सोमवार, 31 अगस्त 2015

‘आर-पार की जंग में तिकड़मियों का हुड़दंग’

नवकांत ठाकुर
बिहार में इस बार कुर्सी की असली लड़ाई तो भाजपानीत राजग और धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ के बीच ही होनी है। दोनों पक्ष चाह भी यही रहे थे कि लड़ाई-आर पार की ही हो। तभी तो जहां एक ओर नितीश कुमार की अगुवायी में धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ की नींव डाली गयी वहीं भाजपा ने भी तमाम नितीश विरोधियों को अपने साथ जोड़ने में कोई कोताही नहीं बरती। लिहाजा तस्वीर ऐसी बन गयी जिसमें दोनों पक्ष ने सबके लिये अपने दरवाजे पूरी तरह खुले रखे थे जिस पर बकायदा इस आशय का बोर्ड भी टंगा हुआ था कि जिस किसी को भी विरोधी गठजोड़ के साथ जुड़ने में असहजता महसूस हो रही हो वह उनके खेमे में शामिल हो सकता है। इस खुले निमंत्रण का ही नतीजा था कि बिहार का पूरा चुनावी परिदृश्य आर-पार की लड़ाई का बन गया और किसी तीसरे तत्व की इसमें कोई प्रासंगिकता ही नहीं बची। हालांकि इस रणनीति के पीछे नितीश की सोच थी कि अव्वल तो सूबे के 16 फीसदी अल्पसंख्यक मतदताओं का एकजुट समर्थन उन्हें हासिल हो जाएगा और लगे हाथों लालू के 18 फीसदी यादव मतदताओं के आलावा उनकी अपनी जाति के दो फीसदी मतदाताओं का समर्थन भी उसमें जुड़ जाएगा। साथ ही कांग्रेस को साथ लेने से अगड़ी जातियों के बड़े वर्ग का समर्थन मिल जाएगा जिससे जीत सुनिश्चित हो जाएगी। दूसरी ओर भाजपा ने इसे आमने-सामने की लड़ाई बनाने की पहल यह सोच कर की थी कि सूबे के 16 फसदी सवर्णों के परंपरागत समर्थन के साथ अगर रामविलास पासवान व जीतनराम मांझी की पकड़वाले 24 फीसदी महादलित भी उसके साथ आकर जुड़ जाएंगे तो सूबे में अपनी जीत सुनिश्चित करने में उसे कोई परेशानी नहीं होगी। यानि हालिया दिनों तक दोनों ही पक्ष को आर-पार की लड़ाई में ही अपनी जीत सुनिश्चित नजर आ रही थी। लेकिन कहते हैं कि अगर इंसान की बनायी हुई योजना ही पूरी तरह साकार होने लग जाये तो कोई भगवान को मानेगा ही क्यों? खास तौर से सियासत तो वैसे भी भारी अनिश्चितता का खेल माना जाता है जिसमें अगले ही पल क्या घटित हो जाये इसके बारे में दावे से कोई कुछ नहीं कह सकता। तभी तो दोनों पक्ष की उम्मीदों के उलट सूबे के मौजूदा चुनावी माहौल की तस्वीर ऐसी बन गयी है जिसमें उन छोटे-मोटे दलों ने इनकी तमाम योजनाओं व चाहतों में पलीता लगाने की कोशिशें तेज कर दी हैं जिनका वैसे तो कोई खास राजनीतिक महत्व नहीं है लेकिन अलग-अलग सीटों पर अपनी छिटपुट पकड़ के दम पर ये किसी का भी खेल बिगाड़ने की कूवत अवश्य रखते हैं। चुंकि प्रदेश में सत्ता की दावेदारी कर रहे दोनों बड़े गठबंधनों की मजबूरियों को इन्होंने बेहतर भांप लिया है लिहाजा अब ये इस मौके का भरपूर फायदा उठाने के मकसद से ऐसा तिकड़मी हुड़दंग मचाने में जुट गये हैं जिससे सूबे का पूरा सियासी समीकरण बुरी तरह डगमगाता दिखने लगा है। हालांकि इन तीसरे तत्वों की हुड़दंग ने फिलहाल तो धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ की ही जान आफत में डाली हुई है जिसकी जीत की पूरी पटकथा इसी धुरी पर टिकी हुई थी कि ना तो सूबे के अल्पसंख्यक मतों में कोई सेंध लगेगी और ना ही यादव वोटबैंक को लालू से तोड़ पाना संभव हो सकता है। इस समीकरण में पहली सेंध तो राजद से अलग होकर अपना स्वतंत्र सियासी अस्तित्व तलाशने में जुटे सीमांचल केे कद्दावर सांसद पप्पू यादव ने ही लगा दी है जिनके आपराधिक इतिहास को याद करके भाजपा ने औपचारिक तौर पर इनसे दूरी बनाये रखना ही बेहतर समझा है। हालांकि अंदरूनी तौर पर लालू के यादव वोटबैंक में तोड़फोड़ करने के मकसद से पप्पू के पीछे भाजपा का वरदहस्त भी स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है लेकिन यह वैसी ही दोस्ती है जैसी अल्पसंख्यक वोटों को यथासंभव छिन्न-भिन्न करने के लिये असदुद्दीन ओबैसी की एमआईएम से भाजपा की सांठगांठ बतायी जा रही है। रही सही कसर राकांपा ने पूरी कर दी है जिसने महज तीन सीटें मिलने से नाराज होकर धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ से अलग होकर चुनाव लड़ने का मन बना लिया है। साथ ही जिस सपा के साथ जदयू व राजद विलय करने के लिये तैयार थे उसे एक भी सीट नहीं दिये जाने के नतीजे में यादव वोटबैंक में सेंध लगाने के लिये अब सपा भी कुछ सीटों पर दमदार प्रत्याशी खड़ा करने की पहल कर रही है। खैर, सतही तौर पर ये सिरदर्दियां तो धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ की हैं जिसकी काट के तौर पर भाजपा के परंपरागत वोटबैंक में सेंध लगाने के लिये नितीश के पक्ष में अपना समर्थन व्यक्त करने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी पहुंच गये हैं जिनकी तमाम एनजीओ के बीच लोकप्रियता व स्वीकार्यता सर्वविदित ही है। लगे हाथ गुजरात में पटेल आरक्षण का आंदोलन छेड़नेवाले हार्दिक पटेल ने भी नितीश को ‘अपना’ बताकर मोदी विरोधियों को एकजुट होने का संदेश दे दिया है जिसे भुनाने में नितीश शिद्दत से जुट गये हैं। हालांकि यह सूरतेहाल तो तब है जब धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ ने आपस में सीटों का बंटवारा करके अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है। लेकिन अब अगर भगवाखेमे को समुचित, संतुलित व सर्वमान्य तरीके से सीटों का बंटवारा करने में कामयाबी नहीं मिली तो इसके घटक दलों की महत्वाकांक्षाओं का विस्फोट ऐसे तिकड़मी हुड़दंगियों की तादाद में इजाफा ही करेगा जो अपने दम पर रोटी सेंकने में भले सक्षम ना हों लेकिन दूसरे की पकी पकाई खिचड़ी में मिट्टी डालना बखूबी जानते हैं। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

भाजपा नेतृत्व के निशाने पर आए शत्रुघ्न 

बिहार चुनाव के बाद होगी अनुशासनात्मक कार्रवाई

नवकांत ठाकुर

संगठन व सरकार में सम्मानजनक स्थान नहीं मिलने की टीस का मुजाहिरा करते हुए शत्रुघ्न सिन्हा ने इन दिनों अपने बागी तेवरों व विवादास्पद बयानों से भाजपा के लिये जिस कदर असहज स्थिति उत्पन्न की हुई है इसके नतीजे में वे पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के सीधे निशाने पर आ गये हैं। हालांकि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर फिलहाल उनके मामले में संयम बरतना ही बेहतर समझा है लिहाजा उनके किसी भी बयान पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी जा रही है। लेकिन पार्टी नेत्त्व ने साफ कर दिया है कि उनकी मौजूदा हरकतों को कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है और चुनाव समाप्त होने के फौरन बाद इन तमाम मसलों को लेकर उनके खिलाफ ठोस व कड़ी कार्रवाई करने में कतई कोताही नहीं बरती जाएगी। 
वास्तव में देखा जाये तो केन्द्र में भाजपा की सरकार बनने के कुछ ही अर्से के बाद से शत्रुघ्न ने अपने बागी तेवरों का मुजाहिरा करना आरंभ कर दिया था। इसी सिलसिले में उन्होंने पार्टी के हर उस नेता की तरफदारी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जिसने पार्टी लाईन के बाहर जाकर बयानबाजी की हो। मामला चाहे पार्टी के बुजुर्ग नेताओं को संगठन व सरकार से अलग करके मार्गदर्शक बना दिये जाने का हो या फिर दरभंगा के सांसद कीर्ति आजाद द्वारा ललित मोदी विवाद में सुषमा स्वराज का नाम सामने आने के लिये पार्टी की आस्तीन में छिपे सांपों की ओर इशारा किये जाने का। हर मामले में शत्रुघ्न ने सार्वजनिक तौर पर पार्टी नेतृत्व के फैसलों के खिलाफ ही अपना विचार व्यक्त किया। यहां तक कि बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सरीखे भाजपा के धुर विरोधियों का भी दिल खोलकर गुणगान करने में उन्होंने कभी कोताही नहीं बरती। एक ओर भाजपा ने बिहार में लगातार नितीश के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है जबकि शत्रुघ्न सार्वजनिक तौर पर नितीश की तारीफ में कसीदे काढ़ते नहीं थक रहे हैं। भाजपा के किसी जमीनी कार्यक्रम में शिरकत करना भले ही वे जरूरी ना समझते हों लेकिन नितीश के हर बुलावे पर दौड़ते हुए चले जाना उनकी आदत में शुमार हो गया है। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा नितीश को विश्वासघाती डीएनए वाला नेता बताये जाने का पुरजोर विरोध करने में भी शत्रुघ्न ने कोई कसर नहीं छोड़ी। बताया जाता है कि शत्रुघ्न के इस मित्रवत व्यवहार से अभिभूत होकर उनके पिता के नाम पर पटना के एक अस्पताल का नामकरण करने के बाद अब नितीश ने आगामी चुनाव में उनकी पत्नी को अपनी पार्टी से टिकट देने का भी फैसला कर लिया है। जाहिर तौर पर शत्रुघ्न की इन तमाम हरकतों व नितीश के साथ जारी उनकी सियासी जुगलबंदी से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का नाराज होना स्वाभाविक ही है। लेकिन अब सीधे तौर पर पार्टी लाईन से बाहर जाते हुए उन्होंने जिस तरह से बिहार में चुनाव से पहले ही मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी का नाम घोषित किये जाने की मांग करते हुए लोजपा अध्यक्ष रामविलास पासवान को राजग की ओर से मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाये जाने का विचार व्यक्त कर दिया है उससे पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के सब्र की इंतहा हो गयी है। यही वजह है कि भाजपा के एक शीर्ष रणनीतिकार ने नाम नहीं छापे जाने की शर्त पर बेलाग लहजे में यह बताने में कोई कोताही नहीं बरती है कि पार्टी ने बिहार चुनाव से फारिग होने के फौरन बाद पहली फुर्सत में शत्रुघ्न को सबक सिखाने का पक्का मन बना लिया है। उन्होंने बताया कि इस समय शत्रुघ्न के खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने का बिहार के चुनाव पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशंका के मद्देनजर फिलहाल उनके बयानों व हरकतों की अनदेखी करने का ही फैसला किया गया है और उनकी किसी भी बात का किसी भी स्तर से कोई भी जवाब नहीं देने की रणनीति अपनायी गयी है। लेकिन चुनाव सम्पन्न होने के बाद उन्हें अपनी हर हरकत का समुचित जवाब व हिसाब देना ही होगा।  

सोमवार, 24 अगस्त 2015

               

‘नतीजा न निकला है, न निकालने की मंशा है!’

नवकांत ठाकुर

हरिवंश राय बच्चन लिखते हैं कि ‘इश्वर है-नहीं है, पर बहस है, नतीजा न निकला है, न निकालने की मंशा है, कम क्या बतरस है!’ वाकई कुछ मसलों का हल आज तक ना तो निकल सका है और ना निकालने की मंशा दिखाई गयी है। अलबत्ता बहस अवश्य चलती रहती है जिसमें बतरस से आगे बढ़कर बहस को निर्णायक मोड़ पर लाने की मंशा किसी की नहीं होती। वैसे भी अगर सभी अपनी सोच पर ही अड़े रहें, एक दूसरे की बात सुनना व समझना भी गवारा ना करें, परस्पर एक दूसरे को नीचा दिखाने का कोई भी मौका हाथ से जाने ना दें और अपनी सोच को ही सर्वोपरि मानते रहें तो किसी भी बहस या चर्चा का कोई सार्थक व सर्वसम्मत नतीजा निकलने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। यही स्थिति भारत व पाकिस्तान के मामले में भी देखी जा रही है जिसमें दशकों से जारी मतभेद, खुंदक व रंजिश का हल तलाशने की कोशिशें तो लगातार होती रही हैं। लेकिन सवाल है इन कोशिशों के पीछे की इमानदारी का। हकीकत तो यही है कि दशकों से उलझे हुए आपसी रिश्ते के धागों को सुलझाने के लिये आवश्यक गंभीरता, शिद्दत व इमानदारी का आज भी काफी हद तक अभाव ही दिख रहा है। खास तौर से दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की वार्ता को लेकर इस दफा जमीनी स्तर पर जो भारी तमाशे का माहौल बना उसके पीछे पाकिस्तान की नापाक खुराफातें व चालबाजियां तो जिम्मेवार रही ही हैं, लेकिन कुछ हद तक हमारे हुक्मरानों की भी नीतियां व पहलकदमियां ऐसी रही जिससे अगर परहेज बरता जाता तो वार्ता की सफलता, सार्थकता व परिणामदायकता पर हर्गिज सवालिया निशान नहीं लगता। मसलन अगर पाकिस्तान ने परंपरागत तौर पर कश्मीरी अलगाववादी नेताओं को इस बैठक से पूर्व विचार विमर्श के लिये बुला ही लिया तो इस पर हाय-तौबा मचाने के बजाय खामोशी के साथ वही रणनीति अपनायी जा सकती थी जिसका मुजाहिरा अंतिम समय में शब्बीर शाह को दिल्ली में दाखिल होते ही हिरासत में लेकर किया गया। वैसे भी सरहद पर जारी गोलाबारी का करारा जवाब तो हमारी ओर से दिया ही जा रहा है। साथ ही सरहद पार कर हमारी शांति भंग करने के प्रयासों को भी परवान नहीं चढ़ने दिया जा रहा है। विश्व बिरादरी के सामने भी पाकिस्तान को बेनकाब करने में हम पहले ही कामयाब हो चुके हैं और इस्लामिक देशों से लेकर अमेरिका सरीखे उसके तमाम हिमायतियों, संरक्षकों व दानदाताओं को एक-एक उससे लगातार दूर किया ही जा रहा है। ऐसे में पाकिस्तान की हर खुराफाती तिकड़म को नाकाम करते हुए हर स्तर पर उसे उसकी ही भाषा में ठोस, करारा व माकूल जवाब देकर जब उसकी खीझ, कसमसाहट व तिलमिलाहट का पूरे गरिमापूर्ण तरीके से भरपूर मजा लिया जा सकता था तो फिर बेवजह हाय तौबा मचाकर जमीनी स्तर पर भारी तूफान का सुत्रपात करने की जरूरत ही क्या थी। वह भी तब जब इस बैठक को अपनी ओर से निरस्त या स्थगित नहीं करने का सैद्धांतिक फैसला पहले ही लिया जा चुका था और गुरदासपुर में हुए आतंकी हमले में शामिल पाकिस्तानी हमलावर नवेद को जिंदा पकड़ने में कामयाबी हासिल हो चुकी है। ऐसे में तो पाकिस्तान द्वारा औपचारिक तौर पर ठोस गलती किये जाने का इंतजार करना ही सबसे बेहतर विकल्प हो सकता था। वैसे भी जब हम अलगाववादियों को पाकिस्तानी एनएसए से मुलाकात करने से रोकने में पूरी तरह सझम हैं तो फिर बेवहज पाकिस्तान को इस बावत औपचारिक ‘एडवायजरी’ भेजने और विदेश सचिव को आगे करके उसे चिढ़ाने-खिझाने व आईना दिखाए जाने की जरूरत ही क्या थी। यहां तक कि जब पूरे विवादों, अटकलों व कयासों को खारिज करते हुए पाकिस्तानी एनएसए ने सार्वजनिक तौर पर दोपहर के वक्त ही यह बता दिया कि वे ऊफा वार्ता में तय किये गये दायरे का अनुपालन करते हुए बिना किसी पूर्व शर्त के वार्ता करने के लिये तैयार हैं तो फिर शाम के वक्त हमारी विदेशमंत्री को ऐसी प्रेसवार्ता करने की जरूरत ही क्यों पड़ी जिसके नतीजे में पाकिस्तान को वार्ता से पीछे हटने का बहाना मिल गया। यानि जाहिर तौर पर भारत की ओर से इस वार्ता के मामले जो कूटनीतिक राह अख्तियार की गयी उसका मकसद तो यही समझा जा सकता है कि विश्व स्तर पर पाकिस्तान को बदनाम किया जाये और भारी तनाव के कारण वार्ता नहीं हो पाने का ठीकरा भी उसके सिर ही फोड़ दिया जाये। लेकिन सवाल है कि ऐसी मंशा के साथ बनाये गये दबाव के नतीजे में अगर पाकिस्तान को ऊफा वार्ता में तय किये गये दायरे में रहते हुए बिना शर्त बातचीत की टेबल पर आने के किये मजबूर भी कर दिया जाता तो इस बैठक से कोई सार्थक नतीजा सामने आने की क्या उम्मीद की जा सकती थी। वैसे भी यह तो पाकिस्तान को पहले से ही पता था कि यह वार्ता सिर्फ आतंकवाद पर चर्चा करने के लिये ही आयोजित की जा रही है। तभी तो पाकिस्तानी एनएसए ने यह स्वीकार करने से परहेज नहीं बरता कि इस बार के दिल्ली दौरे में वे भारतीय हुक्मरानों से यह जानकारी भी लेना चाहेंगे कि कश्मीर के मसले को सुलझाने के लिये किस स्तर का मैकेनिज्म बनाने की उनकी चाहत है। बहरहाल इन पूरे घटनाक्रमों को समग्रता में देखा जाये तो ‘शठे शठ्यम समाचरेत’ की मौजूदा रणनीति में थोड़ी तब्दीली लाते हुए अगर भविष्य में उद्दंड बालक के साथ सख्त व सकारात्मक शिक्षक सरीखा बर्ताव किया जाये तो ना सिर्फ यह भारत की गरिमा, प्रतिष्ठा व परंपरा के अनुरूप होगा बल्कि इसका परिणाम भी सुखद व सार्थक ही रहेगा। 

गुरुवार, 20 अगस्त 2015

अपनी ओर से बातचीत का दरवाजा बंद नहीं करेगा भारत 

पाकिस्तान के मसले पर किसी भी दबाव के सामने नहीं झुकेगी सरकार

नवकांत ठाकुर

पाकिस्तान के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की बातचीत से पहले भले ही पड़ोसी देश ने उकसावे की कूटनीति पर अमल करते हुए जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी नेताओं को नई दिल्ली स्थित अपने दूतावास में बातचीत के लिये आमंत्रित किया हो लेकिन इस मसले पर मच रहे चैतरफा हंगामे के बावजूद भारत सरकार ने इस मामले को अधिक तवज्जो देना मुनासिब नहीं समझा है। केन्द्र सरकार की ओर से साफ लहजे में यह संकेत दे दिया गया है कि ऊफा में हुई दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की बैठक में हुए समझौते के तहत दिल्ली में आयोजित हो रही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की इस बैठक को निरस्त या स्थगित करने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है। हालांकि सरकार ने यह भी स्पष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है कि पाकिस्तान की ओर से भारत के खिलाफ जो भी शरारती व खुराफाती हरकतें की जा रही है उसका सटीक व करार जवाब देने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी। साथ ही सरकार की ओर से यह जताने में भी कोई कोताही नहीं बरती गयी है कि पाकिस्तान द्वारा अलगावावादियों के साथ गलबहियां किये जाने, सरहद पर संघर्ष विराम का उल्लंघन करके अशांति का माहौल बनाये जाने, सीमापार से आतंकियों की खेप भेजे जाने, सुरक्षा परिषद में कश्मीर के मसले को नये सिरे से उठाने का प्रयास किये जाने और पेशावर में हुए आतंकी हमले का दोष भारत के सिर मढ़ने की कोशिश किये जाने सरीखे मामलों को लेकर विपक्ष से लेकर सत्तापक्ष के भी कई शीर्ष नेताओं द्वारा फिलहाल बातचीत का दरवाजा बंद किये जाने का जो दबाव बनाने की कोशिश हो रही उसे अधिक तवज्जो देना कतई उचित नहीं होगा। 
वास्तव में देखा जाये तो पिछले दिनों गुरदासपुर में हुए आतंकी हमले में जिंदा पकड़े गये आतंकी नावेद के मामले ने पाकिस्तान को इस कदर बैकफुट पर ला दिया है कि फिलहाल वह भारत के साथ नजरें मिलाकर द्विपक्षीय बातचीत करने से बचने की कोशिशों में जुट गया है। इन्हीं कोशिशों के तहत उसने भारत को उकसाने की हरसंभव हरकतें शुरू कर दी हैं ताकि एक ओर उसे फिलहाल इस मामले की सफाई देने से बचने का अवसर मिल जाये और दूसरी ओर विश्व बिरादरी के सामने यह प्रचारित करने का भी मौका मिल जाये कि भारत ही बातचीत के माध्यम से विवादों का हल निकालने का इच्छुक नहीं है। लेकिन पाकिस्तान की इस नापाक नीयत को भारत भी अच्छी तरह समझ रहा है लिहाजा अपनी ओर से वार्ता पर विराम लगाने की पहल करने से परहेज बरतने की नीति अपनायी जा रही है। हालांकि पिछले साल भी इस्लामाबाद में होनेवाली विदेश सचिव स्तर की बातचीत से पूर्व पाकिस्तान ने ऐसी ही खुराफात को अंजाम देते हुए अपने दिल्ली दूतावास में जम्मू कश्मीर के अलगाववादी नेताओं को आमंत्रित कर लिया था जिस पर मचे बवाल के बाद भारत सरकार को वार्ता को स्थगित करने का फैसला करना पड़ा था। लेकिन इस बार उस कूटनीतिक गलती को दुहराने के लिये सरकार कतई तैयार नहीं है। यही वजह है कि विदेश मंत्रालय के उच्च पदस्थ सूत्रों से लेकर केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने भी बेलाग लहजे में यह जता दिया है राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की वार्ता पर विराम लगाना कतई उचित नहीं होगा। हालांकि पाकिस्तान की ताजा हरकतों का उल्लेख करते हुए विपक्षी दलों से लेकर पूर्व भाजपाई विदेशमंत्री यशवंत सिन्हा ने ही नहीं बल्कि शिवसेना सरीखे सरकार के घटक दलों व विहिप सरीखे भाजपा के सहोदर संगठनों ने भी आगामी 23-24 तारीख को नई दिल्ली में होनेवाली इस बातचीत को स्थगित किये जाने का भारी दबाव बनाया हुआ है। लेकिन सरकार का मानना है कि पिछले दिनों आतंकी नावेद को जिंदा पकड़ने में हासिल हुई कामयाबी के बाद इस समय कूटनीतिक स्तर पर भारत का पलड़ा काफी भारी हो गया है जिससे पाकिस्तान को शर्मसार करने व उसे सीधे रास्ते पर आने के लिये बाध्य करने का भारत को सुनहरा मौका मिल गया है। लिहाजा ऐसे समय में अपनी ओर से बातचीत का दरवाजा बंद करने के विकल्प पर विचार करना भी कतई सही नहीं होगा।  




बुधवार, 19 अगस्त 2015

‘नाव पर गाड़ी है या गाड़ी पर नाव......?’

नवकांत ठाकुर
इन दिनों यह पता करना बेहद मुश्किल हो गया है कि मीडिया का अनुसरण नेता कर रहे हैं या नेताओं का अनुसरण मीडिया। नाव पर गाड़ी है या गाड़ी पर नाव। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से जब उनके गठबंधन के सहयोगी लालू यादव से जुड़े सवाल पर प्रतिक्रिया मांगी जाती है तो वे पूरे मामले से ही अनभिज्ञता जाहिर करते हुए बेहद भोलेपन के साथ यह दलील देते हैं कि जब तक मीडिया नहीं बताएगा तब तक वे किसी भी मामले के बारे में कैसे जान सकते हैं। यानि सुशासन बाबू के नाम से प्रसिद्ध नितीश को यह स्वीकार करने से कोई परहेज नहीं हैं कि उनकी सियासत मीडिया का अनुसरण करते हुए ही आगे बढ़ रही है। दूसरी ओर मीडिया से तो वैसे भी यही अपेक्षा की जाती है कि वह नेताओं का अनुसरण करते हुए ना सिर्फ उन पर बारीकी से नजर रखे बल्कि उनकी पूरी हकीकत बिना किसी लाग लपेट के ज्यों का त्यों सार्वजनिक कर दे। इस लिहाज से देखा जाये तो मीडिया का काम ही है नेताओं का अनुसरण करना। लेकिन नितीश सरीखे नेता जब अपनी सियासी गाड़ी को मीडिया के नाव पर लाद कर चुनावी भवसागर पार करने की मुहिम में जुट जाते हैं तो यह पता करना मुश्किल हो जाता है कि आखिर कौन किसकी सवारी कर रहा है या कौन किसका अनुसरण कर रहा है। खैर, मसला यह नहीं है कि कौन किसकी सवारी कर रहा है बल्कि सवाल तो यह है कि सवारी का सवार सही दिशा में आगे बढ़ रहा है या नहीं। अगर रास्ता सही मंजिल की ओर जा रहा हो तो सवार या सवारी का मसला गौण हो जाता है लेकिन जब मंजिल कहीं और हो और राहेगुजर किसी और ही दिशा की ओर ले जा रहा हो फिर तो सवार और सवारी का सवाल उठना लाजिमी ही है। इस कसौटी पर परखा जाये तो इन दिनों जहां एक ओर मीडिया का जमीन से जुड़ाव लगातार कमजोर होता दिख रहा है वहीं नेताओं की भी मीडिया पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है। नेताओं का जनता से सीधा जुड़ाव कमजोर पड़ने का ही नतीजा है कि जिस व्यापम घोटाले को तूल देकर संसद से सड़क तक कांग्रेस ने भारी कोहराम मचाया हुआ था उसी मसले की आंधी के बीच हुए मध्य प्रदेश के जिन दस स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम सामने आये हैं उनमें से उसे महज एक ही जीत नसीब हुई है। जबकि पहले इनमें से छह निकायों पर कांग्रेस का ही कब्जा था। जाहिर है कि अगर व्यापम की जमीन इस कदर बंजर साबित होने के बारे में कांग्रेस को पहले से अंदाजा होता तो वह हर्गिज इस मसले को राष्ट्रीय स्तर पर इतने जोर-शोर से तूल नहीं देती। इसी प्रकार भाजपा का भी जमीन से जुड़ाव कमजोर होने का ही नतीजा है कि भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन के प्रस्ताव का जो प्रारूप इसने पेश किया उसके प्रति समूचे देश में भारी प्रतिक्रिया होने के बावजूद वह उसे मनचाहे स्वरूप में संसद से पारित कराने की जिद पर लगातार अड़ी रही। हालांकि विरोधियों, सहोदरों व साथियों द्वारा समाझाए जाने के बाद उसे समय रहते यह एहसास हो गया कि इस मामले में मनमानी का जमीनी स्तर पर भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। तभी तो जहां एक ओर सर्वसम्मति कायम करने की आड़ लेकर उसने विधेयक के प्रारूप में व्यापक बदलाव का फैसला कर लिया है वहीं दूसरी ओर इस पूरे मामले को बिहार विधानसभा चुनाव तक के लिये ठंडे बस्ते के हवाले करने से भी परहेज नहीं बरता गया है ताकि इसका चुनावी नुकसान झेलने से बचा जा सके। इन तमाम मसलों को समग्रता में देखा जाये तो ना तो राजनीतिक दलों व नेताओं ने इन दिनों किसी भी मसले के जमीनी असर का आंकलन करने की जहमत उठायी है और ना ही मीडिया ने जमीनी तौर पर मुआयना करके विवादास्पद मसलों के प्रति आम लोगों की भावना को सही तरीके से उजागर करना जरूरी समझा है। ऐसे में सियासी पार्टियों द्वारा जनभावना के विपरीत खड़ा किये गये तूफान को ही मीडिया भी हवा देती रही और जमीनी परिणाम के प्रति दोनों एक दूसरे पर ही निर्भर रहे। इसका खामियाजा कांग्रेस को मध्य प्रदेश में भुगतना पड़ा है जबकि भाजपा को भी भूमि विधेयक के मसले पर नीचा देखना पड़ा है। अब ऐसी ही हरकत बिहार में नितीश भी करते दिख रहे हैं। भाजपा की उड़ाई अफवाह को तूल देकर मीडिया ने लालू की छवि जंगलराज के महानायक की बना दी तो नितीश ने भी उनके साथ अपनी छवि को जोड़ने से परहेज बरत लिया। आलम यह है कि लालू के समर्थकों का वोट तो नितीश को चाहिये लेकिन लालू की छवि का लोड उठाने के लिये वे कतई तैयार नहीं हैं। नतीजन दोनों के रिश्तों का रायता अब सड़क पर फैलना शुरू हो गया है। खैर, अपेक्षित तो यही है कि नेता और मीडिया दोनों ही जमीनी जुड़ाव को लगातार मजबूत करके आगे बढ़ें और कोई भी एक दूसरे के झांसे में ना आए। लेकिन इन दिनों जिस तरह से जमीनी हकीकतों को नजरअंदाज करके दोनों की परस्पर एक दूसरे पर निर्भरता में लगातार इजाफा देखा जा रहा है उसका नकारात्मक परिणाम मीडिया की विश्वसनीयता पर तो पड़ ही रहा है परंतु असली खामियाजा तो नेताओं को ही झेलना पड़ेगा जिनका अस्तित्व ही हर चुनाव में दांव पर रहता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

सोमवार, 17 अगस्त 2015

‘दूल्हा बेकरार, बिचैलिये की पहल का इंतजार’

नवकांत ठाकुर
परंपरागत तौर पर होनेवाले शादी-ब्याह के मामलों में बिचैलियों की भूमिका किसी से छिपी हुई नहीं है। बिचैलिये ना हों तो ना लड़केवालों को मनचाही वधू मिल पाए और ना ही कन्यापक्ष को अपनी बिटिया के लिये सुयोग्य वर मिल पाए। ये बिचैलिये ही होते हैं जो वर-वधू पक्ष के बीच कड़ी की भूमिका निभाते हुए रिश्ते की बुनियाद तैयार करते हैं। खैर, बिचैलियों की भूमिका शादी-ब्याह के मामलों में जितनी महत्वपूर्ण होती है उससे जरा भी जीवन के बाकी क्षेत्रों में नहीं होती। चाहे मामला किसी वस्तु या सेवा की खरीद-फरोख्त का हो या किन्हीं दो पक्षों के बीच किसी भी मामले में सहमति की राह तैयार करने का। जाहिर है कि जब जीवन के हर क्षेत्र में बिचैलियों या मध्यस्थ की भूमिका इस कदर महत्वपूर्ण होती है तो फिर सियासत का क्षेत्र इससे अछूता कैसे रह सकता है। हकीकत तो यही है कि राजनीति के क्षेत्र में अगर बिचैलिये ना हों तो सत्तापक्ष व विपक्ष के बीच कभी सकारात्मक तालमेल कायम ही ना हो। मिसाल के तौर पर इन दिनों ‘वस्तु व सेवाकर अधिनियम’ यानि जीएसटी को पूर्वनिर्धारित समयसीमा के भीतर लागू कराने के लिये बेकरार दिख रही केन्द्र सरकार की तमाम उम्मीदों पर पानी फेरने की हर मुमकिन कोशिश कर रही कांग्रेस के बीच जिस कदर तनातनी व आर-पार की लड़ाई का माहौल बना हुआ है उसके मद्देनजर इनके बीच द्विपक्षीय बातचीत से आमसहमति बनने की तो उम्मीद भी नहीं की जा सकती। वैसे अगर इन दोनों ने आपसी बातचीत का झरोखा भी खुला छोड़ा होता तो शायद सहमति की कोई राह निकल भी सकती थी। लेकिन हकीकत तो यह है कि ये दोनों एक-दूसरे के साथ सीधे मुंह बात करने के लिये भी तैयार नहीं दिख रहे हैं। अलबत्ता मीडिया के माध्यम से जो बातचीत हो भी रही है उससे आग पर पानी की बजाय पेट्रोल ही पड़ रहा है। लेकिन सियासी लड़ाई अपनी जगह है और साझा फायदे के मसले को आगे बढ़ाने की बात बिल्कुल ही अलहदा मसला है। खास तौर से जीएसटी का मामला ऐसा है जिससे दोनों को फायदा ही होना है। वित्तमंत्री अरूण जेटली के मुताबिक जीएसटी लागू होने का असली व प्रत्यक्ष लाभ राजस्व में इजाफे के तौर पर तमाम सूबों की सरकार को ही मिलेगा। तभी तो जीएसटी को तयशुदा समयसीमा के तहत अगले वित्तीय वर्ष से लागू कराने के लिये जितनी बेकरार केन्द्र सरकार है उससे कतई कम कुल दस सूबों में सत्तारूढ़ कांग्रेस भी नहीं है। तभी तो शीर्ष कांग्रेसी नेताओं की जमात भी यह बताने से नहीं हिचक रही है कि उनकी पार्टी जीएसटी के खिलाफ कतई नहीं है। यानि दोनों तरफ है आग बराबर लगी हुई। लेकिन समस्या है कि इनके कूटनीतिक रिश्तों पर इनकी आपसी सियासी रंजिश इस कदर हावी हो गयी है कि सकारात्मक व साझा मुनाफे के मसले पर भी बातचीत का झरोखा नहीं खुल पा रहा है। किसी मसले पर एक ईंच भी करीब आने के लिये दोनों में से कोई तैयार नहीं है। जाहिर तौर पर अब यह मसला तभी सुलझ सकता है जब इन दोनों के बीच कोई ऐसा तीसरा पक्ष बिचैलिये की भूमिका निभाने के लिये तैयार हो जिस पर दोनों को पूरा विश्वास हो और जिसकी निष्पक्षता पर उंगली ना उठायी जा सके। सूत्रों की मानें तो कांग्रेस ने किसी को मध्यस्थ बनाने की पहल करना गवारा नहीं किया है क्योंकि उसकी सोच है कि चुंकि जीएसटी को पारित कराने की जिम्मेवारी सरकार की है लिहाजा मध्यस्थ के माध्यम से सहमति का फार्मूला उसकी ओर से ही पेश किया जाना चाहिये। इसमें राहत की बात यही है कि सरकार ने अपनी इस जिम्मेवारी को स्वीकार करते हुए सुयोग्य, सक्षम व निष्पक्ष बिचैलिये की तलाश काफी तेज कर दी है। हालांकि सरकार ने पिछले दिनों सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को इस काम पर लगाने की कोशिश अवश्य की थी जिसे मुलायम ने स्वीकार भी कर लिया था लेकिन उनकी निष्पक्षता पर कांग्रेस को भरोसा नहीं हुआ जिसके चलते उनको मध्यस्थ बनाकर पूरे मामले का हल निकालने की योजना परवान नहीं चढ़ पायी। खैर, सूत्रों की माने तो अब सरकार ने राकांपा सुप्रीमो शरद पवार को मध्यस्थ बनाने की कोशिशें काफी तेज कर दी हैं और भगवा खेमे को उम्मीद है कि पवार की निष्पक्षता पर कांग्रेस कतई सवाल नहीं उठाएगी। वैसे राकांपा संप्रग की घटक भी है और बिहार में कांग्रेस के साथ गठजोड़ करके चुनाव भी लड़ रही है। दूसरी ओर यह राकांपा ही थी जिसने भाजपा व शिवसेना के बीच भारी तनातनी के माहौल में अपनी ओर से बिन मांगे ही बिनाशर्त समर्थन देकर महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बनवायी थी। साथ ही राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस व भाजपा के बीच समानांतर दूरी कायम रखते हुए तमाम गैरकांग्रेसी विपक्ष को एक मंच पर लाकर तीसरे मोर्चे के गठन की पहल करके पवार ने अपने सियासी रसूख को भी इस कदर मजबूत कर लिया है कि उनकी मध्यस्थता में बनी सहमति की राह पर चलने से मुकरने का दुस्साहस ना तो कांगे्रस कर सकती है और ना ही भाजपा। यानि राष्ट्रीय सियासत में एक बार फिर से बिचैलिये की भूमिका ही निर्णायक साबित होनेवाली है लेकिन मसला यह है कि आपसी रिश्ते की मौजूदा संवादहीनता को बरकार रखने के नतीजे में अगर हर मसले पर इन दोनों को मध्यस्थ पर ही निर्भर होना पड़ा तो भविष्य में इन्हें इसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ सकती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

‘सियासी संतुलन के लिये तीसरे मोर्चे की तिकड़म’

नवकांत ठाकुर
भारी गतिरोध, हंगामे, शोर-शराबे और उठापटक के बीच किसी ठोस विधायी कार्य को अंजाम तक पहुंचाए बिना ही अपने अवसान तक पहुंचे संसद के मानसून सत्र ने यह सीख तो अवश्य दी है कि कांग्रेसनीत संप्रग व भाजपानीत राजग के बीच अगर किसी तीसरी निष्पक्ष ताकत को जगह नहीं मिली तो भविष्य में भी संसद का माहौल नकारात्मक ही रहने की संभावना से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है। हकीकत तो यही है कि राजग व संप्रग की अडि़यल व अक्खड़ कूटनीतियों के कारण ही इस सत्र के साढ़े तीन हफ्ते का पूरा अर्सा हंगामे की ही भेंट चढ़ गया। दोनों में से किसी भी पक्ष ने अंतिम समय तक ना तो रत्ती भर भी दबना या झुकना गवारा किया और ना ही इन्हें कभी यह एहसास हुआ कि इनकी आपसी रंजिश में बाकी दलों के हितों की किस कदर बलि चढ़ रही है। सच तो यही है कि पूरे सत्र के दौरान भाजपा व कांग्रेस के साथ समानांतर दूरी कायम रखनेवाले दलों का हित पूरी तरह हाशिये पर ही रहा और इनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की मानिंद पूरी तरह दब कर रह गयी। जहां एक ओर केन्द्र सरकार के खिलाफ आर-पार की लड़ाई का एलान करनेवाली कांग्रेस ने इनको विश्वास में लेकर अपनी रणनीति तय करने के बजाय ‘एकला चलो’ की राह पकड़ ली वहीं भाजपा ने भी संसद में जारी गतिरोध का तोड़ निकालने के लिये इनके साथ तालमेल बिठाने की पहल करना गवारा नहीं किया। हालांकि संसद के दोनों सदनों का आंकड़ा भी ऐसा है कि राज्यसभा में कांग्रेस के सांसदों की तादाद भाजपानीत राजग के संयुक्त संख्याबल से भी अधिक है जबकि लोकसभा में भाजपा खुद ही अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल कर चुकी है। यानि कांग्रेस के नजरिये से देखा जाये तो राज्यसभा में सत्तापक्ष की मनमानियों पर लगाम कसने के लिये उसे किसी अन्य के सहायता या सहयोग की आवश्यकता ही नहीं है जबकि लोकसभा में समूचे विपक्ष की भी इतनी हैसियत नहीं है कि वह सामान्य विधायी कार्य निपटाने में सरकार की राहों में अड़ंगा डाल सके। लिहाजा राज्यसभा में जब वह खुद ही सरकार की राह रोकने में पूरी तरह सक्षम है और लोकसभा में सिर्फ हंगामा मचाने या बवाल काटने के अलावा ठोस तरीके से सरकार की मनमानी में अड़ंगा डालना संभव ही नहीं है तो फिर स्वाभाविक तौर पर अपनी सियासी राह तय करने के लिये कांग्रेस को किसी और को साथ लेने की जरूरत ही क्या है। दूसरी ओर भाजपा के नजरिये से देखें तो अव्वल तो लोकसभा में वह खुद ही अपनी मनमानी करने में पूरी तरह सक्षम है जबकि राज्यसभा में बाकी विपक्ष के सहयोग व समर्थन का उसे तब तक कोई लाभ नहीं मिल सकता है जब तक कांग्रेस भी सदन की शांति-व्यवस्था कायम रखने में सहयोगी ना बने। जाहिर है कि जब संसद के दोनों सदनों का समीकरण पूरी तरह इन्हीं दोनों दलों पर केन्द्रित है तो इन दोनों की सियासत भी एक-दूसरे पर ही केन्द्रित होना लाजिमी ही है। वैसे भी संप्रग व राजग के अलावा बाकी दलों की स्थिति पूरी तरह छिन्न-भिन्न व बिखरी हुई है और अपने हितों व अपेक्षाओं को पूरा करने के लिये इन दोनों बड़े ध्रुवों में से किसी एक के साथ सम्बद्ध व सहमत होने के अलावा इनके पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है। तभी तो पूरा मानसून सत्र कांग्रेस व भाजपा की आपसी रंजिश की भेंट चढ़ जाने के बावजूद बाकी दलों का पक्ष जानना-समझना भी जरूरी नहीं समझा गया। हालांकि इसी समस्या का समाधान करने के लिये पिछले दिनों जनता परिवार के एकीकरण की नींव डालने की कोशिश अवश्य हुई थी लेकिन अव्वल तो जनता परिवार के जिन छह सहोदरों ने एक मंच पर आने की सैद्धांतिक सहमति दी थी उनके बीच सैद्धांतिक व व्यावहारिक मतभेद की खाई इतनी गहरी है कि उसे पाट पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल है और दूसरे इन सबों के एक मंच पर आने के बाद भी संसद में इनकी सदस्य संख्या नगण्य व निष्प्रभावी ही रहनी है। तभी तो अब नये सिरे से तीसरे मोर्चे के गठन की नींव डाली जा रही है जिसमें शुरूआती तौर पर जनता परिवार के अलावा राकांपा, तृणमूल कांग्रेस व एएपी को साथ लाने का प्रयास किया गया है। साथ ही इसका असली जुटान आगामी 22 सितंबर को दिल्ली में होगा जिसमें एकजुट होने के लिये तमाम गैरभाजपा व गैरकांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को आमंत्रित किया जा रहा है। वास्तव में देखा जाये तो इन दिनों जहां एक ओर कांग्रेस की कथित आत्मकेन्द्रित राजनीति ने भाजपा को बुरी तरह दुखी किया हुआ है वहीं भाजपा की कथित मनमानी व तानाशाही सियासत को स्वीकार करना कांग्रेस को भी नागवार गुजर रहा है। साथ ही इन दोनों पक्षों के अडि़यल व अक्खड़ रवैये से सियासत में सहमति व संतुलन की कोई राह निकालना भी टेढ़ी खीर साबित हो रही है। ऐसे में दोनों ही पक्षों द्वारा इस तीसरी ताकत के अभ्युदय को सकारात्मक सहयोग व समर्थन मिलना लाजिमी ही है। लेकिन इस पूरे समीकरण में आशंका सिर्फ इस बात की है कि ढ़ाई दशक के बाद गठबंधन सरकार की मजबूरी समाप्त होने के बाद क्षेत्रीय दलों की सौदेबाजी से जो निजात हासिल हुई है वही दौर दोबारा ना लौट आए और संतुलन के लिये कायम हो रहा तीसरा मोर्चा सौदेबाजी के लिये अस्तित्व में आया गिरोह बनकर ना रह जाये। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’    

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

‘बिना ढ़ाल तलवार के हुंकार भी बेकार’

नवकांत ठाकुर
जंग छेड़ने से पहले अपने हथियारों व सुरक्षा उपकरणों की पूरी बारीकी से जांच पड़तान नहीं करने का नतीजा कितना घातक हो सकता है इसकी बेहतरीन मिसाल आज संसद में देखने को मिली। दरअसल ललित मोदी के जिस मामले को लेकर कांग्रेस ने देश की सियासत में भारी तूफान खड़ा करते हुए संसद के मौजूदा मानसून सत्र को भी पूरी तरह बर्बाद कर दिया उसकी अंतिम परिणति इस कदर ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’ सरीखी होगी इसकी कल्पना तो शायद किसी ने भी नहीं की थी। खास तौर से तमाम विपक्षी दलों के मशविरे को दरकिनार करते हुए कांग्रेस द्वारा इस मुद्दे पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के इस्तीफे की जिद ठानना और संसद से सड़क तक चल रहे आंदोलन की अगुवाई करने के लिये कांग्रेस के शीर्ष संचालक परिवार का मैदान में उतर आना इसी बात का संकेत दे रहा था कि यह मामला जब पूरी तरह खुलेगा तो इसकी मार कईयों पर बहुत तगड़ी पड़ेगी। यहां तक कि खुद सोनिया द्वारा सुषमा को नौटंकीबाज बताया जाना और राहुल गांधी द्वारा उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया जाना भी यही बता रहा था कि इस मामले में कांग्रेस के पास बेहद पुख्ता तथ्य, सबूत व जानकारी उपलब्ध है। साथ ही राहुल ने सुषमा को अपराधी करार देते हुए उनसे यह भी पूछ लिया था कि उनके परिवार के लोगों के खाते में ललित के बैंक खाते से कितनी रकम आयी है। जाहिर है कि सुषमा पर लगाये गये भ्रष्टाचार के इस इल्जाम के बाद समूचे भगवा खेमे से यही अपेक्षा थी कि उसके तमाम वरिष्ठ-कनिष्ठ नेतागण सुषमा के बचाव में संसद से सड़क तक बेहद आक्रामक मोर्चा खोलने में कोई कसर नहीं छोड़ेगे। लेकिन अब इसे अंदरूनी राजनीति कहें या तयशुदा रणनीति का हिस्सा, हुआ यह कि राहुल द्वारा भ्रष्टाचार का इल्जाम लगाये जाने के बाद पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेताओं ने इस मसले पर कोई ठोस सफाई पेश करना गवारा ही नहीं किया। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो इस पूरे विवाद को लेकर संदेहों के वातावरण को पुख्ता करने में ना तो कांग्रेस ने कोई कसर छोड़ी और ना ही भाजपा के शीर्ष रणनीतिकारों ने। लेकिन आज लोकसभा में कार्यस्थगन प्रस्ताव के तहत हुई औपचारिक बहस के बाद जब पूरी हकीकत सामने आयी और दूध का दूध और पानी का पानी हो गया तब पूरे प्रकरण के औपचारिक, व्यावहारिक व प्रामाणिक पटाक्षेप के वक्त कांग्रेस इस कदर असहाय व अलग-थलग दिखी कि कुछ धुर भाजपाविरोधी दलों के अलावा उसको सांत्वना देने के लिये भी कोई आगे नहीं आया। यहां तक कि पूरी चर्चा को मुकम्मल अंजाम तक पहुंचाने के क्रम में वित्तमंत्री अरूण जेटली ने राहुल गांधी को अपने सीधे निशाने पर लिया और उनके खिलाफ बेहद सख्त व निजी टिप्पणियां करने की पहल की तो इस दौरान विपक्षी बेंच पर पूरी तरह शांति व खामोशी छायी रही। वास्तव में देखा जाये तो जिस मामले को कांग्रेस ने सरकार के खिलाफ ब्रह्मास्त्र के तौर पर इस्तेमाल करते हुए आर-पार का निर्णायक जंग छेड़ा हुआ था उसकी सटीकता व मारकता की अगर पहले ही पूरी तरह जांच-पड़ताल कर ली गयी होती तो आज उसे ऐसी नौबत हर्गिज नहीं झेलनी पड़ती। लेकिन हुआ यह कि उसने जंग में उतरने से पहले ना तो अपने हथियार की पड़ताल की और ना ही अपनी सुरक्षा के लिये ढ़ाल-कवच साथ रखने की परवाह की। नतीजन बिना मारक हथियार व पुख्ता ढ़ाल के ही विरोधी खेमे को निपटा देने की हुंकार पूरी तरह बेकार चली गयी। वास्तव में कांग्रेस की पूरी व्यूह रचना इस बात को आधार मानकर की गयी थी ललित मोदी बहुत बड़ा अपराधी है जिसे यात्रा दस्तावेज उपलब्ध कराने में मदद पहुंचाकर सुषमा ने और उसे अदालत से राहत दिलवाकर उनकी बिटिया ने बहुत बड़ा अपराध कर दिया है। लेकिन जब पूरे तथ्यों का छिलका उतरा तो यही पता चला कि पिछले महीने तक ललित के खिलाफ कोई ऐसी सरकारी या कानूनी कार्रवाई चल रही थी जिसके तहत उसे एक मिनट के लिये भी हिरासत में लिया जा सकता हो। साथ ही सुषमा की बिटिया द्वारा अधिवक्ता की हैसियत से अदालत में ललित का पक्ष रखे जाने के एवज में पैसा लेने की जो बात कही जा रही थी वह भी निराधार ही साबित हुई क्योंकि वह मुकदमा तो उस सीनियर वकील ने लड़ा था जिसकी जूनियर के तौर पर सुषमा की बिटिया वकालत का ककहरा सीख रही थी। खैर, भले ही इस पूरे विवाद में संसद का मानसून सत्र पूरी तरह धुल गया हो लेकिन गनीमत रही कि आखिर में सबने इस पर चर्चा कर ली और सारी बातें साफ हो जाने के बाद सियासी आसमान बिल्कुल साफ व चमकीला हो गया। लेकिन इस पूरे प्रकरण से दोनों पक्षों को यह सबक लेने की जरूरत है कि सियासी रंजिश निपटाने के लिये कोई भी जंग छेड़ने से पहले अपने ढ़ाल-तलवार की मजबूती व मारकता का बारीकी से मुआयना कर लें और मामला कितना ही बड़ा व गंभीर क्यों ना हो लेकिन बातचीत का झरोखा ही नहीं बल्कि दरवाजा भी खुला रखें। वर्ना, जिस तरह से इस मामले में कांग्रेस की साख को बट्टा लगा है, सरकार के कामकाज का नुकसान हुआ है, देश के विकास की गति बाधित हुई है और संसद का वक्त ही नहीं बल्कि इस पर खर्च होनेवाली रोजाना दो करोड़ के रकम की भी बर्बादी हुई है वैसी नौबत दोबारा कभी भी सामने आ सकती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  

बुधवार, 12 अगस्त 2015

‘खुद पर ही बरसता है क्यों खुद का गुस्सा’

नवकांत ठाकुर
‘फूल बरसे कहीं शबनम कहीं गौहर बरसे, और इस दिल की तरफ बरसे तो पत्थर बरसे, हम से मजबूर का गुस्सा भी अजब बादल है, अपने ही दिल से उठे अपने ही दिल पर बरसे।’ वाकई बशीर बद्र साहब की लिखी इन पंक्तियों का हर शब्द केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा की सोच व मानसिक स्थिति को प्रतिबिंबित करता हुआ ही प्रतीत होता है। हकीकत तो यही है कि संसद के मौजूदा मानसून सत्र को सुचारू ढंग से संचालित करने व विभिन्न बहुप्रतीक्षित विधेयकों को सदन से पारित कराने में हाथ आयी नाकामी के मद्देनजर भगवाखेमे में आक्रोश व गुस्से की लहर दौड़ना तो स्वाभाविक ही है। तभी तो रोजाना के राजनीतिक मसलों के प्रति बेहद तटस्थ व निरपेक्ष नजर आनेवाले लालकृष्ण आडवाणी सरीखे भाजपा के शीर्षतम मार्गदर्शक पर भी तिमिलाहट व कसमसाहट का भाव आज इस कदर हावी दिखाई दिया कि उन्होंने संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू के माध्यम से लोकसभा अध्यक्षा सुमित्रा महाजन को यह संदेश दिलाने में कोताही नहीं बरती कि सदन में जारी बवाल के प्रति उन्हें अपने सख्त रूख पर डटे रहना चाहिये। साथ ही सदन में जारी हंगामे के बीच आडवाणी का उदास व निराश होकर डबडबाई आंखों के साथ बाहर निकल आना भी यही दिखाता है कि संसद के मौजूदा हालातों ने सत्ताधारी खेमे को बुरी तरह विचलित कर दिया है। साथ ही संसद में जारी गतिरोध के सिलसिले ने जिस तरह से सरकार के हाथ-पांव बांध दिये हैं उसकी बेचैनी व छटपटाहट से भगवाखेमे के सब्र का बांध टूटने का ही नतीजा है कि आज सदन के वेल में आकर बैनर-पोस्टर लहराते हुए हंगामा मचा रहे विपक्षी सांसदों के बीच घुसकर बेहद आक्रोशित लहजे में कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को ललकारने से उमा भारती भी खुद को नहीं रोक पायीं। वास्तव में अब मौजूदा मानसून सत्र के समाप्त होने में महज दो दिन का वक्त ही बाकी बच गया है और इस बात के आसार दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रहे हैं कि अंतिम दो दिनों में भी सदन में कोई ठोस कामकाज हो पाएगा। कहां तो सरकार को प्राथमिकता के तहत अगले वित्तीय वर्ष से देश में वस्तु व सेवाकर अधिनियम (जीएसटी) को लागू करने के लिये आवश्यक 122वें संविधान संशोधन को राज्यसभा से पारित कराना था, भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन के प्रारूप पर आमसहमति बनानी थी और रियल एस्टेट विधेयक पर संसद के सहमति की मुहर लगवानी थी। लेकिन विपक्ष ने ऐसा गतिरोध बनाया हुआ है कि किसी मसले पर कायदे से चर्चा कराने या ज्वलंत मसलों पर संबंधित मंत्रियों को विस्तार से अपना औपचारिक बयान प्रस्तुत करने में भी कामयाबी नहीं मिल पा रही है। हालांकि सरकार की ओर से लगातार ‘साम, दाम, दंड व भेद’ सरीखे तमाम हथकंडे अपनाए गये लेकिन ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की।’ इसीका नतीजा है कि राज्यसभा में सबसे अधिक संख्याबल के दम पर कांग्रेस ने कोई कामकाज नहीं होने दिया है जबकि लोकसभा में भी सबसे बड़ा विपक्षी दल होने के नाते उसने सरकार की नाक में दम किया हुआ है। ऐसे में समस्या है कि सरकार करे भी तो क्या करे। बाकी विधेयकों को तो आगामी शीत सत्र के लिये भी टाला जा सकता है लेकिन अगर जीएसटी को अगले सत्र के लिये टालने की नौबत आयी तो अगले वित्तीय वर्ष से देश में इसे लागू करना नामुमकिन की हद तक मुश्किल हो जाएगा। इसका सीधा असर देश के अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर पड़ना पूरी तरह है क्योंकि मौजूदा हालातों में रिजर्व बैंक ने देश की जीडीपी तकरीबन साढे सात फीसदी रहने का जो अनुमान व्यक्त किया है उसमें जीएसटी के लागू होने पर न्यूनतम ढाई फीसदी की वृद्धि होना तय है। लेकिन वह तभी संभव है जब पहले तो संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई समर्थन से इसे पारित कराया जाए और उसके बाद देश की कम से कम 15 विधानसभा भी इस पर अपनी सहमति की मुहर लगाए। हालांकि कहने को तो वित्तमंत्री ने कह दिया है कि अगर कांग्रेस ने इसे अगले दो दिनों में पारित करने में सहयोग नहीं किया तो सरकार के पास इसे सदन से पारित कराने के और भी रास्ते हैं जिसमें संसद की विशेष बैठक बुलाया जाना भी शामिल है। लेकिन हकीकत यही है कि यह केवल कहने की ही बात है जो तिलमिलाहट की हालत में वित्तमंत्री ने कह दिया है वर्ना जिस विपक्ष ने पूरे सत्र में इसे पारित नहीं होने दिया है वह विशेष बैठक में इसे पारित करने में सरकार का सहयोग करगी, इसका क्या गारंटी है। लेकिन मसला है कि सरकार इसमें चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती। सिवाय तिलमिलाने, छटपटाने व बिलबिलाने के। यही तिलमिलाहट व छटपटाहट ऐसे गुस्से के तौर पर सामने आ रही है जिसमें ना सिर्फ प्रधानमंत्री खुद भी कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को देश के विकास में अवरोधक बता रहे हैं बल्कि वेंकैया नायडू व अरूण जेटली से लेकर सत्तापक्ष के तमाम वरिष्ठ-कनिष्ठ नेतागण कांग्रेस के शीर्ष संचालक परिवार को अपने सीधे निशाने पर लेने से परहेज नहीं बरत रहे हैं। खैर, तयशुदा योजनाएं पूरी नहीं हो पाने और चाह कर भी कुछ नहीं कर पाने की तिलमिलाहट से आक्रोश व गुस्से का पनपना तो स्वाभाविक ही है लेकिन हकीकत यही है कि अपनी ही नाकामियों के नतीजे में पनपे इस गुस्से का नुकसान तो खुद को ही झेलना पड़ेगा, किसी और की सेहत पर इससे कोई फर्क नहीं पड़नेवाला। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  

मंगलवार, 11 अगस्त 2015

‘मजबूरी के फैसलों पर मजबूती का मुलम्मा’

नवकांत ठाकुर
सियासत के अनगिनत रंगों में एक रंग ऐसा भी होता है जिसमें मजबूरी में लिये गये फैसलों पर भी मजबूती का मुलम्मा चढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है। तभी तो चैतरफा दबाव के कारण भूमि अधिग्रहण विधेयक में प्रस्तावित कई महत्वपूर्ण संशोधनों को वापस लेने के लिये मजबूर दिख रही केन्द्र सरकार कतई यह नहीं जताना चाह रही है कि उसने इस मसले पर किसी मजबूरी के कारण अपने कदम पीछे खींचने की तैयारी की है। साथ ही बिहार विधानसभा के चुनाव पर नकारात्मक असर पड़ने की संभावना के मद्देनजर इसे अगले सत्र तक के लिये टालने की जो पहलकदमी की गयी है उसमें खुले तौर पर चुनावी मजबूरियों का हवाला देना भी सरकार को गवारा नहीं हो रहा है। अलबत्ता अब सरकारयह प्रचारित करने के प्रयास में है कि वर्ष 2013 में कांग्रेस द्वारा पारित किये गये विधेयक में किसानों की सहमति से ही जमीन का अधिग्रहण करने की जिस व्यवस्था को समाप्त करने का उस पर इल्जाम लगाया जा रहा है वह तो पुराने विधेयक के अनुच्छेद 2/1 पर भी लागू नहीं था जिसके तहत तमाम जरूरतों के लिये जमीन अधिग्रहण की अनुमति दी गयी थी। यानि अधिग्रहण के लिये सहमति की व्यवस्था को स्वीकार करने के क्रम में सरकार यह जताना चाह रही है कि किसानों के हितों की रक्षा का जितना ठोस इंतजाम पुराने विधेयक में भी नहीं किया गया था उससे कहीं अधिक पुख्ता व्यवस्था वह अपने नये विधेयक में करने जा रही है। यानि मजबूरी में स्वीकार की जा रही सहमति से ही जमीन अधिग्रहण करने की व्यवस्था पर अपने मजबूत इरादों व नेकनीयती का मुलम्मा चढ़ाने में सरकार कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है। खैर, मजबूरी के फैसलों पर मजबूती का मुलम्मा चढ़ाने में तो विपक्ष भी पीछे नहीं दिख रहा है। मसलन आज कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे व शिवराज सिंह चैहान के इस्तीफे की मांग पर डटे रहने के बजाय सिर्फ सुषमा द्वारा यह बता दिये जाने पर ही संसद के सुचारू संचालन की राह तैयार हो जाने की बात कही है कि ललित मोदी के खाते से उनके परिजनों के खाते में कितना पैसा आया है। जाहिर है कि इस रणनीतिक बदलाव के पीछे भी कहीं ना कहीं कांग्रेस की वह मजबूरी ही छिपी हुई जिसके तहत बाकी विपक्षी दलों के साथ ही संगठन के भी काफी बड़े धड़े ने संसद को लगातार बाधित रखे जाने के प्रति अपना विरोध दर्ज कराना आरंभ कर दिया है। तभी तो अब राहुल की कोशिश केवल सुषमा को ही सार्वजनिक तौर पर शर्मसार करने की है लेकिन मजबूरी में अपनायी गयी इस रणनीति के पीछे भी मजबूती का तर्क गढ़ते हुए कांग्रेस यह समझाने में जुट गई है कि अगर ललित मोदी के वकील की हैसियत से अपने पति व बिटिया द्वारा उससे पैसा लिये जाने की बात को सुषमा ने स्वीकार लिया तो यह बात पूरी तरह साबित हो जाएगी कि जहां एक ओर अपने ओहदे व रसूख से सुषमा ने ललित की मदद की वहीं उसे अदालत में राहत पहुचाने का काम उनके पति व बिटिया ने किया जिसके एवज में उससे पर्याप्त रकम भी ऐंठी गयी। खैर, मजबूरी तो मुलायम सिंह यादव की उस मजबूत पहलकदमी में भी छिपी दिख रही है जिसके तहत संसद को बाधित रखने के मसले पर उन्होंने अब कांग्रेस का सहयोग नहीं करने का एलान किया है। कल तक तो सपा पूरी तरह कांग्रेस के पीछे लामबंद थी और जनता परिवार के जदयू सरीखे घटक दल ने तो आज भी इस मसले पर कांग्रेस का पुरजोर समर्थन करने की ही राह अपनाई हुई है। यहां तक कि सपा में भी इस बात पर आमसहमति बनने की गुजाइश बेहद कम है कि सत्तापक्ष व विपक्ष के बीच जारी आरपार की लड़ाई में किसी भी स्तर पर सपा का रूख सरकार के प्रति सकारात्मक दिखे। इन हालातों के बावजूद मुलायम ने अपने ‘वीटो पावर’ का इस्तेमाल करते हुए कांग्रेस से किनारा करने की जो पहल की है उसके पीछे राजनीतिक जानकार उनकी कई मजबूरियां गिनाते दिख रहे हैं। अव्वल तो यादव सिंह के मामले में सीबीआई की अति सक्रियता को सपा सुप्रीमो की ताजा मुलायमियत की वहज मानी जा रही है और दूसरे यूपी की सियासी मजबूरियां भी ऐसी हैं कि भाजपा के मुकाबिल कांग्रेस को खड़ा होने देना वे कतई गवारा नहीं कर सकते हैं। साथ ही बताया जाता है कि उनके समधी लालू यादव ने भी उन पर कांग्रेस से किनारा करने के लिये लगातार दबाव बनाया हुआ था क्योंकि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल ने ही संप्रग सरकार के कार्यकाल में लाये गये केबिनेट के उस प्रस्ताव को बेवकूफाना करार देते हुए फाड़कर रद्दी की टोकरी में फेंक दिया था जिसे कथित तौर पर अदालत से सजा मिल जाने के बाद लालू के राजनीतिक भविष्य की रक्षा के लिये तैयार किया गया था। खैर, लालू ने भी तो बिहार में जदयू द्वारा हर स्तर पर की जा रही तौहीन का जहर पीते हुए नितीश को मुख्यमंत्री पद का दावेदार स्वीकार करने का जो फैसला किया है वह मजबूरी का ही निर्णय है। बहरहाल, मजबूरी के फैसलों पर मजबूती का मुलम्मा चढ़ानेवाले राजनीतिक दल भले ही इस मुगालते में हो कि उनकी दिखायी तस्वीर पर सभी भरोसा कर लेंगे लेकिन हकीकत यही है कि ‘सच्चाई छिप नहीं सकती बनावट के उसूलों से, खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलों से। ’जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

सोमवार, 10 अगस्त 2015

‘लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पायी’

नवकांत ठाकुर
कहते हैं कि प्रकृति हर सांस का हिसाब रखती है। यहां कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता। सबका हिसाब होता है और बराबर हिसाब होता है। तभी तो संत कबीर ने कहा भी है कि ‘करम गति टारै नाहिं टरी।’ हालांकि जीवन के बाकी क्षेत्रों में इस सिद्धांत के लागू होने को लेकर हमेशा से विवाद रहा है लेकिन सियासत के क्षेत्र में तो निर्विवाद तौर पर यह सिद्धांत लागू होता ही है। अलबत्ता सियासत में तो अक्सर प्रकृति के इंसाफ का इंतजार करना भी गवारा नहीं किया जाता बल्कि सही मौका मिलते ही सूद समेत हिसाब चुकता कर लिया जाता है। खास तौर से सियासत में दोस्ती का रिश्ता भले ही कच्चे धागे सरीखा नाजुक व कमजोर होता हो लेकिन दुश्मनी का रिश्ता बेहद मजबूत होता है जिसे पूरी शिद्दत व इमानदारी से निभाया जाता है। दुश्मनी का हिसाब बराबर करने के लिये तो मौका मिलते ही चैका मारने से कोई नहीं चूकता। तभी तो सियासत में निजी दुश्मनी मोल लेने से सभी बचने की ही कोशिश करते दिखाई पड़ते हैं। लेकिन कई दफा राजनीतिक रंजिश निजी लड़ाई में भी तब्दील हो जाती है जिसमें बात की शुरूआत भले ही किसी छोटे से लम्हे में होती हो लेकिन वह तब समाप्त नहीं होती है जब तक दोनों में से कोई एक पक्ष पूरी तरह निपट ना जाए। मिसाल के तौर पर इन दिनों राष्ट्रीय राजनीति में विदेशमंत्री सुषमा स्वराज के खिलाफ कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का जो बेहद आक्रामक हमलावर रूख देखा जा रहा है उसकी वजह सतही तौर पर भले ही प्रवर्तन निदेशालय द्वारा भगोड़ा घोषित किये गये ललित मोदी को ब्रिटेन से यात्रा दस्तावेज दिलाने में उनके द्वारा की गयी मदद ही दिखाई पड़ रही हो लेकिन बारीकी से देखा जाये तो मौजूदा जंग की जड़े बीते वक्त के उन घटनाक्रमों में ही छिपी नजर आती हैं जिसमें सियासी फायदे के लिये सुषमा ने कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी के साथ निजी दुश्मनी का आगाज किया था। वक्त के पन्नों को पलट कर देखा जाये तो सोनिया के विदेशी मूल के मसले को राजनीतिक तौर पर तूल देने की शुरूआत सुषमा ने ही की थी। वह भी तब जब पहले सास और बाद में पति को राजनीति की बलिवेदी पर कुर्बान होता हुआ देखने के बाद अपने बचे-खुचे परिवार की सलामती के लिये सियासत में सक्रिय होने से इनकार करने के लंबे अर्से बाद सोनिया ने कांग्रेस को काल के गाल में समाने से बचाने के लिये उसकी कमान अपने हाथों में लेने की पहल की थी। अव्वल तो वह वक्त सोनिया के लिये सियासत में सक्रिय होने का फैसला करना निजी तौर पर कतई आसान नहीं था और दूसरे कांग्रेस की लगातार कमजोर होती उन जड़ों को वह भावनात्मक रूप से भी कतई कमजोर होता हुआ नहीं देख पा रही थीं जिसे उनके पूरे परिवार ने पीढ़ी दर पीढ़ी अपने खून-पसीने से सींचा था। उन्ही दिनों भाजपा की ओर से सुषमा ने सोनिया के खिलाफ निजी लड़ाई की शुरूआत करने के क्रम में उनके विदेशी मूल के मसले को जमकर तूल देते हुए सियासत में उनकी शुरूआत को ही खटास से भर दिया। सोनिया ने जब अस्ताचलगामी दिख रही कांग्रेस की कमान संभालते हुए वर्ष 1999 के लोकसभा चुनाव में अमेठी के अलावा बेल्लारी से भी अपना पर्चा दाखिल किया तो उनकी राह रोकने के लिये सुषमा ने भी चुनाव लड़ने के लिये बेल्लारी की सीट ही चुनी। साथ ही पूरे चुनाव प्रचार के दौरान सुषमा ने सोनिया के विदेशी मूल के मसले को तूल देते हुए ना सिर्फ उनकी देशभक्ति को सवालों के दायरे में लाने का भरसक प्रयास किया बल्कि पूरे चुनाव को उन्होंने ‘विदेशी बहू बनाम देसी बेटी’ का रंग देने में भी कोई कोताही नहीं बरती थी। हालांकि वहां सुषमा को सोनिया के हाथों तकरीबन 56 हजार वोटों से शिकस्त झेलनी पड़ी लेकिन सुषमा ने इससे हार नहीं मानी और उन्होंने लगातार सोनिया के विदेशी मूल के मसले को तूल देना जारी रखा। यहां तक कि 2004 के लोकसभा चुनाव में जब सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेसनीत संप्रग ने भाजपानीत राजग को पछाड़ते हुए केन्द्र में बहुमत हासिल किया तब भी सुषमा ने सोनिया के निजी विरोध का सिलसिला बदस्तूर जारी रखते हुए ऐलान कर दिया कि अगर विदेशी हाथों में देश की सत्ता आएगी तो वे ना सिर्फ बाल मुंडवाकर साध्वी बन जाएंगी बल्कि पूरा जीवन सूखे चने पर गुजार देंगी। जाहिर है कि यह सुषमा की ही लड़ाई का नतीजा था कि पूर्ण बहुमत का आंकड़ा हासिल होने के बावजूद सोनिया को सिर्फ इसलिये प्रधानमंत्री पद को ठुकराने के लिये मजबूर होना पड़ा ताकि कांग्रेस पर विदेशी हाथों में सत्ता की कमान सौंपने की तोहमत ना लगे। खैर, बाद में ना सिर्फ सर्वोच्च अदालत ने उन पर लगे विदेशी के ठप्पे को खारिज कर दिया बल्कि देश की आवाम ने भी उन्हें अपना पूरा स्नेह व समर्थन देने मे कोई कसर नहीं छोड़ी। लिहाजा विदेशी मूल का मसला तो वक्त के साथ समाप्त हो गया लेकिन सुषमा के प्रति उनके दिल में चुभी खटास की कील नहीं निकल सकी। लिहाजा अब सही मौका मिलने पर उन्होंने सुषमा के खिलाफ निजी तौर पर निशाना साधने की जो पहल की है उसे पुरानी रंजिश के नये अध्याय की शुरूआत का नाम देना ही उचित होगा जिसके लपेटे में अब सुषमा के पति व उनकी इकलौती बिटिया भी आती दिख रही है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

शनिवार, 8 अगस्त 2015

‘जाने क्यों परखने पर कोई अपना नहीं दिखता’

नवकांत ठाकुर
बशीर बद्र साहब फरमाते हैं कि ‘परखना मत परखने से कोई अपना नहीं रहता, किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता।’ वाकई मौजूदा सियासी हालातों के मद्देनजर बशीर साहब की यह बात विदेशमंत्री सुषमा स्वराज के लिये सटीक तौर पर प्रासंगिक महसूस होती है। दरअसल सतही तौर पर तो समूचा भगवा खेमा इन दिनों सुषमा के समर्थन में पूरी तरह लामबंद दिख रहा है। भले ही ललित मोदी को ब्रिटेन सरकार से यात्रा दस्तावेज उपलब्ध कराने के मामले में सुषमा पर इस्तीफे का दबाव बनाने के लिये कांग्रेस ने संसद के मौजूदा मानसून सत्र को पूरी तरह बाधित किया हुआ हो लेकिन सत्तापक्ष ने भी साफ तौर पर बता दिया है कि इस मामले में उनसे कतई इस्तीफा नहीं लिया जाएगा। यहां तक कि संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू ने सुषमा को देश की पूंजी करार देते हुए यहां तक कह दिया है कि इस मामले में उनके खिलाफ कोई जांच भी नहीं करायी जाएगी। इसके अलावा कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा सुषमा को नौटंकीबाज बताये जाने और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा उन पर ललित से पैसा लेकर उसकी मदद करने का आरोप मढ़े जाने को केन्द्रीय मानव संसाधनमंत्री स्मृति इरानी ने जनादेश का अपमान करार देने से भी परहेज नहीं बरता है। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो सुषमा के पक्ष में लामबंद दिखने में सत्तारूढ़ भाजपा के सतह से लेकर शिखर तक के नेतृत्व ने कोई कोताही नहीं बरती है। लेकिन मसला यह है कि किसी के पक्ष में लामबंद दिखना एक बात है और वास्तव में किसी के पक्ष में प्राण-पण से खड़ा होना बिल्कुल ही अलग बात है। इस कसौटी पर अगर सुषमा के पूरे मामले को गहराई से परखा जाये तो समूचे भगवा खेमे व सत्तापक्ष की भूमिका सिर्फ उनके पीछे लामबंद दिखने तक ही सीमित नजर आती है। वास्तव में इस हकीकत से हर्गिज इनकार नहीं किया जा सकता है कि सुषमा को संगठन व सरकार से जितनी मदद मिलने की उम्मीद रही होगी उतनी उन्हें कतई नहीं मिल पा रही है। वर्ना ऐसा कैसे हो सकता है कि सुबह दस बजे उन पर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व द्वारा रिश्वतखोरी का इल्जाम लगाया जाये और देर शाम तक भाजपा की शीर्ष नीतिनिर्धारक समिति कही जानेवाली 12 सदस्यीय पार्लियामेंट्री बोर्ड के किसी भी सदस्य की जुबान से उनके समर्थन में एक शब्द भी ना निकले। जाहिर है कि इसके पीछे कोई गहरी राजनीति अवश्य छिपी हुई है जिसके तहत किसी भी सीमा तक जाकर सुषमा का बचाव करने के प्रति पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का असमंजस स्पष्ट दिखाई दे रहा है। वर्ना यह तो न्यूनतम अपेक्षा ही कही जाएगी कि देश को भ्रष्टाचारमुक्त शासन देने का खम ठोंकनेवाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सबसे रसूखदार मंत्रियों में शुमार होनेवाली सुषमा पर जब मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के सबसे ताकतवर नेता राहुल ने बेलाग लहजे में ललित की मदद करने के एवज में पैसा लेने का आरोप लगाया है तो समूचे संगठन व सरकार को पूरी आक्रामकता के साथ इसका जवाब देने के लिये आगे आना ही चाहिये था। लेकिन जमीनी वास्तविकता यह है कि राहुल द्वारा सुषमा पर लगाये गये आरोप का जवाब देने के लिये पार्टी ने स्मृति को आगे करके जो बात कहलवायी है उसमें राहुल पर तो उन्होंने वैसे ही निशाना साधा है जैसा वे अमेठी में चुनाव लड़ने के वक्त से ही साधती रही हैं लेकिन इसमें जिस संजीदगी, साफगोई व शिद्दत के साथ सुषमा का पक्ष रखे जाने की जरूरत थी उसमें काफी कमी देखी गयी। स्मृति ने निजी तौर पर सुषमा के पक्ष में कुछ भी कहने के बजाय सरकार के पक्ष से ही सारी बातें कहीं। इसी प्रकार सूत्रों की मानें तो राहुल व सोनिया की ओर से सुबह के वक्त हुए प्रहार के बाद सुषमा की इच्छा थी कि उनके बचाव में सरकार के सबसे वरिष्ठ मंत्री वेंकैया खुद सामने आकर मीडिया के माध्यम से कांग्रेस के आरोपों का जवाब दें और उनके पक्ष में पूरी सफाई पेश करें। लेकिन निजी तौर पर अनुरोध किये जाने के बावजूद वेंकैया ने सुषमा के लिये खुलकर सामने आना मुनासिब नहीं समझा अलबत्ता सुषमा की निजी गुजारिश का मान रखते हुए उन्होंने इतना ही किया कि एक संक्षिप्त वक्तव्य मीडिया में जारी कर दिया जिसमें उन आरोपों को निराधार बताया गया है जिस पर कल लोकसभा में सुषमा ने अपना स्वतःस्फूर्त वक्तव्य दिया था। इसके अलावा संगठन व सरकार की ओर से सुषमा पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप पर पूरी आक्रामकता के साथ जवाब देने के लिये कोई आगे नहीं आया। सूत्रों की मानें तो पार्टी के मीडिया विभाग ने राहुल के आरोपों का जवाब दिलाने के लिये दोपहर के वक्त एक औपचारिक प्रेस कन्फ्रेंस कराने की भरपूर कोशिश की लेकिन इसके लिये जितने भी केबिनेट मंत्रियों से बात की गयी उन सभी ने अपनी व्यस्तता का हवाला देते हुए इससे कन्नी काट ली जिसके कारण आज पार्टी की प्रेस बैठक भी नहीं हो पायी। खैर, माना कि सुषमा का बचाव करते हुए दिखने की औपचारिकता तो पूरी तरह निभाई जा रही है लेकिन इस काम को आधे-अधूरे व असमंजसपूर्ण तरीके से अंजाम देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लिये जाने के मद्देनजर भगवा खेमे के रणनीतिकारों को यह नहीं भूलना चाहिये कि इससे  जितना नुकसान सुषमा की सियासत को होगा उससे कहीं अधिक समग्रता में सरकार की छवि पर भी इसका नकारात्मक असर पड़ सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

‘मनवा कहै धरम, सिर पै चढ़े करम’

नवकांत ठाकुर
केन्द्र की भाजपानीत राजग सरकार की मौजूदा कार्यप्रणाली बिल्कुल वैसी ही दिख रही है जिसके बारे में संत कबीर ने लिखा है कि ‘मनवा तो फूला फिरै, कहै जो करूं धरम, कोटि करम सिर पै चढ़े, चेति न देखे मरम।’ अपने मन से बेहतरीन काम करने के प्रति यह सरकार पूरी तरह निश्चिंत है। इसके लिये ना तो इसे किसी के परामर्श की आवश्यकता होती है और ना ही साथ या सहयोग की। तभी तो कांग्रेस के 25 सांसदों को पांच दिनों के लिये सदन से निलंबित किये जाने के विरोध में लोकसभा की बैठक का बहिष्कार कर रहे विपक्षी दलों के प्रति अपने आक्रोश का इजहार करते हुए केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद औपचारिक तौर पर यह बताने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं कि विधायी कार्य संपादित करने के लिये उनकी सरकार को विपक्ष के सहयोग या समर्थन की कोई जरूरत नहीं है। जाहिर है कि जिस सरकार के मंत्रियों की मानसिकता इस कदर आत्मकेन्द्रित व ‘एको अहं द्वितीयं नास्ति’ सरीखी होगी उस पर मनमानी व तानाशाही बरतने का आरोप तो लगेगा ही। अपनी सोच को ही पूरा सही मानने की इसी मानसिकता के तहत वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने नरेन्द्र मोदी को देश के लिये भगवान का वरदान भी करार दे दिया। जाहिर है कि सत्तापक्ष की ऐसी सोच से विपक्ष तो कतई इत्तफाक नहीं रख सकता है। लेकिन सत्तापक्ष की जिद है कि विपक्ष भी उसकी सोच को ही पूरा सच माने। उसके द्वारा किये जानेवाले हर काम का दिल खोलकर गुणगान करे। लेकिन मसला यह है कि जब सत्ता में बैठे लोग किसी भी मसले पर ना तो विपक्ष से सलाह-मशविरा करते हों और ना ही संबंधित मामले से जुड़े पक्षों व विभागों को विश्वास में लेना या उसके साथ सूचनाएं साझा करना गवारा कर रहे हों तो ऐसे में उनकी पहलकदमियों का आंख मूंदकर गुणगान करना कैसे संभव है। मिसाल के तौर पर संसद में सुषमा स्वराज ने ललित मोदी के मसले पर जो बयान दिया है वह बेशक बेहद भावनात्मक व मानवीय सरोकारों से लबरेज हो और उन्होंने ब्रिटिश सरकार को जो पत्र लिखा था उसमें किसी नियम, कायदे व दायरे का उल्लंघन नहीं किया गया हो। लेकिन इस सच को कैसे झुठलाया जा सकता है कि विदेशमंत्री की हैसियत से उन्होंने ब्रिटिश सरकार को जो पत्र लिखा था उसके बारे में ना तो उन्होंने तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह को कोई जानकारी दी और ना ही ब्रिटेन स्थित भारतीय दूतावास को कुछ बताना जरूरी समझा। ऐसे में विदेशमंत्री की हैसियत से स्वघोषित तौर पर कैंसर की बीमारी से जूझ रही ललित की पत्नी की मदद करने के लिये कथित मानवीय आधार पर की गयी पहलकदमी सही थी या गलत इस पर भले ही बहस की गुंजाइश दिखती हो लेकिन उन्होंने जिस मनमाने तरीके से इस काम को अंजाम दिया उसे कैसे सही कहा जा सकता है। इसी प्रकार पूर्वोत्तर राज्यों में दशकों से जारी अलगाववादी लड़ाई पर विराम लगाने के लिये प्रधानमंत्री ने जो नागा समझौता किया है उसे भले ही ऐतिहासिक व बेहतरीन मानने से कोई भी संकोच ना करे लेकिन इस समझौते को साकार रूप देने की प्रक्रिया में किसी भी सूबे की सरकार को शामिल करना जरूरी नहीं समझे जाने को कैसे सही कहा जा सकता है। थोड़ी देर के लिये अगर यह मान भी लिया जाये कि ना तो ललित की सहायता करने के पीछे सुषमा का कोई निजी लोभ-लाभ छिपा था और ना नागा समझौते की शर्तों को स्वीकार करने के क्रम में प्रधानमंत्री ने अपनी राष्ट्रवादी मंशा से कोई समझौता किया है लेकिन इन पहलकदमियों को मनमाने तौर-तरीकों से अंजाम दिये जाने का मसला तो विवादों में घिरना लाजिमी ही है। स्वाभाविक तौर पर विपक्ष को तो इस तरह का सवाल उठाना ही चाहिये लेकिन ऐसा करने पर उसकी देशभक्ति व राष्ट्रहित की सोच को ही कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। अब ऐसा ही विवाद आगामी दिनों में तीस्ता जल बंटवारे को लेकर भी उठनेवाला है क्योंकि पश्चिम बंगाल से होकर बांग्लादेश को जानेवाली तीस्ता नदी के पानी पर अधिकार को लेकर जारी विवाद सुलझाने के लिये बांग्लादेश के साथ जिस समझौते के प्रारूप पर बात चल रही है उसके प्रति पश्चिम बंगाल की सरकार को विश्वास में लेना या उसे भी एक पक्षकार के तौर पर बातचीत में शामिल कतई जरूरी नहीं समझा गया है। लिहाजा कल को अगर केन्द्र सरकार अपनी ओर से बांग्लादेश के साथ कोई ऐसा समझौता कर लेती है जिससे पश्चिम बंगाल के हितों में कटौती करके  पड़ोसी देश के साथ जारी विवाद को हमेशा के लिये समाप्त कर दिया जाता है तो इस मामले में भी उस पर तानाशाही नीतियां अपनाने का आरोप लगना लाजिमी ही है। खैर, इस तरह के मामलों को समग्रता में देखा जाये तो भले ही सरकार की नीति व नीयत में कोई गलती ना दिखे लेकिन उसकी कार्यनीति तो ऐसी ही है जिससे विपक्ष को ही नहीं बल्कि अक्सर उसके सहयोगियों व समर्थकों को भी ऐसा लगता है मानो उन्हें पूरी तरह ठेंगे पर रखा जा रहा हो। बहरहाल, लोकतांत्रिक अपेक्षाओं व कार्यप्रणालीय परंपराओं की अनदेखी का सिलसिला बदस्तूर जारी रखते हुए ‘मन के मते’ चलना बदस्तूर जारी रखा गया तो नीति व नीयत में पूर्ण शुचिता के बावजूद सरकार की तुगलकी व तानाशाही छवि बननी तय ही है जिसे विकेन्द्रित लोकशाही व्यवस्था में कतई स्वीकार्यता नहीं मिल सकती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

गुरुवार, 6 अगस्त 2015

‘गैर कहें तो है गाली पर अपनों की है कव्वाली?’

नवकांत ठाकुर
सियासत के रंग भी निराले हैं। विरोधी अगर कुछ कहे तो वह हो जाती है गाली। लेकिन वही बात अपने साथी व समर्थक कहें तो वह हो जाती है सुरीली कव्वाली। मसलन विरोधी दलों द्वारा कांग्रेसी सांसदों के सदन से निलंबन को लोकतंत्र की हत्या बताये जाने से बिफरे सत्तापक्ष द्वारा कांग्रेस को याद दिलाया जा रहा था कि उसने अपने शासनकाल में कितने सांसदों को कब-कब निलंबित किया और किस तरह देश पर आपातकाल लागू करके उसने लोकतंत्र की हत्या की। दलील दी गयी कि पिछले ग्यारह दिनों से सदन में जारी भारी कोहराम के मद्देनजर सख्त अनुशासनात्मक कार्रवाई करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा था। लेकिन अब जबकि विपक्षी सांसदों के निलंबन पर भाजपा के ही शत्रुघ्न सिन्हा सरीखे सांसदों ने दुख व तकलीफ जताने की पहल की है तो सरकार के सुर पूरी तरह बदले हुए दिख रहे हैं। पहले तो शत्रुघ्न के बयान पर केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने यह कहते हुए चुप्पी साध ली कि उन्होंने आजतक ना तो कभी शत्रुघ्न के किसी बयान पर कोई प्रतिक्रिया जाहिर की है और ना भी वे अब ऐसा करने की सोच सकते हैं। लेकिन संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू से जब इस बारे में प्रतिक्रिया मांगी गयी तो उनका सुर पूरी तरह बदला हुआ था। वेंकैया ने शत्रुघ्न के बयान को जायज करार देते हुए यहां तक कह दिया कि विपक्षी सांसदों के निलंबन से न सिर्फ वे बल्कि समूचा सत्ताधारी खेमा दुखी है। वेंकैया के मुताबिक सदन में विपक्ष की अपनी अलग अहमियत है और उसे दरकिनार करके संसद को सुचारू ढ़ंग से संचालित करने के बारे में सोचना भी उचित नहीं है। खैर, अब सवाल यह है कि समूचे विपक्षी खेमे की ओर से कही जानेवाली जो बात सरकार को गैरवाजिब व नागवार गुजर रही है वही अगर सत्ता पक्ष के सांसद कह रहे हों तो वह जायज कैसे हो सकती है। कायदे से तो जायज बात जायज और नाजायज बात नाजायज ही होनी चाहिये। भले वह बात किसी की भी जुबान से क्यों ना निकले। लेकिन सियासत का दस्तूर ही ऐसा है कि अपने लोगों की बात हमेशा सही ही महसूस होती है। तभी तो भूमि अधिग्रहण विधेयक में किये जानेवाले बदलावों के विरोध में समूचे विपक्ष द्वारा संसद से लेकर सड़क किया जानेवाला हंगामा सरकार की नजर में विकास विरोधी सोच का परिचायक था लेकिन वही बात जब भारतीय मजदूर संघ सरीखे सहोदर संगठनों से लेकर अकाली दल व शिवसेना सरीखे साथी दलों ने दुहराई तो सरकार को दुबारा इस मसले पर पुनर्विचार करने के लिये मजबूर होना पड़ा। अब इस विधेयक में तमाम उन बातों को जोड़ने के लिये सरकार सहमत दिख रही है जिसकी मांग समूचा विपक्ष शुरू ही से करता आ रहा है लेकिन सरकार यह मानने के लिये कतई तैयार नहीं है कि विधेयक के प्रारूप में बदलाव की बुनियाद विपक्ष के पुरजोर विरोध के कारण तैयार हुई है। सत्तापक्ष की दलील है कि विपक्ष तो विकास को बाधित करने के लिये विधेयक में किये जा रहे बदलावों का विरोध कर रहा था जबकि उसके अपने सहोदरों, समर्थकों व सहयोगियों ने जो बदलाव सुझाए हैं उसे इसलिये माना जा रहा है क्योंकि उन्होंने विधेयक पर सर्वानुमति बनाने के लिये ऐसा करने की सलाह दी थी। यानि विपक्ष की दलीलें तो सरकार को गाली सरीखी महसूस हो रही थीं लेकिन वही बात जब अपनों ने कही तो वह सत्तापक्ष के लिये कव्वाली सरीखी सुरीली बन गयी। तभी तो संयुक्त संसदीय समिति द्वारा विधेयक में सुझाये गये बदलावों को स्वीकार करने की राह पर आगे बढ़ रही सरकार ने इन बदलावों का श्रेय विपक्ष को देने के बजाय अपने साथियों को देने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। खैर, ऐसी ही तस्वीर सरकार के शीर्ष रणनीतिकारों के रवैये को लेकर की गयी टिप्पणियों के मसले पर भी देखी गयी जब जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव ने सरकार पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा अमल में लायी गयी आमसहमति व सबको साथ लेकर चलने की नीति से भटकने का आरोप लगाया तो सत्तापक्ष की त्यौरियां चढ़ गयीं लेकिन वही बात जब भाजपा के वरिष्ठतम मार्गदर्शक लालकृष्ण आडवाणी ने कही तो सबको सांप सूंघ गया। आडवाणी की बात पर औपचारिक तौर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की पहल तो किसी ने नहीं की अलबत्ता अनौपचारिक तौर पर यही बताया गया कि आडवाणी ने सरकार का अभिभावक होने के नाते जो बात कही है उसमें स्नेह व सहानुभूति ही छिपी हुई है। यानि शरद कोई बात कहें तो वह गाली और वही बात आडवाणी दोहराएं तो कव्वाली? ऐसे कई मामले है जो यह बता रहे हैं कि विरोधियों की बातों को सकारात्मक नजरिये से सुनना व गुनना कतई गवारा नहीं किया जा रहा है। साथ ही अपनों की बातों में कुछ भी नकारात्मक महसूस नहीं किया जा रहा है। जाहिर है कि विरोधियों की गाली जब अपनों की जुबानी कव्वाली सुनाई दे रही हो तो लाजिमी तौर पर इसके पीछे वह सियासी मजबूरी ही छिपी हुई है जिसके तहत अपनों की बातों पर नकारात्मक प्रतिक्रिया देने पर भारी फजीहत व छीछालेदर होने की संभावना काफी प्रबल हो जाती है। लेकिन सवाल यह है कि विपक्ष के प्रति इस कदर अविश्वास, नकारात्मकता व पूर्वाग्रह से ग्रस्त रहकर सबको साथ लेकर चलने का जो दिखावा किया जा रहा है उसकी अंदरूनी हकीकत को कैसे व कब तक छिपाया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’

बुधवार, 5 अगस्त 2015

‘बिना धागे की सुई से कैसे हो सिलाई......’

नवकांत ठाकुर
कपड़ा सिलने के लिये सुई का सख्त होना तो आवश्यक है लेकिन यह सख्ती  सिलाई में तभी सहायक हो सकती है जब सुई के पीछे लगा लचीला धागा कपड़े के दोनों कटे-फटे व अकड़े हुए किनारों को जकड़कर गूंथ दे। दूसरे शब्दों में कहें तो कटे-फटे किनारों को मजबूती के साथ जोड़ने के लिये सुई की सख्ती तो आवश्यक है लेकिन यह सख्ती लचीले धागे की गैरमौजूदगी में किसी काम नहीं आ सकती। सुई से तो महज सिलाई की शुरूआत ही संभव है। जोड़ने का काम तो धागा की करता है। कल्पना कीजिये कि सुई के पीछे धागा हो ही ना तो सिलाई की कोशिश का अंजाम कैसा होगा? ठीक यही हालत हो रही है केन्द्र सरकार की नीतियों के साथ भी। दरअसल मौजूदा सियासी गतिरोध व टकराव के बीच विपक्ष को अपने साथ जोड़ने की तमाम कोशिशें नाकाम रहने की असली वजह यही है कि सत्तापक्ष ने अपनी सख्त नीतियों की सुई के पीछे सुलह-समझौते का लचीला धागा पैवस्त ही नहीं किया है। नतीजन सख्ती की सुई इस मुगालते में लगातार आगे बढ़ती जा रही है कि उसके द्वारा लगाया गया टांका पूरी तरह कारगर व मजबूत रहेगा लेकिन हो यह रहा है कि सिलाई की कोशिश में सुई तो खरामा-खरामा आगे बढ़ती चली जा रही है लेकिन उसके पीछे विपक्ष के साथ सत्तापक्ष के रिश्तों का कटा हुआ हिस्सा कटे का कटा ही छूटता जा रहा है। इसी सिलसिले में पहले तो कांग्रेसशासित राज्यों में हुए घपले-घोटाले के मामलों को राष्ट्रीय स्तर पर तूल देकर विपक्ष को शर्मसार करने की भरपूर कोशिश की गयी। लेकिन जब कांग्रेस की सेहत पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा तो पार्टी के शीर्ष संचालक परिवार पर निजी हमला करके उसकी साख व प्रतिष्ठा को धूमिल करने की कोशिश की गयी। इसी क्रम में राहुल गांधी के खिलाफ कानूनी मुकदमा दर्ज कराने की धमकी देने के साथ ही राबर्ट वाड्रा व प्रियंका गांधी पर जमीन घोटाले का आरोप मढ़ने व उन्हें कानूनी प्रक्रिया में उलझाने की कोशिश हुई। राबर्ट के खिलाफ संसद की अवमानना का नोटिस देने से भी परहेज नहीं बरता गया। यहां तक कि कांग्रेस अध्यक्षा की ओर उंगली उठाकर सदन में उन्हें अपने दामाद के कथित करतूतों की जवाबदेही लेने के लिये मजबूर करने का प्रयास भी हुआ। लेकिन सत्तापक्ष की इन हरकतों से जब विपक्ष के गुस्से की आग में लगातार इजाफे का ही सिलसिला देखा गया तो आखिर में कांग्रेस के 44 में से 25 लोकसभा सदस्यों को कल पांच दिनों के लिये सदन से निलंबित भी कर दिया गया। हालांकि सरकार की दलील है कि कांग्रेसी सांसदों को निलंबित करने का फैसला लोकसभा अध्यक्षा सुमित्रा महाजन ने खुद ही किया है लेकिन कांग्रेस का आरोप है कि सुमित्रा ने सरकार के दबाव में यह फैसला लिया है। हालांकि लोकसभा अध्यक्ष के पद पर बैठे हुए व्यक्ति से अपेक्षा तो यही की जाती है कि वह दलगत राजनीति से अलग रहकर पूरी तरह निष्पक्ष रहेगा लेकिन एक तथ्य यह भी है कि लोकसभा अध्यक्ष के पद पर बैठे हुए व्यक्ति का वैचारिक व राजनीतिक जुड़ाव अक्सर सत्तापक्ष के साथ ही रहता है लिहाजा सरकार के दबाव व इशारे का असर उसके फैसलों व कामकाज पर दिखना लाजिमी ही है। खैर, लोकसभा अध्यक्षा के फैसलों का असर यह हुआ है कि कल तक सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे व शिवराज सिंह चैहान के इस्तीफे की जिद ठानने के कारण सदन में अलग-थलग पड़ती दिख रही कांग्रेस को नये सिरे से अन्य विपक्षी ताकतों के सहयोग व सहानुभूति की संजीवनी मिल गयी है। इससे कांग्रेस का उत्साह इस कदर बढ़ गया है कि उसने संसद को बाधित रखने की रणनीति में बदलाव के सैद्धांतिक फैसले को अमल में लाने से पहले ही दफन करने की राह पकड़ ली है। दूसरी ओर अपनी सख्त नीतियों के कारण पैदा हुई असहज स्थिति ने सत्तापक्ष को पूरी तरह बैकफुट पर ला दिया है। अब तो सरकार का प्रयास है कि किसी तरह कांग्रेसी सांसदों का निलंबन स्थगित हो ताकि मौजूदा बवाल व बदनामी से निजात मिल सके। दरअसल सरकार ने जब विपक्ष की जिद के जवाब में जोरदार पलटवार की नीति अपनाई थी तब उसका मानना था कि ईंट का जवाब पत्थर से मिलने पर विपक्ष दबाव में आ जाएगा और उसके साथ सुलह समझौते की राह तैयार करना आसान हो जाएगा। हालांकि शुरूआत में ऐसा हुआ भी और विपक्ष ने समझौते के लिये अपना कदम आगे बढ़ाने की पहल भी की लेकिन इससे सत्तापक्ष को लगने लगा कि अगर दबाव में अधिक इजाफा कर दिया जाये तो इस्तीफे की जिद छोड़कर जेपीसी के गठन की मांग उठाने का संकेत दे रहा विपक्ष अपनी तमाम शर्तें वापस ले लेगा और सरकार के सहूलियत की शर्तों पर संसद के संचालन में सहभागी बनना स्वीकार कर लेगा। इसी सोच के तहत ऐन मौके पर समझौते की बातें आगे बढ़ाने के बजाय सरकार ने विपक्ष पर दबाव बढ़ाने की राह पकड़ ली। नतीजन अब उसकी हालत यह हो गयी है कि ‘ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम, ना इधर के रहे ना उधर के रहे।’ खैर, अब तक के पूरे घटनाक्रम से सबक लेते हुए अगर सत्तापक्ष ने अब भी सख्ती से समस्या सुलझाने की राह छोड़कर समझौते के लिये आवश्यक लचीलापन दिखाने की पहल नहीं की तो संसद का मौजूदा सत्र गतिरोध व हंगामे में ही जाया हो जाना पूरी तरह तय है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

मंगलवार, 4 अगस्त 2015

‘चंद कदमों की चहलकदमी बनाम मीलों लंबा फासला’

नवकांत ठाकुर
इन दिनों देश की सियासत ऐसे मोड़ पर पहुंच चुकी है जिसमें सत्तापक्ष व विपक्ष के बीच जारी टकराव के बीच सहमति का फार्मूला निकालना बेहद मुश्किल हो चला है। हालांकि सैद्धांतिक तौर पर दोनों ही पक्ष मौजूदा गतिरोध को समाप्त करने की राह निकालने के लिये सहमत दिख रहे हैं लेकिन मसला यह है कि इन दोनों के बीच की खाई इतनी चैड़ी हो चुकी है कि उसे महज मुट्ठी से मिट्टी डालकर पाटने की तो उम्मीद भी नहीं की जा सकती। आलम यह है कि सफर तय करना है मीलों का लेकिन शुरूआत हो रही है कदमों की चहलकदमी से। लिहाजा मंजिल लगातार नजरों से ओझल ही बनी हुई है। दरअसल दोनों में से कोई भी पक्ष इतना लंबा सफर तय करने का सब्र दिखाना गवारा ही नहीं कर रहा है। ऐसे में चंद कदम आगे बढ़ने के बाद दोनों को ही सहमति की मंजिल दूर-दूर तक नजर नहीं नहीं दिख रही जिसके कारण वे दूबारा अपनी पुरानी जिद के खूंटे पर वापस लौटना ही बेहतर समझ रहे हैं। नतीजन संसद में जारी गतिरोध का हल तलाशने के लिये खुले मन से कोई फार्मूला निकालने का प्रयास आज भी परवान नहीं चढ़ पाया। उम्मीद तो थी कि जिस तरह से कांग्रेस ने शुक्रवार को ही सांकेतिक लहजे में जता दिया था कि अगर उसकी मांगों पर गंभीरता दिखाते हुए प्रधानमंत्री खुद ही पहल करके ललित गेट व व्यापम के मसले पर कोई ठोस कार्रवाई व पहलकदमी की घोषणा कर दें तो वह सहमति के माहौल में संसद को सुचारू ढंग से संचालित करने में सरकार का सहयोग करने से कतई गुरेज नहीं करेगी। इसी प्रकार सत्तारूढ़ भाजपा ने भी विपक्ष के खिलाफ अपने आक्रामक रूख में नरमी लाते हुए संसद में जारी गतिरोध का हल तलाशने के लिये कांग्रेस के साथ सहमति का फार्मूला निकालने के प्रति पूरी गंभीरता का मुजाहिरा किया था। इसी क्रम में संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू ने तो यहां तक कह दिया कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के साथ बातचीत करके संसद में जारी गतिरोध का कोई तोड़ अवश्य निकाल लिया जाएगा। लिहाजा उम्मीद बंध चली थी कि आज की सर्वदलीय बैठक में सत्तापक्ष व विपक्ष के बीच समझौते के किसी फार्मूले पर बात अवश्य आगे बढ़ेगी जिसके नतीजे में संसद में बारह दिनों से जारी गतिरोध का सिलसिला जल्दी ही समाप्त हो जाएगा। लेकिन मसला यह फंस गया है कि इन दोनों पक्षों के बीच असहमति व आपसी विरोध की खाई इतनी गहरी हो चुकी है कि इसके बीच सहमति व समझौते का कोई पुल बनाने का फार्मूला किसी की समझ में ही नहीं आ रहा है। विपक्ष ने ललित गेट व व्यापम की जांच के लिये जेपीसी गठित किये जाने व प्रधानमंत्री द्वारा इसकी औपचारिक घोषणा किये जाने का जो फार्मूला पेश किया उसे स्वीकार करना सत्ता पक्ष को गवारा ही नहीं हो रहा है। दूसरी ओर सरकार की ओर से वेंकैया ने किसी भी मसले पर किसी भी नियम के तहत चर्चा कराये जाने की स्वीकृति देने के अलावा उस चर्चा में प्रधानमंत्री द्वारा हस्तक्षेप करके औपचारिक बयान दिये जाने का जो फार्मूला प्रस्तुत किया वह कांग्रेस को महज झुनझुने सरीखा ही महसूस हो रहा है जिसे स्वीकार करके शांत हो जाना उसे कतई गवारा नहीं है। यानि विपक्ष ने सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह के इस्तीफे की जिद ठानकर संसद को बाधित रखने की जो रणनीति अपनाई हुई है और उसके मुकाबले सत्तापक्ष की ओर से भी जिस तरह से ईंट का जवाब पत्थर से देने की पहलकदमी की जा रही है उन दोनों रणनीतियों में सीधा जमीन-आसमान का अंतर है लिहाजा अब वे दोनों चाह कर भी इस लंबी दूरी के बीच सहमति के मध्यबिन्दु तक की यात्रा करने की राह नहीं निकाल पा रहे हैं। हालांकि कांग्रेस की ओर से अगर सोनिया गांधी व राहुल गांधी और सत्तापक्ष की ओर से इसके पुराने अनुभवी बुजुर्ग नेताओं की टोली आमने-सामने बैठकर कोई हल निकालना चाहे तो ऐसा कोई मसला ही नहीं है जिसका बातचीत से समाधान ना निकल सके। लेकिन दिक्कत है कि ना तो भाजपा के मौजूदा निजाम की सीधी बातचीत कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से हो रही है और ना ही गांधी परिवार के लिये इन्होंने इतनी राह छोड़ी है कि वह सत्तापक्ष की कथित युवातुर्क टोली के साथ धैर्य, विश्वास व परस्पर सम्मान के माहौल में वार्ता प्रक्रिया आरंभ करने की पहल कर सकें। लिहाजा बात हो भी रही है तो भाजपा की दूसरी पीढ़ी के साथ कांग्रेस के दोयम दर्जे के रणनीतिकारों की जिनको कोई अंतिम फैसला लेने की इजाजत ही नहीं है। ऐसे में अव्वल तो जब तक दोनों पक्षों के ऐसे लोग आमने-सामने बैठकर समझौते के किसी मसौदे पर सहमति बनाने की पहल नहीं करते हैं जिन्हें पार्टी की ओर से कोई निर्णय लेने का पूरा अख्तियार हो तब तक मौजूदा गतिरोध का कोई हल निकल पाने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। साथ ही मौजूदा गतिरोध के बीच समझौते के किसी फार्मूले तक पहुंचने के लिये दोनों पक्ष को अपनी जिद की लकीर छोड़कर लंबा सफर तय करने के लिये सहमत होना पड़ेगा। इसमें अगर एक भी पक्ष खुले मन से पूर्वाग्रह दिखाए या जिद ठाने बगैर समझौते के लिये आवश्यक लंबा सफर तय करने के प्रति हिचक दिखाने की कोशिश भी करेगा तो ऐसे में मौजूदा गतिरोध का हल निकल पाने की उम्मीद यथावत धूमिल ही रहेगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   

सोमवार, 3 अगस्त 2015

‘सहमति के चूल्हे में साझा समस्याओं का जलावन’

नवकांत ठाकुर
संसद में जारी गतिरोध की बर्फ पिघलाने के लिये सहमति का चूल्हा सुलगाने के प्रति सत्तापक्ष व विपक्ष के बीच जो सैद्धांतिक सहमति बनती दिख रही है उसके लिये अब साझा समस्याओं के जलावन की तलाश काफी तेज हो गयी है। वैसे भी दोनों पक्षों को अब बेहतर समझ में आ गया है कि मौजूदा गतिरोध को दूर करने के लिये अपनी जिद का खूंटा तोड़कर आगे बढ़ने के अलावा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है। हालांकि सहमति का मिलाप तभी संभव है जब किसी के भी हितों के क्षेत्र में दूसरा पक्ष अतिक्रमण ना करे और दोनों ही पक्ष परस्पर गले मिलने के लिये अपने जिद की सरहद से बाहर निकल कर बराबर आगे बढ़ें। इसमें अब तक जो फार्मूला सामने आया है उसके तहत कांग्रेस ने संकेत दिया है कि अगर प्रधानमंत्री की ओर से व्यापम व ललित गेट की जांच के लिये संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के गठन की घोषणा कर दी जाये तो संसद में जारी गतिरोध का समाधान आसानी से निकल सकता है। दूसरी ओर सत्तापक्ष की ओर से संकेत दिया जा रहा है कि सदन में किसी भी नियम के तहत किसी भी मसले पर चर्चा कराने के एवज में संसद को सुचारू ढंग से चलाने के लिये विपक्ष अपनी सहमति दे तो उस चर्चा के लिये अपनी सहमति देने में सरकार कतई देर नहीं करेगी। यानि बात इतनी तो बढ़ ही गयी है कि विपक्ष ने सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे व शिवराज सिंह चैहान के इस्तीफे की जिद छोड़कर जेपीसी की जांच से ही संतुष्ट हो जाने पर अपनी सहमति दे दी है जबकि सत्तापक्ष ने मतदान के नियम के तहत भी सदन में किसी भी मसले पर चर्चा कराने के प्रति हामी भर दी है। लिहाजा अब समझौते की पटकथा इन्हीं दोनों फार्मूलों के बीच से निकलना लगभग तय है। इसमें एक बात तो साफ है कि राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद के मुताबिक सरकार को केवल कोरी चर्चा व सूखी बहस के एवज में ही मौजूदा गतिरोध से निजात नहीं मिल सकती है बल्कि इसके लिये उसे किसी ठोस कार्रवाई की प्रस्तावना देनी पड़ेगी जबकि सत्तापक्ष की मानें तो व्यापम व ललित गेट के मसले की जेपीसी से जांच कराने का कोई औचित्य ही नहीं है। संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू के मुताबिक व्यापम की जांच सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर सीबीआई को सुपुर्द कर दिये जाने के बाद अब अलग से इसके लिये जेपीसी गठित करने का कोई मतलब ही नहीं है। इसी प्रकार ललित मोदी को मदद पहुंचाने के मामले में सुषमा स्वराज व वसुंधरा राजे की संलिप्तता की जांच के लिये भी जेपीसी का गठन करना संभव नहीं है क्योंकि अव्वल तो सुषमा ने ललित मोदी को यात्रा दस्तावेज उपलब्ध कराने में सीधे तौर पर कोई मदद नहीं की थी बल्कि उन्होंने ब्रिटेन की सरकार को केवल इतना ही कहा था कि अगर नियम कायदों का अनुपालन करते हुए उसे यात्रा करने की इजाजत दी जाती है तो इससे भारत व ब्रिटेन के संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। साथ ही सुषमा ने यह बात इंसानियत के नाते केवल इस वजह से कही थी क्योंकि पत्नी के कैंसर का इलाज कराने के लिये मोदी के लिये ब्रिटेन से बाहर जाना अनिवार्य हो गया था। इसी प्रकार वसुंधरा द्वारा मोदी को पहुंचाई गयी मदद के मामले की जांच भी जेपीसी नहीं कर सकती क्योंकि नियम के तहत या तो सरकारी पैसे के दुरूपयोग व गबन की जांच के लिये या फिर किसी संवैधानिक पद पर बैठे हुए व्यक्ति द्वारा की गयी असंवैधानिक, अनैतिक व गैरकानूनी आचरण की पड़ताल के लिये ही जेपीसी का गठन हो सकता है जबकि जिस दौरान वसुंधरा द्वारा मोदी को मदद पहुंचाए जाने की बात सामने आयी है उस वक्त ना तो वह किसी संवैधानिक पद पर थी और ना ही उन्होंने कानून या संविधान के दायरे का उल्लंघन किया है। यानि समग्रता में देखें तो ना तो सुषमा, वसुंधरा व शिवराज के मामले की जांच के लिये जेपीसी का गठन करना सरकार को गवारा है और ना ही केवल कोरी चर्चा का आश्वासन पाकर विपक्ष अपनी जिद से पीछे हटने के लिये तैयार है। ऐसे में सहमति का फार्मूला इन दोनों से अलग ही बनना है जिसमें यह सहमति भी बन सकती है कि ललित मोदी द्वारा अंजाम दिये गये मनी लाॅन्ड्रिंग की प्रवर्तन निदेशालय द्वारा की जा रही जांच को आगे बढ़ाते हुए उसे जेपीसी के हवाले कर दिया जाये। वैसे भी मोदी ने जितना नुकसान भाजपा की छवि को पहुंचाया है उतना ही उसके बयानों से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की छवि को भी आघात पहुंचा है। लिहाजा उसके खिलाफ जेपीसी की मांग स्वीकृत हो जाने से कांग्रेस के अहम की भी संतुष्टि हो जाएगी क्योंकि उसको मदद पहुंचाने के कारण ही सुषमा व वसुंधरा के इस्तीफे की मांग उठायी जा रही थी जबकि मोदी को जांच के जाल में फांसकर उसे उसके करतूतों की सजा दिलाने से सत्तापक्ष का बदला भी पूरा हो जाएगा। खैर, अभी साझा सरोकार के ऐसे कई और भी फार्मूले सामने आ सकते हैं। लेकिन मसला यह है कि यथाशीघ्र किसी फार्मूले पर आम सहमति बनाने की तत्परता नहीं दिखाये जाने के नतीजे में अगर मौजूदा मानसून सत्र हंगामे की भेट चढ़ने की नौबत आयी तो इसका नकारात्मक प्रभाव सरकार के कामकाज, विपक्ष की छवि व देश के विकास पर एक समान ही पड़ेगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  

शनिवार, 1 अगस्त 2015

‘अब सहमति के राह की दरकार है सभी को’

नवकांत ठाकुर
कहते हैं कि सियासत में समझौते व आम सहमति की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। पेंच कैसा भी क्यों ना फंसा हो, बातचीत से हर मुश्किल का हल निकल ही आता है। बशर्ते कि सभी पक्ष अपनी जिद छोड़कर सहमति की राह निकालने के लिये इमानदारी से तत्पर हों। यानि सहमति की राह तभी निकल सकती है जब सभी पक्ष अपनी जिद से पीछे हटने का विकल्प खुला रखें। वर्ना जिद पर अड़कर बातचीत का दरवाजा बंद कर लिये जाने का नतीजा वैसा ही होता है जैसा इन दिनों देश की मौजूदा राजनीति में देखा जा रहा है। दरअसल पिछले दो सप्ताह से संसद में जारी गतिरोध के सिलसिले की इकलौती वजह सत्तापक्ष व विपक्ष की वह जिद ही है जिससे रत्तीभर भी पीछे हटना किसी को गवारा नहीं था। कांग्रेस की जिद थी कि ललित गेट के मामले में सुषमा स्वराज व वसुंधरा राजे को और व्यापम विवाद में शिवराज सिंह चैहान के खिलाफ ठोस व कड़ी कार्रवाई होने तक वह संसद को हर्गिज नहीं चलने देगी जबकि सरकार की जिद थी कि वह विपक्ष के दबाव में कोई कार्रवाई नहीं करेगी। जहां एक ओर कांग्रेस ने सरकार के खिलाफ संसद से लेकर सड़क तक व्यापक विरोध का मोर्चा खोल दिया था वहीं सत्तापक्ष ने भी पलटवार करते हुए कांग्रेस के शीर्ष संचालक परिवार के सदस्यों के खिलाफ निजी हमला करना व कांग्रेसशासित राज्यों में हुए घपले-घोटाले के मामलों को राष्ट्रीय स्तर पर तूल देना आरंभ कर दिया था। लेकिन ताजा सूरतेहाल के तहत इस टकराव को लंबे समय तक जारी रखना ना तो सत्ता पक्ष को मुनासिब महसूस हो रहा है और ना ही विपक्ष को। सरकार की मजबूरी है कि अगले साल से देश में ‘वस्तु व सेवाकर अधिनियम’ (जीएसटी) लागू करने के लिये मौजूदा सत्र में ही इसके लिये आवश्यक संविधान संशोधन को राज्यसभा से पारित कराना उसके लिये बेहद अनिवार्य है। साथ ही संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू के मुताबिक सरकार ने मौजूदा सत्र में ही जुवेनाइल जस्टिस, रियल इस्टेट, व्हिसल ब्लोअर व निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट से संबंधित विधेयकों को भी सर्वोच्च प्राथमिकता के तहत संसद से पारित कराने का लक्ष्य तय किया हुआ है। जाहिर है कि ये सभी विधेयक तभी पारित हो सकते हैं जब संसद का कामकाज सुचारू ढंग से संचालित होना आरंभ हो। दूसरी ओर विपक्ष भी सुषमा, वसुंधरा व शिवराज के इस्तीफे की जिद पर डटे रहकर संसद में जारी गतिरोध को बरकरार रखने में अब काफी असहजता महसूस कर रही है। अव्वल तो इस रणनीति में कांग्रेस को बाकी विपक्षी दलों का सहयोग नहीं मिल रहा है और दूसरे सूत्रों की मानें तो पार्टी के मुख्यमंत्रियों ने भी जीएसटी को पारित कराने की राह निकालने के लिये संगठन पर दबाव बनाया हुआ है। इसके अलावा संसद में जारी गतिरोध के कारण विभिन्न राज्यों में आयी बाढ़, से लेकर किसानों की समस्या, राष्ट्रीय सुरक्षा व महंगाई सहित तमाम ज्वलंत मसलों की आवाज संसद की देहरी के भीतर दाखिल नहीं हो पाने का ठीकरा अपने सिर पर फोड़े जाने की संभावना ने कांग्रेस को बुरी तरह परेशान किया हुआ है। यानि समग्रता में देखें तो संसद को बाधित रखने के लिये भले ही विपक्ष के अलावा सत्ता पक्ष की जिद भी बराबर की दोषी क्यों ना हो लेकिन जिद की सरहदों के बीच आम सहमति की धारा बहाने के अलावा दोनों पक्षों के लिये अब कोई दूसरा विकल्प ही नहीं बचा है। यही वजह है कि जहां एक ओर सरकार ने आगामी सोमवार को संसद में जारी गतिरोध को समाप्त करने की राह तलाशने के लिये औपचारिक तौर पर सर्वदलीय बैठक आयोजित करने का फैसला किया है वहीं दूसरी ओर कांग्रेस ने भी अपनी जिद से एक कदम पीछे हटते हुए कहा है कि अगर प्रधानमंत्री की ओर से ललित गेट व व्यापम के मसले पर कोई ठोस प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाता है तो वह संसद में जारी गतिरोध को बातचीत के माध्यम से दूर करने के लिये पूरी तरह तैयार है। यानि बिना औपचारिक बातचीत के ही इतनी बात तो बन ही गयी है कि अव्वल तो विपक्ष ने सुषमा, वसुंधरा व शिवराज के इस्तीफे की मांग को ठंडे बस्ते में डालने का मन बना लिया है वहीं दूसरी ओर सरकार ने भी मौजूदा सत्र में ही विवादित भूमि अधिग्रहण विधेयक को सदन से पारित कराने की जिद छोड़ने का संकेत दे दिया है। हालांकि विपक्ष ने ललित गेट व व्यापम के मसले की जांच के लिये संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) गठित किये जाने की मांग अवश्य बुलंद की है लेकिन फिलहाल संवैधानिक व्यवस्थाओं व संसदीय परंपराओं की आड़ लेकर इस मांग को भी स्वीकार करने से सरकार फिलहाल इनकार करती हुई ही दिख रही है। खैर, राहत की बात यही है कि दोनों ही पक्ष अब मौजूदा मानसून सत्र के बचे-खुचे वक्त में अधिक से अधिक कामकाज निपटाने के लिये सहमत होते दिख रहे हैं। लिहाजा जब संसद को सुचारू ढंग से चलाने पर सैद्धांतिक सहमति बन ही रही है तो लाजिमी तौर पर इसका कोई ना कोई बहाना यानि आम सहमति की राह भी निकल ही आएगी। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम से अगर सत्ता पक्ष ने ‘लोहे को लोहे से काटने’ के सिद्धांत की व्यावहारिक निरर्थकता और विपक्ष ने ‘मांग उतनी करो जो मुनासिब भी हो’ की सीख नहीं ली तो दोनों को भविष्य में भी मौजूदा परेशानी का दोबारा सामना करने के लिये तैयार रहना ही होगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’