शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

‘फेडरल फ्रंट की दुधारी तलवार का राजनीतिक वार’

विज्ञान की नजर में निर्वात की परिकल्पना सैद्धांतिक ही है, व्यावहारिक कतई नहीं है। प्रकृति के किसी भी आयाम में निर्वात के लिये कोई स्थान नहीं है। बल्कि यूं कहें तो गलत नहीं होगा कि निर्वात की अवस्था ही अपने आप में अप्राकृतिक है। प्रकृति हमेशा इसके सख्त खिलाफ रहती है और इसके अस्तित्व को मिटाने के लिये हमेशा प्रयत्नशील रहती है। ऐसा प्रकृति के हर आयाम में दिखता है। प्रकृति की ही तरह राजनीति में भी निर्वात के लिये कहीं कोई जगह नहीं होती। सैद्धांतिक तौर पर भले ही निर्वात की अवस्था दिखाई पड़े लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह संभव ही नहीं है। खास तौर से तात्कालिक तौर पर तो कभी निर्वात यानि शून्यता की स्थिति बनती ही नहीं है। इसकी परिकल्पना को हमेशा दूरगामी तौर पर ही दिखाया-बताया जाता है। ठीक वैसे ही जैसे हालिया दिनों तक यह बताया जा रहा था कि मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री मोदी का कोई दूसरा विकल्प उभर कर सामने आ ही नहीं सकता। लेकिन कल तक दूर से दिखाई पड़नेवाली निर्वात, शून्यता अथवा विकल्पहीनता की परिकल्पना का आज की तारीख में कोई अस्तित्व ही महसूस नहीं हो रहा है। बल्कि अब तो यह चर्चा भी तेजी से जोर पकड़ रही है कि मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल भी पाएगा या नहीं? खास तौर से हालिया चुनावों में कांग्रेस को मिली संजीवनी से स्पष्ट हो गया कि भाजपा की राहें उतनी आसान नहीं रहनेवाली हैं जितना उसने भौकाल बनाया हुआ है। साथ ही इन चुनावों से यह भी साफ हो गया कि इस बार क्षेत्रीय दलों के उभार को रोक पाना नामुमकिन की हद तक मुश्किल होगा। इसमें भाजपा के लिये सबसे परेशानी की स्थिति वह होती जिसमें उसके तमाम विरोधी एक मंच पर एकत्र हो जाते। हालांकि इसकी कोशिशें बहुत हुईं लेकिन कोई सार्थक परिणाम नहीं निकल सका। समाजवादियों के विलय की बात आई तो जिस सपा को अगुवा बनाने की कोशिश की गई उसने ही अपनी पहचान मिट जाने की चुनौती से डर कर किनारा कर लिया। उसके बाद संयुक्त मोर्चा बनाने की बात आई तो नेतृत्व के सवाल पर मामला बिगड़ गया। बाद में कांग्रेस ने अपनी अगुवाई में राष्ट्रव्यापी महागठजोड़ बनाने का प्रयास किया तो प्रधानमंत्री पद पर उसकी दावेदारी को स्वीकार्यता नहीं मिलने के कारण उसे अपने कदम पीछे खींचने पड़े। यहां तक कि क्षेत्रीय दलों का प्रदेश स्तरीय मोर्चा बनाने के ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू और शरद पवार के प्रयास भी सफल नहीं हो सके। यानि विपक्ष को एक मंच पर लाना तराजू पर मेढ़क तौलने सरीखा दुरूह काम ही बना रहा। लेकिन कहते हैं कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है। लिहाजा भाजपा विरोधी वोटों का बंटवारा रोकने की राह अब स्पष्ट तौर पर निकलती दिखाई पड़ रही है और इसकी नींव रखी है तेलंगाना के मुख्यमंत्री व टीआरएस सुप्रीमो के चंद्रशेखर राव ने। दरअसल अब तक के तमाम प्रयास इस वजह से फलीभूत नहीं हो सके क्योंकि किसी एक दल की राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी हैसियत ही नहीं थी कि वह विपक्ष की धुरी बन सके। लिहाजा अब दो-स्तरीय घेरेबंदी का फार्मूला अमल में लाया जा रहा है और प्रयास हो रहा है कि जिन सूबों में कांग्रेस की स्थिति और उपस्थिति मजबूत है वहां कांग्रेस को साथ लेकर मोर्चाबंदी की जाये और जहां कांग्रेस को साथ लेने से कोई फायदा मिलने की उम्मीद नहीं है अथवा जिस सूबे की क्षेत्रीय ताकतें अपने इलाके में कांग्रेस को दोबारा पनपने व बढ़ने का मौका नहीं देना चाहती वह कांग्रेस व भाजपा से बराबर दूरी कायम करते हुए गठित होनेवाले फेडरल फ्रंट को अपना समर्थन दे। इस फेडरल फ्रंट के गठन की परिकल्पना को अमली जामा पहनाने के लिये ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ चंद्रशेखर राव की बातचीत का पहला चरण भी पूरा हो गया है। इसके अलावा सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ भी उनकी मुलाकात होनेवाली है जो अपने विधायक को मध्य प्रदेश में मंत्री नहीं बनाए जाने के कारण कांग्रेस से नाराज बताए जा रहे हैं। इस फ्रंट के घटक दलों में सभी अलग-अलग सूबों के क्षत्रप हैं लिहाजा चुनाव होने तक किसी की महत्वाकांक्षा आपस में नहीं टकराने वाली है। ना तो टीडीपी और सपा-बसपा के बीच सीट समझौते का कोई सवाल पैदा होता है और ना ही बीजेडी का तृणमूल कांग्रेस के साथ। यानि महत्वाकांक्षाओं के टकराव की फिलहाल कोई संभावना ही नहीं है। अलबत्ता इस फ्रंट के गठन से जमीनी स्तर पर यह संदेश तो जाएगा ही कि कांग्रेस और भाजपा के अलावा भी कोई तीसरा विकल्प है जिसके घटक दलों में कोई तनाव और विवाद नहीं है और वे सभी अलग-अलग सूबों में सफलता के साथ सरकार चला रहे हैं अथवा चला चुके हैं। निश्चित ही इस पहल से तीसरे विकल्प की मजबूती के प्रति मतदातओं को आश्वस्त किया जा सकेगा। हालांकि इस पूरे समीकरण में भाजपा इतनी ही उम्मीद पाल सकती है कि उसके विरोधी वोटों का बंटवारा हो जाए और त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति में उसे जीत की राह पर आगे निकलने का मौका मिल जाए। लेकिन इस संभावना को भी नकारा नहीं जा सकता है कि भाजपा विरोधी वोटों का बंटवारा ही ना हो और जिस सीट पर कांग्रेसनीत महागठजोड़ और फेडरल फ्रंट में से जिसकी बढ़त बने उसके पक्ष में ही भाजपा विरोधी मतों का ध्रुवीकरण हो जाए। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया। @ नवकांत ठाकुर #Navkant_Thakur

गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

‘सत्ता-पक्ष और मुख्य-विपक्ष पर हावी होता तीसरा-पक्ष’

यूपी में कांग्रेस को किनारे धकेल कर बबुआ-बुआ और ताऊ की संयुक्त ताकत से सियासत की नई इबारत लिखने की हो रही कोशिश कतई अप्रत्याशित नहीं है। बहनजी ने तो काफी पहले ही अपने इरादों का इजहार कर दिया था कि वे इस बार केन्द्र में मजबूत नहीं बल्कि मजबूर सरकार बनवाने के पक्ष में हैं। काफी हद तक ऐसी ही चाहत अखिलेश यादव की सपा, शरद पवार की राकांपा, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी सरीखे ऐसे दलों की भी है जिन्होंने इस बार अपने हक में सत्ता का छींका टूटने की उम्मीद बांध रखी है। ये वो दल हैं जिनका प्रभाव क्षेत्र इतना विस्तृत है कि इनमें से हर कोई तीसरी सबसे बड़ी ताकत के तौर पर उभरने की पूरी काबलियत रखता है। लिहाजा इन सबके बीच इस बात पर तो पूरी तरह आम सहमति का माहौल है कि इस बार केन्द्र में संसद का स्वरूप त्रिशंकु रहे और जोड़-तोड़ व जुगाड़ के बिना कोई सरकार ना बना पाए। लेकिन मसला है कि त्रिशंकु जनादेश की सूरत में मजबूर सरकार तो तब बनेगी जब संसद में किसी दल को ना तो बहुमत हासिल होगा और ना ही उसकी स्थिति ऐसी होगी कि सिर्फ दो-तीन बड़े दलों के समर्थन से बहुमत के जादूई आंकड़े को हासिल कर ले। यानि देश की दोनों सबसे बड़ी पार्टियां भाजपा और कांग्रेस जब अधिकतम डेढ़ सौ सीटों के नीचे सिमटेंगी तभी तीसरी ताकतों की किस्मत से सत्ता का छींका टूटने की संभावना बन पाएगी। हालांकि भाजपा को कमजोर करने की कोशिश कर रहे भीतराघाती सहयोगियों की ओर से भी ऐसा प्रयास अवश्य किया जाएगा और पांच राज्यों का चुनावी नतीजा सामने आने के बाद इस संभावना को काफी बल मिला है कि अगर क्षेत्रीय ताकतें अपने हितों को सर्वोपरि रखते हुए भाजपा को फैलने और फलने-फूलने के लिये पर्याप्त सीटों पर लड़ने का मौका ना दें तो भगवा खेमा भी चुनाव के बाद जोड़-तोड़ और जुगाड़ के बिना दोबारा अपनी सरकार नहीं बना पाएगा। इसी संभावना को भुनाने के लिये अब रामविलास पासवान की लोजपा ने भी बिहार के अलावा यूपी-झारखंड में हिस्सेदारी के लिये त्यौरियां दिखानी शुरू कर दी हैं और शिवसेना की उम्मीदें और अपेक्षाएं भी कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। इसके अलावा अभी छोटे क्षेत्रीय दलों की मांगों का सामने आना और उस पर विचार होना तो बाकी ही है। यानि राजग के घटक दलों की कोशिश निश्चित ही यही रहेगी कि वे चुनाव लड़ने के लिये अधिकतम सीटें प्राप्त करें ताकि चुनाव के बाद भगवा खेमे की उन पर निर्भरता बढ़े जिससे संसदीय भागीदारी के अनुपात में सत्ता की मलाई में अधिकतम हिस्सेदारी सुनिश्चित की जा सके। दूसरी ओर विपक्षी खेमे में भी इस बात का पुरजोर प्रयास हो रहा है कि भाजपा के स्वाभाविक विकल्प के तौर पर कांग्रेस को कतई नहीं उभरने दिया जाये। इसी सोच के तहत कांग्रेस को किनारे लगाने की कोशिश यूपी में भी होती हुई दिखाई पड़ रही है और इसी रणनीति क तस्वीर तीन राज्यों में हुई कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की ताजपोशी के मंच पर भी दिखाई पड़ी। उस शपथ ग्रहण समारोह से केवल सपा और बसपा ने ही किनारा नहीं किया बल्कि पवार-ममता सरीखे विपक्ष के दिग्गज छत्रप भी नदारद रहे। दरअसल भाजपा से तीन राज्य छीनने में कामयाब रहनेवाली कांग्रेस अब उन विपक्षियों की आंखों में खटकने लगी है जो मजबूर सरकार गठित करने के ठोस दावेदार के तौर पर उभरने की उम्मीद पाले हुए हैं। इन चुनावों में यह तो स्पष्ट हो ही गया कि अगर कांग्रेस पूरे दम-खम से राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ विकल्प बनकर खड़ी हो जाए और क्षेत्रीय दलों का उसे पूरा सहयोग मिल जाए तो चुनावी नतीजों की तस्वीर में जादूई परिवर्तन होने की संभावना को कतई नकारा नहीं जा सकता है। लेकिन इस समीकरण को सार्थक करना क्षेत्रीय दलों के लिहाज से लाभदायक नहीं है। उनको अधिकतम लाभ तो तब होगा जब भाजपा हार जाए लेकिन कांग्रेस जीत नहीं पाए। ऐसी तस्वीर तभी बन सकती है जब तीसरी व क्षेत्रीय ताकतें सूबाई स्तर पर या तो कांग्रेस को तभी अपने साथ जोड़ें जब वह न्यूनतम सीटों पर लड़ने के लिये सहमत हो वर्ना कांग्रेस और भाजपा से समानांतर दूरी बनाकर चुनाव लड़ना ही उनके लिये श्रेयस्कर होगा। चुंकि यूपी में कांग्रेस की मांग को पूरा करने के बाद सपा-बसपा के पास आपस में बांटने के लिये उतनी सीटें ही नहीं बचेंगी जितनी वे अपने दम पर भी आसानी से जीतने की क्षमता रखती हैं लिहाजा कांग्रेस को किनारे लगाकर आगे बढ़ना ही बुआ-बबुआ और ताऊ के लिये लाभदायक दिखाई पड़ रहा है। यही स्थिति बिहार में भी बन सकती है अगर लोजपा ने राजग से निकल कर महागठबंधन के साथ जुड़ने का मन बना लिया। वैसे भी कांग्रेस की कमजोरी यही है कि उसके पास यूपी, बंगाल, बिहार और झारखंड के ऐसे क्षेत्र में समाज के किसी भी वर्ग के बीच अपना ठोस जनाधार ही नहीं बचा है जहां से लोकसभा के कुल एक-तिहाई से अधिक सांसद जीत कर आते हैं। लोकसभा की एक-तिहाई सीटों का निर्वाचन करनेवाले बंगाल सहित दक्षिणी राज्यों में भाजपा की भी ऐसी ही ठोस जनाधार विहीनता स्थिति है। ऐसे में क्षेत्रीय दलों के उभार को रोकना और किसी बड़ी लहर के बिना होने वाले चुनाव में मजबूत सरकार के लिये जनादेश आ पाना तो नामुमकिन की हद तक मुश्किल ही है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’   @नवकांत ठाकुर  #Navkant_Thakur    

बुधवार, 12 दिसंबर 2018

‘बेढ़ंगी चाल’ ‘संदेहास्पद चरित्र’ और ‘तानाशाही चेहरे’ की हार

लोग मिर्च इसलिये खाते हैं ताकि कड़वी लगे और चीनी का इस्तेमाल मिठास के लिये किया जाता है। अगर मिर्च ही चीनी से अधिक मीठी हो जाए तो कोई चीनी क्यों खाएगा। ऐसी ही तस्वीर पांच राज्यों के चुनावी नतीजों में भी उभरी है जब भाजपा के चाल-चरित्र और कथनी-करनी में तारतम्यता नहीं दिखी तो मतदाताओं को मजबूरन भाजपा से किनारा करना पड़ा है। वास्तव में देखें तो भाजपा ने बीते साढ़े चार सालों में जरा भी एहसास नहीं कराया है कि यह वही पार्टी है जिसकी स्थापना मूल्य आधारित सिद्धांतवादी राजनीति के लिये ‘पार्टी विद डिफरेंस’ के रूप में की गई थी। हालांकि अपने पूरे कार्यकाल में मोदी-शाह की जोड़ी ने संगठन व सरकार को जिस तरह से संचालित किया है उसमें बेशक कई खूबियां होंगी लेकिन कई ऐसी खामियां भी रही हैं जिसे नजरअंदाज करना आम मतदाताओं के लिये भी मुश्किल हो गया। हालांकि सतही तौर पर देखा जाये तो पांच राज्यों के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े गए और उसके नतीजों के प्रत्यक्ष प्रभाव का दायरा भी सूबाई स्तर तक ही सीमित है लिहाजा इसे मोदी-शाह के कामकाज से जोड़कर देखना सही नहीं होगा। लेकिन गहराई से परखें तो पांचों ही राज्यों के जनादेश की समग्र तस्वीर स्पष्ट तौर पर इशारा कर रही है कि मतदाताओं ने सिर्फ सूबाई स्तर पर ही भाजपा को खारिज नहीं किया है बल्कि केन्द्रीय नेतृत्व के प्रति भी जनता के आक्रोश की अभिव्यक्ति हुई है। वर्ना सभी राज्यों में भाजपा को एक साथ शिकस्त का सामना नहीं करना पड़ता। यह जनादेश दर्शाता है कि मतदाताओं को अच्छे दिनों की जो आस बंधाई गई थी उसके पूरा हो पाने की उम्मीद भी नहीं बची है। हालांकि अच्छे दिन आए जरूर लेकिन वह अंबानी, अडानी और रामदेव जैसे उद्योगपतियों के और भाजपा व संघ परिवार से जुड़े संगठनों के हिस्से में आए। आम जनता के हिस्से में तो नोटबंदी ही आई जिसमें कितनों के रोजगार गए, कितने ही लोगों को किस स्तर की विपत्ति झेलनी पड़ी और कितने छोटे व्यापारी व स्वरोजगारी तबाह-बर्बाद हो गए इसकी ना तो कभी सुध ली गई और ना ही उनके दुख-तकलीफ को सरकारी स्वीकार्यता मिली। जब आम लोगों ने पूर्ण बहुमत के साथ भाजपा को सत्ता की बागडोर सौंपी थी तो इसके पीछे भरोसा था पार्टी के मूलभूत सिद्धांतों का। उम्मीद थी चाल-चरित्र, रीति-नीति और कथनी-करनी में एकरूपता की। विश्वास था संगठन के आंतरिक लोकतंत्र और अनुभवी व युवा नेतृत्व के सामंजस्य का। लेकिन बीते साढ़े चार सालों में ना तो भाजपा ने अपने मूल सैद्धांतिक मसलों को आगे बढ़ाने में रूचि दिखाई, ना कथनी और करनी में तालमेल दिखाई पड़ा और ना ही संगठन में सबको साथ लेकर चलना जरूरी समझा गया। अलबत्ता मुजाहिरा किया गया ‘बेढ़ंगी चाल’ ‘संदेहास्पद चरित्र’ और ‘तानाशाही चेहरे’ का जिसके नतीजे में आज का यह चुनावी नतीजा सामाने आया है। इस बात को कतई नकारा नहीं जा सकता है कि अगर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने अपनी विश्वसनीयता कायम रखी होती और हर स्तर पर तानाशाही प्रवृत्ति का परिचय नहीं दिया होता तो राजस्थान और मध्य प्रदेश में तस्वीर अलग दिखाई पड़ती जहां चुनावी नतीजों में किसी बड़े सत्ता विरोधी लहर का रूझान नहीं दिखा है। लेकिन जिस मनमाने तरीके से संगठन और सरकार का संचालन हो रहा है उसकी बानगी किसानों के आंदोलन के दौरान भी दिखाई पड़ी जिसमें कुल चार बार देश भर के किसानों ने दिल्ली में दस्तक देकर अपनी व्यथा-कथा सुनाने की कोशिश की लेकिन उनकी बात सुनना भी गवारा नहीं किया गया। बात तो उन छोटे दुकानदारों और खुदरा व्यापारियों की भी नहीं सुनी गई जो कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि भाजपा मल्टीनेशनल और आॅनलाइन कंपनियों के लिये मल्टीब्रांड खुदरा बाजार का दरवाजा खोल देगी। दलित उत्पीड़न कानून के मामले में तो सुप्रीम कोर्ट की बात भी नहीं सुनी गई। इसी प्रकार यह कल्पना से भी परे था कि भाजपा राममंदिर, धारा-370, समान नागरिक संहिता और गौ-हत्या सरीखे मूलभूत सैद्धांतिक मामलों की अनदेखी करती रहेगी। कथनी में भाजपा भव्य राममंदिर के पक्ष में है लेकिन करनी में वह अपनी ओर से कोई कदम उठाने के लिये तैयार नहीं है। कथनी में जम्मू कश्मीर को धारा 370 से मुक्त करने की बात की जाती है लेकिन करनी में उस पीडीपी से गठजोड़ करके सरकार बनाई जाती है जो सूबे के विशेषाधिकार से समझौता करने की सोच भी नहीं सकती। कथनी में गौ-रक्षा की कसमें खाई जाती हैं लेकिन करनी में तमाम ऐसे कदम उठाए जाते हैं ताकि पूर्वोत्तर से लेकर गोवा तक में गौ-मांस की निर्बाध आपूर्ति बदस्तूर जारी रहे। कथनी में राजग के सहयोगियों को साथ लेकर चलने की बात कही जाती है लेकिन करनी में वरिष्ठ जदयू नेता केसी त्यागी के मुताबिक एक बार भी राजग की औपचारिक बैठक आयोजित करने की जहमत नहीं उठाई जाती है। उस पर कोढ़ में खाज की कमी पूरी कर देती है राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल की जाने वाली मोदी की वह शब्दावली जो भारत के प्रधानमंत्री पद की गरिमा को ही गिराती है। यानि समग्रता में देखें तो भाजपा से आम लोगों की जो उम्मीदें थी वह ना तो सैद्धांतिक तौर पर पूरी हो पाईं और ना ही व्यावहारिक तौर पर। लिहाजा जब सिर्फ सत्ता की राजनीति करने वालों में से ही किसी को चुनना है तो भाजपा में ही कौन से सुर्खाब के पंख लगे हैं, जिसका कांग्रेस में अभाव है? ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’  @नवकांत ठाकुर  #Navkant_Thakur