मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

‘अपनों को दुत्कार कर परायों से प्यार’

राजनीति में आडवाणी शब्द अब संज्ञा से बढ़कर विशेषण हो गया है। यह विशेषण विभिन्न दलों के नेताओं के साथ भी जुड़ रहा है और कई सामाजिक संगठनों के संचालकों के साथ भी। सबसे ताजा आडवाणी बने हैं डाॅ प्रवीण तोगडिया, जिन्हें दूध में गिरी हुई मक्खी की तरह विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष के पक्ष से धक्के मार कर हटाया गया है। इसी प्रकार कांग्रेस ने भी जनार्दन द्विवेदी को संगठन महासचिव के पद से हटाकर आडवाणी ही बना दिया है। कहा तो यह जा रहा है कि शीघ्र ही कांग्रेस में आडवाणियों की फौज दिखाई देगी। जदयू ने शरद यादव को आडवाणी बना दिया है। लेकिन सबसे कम उम्र के स्वघोषित आडवाणी तो कुमार विश्वास ही हैं जिनसे आम आदमी पार्टी ने राजस्थान के संयोजक की जिम्मेवारी भी छीन ली है। हालांकि विश्वास के साथ यह व्यवहार होना तो तब ही तय हो गया था जब उन पर अरविंद केजरीवाल को किनारे करने के लिए पार्टी में बगावत का माहौल खड़ा करने का इल्जाम लगा था। वैसे भी सेना द्वारा पाकिस्तान में की गई सर्जिकल स्ट्राइक को सही करार देते हुए इसका सबूत मांगे जाने को गलत बताने के बाद से ही विश्वास पार्टी आलाकमान का भरोसा खो चुके थे और संगठन में विघटन के बीजारोपण का इल्जाम सामने आने के बाद उन्हें प्रबल दावेदारी के बावजूद राज्यसभा के टिकट से वंचित कर दिया गया था। बताया जाता है कि आप सुप्रीमो केजरीवाल ने उन्हें पहले ही बता दिया था कि वे उन्हें मारेंगे जरूर लेकिन शहीद नहीं बनने देंगे। ऐसा ही हुआ भी है। पहले उन्हें राज्यसभा के टिकट से वंचित किया गया और अब राजस्थान का प्रभार छीन कर उन्हें केजरीवाल ने राजनीतिक तौर पर मार भी डाला है और शहादत का संतोष भी मयस्सर नहीं होने दिया है। लेकिन इसके लिए जिन तर्कों और दलीलों की आड़ ली गई है वह ना सिर्फ हास्यास्पद बल्कि अविश्वसनीय भी है। आप की ओर से कहा गया है कि इस साल के अंत में होने वाले राजस्थान विधानसभा चुनाव को लेकर कतई जोखिम नहीं लिया जा सकता। पार्टी के मुताबिक अपनी व्यस्तताओं के कारण विश्वास राजस्थान में अपेक्षित वक्त नहीं दे पा रहे थे जिससे आप के हितों को नुकसान पहुंच रहा था। हालांकि पार्टी कुछ भी कहे लेकिन सच तो यह है कि राज्यसभा के टिकट से वंचित किए जाने और राजनीति की मुख्यधारा से हाशिये पर धकेले जाने के बाद अपनी निष्ठा और समर्पण को साबित करने के लिए विश्वास ने खुद को पूरी तरह राजस्थान में झोंक दिया था। खैर, सच पूछा जाए तो केजरीवाल ने विश्वास को अपना वही रंग दिखाया है जिसका स्वाद अन्ना हजारे पहले ही चख चुके हैं। अन्ना को चकमा देकर उनके सामाजिक आंदोलन का राजनतिकरण करने के बाद उन्होंने ना सिर्फ भूषण पिता-पुत्र, प्रो. आनंद कुमार व योगेन्द्र यादव सरीखे पार्टी के शीर्ष संस्थापकों को बेइज्जत करके संगठन से निकाला बल्कि अमानुल्ला खान को निलंबित और कपिल मिश्रा को निष्कासित करके स्पष्ट तौर पर जता दिया कि वे जिस पार्टी का संचालन कर रहे हैं उसका नाम भले ही एएपी यानि ‘आम आदमी पार्टी’ हो लेकिन उसकी रीति-नीति एएपी यानि ‘अरविंद अकेला पार्टी’ की ही रहेगी। जो भी उनके वर्चस्व को चुनौती देने की हिमाकत या अपनी मर्जी से एक कदम भी आगे बढ़ने की जुर्रत करेगा उसके लिए पार्टी में कोई जगह नहीं होगी। आप में रह कर सही बात को सही और गलत को गलत कहने का अंजाम क्या होता है उसके भुक्तभोगी विधायक देविंदर सहरावत भी हैं जिन्हें पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस कारण निलंबित कर दिया गया क्योंकि उन्होंने पार्टी की पंजाब इकाई के नेताओं पर टिकट के बदले महिलाओं के शोषण का आरोप लगाया था। इसी प्रकार का व्यवहार पंजाब में पार्टी को खड़ा करनेवाले सुच्चा सिंह के साथ भी हुआ जिन्हें प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान ही सूबे के संयोजक पद से हटा दिया गया। यानि समग्रता में देखा जाए तो केजरीवाल ने हर किसी का सिर्फ इस्तेमाल ही किया और जब बदले में कुछ देने की नौबत आई तो उसे संगठन से बाहर खदेड़ दिया। अब स्थिति यह है कि पार्टी में ऐसे लोग गिने-चुने ही बचे हैं जो शून्य से शिखर के सफर में शुरू से केजरीवाल के साथ रहे हों। लेकिन यह तय है कि अब तक जिस तरह से केजरीवाल अपने बराबर बैठने वालों को एक के बाद एक करके किनारे लगाते आए हैं उसी तर्ज पर उनका अगला बड़ा शिकार भी जल्दी ही सामने आ जाएगा। सच पूछा जाए तो काम निकाल लेने के बाद किसी को भी दूध में पड़ी हुई मक्खी की तरह उठाकर बाहर फेंक देने की कला में केजरीवाल वाकई सिद्धहस्त हो चुके हैं। खैर, अब तक तो उनकी यह कार्यशैली लगातार सफल ही साबित होती आ रही है और उन्हें इसका कोई नुकसान नहीं झेलना पड़ा है। लेकिन केजरीवाल ने अपनों को अपमानित और प्रताड़ित करने की जो राह पकड़ी हुई है उससे भले अभी तक उनका निजी तौर पर कोई बड़ा नुकसान ना हुआ हो लेकिन इसने किसी अन्य आंदोलन से बदलाव की बयार बह पाने की उम्मीदों को अवश्य ही चकनाचूर कर दिया है। अब जब भी कोई नया आंदोलन अस्तित्व में आएगा तो उसे सबसे पहले केजरीवाल द्वारा गढ़ी गई ऐसी छवि से चुनौती मिलेगी जिसके कारण आम लोग अब शायद ही किसी नए-नवेले पर भरोसा कर पाएं। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

‘सतह पर आने के बाद जड़ों की तलाश’


जिस दरख्त को वक्त की आंधी ने अर्श से फर्श पर पटक दिया हो उसके पास दो ही विकल्प बचते हैं। या तो वह दोबारा हिम्मत, ऊर्जा और जोश को एकत्र कर दोबारा खड़े होने के लिए कमर कसे या फिर जड़ों को कमजोर करनेवाली कमियां, खामियां और बीमारियां दुरूस्त करे ताकि मजबूत जड़ों के सहारे आसमान छूने के सफर की मजबूत शुरूआत की जा सके। इस लिहाज से देखें तो भारतीय राजनीति में कांग्रेस को इतना बुरा वक्त पहले कभी नहीं देखना पड़ा जैसा मौजूदा दौर में भुगतना पड़ रहा है। दशकों तक पूरे देश की पंचायतों, स्थानीय निकायों व प्रदेशों से लेकर पार्लियामेंट तक में जिस कांग्रेस की तूती बोलती थी उसकी अधोगति का आलम यह है कि इस समय उसकी झोली में सिर्फ तीन राज्य (पंजाब, कर्नाटक व मिजोरम) और एक केन्द्र शासित प्रदेश पुदुचेरी ही शेष है। प्रादेशिक स्तर पर गौर करें तो देश के सबसे ताकतवर सियासी सूबे उत्तर प्रदेश की विधानसभा में कांग्रेस के पास इतने विधायक भी नहीं हैं कि एक अदद राज्यसभा की सीट पर पार्टी अपना कब्जा जमा सके। पंजाब को छोड़ दें तो पूरे उत्तर व मध्य भारत में कांग्रेस का सफाया हो चुका है और दक्षिण में भी उसकी हालत महज उपस्थिति दर्ज कराने भर की ही बची है जबकि मिजोरम पर शासन के नाते नाम भर को पूर्वोत्तर में कांग्रेस का एक पांव जमा हुआ है। अलबत्ता देश के पश्चिमी सूबों में सत्ता से बेदखल होने के बावजूद मजबूत विपक्ष के नाते पार्टी ने गिनाने भर को अपनी मजबूत पकड़ अवश्य बरकरार रखी हुई है। यानि समग्रता में देखें तो पार्टी ऐसी स्थिति में पहुंच चुकी है जहां से अगर वह नहीं संभल पायी तो कांग्रेस का नाम सिर्फ किताबों में ही सिमट कर रह जाएगा। यही वजह है कि कर्नाटक के चुनाव को लेकर कांग्रेस भी जान और मान रही है कि यह उसके अस्तित्व की लड़ाई है। लेकिन कहते हैं कि राजनीति असीमित संभावनाओं को संभव कर दिखाने का ऐसा खेल है जिसमें किसी भी संभावना को किसी भी वक्त कतई खारिज नहीं किया जा सकता है। इसी आस और उम्मीद से कांग्रेस ने भी एक नयी शुरूआत करके अगले साल होने जा रहे लोकसभा चुनाव के महासंग्राम में एक बार फिर विजय पताका लहराने के लिए कमर कसना शुरू कर दिया है। हालांकि पार्टी की जो मौजूदा दुर्दशा दिख रही है काफी हद तक वैसे ही जनविरोध का सामना इसे तब भी करना पड़ा था जब आपातकाल के बाद के दौर में इंदिरा गांधी की अगुवाई वाले पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को मतदाताओं ने खारिज कर दिया था। लेकिन उस दौर में प्रादेशिक स्तर पर मौजूद विश्वसनीयता व मजबूती की बदौलत कांग्रेस अपने बुरे वक्त से बहुत ही जल्दी उबर गई थी। लेकिन इस बार जो बुरा वक्त आया उसमें पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को संभलने के लिए प्रदेशिक स्तर से भी सहायता नहीं मिल पाई और केन्द्र में पार्टी के हाथों से सत्ता फिसलने के बाद जमीनी स्तर पर पर भी पार्टी की कमर टूट गई। लेकिन अब इतिहास से सीख लेते हुए कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर मजबूती से खड़े होने के लिए प्रादेशिक समीकरणों को साधने को प्राथमिकता देने की राह पकड़ी है। दरअसल प्रादेशिक स्तर पर पार्टी के बिखरने की सबसे बड़ी वजह अंदरूनी गुटबाजी और चरण-वंदन की परंपरा रही जिसके कारण नए नेतृत्व को उभरने का मौका नहीं मिल सका और पुराने नेतृत्व की खो चुकी धार व फीकी पड़ चुकी चमक का खामियाजा संगठन को शिकस्त के रूप में भुगतना पड़ा। ऐसा ही राजस्थान में भी हुआ और मध्य प्रदेश में भी। छत्तीसगढ़, हिमाचल, उत्तराखंड और महाराष्ट्र से लेकर कर्नाटक तक में पार्टी की पतली हालत की वजह कमोबेश एक जैसी ही रही। लेकिन राहुल गांधी द्वारा प्रादेशिक स्तर पर संगठन की समस्यों को सुलझाने और विभिन्न गुटों का तुष्टीकरण करने बजाय सबको किसी एक का नेतृत्व स्वीकारने के लिए मनाने-समझाने का ही नतीजा रहा कि पंजाब में पार्टी को अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल करने में सफलता मिल सकी और गुजरात में भी भाजपा को सौ सीटों के भीतर सिमटने के लिए विवश होना पड़ा। गुजरात और पंजाब में कामयाबी के बाद अब अन्य प्रदेशों में भी पार्टी को इसी तरीके से दोबारा अपने पांव पर खड़ा करने की कोशिश शुरू हो गई है। इसी रणनीति के तहत कांग्रेस ने संगठन महामंत्री के पद पर जनार्दन द्विवेदी के स्थान पर अशोक गहलोत की नियुक्ति की है ताकि केन्द्रीय संगठन को प्रादेशिक भावना के अनुरूप गढ़ा जाए और प्रदेश इकाई के मतभेदों को दूर करके एक सशक्त, मजबूत, भरोसेमंद और युवा स्थानीय चेहरे को सर्वसम्मति से आगे बढ़ाने की राह आसान हो सके। यही फार्मूला जल्दी ही उत्तर प्रदेश में भी आजमाया जाएगा और मध्य प्रदेश में भी। दरअसल बीते दिनों दिल्ली में हुए कांग्रेस महाधिवेशन में मुख्य मंच को पूरे वक्त खाली रखकर केन्द्रीय नेतृत्व को भी प्रादेशिक नेतृत्व के साथ पंक्तिबद्ध करके बिठाकर स्पष्ट संकेत दे दिया गया है कि पार्टी दिल्ली के दिशा-निर्देशों से संचालित नहीं होगी बल्कि जमीन से उठनेवाली हवा ही पार्टी की दशा-दिशा और रीति-नीति तय करेगी। ऐसे में स्वाभाविक है कि जब केन्द्र में प्रदेश की भावना का ध्यान रखा जाएगा तो स्वाभाविक तौर पर प्रदेश से पार्टी के लिए शुभ समाचार ही समाने आएगा और सत्ता का सूखा समाप्त होने की संभावना बनते देर नहीं लगेगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   @नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur