‘दुनियावी बाजार में बिकाऊओं की कतार’
मानो या ना मानो। सच यही है कि इस संसार में कुछ भी ऐसा नहीं है जो बिकाऊ ना हो। बल्कि दुनिया को अगर बाजार मान लिया जाए तो यहां की हर चीज बिकाऊ है। यहां किसी को कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता। पूरी कीमत अदा करनी ही पड़ती है। जो कीमत दे पाता है, माल उसका हो जाता है। हालांकि बेशक यहां कुछ भी मुफ्त ना हो और हर चीज की कीमत तय हो लेकिन आवश्यक नहीं है कि कीमत का आंकलन पैसे से ही होता हो। कुछ चीजें प्यार के दो बोल के बदले भी मिल जाती हैं और कुछ के लिए बहुत कुछ न्यौछावर भी करना पड़ता है। कुछ के लिए रातों की नींद और दिन के चैन का भी भुगतान करना पड़ता है और कुछ चीजें दो बूंद टसुओं या एक प्यारी सी मुस्कान के बदले में भी मिल जाती हैं। कहने का मतलब यह कि किसी को कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता। साथ ही किसी की भी कीमत हमेशा एक सी नहीं रहती। वक्त और जरूरत के हिसाब से हर चीज की कीमत में घट-बढ़ होती रहती है। जाहिर तौर पर जब कीमत परिवर्तनशील है तो उसकी अदायगी की औकात के हिसाब से मालिकाना हक में बदलाव होना स्वाभाविक ही है। लिहाजा किसी को अगर कोई चीज हासिल होती हुई दिखाई दे रही हो तो आंख मूंद कर यह मान लेना चाहिए कि उसे पाने के लिए उसने कुछ ना कुछ कीमत निश्चित ही अदा की होगी। इस लिहाज से देखा जाए तो इन दिनों भाजपा को विरोधी खेमों से थोक के भाव में जो समर्थक मिल रहे हैं उसे मुफ्त का माल तो हर्गिज नहीं माना जा सकता है। निश्चित तौर पर इसके लिए उसने कड़ी साधना की है। वर्ना पूरी सहूलियत व पूर्ण बहुमत के साथ चल रही बिहार की सरकार का पूरा समीकरण अचानक रातों-रात कैसे बदल सकता था। हालांकि यह बदलाव रातोें-रात हुआ या पूर्वनिर्धारित व तयशुदा रणनीति के साथ किया गया इस पर अलग से बहस हो सकती है लेकिन इस बात में तो विवाद का कोई आधार ही नहीं है कि जो हुआ वह ना तो मुफ्त में हुआ और ना ही किस्मत से हो गया। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में भी सपा व बसपा के विधान पार्षदों द्वारा परिषद की सदस्यता से इस्तीफा देकर सीट खाली किए जाने से भाजपा की जरूरतों की जो पूर्ति होती हुई दिख रही है उस फायदे के बदले में भाजपा को कुछ भी भुगतान नहीं करना पड़ा होगा ऐसा कैसे माना जा सकता है। कैसे यकीन किया जा सकता है कि गुजरात में कांग्रेसी विधायकों के बीच भाजपा में शामिल होने की जो होड़ मची है वह फायदा भी भाजपा को मुफ्त में मिल रहा है। यानि इस बात पर तो कोई बहस ही नहीं हो सकती कि जो कुछ भी हो रहा है अथवा होनेवाला है उसमें से कुछ भी इत्तफाकन नहीं है। सबके पीछे एक सोची-समझी रणनीति छिपी हुई है और सबके बदले में आवश्यक कीमत की अदायगी भी हुई है। हालांकि यह तो कतई नहीं मानना चाहिए कि हमारे माननीयों को सीधे तौर पर कोई ‘कैश-काइंड’ के बदले खरीद सकता है लेकिन यह कहने में किसी को कोई झिझक नहीं हो सकती कि माननीय बिक तो रहे ही हैं। अब यह बात तो माननीयों को ही बतानी होगी कि इसके बदले में उन्हें क्या मिला है। संभव है कि बदले में सिर्फ प्यार, विश्वास, सुरक्षा और भरोसा ही मिला हो या फिर यह भी संभव है कि इसके एवज में उन्हें वह मिला हो जो वे बताना ही ना चाहें। वैसे बताना चाहें तो बता ही दें। खैर, किसे किस रूप में क्या और कितना मिला यह लेने वाला जाने और देने वाला जाने। वह चाहे तो बताए या फिर ना बताए। उसकी मर्जी। अलबत्ता बड़ा सवाल है कि इस लेन देन में बेशक लेनदार और देनदार ने कितना ही मुनाफा कूटा हो लेकिन इससे चुनाव व्यवस्था की शुचिता और मतदाताओं के भरोसे का जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई कैसे होगी? अब कैसे कोई मतदाता इस बात के लिए निश्चिंत हो पाएगा कि उसने जिस व्यक्ति, दल या गठबंधन को अपना समर्थन दिया है वह अपने पूरे कार्यकाल तक उनकी उम्मीद व भरोसे पर डटा रहेगा। मिसाल के तौर पर नीतीश के चेहरे को आगे करके भाजपा विरोधी महागठबंधन ने बिहार में जो जनादेश हासिल किया उसमें सूबे के मतदाताओं की यह सोच ही निर्णायक रही थी कि उन्हें सूबे की सत्ता पर भाजपा को काबिज नहीं होने देना था। ऐसे में अगर नीतीश ने महागठबंधन को तोड़ कर विधायकों की तादाद के हिसाब से विधानसभा में चैथे पायदान पर खड़ी भाजपा को अपने साथ सत्ता में साझेदार बनाने की पहल कर दी है और सबसे अधिक विधायकों वाले दल को अपना बहुमत साबित करने का मौका भी नहीं मिल पाया है तो नए गठबंधन को महाठगबंधन का नाम ना दें तो और क्या कहें? निश्चित तौर पर जिनको भी इधर से उधर होता हुआ देखा जा रहा है उसके पीछे सबसे बड़ी वजह उनकी मौजूदा कीमत अदा करने में इधर वाले की असमर्थता ही है। लिहाजा जिसे अपनी मौजूदा कीमत के मुताबिक अपनी दशा-दिशा निर्धारित करनी हो उसके लिए दरवाजे तो खुले ही हैं। लेकिन कीमत में परिवर्तन के साथ ही जिसका मालिकाना हक बदल जाए उसकी शुचिता पर तो सवालिया निशान लग ही जाता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur