सोमवार, 31 जुलाई 2017

‘दुनियावी बाजार में बिकाऊओं की कतार’

‘दुनियावी बाजार में बिकाऊओं की कतार’

मानो या ना मानो। सच यही है कि इस संसार में कुछ भी ऐसा नहीं है जो बिकाऊ ना हो। बल्कि दुनिया को अगर बाजार मान लिया जाए तो यहां की हर चीज बिकाऊ है। यहां किसी को कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता। पूरी कीमत अदा करनी ही पड़ती है। जो कीमत दे पाता है, माल उसका हो जाता है। हालांकि बेशक यहां कुछ भी मुफ्त ना हो और हर चीज की कीमत तय हो लेकिन आवश्यक नहीं है कि कीमत का आंकलन पैसे से ही होता हो। कुछ चीजें प्यार के दो बोल के बदले भी मिल जाती हैं और कुछ के लिए बहुत कुछ न्यौछावर भी करना पड़ता है। कुछ के लिए रातों की नींद और दिन के चैन का भी भुगतान करना पड़ता है और कुछ चीजें दो बूंद टसुओं या एक प्यारी सी मुस्कान के बदले में भी मिल जाती हैं। कहने का मतलब यह कि किसी को कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता। साथ ही किसी की भी कीमत हमेशा एक सी नहीं रहती। वक्त और जरूरत के हिसाब से हर चीज की कीमत में घट-बढ़ होती रहती है। जाहिर तौर पर जब कीमत परिवर्तनशील है तो उसकी अदायगी की औकात के हिसाब से मालिकाना हक में बदलाव होना स्वाभाविक ही है। लिहाजा किसी को अगर कोई चीज हासिल होती हुई दिखाई दे रही हो तो आंख मूंद कर यह मान लेना चाहिए कि उसे पाने के लिए उसने कुछ ना कुछ कीमत निश्चित ही अदा की होगी। इस लिहाज से देखा जाए तो इन दिनों भाजपा को विरोधी खेमों से थोक के भाव में जो समर्थक मिल रहे हैं उसे मुफ्त का माल तो हर्गिज नहीं माना जा सकता है। निश्चित तौर पर इसके लिए उसने कड़ी साधना की है। वर्ना पूरी सहूलियत व पूर्ण बहुमत के साथ चल रही बिहार की सरकार का पूरा समीकरण अचानक रातों-रात कैसे बदल सकता था। हालांकि यह बदलाव रातोें-रात हुआ या पूर्वनिर्धारित व तयशुदा रणनीति के साथ किया गया इस पर अलग से बहस हो सकती है लेकिन इस बात में तो विवाद का कोई आधार ही नहीं है कि जो हुआ वह ना तो मुफ्त में हुआ और ना ही किस्मत से हो गया। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में भी सपा व बसपा के विधान पार्षदों द्वारा परिषद की सदस्यता से इस्तीफा देकर सीट खाली किए जाने से भाजपा की जरूरतों की जो पूर्ति होती हुई दिख रही है उस फायदे के बदले में भाजपा को कुछ भी भुगतान नहीं करना पड़ा होगा ऐसा कैसे माना जा सकता है। कैसे यकीन किया जा सकता है कि गुजरात में कांग्रेसी विधायकों के बीच भाजपा में शामिल होने की जो होड़ मची है वह फायदा भी भाजपा को मुफ्त में मिल रहा है। यानि इस बात पर तो कोई बहस ही नहीं हो सकती कि जो कुछ भी हो रहा है अथवा होनेवाला है उसमें से कुछ भी इत्तफाकन नहीं है। सबके पीछे एक सोची-समझी रणनीति छिपी हुई है और सबके बदले में आवश्यक कीमत की अदायगी भी हुई है। हालांकि यह तो कतई नहीं मानना चाहिए कि हमारे माननीयों को सीधे तौर पर कोई ‘कैश-काइंड’ के बदले खरीद सकता है लेकिन यह कहने में किसी को कोई झिझक नहीं हो सकती कि माननीय बिक तो रहे ही हैं। अब यह बात तो माननीयों को ही बतानी होगी कि इसके बदले में उन्हें क्या मिला है। संभव है कि बदले में सिर्फ प्यार, विश्वास, सुरक्षा और भरोसा ही मिला हो या फिर यह भी संभव है कि इसके एवज में उन्हें वह मिला हो जो वे बताना ही ना चाहें। वैसे बताना चाहें तो बता ही दें। खैर, किसे किस रूप में क्या और कितना मिला यह लेने वाला जाने और देने वाला जाने। वह चाहे तो बताए या फिर ना बताए। उसकी मर्जी। अलबत्ता बड़ा सवाल है कि इस लेन देन में बेशक लेनदार और देनदार ने कितना ही मुनाफा कूटा हो लेकिन इससे चुनाव व्यवस्था की शुचिता और मतदाताओं के भरोसे का जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई कैसे होगी? अब कैसे कोई मतदाता इस बात के लिए निश्चिंत हो पाएगा कि उसने जिस व्यक्ति, दल या गठबंधन को अपना समर्थन दिया है वह अपने पूरे कार्यकाल तक उनकी उम्मीद व भरोसे पर डटा रहेगा। मिसाल के तौर पर नीतीश के चेहरे को आगे करके भाजपा विरोधी महागठबंधन ने बिहार में जो जनादेश हासिल किया उसमें सूबे के मतदाताओं की यह सोच ही निर्णायक रही थी कि उन्हें सूबे की सत्ता पर भाजपा को काबिज नहीं होने देना था। ऐसे में अगर नीतीश ने महागठबंधन को तोड़ कर विधायकों की तादाद के हिसाब से विधानसभा में चैथे पायदान पर खड़ी भाजपा को अपने साथ सत्ता में साझेदार बनाने की पहल कर दी है और सबसे अधिक विधायकों वाले दल को अपना बहुमत साबित करने का मौका भी नहीं मिल पाया है तो नए गठबंधन को महाठगबंधन का नाम ना दें तो और क्या कहें? निश्चित तौर पर जिनको भी इधर से उधर होता हुआ देखा जा रहा है उसके पीछे सबसे बड़ी वजह उनकी मौजूदा कीमत अदा करने में इधर वाले की असमर्थता ही है। लिहाजा जिसे अपनी मौजूदा कीमत के मुताबिक अपनी दशा-दिशा निर्धारित करनी हो उसके लिए दरवाजे तो खुले ही हैं। लेकिन कीमत में परिवर्तन के साथ ही जिसका मालिकाना हक बदल जाए उसकी शुचिता पर तो सवालिया निशान लग ही जाता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर   #NavkantThakur

सोमवार, 24 जुलाई 2017

‘दो नावों में एक पांव पर सियासी संतुलन’

‘दो नावों में एक पांव पर सियासी संतुलन’

बेशक आम तौर पर माना जाता हो कि, ‘समझ समझ के समझ को समझो, समझ समझना भी एक समझ है।’ लेकिन सियासत में समझ को समझ से समझने की कोशिश में अक्सर कुछ भी समझ पाना बेहद मुश्किल हो जाता है। तभी तो बिहार में नीतीश कुमार की सियासी पैंतरेबाजी को वे लालू यादव भी नहीं समझ पा रहे जिनकी समझ पर कोई नासमझ भी संदेह नहीं कर सकता। लिहाजा जब लालू की समझदानी में नीतीश की कारस्तानी नहीं समा रही तो लालू के लाल कौन से ऐसे लालबुझक्कड़ हैं? तभी तो तेजप्रताप ने बेलाग लहजे में यह स्वीकार कर लिया कि नीतीश को सिर्फ नीतीश ही समझ सकते हैं। वाकई ऐसी सियासत को कोई क्या समझे जिसमें नरेन्द्र मोदी के साथ अपनी तस्वीर प्रकाशित होने भर से बिदककर राजग का बरसों पुराना याराना एक झटके में तोड़ लिया जाए और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को रात्रि भोज पर निमंत्रित करने के बाद खिलाने से इनकार करके बुरी तरह जलील किया जाए। लेकिन जब वही मोदी प्रधानमंत्री बन जाएं तो नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक के तमाम ऐसे मसलों पर उनकी सार्वजनिक सराहना की जाए जिसकी समूचे विपक्ष द्वारा कड़ी आलोचना की जा रही हो। यहां तक कि विपक्षी महागठजोड़ के चुनावी प्रयोग का चेहरा बनने के बाद विपक्षी एकता के लिए बुलाई जानेवाली तमाम बैठकों से खुद को दूर रखा जाए और विपक्ष द्वारा घोषित राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी को समर्थन देने से भी इनकार कर दिया जाए, लेकिन किसी भी बैठक में शिरकत करने के लिए जब भी मोदी का बुलावा आए तो नंगे पांव दौड़ लिया जाए। ऐसे में कोई कैसे समझ सकता है कि आखिर नीतीश वास्तव में किसके साथ हैं? कांग्रेसनीत धर्मनिरपेक्षतावादी विपक्ष के साथ या भाजपानीत राष्ट्रवादी सत्तापक्ष के साथ। इसी प्रकार यूपी में जिस भाजपा के हाथों सपा को शर्मनाक शिकस्त का सामना करना पड़ा हो उसके साथ सपा के शीर्ष संचालक परिवार का बर्ताव कांग्रेसियों की हलक के नीचे नहीं उतर रहा। एक तरफ तो यूपी में सबसे कट्टर भाजपा विरोधी की छवि सपा ने ही हथियाई हुई है और दूसरी तरफ मोदी के साथ कनफुसकी भी मुलायम ही करते हैं और अखिलेश ऐलान करते हैं कि योगी सरकार के प्रदर्शन को आंकने के लिए सब्र के साथ इंतजार किया जाए। यहां तक कि शिवपाल खुलेआम यह ऐलान करते हैं कि सपा नेतृत्व का फैसला चाहे जो भी हो लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में उनके विधायकों की टोली भाजपा के प्रत्याशी के पक्ष में ही मतदान करेगी। उस पर तुर्रा यह कि बकौल शिवपाल, उन्हें ऐसा करने के लिए मुलायम ने ही कहा है। अब ऐसे में सपा की सियासत को समझना कांग्रेस के लिए मुहाल होना स्वाभाविक ही है। हालांकि यह अगल बात है कि नीतीश की राजनीति राजद को और सपा की सियासत कांग्रेस को किस प्रकार की दिखाई दे रही है। लेकिन एक आम आदमी की नजर से देखा जाए तो बिहार में जदयू और यूपी में सपा की राजनीति ‘दो नावों पर एक पांव’ वाली ही है। औपचारिक व सैद्धांतिक तौर पर तो ये दोनों दल कांग्रेसनीत विपक्ष के साथ ही जुड़े हुए हैं। बिहार में कांग्रेस व राजद के दम पर ही नीतीश की सरकार चल रही है और यूपी की राजनीति में वापसी करने के लिए सपा भी कांग्रेस व बसपा को अपने साथ जोड़ कर आगे बढ़ने की रणनीति को ही अमली जामा पहनाने में जुटी हुई है। इसके बावजूद अगर ये दोनों दल भाजपानीत राजग के साथ अंदरूनी तौर पर परस्पर समझदारी से सहयोग का गठजोड़ कायम रखना चाहते हैं तो इसका निहितार्थ समझने के लिए इन दोनों दलों की जमीनी समस्याओं व सिरदर्दियों पर नजर डालना बेहद आवश्यक है। जदयू की बात करें तो बेशक वहां सरकार का चेहरा नीतीश को बनाया गया हो लेकिन साझेदारी के तहत सत्ता की मलाई में हिस्सेदारी बंटा रहे राजद व कांग्रेस की करतूतों ने ही नीतीश को इस कदर मजबूर कर दिया है कि वे इन दोनों पर नकेल डालने के लिए इनके साझे दुश्मन के साथ दोस्ती का दिखावा करें। नीतीश सरकार बदनाम हुई शिक्षा व्यवस्था चैपट होने को लेकर लेकिन उस विभाग पर कांग्रेस का कब्जा है। सूबे की स्वास्थ्य व्यवस्था को चैपट करने की कारस्तानी कर रहे हैं लालू के लाल। रही-सही कसर लालू परिवार की अकूत संपत्ति का मामला सामने आने के नतीजे में लगे भ्रष्टाचार के दाग ने पूरी कर दी। लेकिन नीतीश की मजबूरी है कि वे चाह कर भी किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकते। लिहाजा विवश होकर वे विपक्ष की नाव से अपना एक पांव बाहर निकाल कर भविष्य की सुरक्षा का इंतजाम ना करें तो और क्या करें। इसी प्रकार जब सपा सरकार के कार्यकाल में हुए कारनामों का बखान अपनी चुनावी सभाओं में खुद प्रधानमंत्री मोदी कर चुके हों तो अब सरकार बनने के बाद उसकी बखिया उधेड़ा जाना तो तय ही है। ऐसे में विपक्ष की नाव पर निर्भर होकर डूबने की प्रतीक्षा करने से तो बेहतर ही है कि एक पांव बढ़ाकर सरकार से मनुहार करते हुए गुहार लगाई जाए कि बखिया उधेड़ने की कार्रवाई में यथासंभव बचाव की गुंजाइश रखी जाए। लेकिन अपनी ही उत्पादित समस्या से बचाव के लिए दो नाव पर एक साथ पांव रखनेवालों को यह भी याद रखना चाहिए कि दो नाव के सवार का ना तो कभी बेड़ा पार हुआ है और ना हो सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #navkantthakur

बुधवार, 12 जुलाई 2017

‘सलीम ने बचाया अब सलीम को बचाओ’

‘सलीम ने बचाया अब सलीम को बचाओ’


अनंतनाग में आतंकी हमला करने के लिए सावन महीने के पहले सोमवार को चुनना, अमरनाथ की यात्रा से वापस लौट रहे श्रद्धालुओं की बस को निशाना बनाना और गुजरात नंबर की बस में घुसकर तमाम निर्दोष व निहत्थे यात्रियों को जान से मारने की कोशिश करना यह बताने के लिए काफी है कि आतंकियों का मंसूबा क्या था। बेशक सौ तरह की बातों के बहाने यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि गुजरात नंबर की बस का आतंकियों के हत्थे चढ़ जाना महज एक इत्तेफाक था लेकिन वास्तव में देखा जाए तो यह कोई इत्तेफाक नहीं था। इत्तेफाक सिर्फ टायर पंचर हो जाना था जिसके कारण बस के आगे चल रही रोड ओपनिंग टीम से उसका संपर्क समाप्त हो गया। वर्ना टुकड़ों में सामने आ रही खबरों, जानकारियों व तथ्यों को जोड़ कर देखा जाए तो अनंतनाग की आतंकी वारदात का पूरा घटनाक्रम कोई इत्तेफाक नहीं था बल्कि बकायदा सोची-समझी रणनीति के तहत इस दानवी कुकृत्य को अंजाम दिया गया। मसलन खुफिया सूत्र बताते हैं कि आतंकियों ने घटनास्थल की रेकी भी की थी। उन्हें पता था कि बुरहान वानी की मौत की बरसी के बाद सुरक्षाकर्मी राहत की सांस लेंगे। उन्हें यह भी पता था कि अंधेरा हो जाने के बाद भी जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग पर रोड ओपनिंग टीम की सुरक्षा में पर्यटकों की गाड़ियां आती-जाती रहती हैं। उन्हें वारदात की धमक दूर तक सुनानी थी। इसके लिए बड़ी गाड़ी को ही उन्हें निशाना बनाना था। वे दो मोटरसाइकिलों पर सवार थे। यानि उन्हें घात लगाकर मुठभेड़ नहीं करनी थी बल्कि बिजली की तरह वारदात को अंजाम देकर धुएं की तरह गायब हो जाना था। मामले की चर्चा अधिक हो इसके लिए जम्मू-कश्मीर से बाहर की गाड़ी को निशाना बनाया गया। साथ ही इसके लिए सोमवार का दिन चुना गया क्योंकि सावन माह के दौरान हिन्दू समाज में सोमवार का खास महत्व है। इस दौरान देश-दुनियां से हिन्दू समाज के लोग अमरनाथ की यात्रा पर आते हैं। उन्हें देश के मौजूदा माहौल का भी पूरा अंदाजा था क्योंकि एक तरफ गौ-हत्या व तीन तलाक सरीखे मामले को लेकर सांप्रदायिक स्तर पर वैचारिक तनातनी का माहौल है तो दूसरी तरफ बंगाल से लेकर केरल तक में सांप्रदायिक टकराव की आग धधक रही है। ऐसे में चेतन भगत सरीखे स्वनामधन्य बुद्धिजीवियों के शब्दों में यह खबर सामने आना देश के सांप्रदायिक माहौल को बुरी तरह बिगाड़ सकता था कि हिन्दू तीर्थयात्रियों की मुस्लिम आतंकियों ने सामूहिक हत्या की है। लेकिन इस पूरे मामले में सबसे सुखद इत्तेफाक रहा बस चालक का मुस्लिम होना। तभी तो आतंकी हमले के बाद दो नाम सबसे ज्यादा चर्चा में हैं। मीडिया हो या सोशल मीडिया, हर जगह सलीम और इस्माइल की बातें हो रही हैं। एक तरफ आतंकी इस्माइल ने भगवान शिव के सात भक्तों की जान ली तो वहीं दूसरी ओर बस ड्राइवर शेख सलीम गफूर ने दिलेरी दिखाते हुए 50 से ज्यादा शिव भक्तों की जान बचा ली। हुआ यूं कि सावन का पहला सोमवार होने के कारण अमरनाथ यात्रा मार्ग पर सामान्य से ज्यादा चहल पहल थी। बाबा बर्फानी के हिमलिंग का दर्शन करने के बाद श्रद्धालुओं की बस लेकर सलीम चल दिया। इत्तेफाक से रास्ते में उसकी बस का टायर पंचर हो गया जिसकी वजह से रोड ओपनिंग टीम आगे निकल गई। बस ठीक होकर अभी चली ही थी कि अचानक आतंकियों ने गोलीबारी शुरू कर दी। लेकिन गुजरात स्थित वलसाड के रहने वाले सलीम ने दिलेरी दिखाते हुए हमले के दौरान यात्रियों से भरी बस को तेजी से भगाना शुरू कर दिया और पुलिस पिकेट के पास जाकर ही उसने बस रोकी। इस तरह सलीम ने आतंकियों के मंसूबे पर पानी फेर दिया, क्योंकि आतंकी अगर बस में चढ़ जाते तो उस बस में सवार एक भी यात्री बच नहीं सकता था। हमले के वक्त बस में करीब 56 लोग सवार थे। सलीम की मानें तो उस वक्त खुदा ने उसे आगे बढ़ते रहने की हिम्मत दी थी इसलिए उसने अंधाधुंध फायरिंग से बचाते हुए बस को तेज गति से भगाया और यात्रियों के प्राणों की रक्षा हो सकी। अब इस मामले को एक अलग पहलू से देखें तो इस पूरी वारदात को अंजाम देनेवाला आतंकी इस्माइल भी सलीम की तरह मुस्लिम ही था लेकिन सलीम ने फरिश्ते का किरदार अदा किया जबकि इस्माइल ने इन्सानियत का गला घोंटा है। बताया जा रहा है कि लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी इस्माइल ने अपने तीन अन्य साथियों के साथ मिलकर इस वारदात को अंजाम दिया। बेशक सलीम को इस बहादुरी का पारितोषिक तो मिलना ही चाहिए और उसे वीरता पुरस्कार से नवाजा ही जाना चाहिए। उसने सिर्फ यात्रियों की जान ही नहीं बचाई बल्कि समूचे मुस्लिम समाज की आबरू को बचा लिया। उसने देश की गंगा-जमुनी संस्कृति को सवालों में घिरने से बचाया और प्रधानमंत्री मोदी के उस यकीन की रक्षा की जिसके नाते उन्होंने अमेरिका की धरती पर सीना ठोंक कर कहा था कि भारत का कोई भी मुसलमान राष्ट्रद्रोही नहीं हो सकता है। वाकई सलीम सलाम के काबिल है। लेकिन अफसोसनाक बात है कि कुछ शरारती तत्व सलीम पर संदेह जताते हुए सवाल उठा रहे हैं कि, बस पंचर क्यों हुई? दो टायर कैसे पंचर हुए? दोनों पंचर एक साथ सुधारने की क्या जरूरत थी? वगैरह वगैरह। अब इन्हें कैसे समझाया जाए कि अगर सलीम की इस्माइल से मिलीभगत होती तो आज 7 के बजाए 56 लाशें गिर चुकी होतीं। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
@नवकांत ठाकुर #navkantthakur