‘आर-पार की जंग में तिकड़मियों का हुड़दंग’
नवकांत ठाकुर
बिहार में इस बार कुर्सी की असली लड़ाई तो भाजपानीत राजग और धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ के बीच ही होनी है। दोनों पक्ष चाह भी यही रहे थे कि लड़ाई-आर पार की ही हो। तभी तो जहां एक ओर नितीश कुमार की अगुवायी में धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ की नींव डाली गयी वहीं भाजपा ने भी तमाम नितीश विरोधियों को अपने साथ जोड़ने में कोई कोताही नहीं बरती। लिहाजा तस्वीर ऐसी बन गयी जिसमें दोनों पक्ष ने सबके लिये अपने दरवाजे पूरी तरह खुले रखे थे जिस पर बकायदा इस आशय का बोर्ड भी टंगा हुआ था कि जिस किसी को भी विरोधी गठजोड़ के साथ जुड़ने में असहजता महसूस हो रही हो वह उनके खेमे में शामिल हो सकता है। इस खुले निमंत्रण का ही नतीजा था कि बिहार का पूरा चुनावी परिदृश्य आर-पार की लड़ाई का बन गया और किसी तीसरे तत्व की इसमें कोई प्रासंगिकता ही नहीं बची। हालांकि इस रणनीति के पीछे नितीश की सोच थी कि अव्वल तो सूबे के 16 फीसदी अल्पसंख्यक मतदताओं का एकजुट समर्थन उन्हें हासिल हो जाएगा और लगे हाथों लालू के 18 फीसदी यादव मतदताओं के आलावा उनकी अपनी जाति के दो फीसदी मतदाताओं का समर्थन भी उसमें जुड़ जाएगा। साथ ही कांग्रेस को साथ लेने से अगड़ी जातियों के बड़े वर्ग का समर्थन मिल जाएगा जिससे जीत सुनिश्चित हो जाएगी। दूसरी ओर भाजपा ने इसे आमने-सामने की लड़ाई बनाने की पहल यह सोच कर की थी कि सूबे के 16 फसदी सवर्णों के परंपरागत समर्थन के साथ अगर रामविलास पासवान व जीतनराम मांझी की पकड़वाले 24 फीसदी महादलित भी उसके साथ आकर जुड़ जाएंगे तो सूबे में अपनी जीत सुनिश्चित करने में उसे कोई परेशानी नहीं होगी। यानि हालिया दिनों तक दोनों ही पक्ष को आर-पार की लड़ाई में ही अपनी जीत सुनिश्चित नजर आ रही थी। लेकिन कहते हैं कि अगर इंसान की बनायी हुई योजना ही पूरी तरह साकार होने लग जाये तो कोई भगवान को मानेगा ही क्यों? खास तौर से सियासत तो वैसे भी भारी अनिश्चितता का खेल माना जाता है जिसमें अगले ही पल क्या घटित हो जाये इसके बारे में दावे से कोई कुछ नहीं कह सकता। तभी तो दोनों पक्ष की उम्मीदों के उलट सूबे के मौजूदा चुनावी माहौल की तस्वीर ऐसी बन गयी है जिसमें उन छोटे-मोटे दलों ने इनकी तमाम योजनाओं व चाहतों में पलीता लगाने की कोशिशें तेज कर दी हैं जिनका वैसे तो कोई खास राजनीतिक महत्व नहीं है लेकिन अलग-अलग सीटों पर अपनी छिटपुट पकड़ के दम पर ये किसी का भी खेल बिगाड़ने की कूवत अवश्य रखते हैं। चुंकि प्रदेश में सत्ता की दावेदारी कर रहे दोनों बड़े गठबंधनों की मजबूरियों को इन्होंने बेहतर भांप लिया है लिहाजा अब ये इस मौके का भरपूर फायदा उठाने के मकसद से ऐसा तिकड़मी हुड़दंग मचाने में जुट गये हैं जिससे सूबे का पूरा सियासी समीकरण बुरी तरह डगमगाता दिखने लगा है। हालांकि इन तीसरे तत्वों की हुड़दंग ने फिलहाल तो धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ की ही जान आफत में डाली हुई है जिसकी जीत की पूरी पटकथा इसी धुरी पर टिकी हुई थी कि ना तो सूबे के अल्पसंख्यक मतों में कोई सेंध लगेगी और ना ही यादव वोटबैंक को लालू से तोड़ पाना संभव हो सकता है। इस समीकरण में पहली सेंध तो राजद से अलग होकर अपना स्वतंत्र सियासी अस्तित्व तलाशने में जुटे सीमांचल केे कद्दावर सांसद पप्पू यादव ने ही लगा दी है जिनके आपराधिक इतिहास को याद करके भाजपा ने औपचारिक तौर पर इनसे दूरी बनाये रखना ही बेहतर समझा है। हालांकि अंदरूनी तौर पर लालू के यादव वोटबैंक में तोड़फोड़ करने के मकसद से पप्पू के पीछे भाजपा का वरदहस्त भी स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है लेकिन यह वैसी ही दोस्ती है जैसी अल्पसंख्यक वोटों को यथासंभव छिन्न-भिन्न करने के लिये असदुद्दीन ओबैसी की एमआईएम से भाजपा की सांठगांठ बतायी जा रही है। रही सही कसर राकांपा ने पूरी कर दी है जिसने महज तीन सीटें मिलने से नाराज होकर धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ से अलग होकर चुनाव लड़ने का मन बना लिया है। साथ ही जिस सपा के साथ जदयू व राजद विलय करने के लिये तैयार थे उसे एक भी सीट नहीं दिये जाने के नतीजे में यादव वोटबैंक में सेंध लगाने के लिये अब सपा भी कुछ सीटों पर दमदार प्रत्याशी खड़ा करने की पहल कर रही है। खैर, सतही तौर पर ये सिरदर्दियां तो धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ की हैं जिसकी काट के तौर पर भाजपा के परंपरागत वोटबैंक में सेंध लगाने के लिये नितीश के पक्ष में अपना समर्थन व्यक्त करने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी पहुंच गये हैं जिनकी तमाम एनजीओ के बीच लोकप्रियता व स्वीकार्यता सर्वविदित ही है। लगे हाथ गुजरात में पटेल आरक्षण का आंदोलन छेड़नेवाले हार्दिक पटेल ने भी नितीश को ‘अपना’ बताकर मोदी विरोधियों को एकजुट होने का संदेश दे दिया है जिसे भुनाने में नितीश शिद्दत से जुट गये हैं। हालांकि यह सूरतेहाल तो तब है जब धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ ने आपस में सीटों का बंटवारा करके अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है। लेकिन अब अगर भगवाखेमे को समुचित, संतुलित व सर्वमान्य तरीके से सीटों का बंटवारा करने में कामयाबी नहीं मिली तो इसके घटक दलों की महत्वाकांक्षाओं का विस्फोट ऐसे तिकड़मी हुड़दंगियों की तादाद में इजाफा ही करेगा जो अपने दम पर रोटी सेंकने में भले सक्षम ना हों लेकिन दूसरे की पकी पकाई खिचड़ी में मिट्टी डालना बखूबी जानते हैं। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’