‘बेसबब तो नहीं हैं मजहबी मजदूरों की अंगड़ाइयां’
नवकांत ठाकुर
मुनव्वर राणा साहब का कहना है कि ‘हां इजाजत है अगर कोई कहानी और है, इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है, मजहबी मजदूर सब बैठे हैं इन्हें कुछ काम दो, इक इमारत शहर में काफी पुरानी और है।’ वाकई मजहबी मजदूरों की फौज इन दिनों खाली बैठी हुई ही नजर आ रही है। हालांकि इसका यह कतई मतलब नहीं है कि अब कोई पुरानी इमारत बची ही नहीं है या इन मजदूरों का हौसला पस्त हो गया है। ना तो इमारतें खत्म हुई हैं और ना ही मजहबी मजदूरों की नीति या नीयत में कोई अंतर आया है। अलबत्ता सन्92 के मजदूरों का जोश, जीवट और जुनून तो आज भी बदस्तूर बरकरार है। ये तो आज भी इस इंतजार में हैं कि दुबारा इन्हें कुछ काम मिले। लेकिन मसला यह है कि अब वे ना तो बंधुआ मजदूरी करना चाहते हैं और ना ही मनरेगा की माफिक न्यूनतम मजदूरी लेकर अपने उस काम को अंजाम देने के लिये तैयार हैं जिसमें वे सिद्धहस्त हैं, प्रवीण हैं, कुशल हैं। बल्कि अब उनकी महत्वाकांक्षा अधिकतम मजदूरी का पक्का वायदा लेने के बाद ही उस काम को हाथ में लेने की है जिससे इनकी नजर में ठेकेदार को असीमित मुनाफा होना पूरी तरह तय है। दरअसल इनके पिछले काम का परिणाम भले ही आशा से अधिक फलदायक रहा हो लेकिन इसका पूरा प्रतिफल उन्हें नहीं मिला जिन्होंने मैदान में उतर कर मजदूरी की। अपना खून पसीना बहाकर पुरानी इमारत को जमींदोज किया। बल्कि इसका फायदा तो वास्तव में उन ठेकेदारों के हिस्से में ही आया जिन्होंने सियासी निशाना साधने के लिये मजदूरों के कांधे का इस्तेमाल किया। मजदूर तो मुगालते में ही रह गये जबकि मलाई के कटोरे पर ठेकेदारों का कब्जा हो गया। हालांकि कुछ मजदूरों को सांत्वना पुरस्कार के तौर पर कुछ पारितोषिक अवश्य मिला लेकिन वह भी कुछ गिने-चुने अकुशल, अर्धकुशल व सहायक मजदूरों के हिस्से में ही आया। असली कारीगरों को तो ‘बाबाजी का ठुल्लु’ ही मिला। खैर, उस दौर के अधिकांश अगली पांत के कारीगर या तो परलोक सिधार चुके हैं या फिर सिधारने की कतार में खड़े हैं। जबकि ठेकेदारों की तीसरी पीढ़ी भी अब तक उनकी कारीगरी के एवज में हासिल मलाई को जमकर मथ रही है और मूल से अधिक हो चुके ब्याज के दम पर मौज मार रही है। लिहाजा तत्कालीन कारीगरों के जो सहायक अब पूरी तरह तप-पककर सबल-प्रबल हो चुके हैं उन्हें शिद्दत से यह मलाल होना लाजिमी ही है कि काश उस ब्याज में उन्हें भी कुछ हिस्सा मिल पाता। इसके अलावा तत्कालीन वरिष्ठ कारीगरों की दूसरी पीढ़ी भी अब नये काम की तलाश में शिद्दत से जुटी हुई है ताकि पिछली बार की कसर भी अबकी बार ही निकाल ली जाये। साथ ही अब मजहबी मजदूरों की एक नयी फौज भी तैयार हो चुकी है जो पिछले ठेके के दौरान या तो नाबालिग थी या फिर बेहद पिछली कतार में रहकर जिसने नगण्य सी भूमिका निभाई थी। दूसरी ओर मुनाफे की मलाई पर कब्जा जमा लेनेवालों की तीसरी पीढ़ी सतही तौर पर तो विरासत में हासिल मूल और अपने दम पर कमाये उसके ब्याज से जमकर मौज उड़ाती दिख रही है लेकिन अंदरूनी हकीकत यही है कि उस काम का परिणाम अब दिनों-दिन विलुप्त व विस्मृत होता जा रहा है। नतीजन अब किसी नये काम को हाथ में लेना तीसरी पीढ़ी की मजबूरी बनती जा रही है। वैसे भी बुजुर्गों के काम-काज व रीति-नीति को अमल में लाने के अलावा इनकी ना तो कोई दूसरी पहचान है ना गति। लिहाजा नया काम तो ये भी हाथ लेना चाहते हैं ताकि एक बार फिर नये सिरे से सियासी पूंजी जमा की जाये और लंबे अर्से तक उसका आनंद लिया जाये। लेकिन मसला यह है कि इस काम को जमीनी स्तर पर अंजाम देने में सिद्धहस्त मजदूरों व कारीगरों की फौज अब अपनी पुरानी पीढ़ी की गलतियां नहीं दोहराना चाहती। तभी तो उसने सन्92 में खुदी नींव पर नयी इमारत तामीर कराने से लेकर काशी व ब्रज तक की पुरानी इमारतों की ओर इशारा करते हुए मुजफ्फरनगर और दादरी में अपनी अंगड़ाई की झलक भले दिखा दी हो लेकिन नए ठेके के एवज में मिलनेवाली मजदूरी व संभावित सियासी सफलता की मलाई में से अपनी अधिकतम हिस्सेदारी पहले से तय कर लेना चाहती है। जाहिर है कि ठेकेदारों को मजदूरों व कारीगरों का यह अडि़यल रवैया कतई रास नहीं आ सकता है लिहाजा उनके प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार के दिखावे का सिलसिला लगातार जारी है। खैर, मजदूरों व कारीगरों की अंगड़ाई और उसके प्रति ठेकेदारों के उपेक्षाभाव को तो वास्तव में दिखावा मानना ही उचित होगा क्योंकि अंग, बंग व कलिंग से लेकर द्वारिका क्षेत्र तक ही नहीं बल्कि दक्षिण व उत्तर-पूर्व में भी इन ठेकेदारों की नैया का कहीं कोई ऐसा खिवैया नहीं है जो उसे सत्ता के बंदरगाह तक सफलतापूर्वक पहुंचाने में समर्थ हो। तभी तो ठेकेदारों व मजदूरों का एकजुट होकर अपने परंपरागत धंधे को नये मुकाम तक ले जाना तय माना जा रहा है। लेकिन त्वरित सफलता का नया फार्मूला तलाश रहे इन मजहबी ठेकेदारों व मजदूरों से अदम गोंडवी के शब्दों में इतनी इल्तिजा तो की ही जा सकती है कि, ‘हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेडि़ये, अपनी कुर्सी के लिये जज्बात को मत छेडि़ये, हैं कहां हिटलर हलाकू जार या चंगेज खां, मिट गये सब कौम की औकात को मत छेडि़ये।’ ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
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