेहरू नहीं बन सकते। ऐसा ही मामला लालकृष्ण आडवाणी के साथ भी देखा जा रहा है जो नरेन्द्र मोदी के लिए गांधी नहीं बन पाए नतीजन उनकी हालत भी अन्ना से बेहतर होने की उम्मीद करना व्यर्थ ही है। हालांकि मुलायम सिंह यादव अवश्य अखिलेश यादव के लिए शुरूआती दौर में गांधी बनकर सामने आए लेकिन बाद में उन्होंने भी वही राह पकड़ ली जो अन्ना ने पकड़ी हुई है। नतीजन पुत्र होने के नाते अखिलेश के ना चाहते हुए भी उनकी हालत अन्ना जैसी हो ही गयी है। यानि समग्रता में देखें तो नई पीढ़ी नाहक ही पहले भी बदनाम थी और आज भी है, जबकि अपनी दुर्गति व बेकद्री की पूरी जिम्मेवारी अन्ना सरीखे बुजुर्गों की ही है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

‘परिणाम के कारणों को टटोलने की जरूरत’

‘परिणाम के कारणों को टटोलने की जरूरत’

बिना किसी कारण के कोई परिणाम सामने नहीं आता और हर परिणाम के पीछे कोई ना कोई कारण अवश्य छिपा होता है। यह और बात है कि अक्सर परिणाम के पीछे छिपे असली कारण को स्वीकार करने की हिम्मत बहुत कम लोग ही दिखा पाते हैं। मिसाल के तौर पर दिल्ली के तीनों नगर निगम के चुनावों का जो नतीजा सामने आया है उसके असली कारण को स्वीकार करने के बजाय आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से लेकर जमीनी कार्यकर्ताओं की टोली अलग सुर में अपनी रामायण बांच रही हो लेकिन आम दिल्लीवासियों को इसमें कुछ भी अप्रत्याशित, अस्वाभाविक या अनपेक्षित नहीं लगा है। दूसरे शब्दों में कहें तो अगर आम आदमी पार्टी को वाकई इस परिणाम का असली कारण समझ में नहीं आ रहा है तो इससे एक बात तो स्पष्ट है कि उसका जमीन से जुड़ाव नहीं रह गया है। निश्चित तौर पर यह संवादहीनता की स्थिति ही कही जाएगी जिसमें ना तो लोगों की बातें पार्टी समझ पा रही है और ना ही पार्टी की बातें लोगों की समझ में आ रही है। नतीजन लोगों को लग रहा है कि पार्टी की नजर में उनकी सोच और संवेदना की कोई अहमियत नहीं है लिहाजा स्वाभाविक तौर पर दिल्लीवालों ने पार्टी को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है। वर्ना ऐसा भी नहीं है कि इस पार्टी की सरकार ने दो साल में कोई काम ही ना किया हो। ‘बिजली का बिल हाफ और पानी का बिल माफ’ करने का चुनावी वायदा इसने पहले ही पूरा कर दिया है। मोहल्ला क्लीनिक के कारण स्वास्थ्य व चिकित्सा सुविधाओं में आए क्रांतिकारी परिवर्तन की यशगाथा कई विकसित देशों की मीडिया भी गा रही है। इसके अलावा पेयजल की आपूर्ति का दायरा बढ़ाने से लेकर जगह-जगह मुफ्त पेयजल की मशीनें भी लगाई गई हैं। भले ही मुफ्त वाई-फाई उपलब्ध कराने के चुनावी वायदे को पूरा करने और सार्वजनिक परिवहन की बिगड़ती स्थिति को सुधारने की दिशा में ‘बातें भरपूर और काम नदारद’ की हो लेकिन सरकारी स्कूलों की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। यानि समग्रता में देखें तो बेशक प्रचंड बहुमत के साथ जुड़ी हुई भारी जन-अपेक्षाओं को पूरा करने में सरकार को कामयाबी नहीं मिली हो लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सत्ता संभालने के बाद सरकार ने कोई काम ही नहीं किया है। जाहिर है कि अभी अपने वायदों को पूरा करने के लिए केजरीवाल सरकार के पास तीन साल का वक्त बाकी है और उम्मीद की जा सकती है कि काम-काज की मौजूदा रीति-नीति आगे भी जारी रहेगी और नित नए क्षेत्रों में लोगों को राहत मुहैया कराने में भी सरकार कतई कोताही नहीं बरतेगी। लेकिन मसला है कि इन तमाम हकीकतों के बावजूद अगर तीनों ही निगमों में पार्टी को काफी बड़े अंतर से दूसरे नंबर पर रहने के लिए मजबूर होना पड़ा है और वह भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में भी कहीं दिखाई नहीं पड़ी है तो इसकी कोई तो वजह अवश्य होगी। जरूरी नहीं है कि किसी एक वजह से ही जनता ने केजरीवाल के नेतृत्व को नकारने की पहल की है बल्कि इसकी कई वजहें अवश्य हैं जिसके कारण ‘काम का दाम’ इस सरकार को नहीं मिल पाया है। वाकई कहीं ना कहीं यह सरकार जमीन से कट सी गई है और आम लोगों की सरकार देने का जो वायदा किया गया था उसे पूरा करने के बजाय सरकार के शीर्ष संचालकों ने इस तरह की कार्यशैली अपनाई जिससे तानाशाही का आभास होने लगा। पहले तो संगठन में जिस तरह से प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव सरीखे संस्थापक सदस्यों को बुरी तरह बेआबरू करके दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका गया उससे लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आप की बेपरवाही का ही संदेश गया। उसके बाद अपने कार्यक्षेत्र के दायरे को बढ़ाने के लिए केन्द्र सरकार व उपराज्यपाल के साथ रोजाना की लड़ाई ठाने जाने से यही संदेश गया कि इन्हें जो जिम्मेवारी मिली है उसे पूरा करने से बचने का बहाना तलाशा जा रहा है। रही-सही कसर ऊटपटांग बयानबाजी ने निकाल दी और जनभागीदारी की नीति का विसर्जन करके सरकार ने खुद को एक ऐसी कोठरी में बंद कर लिया जहां तक लोगों की सीधी नजर पहुंच ही नहीं पा रही थी। जो पैसा दिल्ली के विकास पर खर्च होना चाहिए था उसे पार्टी के प्रचार पर खर्च किया जाना, जनता से जुड़ने की हर राह को अपनी ओर से बंद कर लेना, सत्ता संचालन की नीतियों का निर्धारण करने के क्रम में वैधानिक व्यवस्थाओं की अनदेखी करना, संवाद के बजाय विवाद खड़ा करके अपनी बात लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करना, पार्टी का विस्तार करने के लिए दिल्लीवासियों का दिल तोड़कर अन्य सूबों में अपनी पूरी ताकत झोंकना, नियुक्ति व स्थानांतरण की प्रक्रिया में मनमाने फैसले करते हुए पारदर्शिता व संवैधानिकता की अपेक्षाओं को अंगूठा दिखाना और अपनी ही कही बात से आपियों का बार-बार पलटना दिल्लीवासियों को इस कदर नागवार गुजरा कि उन्हें ठगे जाने का एहसास हो चला। नतीजन जनता द्वारा पार्टी को नकारा जाना तो पहले ही तय हो चुका था और इसकी झलक राजौरी गार्डन विधानसभा के उपचुनाव में ही दिख गयी थी। खैर, सियासत में कोई हार या जीत अंतिम नहीं होती और असीमित संभावनाओं का खेल ही राजनीति है। लिहाजा आवश्यकता है अपनी कमियों, खामियों व गलतियों को पहचान कर उनमें सुधार लाने की ताकि भविष्य को बेहतर किया जा सके। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #Navkant Thakur

मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

‘मौजूदा परिणामों पर भविष्य की परिकल्पना’

‘मौजूदा परिणामों पर भविष्य की परिकल्पना’


मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य काफी हद तक गीता के उस ज्ञान की तरह दिखाई दे रहा है जिसमें कृष्ण ने अर्जुन के समक्ष विकल्प प्रस्तुत करते हुए कहा था कि युद्ध का परिणाम तो पहले से ही तय है लेकिन यह उस पर निर्भर है कि वह युद्ध में हिस्सेदारी करके श्रेय का सेहरा अपने सिर पर बांधना पसंद करता है अथवा रण से भागकर अपयश का भागी बनना बेहतर समझता है। इन दिनों ऐसा ही माहौल दिखाई दे रहा है आगामी दिनों में होने जा रहे राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति पद के चुनाव को लेकर जिसका अंतिम परिणाम हालिया दिनों में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों ने पहले ही तय कर दिया है। लेकिन परिणाम तय हो जाने के बावजूद लड़ाई में हिस्सेदारी करके इन तात्कालिक परिणामों का दूरगामी फायदा उठाने का विकल्प सभी पक्षों के समक्ष स्पष्ट तौर पर खुला हुआ है। इसका दिलचस्प पहलू यह है कि तयशुदा परिणामों की बेहतर समझ होने के बावजूद ना तो सत्ता पक्ष ने इस चुनाव को अपना निर्णायक साध्य समझने की गफलत पाली है और ना ही विपक्ष ने भविष्य का लक्ष्य साधने के लिए इसे साधन के तौर पर इस्तेमाल करने से परहेज बरतना उचित समझा है। बल्कि दोनों ही खेमे इस अवसर का उपयोग करते हुए नए सिरे से सियासी ध्रुवीकरण की कोशिशों में जुटे दिख रहे हैं। जहां एक ओर भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आगे करके 33 दलों को एक मंच पर लाकर केन्द्र सरकार की मजबूती का मुजाहिरा किया है वहीं दूसरी ओर साझा मसलों पर सहमति कायम करके कांग्रेस ने भी 13 दलों की एकजुटता का प्रदर्शन करने में कोई कोताही नहीं बरती है। कहने को तो भाजपा ने अपने सहयोगी व समर्थक दलों को इसलिए रात्रि भोज पर आमंत्रित किया ताकि सरकार के तीन साल के कामकाज के बारे में साथियों की राय जानी जाए जबकि कांग्रेस ने राष्ट्रपति से मोदी सरकार की तानाशाही की शिकायत करने के बहाने विरोधी एकता का सार्वजनिक तौर पर मुजाहिरा किया। हालांकि किसी भी पक्ष ने अब तक यह बताने की जहमत नहीं उठाई है कि अचानक ऐसी कौन सी परिस्थितियां उत्पन्न हो गयीं कि तीन साल तक साथियों व सहयोगियों से निर्धारित दूरी बनाकर चलने के बाद अचानक सबको साथ लेकर आगे बढ़ने की क्या जरूरत पड़ गयी। लेकिन कोई कहे ना कहे, पर सच तो यही है कि अब दोनों ही पक्षों को इस बात का बेहतर एहसास हो चला है कि दो साल बाद होने वाले आम चुनावों में अगर अपनी स्थिति मजबूत करनी है तो इसके लिए अधिक से अधिक दलों को अपने साथ जोड़ना ही होगा। इसके लिए अभी राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति चुनाव के रूप में मौका भी है और दस्तूर भी। जिसका लाभ उठाकर अपनी शक्ति व सामथ्र्य में इजाफा करने की बेहतर शुरूआत की जा सकती है। यही वजह है कि राष्ट्रपति चुनाव अब सिर्फ बेहतर प्रथम नागरिक के चयन की प्रक्रिया तक ही सीमित नहीं रहने वाला है। बल्कि इस मौके को भुनाते हुए सत्ता पक्ष भी अधिक से अधिक दलों को अपने नजदीक खींचने की कोशिश करेगा और संयुक्त विपक्ष की ओर से भी किसी ऐसे चेहरे को आगे किया जाएगा जिसके समर्थन में अधिकतम दलों को एक मंच पर लाया जा सके। यानि इतना तो तय है कि इस बार राष्ट्रपति का चयन सर्वसम्मति से हर्गिज नहीं होने जा रहा। वह भी तब जबकि सबको मालूम है कि भाजपा अपने बलबूते पर ही मनचाहे प्रत्याशी को राष्ट्रपति बनवाने की पूरी क्षमता रखती है। आज की तारीख में 13 सूबों में भाजपा का प्रत्यक्ष शासन है जबकि चार राज्यों में उसके समर्थन से सहयोगी दलों की सरकार चल रही है। लिहाजा भाजपा का मकसद सिर्फ मनचाहे प्रत्याशी को राष्ट्रपति बनवाने तक ही सीमित होता तो उसे 33 दलों को अपने साथ दिखाने के लिए रात्रि भोज का आयोजन करने की कोई जरूरत ही नहीं थी। इसी प्रकार विपक्ष के प्रत्याशी की सुनिश्चित हार स्पष्ट दिखाई पड़ने के बावजूद कांग्रेस की ओर से यह रणनीति नहीं अपनाई जाती कि सत्ता पक्ष की ओर से घोषित किए जाने वाले प्रत्याशी के खिलाफ संयुक्त विपक्ष का कोई उम्मदवार अवश्य खड़ा किया जाए। अगर कांग्रेस की मंशा सिर्फ देश को बेहतर राष्ट्रपति दिलाने की होती तो उसने यह विकल्प खुला रखा होता कि अगर सरकार ने उसके मनमाफिक व्यक्ति को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया तो वह उसका समर्थन भी कर सकती है। लेकिन कांग्रेस ने भी सरकार की ओर से घोषित किए जाने वाले प्रत्याशी का निश्चित तौर पर विरोध करने की रणनीति अपनाई है और सरकार का संचालन करनेवाली भाजपा ने भी साफ संकेत दे दिया है कि वह तमाम सहयोगियों से सहमति लेकर ही किसी को इस पद के लिए आगे करेगी। यानि राष्ट्रपति पद के चुनाव में आंकड़ों के आधार पर अभी से नतीजा निश्चित दिखाई पड़ने के बावजूद अगर टकराव की स्थिति बन रही है तो उसके पीछे सीधी राजनीति यही है कि ‘राष्ट्रपति चुनाव तो महज बहाना है, 2019 के आम चुनाव पर निशाना है।’ ऐसे में अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रपति चुनाव के बहाने गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति को अधिकतम ऊंचाई तक ले जाने के लिए कांग्रेस को मुख्यधारा की सियासत में अलग-थलग करने की भाजपा की कोशिशें सफल होती हैं या फिर हारी हुई लड़ाई को आधार बनाकर भावी जीत की राह पर आगे बढ़ने में कांग्रेस को कामयाबी मिलती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @Navkant Thakur

सोमवार, 10 अप्रैल 2017

‘मसलों की महक पर हावी मसालों की मादकता’

‘मसलों की महक पर हावी मसालों की मादकता’


बाजारू बावर्चीखाने केे पकवानों को सेहत के लिये नुकसानदेह बताए जाने की सबसे बड़ी वजह है पाव भर की मुर्गी को सवा किलो मसाले में पकाया जाना। स्वाभाविक है कि ऐसे खाने में सिर्फ मसाले का ही जायका मिलेगा। मुर्गी की महक तो गायब ही हो जाएगी। इन दिनों यही हो रहा है देश के सियासी बावर्चीखाने में। असली मसलों पर बेमानी मसाले की इतनी मोटी परत चढ़ाई जा रही है कि मसले नजर ही नहीं आ रहे और मसाले मैदान मार रहे हैं। नतीजन बहस का नतीजा सिफर रहना स्वाभाविक ही है। मिसाल के तौर पर शिवसेना के सांसद रविन्द्र गायकवाड़ के साथ हुए एयर इंडिया के विवाद में गायकवाड़ की गलती यही थी कि वे खुद पर काबू नहीं रख पाए और उन्होंने गुस्से में आकर चप्पल चला दिया। वर्ना एयर इंडिया ने जिस तरह से इन दिनों मनमानी की मिसाल कायम की हुई है उसकी सर्वसम्मति से संसद में निंदा होनी तय ही थी बशर्ते गायकवाड़ ने चप्पल चलाने के बजाय इस मसले को संसद में उठाया होता। एयर इंडिया की कार्यप्रणाली का एक नमूना पिछले पखवाड़े लोकसभा अध्यक्षा का बैगेज गायब हो जाने के मामले में भी दिखाई दिया जिसमें एयर इंडिया ने ना तो बुक किए गए बैगेज के सुरक्षा की जिम्मेवारी स्वीकारी, ना सीसीटीवी की फुटेज खंगालने की जहमत उठाई और ना ही बैगेज को उठा ले जाने वाले के खिलाफ कोई एक्शन लेना जरूरी समझा। गायकवाड़ के मामले में पचास हजार से अधिक की रकम का बिजनेस क्लास का टिकट देकर एयर इंडिया ने उन्हें ऐसे विमान में बैठा दिया जिसमें सिर्फ उस इकोनोमी क्लास की सीटें की उपलब्ध थीं जिसे पूर्ववर्ती कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के रसूखदार मंत्री शशि थरूर ‘कैटल क्लास’ करार दे चुके हैं। एयर इंडिया की इस मनमानी का विरोध करने के नतीजे में सार्वजनिक तौर पर अपशब्द व अपमान सहन करना उनसे संभव नहीं हो पाया और वे गुस्से में चप्पल चला बैठे। इसके बाद एयर इंडिया की मनमानी के मसले पर चप्पल का मसाला इस कदर हावी हुआ कि आखिरकार गायकवाड़ को लिखित माफी मांग कर एक ऐसे मामले का पटाक्षेप कराना पड़ा जिसमें वास्तविक पीड़ित वे खुद ही थे। मसलों की महक पर मसाले की मादकता हावी हो जाने के ऐसे तमाम मामले इन दिनों खुली आंखों से स्पष्ट देखे जा सकते हैं। मसलन अलवर में कथित गौ-रक्षकों की पिटाई से हुई गौ-तस्कर की मौत के मामले में भी असली मसला गौ-हत्या पर लगे प्रतिबंध को प्रभावी तौर पर लागू करने में प्रशासन को हासिल हो रही विफलता का ही है। लेकिन यह मुद्दा बहुसंख्यकों की गुंडागर्दी के कारण हुई अल्पसंख्यक की मौत का बनकर रह गया है और पूरी बहस से गौ-हत्या पर रोक के लिए बने कानून की विफलता सिरे से नदारद है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में अवैध बूचड़खानों पर कराई गई तालाबंदी के मामले में भी लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण को पहुंच रहे नुकसान का असली मसला बहस से बाहर है और इस पूरे मामले को ऐसे मनगढ़ंत मसालों में गर्क कर दिया गया है मानो यूपी की योगी सरकार लोगों के खान-पान, रहन-सहन और परिधान-परंपरा को मनमाने तरीके से नियंत्रित करना चाहती है। ऐसी ही तस्वीर यूपी में एंटी रोमियो दस्ते की तैनाती के मामले में भी देखी जा रही है जिसमें बहन-बेटियों की पीड़ा और तकलीफ से जुड़े असली मसले की अनदेखी करते हुए बहस छेड़ दी गई इस दस्ते के नामकरण को लेकर। मामले में मसाले का इस हद प्रयोग किया गया कि आवारा व सड़कछाप मनचलों की तुलना भगवान कृष्ण द्वारा बचपन में की गई उन शरारतों के साथ कर दी गई जिसे उन्होंने 12 वर्ष की उम्र के बाद कभी अंजाम नहीं दिया। योगी सरकार के फैसले का मजाक उड़ाते हुए यहां तक कहा गया कि पहले सुरक्षा के लिए बहन-बेटियां भाई को साथ लेकर घर से निकलती थीं और अब भाईयों को अपनी रक्षा के लिए बहनों के साथ निकलना पड़ रहा है। ये तमाम कुतर्क सिर्फ इसलिए ताकि असली मसले पर बहस ना छिड़ सके। इसी प्रकार तीन तलाक की कुरीति के कारण महिलाओं को झेलनी पड़ रही यातना के मसले को दबाने के लिए कभी समान नागरिक संहिता का विघटनकारी मसाला इस्तेमाल किया जा रहा है तो कभी पर्सनल लाॅ और शरियत की सांप्रदायिक बहस छेड़ी जा रही है। मसलों को मसाले में डुबो दिए जाने के कारण ना तो उस आम उपभोक्ता का दर्द सामने आ रहा जिसे 45 रूपये की दर से चीनी खरीदनी पड़ रही है और ना ही उन गन्ना किसानों के भुगतान की समस्या बहस के केन्द्र में आ पा रही है जिन्हें उनका हक दिलाने के लिए योगी सरकार को मैदान में कूदना पड़ा है। अलबत्ता मसले पर मसाले को हावी करके सरकार के उस फैसले को आलोचना के केन्द्र में लाने की कोशिश की जा रही है जिसके तहत मोदी सरकार ने चीनी की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करके उसकी कीमतों को काबू में रखने के मकसद से 50 लाख टन चीनी के शुल्क मुक्त आयात को हरी झंडी दिखाई है। ऐसे तमाम मामलों को समग्रता में टाटोलने पर चुटकी भर मसले में मुट्ठी भर मसालों का बेहिसाब इस्तेमाल किए जाने की जो तस्वीर सामने आ रही है उससे मसलों का हल कतई नहीं निकल सकता। अलबत्ता इफरात में मसालों का इस्तेमाल करने वाली सियासत को हजम करना लोगों के लिए अवश्य तकलीफदेह होता जा रहा है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

सोमवार, 20 मार्च 2017

महज संयोग नहीं है यूपी में योगी का योग

महज संयोग नहीं है यूपी में योगी का योग


अंतिम समय तक मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर दिखाई दे रहे अजय सिंह नेगी अर्थात योगी आदित्यनाथ का नाम निर्णायक मौके पर धूमकेतु की तरह चमकना और सूबे की सियासत उनकी मुट्ठी में आ जाना महज सामान्य संयोग नहीं है। तमाम बड़े चेहरों व नामों को दरकिनार करते हुए अगर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने योगी पर अपना भरोसा दिखाया है तो इसकी सबसे बड़ी वजह है अपने वायदों को पूरा करने के प्रति मतदाताओं को आश्वस्त करना और विरोधियों की भावी रणनीतियों का पहल से ही जवाब तैयार कर लना। मुख्य रूप से 25 महीने बाद होनेवाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा ने योगी को यूपी के मोर्चे पर तैनात करके ऐसा जाल बिछा दिया जिसमें उलझने से बचने में विरोधियों को दांतों तले पसीना आ जाए। साथ ही अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की जिस नीति के तहत ना सिर्फ सपा-कांग्रेस की जोड़ी ने बल्कि बसपा ने भी भाजपा के समक्ष हालिया चुनाव में चुनौती पेश की थी उसके खिलाफ बढ़-चढ़कर मतदान करते हुए अगर सूबे की जनता ने भाजपा को दो-तिहाई से भी अधिक सीटों के प्रचंड बहुमत के साथ कुर्सी पर बिठाने का फैसला किया तो इसका सीधा मतलब यही है कि जनता को भाजपा से योगी सरीखे मुख्यमंत्री की ही अपेक्षा थी। योगी की व्यक्तिगत छवि ठीक वैसी ही है जैसा वायदा करके भाजपा ने यूपी के मतदाताओं को भरोसे में लिया है। मसलन अवैध बूचड़खानों को रातोंरात बंद करने का जो वायदा भाजपा ने किया है उसके पूरा होने का भरोसा देना योगी की छवि के बूते की ही बात है क्योंकि उनकी सुबह ही गायों को अपने हाथों से चारा खिलाने के साथ होती है। इसी प्रकार अवैध कब्जे वाली जमीनों को दबंगों से छीनकर उसे उसके असली हकदारों को वापस लौटाने का भाजपा ने जो चुनावी वायदा किया था उसके पूरा होने का भरोसा भी योगी की छवि दिला रही है क्योंकि बकायदा जनता दरबार लगाकर पूर्वांचल के वंचितों, शोषितों व पीड़ितों को जायज हक दिलाने व दबंगों को औकात में रहने के लिए मजबूर करने को लेकर योगी पहले से ही विख्यात हैं। इसी प्रकार सांसद के तौर पर स्थानीय प्रशासन को अपने मनमुताबिक काम करने के लिये मजबूती से मजबूर करनेवाले योगी के बारे में यह धारणा भी बनी हुई है कि नौकरशाहों के मायाजाल में वे कतई नहीं फंस सकते बल्कि नौकरशाही को इनके मनमुताबिक काम करना ही पड़ेगा। स्थापित छवि के मुताबिक योगी पर ना किसी की धौंस चल सकती है और ना ही दबाव काम आ सकता है। इनकी छवि के साथ इमानदारी की चमक भी पहले से जुड़ी हुई है लिहाजा इस पर विश्वास नहीं करने का कोई कारण नहीं है कि उनके कार्यकाल में कोई भी योजना भ्रष्टाचार की भेंट हर्गिज नहीं चढ़ेगी। यानि समग्रता में देखा जाये तो हवा का रूख पहचानने का दावा करनेवालों ने भले ही योगी को मुख्यमंत्री पद का प्रमुख दावेदार मानने से इनकार कर दिया हो लेकिन भाजपा ने चुनाव के दौरान अपना जो संकल्प पत्र प्रस्तुत किया था उसके सबसे करीब अगर सूबे के किसी की भाजपाई नेता की छवि दिखाई देती है तो वे योगी आदित्यनाथ ही हैं। चाहे प्रदेश को वंशवाद, परिवारवाद या तुष्टिकरण के चंगुल से बाहर निकालने की कसौटी पर परखें अथवा बहुसंख्यक मतदाताओं को लुभाने के लिए किये गये सांकेतिक वायदों को आधार बनाकर जांचें। हर नजरिये से योगी ही प्रधानमंत्री मोदी के वायदों को पूरा करने की सबसे मजबूत स्थिति में दिखाई पड़ते हैं। लिहाजा इतना तो स्पष्ट है कि यूपी के साथ योगी का जो योग हुआ है वह पहले से ही सोची समझी रणनीति का हिस्सा है ना कि उस कथित दबाव का नतीजा है जो योगी के समर्थकों ने पार्टी नेतृत्व पर बनाने की कोशिश की थी। इसके अलावा योगी को आगे करने की सबसे बड़ी वजह है भावी राजनीतिक चुनौतियों का मजबूती से सामना करने के लिये अभी से निर्णायक पहल कर लेना। क्योंकि माना यही जा रहा है कि दो साल बाद होनेवाले लोकसभा के चुनाव में तमाम गैर-भाजपाई दलों का एक मंच पर आना तय ही है। ऐसे में स्वाभाविक है कि राजनीति होगी ध्रुवीकरण की और अगर अल्पसंख्यकों को अपने साथ जोड़ने के लिए बाकी दल परस्पर गठबंधन करेंगे तो स्वाभाविक तौर पर बहुसंख्यकवाद की राजनीति को धार देने के अलावा भाजपा के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं बचेगा। इस लिहाज से भी देखें तो भाजपा के लिये योगी से अधिक मुफीद चेहरा दूसरा कोई नहीं हो सकता है जिसकी स्वीकार्यता गोरखपुर से लेकर गाजियाबाद तक हो। हालांकि विधायक दल का नेता चुने जाने के फौरन बाद अपने पहले संबोधन में योगी ने साफ कर दिया है वे ‘सबका साथ सबका विकास’ की नीति पर चलते हुए प्रदेश को विकास की राह पर आगे ले जाने के लिये पूरी तरह कृतसंकल्प हैं और अपनी कट्टर हिन्दूवादी छवि को उन्होंने फिलहाल पीछे धकेल देना ही बेहतर समझा है। इसकी वजह भी बिल्कुल साफ है कि चुंकि इस दफा अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के काफी बड़े वर्ग ने तीन तलाक के मसले पर भाजपा की नीति से प्रभावित होकर उसे अपना समर्थन दिया है लिहाजा वह अपनी तरफ से कट्टर हिन्दुत्ववादी राह अपनाने की पहल हर्गिज नहीं करेगी। लेकिन ‘अतिशय रगड़ करे जो कोई, अनल प्रगट चंदन से होई’ की नौबत से निपटने में योगी का मुकाबला प्रदेश भाजपा का कोई दूसरा नेता कतई नहीं कर सकता। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

मंगलवार, 7 मार्च 2017

संभावित खिचड़ी में रायते का जायका

संभावित खिचड़ी में रायते का जायका


खेल चल रहा है खुल्लम-खुल्ला। सब खेल रहे हैं। नेता खेल रहे हैं जनता के साथ और जनता खेल रही है नेताओं के साथ। मामला इस कदर गड्डमगड टाईप का हो गया है कि किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा कि कौन किसके साथ खेल-खेल रहा है। हर किसी को अपनी ही पौ-बारह होती दिखाई पड़ रही है। तभी तो सब जोश में हैं। जोश भी ऐसा कि इसमें होश के लिए कोई जगह ही नहीं बची है। चैतरफा शंखनाद से आसमान गुंजायमान है। तुरही बज रही है, ढ़ोल-नगारे बज रहे हैं। उसकी धुन पर नेता भी मदमस्त हैं और जनता भी। हर तरफ रंग ही रंग है, उमंग ही उमंग है। ‘को बड़-छोट कहत अपराधू’ की स्थिति है। आखिर हो भी क्यों ना। जब एक ही दिन और एक ही इलाके में आयोजित वजीरे-आजम के जनता दर्शन से लेकर यूपी के लड़कों की पगडंडी मार्च तक ही नहीं बल्कि तने-तंबू की छांव में आयोजित बहनजी की चैपाल तक में जनसैलाब का ऐसा उफान दिखाई दे कि तुलनात्मक तौर पर किसी एक आयोजन को सफलतम और बाकियों को दोयम साबित करने में बड़े-बड़ों के पसीने छूटने लगें तो फिर कागजी समीकरणों का ध्वस्तीकरण होना स्वाभाविक ही है। तभी तो सूबे की मौजूदा स्थिति को तयशुदा व परंपरागत फार्मूले के खांचे में फिट करते हुए शब्दों के सांचे में ढ़ालकर किसी निर्णायक स्वरूप में प्रस्तुत कर पाना उतना ही मुश्किल हो गया है जितना त्रिदेवों की तिकड़ी में से किसी एक को सर्वसम्मति से सर्वोत्तम बताना। ऐसे में सत्ता का वरण करने के लिये सात फेरों में हो रहे सप्तपदी चुनाव की अंतिम परिक्रमा संपन्न होने तक सबका जुनून सातवें आसमान पर होने को कैसे अस्वाभाविक कहा जा सकता है। उस पर तुर्रा यह कि महीना भी फागुन का है जिसमें सामान्य व हर तरह से ठीक-ठीक आदमी की मनोदशा बिल्कुल वैसी ही रहती है जैसी कार्तिक में कुत्ते, अगहन में भैंसे और चुनाव में नेताओं की होती है। यानि फागुन ने चढ़ा दिया है नीम को करेले पर। चुनाव के कारण नेता और फागुन के कारण मतदाता एक बराबर हो गए हैं। लिहाजा ना नेताओं की बात को लेकर जनता में ठोस खेमेबाजी या निर्णायक गोलबंदी हो रही है और ना ही किसी ठोस मुद्दे को लेकर नेताओं में आपसी उखाड़-पछाड़ का माहौल दिख रहा है। हर कोई अपना अलग ही सुर-ताल सुनाने में पिला है। जनता भी किसी एक की तान पर थिरकने के बजाय अपनी ढ़फली पर अपना राग आलाप रही है। हालांकि नेताओं का सुर-ताल जनता को भी आह्लादित कर रहा है और जनता के आलाप से नेता भी आशान्वित हो रहे हैं। सब मस्त हैं अपनी मस्ती में। फिजा में घुल रहे सियासी रंगों से जनता भी खुलकर खेल रही है। वह भगवा के साथ भी उतने ही प्यार से लिपट रही है जितना लाल, हरे व नीले से। इस चुनावी फागुन में जनता इस कदर होलियाई हुई है कि सियासी हुल्लड़-हुड़दंग में यह परखना बेहद मुश्किल हो रहा है कि वह किससे अंदरूनी तौर पर बिदक रही है और किसके साथ अंतरंगता के साथ चिपक रही है। नतीजन सबका दावा यही है कि इस दफा विरोधियों के अरमानों की होली जलेगी और जीत के रंग की होली तो उनकी ही मनेगी। दावा करें भी क्यों ना। वह भी तब जबकि ऐसे दावों की हवा निकालने का अचूक तर्क हर तरफ से पूरी तरह नदारद हो। तभी तो जो किसी जमात से जुड़े हैं वे तो अपने खेमे की जीत सुनिश्चित बता रहे हैं लेकिन तटस्थ व निष्पक्ष विचारों के सूरमाओं का आकलन है कि अंत में मामला खिचड़ी भी हो सकता है। खिचड़ी का यह शगूफा काफी तेजी से फैल भी रहा है। तभी तो साहेब ने भरी सभा में यह कह दिया कि जिनकी अपनी दाल नहीं गल पा रही वे चुनावी चूल्हे पर खिचड़ी पकाने में जुट गए हैं ताकि किसी और को अपनी दाल गलाने में कामयाबी ना मिल सके। वैसे भी समग्रता में देखा जाए तो हवा का रूख किसी एक के पक्ष में होने की संभावना को स्वीकार कर लेने से पूरा विश्लेषण ही रसहीन हो जाएगा। यही वजह है कि चैपाल की चर्चाओं में हवा दी जा रही है खिचड़ी की संभावना को। इस संभावना में बहुत रस भी है और चटपटा स्वाद भी। तभी तो खिचड़ी की संभावना जताने वाले अब यह भी बताने लगे हैं कि इस फागुन में किस पर किसका रंग चढ़ेगा। इस चर्चा का चकल्लस सिर्फ भगवा को लाल-हरे से दूर रख रहा है। वर्ना जितनी अटकलें नीले के भगवा से मिलने की लगाई जा रही हैं उतनी ही तिरंगे की छांव में सशक्त व सुनिश्चित भविष्य का निर्माण करने के लिए लाल-हरे के साथ नीले के जुड़ने की भी व्यक्त की जा रही हैं। लेकिन एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि अब तक जब भी किसी ने नीले को अपनाया है तो उसके हिस्से में कालिख ही आई है। जब भी कभी रंगों के घाल-मेल की परिस्थिति उत्पन्न हुई है तो इसमें वर्चस्व नीले का ही रहा है। लिहाजा खिचड़ी की सूरत में नीला रंग अपनाकर रंगा सियार बनने के अलावा शायद ही कोई दूसरा विकल्प दिखाई पड़े। खैर, किस पर किसका रंग चढ़ेगा, किसका रंग जमेगा या किसका रंग उतरेगा यह शनिवार को पता चलेगा, लेकिन इतना तय है कि अगर खिचड़ी की नौबत आई तो जमकर रायता भी फैलेगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #NavkantThakur