मंगलवार, 15 नवंबर 2016

‘सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया’

‘सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया’

वाकई ‘कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त, सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया।’ मौजूदा सियासी माहौल में यह बात सोलह आना सच साबित होती दिख रही है। वर्ना ऐसा कैसे हो सकता था कि देश की अर्थव्यवस्था को ही नहीं बल्कि आंतरिक व बाहरी शांति-सुरक्षा से लेकर सामाजिक संरचना तक को खोखला कर रहे कालेधन व नकली नोट से निजात दिलाने की कोशिशों का इस कदर पुरजोर विरोध होता। विरोध करनेवालों की कतार पर निगाह डाले तो परस्पर धुर विरोधी माने जानेवाले भी आपस में ‘साथी हाथ बढ़ाना’ की गुहार लगाते दिखाई पड़ रहे हैं। हर मसले पर एक दूसरे की राह काटनेवाले आज एक ही लीक पर एकजुट होते और परस्पर सहयोग व सहारे का आदान-प्रदान करते नजर आ रहे हैं। कुछ गठजोड़ सार्वजनिक तौर पर तैयार हो रहे हैं तो कुछ पर्दे के पीछे। सबके बीच तारतम्यता भी है और तालमेल भी। जमीन पर भले ही टकराव हो लेकिन मुद्दे की बात पर कोई मतभेद नहीं है। और मुद्दा है पैसा। वह पैसा जिसे मोदी सरकार ने एक ही झटके में कूड़ा बना दिया है। समझ नहीं आ रहा कि इसे कहां गाड़ें, कहां जलाएं या कहां ले जाएं। चुनाव सिर पर है। बिन पैसे के चुनावी बारात निकले भी तो कैसे। दूल्हा तैयार है मगर बाराती खिसक रहे हैं। बिन गुड़ के मक्खी भला टिके भी तो कैसे। और गुड़ पर तो तेजाब पड़ गया है। अब यह तेजाबी गुड़ न तो खाने लायक बचा है और ना ही खिलाने लायक। लिहाजा सबका बौखलाना स्वाभाविक ही है। हालांकि इस बौखलाहट से अंदरूनी तौर पर उस पार्टी के लोग भी अछूते नहीं हैं जिसकी अगुवाई में चल रही सरकार ने नोटबंदी का कारनामा कर दिखाया है। लेकिन उनकी मजबूरी है कि वे इसका विरोध भी नहीं कर सकते। तभी तो इस मसले को चुनावी मुद्दे के तौर पर भुनाने के लिये तो भगवा ब्रिगेड बुरी तरह बेताब है लेकिन शीर्ष नेतृत्व के इशारों को अनसुना करते हुए जमीनी स्तर पर सरकार के प्रति दिख रहे खीझ व रोष को कम करने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया जा रहा है। यानि दुखी सब हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कोई कह रहा है और कोई चुपचाप सह लेना ही बेहतर समझ रहा है। वर्ना अगर ये राजनीतिक दल इतने ही पाक-साफ होते तो खुद को सूचना के अधिकार के दायरे में लाए जाने के प्रस्ताव का विरोध ही क्यों करते। देश के किसी भी दल ने अगर इस प्रस्ताव को स्वीकार करके पारदर्शिता का मुजाहिरा करने की हिम्मत नहीं दिखाई तो इसका सीधा मतलब तो यही है कि कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है। लेकिन विडंबना देखिये कि पर्दा तो यूं ही पड़ा रहा गया और राज भीतर ही खाक हो गया। अब क्या छिपाना और किससे छिपाना। कम्बख्त ने कुछ रहने ही नहीं दिया जिस पर पर्दा डालने की जरूरत पड़े। तभी तो अब सभी अपने ही हाथों अपना पर्दा हटाकर सामने आने लगे हैं। खुल कर यह मांग की जाने लगी है कि कुछ मोहलत दे दी जाये। लेकिन अभी तक किसी ने अपने लिये मोहलत मांगने की जहमत नहीं उठायी है। सब आड़ ले रहे हैं आम आदमी की। गरीब, किसान, मजदूर और महिलाओं की। लेकिन गरीब और मजदूर के पास कभी कुछ रहा ही नहीं है जिसके लिये उसे मोहलत की दरकार हो। किसान पहले ही से इस सारे पचड़े की पकड़ से आजाद रहा है। रहा सवाल महिलाओं का तो उनके रीते-सूने खाते में पहली बार तो बहार की दस्तक सुनाई पड़ी है लिहाजा वे भला क्यों परेशान हों। यानि आड़ भी उसकी ली जा रही है जिसे इसकी दरकार ही नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त की स्थिति है। अगर वास्तव में किसी की आड़ लेनी थी तो उसकी ली जानी चाहिये थी जिसे वास्तव में इससे तगड़ी चोट पड़ी है। लेकिन उसकी आड़ लें तो रही-सही जनसंवेदना भी जाती रहेगी। लेकिन दिल है कि मानता नहीं टाईप की टीस-खीझ उतारना भी तो जरूरी है। लिहाजा सब रो रहे हैं उस आम आदमी के लिये जो एटीएम की कतार में धक्का-मुक्की करने के लिये मजबूर होने के बावजूद खुश है। वैसे भी अपने यहां तो यही परंपरा रही है कि अपने दुख से कोई दुखी नहीं होता बशर्ते बाकी लोग भी उसकी ही तरह दुखी और परेशान हों। अधिकांश लोगों को दुख होता है पड़ोसी की खुशी देखकर। यही हालत सियासी दलों की भी है। बहनजी ने तो खुल्ले में कह भी दिया है कि सरकार ने अपना बंदोबस्त तो पहले ही कर लिया और बाकियों को झटके में हलाल कर दिया है। अब यह बात तो वैसे भी किसी के भी हलक से नीचे नहीं उतर सकती कि अपने लिये बचाव का इंतजाम किये बगैर ही कोई ऐसा बम फोड़ सकता है जिसमें सबके साथ उसका हित भी स्वाहा हो जाये। लिहाजा बम फोड़नेवाले से सबका जलना-कुढ़ना स्वाभाविक ही है। इसी जलन-कुढ़न ने वह मंच तैयार कर दिया है जिस पर सब एकजुट हो रहे हैं। खैर, बम फोड़नेवाले के वजूद पर इस धमाके का कितना असर हुआ है यह तो सही वक्त पर ही पता चलेगा लेकिन बाकियों ने अपने फफोले को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की जो कोशिश की है उससे उनकी सादगी, शुचिता, इमानदारी और पारदर्शिता पर लोगों को चटखारे लेने का मौका तो मिल ही गया है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

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