सोमवार, 30 मई 2016

मांग-आपूर्ति के चक्कर में बाजार व्यवस्था घनचक्कर

अर्थशास्त्र के चक्कर पर भारी बिचौलियों का फच्चर 


अर्थशास्त्र का सिद्धांत बताता है कि अगर आपूर्ति यथावत रहे तो मांग बढ़ने से कीमतें बढ़ती हैं जबकि मांग घटने से कीमत घट जाती है। इसी प्रकार मांग यथावत रहने की स्थिति में आपूर्ति बढ़ने से कीमतें घटने लगती हैं जबकि आपूर्ति में कमी होने पर कीमतें बढ़ने लगती हैं। यानि बाजार में कीमत का निर्धारण मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन के आधार पर ही होता है। हालांकि इस सिद्धांत के कुछ अपवादों को भी अर्थशास्त्र में स्वीकार किया जाता है। लेकिन मसला है कि इन दिनों बाजार का पूरा अर्थशास्त्र ही बदला हुआ है। अब तो बाजार में कीमतों का निर्धारण अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर नहीं बल्कि बिचौलियों की मनमर्जी पर आधारित दिख रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो एक ओर समूचे देश के खुदरा बाजार में प्याज की कीमत पिछले कई महीनों से औसतन बीस रूपये प्रतिकिलो की दर पर टिके रहने के बावजूद महाराष्ट्र के किसान को ढ़ुलाई व मंडी का शुल्क अदा करने के बाद 952 किलो प्याज बेचने के एवज में सिर्फ एक रूपये के सिक्के की बचत नहीं होती जिस पर इन दिनों ठेंगे का निशान छपा रहता है। जाहिर है कि यह अर्थशास्त्र किसी के भी दिमाग की दही जमा सकता है। अब जिस किसान को फसल की लागत मिलने की बात तो दूर रही सिर्फ खेत से मंडी तक अपनी उपज को पहुंचाने व मंडी की पर्ची कटवाने के बाद लगभग एक टन फसल के बदले सिर्फ एक रूपये का मुनाफा मिल रहा हो उसके दिमाग में अगर आत्महत्या कर लेने की बात दस्तक देने लगे तो इसे कैसे अस्वाभाविक कहा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि यह नौबत महाराष्ट्र के प्याज उत्पादकों को ही झेलनी पड़ रही है बल्कि यही हाल समूचे देश के किसानों का है जो मंडी में बिचौलियों के हाथों औने-पौने दामों पर अपनी फसल बेचने के लिये मजबूर हैं। किसान आलू पैदा करे या टमाटर, गन्ना उगाए या फल-फूल उपजाये। सबकी व्यथा एक जैसी ही है। इसमें किसी वस्तु का दाम अधिक तेजी से बढ़ जाने पर सरकार अगर हरकत में भी आती है तो जमाखोरों पर छापेमारी के अलावा आयात में इजाफा करने के परंपरागत तौर-तरीकों पर अमल शुरू कर देती है। लेकिन कभी यह कोशिश नहीं होती कि किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य मिले और उपभोक्ताओं को सही कीमत पर बाजार में सामान उपलब्ध हो सके। पिछले साल संसद की कैंटीन में अचानक पहुंचकर भोजन करने के बाद जब प्रधानमंत्री ने खाने के बिल की पर्ची पर आह्लादित भाव से ‘अन्नदाता सुखी भव’ लिखकर अपना उद्गार व्यक्त किया तो ऐसा लगा कि अब अन्नदाता के दिन बहुरने वाले हैं। लेकिन साल पूरा होने के बाद जब आंकड़े सामने आये तो पता चला कि आजादी के बाद वर्ष 2015 में पहली दफा रोजाना औसतन 52 किसानों ने आत्महत्या की। यानि ‘अन्नदाता सुखी भव’ की बात मौजूदा सरकार के कार्यकाल में भी कहने-सुनने की ही बात बनकर रह गयी है। क्योंकि इस सरकार ने जिस साल सत्ता संभाली तब औसतन 42 किसानों को आत्महत्या की राह पकड़नी पड़ी थी जबकि पिछले साल यह आंकड़ा रोजाना 52 आत्महत्याओं तक पहुंच गया। आलम यह है कि किसान को मंडी में महज डेढ़ से दो रूपये प्रति किलो की दर से आलू, प्याज व टमाटर खरीदनेवाले भी बड़ी मुश्किल से मिल रहे हैं जबकि उपभोक्ताओं को इसकी कीमत औसतन बीस रूपये की दर से चुकानी पड़ रही है। ऐसे में सवाल है कि आखिर बीच का 18 रूपया कहां जा रहा है। जाहिर तौर पर यह उन बिचौलियों की तिजोरी में जमा हो रहा है जो प्याज को खेत से किचेन तक का सफर तय कराते हैं। ऐसे में किसान का यथावत बदहाल रहना स्वाभाविक ही है। लिहाजा आवश्यकता है कि बाजार में कीमतों के निर्धारण व नियंत्रण पर भी सरकार व प्रशासन की नजर हो। सिर्फ मांग व आपूर्ति के बीच संतुलन के भरोसे बाजार को छोड़े रखने से ना तो अन्नदाता किसानों को न्याय मिल सकता है और ना ही उपभोक्ताओं को। लेकिन मसला है कि अब तक तीन लाख से अधिक किसानों द्वारा आत्महत्या कर लिये जाने के बावजूद अगर सरकार की योजनाएं क्रॉप-ड्रॉप के बीच संतुलन बनाने और यूरिया पर नीम चढ़ाने तक ही सीमित रहेंगी तो अन्नदाता कैसे सुखी हो पाएगा। चुनावी दिनों में सपना दिखाया गया था कि वैल्यू एडीशन के द्वारा खेती को लाभप्रद बनाया जाएगा लेकिन इस दिशा में कोई बड़ी पहल होती दिख तो नहीं रही है। साथ ही ना तो भंडारण व्यवस्था का विस्तार व सुदृढ़ीकरण होता दिख रहा है और ना ही फसल के न्यूनतम मूल्य निर्धारण व्यवस्था में कोई सुधार हो पाया है। सिर्फ फसल बीमा योजना लाने, आपदा राहत का विस्तार करने, ई-मंडी का सपना दिखाने और मृदा स्वास्थ्य कार्ड तैयार करने से तो अन्नदाता का भला होने से रहा। उसका भला तो तब होगा जब उसे उपज की पूरी लागत के अलावा कुछ मुनाफा भी मिले। यानि बाजार की असली बीमारी का इलाज किये बिना इस अव्यस्था से निजात पाने की कल्पना भी बेकार ही है। लिहाजा आवश्यकता है कि अन्नदाता किसानों और उपभोक्ता के बीच कीमतों का अनुपात निर्धारित किया जाये और बिचौलियों व बाजार की अन्य ताकतों को लागत के मुकाबले एक निश्चित अनुपात में ही मुनाफा कमाने की छूट रहे। वर्ना मांग व आपूर्ति के चक्कर में पड़कर पूरी बाजार व्यवस्था यथावत घनचक्कर बनी रहेगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

शुक्रवार, 27 मई 2016

सियासत में सकारात्मकता की जरूरत

‘धैर्य व धर्म के प्रदर्शन की जरूरत’

किसी भी इंसान की प्रकृति व प्रवृति की सही परख तभी संभव है जब वह बुरी तरह परेशानियों में घिरा हो। परेशानी व समस्याओं में उलझा इंसान अधिक देर तक बनावटी व्यवहार नहीं कर सकता। तभी तो कहा भी गया है कि ‘आपतकाल परखिये चारी, धीरज धर्म मित्र और नारी।’ यानि धैर्य व धर्म की वास्तविक कसौटी परेशानियां व विपत्तियां ही होती हैं और जीवन में सफलता के लिये तो शिरडी के सांई ने भी श्रद्धा व सबुरी का ही संदेश दिया है। परेशानी छोटी हो बड़ी अथवा तात्कालिक हो या दीर्घकालिक, वह इंसान की परख करा ही देती है। मसलन छोटी सी ठेस लगने पर अचानक जुबान से निकलनेवाले अल्फाज से ही यह जाना जा सकता है कि इंसान किस प्रवृति व प्रकृति का है। क्योंकि ठेस लगते ही कराह के साथ किसी की जुबान से मोटी सी गाली निकलती है जबकि किसी की जुबान पर माता-पिता या परमात्मा का नाम आ जाता है। ऐसे में छोटी सी ठेस लगने पर मोटी सी गाली उगलनेवाले इंसान को नियति किस ओर ले जाएगी यह शायद ही किसी को अलग से बताने की जरूरत हो। लिहाजा अगर इस बात का आकलन करना हो कि मौजूदा वक्त में बुरी तरह उलझन, परेशानी व विपत्ति के मकड़जाल में फंसा हुआ इंसान आगामी दिनों में किस हद तक सफलता हासिल कर पाएगा तो निगाह इस बात पर दौड़ानी चाहिये कि उसकी मौजूदा सोच सकारात्मक है या नहीं। यही बात राजनीति में भी लागू होती है। यहां भी सफलता के लिये सकारात्मक सोच व समुचित व्यवहार निहायत ही आवश्यक है। नकारात्मक राजनीति के सहारे अव्वल तो सफलता हासिल ही नहीं हो सकती और किस्मत से हो भी जाये तो इसे लंबे समय तक कायम रख पाना तो नामुमकिन ही है। तभी तो आम तौर पर यह देखा जाता है कि चुनावी जनादेश अक्सर उसके पक्ष में ही आता है जिसने विकास व सुधार की सकारात्मक बातों पर ही अपने चुनाव अभियान को केन्द्रित रखा हो। यही लोकसभा चुनाव में हुआ था और यही तमाम विधानसभा चुनावों में हुआ है। यहां तक कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के जिस जनादेश को सतही तौर पर नकारात्मक राजनीति की जीत के नजरिये से देखा जाता है उसकी भी गहराई से पड़ताल करें तो यही नजर आता है कि सूबे के मतदाताओं ने जनोन्मुख, पारदर्शी व भ्रष्टाचारमुक्त शासन के वायदे पर भरोसा जताया है। कहने का तात्पर्य है कि राजनीति में सकारात्मक नीति व नीयत के साथ ही सकारात्मक परिणाम हासिल किया जा सकता है। वर्ना नकारात्मक राजनीति का खामियाजा कितना बुरा हो सकता है यह कांग्रेस के मौजूदा हालत खुद ही बयान कर रहे हैं। लेकिन या तो कांग्रेस के रणनीतिकारों को सकारात्मक राजनीति का महत्व समझ में नहीं आ रहा है या फिर वे इसकी अनदेखी करना ही बेहतर समझ रहे हैं। तभी तो लगातार व सिलसिलेवार चुनावी शिकस्त के बावजूद वे इससे सबक लेकर अपनी सियासी सोच में तब्दीली लाना गवारा नहीं कर रहे हैं। मसला चाहे आतंकवाद को सांप्रदायिक रंग देने का हो या फिर विपक्षी दल की हैसियत से देशहित व जनहित में रचनात्मक भूमिका निभाने की हो। हर मामले में या तो नकारात्मकता हावी है या फिर असमंजस की स्थिति। तभी तो बाटला हाऊस मुठभेड़ को जायज व फर्जी बताये जाने को लेकर तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल के साथ दिग्विजय सिंह सरीखे नेताओं की टोली आपस में ही जूतम-पैजार में उलझी हुई है जबकि पार्टी असमंजस की स्थिति में है। वह किसी भी पक्ष को ना तो सही बता पा रही है और ना ही किसी पक्ष से पल्ला झाड़ पा रही है। वह भी तब जबकि मौका ए वारदात से फरार होने के बाद दहशतगर्दी का पर्याय माने जानेवाले संगठन आईएस में शामिल हो चुके दो आतंकियों का वह वीडियो भी सामने आ चुका है जिसमें वे बाटला मामले में संलिप्तता स्वीकार करते हुए हिन्दुस्तान से इसका बदला लेने की कसम खाते दिख रहे हैं। ऐसे में तो अब इस मुठभेड़ को लेकर उठनेवाले सवाल बंद ही हो जाने चाहिये थे लेकिन अगर ऐसा होता नहीं दिख रहा है तो इसे हठधर्मिता व नकारात्मकता की राजनीति का ही नाम दिया जा सकता है। इसी प्रकार केन्द्र की मोदी सरकार को एक ओर हर मोर्चे पर नाकाम बताना और दूसरी ओर संसद में रत्तीभर सहयोग करना भी गवारा नहीं करना तो यही दर्शाता है कि कांग्रेस की मौजूदा सियासी सोच कतई सकारात्मक नहीं है। वर्ना वह कम से कम उस जीएसटी को तो हर्गिज नहीं लटकाती जिसका प्रारूप उसकी ही सरकार ने तैयार किया था। आज भी मोदी सरकार की जिन योजनाओं का श्रेय लेने के लिये कांग्रेस उसे अपनी परिकल्पना बता रही है, उसमें भी उसे यह तो मानना ही पड़ेगा कि मौजूदा सरकार ने सकारात्मक सोच के साथ ही उन योजनाओं को आगे बढ़ाया है। वर्ना मनरेगा घोटालों की भेंट चढ़ रहा था जबकि आधार को संवैधानिक जमीन ही उपलब्ध नहीं कराया गया था। खैर, सरकार की कमियों व खामियों की ओर लोगों का ध्यान खींचना तो विपक्ष से अपेक्षित ही है लेकिन इसमें सोच की सकारात्मकता निहायत ही आवश्यक है। सकारात्मक सोच, नीति व नीयत के साथ ही लोगों का विश्वास व सहानुभूति अर्जित कर पाना संभव हो सकता है। वर्ना नकारात्मक सोच का परिणाम तो विध्वंसात्मक ही होता है। लिहाजा कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को पार्टी के बेहतर भविष्य के लिये अपनी मौजूदा नीतियों पर पुनर्विचार तो करना ही होगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

गुरुवार, 26 मई 2016

‘विरासत की सियासत में काबिलियत की जरूरत’

‘विरासत की सियासत में काबिलियत की जरूरत’


‘पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भले ही अलग-अलग पार्टियों की जीत हुई हो लेकिन हार तो हर जगह कांग्रेस की ही हुई है।’ यह कहते हुए फूले नहीं समा रहे हैं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह। अब शाह की यह बात कांग्रेस को भले ही जले पर नमक सरीखी जलन व चुभन दे रही हो लेकिन बात में दम तो है ही। कायदे से देखा जाये तो मौजूदा हार को स्वीकार करते हुए कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने एक बार की हार से दुनियां समाप्त नहीं होने की जो दलील दी है इसके अलावा वे कह भी क्या सकती हैं? पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं को यह दिलासा दिया जाना भी स्वाभाविक है कि आनेवाला भविष्य कांग्रेस का ही है और जल्दी ही पार्टी की जीत का सिलसिला फिर शुरू हो जाएगा। लेकिन मसला है कि अगर हार के कारणों पर विचार करते हुए मौजूदा चुनौतियों व जरूरतों के प्रति बदस्तूर शुतुमुर्गी रवैया अपनाने का सिलसिला जारी रखा जाएगा तो पार्टी की गाड़ी जीत की पटरी पर लौटेगी कैसे? इसके लिये आवश्यकता तो है अपनी कमजोरियों को पहचानने और उसमें सुधार लाने की। लेकिन इस दिशा में गंभीरता से विचार करने से यथावत परहेज बरते जाने का मतलब तो यही है कि बीमारी का एहसास तो सबको है लेकिन उसे स्वीकार करके उसमें सुधार करने की हिम्मत किसी में नहीं है। खास तौर से कट्टर कांग्रेसियों की जमात भले इस सच को स्वीकार करने की जहमत नहीं उठा रही हो लेकिन हकीकत यही है कि कांग्रेस में जब से राहुल गांधी का युग आरंभ हुआ है तब से पार्टी की सफलता का ग्राफ लगातार ढ़लान पर ही लुढ़कता जा रहा है। यहां तक कि पिछले दो सालों में हुए ग्यारह राज्यों के विधानसभा चुनावों में अपने कब्जेवाले छह राज्य कांग्रेस को गंवाने पड़े हैं और फिलहाल इसके पास कर्नाटक के अलावा कुछ गिने-चुने पर्वतीय सूबे ही बचे हुए हैं। खैर, इस सच को तो कतई नहीं झुठलाया जा सकता है कि विरासत में सियासत की सर्वोच्च कुर्सी तो मिल सकती है लेकिन उसकी हिफाजत करने की काबिलियत किसी को भी विरासत में नहीं मिलती है। वह तो खुद के अनुभव से ही आती है। लिहाजा अनुभवों से सबक लेने की जरूरत कांग्रेस में अगर किसी को है तो सिर्फ राहुल गांधी को ही है। क्योंकि सोनिया की सियासी काबिलियत तो जगजाहिर है। ये वही सोनिया हैं जिन्होंने नब्बे के दशक में डूबने के कगार पर खड़ी कांग्रेस की कमान संभालने के बाद अपनी योग्यता, क्षमता व कुशलता के दम पर ना सिर्फ केन्द्र में लगातार दस सालों तक संप्रग की सरकार चलवायी बल्कि देश के सत्रह राज्यों में पार्टी को शानदार सफलता दिलायी। इसी प्रकार कांग्रेस के शीर्ष रणनीतिकारों में शुमार होनेवाले पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के सामने भी अपनी योग्यता व क्षमता साबित करने की चुनौती नहीं है क्योंकि ये उन्हीं नेताओं की जमात है जो इंदिरा व राजीव से लेकर सोनिया तक जमाने में भी कांग्रेस का परचम लहराने में निर्णायक भूमिका निभाती रही है। जबकि राहुल की बात करें तो उनके सामने चुनौती है खुद को साबित करने की। क्योंकि अब सवाल उनके चाल-चलन से लेकर आचरण तक पर भी उठने लगे हैं। डूसू अध्यक्ष व कांग्रेस की राष्ट्रीय सचिव रह चुकीं अलका लांबा को यह कहते हुए कांग्रेस का हाथ छोड़कर एएपी का झाड़ू थामना पड़ा कि दो वर्षों में राहुल ने एक बार भी उन्हें मुलाकात का समय नहीं दिया। ऐसा ही इल्जाम असम में भाजपा की जीत के नायक रहे हेमंत विश्वशर्मा भी लगा रहे हैं कि कांग्रेस में रहते हुए सूबे की समस्याओं को लेकर जब वे राहुल से मिलने गये तो पूरी बैठक के दौरान राहुल लगातार अपने कुत्ते के साथ ही खेलते रहे। हेमंत के मुताबिक पार्टी के जमीनी नेताओं व कार्यकर्ताओं के साथ राहुल का व्यवहार ऐसा रहता है जैसा किसी घमंडी मालिक का अपने निरीह नौकर के साथ होता है। इसी प्रकार उत्तराखंड के बागी कांग्रेसी विधायकों का भी कहना है कि अगर राहुल ने उन्हें मिल-बैठकर मसले को सुलझाने को मौका दिया होता तो उन्हें पार्टी छोड़ने के लिये हर्गिज मजबूर नहीं होना पड़ता। हालांकि ऐसी बातें वे लोग कर रहे हैं जो पार्टी छोड़कर जा चुके हैं। लेकिन इससे अलग भी देखें तो राहुल जब चाहे बिना किसी को बताये छुट्टी मनाने के लिये अज्ञात स्थान पर चले जाते हैं। संसद में भी उनकी भूमिका युवराज सरीखी ही रहती है, मतदाताओं के प्रतिनिधि की छवि उनमें शायद ही किसी को कभी दिखी हो। तभी तो शशि थरूर को भी संकेतों में यह कहना पड़ा है कि ‘पार्ट टाईम पॉलिटिक्स’ करके मौजूदा चुनौतियों का सामना नहीं किया जा सकता बल्कि पांच साल तक लगातार जमीन पर पसीना बहाने के बाद ही चुनावी सफलता का प्रतिफल पाने की कल्पना की जा सकती है। बहरहाल, सच तो यही है कि आज भले ही पार्टी के भीतर से कोई मुखर होकर राहुल के चाल, चलन व आचरण में बदलाव की जरूरत पर एक शब्द भी नहीं बोल रहा हो लेकिन समय की मांग तो यही है कि उन्हें खुद में बदलाव लाना ही होगा। विरासत की सियासत को वे जिस आसान, सहज व मनमाने ढंग से संचालित करने की कोशिश कर रहे हैं उसमें उन्हें तब्दीली लानी ही होगी वर्ना कांग्रेस की दुर्गति का सिलसिला अभी और भी आगे तक जारी रहने की संभावना को कतई नकारा नहीं जा सकता है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

मंगलवार, 17 मई 2016

‘बेरंग आतंक पर चढ़ा सियासी रंग’

‘बेरंग आतंक पर चढ़ा सियासी रंग’


कहने को तो सभी कहते हैं कि आतंक का कोई रंग नहीं होता। लेकिन आतंक को खास रंग से जोड़ने की सियासत भी समानांतर ही चलती रहती है। लिहाजा आतंक के प्रति इस दोहरेपन को लेकर किसी के भी मन में उलझन होना स्वाभाविक ही है। लेकिन दिलचस्प बात है कि उलझन कहीं नहीं है। ना उस तरफ ना इस तरफ और ना ही दोनों के बीच की निरपेक्ष धारा में। हर तरफ स्थिति पूरी तरह स्पष्ट है। अगर ऐसा नहीं होता तो एक खास सियासी धारा के अनुगामियों द्वारा सोशल मीडिया के माध्यम से इस सवाल को तूल ही नहीं दिया जाता कि हर आतंकी वारदात में निराकार के उपासकों का खास रंग ही शामिल क्यों दिखायी देता है और इसके जवाब में साकार के सनातन उपासकों का रंग भी आतंक पर चढ़ाने की कोशिश हर्गिज नहीं की जाती। ना तो मालेगांव धमाके के बाद शरद पवार द्वारा मामले की जांच को हिन्दूवादी संगठनों की ओर मोड़ने की औपचारिक गुजारिश की जाती और ना ही अलग से भगवा आतंकवाद शब्द गढ़े जाने की जरूरत पड़ती। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हुआ। क्योंकि दूसरे पक्ष की भावनाओं को सहलाकर अपनी सियासी जरूरतें पूरी करनी थीं। भले इसके नतीजे में पाकिस्तान को समझौता ब्लास्ट व मालेगांव ब्लास्ट की दुहाई देकर यह राग आलापने का मौका मिल गया हो कि भारत में होनेवाली आतंकी वारदातों से उसका कभी कोई लेना-देना रहा ही नहीं है। इन्हें तो सिर्फ सियासी रोटियां सेंकने के लिये ज्वलंत मसलों की दहकती आग चाहिये। भले ही वह आग आतंक की भट्ठी से ही क्यों ना निकल रही हो। हालांकि इसके लिये किसी एक पक्ष को ही दोषी मान लेना कतई सही नहीं होगा बल्कि इस हम्माम में सभी एक बराबर ही अनावरित हैं। वैसे भी बात जब वोट बैंक की हो तो कौन इस मौके का छोड़ना चाहेगा। तभी तो समाज में फूट डालने की इस हद तक कोशिशें हुई कि ना सिर्फ आतंक को अलग-अलग रंग के चश्मे से दिखाने का प्रयास हुआ बल्कि फौज में भी रंग के आधार पर रंगरूटों की गिनती करने की कोशिश की गयी और कारगिल के शहीदों की सूची जारी करके नये सिरे से समाज में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास भी हुआ। वास्तव में इस सबके पीछे सोच यही रही कि समाज को बांटो और अपना सिक्का चलाओ। लेकिन वोटबैंक की इस सियासत ने ना सिर्फ देश का हित खतरे में डाला है बल्कि हमारी उन संस्थाओं की निष्पक्षता पर भी उंगली उठ रही है जिन पर किसी भी मामले की जांच करके हकीकत को सतह पर लाने की जिम्मेवारी है। सीबीआई को तो सर्वोच्च न्यायालय पहले ही सरकारी तोता करार दे चुकी है लेकिन अब एनआईए भी इस मामले में कहीं से भी अलग नहीं दिख रही। तभी तो एनआईए पर पहले भी आरोप लगे कि उसने आतंकी वारदातों में भगवा रंग की संलिप्तता पुख्ता करने के लिये नकली गवाह खड़े करने व एकपक्षीय साक्ष्य जुटाने की पहल की थी और आज खुद एनआईए ही यह स्वीकार कर रही है कि कर्नल पुरोहित के घर से बरामद आरडीएक्स जांच एजेंसी ने ही प्लांट किया था। यहां तक कि कर्नाटक एफएसएस के निदेशक रह चुके बीएम मोहन भी यह स्वीकार कर रहे हैं कि अगर सिमी के आतंकियों पर किये गये नार्को टेस्ट, ब्रेन मैपिंग व लाई डिटेक्टर टेस्ट को आधार बनाकर एनआईए ने अपनी जांच आगे बढ़ाई होती तो समझौता एक्सप्रेस व मालेगांव में हुए धमाकों की अलग की तस्वीर सामने आती। मोहन का दावा है कि सिमी के तीन आतंकियों ने ना सिर्फ इन आतंकी वारदातों में अपनी भूमिका कबूल की थी बल्कि यह भी बताया था कि लंदन में रहनेवाले राहिल नाम के पाकिस्तानी मूल के शख्स ने इन धमाकों की फंडिंग की थी और सिमी से जुड़े सफदर नागौरी ने इस पूरी साजिश की पटकथा तैयार की थी। यानि सिमी के आतंकियों का नार्को, ब्रेन मैपिंग व लाई डिटेक्टर टेस्ट करनेवाले मोहन की बातों से इतना तो साफ है कि एनआईए की कोशिश असली गुनहगारों को सामने लाने की रही ही नहीं। बल्कि उसने मनचाहे लोगों को पहले दबोचा और बाद में उन पर पूरे मामले में संलिप्तता सुनिश्चित करने के लिये साक्ष्य व सबूत तलाशने की पाताल-तोड़ कोशिशें की। इसमें असली गुनहगारों के खिलाफ सामने आये साक्ष्य व सबूतों को भी इस मकसद से रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया कि कहीं उनके सामने आने से उन लोगों को बच निकलने का मौका ना मिल जाये जिन्हें उसने पूरे मामले में फ्रेम किया है। खैर, निजाम बदलने के बाद अब नये सिरे से मामले भी खुल रहे हैं और नयी मानसिकता के साथ कानून भी अपना काम कर रहा है जिसके बारे में सरकार कह रही है कि अब जांच पूरी तरह निष्पक्ष तरीके से हो रही है जबकि विरोधियों का मानना है कि भगवा रंग को आतंक के कलंक से बचाने के लिये समझौता व मालेगांव धमाके के दोषियों को बचाने का प्रयास किया जा रहा है। यानि एनआईए की निष्पक्षता को ना तो पिछली सरकार के कार्यकाल में सर्व-स्वीकार्यता मिली और ना ही अब मिल रही है। खैर, जब एक बार कोई बात निकल आती है तो उसका दूर तक जाना तो स्वाभाविक ही है लेकिन पकड़ से बाहर निकल चुकी बात से देश की छवि को पहुंचे आघात और सामाजिक सौहार्द्र व भाईचारे को हुए नुकसान की भरपायी का प्रयास तो करना ही होगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

शुक्रवार, 13 मई 2016

पानी गये ना ऊबरे, मोती मानुष चून

‘रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून’


‘रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गये ना ऊबरे, मोती मानुष चून।’ रहीम का यह दोहा सबने पढ़ा भी है और गुना भी है। लेकिन शायद हमारे राजनीतिज्ञों ने इसे सिर्फ पढ़ा है, इसका अर्थ व महत्व समझा नहीं है। अगर समझा होता तो आज राजनीति में पानी बचा होता, इस कदर सूख नहीं जाता। अब तो ऐसा लगता है मानो सबकी आंख का पानी मर चुका है, सूख चुका है। वर्ना कम से कम ऐसी तस्वीर तो कतई नहीं दिखती कि जब देश की एक तिहाई आबादी भयावह सूखे का सामना कर रही हो, बूंद-बूंद पानी के लिये हाहाकार मचा हो तब हमारे माननीय नेतागण एकजुट होकर लोगों को इस भीषण संकट से उबारने का प्रयास करने के बजाय मौजूदा परिस्थियों का भी सियासी दोहन करने में जुटे हुए हों। आपस में श्रेय लूटने की लड़ाई लड़ रहे हों। हालांकि सियासत की इस मौजूदा तस्वीर का एक अलग पहलू यह भी है कि जब हर चीज पर सियासत हो सकती है, हर बात पर ही नहीं बल्कि बेबात भी राजनीति हो सकती है, तो फिर पानी ही इससे अछूती क्यों रहे। वैसे भी स्वतंत्र भारत के इतिहास के सबसे भयावह सूखे के मौजूदा दौर में तो मौका भी है, मौसम भी है और दस्तूर भी। फिर पानी पर सियासत तो होनी ही है और हो भी रही है। हो भी क्यों ना। आखिर जानलेवा सूखे की मार झेल रही देश की एक-तिहाई आबादी का मसला जो ठहरा। इतने बड़े वोट बैंक को कौन नहीं रिझाना चाहेगा। भले इसके लिये ठोस राहत योजना या दूरगामी परियोजना का पूरी तरह अभाव ही क्यों ना हो। दिखाना तो सभी यही चाहेंगे कि सूखा प्रभावितों की मदद में वे जी-जान से व प्राण-पण से जुटे हुए हैं। तभी तो केन्द्र सरकार और राज्यों के बीच इस मसले पर श्रेय बटोरने को लेकर भारी खींचतान का माहौल दिख रहा है। लेकिन इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि सूखा प्रभावितों को मिल-जुलकर राहत पहुंचाने के अभियान में जुटने के बजाय केन्द्र और राज्य एक दूसरे की टांग खींचने व एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हुए हैं। खास तौर से अगर उत्तर प्रदेश के साथ इस मसले पर जारी केन्द्र के शीतयुद्ध की बात करें तो दोनों ही यह साबित करने में जुटे हुए हैं कि उनका काम तो काम है, दूसरे का दिखावा। तभी पहले तो यूपी सरकार को सूखा राहत के मोर्चे पर विफल दिखाने में ना तो सत्ता पक्ष से प्रभावित मीडिया के एक खास वर्ग ने कोई कसर छोड़ी और ना ही केन्द्र ने कभी यह स्वीकार किया कि सूबे में सूखा राहत की दिशा में कोई सराहनीय काम हो रहा है। जबकि हकीकत यह है कि सूबे की सरकार अपने सीमित संसाधनों के सहारे ही ना सिर्फ सूखा प्रभावित इलाकों में लोगों को राहत पहुंचाने के काम में पूरी ताकत से जुटी हुई है बल्कि लोगों को भोजन-पानी से लेकर पशुओं के लिये चारा उपलब्ध कराने का भी हरमुमकिन प्रयास किया जा रहा है। सूखे के कारण रोजी-रोटी की भारी किल्लत का सामना कर रहे परिवारों के बीच राहत पैकेट के रूप में शुरूआती तीस दिनों के लिये आटा, आलू, दाल, तेल व देशी घी से लेकर मिल्क पाउडर भी वितरित किया जा रहा है। इसके अलावा अन्त्योदय लाभार्थी परिवारों को अगले 30 दिनों के लिए भी राहत पैकेट मुहैया कराने का निर्णय प्रदेश सरकार पहले ही कर चुकी है। साथ ही पिछले साल हुई ओलावृष्टि के बाद इस समय भयानक सूखे का सामना कर रहे किसानों को राहत देने के लिए प्रभावित 73 जिलों के 107 लाख किसानों के बीच 4493 करोड़ रुपया बांटा जा चुका है जबकि पिछले साल भी सूखे की मार झेलनेवाले 21 जनपदों के प्रभावितों के बीच 1006.03 करोड़ रुपये की धनराशि बांटने का काम युद्धस्तर पर जारी है। यहां तक कि अपनी क्षमता के मुताबिक प्रदेश सरकार वाटर एटीएम भी लगवा रही है और टैंकरों से पानी की आपूर्ति भी कर रही है। इसके बावजूद प्रदेश सरकार की तारीफ करना किसी को गवारा नहीं है। अलबत्ता सूबे की समस्याओं को लेकर हलकान दिख रही है वह भाजपा जिसके नेतृत्व में चल रही केन्द्र की सरकार ने अब तक पिछले साल के सूखे के मद का 1123.47 करोड़ व ओलावृष्टि के मद का 4741.55 करोड़ रूपया प्रदेश सरकार को आवंटित ही नहीं किया है। यानि मदद के नाम पर केन्द्र से प्रदेश को मिला है तो सिर्फ आश्वासन और लफ्फाजी। उस पर तुर्रा यह कि बुंदेलखंड में पानी पहुंचाने के लिये केन्द्र ने ट्रेन भेज दिया। वह भी खाली टैंकर के साथ। जाहिर है कि प्रदेश सरकार इस दिखावे की मदद को बैरंग वापस नहीं लौटाती तो और क्या करती। कायदे से अगर केन्द्र को कुछ करना ही है तो वह इस साल के सूखा राहत का पैसा हाथोंहाथ नहीं दे सकती तो कम से कम पिछले साल के बकाये का ही पूरा भुगतान कर दे। साथ ही जब प्रदेश सरकार दावा कर रही है कि बुंदेलखंड के जलाशयों में पर्याप्त पानी उपलब्ध है तो उसके वितरण के लिये टैंकरों का समुचित इंतजाम कर दे। प्रदेश तो अपनी क्षमता के मुताबिक जुटा ही हुआ है लेकिन कुछ जिम्मेवारी तो केन्द्र की भी है। जिसे पूरी इमानदारी से निभाने में अगर कोताही बरती गयी तो अगले साल होनेवाले सूबे के विधानसभा चुनाव में भाजपा को इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur