सहमति से हो रहा असहमति का दिखावा!
नोटबंदी को लेकर संसद से सड़क तक जारी सियासी महासंग्राम की तस्वीर को गौर से जांचा-परखा जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि तमाम सियासी दलों की ‘निगाहें कहीं और हैं, निशाना कहीं और।’ मामला अगर नोटबंदी के मुद्दे को लेकर सामान्य व स्वाभाविक मतभेद का होता तो इसे दूर किया भी जा सकता था। लेकिन सच पूछा जाये तो अंदरूनी तौर पर पूरा मामला कतई ऐसा नहीं है जैसा दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। बेशक सतही तौर पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच आपसी मतभेद इस कदर प्रबल दिखाई पड़ रहा है कि दोनों बातचीत के लिये मिल-बैठना भी गवारा नहीं कर रहे हैं। मगर गहराई में उतर कर देखने से पूरे मामले की तस्वीर बिल्कुल इसके उलट दिखाई पड़ती है। सच तो यह है कि नोटबंदी के पूरे प्रकरण में मतभेद का कोई ऐसा मसला ही नहीं है जिसके कारण संसद की कार्रवाई को लगातार बाधित किया जाये और सड़क पर एकजुट होकर सरकार के खिलाफ हल्ला-बोल किया जाये। मतभेद की तस्वीर ना तो उन मामलों में दिख रही है जिसके तहत सरकार की सोच को विपक्ष जायज बता रहा है और ना ही उन मामलों में जिसके तहत नोटबंदी के तौर-तरीकों व अव्यवस्थाओं पर उंगली उठाई जा रही है। यहां तक कि मतभेद का मसला तो यह भी नहीं है जिसके तहत पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने नोटबंदी के नतीजे में देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार मंद पड़ने और जीडीपी में गिरावट आने की बात कही है। इन तमाम मसलों पर जो बातें विपक्ष कह रहा है वही सोच सरकार की भी है। विपक्ष की ओर से भी यही बताया जा रहा है कि कालेधन और भ्रष्टाचार की कमर तोड़ी जानी चाहिये और सरकार ने भी इसी सोच के तहत एक ही झटके में एक हजार और पांच सौ के नोट को चलन से बाहर करने का कदम उठाया है। इसी प्रकार नोटबंदी के बाद आम लोगों को भुगतनी पड़ रही परेशानियों से अगर विपक्ष का कलेजा फट रहा है तो सरकार भी इसको लेकर कतई कम चिंतित नहीं है। प्रधानमंत्री से लेकर वित्तमंत्री सहित सत्तापक्ष का पूरा कुनबा इस हकीकत को बेहिचक स्वीकार कर रहा है कि नोटबंदी के फैसले को लागू करने के क्रम में आम लोगों को काफी परेशानी उठानी पड़ रही है। तभी तो सरकार का हर विभाग लगातार दैनिक आधार पर जमीनी स्थितियों की सिर्फ समीक्षा ही नहीं कर रहा बल्कि नीति-नियमों में जरूरत के मुताबिक लगातार तब्दीली भी की जा रही है। इसके अलावा सरकार को भी पता है कि जब देश की अर्थव्यवस्था को संचालित करनेवाली नकदी के 87 फीसदी हिस्से को अचानक ही चलन से बाहर कर दिया जाएगा तो तात्कालिक तौर पर अर्थव्यवस्था की गाति में कमी आयेगी ही। लिहाजा इस मसले को भी सत्तापक्ष और विपक्ष के मौजूदा मतभेद की वजह नहीं माना जा सकता। खैर, अगर पूरा विवाद सिर्फ नीति-नीयत को लेकर सैद्धांतिक व वैचारिक मतभेद का होता तो आम सहमति बनाने और परस्पर अपनी बात समझने-समझाने की कोशिशें भी दिखाई पड़तीं। लेकिन आलम यह है कि सत्ता पक्ष के वरिष्ठ रणनीतिकारों द्वारा बुलाई गई अनौपचारिक बैठक का भी विपक्षी दलों द्वारा यह कहकर बहिष्कार कर दिया जाता है कि फिलहाल वे किसी समझौता वार्ता में हिस्सा लेने के लिये तैयार नहीं हैं। अब ऐसी सूरत में कथित मतभेद दूर हो भी तो कैसे? यानि बात स्पष्ट है कि मतभेद दूर करके सहमति की राह पर आगे बढ़ने के लिये फिलहाल कोई भी पक्ष तैयार नहीं है। दूसरी ओर सरकार भी मौजूदा गतिरोध के जारी रहने में ही अपनी भलाई देख रही है। इसकी वजह भी स्पष्ट है कि बातचीत के टेबुल पर आने से पहले देश की आर्थिक अस्त-व्यस्तता और अव्यवस्था को पटरी पर ले आया जाये ताकि विपक्ष के तीर का जवाब देने में अपना तूणीर भी सक्षम हो सके। इसके अलावा विपक्ष को भी पता है कि वक्त बीतने के साथ जब नोट बदलने का काम पूरा हो जाएगा तो नोटबंदी के कारण लोगों को झेलनी पड़ रही परेशानी भी समाप्त हो जाएगी और जल्दी ही लोग मौजूदा दुख-दर्द को भी भुला देंगे। ऐसी सूरत में जब दर्द ही समाप्त हो जाएगा तो मरहम का ख्वाहिशमंद ही कौन बचेगा। लिहाजा कष्ट व परेशानियों के मौजूदा सैलाब में अपनी सियासी नाव उतारने के बजाय सुलह-समझौते की राह अपनाकर विपक्षी दल भी सरकार को सियासी बढ़त लेने का मौका नहीं देना चाह रहे हैं। तभी तो नोटबंदी से जुड़े किसी भी मसले पर कोई बड़ा नीतिगत मतभेद या भारी सैद्धांतिक असहमति नहीं होने के बावजूद विपक्षी ताकतें जन आक्रोश को उभारने और उसे अपने मनमाफिक दिशा देने का पुरजोर प्रयास कर रही हैं। दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट की ही तरह सरकार को भी इस मामले में जन आक्रोश भड़कने की आशंका महसूस हो रही है। तभी तो नोटबंदी के मामले को देशहित व राष्ट्रवाद से जोड़कर लोगों को सब्र के साथ इस समस्या के समाधान की राह पर डटे रहने के लिये प्रेरित किया जा रहा है। यानि समग्रता में देखा जाये तो सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच भीषण टकराव की जो तस्वीर दिख रही है उसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है। अलबत्ता हकीकत यह है कि इस तूफान का सियासी इस्तेमाल करने के लिये मतभेद का दिखावा किया जा रहा है ताकि बदलाव के दौर में भी अपने हिस्से की जमीन पर कब्जा बरकरार रह सके। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur