मंगलवार, 17 मई 2016

‘बेरंग आतंक पर चढ़ा सियासी रंग’

‘बेरंग आतंक पर चढ़ा सियासी रंग’


कहने को तो सभी कहते हैं कि आतंक का कोई रंग नहीं होता। लेकिन आतंक को खास रंग से जोड़ने की सियासत भी समानांतर ही चलती रहती है। लिहाजा आतंक के प्रति इस दोहरेपन को लेकर किसी के भी मन में उलझन होना स्वाभाविक ही है। लेकिन दिलचस्प बात है कि उलझन कहीं नहीं है। ना उस तरफ ना इस तरफ और ना ही दोनों के बीच की निरपेक्ष धारा में। हर तरफ स्थिति पूरी तरह स्पष्ट है। अगर ऐसा नहीं होता तो एक खास सियासी धारा के अनुगामियों द्वारा सोशल मीडिया के माध्यम से इस सवाल को तूल ही नहीं दिया जाता कि हर आतंकी वारदात में निराकार के उपासकों का खास रंग ही शामिल क्यों दिखायी देता है और इसके जवाब में साकार के सनातन उपासकों का रंग भी आतंक पर चढ़ाने की कोशिश हर्गिज नहीं की जाती। ना तो मालेगांव धमाके के बाद शरद पवार द्वारा मामले की जांच को हिन्दूवादी संगठनों की ओर मोड़ने की औपचारिक गुजारिश की जाती और ना ही अलग से भगवा आतंकवाद शब्द गढ़े जाने की जरूरत पड़ती। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हुआ। क्योंकि दूसरे पक्ष की भावनाओं को सहलाकर अपनी सियासी जरूरतें पूरी करनी थीं। भले इसके नतीजे में पाकिस्तान को समझौता ब्लास्ट व मालेगांव ब्लास्ट की दुहाई देकर यह राग आलापने का मौका मिल गया हो कि भारत में होनेवाली आतंकी वारदातों से उसका कभी कोई लेना-देना रहा ही नहीं है। इन्हें तो सिर्फ सियासी रोटियां सेंकने के लिये ज्वलंत मसलों की दहकती आग चाहिये। भले ही वह आग आतंक की भट्ठी से ही क्यों ना निकल रही हो। हालांकि इसके लिये किसी एक पक्ष को ही दोषी मान लेना कतई सही नहीं होगा बल्कि इस हम्माम में सभी एक बराबर ही अनावरित हैं। वैसे भी बात जब वोट बैंक की हो तो कौन इस मौके का छोड़ना चाहेगा। तभी तो समाज में फूट डालने की इस हद तक कोशिशें हुई कि ना सिर्फ आतंक को अलग-अलग रंग के चश्मे से दिखाने का प्रयास हुआ बल्कि फौज में भी रंग के आधार पर रंगरूटों की गिनती करने की कोशिश की गयी और कारगिल के शहीदों की सूची जारी करके नये सिरे से समाज में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास भी हुआ। वास्तव में इस सबके पीछे सोच यही रही कि समाज को बांटो और अपना सिक्का चलाओ। लेकिन वोटबैंक की इस सियासत ने ना सिर्फ देश का हित खतरे में डाला है बल्कि हमारी उन संस्थाओं की निष्पक्षता पर भी उंगली उठ रही है जिन पर किसी भी मामले की जांच करके हकीकत को सतह पर लाने की जिम्मेवारी है। सीबीआई को तो सर्वोच्च न्यायालय पहले ही सरकारी तोता करार दे चुकी है लेकिन अब एनआईए भी इस मामले में कहीं से भी अलग नहीं दिख रही। तभी तो एनआईए पर पहले भी आरोप लगे कि उसने आतंकी वारदातों में भगवा रंग की संलिप्तता पुख्ता करने के लिये नकली गवाह खड़े करने व एकपक्षीय साक्ष्य जुटाने की पहल की थी और आज खुद एनआईए ही यह स्वीकार कर रही है कि कर्नल पुरोहित के घर से बरामद आरडीएक्स जांच एजेंसी ने ही प्लांट किया था। यहां तक कि कर्नाटक एफएसएस के निदेशक रह चुके बीएम मोहन भी यह स्वीकार कर रहे हैं कि अगर सिमी के आतंकियों पर किये गये नार्को टेस्ट, ब्रेन मैपिंग व लाई डिटेक्टर टेस्ट को आधार बनाकर एनआईए ने अपनी जांच आगे बढ़ाई होती तो समझौता एक्सप्रेस व मालेगांव में हुए धमाकों की अलग की तस्वीर सामने आती। मोहन का दावा है कि सिमी के तीन आतंकियों ने ना सिर्फ इन आतंकी वारदातों में अपनी भूमिका कबूल की थी बल्कि यह भी बताया था कि लंदन में रहनेवाले राहिल नाम के पाकिस्तानी मूल के शख्स ने इन धमाकों की फंडिंग की थी और सिमी से जुड़े सफदर नागौरी ने इस पूरी साजिश की पटकथा तैयार की थी। यानि सिमी के आतंकियों का नार्को, ब्रेन मैपिंग व लाई डिटेक्टर टेस्ट करनेवाले मोहन की बातों से इतना तो साफ है कि एनआईए की कोशिश असली गुनहगारों को सामने लाने की रही ही नहीं। बल्कि उसने मनचाहे लोगों को पहले दबोचा और बाद में उन पर पूरे मामले में संलिप्तता सुनिश्चित करने के लिये साक्ष्य व सबूत तलाशने की पाताल-तोड़ कोशिशें की। इसमें असली गुनहगारों के खिलाफ सामने आये साक्ष्य व सबूतों को भी इस मकसद से रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया कि कहीं उनके सामने आने से उन लोगों को बच निकलने का मौका ना मिल जाये जिन्हें उसने पूरे मामले में फ्रेम किया है। खैर, निजाम बदलने के बाद अब नये सिरे से मामले भी खुल रहे हैं और नयी मानसिकता के साथ कानून भी अपना काम कर रहा है जिसके बारे में सरकार कह रही है कि अब जांच पूरी तरह निष्पक्ष तरीके से हो रही है जबकि विरोधियों का मानना है कि भगवा रंग को आतंक के कलंक से बचाने के लिये समझौता व मालेगांव धमाके के दोषियों को बचाने का प्रयास किया जा रहा है। यानि एनआईए की निष्पक्षता को ना तो पिछली सरकार के कार्यकाल में सर्व-स्वीकार्यता मिली और ना ही अब मिल रही है। खैर, जब एक बार कोई बात निकल आती है तो उसका दूर तक जाना तो स्वाभाविक ही है लेकिन पकड़ से बाहर निकल चुकी बात से देश की छवि को पहुंचे आघात और सामाजिक सौहार्द्र व भाईचारे को हुए नुकसान की भरपायी का प्रयास तो करना ही होगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

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