‘गले क्या मिले, गले ही पड़ गये’
नवकांत ठाकुर
बशीर बद्र साहब फरमाते हैं कि ‘कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, ये नये मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो।’ यानि तपाक से किसी के भी गले लग जाने की फितरत वालों से जहां आम तौर पर लोग हाथ मिलाना भी मुनासिब नहीं समझते हों वहां अगर कोई गले लगने के बहाने किसी के गले पड़ जाये तो सामने वाले की स्थिति कितनी विचित्र हो सकती है इसकी सबसे बेहतरीन व ताजा मिसाल अरविंद केजरीवाल ही हैं। कहां तो ये यह सोचकर बिहार गये थे कि प्रादेशिक व राष्ट्रीय स्तर पर कायम हो रही गैरभाजपावादी सियासी मोर्चाबंदी में हिस्सेदारी करेंगे, अल्पसंख्यक समुदाय के स्थापित हितैषियों संग मंच साझा करके अपने वोटबैंक का भरोसा बरकरार रखेंगे, सूबाई स्तर पर सहयोगियों की तादाद में इजाफा करके राष्ट्रीय राजनीति में अपना वजूद-वकार मजबूत करेंगे, भाजपा विरोधी अभियान में बोली से सियासी गोली दागनेवाली टोली से मिल रहे अनवरत सहयोग के लिये उसका शुक्रिया अदा करेंगे और दिल्ली की अपनी सरकार को हल्के में नहीं लेने की केन्द्र को नसीहत भी देंगे। यानि अरमान तो बहुत पाले थे केजरीवाल ने लेकिन हुआ यूं कि लालू के साथ मंच पर गलबहियां करके ऐसे फंसे कि ना इधर के बचे ना उधर के रहे। भगवा खेमे ने उस गलबहियां की बड़ी-बड़ी तस्वीरों का बैनर-पोस्टर लगवाकर केजरीवाल की भ्रष्टाचार विरोधी साख पर सवालिया निशान लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस ने भी मौके पर चैका ठोंकते हुए उनकी भ्रष्टाचार विरोधी सियासत को दिखावा साबित करना शुरू कर दिया। रही सही कसर पूरी करते हुए अन्ना आंदोलन के वे पुराने साथी भी जमकर जहर उगलने में जुट गये जिन्हें दिल्ली की सियासत पर केजरीवाल का कब्जा होने के बाद से सिर्फ रूसवाई की हाथ आयी है। जाहिर है कि अपनी साख पर हो रहे इस चैतरफा हमले का माकूल जवाब तो इन्हें देना ही था। लेकिन जवाब देने की हड़बड़ी में वे यह कहकर और भी ज्यादा गड़बड़ी कर बैठे कि वे तो सिर्फ गैरभाजपाई गठजोड़ के प्रति समर्थन व्यक्त करने बिहार गये थे अलबत्ता लालू ने ही ना सिर्फ उन्हें गले लगा लिया बल्कि सियासी लड़ाई में एकजुटता दिखाने के लिये अपने साथ हाथ भी उठवा लिया जबकि वे तो लालू से हाथ भी नहीं मिलाना चाहते थे। अब ऐसी बात सुनकर इनके प्रति लालू का मन खट्टा होना तो स्वाभाविक ही है। नतीजन इनकी हालत यही हो गयी है कि ‘ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम, ना इधर के रहे ना उधर के रहे।’ इस पर चुटकी लेते हुए अन्ना ने भी कह दिया है कि वह तो अच्छा हुआ कि केजरीवाल से उनका नाता पहले ही टूट गया वर्ना लालू के साथ इनकी गलबहियांवाली तस्वीर से उनकी साख पर भी बट्टा लग जाता। यानि देश की मौजूदा सियासी तस्वीर में एक बार फिर केजरीवाल पूरी तरह अकेले पड़ गये हैं। हालांकि लालू से इनका गले मिलना या लालू का इनके गले पड़ना, बात वही है कि चाकू तरबूज पर गिरे या तरबूज चाकू पर। गलबहियां प्रकरण में नुकसान केजरीवाल का ही होना था जो हुआ भी। हालांकि लालू के साथ गलबहियां की तस्वीर प्रचारित-प्रकाशित होने के कारण उठे तूफान को वे यह कहकर भी रफा-दफा कर सकते थे कि लालू की बिटिया और मुलायम सिंह यादव के पौत्र की शादी में शिरकत करते हुए नरेन्द्र मोदी ने जो शिष्टाचार निभाया वही दस्तूर निभाने के लिये ये भी लालू से गले मिल लिये। लेकिन विरोधियों की चैतरफा घेरेबंदी से बौखलाकर लालू के साथ अपनी वैचारिक, सैद्धांतिक व राजनीतिक दूरी का प्रदर्शन करने के क्रम में इन्होंने ऐसी बात कह दी जिसके नतीजे में हुए नुकसान को तो विध्वंस का नाम देना ही ज्यादा सही होगा। दूसरी ओर लालू ने केजरीवाल के साथ जैसी राजनीति की है वह तो सीधे तौर पर कूटनीतिक साजिश ही मानी जाएगी जिसके तहत दिल्ली में कांग्रेस की फसल काटनेवाले केजरीवाल की सैद्धांतिक व वैचारिक जड़ पर प्रहार करके उन्होंने राहुल गांधी का दिल जीतने की रणनीति बनायी थी। सूत्र बताते हैं कि अपने दोनों बेटों को सूबाई स्तर पर सियासत में स्थापित करने के बाद अब वे लोकसभा चुनाव में गच्चा खा चुकी अपनी बिटिया को कांग्रेस के सहयोग से राष्ट्रीय राजनीति में दाखिल कराने का ख्वाब बुन रहे हैं। जाहिर तौर पर अपनी कूटनीति में लालू पूरी तरह कामयाब रहे हैं जबकि केजरीवाल को इसका भारी नुकसान झेलना पड़ा है। खैर, समग्रता में देखा जाये तो इस पूरे घटनाक्रम से यह तो साबित हो ही गया है कि लगातार दो दफा दिल्ली के मतदाताओं का विश्वास जीतने में कामयाब रहने के बावजूद कूटनीतिक सियासत की शह-मात के खेल में केजरीवाल आज भी पूरी तरह कच्चे ही हैं। बहरहाल लालू से दूरी दिखाने के चक्कर में अपेक्षित व परंपरागत सियासी जुमला उछालने के बजाय सख्त बयान देकर केजरीवाल ने अपने समर्थकों को यह संदेश तो दे ही दिया है कि अगर सियासी तौर पर कभी कोई गलती हो जाये तो उस पर लीपापोती करने के बजाय साफ तौर पर सच को स्वीकारने में कतई हिचक नहीं दिखायी जानी चाहिये। हालांकि ऐसी सियासत से स्वाभाविक तौर पर तात्कालिक नुकसान, परेशानी व जगहंसाई अवश्य झेलनी पड़ती है लेकिन दूरगामी तौर पर इससे ना सिर्फ अपने समर्थकों के विश्वास को बरकरार रखा जा सकता है बल्कि विरोधियों की तमाम साजिशों से बच निकलकर अपनी ठोस छवि की चमक में इजाफा भी किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
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