सोमवार, 28 दिसंबर 2015

‘पड़ोसी के साथ रिश्ते में पर्देदारी पर हंगामा’

‘पड़ोसी के साथ रिश्ते में पर्देदारी पर हंगामा’

नवकांत ठाकुर
प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की सरजमीं पर कदम क्या रखा, हंगामे की पोटली खुल गयी। हर तरफ हंगामा, हर तरफ गुस्सा। आक्रोश इधर भी है और उधर भी। अलबत्ता उधर तो हाफिज सईद सरीखे अमन के दुश्मन हंगामा मचा रहे हैं जबकि इधर बवाल काटनेवाले वे हैं जिनके शख्सियत की पाकीजगी पर कतई सुबहा नहीं किया जा सकता है। चाहे कांग्रेस हो या शिवसेना, यशवंत सिन्हा हों या केसी त्यागी। या फिर दिल्ली में सत्तारूढ़ एएपी ही क्यों ना हो। हर कोई प्रधानमंत्री के पाकिस्तान दौरे से बौखलाहट में है। इनके शब्द भले ही अलग हों लेकिन भाव यही है कि नरेन्द्र मोदी क्यों गये पाकिस्तान? जरूरत क्या थी वहां जाने की। दोनों मुल्कों के रिश्तों में ऐसी कौन सी तब्दीली आ गयी है जिससे बात इस हद तक पहुंच गयी कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधायी देने और उनकी नातिन की शादी से पहले मेंहदी के रस्म में शरीक होकर उसे शुभकामनाएं देने के लिये देशहित को हाशिये के हवाले करते हुए देश व विपक्ष को विश्वास में लिये बिना ही मोदी अचानक काबुल से लौटते हुए पाकिस्तान में उतर गये। मोदी के इस दौरे का विरोध करनेवालों को मलाल इस बात का है कि आखिर निजी रिश्ता निभाने के लिये पाकिस्तान की करतूतों को क्यों भुला दिया गया। मोदी कैसे भूल गये पंजाब की आग को, आतंक के झाग को, खून भरे फाग को, संसद हमले के दाग को, मुंबई के दुर्भाग्य को और गुलाम कश्मीर के भाग को। हेमराज के परिजनों की आस को, देश के विश्वास को, हजारों बेगुनाह मकतूलों के संत्रास को और पाक की नापाकियत के एहसास को भुलाकर अचानक मोदी का पाकिस्तान पहुंच जाना इस तरफ बहुतों को अखर रहा है। जाहिर है कि मोदी की इस यात्रा का विरोध इसलिये तो कतई नहीं किया जा रहा है क्योंकि उनकी राष्ट्रभक्ति पर किसी को कोई संदेह है। बल्कि किसी को आशंका यह भी नहीं है कि देशहित को अलग करके दोस्ती के लिये वे कोई ऐसा समझौता कर गुजरेंगे जिससे देश को जरा भी ठगे जाने का एहसास हो। लेकिन सवाल है पाकिस्तान की नापाक नीयत का और उसकी विश्वासघाती नीतियों का जिसके जाल में इससे पहले के हमारे कई प्रधानमंत्री फंस चुके हैं और देश को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है। वाजपेयी बस लेकर लाहौर गये लेकिन वापसी में झेलना पड़ा कारगिल का युद्ध। मनमोहन सिंह ने सुलह की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहा तो शर्मअल शेख के समझौते में बलूचिस्तान में धधक रही अलगाववाद की आग का गुनहगार बताने की कोशिश हुई भारत को। जब मनमोहन कश्मीर मसला हल करने के करीब पहुंचे तो मुंबई पर ऐसा भीषण हमला कर दिया जिसकी चिंगारी ने गुफ्तगू के सहारे सुलह की गफलत को भस्म कर दिया। खैर, इस हकीकत को तो कतई भुलाया नहीं जा सकता है कि जितने जख्म हमें पाकिस्तान ने दिये हैं उतना किसी ने नहीं दिया। बल्कि यूं कहें तो ज्यादा सही होगा कि हमारे तमाम जख्मों, बाहरी परेशानियों, समस्याओं व सिरदर्दियों का गुनहगार इकलौता पाकिस्तान ही है। दूसरी ओर पाक की नापाकियत का सबब ना सिर्फ कश्मीर है बल्कि बांग्लादेश भी है जिसे विश्व मानचित्र पर खुदमुख्तार वजूद देने के लिये पाकिस्तान को तोड़ दिया गया। साथ ही बलूचिस्तान की आग के लिये भी वह हमें ही जिम्मेवार समझता है। यहां तक कि एक विफल राष्ट्र होने के लिये भी उसकी नजर में हम ही गुनहगार हैं और हमारे कारण ही उसे चीन और अमेरिका से लेकर विभिन्न इस्लामिक मुल्कों की खैरात का मोहताज बनना पड़ा है। यानि जख्मों से कलेजा छलनी इधर भी है और उधर भी है। उस पर तुर्रा यह कि हमारी मौजूदा सरकार ने एक ओर उसकी आतंकपरस्ती को दुनिया में बेनकाब कर दिया है जिससे वैश्विक मदद की इमदाद आधे से भी कम रह गयी है और दूसरी ओर सरहद पर उसकी फौज जम्हाई भी ले तो उसके मंुह में बारूद भर दिया जा रहा है। यहां तक कि हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल ने उसके लिये इतनी सिरदर्दी का सामना इकट्ठा करवा दिया है कि उसकी खुराफाती आईएसआई को अपने मसले सुलझाने से ही फुर्सत नहीं मिल रही। साथ ही कश्मीरी अलगाववादियों को औकात में रहने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है। बातचीत का दरवाजा हमारी मर्जी से खुल भी रहा है और बंद भी हो रहा है। उसकी कोई शर्त स्वीकार नहीं की जा रही और आर्थिक गतिविधियां भी ऐसी हैं जिसमें भारत के हित को ही तरजीह दी जा रही है। यानि उसकी चैतरफा घेराबंदी का काम तो पूरा हो चुका है जिसमें फंसकर वह कसमसा भी रहा है और छटपटा भी रहा है। लेकिन कोई रास्ता तो खोलना ही पड़ेगा जिससे दोस्ती के लिये आवश्यक विश्वास बहाली कायम हो सके। वह रास्ता भी सियासी ही हो सकता है। उसकी सेना, आतंकी शुभचिंतकों या आईएसआई से तो बातचीत के हिमायती हम हो ही नहीं सकते। लिहाजा क्या बुरा है कि दोनों मुल्कों के शीर्ष नेता परस्पर दोस्ती का रिश्ता कायम करें और उनके रिश्ते इस हद तक सहज हों कि मेलजोल में सरहद की दीवार आड़े ना आये। वैसे भी ढि़ढ़ोरा पीटकर औपचारिक बातचीत की कोशिशों के अंजाम का इतिहास तो सर्वविदित ही है। क्यों ना टेढ़ी उंगली के बजाय एक बार सीधी उंगली से भी घी निकालने की कोशिश करें। वह भी खामोशी से, चुपके-चुपके। ताकि इन कोशिशों को किसी की नजर ना लगे। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’

गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

‘जाके प्रभु दारूण दुख देहीं, वाकी मति पहिले हर लेहीं’

‘मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना’

नवकांत ठाकुर
कहते हैं कि ‘जाके प्रभु दारूण दुख देहीं, वाकी मति पहिले हर लेहीं।’ तभी तो बुरा वक्त आने पर खुद से ही ऐसी गलतियां होनी शुरू हो जाती हैं जिसका परिणाम बेहद ही नकारात्मक निकलता है। मिसाल के तौर पर इन दिनों अपनों से लेकर परायों तक के निशाने पर आये दिख रहे अरूण जेटली सरीखे मौजूदा दौर के चाणक्य कहे जानेवाले नेता ने भी विपरीत व असहज स्थिति में उलझने के बाद एक के बाद लगातार इतनी गलतियां कर दी हैं कि इसे अपने पैर पर खुद कुल्हारी मारना ही माना जाएगा। बीते कई सालों से जिन आरोपों के पुलिंदे को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हुए कीर्ति आजाद द्वारा लगातार किये जा रहे हमलों से जेटली का बाल भी बांका नहीं हो रहा था उन्ही आरोपों की चंद चिंदियां अरविंद केजरीवाल के दल एएपी द्वारा सार्वजनिक तौर पर उड़ाये जाने के बाद से ही परिस्थितियों ने ऐसी पलटी मारी है कि अब सियासी हलकों में उनकी इमानदारी व शुचिता पर गंभीर सवालिया निशान लगने शुरू हो गये हैं। कोई उनके खिलाफ लगाये जा रहे आरोपों की संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराये जाने की मांग कर रहा है तो कोई उन्हें निर्दोष साबित होने तक अपने पद का परित्याग करने की सलाह दे रहा है। एएपी ने दिल्ली की सत्ता का इस्तेमाल करते हुए आरोपों की जांच के लिये आयोग गठित कर दिया है वहीं दूसरी ओर बकौल प्रधानमंत्री, कांग्रेस ने इस मसले को तूल देकर सरकार की छवि पर भ्रष्टाचार की कालिख चस्पां करने का अभियान छेड़ दिया है। इसमें संगठन व सरकार ने औपचारिक तौर पर जेटली के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करने में कोई कोताही नहीं बरती है और संसद के शीतसत्र का अवसान होने के फौरन बाद ही कीर्ति को पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिये संगठन से निलंबित करते हुए उन्हें चैदह दिनों के भीतर इस बात का जवाब देने के लिये कहा गया है कि क्यों ना उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया जाये। यानि संगठन ने कीर्ति पर सख्ती की तलवार चला दी है और जेटली ने भी खुद पर भ्रष्टाचार की कालिख उछालनेवालों पर दस करोड़ रूपये की मानहानि का दावा अदालत में दायर कर दिया है। जाहिर है कि इन तथ्यों के नजरिये से देखा जाये तो ना सिर्फ सरकार से लेकर संगठन तक ने जेटली के पक्ष में मजबूत किलेबंदी कर दी है बल्कि विरोधियों को अदालत में घसीटकर जेटली ने अपनी नैतिक व व्यावहारिक शुचिता प्रमाणित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन मसला यह है कि सियासत सिर्फ तथ्यों पर निर्भर नहीं होती। इसमें छवि का बड़ा महत्व होता है। मोदी सरीखे नेता अपने पूरे चुनावी अभियान में एक बार भी जयश्रीराम का नारा नहीं लगाने के बावजूद हिन्दू हृदय सम्राट माने जाते हैं जबकि राम मंदिर आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभानेवाले लालकृष्ण आडवाणी को 2009 के लोकसभा चुनाव में बहुसंख्यकों ने सिरे से नकार देना ही बेहतर समझा। मौजूदा मामले में भी जब तक जेटली ने खुद पर लग रहे आरोपों को गंभीरता से नहीं लिया तब तक कीर्ति के आरोप भी बासी लग रहे थे और ‘मारो और भागो’ की सियासत करनेवाले केजरीवाल को भी इस मामले में अधिक गंभीरता से नहीं लिया जा रहा था। लेकिन जैसे ही जेटली ने जुलूस के साथ जाकर आरोप लगानेवालों पर अदालत में मानहानि का दावा किया वैसे ही यह पूरा मामला समूचे देश में चर्चा का विषय बन गया। यहां तक कि भाजपा संगठन के भीतर भी इस मामले के उछलने से कईयों का दिल बाग-बाग हो गया। तभी तो जब संसद में जेटली के खिलाफ औपचारिक तौर पर अपनी बात रखने के लिये कीर्ति ने शून्यकाल में अपने दिल की बात कहने के हक का इस्तेमाल किया तो उस दौरान पार्टी के किसी सांसद ने दिखावे के लिये भी उनको रोकना या टोकना जरूरी नहीं समझा। अब आलम यह है कि जेटली की नैतिकता, शुचिता व इमानदारी पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। कोई भी यह मानने के लिये तैयार नहीं है कि उनके डीडीसीए का अध्यक्ष रहते हुए 140 करोड़ की लागत से तैयार हुए विश्वस्तरीय फिरोजशाह कोटला स्टेडियम के निर्माण में कोई घपला-घोटाला नहीं हुआ है। यानि तथ्यों के आधार पर जेटली भले ही खुद को मजबूत मान रहे हों लेकिन उनकी छवि पर तो बट्टा लगा ही है। अब बाकी मुद्दे गौण हैं और जेटली की शुचिता पर राष्ट्रीय बहस जारी है। पार्टी में भी अब यह बहस तो शुरू होगी ही कि क्या किसी नेता पर सिर्फ इसलिये उंगली नहीं उठायी जा सकती क्योंकि वह अपने दल का है? राष्ट्रहित को तरजीह देते हुए उसके खिलाफ उपलब्ध भ्रष्टाचार से जुड़े तथ्यों को सार्वजनिक करने पर अगर पार्टी से निलंबन व निष्कासन का सामना करना पड़े तो ‘राष्ट्र प्रथम, संगठन दोयम और स्वयं निम्नतम’ के नारे का दिखावा क्यों? यानि इस मामले में जितने भी कदम उठाये गये उनका असर अब यह हुआ है कि अव्वल तो भ्रष्टाचार में जेटली की संलिप्तता का मसला हर खासोआम की जुबान पर चढ़ गया है और दूसरे संगठन में वैचारिक व सैद्धांतिक स्तर पर नयी बहस व टकराव की स्थिति पैदा हो गयी है। दूसरे शब्दों में कहें तो कीर्ति को संगठन से भले ही निकाल दिया जाये लेकिन संगठन व सरकार की छवि पर लगा दाग अब लगातार पुख्ता ही होता जाएगा और जेटली के लिये स्थितियां दिनोंदिन असहज ही होती चली जाएंगी। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

‘आशियाने में आग लग रही घर के चिराग से’



‘आशियाने में आग लग रही घर के चिराग से’

जिन चिरागों पर दारोमदार हो घर में उजाले का वे ही अगर आशियाना खाक करने पर आमादा हो जाएं तो बाकी घरवालों को कितनी परेशानियों, समस्याओं व जगहंसाइ का सामना करना पड़ सकता है यह शायद ही किसी को अलग से समझाने की जरूरत पड़े। खास तौर से सियासत में चिराग ही अगर आशियाने में आग लगाने का जुगाड़ ढूंढ़ने लगे फिर तो कहना ही क्या। हालांकि आशियाने को खाक करके अपने वजूद और वकार में नयी बुलंदी लाने की रणनीति के तहत अगर चिराग ने बागी तेवर अपनाया हो फिर तो एक बार के लिये उसके प्रति सहानुभूति भी जतायी जा सकती है या फिर उसके नजरिये से भी पूरे माजरे को समझने का प्रयास किया सकता है। लेकिन बिना किसी फायदे के बेवजह चिराग भड़क उठे और आशियाने को लीलने के लिये तत्पर हो जाये तो ऐसे चिरागों को क्या कहा जाये। इसमें एक तथ्य यह भी है कि चिरागों की ज्वलनशीलता तो सबको झेलनी पड़ती है लेकिन आशियाना वही खाक होता है जिसमें आग के भड़कने का सामान भी हो। मिसाल के तौर पर बिहार में अपने ही खेमे को खाक करने पर आमादा चिरागों की कमी ना राजग में थी और ना ही महागठबंधन में। लेकिन महागठबंधन के बागी चिराग अपनी आग में खुद ही स्वाहा हो गये जिसने आशियाने की रौनक में इजाफा ही किया जबकि राजग के खुराफाती चिरागों को अपने पक्ष के अरमानों को जला डालने में जो कामयाबी मिली उसमें आशियाने की अंदरूनी कमियों, खामियों व गलतियों ने बारूद का काम किया। नतीजन अपनी रौशनी में खुद भी पूरी तरह नहा पाने की क्षमता नहीं रखनेवाले चिरागों ने खेमे में मौजूद बारूद का इस्तेमाल करके सूबे में राजग के तमाम अरमानों को सिरे से खाक कर दिया। कहने का तात्पर्य यह कि कोई भी चिराग तब तक आशियाने को खाक करने में कामयाब नहीं हो सकता जब तक घर में रखे किसी ज्वलनशील सामान के साथ उसका तालमेल ना हो। तभी तो भाजपा के चिरागों ने अपने ही आशियाने को खाक करने के लिये दिल्ली में सत्तारूढ़ एएपी को जो चिंगारी मुहैया करायी है उससे संगठन की सेहत पर कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है। अलबत्ता चिराग की नीयत अवश्य बेनकाब हो गयी है जिसकी सफाई देने के लिये उसे संगठन की ओर से समन भेज दिया गया है। दरअसल वाकया है पार्टी के चाणक्य कहे जानेवाले केन्द्रीय वित्तमंत्री अरूण जेटली से जुड़ा हुआ। उनकी निजी हैसियत और रसूख से तो पार्टी के कई चिराग हमेशा से जलते रहे हैं लेकिन उनके खिलाफ कोई ठोस मुद्दा तलाशने में अब तक किसी को कामयाबी नहीं मिल पायी है। लेकिन कहते हैं कि जैसे भूखे को चांद में भी रोटी ही नजर आती है और प्यासे को रेत के सेहरा में भी समुंदर का भरम हो जाता है वैसे ही उनके खिलाफ शिद्दत से कोई ठोस मामला तलाशनेवालों की डीडीसीए के अध्यक्ष के तौर पर वर्ष 1999 से 2013 तक उनके द्वारा निभायी गयी जिम्मेवारियों पर नजर पड़ी तो इसी दौरान उनकी अगुवाई में 141 करोड़ की भारी भरकम लागत से निर्मित फिरोजशाह कोटला स्टेडियम में इन बागियों को फर्जीवाड़ा नजर आने लगा। वे यह मान बैठे कि अगर इमानदारी की हिस्सेदारी के हिसाब से उसमें दस फीसदी रकम भी इधर-उधर हुई होगी तो 14-15 करोड़ के घपले-घोटाले का बोझ तो जेटली के कांधे पर आ ही जाएगा। सूत्र बताते हैं कि इसी खुराफाती सोच के साथ इन बागी चिरागों ने कांग्रेसनीत संप्रग के दूसरे कार्यकाल में कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी को यह बताकर जेटली के खिलाफ भड़का दिया कि उनके दामाद राॅबर्ट वाड्रा के खिलाफ हो रहे हमलों का संचालन जेटली ही कर रहे हैं। जाहिर है कि ऐसी बात जानने के बाद सोनिया का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया और बागियों की पौ-बारह हो गयी। सरकार ने डीडीसीए के अध्यक्ष के तौर पर जेटली के पूरे कार्यकाल की जांच का जिम्मा ‘सीरियस फ्राॅड इन्वेस्टिगेशन आॅफिस’ यानि एसएफआईओ को दे दिया। उसने पूरी जांच-पड़ताल के बाद ना सिर्फ जेटली को क्लीन चिट दे दी बल्कि उनके कार्यकाल के दौरान डीडीसीए में कुछ भी घपला-घोटाला होने से उसने साफ इनकार कर दिया। खैर, इस जांच रिपोर्ट के बाद कांग्रेस ने तो इस मामले में गलत जानकारी देनेवाले बागियों से किनारा कर लिया लेकिन अब इन्हें अरविंद केजरीवाल के तौर पर नया विस्फोटक मिल गया जिसने भाजपा से निजी दुश्मनी पाल ली है। बागियों ने कानूनी तौर पर पिट चुके इसी मसले की फाइलें केजरीवाल को दे दी जिसे एएपी ने हाथों-हाथ लपकते हुए जेटली की छवि खराब करने की जंग छेड़ दी। एएपी को उम्मीद तो यही थी कि भाजपा से बुरी तरह चिढ़ी बैठी कांग्रेस सरीखी पार्टियां इस जंग में उसका सहयोग अवश्य करेंगी लेकिन पूरे मामले की हकीकतों से पहले ही अवगत हो चुकी कांग्रेस ने इसे संसद में उठाना भी जरूरी नहीं समझा। लिहाजा एक बार फिर बागी चिरागों के अरमान धरे रह जाने की उम्मीद ही प्रबल दिख रही है। खैर, सियासत में प्रतिद्वन्द्विता को तो गलत नहीं कहा जा सकता है लेकिन इस टकराव में आशियाना ही ध्वस्त करने पर आमादा हो जानेवालों को इतना तो याद रखना ही चाहिये कि जिस चारदीवारी ने बाहरी तूफानों से महफूज रखकर उनके अस्तित्व को आकार, आधार और विस्तार दिया है, उसके झरोखे का एक पर्दा भी जल जाने की सूरत में इनके अपने वजूद का क्या होगा? ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’    @नवकांत ठाकुर

सोमवार, 14 दिसंबर 2015

‘बेसबब तो नहीं हैं मजहबी मजदूरों की अंगड़ाइयां’

‘बेसबब तो नहीं हैं मजहबी मजदूरों की अंगड़ाइयां’

नवकांत ठाकुर
मुनव्वर राणा साहब का कहना है कि ‘हां इजाजत है अगर कोई कहानी और है, इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है, मजहबी मजदूर सब बैठे हैं इन्हें कुछ काम दो, इक इमारत शहर में काफी पुरानी और है।’ वाकई मजहबी मजदूरों की फौज इन दिनों खाली बैठी हुई ही नजर आ रही है। हालांकि इसका यह कतई मतलब नहीं है कि अब कोई पुरानी इमारत बची ही नहीं है या इन मजदूरों का हौसला पस्त हो गया है। ना तो इमारतें खत्म हुई हैं और ना ही मजहबी मजदूरों की नीति या नीयत में कोई अंतर आया है। अलबत्ता सन्92 के मजदूरों का जोश, जीवट और जुनून तो आज भी बदस्तूर बरकरार है। ये तो आज भी इस इंतजार में हैं कि दुबारा इन्हें कुछ काम मिले। लेकिन मसला यह है कि अब वे ना तो बंधुआ मजदूरी करना चाहते हैं और ना ही मनरेगा की माफिक न्यूनतम मजदूरी लेकर अपने उस काम को अंजाम देने के लिये तैयार हैं जिसमें वे सिद्धहस्त हैं, प्रवीण हैं, कुशल हैं। बल्कि अब उनकी महत्वाकांक्षा अधिकतम मजदूरी का पक्का वायदा लेने के बाद ही उस काम को हाथ में लेने की है जिससे इनकी नजर में ठेकेदार को असीमित मुनाफा होना पूरी तरह तय है। दरअसल इनके पिछले काम का परिणाम भले ही आशा से अधिक फलदायक रहा हो लेकिन इसका पूरा प्रतिफल उन्हें नहीं मिला जिन्होंने मैदान में उतर कर मजदूरी की। अपना खून पसीना बहाकर पुरानी इमारत को जमींदोज किया। बल्कि इसका फायदा तो वास्तव में उन ठेकेदारों के हिस्से में ही आया जिन्होंने सियासी निशाना साधने के लिये मजदूरों के कांधे का इस्तेमाल किया। मजदूर तो मुगालते में ही रह गये जबकि मलाई के कटोरे पर ठेकेदारों का कब्जा हो गया। हालांकि कुछ मजदूरों को सांत्वना पुरस्कार के तौर पर कुछ पारितोषिक अवश्य मिला लेकिन वह भी कुछ गिने-चुने अकुशल, अर्धकुशल व सहायक मजदूरों के हिस्से में ही आया। असली कारीगरों को तो ‘बाबाजी का ठुल्लु’ ही मिला। खैर, उस दौर के अधिकांश अगली पांत के कारीगर या तो परलोक सिधार चुके हैं या फिर सिधारने की कतार में खड़े हैं। जबकि ठेकेदारों की तीसरी पीढ़ी भी अब तक उनकी कारीगरी के एवज में हासिल मलाई को जमकर मथ रही है और मूल से अधिक हो चुके ब्याज के दम पर मौज मार रही है। लिहाजा तत्कालीन कारीगरों के जो सहायक अब पूरी तरह तप-पककर सबल-प्रबल हो चुके हैं उन्हें शिद्दत से यह मलाल होना लाजिमी ही है कि काश उस ब्याज में उन्हें भी कुछ हिस्सा मिल पाता। इसके अलावा तत्कालीन वरिष्ठ कारीगरों की दूसरी पीढ़ी भी अब नये काम की तलाश में शिद्दत से जुटी हुई है ताकि पिछली बार की कसर भी अबकी बार ही निकाल ली जाये। साथ ही अब मजहबी मजदूरों की एक नयी फौज भी तैयार हो चुकी है जो पिछले ठेके के दौरान या तो नाबालिग थी या फिर बेहद पिछली कतार में रहकर जिसने नगण्य सी भूमिका निभाई थी। दूसरी ओर मुनाफे की मलाई पर कब्जा जमा लेनेवालों की तीसरी पीढ़ी सतही तौर पर तो विरासत में हासिल मूल और अपने दम पर कमाये उसके ब्याज से जमकर मौज उड़ाती दिख रही है लेकिन अंदरूनी हकीकत यही है कि उस काम का परिणाम अब दिनों-दिन विलुप्त व विस्मृत होता जा रहा है। नतीजन अब किसी नये काम को हाथ में लेना तीसरी पीढ़ी की मजबूरी बनती जा रही है। वैसे भी बुजुर्गों के काम-काज व रीति-नीति को अमल में लाने के अलावा इनकी ना तो कोई दूसरी पहचान है ना गति। लिहाजा नया काम तो ये भी हाथ लेना चाहते हैं ताकि एक बार फिर नये सिरे से सियासी पूंजी जमा की जाये और लंबे अर्से तक उसका आनंद लिया जाये। लेकिन मसला यह है कि इस काम को जमीनी स्तर पर अंजाम देने में सिद्धहस्त मजदूरों व कारीगरों की फौज अब अपनी पुरानी पीढ़ी की गलतियां नहीं दोहराना चाहती। तभी तो उसने सन्92 में खुदी नींव पर नयी इमारत तामीर कराने से लेकर काशी व ब्रज तक की पुरानी इमारतों की ओर इशारा करते हुए मुजफ्फरनगर और दादरी में अपनी अंगड़ाई की झलक भले दिखा दी हो लेकिन नए ठेके के एवज में मिलनेवाली मजदूरी व संभावित सियासी सफलता की मलाई में से अपनी अधिकतम हिस्सेदारी पहले से तय कर लेना चाहती है। जाहिर है कि ठेकेदारों को मजदूरों व कारीगरों का यह अडि़यल रवैया कतई रास नहीं आ सकता है लिहाजा उनके प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार के दिखावे का सिलसिला लगातार जारी है। खैर, मजदूरों व कारीगरों की अंगड़ाई और उसके प्रति ठेकेदारों के उपेक्षाभाव को तो वास्तव में दिखावा मानना ही उचित होगा क्योंकि अंग, बंग व कलिंग से लेकर द्वारिका क्षेत्र तक ही नहीं बल्कि दक्षिण व उत्तर-पूर्व में भी इन ठेकेदारों की नैया का कहीं कोई ऐसा खिवैया नहीं है जो उसे सत्ता के बंदरगाह तक सफलतापूर्वक पहुंचाने में समर्थ हो। तभी तो ठेकेदारों व मजदूरों का एकजुट होकर अपने परंपरागत धंधे को नये मुकाम तक ले जाना तय माना जा रहा है। लेकिन त्वरित सफलता का नया फार्मूला तलाश रहे इन मजहबी ठेकेदारों व मजदूरों से अदम गोंडवी के शब्दों में इतनी इल्तिजा तो की ही जा सकती है कि, ‘हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेडि़ये, अपनी कुर्सी के लिये जज्बात को मत छेडि़ये, हैं कहां हिटलर हलाकू जार या चंगेज खां, मिट गये सब कौम की औकात को मत छेडि़ये।’ ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

शनिवार, 12 दिसंबर 2015

‘ये समझदारों की दुनियां है विरोधाभास की’

‘ये समझदारों की दुनियां है विरोधाभास की’

नवकांत ठाकुर
कबीर परंपरा के कवि माने जानेवाले रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी साहब की मानें तो ‘मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की, ये समझदारों की दुनियां है विरोधाभास की, आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत, वो कहानी है महज प्रतिशोध की संत्रास की।’ वाकई राजतंत्र हो या लोकतंत्र, सियासत का इतिहास अक्सर प्रतिशोध की स्याही से ही लिखा जाता है। यानि सियासत को प्रतिशोध से अलग करके देख पाना बेहद ही मुश्किल है। तभी तो मौजूदा दौर में भी जिन सियासी सरगर्मियों ने संसद से सड़क तक कोहराम मचाया हुआ है उसकी असली वजह प्रतिशोध को ही बताया जा रहा है। प्रतिशोध यानि बदला, रिवेंज, इंतकाम। चुंकि सियासत में इंतकाम की परंपरा हमेशा से चली आ रही है लिहाजा अगर खुद की गलतियों के कारण भी कुछ खामियाजा भुगतना पड़ रहा हो तो उसे विरोधी पक्ष के बदले की कार्रवाई बताकर खुद के लिये जन सहानुभूति अर्जित करने का प्रयास करना बेहद आसान हो जाता है। तभी तो मौजूदा दौर का मजेदार तथ्य यह है कि भले ही सभी पक्ष इस बात पर एकमत हों कि सियासी दाल में प्रतिशोध की आंच से ही उबाल आया हुआ है लेकिन कोई भी पक्ष यह स्वीकार करने के लिये कतई तैयार नहीं है कि बदले की कार्रवाई उसकी ओर से की जा रही है। कांग्रेस की मानें तो सत्ताधारी भाजपा की ओर से उसके शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ राजनीतिक द्वेष के तहत बदले की कार्रवाई की जा रही है जबकि भाजपा की मानें तो लोकसभा चुनाव में मिली शिकस्त का बदला लेने के लिये ही कांग्रेस किसी भी सूरत में देश को उन्नति की राह पर आगे नहीं बढ़ने देना चाह रही है। इसी प्रकार सपा का कहना है कि उत्तर प्रदेश की सरकार को विकास व जनहित का काम करने से रोकने के लिये केन्द्र की ओर से मिलनेवाली मदद में लगातार कटौती की जा रही है जबकि केन्द्र की मानें तो अपने लिये सहानुभूति अर्जित करने के मकसद से ही सूबे की सपा सरकार बेवहज रोना-गाना कर रही है। इसी प्रकार पी चिदंबरम इस बात की चुनौती दे रहे हैं कि भाजपा को जो भी बदला लेना हो वह सीधा उनसे ले, उनके बेटे को 2जी घोटाले के मामले में ना फंसाए जबकि ममता बनर्जी का कहना है कि अगर हिम्मत है तो केन्द्र के इशारों पर काम कर रही सीबीआई उसे पकड़ के दिखाए। अरविंद केजरीवाल दावा करते हैं कि दिल्ली में मिली हार से बौखलायी भाजपा अब केन्द्र की ताकत का इस्तेमाल करके सूबे की जनता का जीना दुश्वार कर रही है जबकि तमाम गैरभाजपायी दल इस बात पर एकमत हैं कि मौजूदा केन्द्र सरकार आरएसएस की विचारधारा के विरोधियों को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। दूसरी ओर भाजपा की दलील है कि उसे लोकसभा में मिला हुआ बहुमत विरोधियों को हजम नहीं हो रहा है जिसके कारण उसके खिलाफ चैतरफा असहिष्णुता दिखायी जा रही है और राजनीतिक बदले के तहत उसकी तमाम महत्वाकांक्षी योजनाओं को किसी ना किसी बहाने से राज्यसभा की दहलीज के भीतर ही दफन कर दिया जा रहा है। यानि समग्रता में देखें तो इस समय हर पक्ष खुद को निरीह, मासूम व निर्दोष बताते हुए विरोधी पक्ष पर अपने खिलाफ साजिश रचने का इल्जाम लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। अपनी नजर में सभी बेहद भोले-भाले और सीधे-सादे हैं। कांग्रेसी इतने भोले कि अदालत के समन को भी प्रधानमंत्री कार्यालय की साजिश मानकर संसद का चक्का जाम कर देते हैं। अब कौन इनसे पूछे कि इसमें सरकार या संसद क्या कर सकती है। इसी प्रकार सत्तापक्ष भी इतना मासूम है कि संसद में शांति का माहौल ना बन रहा हो और उसके द्वारा प्रस्तावित विधेयकों को बाकियों का समर्थन नहीं मिल रहा हो तो वह इसे विरोधियों द्वारा प्रतिशोध की भावना के तहत किया जा रहा विरोध मान बैठता है। अब इन्हें कौन याद दिलाये कि जब ये निचले सदन में लोकसभा की बहुमत का लाभ लेकर वहां अपनी मनमानी करेंगे तो विरोधी पक्ष भी इन्हें राज्यसभा में मनमाना जवाब देगा ही। वैसे भी सदन में शांति व सहमति कायम करने की जिम्मेवारी तो इनकी ही है जिसके लिये अव्वल तो गंभीर प्रयास होता नहीं दिखता और अगर कभी पानी नाक से ऊपर उठने के बाद कुछ हाथ-पैर मारा भी जाता है तो देर से हुई इस क्रिया पर नकारात्मक प्रतिक्रिया ही सामने आती है। खैर, अपनी कमियां, खामियां और गलतियां स्वीकारना किसी को गवारा नहीं है। सबको शिकायत है कि विरोधी पक्ष उसके खिलाफ राजनीतिक बदले की भावना के तहत कार्रवाई कर रहा है। हर जगह बदले का ही बोलबाला है। आलम यह है कि किसी को जुकाम भी आये तो नजला विरोधियों पर ही गिरता है। ऐसे में आम लोगों की स्थिति वाकई बड़ी विचित्र हो चली है। किसको वह सही माने और किसको गलत। विपक्ष संसद ना चलने दे तो भी नुकसान देश का ही और सरकार अगर मनमानी करे तो उसका खामियाजा भी देश को ही उठाना पड़ेगा। यानि पक्ष-विपक्ष की चक्की में पिस रहा है देश और देश की असली समस्याएं हाशिये पर पड़ी अपनी अनदेखी का रोना रो रही हैं। ऐसे में देश के आम लोगों के दिल की आवाज भी अदम गोंडवी साहब के इस शेर में ही छिपी हुई महसूस हो रही है कि ‘सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिये, गर्म रखें कब तलक नारों से दस्तरखान को।’ ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

सोमवार, 7 दिसंबर 2015

‘इधर जाऊं, उधर जाऊं या किधर जाऊं’

‘इधर जाऊं, उधर जाऊं या किधर जाऊं’

नवकांत ठाकुर

यूं तो शकील बदांयुनी साहब ने ‘पालकी’ के लिये लिखा था कि ‘मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं, बड़ी मुश्किल में हूं अब किधर जाऊं।’ लेकिन मौजूदा सियासी माहौल में ये शब्द भाजपा की अंदरूनी हालत को ही बयां करते हुए महसूस होते हैं। वाकई भाजपा के लिये यह तय करना बेहद मुश्किल दिख रहा है कि वह इधर जाए, उधर जाए या किधर जाए। खास तौर से सांगठनिक स्तर पर सर्वसम्मति से आगे की दिशा निर्धारित करना फिलहाल उसके लिये नामुमकिन की हद तक मुश्किल ही दिख रहा है। हालांकि हार-जीत का सिलसिला तो सियासत में चलता ही रहता है लेकिन अगर पुरस्कार के लिये जीत को पैमाना बनाया जाएगा तो हार के लिये जिम्मेवारी भी तय करनी ही होगी। इससे बचा नहीं जा सकता। हालांकि अभीतक हार के लिये पार्टी में किसी को जिम्मेवार ठहराने की परंपरा नहीं रही है लेकिन परंपरा तो यह भी नहीं थी कि जीत को सामूहिक उपलब्धि मानने के बजाय किसी एक को इसका महानायक बताते हुए उसे विशेष तौर पर पुरस्कृत किया जाये। पहले तो हार भी सामूहिक होती थी और जीत भी। लेकिन इस दफा ऐसा नहीं हुआ। अलबत्ता यूपी का चुनाव प्रभारी रहते हुए सूबे में पार्टी को चमत्कारी परिणाम दिलानेवाले अमित शाह को लोकसभा चुनाव में हासिल जीत का महानायक करार दे दिया गया और पुरस्कार के तौर पर उनके हाथों में पूरे संगठन की कमान दे दी गयी। इससे जाहिर तो यही हुआ कि जीत सिर्फ शाह और मोदी की जोड़ी के कारण ही हासिल हुई है। लेकिन अब जबकि दिल्ली के बाद ना सिर्फ बिहार बल्कि गुजरात के स्थानीय निकायों में भी पार्टी को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी है तब सामूहिक नेतृत्व पर जिम्मेवारी डालकर किसी एक को इसके लिये दोषी ठहराने से परहेज बरता जा रहा है। जाहिर है कि ऐसे में सांगठनिक स्तर पर असंतोष का वातावरण तो बनेगा ही। बकौल शत्रुघ्न सिन्हा, अगर ताली कप्तान के हिस्से में आती है तो गाली भी कप्तान के ही हिस्से में आनी चाहिये। यानि अब मसला कप्तान पर आकर ठहर गया है। हालांकि दिलचस्प तथ्य यह है कि अभी अध्यक्ष के तौर पर शाह का अपना कार्यकाल आरंभ ही नहीं हुआ है। वे तो संगठन की जिम्मेवारी से मुक्त करके सत्ता के मोर्चे पर तैनात किये गये राजनाथ सिंह के बचे-खुचे कार्यकाल को पूरा कर रहे हैं जो कि अगले महीने समाप्त होने जा रहा है। लिहाजा नये अध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर संगठन में उत्सुकता, मगजमारी, प्रतिस्पर्धा व खींचतान का वातावरण बनना लाजिमी ही है। तभी तो इस मसले पर संगठन में तीन अलग-अलग धाराएं स्पष्ट दिख रही हैं। एक धारा शाह को ही इस पद पर बरकरार रखने की वकालत कर रही है जबकि दूसरी धारा किसी ऐसे को अध्यक्ष बनाने की सलाह दे रही है जिसका राष्ट्रीय राजनीति में अपना ठोस वकार-वजूद भी हो। साथ ही एक तीसरी धारा ऐसी भी है जो गुजरात में लगातार बिगड़ रहे सियासी समीकरण को संभालने के लिये शाह को वहां भेजने की जरूरत तो स्वीकार कर रहा है लेकिन पार्टी के नये अध्यक्ष के तौर पर वह किसी कद्दावर व आक्रामक नेता की नियुक्ति किये जाने के पक्ष में नहीं है। अलबत्ता इसकी मांग है कि अध्यक्ष के पद पर श्याम जाजू सरीखे ऐसे व्यक्तित्व की ताजपोशी की जाये जो ना सिर्फ सत्ता के शीर्ष संचालकों का भरोसेमंद हो बल्कि संगठन को सरकार की बी-टीम के तौर पर आगे ले जाये और किसी भी मसले पर सरकार से टकराव के बारे में सोचने की भी जहमत ना उठाए। जाहिर है कि जब तीन अलग धाराएं बह रही हैं तो उनमें आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा भी होगी। तभी तो सतही तौर पर अध्यक्ष पद की होड़ में अकेले दौड़ते दिख रहे शाह को अंदरूनी रूप से बेहद कड़ी प्रतिस्पर्धा झेलनी पड़ रही है। सूत्रों की मानें तो इसमें शाह को सबसे कड़ी टक्कर फिलहाल नितिन गडकरी से मिल रही है जिन्हें राजनीतिक साजिश के तहत ऐसे मामले में फंसाकर लोकसभा चुनाव की तैयारियों के आगाज के वक्त ही पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ने के लिये मजबूर किया गया जिसका बाद में कोई आधार ही नहीं मिला। पड़ताल में पूरा मामला हवा-हवाई ही पाया गया। अब इसका प्रायश्चित करते हुए अगर संघ की ओर से उन्हें दुबारा पार्टी की कमान सौंपने की कोशिश की जाती है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात ही नहीं है। वैसे भी 2009 के चुनाव में पार्टी को मिली करारी हार के बाद अपने तीन साल के कार्यकाल में गडकरी ने संगठन को इतना मजबूत कर दिया था कि 2014 के चुनाव में भाजपा को अपने दम पर हासिल बहुमत में उनके योगदान को कतई भुलाया नहीं जा सकता है। साथ ही उनमें ना सिर्फ संगठन को मोदी सरकार के समतुल्य खड़ा करने की क्षमता है बल्कि हार के अनवरत सिलसिले से संगठन को उबारने की कुशलता व दक्षता का भी वे अपने कार्यकाल में सफल व चमत्कारी मुजाहिरा कर चुके हैं जिसके दम पर लोकसभा चुनाव से काफी पहले ही राज्यसभा में तत्कालीन विपक्ष को बहुमत हासिल हो गया था। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि सत्ता की सुख-सुविधा छोड़कर संगठन की सिरदर्दी ओढ़ना उन्हें गवारा तो हो। वह भी तब जबकि आगामी दिनों में होने जा रहे तकरीबन आठ राज्यों के चुनाव में संभावित सिलसिलेवार हार से बच पाना पार्टी के लिये नामुमकिन की हद तक मुश्किल दिख रहा है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

‘पक गयी हैं आदतें.... आदत बुरी बला’

नवकांत ठाकुर
हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ गजलकार दुष्यंत कुमार ने आदतों को आधार बनाकर क्या खूब लिखा है कि ‘पक गयी हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं, पत्थरों में चीख हर्गिज कारगर होगी नहीं, सिर्फ शायर देखता है कहकहों की असलियत, हर किसी के पास तो ऐसी नजर होगी नहीं।’ वाकई पकी हुई आदतों को बदल पाना अक्सर नामुमकिन हो जाता है। यूं तो जीवन के हर क्षेत्र में पकी हुई आदतें अक्सर पगबाधा का ही काम करती हैं लेकिन सियासत की राहों में मौके की नजाकत व परिस्थितियों की मांग के मुताबिक आदतों में आवश्यक तब्दीली नहीं लाने का नतीजा अक्सर अनुमान से भी अधिक नकारात्मक हो जाता है। तभी तो आदतों में सुधार का प्रयास तो अक्सर सभी करते ही रहते हैं। लेकिन आदत तो आदत ठहरी। जो आसानी से बदल जाये वह आदत ही क्यों कहलाये। यह आदत ही तो है कि अन्ना आंदोलन की उपज माने जानेवाले अरविंद केजरीवाल केन्द्र सरकार से अपनी मांगें मनवाने के लिये मुख्यमंत्री पद पर रहने के बावजूद खुली सड़क पर लंबे वक्त तक धरना देने से खुद को रोक नहीं पाते हैं। कांग्रेस भी सत्ता में रहे या ना रहे लेकिन कांग्रेसियों की सत्ता की हनक कभी नहीं जाती। संसद में जो भी काम होगा वह उनकी मर्जी से होगा, वर्ना नहीं होगा। कोई भी विधेयक तभी पारित होगा जब वह कांग्रेस को पसंद आ जाये, वर्ना संसद को बाधित कर दिया जाएगा। उसके शीर्षनेता मनमाने तरीके से सदन में बोलेंगे, नहीं बोलेंगे। कोई कुछ नहीं बोल सकता। किसी भी सरकारी विभाग में कांग्रेसी नेताओं के सिफारिशी पत्रों की आवक में आज भी कोई कमी नहीं आयी है। आलम यह है कि सत्ताधारी दल होने के बावजूद भाजपा के नेताओं द्वारा भेजे गये सिफारिशी पत्रों से किसी को लाभ मिले या ना मिले लेकिन कांग्रेस के नेताओं का सिफारिशी पत्र बदस्तूर कारगर साबित हो रहा है। यानि समग्रता में कहा जाये तो सत्ता की आदत है कांग्रेस और कांग्रेस की आदत है सत्ता। कार्यपालिका आज भी कांग्रेस को जितनी तरजीह व स्वीकार्यता देती है उतनी शायद ही कभी भाजपा सरीखे किसी अन्य सत्ताधारी दल को मयस्सर हो सके। जाहिर है कि कार्यपालिका भी अपनी इस आदत से ही मजबूर है वर्ना कायदे से उसका दलगत राजनीति से लेना-देना क्या? खैर, आदत के हाथों मजबूर तो भाजपा भी है। विपक्ष में रहने के दौरान किये जानेवाले बर्ताव को ही सत्ता में आने के बाद भी जारी रखने को आदत ना कहें तो और क्या कहें? तभी तो असहिष्णुता के मसले पर लोकसभा में हुई चर्चा के दौरान जब मोहम्मद सलीम ने एक राष्ट्रीय पत्रिका में छपे आलेख का हवाला देते हुए राजनाथ सिंह पर कुछ ऐसी बात कहने की तोहमत लगा दी जो उन्होंने कभी कही ही नहीं थी तो इससे आहत होकर राजनाथ ने विपक्षी नेता के अंदाज में सलीम को धमका दिया कि अगर वे अपनी उस बात को वापस नहीं लेंगे तो पूरी भाजपा सदन से वाॅकआउट कर जाएगी। इसी प्रकार हर हफ्ते-दस दिन पर कांग्रेसी नेताओं से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर भाजपा द्वारा संवाददाता सम्मेलन आयोजित करने की परंपरा बदस्तूर जारी है मानो वह आज भी विपक्ष में रहने के कारण भ्रष्टाचारियों का कुछ भी बिगाड़ पाने के प्रति विवश ही हो। संसद में बोलने का मौका पाकर सांसदों से लेकर केन्द्रीय मंत्री भी इस कदर उत्साहित हो जाते हैं मानो वे आज भी विपक्ष में ही हों। तभी तो विभिन्न मसलों को लेकर संसद में हंगामे का शोर जितना सत्तापक्ष की कुर्सियों से गूंजता है उतनी आवाजें विपक्ष के खेमे से भी नहीं निकलती हैं। इसी प्रकार लोकसभा में मंत्री के बयान पर सवाल-जवाब करने की व्यवस्था व परंपरा नहीं रहने के बावजूद मौजूदा सरकार के मंत्री हर सांसद के सभी सवालों का विस्तार से जवाब देने के लिये हमेशा लालायित दिखते हैं। भले इससे नियम टूटे या परंपरा, मगर आदत नहीं छूटनी चाहिये, हमेशा व हर मसले पर बोलते रहने की। यहां तक कि प्रधानमंत्री भी विपक्षी नेता की मानिंद खुलकर बोलने के लिये इस कदर विख्यात हो गये हैं कि राजनीतिक गलियारे में इन दिनों यह मजाक चल निकला है कि पहले के प्रधानमंत्री थे जो शुरू ही नहीं होते थे और एक यह हैं जो रूकते ही नहीं हैं। खैर, यह तो हुई मजाक की बात जो मजाक है भी और शायद नहीं भी। लेकिन गंभीर बात तो यह है कि जनसंघ के दिनों से ही लगातार विपक्ष में रहने की आदत ने भाजपा के अधिकांश वरिष्ठ-कनिष्ठ नेताओं को ऐसा बना दिया है कि उनसे सत्ताधारियों सरीखे सोच व बर्ताव की झलक भी नहीं मिल रही है। नतीजन निचले स्तर के नेता-कार्यकर्ता अपनी ही सरकार की आलोचना करने से परहेज नहीं बरतते हैं जबकि संगठन को सत्ता हासिल होने जाने के बावजूद शीर्ष नेताओं का कार्यकर्ताओं व समर्थकों के साथ पुराना बर्ताव ही बदस्तूर जारी है और संघ से लेकर संगठन तक से जुड़े लोगों की तमाम अपेक्षाएं विवशता के प्रदर्शन की आड़ में की जा रही उपेक्षा की भेंट चढ़ जा रही हैं। नतीजन, सत्ता, संघ व संगठन की तिकड़ी तिराहे पर आमने-सामने दिख रही है जिसका नकारात्मक परिणाम दिल्ली व बिहार के विधानसभा चुनाव से लेकर गुजरात के स्थानीय निकायों में दिख ही चुका है और हर स्तर पर पुरानी आदतों से ही चिपके रहने का नतीजा आगे भी ऐसा ही सामने आने से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

बुधवार, 2 दिसंबर 2015

‘गले क्या मिले, गले ही पड़ गये’

नवकांत ठाकुर
बशीर बद्र साहब फरमाते हैं कि ‘कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, ये नये मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो।’ यानि तपाक से किसी के भी गले लग जाने की फितरत वालों से जहां आम तौर पर लोग हाथ मिलाना भी मुनासिब नहीं समझते हों वहां अगर कोई गले लगने के बहाने किसी के गले पड़ जाये तो सामने वाले की स्थिति कितनी विचित्र हो सकती है इसकी सबसे बेहतरीन व ताजा मिसाल अरविंद केजरीवाल ही हैं। कहां तो ये यह सोचकर बिहार गये थे कि प्रादेशिक व राष्ट्रीय स्तर पर कायम हो रही गैरभाजपावादी सियासी मोर्चाबंदी में हिस्सेदारी करेंगे, अल्पसंख्यक समुदाय के स्थापित हितैषियों संग मंच साझा करके अपने वोटबैंक का भरोसा बरकरार रखेंगे, सूबाई स्तर पर सहयोगियों की तादाद में इजाफा करके राष्ट्रीय राजनीति में अपना वजूद-वकार मजबूत करेंगे, भाजपा विरोधी अभियान में बोली से सियासी गोली दागनेवाली टोली से मिल रहे अनवरत सहयोग के लिये उसका शुक्रिया अदा करेंगे और दिल्ली की अपनी सरकार को हल्के में नहीं लेने की केन्द्र को नसीहत भी देंगे। यानि अरमान तो बहुत पाले थे केजरीवाल ने लेकिन हुआ यूं कि लालू के साथ मंच पर गलबहियां करके ऐसे फंसे कि ना इधर के बचे ना उधर के रहे। भगवा खेमे ने उस गलबहियां की बड़ी-बड़ी तस्वीरों का बैनर-पोस्टर लगवाकर केजरीवाल की भ्रष्टाचार विरोधी साख पर सवालिया निशान लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस ने भी मौके पर चैका ठोंकते हुए उनकी भ्रष्टाचार विरोधी सियासत को दिखावा साबित करना शुरू कर दिया। रही सही कसर पूरी करते हुए अन्ना आंदोलन के वे पुराने साथी भी जमकर जहर उगलने में जुट गये जिन्हें दिल्ली की सियासत पर केजरीवाल का कब्जा होने के बाद से सिर्फ रूसवाई की हाथ आयी है।  जाहिर है कि अपनी साख पर हो रहे इस चैतरफा हमले का माकूल जवाब तो इन्हें देना ही था। लेकिन जवाब देने की हड़बड़ी में वे यह कहकर और भी ज्यादा गड़बड़ी कर बैठे कि वे तो सिर्फ गैरभाजपाई गठजोड़ के प्रति समर्थन व्यक्त करने बिहार गये थे अलबत्ता लालू ने ही ना सिर्फ उन्हें गले लगा लिया बल्कि सियासी लड़ाई में एकजुटता दिखाने के लिये अपने साथ हाथ भी उठवा लिया जबकि वे तो लालू से हाथ भी नहीं मिलाना चाहते थे। अब ऐसी बात सुनकर इनके प्रति लालू का मन खट्टा होना तो स्वाभाविक ही है। नतीजन इनकी हालत यही हो गयी है कि ‘ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम, ना इधर के रहे ना उधर के रहे।’ इस पर चुटकी लेते हुए अन्ना ने भी कह दिया है कि वह तो अच्छा हुआ कि केजरीवाल से उनका नाता पहले ही टूट गया वर्ना लालू के साथ इनकी गलबहियांवाली तस्वीर से उनकी साख पर भी बट्टा लग जाता। यानि देश की मौजूदा सियासी तस्वीर में एक बार फिर केजरीवाल पूरी तरह अकेले पड़ गये हैं। हालांकि लालू से इनका गले मिलना या लालू का इनके गले पड़ना, बात वही है कि चाकू तरबूज पर गिरे या तरबूज चाकू पर। गलबहियां प्रकरण में नुकसान केजरीवाल का ही होना था जो हुआ भी। हालांकि लालू के साथ गलबहियां की तस्वीर प्रचारित-प्रकाशित होने के कारण उठे तूफान को वे यह कहकर भी रफा-दफा कर सकते थे कि लालू की बिटिया और मुलायम सिंह यादव के पौत्र की शादी में शिरकत करते हुए नरेन्द्र मोदी ने जो शिष्टाचार निभाया वही दस्तूर निभाने के लिये ये भी लालू से गले मिल लिये। लेकिन विरोधियों की चैतरफा घेरेबंदी से बौखलाकर लालू के साथ अपनी वैचारिक, सैद्धांतिक व राजनीतिक दूरी का प्रदर्शन करने के क्रम में इन्होंने ऐसी बात कह दी जिसके नतीजे में हुए नुकसान को तो विध्वंस का नाम देना ही ज्यादा सही होगा। दूसरी ओर लालू ने केजरीवाल के साथ जैसी राजनीति की है वह तो सीधे तौर पर कूटनीतिक साजिश ही मानी जाएगी जिसके तहत दिल्ली में कांग्रेस की फसल काटनेवाले केजरीवाल की सैद्धांतिक व वैचारिक जड़ पर प्रहार करके उन्होंने राहुल गांधी का दिल जीतने की रणनीति बनायी थी। सूत्र बताते हैं कि अपने दोनों बेटों को सूबाई स्तर पर सियासत में स्थापित करने के बाद अब वे लोकसभा चुनाव में गच्चा खा चुकी अपनी बिटिया को कांग्रेस के सहयोग से राष्ट्रीय राजनीति में दाखिल कराने का ख्वाब बुन रहे हैं। जाहिर तौर पर अपनी कूटनीति में लालू पूरी तरह कामयाब रहे हैं जबकि केजरीवाल को इसका भारी नुकसान झेलना पड़ा है। खैर, समग्रता में देखा जाये तो इस पूरे घटनाक्रम से यह तो साबित हो ही गया है कि लगातार दो दफा दिल्ली के मतदाताओं का विश्वास जीतने में कामयाब रहने के बावजूद कूटनीतिक सियासत की शह-मात के खेल में केजरीवाल आज भी पूरी तरह कच्चे ही हैं। बहरहाल लालू से दूरी दिखाने के चक्कर में अपेक्षित व परंपरागत सियासी जुमला उछालने के बजाय सख्त बयान देकर केजरीवाल ने अपने समर्थकों को यह संदेश तो दे ही दिया है कि अगर सियासी तौर पर कभी कोई गलती हो जाये तो उस पर लीपापोती करने के बजाय साफ तौर पर सच को स्वीकारने में कतई हिचक नहीं दिखायी जानी चाहिये। हालांकि ऐसी सियासत से स्वाभाविक तौर पर तात्कालिक नुकसान, परेशानी व जगहंसाई अवश्य झेलनी पड़ती है लेकिन दूरगामी तौर पर इससे ना सिर्फ अपने समर्थकों के विश्वास को बरकरार रखा जा सकता है बल्कि विरोधियों की तमाम साजिशों से बच निकलकर अपनी ठोस छवि की चमक में इजाफा भी किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’