शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

सहमति से हो रहा असहमति का दिखावा!

सहमति से हो रहा असहमति का दिखावा! 


नोटबंदी को लेकर संसद से सड़क तक जारी सियासी महासंग्राम की तस्वीर को गौर से जांचा-परखा जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि तमाम सियासी दलों की ‘निगाहें कहीं और हैं, निशाना कहीं और।’ मामला अगर नोटबंदी के मुद्दे को लेकर सामान्य व स्वाभाविक मतभेद का होता तो इसे दूर किया भी जा सकता था। लेकिन सच पूछा जाये तो अंदरूनी तौर पर पूरा मामला कतई ऐसा नहीं है जैसा दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। बेशक सतही तौर पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच आपसी मतभेद इस कदर प्रबल दिखाई पड़ रहा है कि दोनों बातचीत के लिये मिल-बैठना भी गवारा नहीं कर रहे हैं। मगर गहराई में उतर कर देखने से पूरे मामले की तस्वीर बिल्कुल इसके उलट दिखाई पड़ती है। सच तो यह है कि नोटबंदी के पूरे प्रकरण में मतभेद का कोई ऐसा मसला ही नहीं है जिसके कारण संसद की कार्रवाई को लगातार बाधित किया जाये और सड़क पर एकजुट होकर सरकार के खिलाफ हल्ला-बोल किया जाये। मतभेद की तस्वीर ना तो उन मामलों में दिख रही है जिसके तहत सरकार की सोच को विपक्ष जायज बता रहा है और ना ही उन मामलों में जिसके तहत नोटबंदी के तौर-तरीकों व अव्यवस्थाओं पर उंगली उठाई जा रही है। यहां तक कि मतभेद का मसला तो यह भी नहीं है जिसके तहत पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने नोटबंदी के नतीजे में देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार मंद पड़ने और जीडीपी में गिरावट आने की बात कही है। इन तमाम मसलों पर जो बातें विपक्ष कह रहा है वही सोच सरकार की भी है। विपक्ष की ओर से भी यही बताया जा रहा है कि कालेधन और भ्रष्टाचार की कमर तोड़ी जानी चाहिये और सरकार ने भी इसी सोच के तहत एक ही झटके में एक हजार और पांच सौ के नोट को चलन से बाहर करने का कदम उठाया है। इसी प्रकार नोटबंदी के बाद आम लोगों को भुगतनी पड़ रही परेशानियों से अगर विपक्ष का कलेजा फट रहा है तो सरकार भी इसको लेकर कतई कम चिंतित नहीं है। प्रधानमंत्री से लेकर वित्तमंत्री सहित सत्तापक्ष का पूरा कुनबा इस हकीकत को बेहिचक स्वीकार कर रहा है कि नोटबंदी के फैसले को लागू करने के क्रम में आम लोगों को काफी परेशानी उठानी पड़ रही है। तभी तो सरकार का हर विभाग लगातार दैनिक आधार पर जमीनी स्थितियों की सिर्फ समीक्षा ही नहीं कर रहा बल्कि नीति-नियमों में जरूरत के मुताबिक लगातार तब्दीली भी की जा रही है। इसके अलावा सरकार को भी पता है कि जब देश की अर्थव्यवस्था को संचालित करनेवाली नकदी के 87 फीसदी हिस्से को अचानक ही चलन से बाहर कर दिया जाएगा तो तात्कालिक तौर पर अर्थव्यवस्था की गाति में कमी आयेगी ही। लिहाजा इस मसले को भी सत्तापक्ष और विपक्ष के मौजूदा मतभेद की वजह नहीं माना जा सकता। खैर, अगर पूरा विवाद सिर्फ नीति-नीयत को लेकर सैद्धांतिक व वैचारिक मतभेद का होता तो आम सहमति बनाने और परस्पर अपनी बात समझने-समझाने की कोशिशें भी दिखाई पड़तीं। लेकिन आलम यह है कि सत्ता पक्ष के वरिष्ठ रणनीतिकारों द्वारा बुलाई गई अनौपचारिक बैठक का भी विपक्षी दलों द्वारा यह कहकर बहिष्कार कर दिया जाता है कि फिलहाल वे किसी समझौता वार्ता में हिस्सा लेने के लिये तैयार नहीं हैं। अब ऐसी सूरत में कथित मतभेद दूर हो भी तो कैसे? यानि बात स्पष्ट है कि मतभेद दूर करके सहमति की राह पर आगे बढ़ने के लिये फिलहाल कोई भी पक्ष तैयार नहीं है। दूसरी ओर सरकार भी मौजूदा गतिरोध के जारी रहने में ही अपनी भलाई देख रही है। इसकी वजह भी स्पष्ट है कि बातचीत के टेबुल पर आने से पहले देश की आर्थिक अस्त-व्यस्तता और अव्यवस्था को पटरी पर ले आया जाये ताकि विपक्ष के तीर का जवाब देने में अपना तूणीर भी सक्षम हो सके। इसके अलावा विपक्ष को भी पता है कि वक्त बीतने के साथ जब नोट बदलने का काम पूरा हो जाएगा तो नोटबंदी के कारण लोगों को झेलनी पड़ रही परेशानी भी समाप्त हो जाएगी और जल्दी ही लोग मौजूदा दुख-दर्द को भी भुला देंगे। ऐसी सूरत में जब दर्द ही समाप्त हो जाएगा तो मरहम का ख्वाहिशमंद ही कौन बचेगा। लिहाजा कष्ट व परेशानियों के मौजूदा सैलाब में अपनी सियासी नाव उतारने के बजाय सुलह-समझौते की राह अपनाकर विपक्षी दल भी सरकार को सियासी बढ़त लेने का मौका नहीं देना चाह रहे हैं। तभी तो नोटबंदी से जुड़े किसी भी मसले पर कोई बड़ा नीतिगत मतभेद या भारी सैद्धांतिक असहमति नहीं होने के बावजूद विपक्षी ताकतें जन आक्रोश को उभारने और उसे अपने मनमाफिक दिशा देने का पुरजोर प्रयास कर रही हैं। दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट की ही तरह सरकार को भी इस मामले में जन आक्रोश भड़कने की आशंका महसूस हो रही है। तभी तो नोटबंदी के मामले को देशहित व राष्ट्रवाद से जोड़कर लोगों को सब्र के साथ इस समस्या के समाधान की राह पर डटे रहने के लिये प्रेरित किया जा रहा है। यानि समग्रता में देखा जाये तो सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच भीषण टकराव की जो तस्वीर दिख रही है उसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है। अलबत्ता हकीकत यह है कि इस तूफान का सियासी इस्तेमाल करने के लिये मतभेद का दिखावा किया जा रहा है ताकि बदलाव के दौर में भी अपने हिस्से की जमीन पर कब्जा बरकरार रह सके। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

सोमवार, 21 नवंबर 2016

‘सियासी सामंजस्य पर भारी नेतृत्व की दावेदारी’

‘सियासी सामंजस्य पर भारी नेतृत्व की दावेदारी’

नोटबंदी के बाद देश में पैदा हुए राजनीतिक हालातों को सतही तौर पर देखा जाये तो आम लोगों को भुगतनी पड़ रही परेशानियों की आड़ लेकर केन्द्र की मोदी सरकार पर चैतरफा सियासी वार का सिलसिला लगातार जारी है। तमाम विरोधियों ने संसद से लेकर सड़क तक भारी कोहराम मचाया हुआ है। कोई नोटबंदी का फैसला वापस लिये जाने की मांग कर रहा है तो कोई इसे लागू करने की मियाद बढ़ाने की वकालत कर रहा है। कोई इस पूरे खेल में भारी घोटाले की बात कह कर संयुक्त संसदीय समिति से इसकी जांच कराने की अपील कर रहा है तो कोई इसकी तुलना उरी में हुए आतंकी हमले से करते हुए आक्रोश जता रहा है कि जितने जवान उरी में शहीद हुए उससे दोगुनी तादाद में आम लोगों को सरकार के इस फैसले के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी है। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो विपक्षी दलों को मोदी सरकार का यह फैसला कतई रास नहीं आया है लिहाजा वे खुलकर इसकी मुखालपत करने से भी नहीं हिचक रहे हैं। यहां तक कि सरकार के भीतर भी असंतोष का भाव स्पष्ट दिख रहा है लेकिन गनीमत है कि सत्ता के साझीदारों ने भावी राजनीतिक लाभ के लोभ में अपनी जुबान बंद रखना ही बेहतर समझा है। हालांकि शिवसेना को अपवाद के तौर पर अवश्य गिना जा सकता है जो केन्द्र से लेकर महाराष्ट्र तक की सत्ता में साझेदारी के बावजूद खुल कर सरकार के फैसले का विरोध करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। यानि पीड़ित सभी हैं। बिलबिलाहट हर तरफ है। लेकिन पूरे मामले का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि सैद्धांतिक तौर पर सरकार के फैसले का पुरजोर विरोध करनेवाली पार्टियां एकजुट होकर अपनी बात रखने के प्रति जरा भी दिलचस्पी नहीं दिखा रही हैं। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर सरकार के इस फैसले के खिलाफ विपक्षी खेमे को लामबंद करने का प्रयास कांग्रेस से लेकर तृणमूल कांग्रेस ने भी किया लेकिन ना तो तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी की अगुवाई में सरकार की मुखालफत करने के लिये सहमति बन पायी और ना ही कांग्रेस को आगे रहने का मौका देने के प्रस्ताव पर आम सहमति की मुहर लग सकी। ममता ने बीती को बिसार कर वामदलों को भी अपने साथ जुड़ने का आग्रह किया लेकिन वामपंथियों को यह प्रस्ताव रास नहीं आया। हालांकि अप्रत्याशित तौर पर शिवसेना ने अवश्य ममता की अगुवाई में राष्ट्रपति भवन तक हुए विरोध मार्च में हिस्सेदारी की लेकिन उसके पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था। कांग्रेस उसे वैसे भी अपने साथ जोड़ना गवारा नहीं कर सकती और बाकी कोई अन्य ऐसा खेमा अस्तित्व में ही नहीं आया था जिसने सरकार के खिलाफ खुलकर मैदान में उतरने की रणनीति अमल में लायी हो। काफी हद तक शिवसेना सरीखी हालत ही दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी की भी रही जिसका एकसूत्रीय एजेंडा प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ मुखर दिखना ही रहता है। लेकिन कांग्रेस के साथ समानांतर दूरी बनाये रखना भी उसके लिये आवश्यक है वर्ना मोदी के खिलाफ बनारस में लोकसभा चुनाव लड़के अरविंद केजरीवाल ने जिन सियासी संभावनाओं का बीजारोपण किया था उसका भविष्य में कुछ परिणाम दे पाने की उम्मीद भी समाप्त हो जाएगी। साथ ही अगामी विधानसभा चुनावों का समीकरण भी विपक्षी एकता की राह में बाधक के तौर पर ही सामने आया है क्योंकि कांग्रेस के नवगठित खेमे से अगर सपा-बसपा ने दूरी बनाये रखी है तो इसकी काफी बड़ी वजह यूपी की जमीनी लड़ाई भी है। यानि विपक्षी खेमे के पूरे गुणा-भाग पर समग्रता पूर्वक निगाह डाली जाये तो इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता है कि चुनावी तकाजों ने सैद्धांतिक सियासी एकता की राह में नेतृत्व को लेकर गतिरोध उत्पन्न कर दिया है और कोई भी दल आसानी से किसी अन्य का नेतृत्व स्वीकार करने के लिये कतई तैयार नहीं दिख रहा है। हालांकि सैद्धांतिक तौर पर इस बात से सभी सहमत हैं कि भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत महागठजोड़ की जरूरत है क्योंकि विरोधी वोटों के बिखराव के कारण ही महज 32 फीसदी वोट पाने के बावजूद पिछले लोकसभा चुनाव में अपने दम पर पूर्ण बहुमत अर्जित करने में भाजपा को कामयाबी मिल गयी थी। लेकिन मसला नेतृत्व को लेकर अटक रहा है। पिछली दफा समाजवादी कुनबे को इकट्ठा करके सपा ने नये गठजोड़ का बीजारोपण भी किया तो बाकियों की महत्वाकांक्षा की तपिश ने उस बीज का ही नाश कर दिया। अब एक बार फिर कांग्रेस ने गैर-भाजपाई गठजोड़ की धुरी के तौर पर खुद को प्रस्तुत किया तो वामदलों सहित गिनती गिनाने के लिये कुल ग्यारह दलों ने उसकी बैठक में शिरकत अवश्य की लेकिन संसद की दहलीज के भीतर आते-आते ‘बिछड़े सभी बारी-बारी’ की स्थिति बन गयी। वहीं नये गठजोड़ के संभावित नेतृत्वकर्ताओं की सूची के कई बड़े नामों ने नोटबंदी के मसले को अपनी संभावना मजबूत करने के हथियार के तौर पर आजमाने से परहेज बरतते हुए सरकार के कदम का समर्थन करना ही मुनासिब समझा। यानि नेतृत्व के अभाव ने सियासी सामंजस्य का माहौल बनने ही नहीं दिया जिसके नतीजे में नोटबंदी के हथियार का वार अब सरकार का बाल बांका करने में भी बेकार साबित होता ही दिख रहा है। लेकिन कहते हैं कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है। लिहाजा गैर-भाजपाई गठजोड़ की आवश्यकता के लिये किसी सर्वमान्य नेतृत्वकर्ता के आविष्कार की संभावना बदस्तूर बरकरार है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur 

मंगलवार, 15 नवंबर 2016

‘सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया’

‘सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया’

वाकई ‘कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त, सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया।’ मौजूदा सियासी माहौल में यह बात सोलह आना सच साबित होती दिख रही है। वर्ना ऐसा कैसे हो सकता था कि देश की अर्थव्यवस्था को ही नहीं बल्कि आंतरिक व बाहरी शांति-सुरक्षा से लेकर सामाजिक संरचना तक को खोखला कर रहे कालेधन व नकली नोट से निजात दिलाने की कोशिशों का इस कदर पुरजोर विरोध होता। विरोध करनेवालों की कतार पर निगाह डाले तो परस्पर धुर विरोधी माने जानेवाले भी आपस में ‘साथी हाथ बढ़ाना’ की गुहार लगाते दिखाई पड़ रहे हैं। हर मसले पर एक दूसरे की राह काटनेवाले आज एक ही लीक पर एकजुट होते और परस्पर सहयोग व सहारे का आदान-प्रदान करते नजर आ रहे हैं। कुछ गठजोड़ सार्वजनिक तौर पर तैयार हो रहे हैं तो कुछ पर्दे के पीछे। सबके बीच तारतम्यता भी है और तालमेल भी। जमीन पर भले ही टकराव हो लेकिन मुद्दे की बात पर कोई मतभेद नहीं है। और मुद्दा है पैसा। वह पैसा जिसे मोदी सरकार ने एक ही झटके में कूड़ा बना दिया है। समझ नहीं आ रहा कि इसे कहां गाड़ें, कहां जलाएं या कहां ले जाएं। चुनाव सिर पर है। बिन पैसे के चुनावी बारात निकले भी तो कैसे। दूल्हा तैयार है मगर बाराती खिसक रहे हैं। बिन गुड़ के मक्खी भला टिके भी तो कैसे। और गुड़ पर तो तेजाब पड़ गया है। अब यह तेजाबी गुड़ न तो खाने लायक बचा है और ना ही खिलाने लायक। लिहाजा सबका बौखलाना स्वाभाविक ही है। हालांकि इस बौखलाहट से अंदरूनी तौर पर उस पार्टी के लोग भी अछूते नहीं हैं जिसकी अगुवाई में चल रही सरकार ने नोटबंदी का कारनामा कर दिखाया है। लेकिन उनकी मजबूरी है कि वे इसका विरोध भी नहीं कर सकते। तभी तो इस मसले को चुनावी मुद्दे के तौर पर भुनाने के लिये तो भगवा ब्रिगेड बुरी तरह बेताब है लेकिन शीर्ष नेतृत्व के इशारों को अनसुना करते हुए जमीनी स्तर पर सरकार के प्रति दिख रहे खीझ व रोष को कम करने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया जा रहा है। यानि दुखी सब हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कोई कह रहा है और कोई चुपचाप सह लेना ही बेहतर समझ रहा है। वर्ना अगर ये राजनीतिक दल इतने ही पाक-साफ होते तो खुद को सूचना के अधिकार के दायरे में लाए जाने के प्रस्ताव का विरोध ही क्यों करते। देश के किसी भी दल ने अगर इस प्रस्ताव को स्वीकार करके पारदर्शिता का मुजाहिरा करने की हिम्मत नहीं दिखाई तो इसका सीधा मतलब तो यही है कि कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है। लेकिन विडंबना देखिये कि पर्दा तो यूं ही पड़ा रहा गया और राज भीतर ही खाक हो गया। अब क्या छिपाना और किससे छिपाना। कम्बख्त ने कुछ रहने ही नहीं दिया जिस पर पर्दा डालने की जरूरत पड़े। तभी तो अब सभी अपने ही हाथों अपना पर्दा हटाकर सामने आने लगे हैं। खुल कर यह मांग की जाने लगी है कि कुछ मोहलत दे दी जाये। लेकिन अभी तक किसी ने अपने लिये मोहलत मांगने की जहमत नहीं उठायी है। सब आड़ ले रहे हैं आम आदमी की। गरीब, किसान, मजदूर और महिलाओं की। लेकिन गरीब और मजदूर के पास कभी कुछ रहा ही नहीं है जिसके लिये उसे मोहलत की दरकार हो। किसान पहले ही से इस सारे पचड़े की पकड़ से आजाद रहा है। रहा सवाल महिलाओं का तो उनके रीते-सूने खाते में पहली बार तो बहार की दस्तक सुनाई पड़ी है लिहाजा वे भला क्यों परेशान हों। यानि आड़ भी उसकी ली जा रही है जिसे इसकी दरकार ही नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त की स्थिति है। अगर वास्तव में किसी की आड़ लेनी थी तो उसकी ली जानी चाहिये थी जिसे वास्तव में इससे तगड़ी चोट पड़ी है। लेकिन उसकी आड़ लें तो रही-सही जनसंवेदना भी जाती रहेगी। लेकिन दिल है कि मानता नहीं टाईप की टीस-खीझ उतारना भी तो जरूरी है। लिहाजा सब रो रहे हैं उस आम आदमी के लिये जो एटीएम की कतार में धक्का-मुक्की करने के लिये मजबूर होने के बावजूद खुश है। वैसे भी अपने यहां तो यही परंपरा रही है कि अपने दुख से कोई दुखी नहीं होता बशर्ते बाकी लोग भी उसकी ही तरह दुखी और परेशान हों। अधिकांश लोगों को दुख होता है पड़ोसी की खुशी देखकर। यही हालत सियासी दलों की भी है। बहनजी ने तो खुल्ले में कह भी दिया है कि सरकार ने अपना बंदोबस्त तो पहले ही कर लिया और बाकियों को झटके में हलाल कर दिया है। अब यह बात तो वैसे भी किसी के भी हलक से नीचे नहीं उतर सकती कि अपने लिये बचाव का इंतजाम किये बगैर ही कोई ऐसा बम फोड़ सकता है जिसमें सबके साथ उसका हित भी स्वाहा हो जाये। लिहाजा बम फोड़नेवाले से सबका जलना-कुढ़ना स्वाभाविक ही है। इसी जलन-कुढ़न ने वह मंच तैयार कर दिया है जिस पर सब एकजुट हो रहे हैं। खैर, बम फोड़नेवाले के वजूद पर इस धमाके का कितना असर हुआ है यह तो सही वक्त पर ही पता चलेगा लेकिन बाकियों ने अपने फफोले को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की जो कोशिश की है उससे उनकी सादगी, शुचिता, इमानदारी और पारदर्शिता पर लोगों को चटखारे लेने का मौका तो मिल ही गया है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

शुक्रवार, 11 नवंबर 2016

‘जबरा मारे भी और रोने भी ना दे’

‘जबरा मारे भी और रोने भी ना दे’


मोदी सरकार ने कालेधन की समानांतर अर्थव्यवस्था के खिलाफ जो सर्जिकल स्ट्राइक की है उसकी आंधी में जिनकी बिछी-बिछाई बिसात तिनके की तरह उड़ रही हो उन्हें इसका दुख-दर्द होना तो स्वाभाविक ही है। लेकिन दिल में दर्द और नजरों में नमी के बावजूद वे ना तो अपना दर्द बयान कर पा रहे हैं और ना ही इसका कोई इलाज तलाश पा रहे हैं। उस पर कोढ़ में खाज की बात यह है कि उन्हें इस सर्जिकल स्ट्राइक की तारीफ भी करनी पड़ रही है। इसे देशहित में उठाया गया बेहतरीन कदम भी बताना पड़ रहा है। ऐसे वक्त में रहीम की यह सीख ही उनके काम आ रही है कि ‘रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय, सुनि अठिलइहें लोग सब, बांटि न लइहें कोय।’ लेकिन मसला है कि अगर जख्म को मवाद की शक्ल में पिघलकर बह निकलने की राह ना मिले तो वह जानलेवा कैंसर में तब्दील हो जाता है। मगर इस मामले में यह सरकार इतनी संवेदनहीन है कि मारने के बाद रोने की इजाजत भी नहीं देती। खास तौर से इस सरकार का मुखिया इतना क्रूर और बेरहम है कि इसने मारने के बाद छटपटाने का भी मौका नहीं दिया। मार खाने का भी उत्सव मनाने के लिये मजबूर कर दिया है। मंगलगान गाना पड़ रहा है। जैसे सरहद पार करके देश में आतंक मचाने के मकसद से घुसपैठ करने की फिराक में बैठे आतंकियों को आधी रात के बाद हलाक करने की रणनीति अपनाई गयी थी उसी तर्ज पर कालेधन के दम पर देश में समानांतर अर्थव्यवस्था संचालित करनेवालों के खिलाफ तब सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया गया जब सारे बैंक बंद हो चुके थे। ना माल-मत्ता संभालने का मौका मिल सका ना खुद को संभालने का। अचानक ही घोषणा कर दी गयी पांच सौ और हजार के नोटों को चलन से बाहर करने की। जिस समानांतर व्यवस्था को खड़ा करने में पिछले कई दशकों में कई परिवारों की पीढ़ियां खप गयीं, जोंक की तरह समाज से माल-असबाब चूसकर पूरा साम्राज्य खड़ा किया गया, विश्व ग्राम व्यवस्था के चप्पे-चप्पे तक जिसकी पैठ बनायी गयी और भारत सरकार के सालाना बजट से भी अधिक का अर्थतंत्र कायम किया गया उसे एक झटके में ध्वस्त करने से पहले एक बार बताना भी जरूरी नहीं समझा गया तो इसे संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ना कहें तो और क्या कहें। एक बार के लिये संभलने का तो मौका दिया होता। कुछ नहीं तो कम से कम काले कारनामों पर सफेदी पोतने की गुंजाइश ही छोड़ दी जाती। लेकिन हालत यह कर दी गयी है कि अब पुराने नोट को बदलने के लिये बैंक लेकर जाने का मतलब है ‘आ बैल मुझे मार’ का न्यौता देना। आखिर बताया भी कैसे जाये कि कितने प्रत्याशियों से ढ़ाई-तीन सौ करोड़ की रकम लेकर उन्हें विधानसभा का टिकट दिया गया है। किन-किन घोटालों से कितने लाख जमा किये गये हैं। कितनों को चूना लगाया गया है। ये सब बातें बतायें भी तो कैसे। और अगर ना बतायें तो पूरी रकम में अपने ही हाथों आग लगाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा है। पुराने नोटों का बंडल कूड़ा होते हुए देखकर कितना दुख हो रहा होगा उसको, जिसने लाखों की रकम सुविधा शुल्क के तौर पर प्रदान करने के एवज में सरकारी नौकरी या टेंडर हासिल किया था और अब उस लागत की सूद के साथ वसूली के लिये खून-पसीना एक कर रहा था। उसके दुख की तो सीमा ही नहीं है जिसने जमीन-आसमान ही नहीं बल्कि ईमान-भगवान को भी बेचकर अपनी भावी पीढ़ियों का कल्याण करने की राह अपनाई थी लेकिन अब उसकी सारी मेहनत एक झटके में ही मिट्टी में मिल गयी है। आखिर कुछ तो रहम कर लिया होता इन बेगैरत-बेइमानों पर। लेकिन नहीं, एक ही रट लगायी हुई है कि ना खाऊंगा और ना खाने दूंगा। इस क्रूर कदम ने उन विरोधियों का तो बेड़ा ही गर्क कर दिया गया है जो कम से कम कालेधन के सवाल पर चीख-पुकार मचाके अपना गला साफ कर लिया करते थे। अब वे बोलें भी तो क्या बोलें। भ्रष्टाचार के जिस जाल में पूर्ववर्ती फंस गये थे उसमें इन्हें फांसना फिलहाल नामुमकिन की हद तक मुश्किल है। गलती कोई ऐसी कर नहीं रहे जिसकी हाय-तौबा मचायी जाये। यानि अब तक वोट लेने का मौका नहीं दे रहे थे और अब बटोरे हुए नोट भी लूट लिये। ऐसे में विरोधी अगर इस निजाम को तानाशाह बता रहे हैं तो इसमें गलत ही क्या है? किसी पर कोई रहम नहीं किया गया। मीडिया को भी भनक नहीं लगने दी। कहने को तो पूरा फैसला केबिनेट से लेकर भाजपा अध्यक्ष और रिजर्व बैंक के गवर्नर को भी विश्वास में लेकर किया गया है लेकिन हवा कहीं से भी नहीं निकल सकी। वर्ना कुछ तो बचाव का इंतजाम कर लिया जाता। हालांकि पहले का दौर होता तो रातोंरात थोक में सोना खरीदकर सोने चले जाते। लेकिन अब वहां भी एक्साईज ड्यूटी लगा दी गयी है। लिहाजा सोना भी उतना ही खरीदा जा सकता है जितनी रकम दुकानदार हजम कर सके। शायद बुजुर्गों ने ठीक ही बताया है कि धन का तीन ही अंजाम होता है, भोग, दान और नाश। जितने दिन भोग लिखा था, भोग लिया। अब या तो दिल बड़ा-कड़ा करके जीरो बैलेंसवाली जनधन योजना के खाताधारकों को थोड़ी-थोड़ी रकम दान कर दी जाये वर्ना इसका नाश तो तय ही है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur