बुधवार, 29 जून 2016

कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे.....

कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे.....   


‘कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे, मेरे ही लोग मुझे संगसार करने लगे, कोई इशारा दिलासा न कोई वादा मगर, जब आई शाम मेरा इंतजार करने लगे।’ कायदे से देखें तो वसीम बरेलवी की यह गजल इन दिनों स्वामी प्रसाद मौर्य की वास्तविक हालत को बयान करती हुई महसूस होती है। वाकई इनके बारे में कही-सुनी बहुत सी बातें अफवाहों व अटकलों की शक्ल में सियासी महफिलों में तैरती फिरती हैं। लेकिन ना तो इन्होंने अब तक खुलकर कुछ कहा है और ना ही इनके लिये किसी ने अपना दरवाजा बंद किया है। अलबत्ता भले ही इन्होंने किसी से कोई वादा ना किया हो लेकिन इनके इंतजार में सभी पलक पांवड़े बिछाए दिख रहे हैं। सतही तौर पर देखने से तो यही लगता है कि बसपा छोड़ने के बाद मौर्य के सामने विकल्पों का पूरा आसमान अपनी बांहें फैलाए खड़ा है। ये जिधर का भी रूख करें इनके लिये उधर ही तोरणद्वार व  वंदनवार सजाये जाने की पूरी तैयारी है। हर कोई लालायित है इन्हें गले लगाने के लिये। इनके इंतजार में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी पलकें बिछाये खड़े हैं और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी इनकी राहों में बांहें फैलाये हुए हैं। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो हर रास्ता इनके ही इंतजार में दिख रहा है। अब इन्हें ही तय करना है कि किधर जाना है। लिहाजा विकल्पों की बहुलता के कारण कायदे से तो इनका अगला कदम बेहद आसान होना चाहिये था। लेकिन गहराई से देखें तो पूरा माहौल उतना खुशनुमा कतई नहीं है जितना सतह पर दिख रहा है। बल्कि हकीकत तो यह है कि विकल्पों की बहुलता ने ही इनकी राहें बुरी तरह दुश्वार कर दी हैं। तभी तो इन्होंने सबसे पहला काम किया विकल्पों को सीमित करने का। इसी क्रम में सबसे पहले इन्होंने सपा की ओर जानेवाले रास्ते का दरवाजा खुद ही बंद कर लिया। इन्होंने सपा से अपनी दूरी दिखाने के लिये उसपर तीखा हमला बोल दिया। कहा कि सपा के विषय में उनकी राय नहीं बदली है। वह उसे गुण्डों और माफियाओं की पार्टी ही मानते हैं और मुलायम सिंह यादव के परिवारवाद के विरोधी वे पहले भी थे और आगे भी रहेंगे। शायद यह तल्खी दिखाना मौर्य की मजबूरी भी रही होगी क्योंकि जो व्यक्ति बसपा में कई वर्षों तक मायावती के बाद नम्बर दो की हैसियत में रहा हो, उसके लिए अचानक ही सपा में शामिल हो जाना अव्यावहारिक और असहजतापूर्ण हो सकता है। इस तथ्य को सपा नेता समझ नहीं सके अन्यथा वह जल्दबाजी न दिखाते। ना आजम खान आनन-फानन में मौर्य को सपा में शामिल होने का न्यौता देकर चट मंगनी और पट ब्याह कराने की कोशिश करते और ना ही मौर्य को गठजोड़ की संभावनाएं टटोलने से पहले ही अलगाव का एलान करने के लिये मजबूर होना पड़ता। खैर, जो हो गया वह बदल तो नहीं सकता। अलबत्ता उसके असर को तो भुगतना ही होगा। अब इसका नतीजा यह हुआ है कि फिलहाल सपा की ओर खुलनेवाला दरवाजा मौर्य के लिये बंद हो गया है और अपनी ओर से मौर्य ने ही उस पर सांकल चढ़ा दी है जबकि दरवाजे के दूसरी तरफ शिवपाल यादव टेक लगाकर खड़े हो गये हैं ताकि वह दरवाजा खुल ही ना सके। हालांकि इन्होंने अपनी ओर से भले ही सपा की ओर खुलनेवाले दरवाजे पर कुंडी चढ़ा दी हो लेकिन सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के साथ इनके पुराने रिश्तों की दुहाई देते हुए अखिलेश यादव ने आज भी इनके लिये रास्तों में फूल बरसाना जारी रखा हुआ है। लेकिन सवाल है कि विपक्ष के नेता पद से हटते ही सत्तापक्ष का दामन थाम लेने का मतदाताओं का जो असर पड़ेगा उससे इनकी विश्वसनीयता तो सवालों के घेरे में आ ही जाएगी। ऐसे में अब फिलहाल मौर्य के सामने अपनी अलग पार्टी बनाने के अलावा भाजपा में शामिल होने का ही विकल्प बचा है। बसपा में इनकी वापसी अब नामुमकिन है और कांग्रेस में तो फिलहाल शायद ही कोई महत्वाकांक्षी नेता शामिल होना पसंद करे। लेकिन मसला है कि अपनी अलग पार्टी बनाने के विकल्प में भी बहुत जोखिम है क्योंकि अगर जनता ने नकार दिया तो सियासत में अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। यानि सुरक्षित विकल्प तो इनके सामने अब भाजपा का ही है लेकिन मसला है कि पिछले चुनाव में बसपा से आये बाबूसिंह कुशवाहा को महज चैबीस घंटे के लिये संगठन में शामिल कराने का बेहद बुरा खामियाजा भुगत चुकी भाजपा में इस दफा मौर्य के मसले पर पहले आम सहमति तो बने। तभी तो भाजपा में दबी जुबान से मौर्य के बारे में बातें तो कई तरह की हो रही हैं लेकिन खुलकर कोई कुछ नहीं कह रहा। वैसे यदि जातीय समीकरण की बात करें तो भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद भी मौर्य समाज से ही आते हैं जिनकी छवि पूरी तरह बेदाग है। जबकि मायावती सरकार के कार्यकाल में स्वामी प्रसाद भी भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे थे। लिहाजा भाजपा भी इन्हें अपने संगठन में शामिल करने से पहले सौ-बार सोचेगी और उसके बाद ही कोई अंतिम फैसला लेगी। बहरहाल मौजूदा हालातों में मौर्य के बारे में अभी सिर्फ अटकलें ही लगायी जा सकती हैं। लेकिन सवाल है कि अगर अटकलों का दौर ही चलता रहा और ये समय रहते अपने लिये कोई ठौर-ठिकाना तलाशने में कामयाब नहीं हो सके तो चुनावी तपिश का मौसम इनके सियासी सफर की बड़ी रूकावट भी बन सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant Thakur

बुधवार, 22 जून 2016

सियासी ‘साॅल्यूशन’ के लिये ‘कन्फ्यूजन’ की कूटनीति

सियासी ‘साॅल्यूशन’ के लिये ‘कन्फ्यूजन’ की कूटनीति  

वकालत के पेशे का सबसे प्रचलित पैंतरा है ‘कन्फ्यूजन’। बचाव पक्ष के वकील को जब लगने लगता है कि सबूतों व गवाहों के मकड़जाल से अपने मुवक्किल को बचा पाना मुश्किल हो सकता है और आरोपी को निर्दोष मानने के लिये जज को सहमत कर पाना संभव नहीं है तो वह अपने तर्कों व दलीलों के दम पर अदालत को कन्फ्यूज करने में ही अपनी पूरी ताकत झोंक देता है ताकि आरोपी को संदेह का लाभ दिलाया जा सके। वकीलों द्वारा अदालत में अपनाये जानेवाले इस पैंतरे का इन दिनों सियासत में भी काफी बोलबाला दिख रहा है। जिसे देखिये वही मतदाताओं को कन्फ्यूज यानि भ्रमित करने में जुटा हुआ है। खास तौर से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर तमाम पार्टियां इसी जुगत में दिख रही हैं कि विरोधी पक्ष के प्रति मतदाताओं के बीच भ्रम व संशय का माहौल बना दिया जाये। तभी तो भाजपा यह प्रचारित कर रही है कि सपा व बसपा के बीच अंदरूनी सांठगांठ है जबकि बसपा का कहना है कि सपा और भाजपा आपस में मिले हुए हैं। उधर सपा के मुताबिक चुंकि बसपा और भाजपा के बीच पहले भी गठजोड़ हो चुका है लिहाजा आगे चलकर भी वे दोनों एकसाथ आने में संकोच नहीं करेंगे जबकि कांग्रेस अभी से मानकर चल रही है कि उसे सूबे की सियासत से बाहर रखने के लिये सपा, भाजपा और बसपा के बीच अंदरखाने परस्पर सहमति बनी हुई है और इसी के नतीजे में ना तो सपा उसके साथ गठजोड़ करने के लिये सहमत हो रही है और ना ही बसपा। यानि सभी दलों का जोर यही साबित करने पर है कि कौन किसके साथ मिला हुआ है और किसकी किसके साथ अंदरूनी सांठगांठ है। जाहिर है कि यह चुनावी पैंतरा मतदाताओं को भ्रमित करने के लिये ही अपनाया जा रहा है जिसमें वास्तविक सच्चाई भले ना हो लेकिन उसका काल्पनिक भौकाल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। इन दिनों यूपी की तमाम सुर्खियां मतदाताओं को भ्रमित करनेवाली ही दिख रही हैं। मसलन कैराना के मामले को ही लें तो भाजपा के मुताबिक वहां की हालत ठीक वैसी ही है जैसी नब्बे के दशक में कश्मीर की थी। जबकि सूबे में सत्तारूढ़ सपा का कहना है कि कैराना के मामले को सियासी लाभ के लिये बेवजह ही बखेड़े का सबब बनाया जा रहा है जबकि हकीकत में वहां स्थानीय स्तर पर कोई समस्या ही नहीं है। सपा के मुताबिक वहां पूरी तरह रामराज का माहौल है जबकि भाजपा उसे जंगलराज का प्रतीक साबित करने में जुटी हुई है। अब किसकी बात में कितना दूध और किसकी दलीलों में कितना पानी मिला हुआ है यह पता करने के चक्कर में सूबे के उन मतदाताओं का मिजाज घनचक्कर होना तो लाजिमी ही है जिन्होंने कल तक कैराना का नाम भी नहीं सुना था। खैर मतदाताओं का मिजाज तो इस बात को लेकर उखड़ना भी स्वाभाविक है कि कहने को तो सपा और भाजपा दोनों ने यही प्रण किया हुआ है कि इस बार का चुनावी मुद्दा विकास व सुशासन पर ही केन्द्रित रखा जाएगा लेकिन दोनों ही ओर से सांप्रदायिक व जातिगत ध्रुवीकरण की कोशिशों में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। कभी एक तरफ के कुछ नेता ‘रामलला हम आएंगे, दिसंबर में मंदिर बनाएंगे’ का नारा बुलंद कर रहे हैं तो दूसरी तरफ घोषित अपराधियों को संगठन में शामिल करके अल्पसंख्यक वोटों की एकजुटता सुनिश्चित करने की कोशिश की जा रही है। चुनाव के बाद भाजपा और बसपा के एकसाथ आने की संभावना जताकर अल्पसंख्यकों को डराने की कूटनीति आजमायी जा रही है तो इसके जवाब में अपना वजूद बचाने के लिये बहुसंख्यकों को एकजुट होने का महत्व समझाया जा रहा है। अब इस बेमानी बहस से गूंज रहे चुनावी नक्कारखाने में विकास व सुशासन की तूती कहां गुम होती जा रही है यह किसी को पता नहीं चल पा रहा है। ऐसे में चुनावी मुद्दों व वायदों के आधार पर पार्टियों को परखनेवाले मतदताओं का भ्रमित होना लाजिमी ही है। इसी प्रकार जब सूबे की सरकार कह रही है कि पिछले साल के बाढ़-सुखाड़ का पैसा उसे अब तक केन्द्र से नहीं मिला है जबकि प्रधानमंत्री सार्वजनिक सभा में आरोप लगा रहे हैं कि केन्द्र से मिलनेवाली सालाना एक लाख करोड़ की रकम प्रदेश सरकार की तिकड़मी योजनाओं में उलझकर फाइलों में ही गायब हो जा रही है तो ऐसे में मतदाताओं का भ्रमित होना तो स्वाभाविक ही है। यहां तक कि मतदाताओं को कन्फ्यूज करने की कूटनीति अपनाने में वह कांग्रेस भी कोई कसर नहीं छोड़ रही है जिसके लिये इस चुनाव को अस्तित्व की लड़ाई के तौर पर देखा जा रहा है। तभी तो कभी उसके नेता यह शगूफा छोड़ते हैं कि सूबे में राहुल के बजाय प्रियंका को आगे रखा जाएगा तो कभी यह सुर्रा छोड़ दिया जाता है कि वरूण गांधी को कांग्रेस में शामिल कराके उनकी अगुवाई में चुनाव लड़ा जा सकता है। अब इस तरह की ऊटपटांग बातें करके मतदाताओं को भ्रमित करने की कोशिशों में जुटे राजनीतिक दलों को कौन समझाए की इन हवाई बातों से अखबारों की सुर्खियां तो बटोरी जा सकती है मगर इससे वोट मिलना मुश्किल ही है। वैसे भी मतदाता मासूम भले ही हो वह मूर्ख कतई नहीं है वर्ना देश में जड़े जमा चुकी त्रिशंकु सदन की अवधारणा को अफसानों में ही अपना अस्तित्व तलाशने के विवश नहीं होना पड़ता। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर

मंगलवार, 14 जून 2016

‘दर्दे दिल का दिमाग से इलाज’

‘दर्दे दिल का दिमाग से इलाज’ 

अकेली धरती ही गोल नहीं है। गोल तो राजनीति भी है। जिस तरह सूरज किसी भी तरफ से धरती पर प्रकाश क्यों ना डाले, उसके पीछे के हिस्से में अंधेरा ही रहता है। ठीक उसी प्रकार सियासत पर भी जिधर से निगाह डाली जाये उसके दूसरी तरफ की कहानी को समझना नामुमकिन ही रहता है। एक ही निगाह और नजरिये से राजनीति को हर्गिज नहीं समझा जा सकता। विभिन्न बिखरी हुई फुटकर घटनाओं को जोड़ना पड़ता है, तमाम पहलू टटोलने पड़ते हैं। कारण व परिणामों का समीकरण समझना पड़ता है। तब कहीं जाकर सियासत की असली रामकहानी समझ में आती है। इसमें भी तमाम जद्दोजहद, मगजमारी व पातालतोड़ मेहनत के बाद भी अंदर की बात का पक्के तौर पर पता चल पाने की कोई गारंटी भी नहीं होने के कारण फुटकर तौर पर तो तमाम सियासी घटनाएं सामने आती रहती हैं लेकिन उसके अंदर की असली वजह आम तौर पर सामने नहीं आ पाती है। मिसाल के तौर पर बिहार के मोकामा में प्रशासन द्वारा करायी गयी थोक के भाव में नीलगायों की हत्या के जिस मामले को लेकर केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर व केन्द्रीय महिला एवं बाल विकासमंत्री मेनका गांधी के बीच बुरी तरह ठनी हुई है उस मामले पर चटखारे तो सभी ले रहे हैं लेकिन उसकी तह तक जाने और इसके कारणों को तलाशने की ना तो कोशिश हो रही है और ना ही उसे जानने के प्रति खास दिलचस्पी का माहौल दिख रहा है। अलबत्ता सतही तौर पर पूरा मामला ऐसा दिख रहा है जैसे नीलगाय की हत्या किये जाने को लेकर मेनका बुरी तरह द्रवित हैं जबकि जावड़ेकर को इस जीव हत्या का कोई अफसोस नहीं है। यानि पूरा मामला महज नीलगाय पर ही आकर सिमट गया है। इसी वजह से बहस भी जीवहत्या को सरकारी इजाजत मिलने तक ही सीमित दिख रही है। जबकि हकीकत यह है कि यह पूरा मामला ‘राम जनम के हेतु अनेका, परम विचित्र एक तें एका’ सरीखा है जिसकी कई परतें हैं और कई हकीकतें हैं। अभी कुछ ही दिन पहले संसद भवन को राष्ट्रपति भवन से सीधे जोड़नेवाले देश के सबसे चाक-चैबंद चैराहे पर एक नीलगाय तफरीह करती हुई दिखी। उसने चैराहे के चारों तरफ जमकर चैकड़ी भरी और तमाम मीडिया के कैमरों ने उस घटना को बड़ी खबर के तौर पर प्रकाशित व प्रसारित किया। हालांकि बाद में वन विभाग ने उसे अपने कब्जे में लेकर जंगल की राह अवश्य दिखा दी लेकिन यह आज तक पता नहीं चल पाया है कि वह नीलगाय कब, कैसे व कहां से आयी थी। लेकिन इस घटना ने समूचे देश को यह अच्छे से बता दिया कि नीलगाय कोई गाय नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो नीलगाय के वहां आने अथवा भेजे जाने का अगर यही मकसद था कि सबको यह अच्छे से बता दिया जाये कि नीलगाय वास्तव में कोई गाय नहीं होती है जिसे माता का दर्ज देकर सियासत में पूजनीय बनाया जाये तो जाहिर तौर पर यह मकसद तो पूरा हो ही गया। उसके कुछ दिनों बाद खबर आती है कि केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति से बिहार के स्थानीय प्रशासन ने थोक के भाव में नीलगायों का शिकार करवाया है। यह खबर सामान्य तौर पर सामने आती तो यही माना जाता कि किसानों को राहत पहुंचाने के लिये प्रशासन ने ऐसा किया है। ना खास चर्चा होती ना बहस। लेकिन मसले को तूल दे दिया मेनका ने, यह कहकर कि जावड़ेकर ने सूबे की सरकार पर दबाव बनाकर ऐसा कराया है। साथ ही ऐसा ही दबाव वे अलग-अलग सूबों में बंदर, हाथी व मोर को मरवाने के लिये भी बनाये हुए हैं। यानि मेनका ने तस्वीर को ऐसी शक्ल देने की कोशिश की मानों जावड़ेकर का काम केवल जानवरों को मरवाने तक ही सीमित है। चुंकि मामला मोदी सरकार के दो मंत्रियों के बीच टकराव का था लिहाजा खबर बड़ी बन गयी। इसमें किसी ने भी यह टटोलने की जहमत नहीं उठायी कि कुछ सूबों में इन जानवरों की भारी वंशवृद्धि के कारण वहां के स्थानीय लोगों व खासकर किसानों का जिस तरह से जीना मुहाल हो गया है उसका समाधान करने के लिये अगर इनकी संख्या को कुछ हद तक सीमित करने की कोशिश भी की जाती है तो इसे गुनाह कैसे माना जा सकता है। लेकिन मेनका हत्थे से उखड़ी हुई थी लिहाजा तस्वीर का जो पहलू वे दिखा रही थी वही लोग देख रहे थे। उसके आगे या पीछे की हकीकत जानने व समझने की ठोस कोशिश ही नहीं हुई। लेकिन भाजपा की अगुवाईवाली सरकार के फैसले के खिलाफ जब मेनका आग उगल रही थी तभी पता चला कि उनके सांसद पुत्र वरूण गांधी को पार्टी ने यूपी में चादर से बाहर पैर फैलाने से सख्ती के साथ मना किया है और खुद को पूरे सूबे के जननेता के तौर पर प्रचारित करने से परहेज बरतने का निर्देश दिया है। अब वरूण के प्रति पार्टी की इस सख्ती के बाद नीलगाय के मसले पर मेनका के तल्ख तेवरों की जो कहानी सामने आयी है उसे समग्रता में देखें तो पूरे मामले के कारण व परिणाम को आसानी से समझा जा सकता है। खैर, सियासत में दिल के दर्द का दिमाग से इलाज करने की कोशिशें तो चलती ही रहती हैं। लेकिन सवाल है कि जब तक मर्ज का पूरा मवाद बाहर नहीं आएगा तब तक फोड़े तो अलग-अलग जगह निकलते ही रहेंगे। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur 

शुक्रवार, 10 जून 2016

‘बिनु भय स्वार्थ नहिं प्रीति की रीति’

सरपट भगदड़ की होड़


गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है कि ‘सुर नर मुनि सब कै यह रीती, स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।’ साथ ही उन्होंने यह भी बताया है कि ‘भय बिनु होय न प्रीति।’ यानि प्रीति, मित्रता या एकजुटता के लिये आवश्यक है कि परस्पर स्वार्थ भी हो और भय भी। दोनों हो तो सर्वोत्तम अथवा कम से कम कोई एक तो हो। लेकिन जहां दोनों का ही अभाव हो वहां कैसे टिकेगी मित्रता और कैसे दिखेगी एकजुटता। वहां तो टकराव होगा, टूट होगी और बिखराव होगा। ठीक वैसे ही जैसा कांग्रेस में शुरू होता दिख रहा है। कभी अरूणाचल के विधायक बगावत कर रहे हैं तो कभी उत्तराखंड के। कभी त्रिपुरा के विधायक दल में फूट पड़ती है तो कभी मणिपुर के विधायक दल की एकता दरकती है। कभी छत्तीसगढ़ में जोगी परिवार पार्टी से अपना नाता तोड़ता दिख रहा है तो कभी महाराष्ट्र में गुरूदास कामथ सरीखे शीर्ष छत्रप संगठन को अलविदा कहते दिख रहे हैं। यह सिर्फ सूबाई स्तर पर ही नहीं हो रहा बल्कि केन्द्रीय स्तर पर भी असंतुष्टों की कतार लगातार लंबी होती दिख रही है और इस बात की संभावना से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की एक भी मनमानी पहल अब पार्टी में भारी विस्फोट का सबब बन सकती है। गनीमत है कि इस विस्फोटक परिस्थिति से पार्टी का शीर्ष नेतृत्व यानि गांधी परिवार भी अच्छी तरह परिचित है। तभी तो हर शिकस्त के बाद सर्जरी की बात तो होती है लेकिन यह बात महज बतकही बनकर रह जाती है। आखिर सर्जरी करें तो कैसे? राहुल को आगे लाये तो बुजुर्ग नाराज। प्रियंका को आगे लाये तो अब तक की सारी मेहनत पानी में। सोनिया को ही बरकरार रखते हुए राहुल को हाशिये पर भेजें तो भविष्य अंधकारमय। इसके अलावा अन्य कोई विकल्प ही नहीं है जिस पर विचार भी किया जा सके। ऐसे में आखिर करें तो क्या करें? यही वजह है कि कहने-सुनने में तो हमेशा ही कई हवा-हवाई बातें आती रहती हैं, लेकिन वास्तविकता में जो जैसे चल रहा है उसे यथावत चलने दिया जा रहा है। इसमें मसला है कि चल तो सब कुछ रहा है, मगर उल्टी दिशा में। बढ़ना था आसमान की ओर जबकि जा रहे हैं पाताल की गर्त में। संगठन के सिमटने की रफ्तार दिन दूनी रात चौगुनी होती जा रही है। कहीं से कोई सहारा मिलता नहीं दिख रहा। पार्टी की पकड़ देश के महज पांच फीसदी भू-भाग पर सिमट कर रह गयी है। ऐसे में स्वाभाविक है कि शीर्ष नेतृत्व का भय आखिर किसी को हो भी तो क्यों। यानि भय के आधार पर फिलहाल पार्टी में एकजुटता की उम्मीद करना व्यर्थ ही है। अब बचा स्वार्थ का आधार। तो इस पहलू को टटोलें तो जिसकी उम्मीदें कायम हैं वह टिका हुआ है पार्टी में और जिसकी उम्मीदों पर पूर्णविराम लग रहा है वह अपना रास्ता अलग कर ले रहा है। छत्तीसगढ़ में अगर जोगी परिवार ने पार्टी को अलविदा कहने की पहलकदमी की है तो उसकी साफ सी वजह है कि पार्टी ने अमित जोगी को पहले ही बाहर का दरवाजा दिखा दिया था जबकि अजीत जोगी को भी पार्टी से बाहर निकालने की तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। यानि जोगी परिवार समझ गया कि अब हाथ का साथ पकड़े रहने से उसका कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं होनेवाला। तो वे चल पड़े अपने रास्ते। इसी प्रकार उत्तराखंड में भी जब विजय बहुगुणा को राज्यसभा की सीट नहीं मिली और सूबे की सत्ता से भी उन्हें दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका गया तो उन्होंने भी तमाम संगी-साथियों के साथ पार्टी का दामन छोड़कर अपनी राहें अलग कर लेना ही बेहतर समझा। यही सिलसिला महाराष्ट्र में भी दिख रहा है जहां राज्यसभा की सीट पर गुरूदास कामथ की दावेदारी की अनदेखी करते हुए उनके धुर विरोधी माने जानेवाले पी चिदंबरम को उच्च सदन का टिकट दे दिया गया। साथ ही संगठन में भी उनकी कोई पूछ नहीं रही और रही सही कसर राहुल के युवा प्रेम में आगे बढ़ाये जा रहे संजय निरूपम की बातों व हरकतों ने पूरी कर दी। लिहाजा अब कामथ भले ही पार्टी छोड़ने के अपने फैसले के पीछे हजारों दलीलें गिना रहे हों लेकिन सच तो यही है कि संगठन से स्वार्थपूर्ति का हर दरवाजा बंद हो जाने के बाद उनके पास यह कदम उठाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा। ऐसी ही नौबत दिख रही है उत्तर-पूर्वी सूबों में भी जहां भाजपा के बढ़ते कदमों और कांग्रेस के समाप्त होते जनाधार ने पार्टी से स्वार्थसिद्ध होने की संभावनाएं बेहद क्षीण कर दी हैं। इसी का नतीजा है कि उधर भी पार्टी में भारी भगदड़ का माहौल दिख रहा है और अब त्रिपुरा और अरूणाचल में भी असम की स्याही से नया इतिहास लिखे जाने की संभावना प्रबल दिख रही है। इन समस्याओं से निजात पाने का उपाय तलाशने के लिये राहुल भले ही मार्गदर्शक मंडल बनाने की बात कह रहे हों लेकिन जिसे भी मार्गदर्शक बनाया जाएगा उसके भविष्य पर तो ताला ही लगेगा। ऐसे में वह पार्टी में कब तक टिकेगा इसकी कल्पना की जा सकती है। लिहाजा जरूरत है शीर्ष स्तर पर सर्जरी की और भविष्य की चुनौतियों के मद्देनजर ठोस पहलकदमी की। वर्ना भगदड़ के सिलसिले की यह शुरूआत पार्टी को कहां ले जाएगी यह शायद ही किसी को अलग से बताने की जरूरत हो। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

शनिवार, 4 जून 2016

झूठ बोला है तो कायम भी रहो उस पर.....

‘आदमी को साहब-ए-किरदार होना चाहिये’ 


जफर इकबाल साहब का कहना है कि ‘खामोशी अच्छी नहीं इनकार होना चाहिये, ये तमाशा अब सर-ए-बाजार होना चाहिये, झूठ बोला है तो कायम भी रहो उस पर जफर, आदमी को साहब-ए-किरदार होना चाहिये।’ यानि अव्वल तो झूठ बोलना ही गुनाह है और दूसरे अगर यह गुनाह हो भी जाये तो झूठ बोलने के बाद जरूरी है कि उस पर कायम भी रहा जाये। लेकिन मसला है कि जब आज की तारीख में सच पर कायम रहनेवाले लोग चिराग लेकर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते तब झूठ पर कायम रहनेवालों को कहां से ढ़ूंढ़ कर लाया जाये। खास तौर से सियासत के बारे में तो वैसे भी कहा जाता है कि यहां कोई किसी बात पर लंबे समय तक कायम नहीं रहता। यहां तो ‘जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी कीजे’ का ही चलन है। यही वजह है कि मौके की नजाकत व सियासी जरूरतों को देखते हुए यहां कब कौन अचानक अपनी कही हुई बात से पलट जाये इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। जाहिर है कि इसके लिये अलग से किसी घटना की मिसाल देने की कोई जरूरत ही नहीं है क्योंकि सियासत में होनेवाली रोजमर्रा की इन घटनाओं के प्रति लोग इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि अब लोग भी यह याद रखना जरूरी नहीं समझते कि कब किसने क्या कहा था। तभी तो सभी यही मानकर चलते हैं कि लोगों की याददाश्त बड़ी छोटी होती है और कोई नया गुल खिलते ही पिछले तमाशे को सिरे से भुला दिया जाता है। लोगों की इसी आदत का फायदा तमाम राजनीतिक पार्टियां भी जमकर उठाती हैं और केन्द्र व सूबों की सरकारें भी। वर्ना ऐसा कैसे हो सकता था कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें धरातल पर आ जाने के बावजूद पेट्रोल व डीजल की खुदरा कीमतों में अधिक कमी नहीं कर पाने की मजबूरी गिनाने के क्रम में सरकार की ओर से जो दलीलें पेश की जा रही थीं उसे भी आम लोगों ने सच मान लिया और अब कच्चे तेल की कीमतों में उछाल के बाद पेट्रोल व डीजल की कीमतों में की जा रही लगातार वृद्धि को जायज ठहराने की दलीलों को भी आंखें मूंद कर सच मान लिया जा रहा है। जबकि दोनों दलीलें सैद्धांतिक तौर पर एक दूसरे के बिल्कुल ही विपरीत हैं। मौजूदा हालातों की बात करें तो केन्द्र सरकार के तरफदार आंकड़ों के हवाले से लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि चुंकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में जनवरी माह के मुकाबले 70 फीसदी की वृद्धि हो चुकी है लिहाजा पेट्रोल-डीजल व रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि करना सरकार की मजबूरी हो गयी है। लेकिन इस तर्क को अगर सही माना जाये तो जब पूर्ववर्ती संप्रग सरकार के कार्यकाल में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 160 से 170 डॉलर प्रति बैरल की दर से कच्चा तेल मिल रहा था उस दौरान पेट्रोल की खुदरा कीमतों का 80 रूपये प्रतिलीटर की कीमत को भी पार कर जाना तो समझ में आता है। लेकिन इन दलीलों के तहत तो जब राजग की मौजूदा सरकार के कार्यभार संभालते ही कच्चे तेल की कीमत 20 डॉलर प्रति बैरल से भी नीचे आ गयी तब इसका फायदा आम लोगों को हाथोंहाथ मिल जाना चाहिये था, जोकि नहीं मिला। मोदी सरकार के कार्यकाल में जब 20 से 30 डॉलर प्रति बैरल की कीमत पर कच्चा तेल मिल रहा था तब तो यह बताया जाने लगा कि चुंकि कच्चे तेल का सौदा पहले ही तय हो जाता है लिहाजा पुरानी कीमतों के आधार पर ही पेट्रोल व डीजल की खुदरा कीमत तय करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। लेकिन अब जबकि कच्चे तेल की कीमतें हाल ही में महज 50 डॉलर पर ही पहुंची है तब अचानक ही पेट्रोल-डीजल की कीमतों में इजाफा कर दिये जाने की वजह क्या है? या तो सरकार का यह तर्क लागू होना चाहिये कि कच्चे तेल का सौदा पहले ही हो चुका है। फिर तो पहले की सस्ती दरों पर ही आज पेट्रोल-डीजल मिलना चाहिये। या फिर पेट्रोलियम कंपनियों की यह दलील हमेशा अमल में लायी जाये कि अंराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ेंगी तो घरेलू बाजार पर भी इसका सीधा व स्पष्ट असर पड़ेगा ही। लेकिन यह दोनों ही बातें लागू करने के लिये सरकार तैयार नहीं है। उसे तो जब जिससे फायदा दिखता है तब उस तर्क को आगे कर देती है। अब इसका तो स्पष्ट मतलब यही हुआ कि आंकड़ों की बाजीगरी में लोगों को उलझाकर सरकार की मंशा सिर्फ अपने खजाने को भरने की है ताकि बजट घाटे को पूरा किया जाये और विकास की योजनाओं को गति देने के लिये धन की कमी ना होने पाए। हालांकि इस सोच को भी सिरे से गलत नहीं कहा जा सकता है लेकिन इसमें सरकार को संतुलन तो रखना ही पड़ेगा। आखिर जनता पर किस हद तक बोझ डाला जाये इस पर विचार तो करना ही पड़ेगा। मसला सिर्फ पेट्रोल-डीजल का नहीं है। सवाल है इनकी कीमतों में वृद्धि के कारण महंगी होनेवाली ढ़ुलाई का, जिसका असर पूरे बाजार पर पड़ेगा। ऐसे में आवश्यकता है बजटीय आवश्यकताओं और आम लोगों के हितों के बीच संतुलन बिठाने की। वर्ना जिन आम लोगों के हित की चिंता करते हुए देश के विकास की गाड़ी को रफ्तार दी जा रही है वही गाड़ी आम लोगों के हितों को कुचलते हुए ना आगे बढ़ जाये। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर