शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

‘दोष किसी और का है दोषी कोई और’

नवकांत ठाकुर
संसद के मौजूदा मानसून सत्र का दूसरा हफ्ता भी हंगामे और बवाल की भेंट चढ़ने के बाद यह सवाल उठना लाजिमी ही है कि आखिर इसका दोष किस पर डाला जाये। लगातार दो सप्ताह से संसद नहीं चल पाने की वजहों पर गौर करें तो इसके लिये सीधे तौर पर विपक्ष को जिम्मेवार ठहरा देना तो बेहद आसान है लेकिन सवाल है कि विपक्ष ने जिन मसलों को तूल देते हुए संसद को बाधित करने का पहले से ही ऐलान किया हुआ था उस पर उसे मनाने, समझाने व सहमति की राह तलाशने के बजाय सत्तापक्ष द्वारा जिस तरह से उसे लगातार उकसाने का प्रयास किया जा रहा है उसे किस रूप में देखा जाये। एक मिनट के लिये अगर यह मान भी लिया जाये कि कांग्रेस ने देश के विकास को बाधित करने और केन्द्र सरकार को नाकारा व निकम्मा साबित करने की सियासी साजिश के तहत निराधार तथ्यों को तूल देते हुए संसद में गतिरोध, हंगामे व बवाल का सिलसिला जारी रखा हुआ है, फिर भी यह बात समझ से परे है कि सत्तापक्ष भी लगातार संसद में जारी बवाल की आग में उकसावे का प्रेट्रोल डालता हुआ क्यों दिखाई पड़ रहा है। दरअसल जिस तरह से सत्तापक्ष ने विरोध व गतिरोध की चिंगारी पर अपने आक्रोश व उकसावे की आग बरसाने का सिलसिला जारी रखा हुआ है उससे तो कतई नहीं लगता है कि वह वास्तव में संसद को सुचारू ढंग से चलाने के प्रति जरा भी गंभीर है। माना कि कांग्रेस ने जिद ठानी हुई है कि जब तक ललित गेट मामले में सुषमा स्वराज व वसुंधरा राजे का और व्यापम घोटाले में शिवराज सिंह चैहान का इस्तीफा नहीं हो जाता है तब तक वह कतई संसद को सुचारू ढंग से संचालित करने में सहभागी नहीं बनेगी। लेकिन इस मसले पर बाकी विपक्षी दलों ने अब तक ऐसी किसी ठोस जिद का तो मुजाहिरा ही नहीं किया है। अलबत्ता जनता परिवार के घटक दल तो संसद के संचालन में सरकार का सहयोग करने के लिये पूरी तरह तैयार हैं। इसी प्रकार वामपंथी दलों ने भी संसद में जारी गतिरोध पर अपना आक्रोश जताने में कोई कोताही नहीं बरती है। साथ ही बीजद व अन्ना द्रमुक सरीखे गुटनिरपेक्ष दलों ने भी संसद को बाधित रखे जाने पर अपनी चिंता ही जाहिर की है और राकांपा व द्रमुक सरीखे संप्रग के घटक दलों को भी संसद में जारी गतिरोध कतई रास नहीं आ रहा है। इन तथ्यों से इतना तो स्पष्ट है कि संसद बाधित रखने में कांग्रेस का सहयोग करना किसी भी रसूखदार दल को कतई गवारा नहीं हो रहा है। लिहाजा गैरकांग्रेसी विपक्ष को विश्वास में लेकर सरकार के लिये संसद में कांग्रेस को अलग-थलग करना काफी आसान हो सकता था। लेकिन अब तक ना तो विपक्षी दलों के साथ सर्वदलीय बैठक आयोजित करने की पहल हुई है और ना ही कांग्रेस के साथ सहमति की राह निकालने का कोई ठोस प्रयास हुआ है। उल्टे पिछले सप्ताह संसदीय कार्यमंत्रालय ने अपनी ओर से जब अनौपचारिक तौर पर सर्वदलीय बैठक आयोजित करने की योजना बनायी तो उसी दिन संसद के भीतर सत्तापक्ष के सांसदों ने राॅबर्ट वाड्रा की आड़ लेकर जिस तरह से सोनिया गांधी पर निजी हमला कर दिया जिससे आहत होकर कांग्रेस ने बैठक में शिरकत करने से इनकार कर दिया नतीजन बैठक हो ही नहीं सकी। हालांकि तय वक्त पर वामदलों के नेताओं से लेकर कई अन्य विपक्षी दलों के नेता भी बैठक के लिये एकत्र हो चुके थे लेकिन सरकार ने कांग्रेस को अलग छोड़कर बाकी विपक्षी दलों के साथ बातचीत करना उचित नहीं समझा। इसी प्रकार आज भी लोकसभा अध्यक्षा सुमित्रा महाजन द्वारा बुलाई गई बैठक से ऐन पहले वित्तमंत्री अरूण जेटली द्वारा बेहद आक्रामक लहजे में कांग्रेस पर ‘तुच्छ, नकारात्मक व गैर जिम्मेदाराना’ राजनीति करने का आरोप लगाने की पहल किये जाने के साथ ही इस बैठक में भी गतिरोध समाप्त होने की कोई राह निकलने की उम्मीद सिरे से समाप्त हो गई। वैसे भी वरिष्ठ कांग्रेसी नेता आनंद शर्मा की मानें तो आज संसद की बैठक शुरू होने से पहले ही सरकार ने विपक्ष को आश्वस्त कर दिया था कि चुंकि सभी दलों के अधिकांश शीर्ष नेता पूर्व राष्ट्रपति डाॅ एपीजे अब्दुल कलाम को अंतिम विदाई देने के लिये रामेश्वरम गये हुए हैं लिहाजा पंजाब में हुए आतंकी हमले के मसले पर ना तो गृहमंत्री द्वारा संसद में बयान दिया जाएगा और ना ही आंतरिक सुरक्षा के मसले पर चर्चा कराई जाएगी। लेकिन इस वायदे से मुकरते हुए अचानक ही पहले तो गृहमंत्री का बयान करा दिया गया और जब इस पर विपक्ष ने हंगामा खड़ा किया तो उस पर सियासी स्वार्थ के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा की अनदेखी करने की तोहमत लगा दी गयी। जाहिर है कि इस तरह के उकसावे की कूटनीति का तो यही मतलब निकाला जाएगा कि अब सरकार भी नहीं चाह रही है कि संसद की कार्रवाई सुचारू ढंग से संचालित हो सके। इससे विपक्ष पर नकारात्मक राजनीति करने का आरोप लगाते हुए उसे सार्वजनिक तौर पर बदनाम करना सरकार के लिये काफी आसान हो जाएगा। बहरहाल समग्रता में देखा जाये तो संसद को बाधित रखने के लिये भले ही विपक्ष को ही दोषी ठहराया जा रहा हो लेकिन हकीकत यही है कि इसके लिये जितनी दोषी विपक्ष की सियासी जिद है उससे जरा भी कम सत्ता पक्ष की उकसावे की कूटनीति भी नहीं है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

‘सहूलियत की सियासत में सच्चाई की अनदेखी’

नवकांत ठाकुर
माना कि सियासत में पूरे सच को यथारूप में स्वीकार करने और उसका समुचित सम्मान व एहतराम करने की परंपरा कभी नहीं रही है लेकिन सिर्फ सहूलियत के तथ्यों को उजागर करके अपनी सियासत चमकाने के प्रयास को कैसे सही माना जा सकता है। खास तौर से ऐसे मसले पर जिसमें देश की एकता, अखंडता व संप्रभुता ही नहीं बल्कि सामाजिक सौहार्द्र व राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला भी जुड़ा हुआ हो। लेकिन विडंबना व तकलीफ की बात है कि देश की कुछ सियासी ताकतें ऐसे मसलों को भी राजनीतिक व सांप्रदायिक रंग देने से परहेज नहीं बरत रही हैं जिनकी हकीकत कतई वैसी नहीं होती जैसी बताने, समझाने व दिखाने की कोशिश की जाती है। मसलन वर्ष 1993 में हुए मुंबई के उस सिलसिलेवार बम धमाकों की ही बात करें जिसे बाबरी विध्वंस के बदले की कार्रवाई के तौर पर प्रचारित किया गया। उस मामले में तमाम अदालती व कानूनी पड़तालों में सीधे तौर पर दोषी पाये गये याकूब मेमन को फांसी दिये जाने की कार्रवाई पर मचे बवाल की ही बात करें तो इसे जिस तरह से एमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी सरीखे सांसदों व सियासतदानों ने अपने राजनीतिक फायदे के लिये सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की है उसकी पूरी हकीकत कतई वैसी नहीं है जैसी उन्होंने बताने की कोशिश की है। खास तौर से ओवैसी साहब की यह दलील तो हकीकत से पूरी तरह परे ही है कि याकूब को केवल इस वजह से फांसी पर लटकाने की जल्दबाजी दिखायी जा रही है क्योंकि वह उस धर्म को माननेवाला है जिसका कोई सियासी रहनुमां नहीं है। वास्तव में हजारों बच्चों को यतीम, सैकड़ों औरतों को बेवा और दर्जनों को पूरी उम्र के लिये अपाहिज बना देनेवाले मुंबई बम धमाकों की मुख्य साजिशकर्ता तिकड़ी के अहम सदस्य याकूब का डेथ वारंट जारी होने की खबर सुनने के बाद शायद ओवैसी साहब को केवल उसका मजहब ही याद आया होगा वर्ना अगर उन्होंने उसकी करतूतों को भी याद करने की जहमत उठाई होती तो निश्चित तौर पर उनका बयान वैसा नहीं होता जैसा उन्होंने अपने श्रीमुख से फरमाने की पहल की है। अव्वल तो याकूब को फांसी देने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखायी जा रही है बल्कि कायदे से देखा जाये तो इसे ‘देर आयद दुरूस्त आयद’ की कार्रवाई का नाम देना ही ज्यादा सही होगा। दूसरे, याकूब को फांसी देने के मामले में दिखाई जा रही प्रशासनिक तत्परता को उन्होंने उसके मजहब से जोड़ने की जो कोशिश की है वह भी हकीकत से कोसों दूर है। अगर याकूब का मजहब ही उसे फांसी के फंदे व देश की घृणा का पात्र बना रहा होता तो उसी मजहब को माननेवाले परिवार में पैदा हुए मरहूम राष्ट्रपति डाॅ एपीजे अब्दुल कलाम को याद करके ना तो समूचा देश इस कदर गमगीन होता, ना प्रधानमंत्री इस बात का संकल्प लेते कि वे डाॅ कलाम के सपने को साकार करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे और ना ही हर माता-पिता अपने बच्चों को डाॅ कलाम सरीखा इंसान बनाने का प्रण लेते दिखाई पड़ते। हकीकत तो यही है कि याकूब सरीखे आतंकियों का कोई मजहब ही नहीं होता है। क्योंकि हर मजहब की असली बुनियाद मानवता व इंसानियत पर ही टिकी होती है। जबकि याकूब सरीखे लोग सिर्फ कानून के दोषी नहीं हैं बल्कि वास्तव में ये इंसानियत के गुनाहगार हैं। लेकिन मसला यह है कि सियासत के लिये देश व समाज के इन दुश्मनों के प्रति जिस तरह से हमदर्दी दिखाने की परंपरा शुरू हुई है उसका अंजाम किस कदर विध्वंसकारी हो सकता है इसका शायद उन लोगों को अंदाजा भी नहीं है जो याकूब की फांसी के मसले पर टसुए बहाते दिख रहे हैं। वह भी सिर्फ इसलिये क्योंकि शायद इन लोगों को यह लगता होगा कि ऐसा करने से उन्हें देश के अल्पसंख्यक मतदताओं का सहयोग व समर्थन हासिल होगा और वे खुद को अल्पसंख्यकों का सबसे बड़ा हितैषी साबित कर पाएंगे। लेकिन हकीकत यही है कि देश के एक भी अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य के मन में याकूब सरीखे इंसानियत के दुश्मनों के लिये जरा भी हमदर्दी नहीं हो सकती है। अगर ऐसा होता तो अब तक याकूब के समर्थन में अल्पसंख्यक समुदाय के आम आवाम की आवाज पुरजोर तरीके से बुलंद होती दिखाई पड़ चुकी होती। लेकिन सच तो यह है कि देश का हर अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक अपना आदर्श डाॅ कलाम सरीखे उन लोगों को मानता है जो देश के लिये जिये और देश के लिये ही काम करते हुए अपना प्राणोत्सर्ग कर दिया। जिस वक्त डाॅ कलाम को दिल का जानलेवा दौरा पड़ा उस वक्त भी वे देश के युवाओं के बीच व्याख्यान्न ही दे रहे थे ताकि धरती को इंसानों के लिये बेहतरीन रिहाइश बनाने की राह तैयार की जा सके। खैर, 30 जुलाई का दिन ऐसा है जब हिन्दुस्तान की शान डाॅ कलाम को समूचा देश पुरनम आंखों से सुपुर्दे खाक होता हुआ देखेगा और इसी दिन अपनी पैदाईश की वर्षगांठ के मौके पर ही सूली पर टांगे जा रहे याकूब को फांसी दिये जाने की औपचारिक पुष्टि होने के बाद समूचा देश राहत व इत्मिनान की एक लंबी सांस भी लेगा। जाहिर है कि डाॅ कलाम सरीखे इंसान का जाना वाकई अपूरणीय क्षति है जिसके लिये समूचा देश गमगीन है जबकि याकूब सरीखे इंसान को तो यथाशीघ्र इस धराधाम से रूखसत कर देना ही बेहतर होगा ताकि धरती का बोझ कुछ कम हो सके। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   

बुधवार, 29 जुलाई 2015

‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से पाय’

नवकांत ठाकुर
संत कबीर ने सीख दी हुई है कि ‘जो तोको कांटा बुवै ताहि बोय तू फूल, तोहि फूल को फूल है वाको है त्रिशूल।’ हालांकि मौजूदा दौर में अव्वल तो यह नीति हर जगह लागू नहीं हो पाती और दूसरे इस पर अमल करने का सब्र रखनेवाले भी विलुप्त होने की कगार पर हैं जो अक्सर चिराग लेकर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते। हालांकि अपनी राहों में कांटे बिछानेवाले की डगर पर फूल बरसाने की दरियादिली व बड़प्पन दिखानेवालों को इन दिनों बेशक वैसा नतीजा नहीं मिल पाता हो जैसा कबीर ने बताया है लेकिन दूसरों की राहों में कांटे बिछानेवालों की अपनी राहें भी फूलों से कतई गुलजार नहीं हो पाती हैं। बल्कि सफलता की राहों में आगे बढ़ने के क्रम में पूरे रास्ते दूसरों के लिये कांटा बिछाते हुए चलनेवालों के सामने जब कभी असफलता से मायूस होकर वापसी की राह पकड़ने की नौबत आती है तो रास्ते में उनका सामना अपने ही हाथों बिछाए गये कांटों से होना तय ही रहता है। तभी तो कहा गया है कि ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से पाय।’ कुछ ऐसी ही मुश्किलों व परेशानियों का सामना इन दिनों कांग्रेस को भी करना पड़ रहा है लेकिन मुश्किल यह है कि वह इसके लिये किसी दूसरे को दोषी ठहराने की भी स्थिति में नहीं है। दरअसल पूरा मामला संसद के मौजूदा मानसून सत्र से जुड़ा हुआ है जिसमें सरकार की अग्निपरीक्षा लेने में कांग्रेस कोई कसर नहीं छोड़ रही है। अव्वल तो उसे केन्द्र सरकार द्वारा की जा रही भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन की कोशिशें हजम नहीं हो रही हैं और दूसरे ललित गेट व व्यापम के विवाद में सीधे तौर पर सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे व शिवराज सिंह चैहान का नाम सामने आने के बावजूद उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होने से वह बुरी तरह आक्रोशित है। उस पर नीम चढ़े करेले की बात यह है कि सत्ताधारी भगवा खेमे ने जिस तरह से पलटवार करते हुए कांग्रेस के शीर्ष संचालक परिवार के सभी चारों बालिग सदस्यों पर घपले, घोटाले व गलतबयानी का आरोप लगाते हुए सीधा व निजी हमला शुरू कर दिया है और कांग्रेसशासित राज्यों के भ्रष्टाचार के मामलों को राष्ट्रीय स्तर पर तूल देना आरंभ कर दिया है उससे कांग्रेस के क्रोध की चिंगारी अब दावानल की शक्ल लेती दिख रही है। तभी तो अन्य विपक्षी दलों द्वारा इन मसलों पर साथ दिये जाने के प्रति इनकार या इकरार किये जाने से बेपरवाह होकर कांग्रेस ने अकेले दम पर संसद से लेकर सड़क तक सरकार की नींद हराम करने की हरसंभव कोशिश करने में कोई कोताही नहीं बरती है। यहां तक कि अपनी ओर से तो उसने संसद के मौजूदा सत्र के शुरूआती एक तिहाई अर्सेे में सरकार को एक कदम भी आगे बढ़ने या संसद को सुचारू तरीके से संचालित करने की छूट भी नहीं दी है और सड़क पर भी राहुल गांधी की अगुवाई में पार्टी ने अपनी पूरी ताकत से सरकार के खिलाफ आंदोलन, प्रदर्शन व जनजागरण करने की मुहिम चलाई हुई है। लेकिन मसला यह है कि कांग्रेस तो अन्य विपक्षी दलों के काफी बड़े धड़े को अपने साथ जोड़कर संसद में गतिरोध का माहौल बरकरार रखने में अपनी पूरी ऊर्जा खपा रही है लेकिन संसद के भीतर होनेवाले बवाल व हंगामे की तस्वीरें पूरी तरह सामने ही नहीं आ पा रही है। दरअसल संसद के भीतर से उतनी ही तस्वीरें बाहर आ पाती हैं जितना दोनों सदनों के टीवी चैनल प्रसारित करते हैं। संसद के भीतर की तस्वीर दिखाने की इजाजत किसी भी अन्य सरकारी या निजी ब्राॅडकास्टर को हासिल नहीं है लिहाजा सभी अखबारों व खबरिया चैनलों में संसद के भीतर की वही तस्वीर या फुटेज प्रकाशित व प्रसारित होती है जो लोकसभा टीवी या राज्यसभा टीवी द्वारा प्रसारित की जाती है। लेकिन मसला यह है कि संसद में हंगामा मचाने व बवाल काटने की तस्वीरें इन दोनों ही चैनलों से नदारद दिख रही हैं नतीजन कोई अन्य अखबार या खबरिया चैनल भी इसे प्रकाशित व प्रसारित नहीं कर पा रहा है। इसी मसले से परेशान होकर कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी को औपचारिक तौर पर अपना आक्रोश प्रकट करने के लिये मजबूर भी होना पड़ा है। लेकिन मसला यह है कि विपक्ष के विरोध का सीधा प्रसारण नहीं किये जाने की परंपरा अगर मौजूदा सरकार के कार्यकाल में शुरू हुई होती तो कांग्रेस का विरोध उचित माना जा सकता था मगर सच तो यह है कि इस परंपरा की नींव पूर्ववर्ती कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के कार्यकाल में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्षा मीरा कुमार ने ही डाली थी जिसका अनुपाल मौजूदा वक्त में भी यथावत जारी है। फर्क सिर्फ इतना है कि उन दिनों भाजपा की मेहनत को मीडिया में समुचित जगह नहीं मिल पा रही थी जबकि अब वही परेशानी कांग्रेस के गले पड़ गयी है। काश, विपक्ष की आवाज को दबाने की इस परंपरा का सत्ता में रहते हुए कांग्रेस ने ठोस व पुरजोर विरोध किया होता तो आज उसे संसद के टीवी चैनलों द्वारा सत्तापक्ष व विपक्ष के बीच किये जा रहे भेदभाव का हर्गिज सामना नहीं करना पड़ता। खैर, मौजूदा सत्ताधारियों को भी यह नहीं भूलना चाहिये कि जिस परंपरा के अनुपालन से उन्हें इन दिनों सहूलियत मिल रही है वह जैसे पहले उनके लिये परेशानी का सबब बनी हुई थी वैसी ही परेशानी का सामना उन्हें भविष्य में भी करना पड़ सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   

मंगलवार, 28 जुलाई 2015

‘बहुत हुआ सफर, अब पकड़ें मंजिल की डगर’

नवकांत ठाकुर
कारगिल विजय की वर्षगांठ के मौके पर पंजाब में हुए आतंकी हमले के बाद देश में गुस्से का उफान तो लाजिमी ही है। निशाने पर पड़ोसी मुल्क भी है, खुफिया तंत्र की नाकामी भी है और देश के सियासी रहनुमां भी हैं। बेशक इस तरह के मामले जब भी सामने आते हैं तो खुफिया तंत्र की नाकामी को सबसे पहले निशाने पर लिया जाता है लेकिन इस तथ्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता है ये वही खुफिया तंत्र है जो इस तरह की सौ में से 99 साजिशों को इतनी खामोशी से नाकाम कर देता है कि उसके बारे में आम लोगों को भनक भी नहीं लग पाती है। खैर, मसला यह है कि ऐसी वारदातों के बाद जिस तरह से हमारे हुक्मरानों में पड़ोसी मुल्क के प्रति भारी गुस्से की लहर दौड़ जाती है और कुछ ही समय के बाद इसे बिसार कर रिश्तों में सुधार के लिये राजनीतिक स्तर पर आम और शाॅल के लेन देन से लेकर क्रिकेट डिप्लाॅमेसी, शीर्ष स्तर की वार्ता बहाली और दरगाह पर चादर के चढ़ावे की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। यह सिलसिला आखिर कब तक चलता रहेगा। हालांकि रिश्तों में सुधार का प्रयास जारी रखना जरूरी भी है और इसका कोई विकल्प भी नहीं है। लेकिन अब आवश्यक हो गया है कि पाकिस्तान के साथ बच्चों सरीखे ‘पल में तोला पल में माशा’ के परंपरागत रिश्ते में बदलाव का कोई ठोस व कारगर विकल्प तलाशा जाए। यह तो सर्वविदित तथ्य है कि ना तो पाकिस्तान की आम आवाम के दिल में भारत के प्रति कोई दुश्मनी की लहर दौड़ रही है और ना ही वहां के सियासी हुक्मरान भारत के साथ दुश्मनी का रिश्ता बरकरार रखने के ख्वाहिशमंद हैं। लेकिन इस हकीकत को भी झुठलाया नहीं जा सकता है कि लगातार तीन जंग में शिकस्त झेल चुकी पाकिस्तानी फौज कतई हिन्दुस्तान के प्रति दोस्ताना रवैया नहीं दिखा सकती है। वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई आज भी कथित तौर पर अपने मुल्क के दो टुकड़े कर देनेवाले हिन्दुस्तान को माफ नहीं कर पायी है और वह हमेशा इसका बदला लेने के फिराक में रहती है। इसके अलावा पाकिस्तान के विपक्षी दल भी अपनी सियासत चमकाने के लिये कश्मीर मसले को सुलगाये रखने की भरपूर कोशिशों में जुटे रहते हैं और वहां के कट्टरपंथी आतंकी संगठन भी राष्ट्रीय सरोकारों व हितों को प्राथमिकता देते हुए भारत विरोधी गतिविधियां जारी रखने और हमें भरपूर नुकसान पहुंचाने की कवायदों में संलग्न रहते हैं। लिहाजा समग्रता मे देखा जाये तो अव्वल तो पाकिस्तान में इस बात को लेकर कोई आम राय नहीं है कि उसे भारत के साथ कैसा रिश्ता रखना है और दूसरे वहां की कोई भी ताकत एक दूसरे पर नियंत्रण रखने में सक्षम नहीं है। तभी तो जब सियासी तौर पर रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू होती है ऐन उसी वक्त वहां की फौज व चरमपंथी ताकतें रिश्तों में सुधार के माहौल में पलीता लगाने की कोशिशें तेज कर देती हैं। वहां की फौज पर भी वहां के सियासी हुक्मरानों का नियंत्रण नहीं है और आईएसआई भी सरकार की रग को इस कदर दबाए रखती है कि उसकी सहमति के बिना रिश्तों में सुधार का हर प्रयास बेमानी हो जाता है। हालांकि इन तमाम हकीकतों से हमारे सियासी रहनुमां भी बेहतर वाकिफ हैं लेकिन इसके बावजूद पाकिस्तान के प्रति कोई ठोस विदेशनीति बनाने में यहां कामयाबी नहीं मिल पा रही है। सरकार चाहे किसी भी दल की क्यों ना हो, पाकिस्तान से रिश्ता वही बच्चों सरीखा ही रखा जाता है जिसके तहत झगड़ा भी बच्चों सरीखा ही होता है और मोहब्बत की डोर भी बच्चों सरीखी ही बंधती है। जाहिर है कि ऐसे में तो पाकिस्तान के साथ अपने रिश्तों को नयी ऊंचाई पर ले जाना नामुमकिन ही है। लिहाजा आवश्यकता इस बात की है जिस तरह सरहद के उस पार सत्ता व ताकत के अलग-अलग अनियंत्रित केन्द्र हैं उसी प्रकार उन सभी केन्द्रों से निपटने के लिये अलग-अलग रणनीति बनायी जाये और उनका आपस में कतई घालमेल ना किया जाये। फौज की ईंट का जवाब फौज ही पत्थरों से दे और आईएसआई को उसकी ही भाषा में जवाब देने का अलग से इंतजाम किया जाये। दूतावास के माध्यम से दिल्ली में अंजाम दी जानेवाली खुराफातों का उसी भाषा में इस्लामाबाद के दूतावास से जवाब दिया जाये और शीर्ष स्तर की बात व मुलाकात की परंपरा भी बदस्तूर जारी रखी जाये। हालांकि इस तरह के विचार पर अमल करने का विकल्प खुला होने का संकेत देते हुए पिछले दिनों हमारे रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने बेहद सारगर्भित व सवालिया लहजे में यह अवश्य बताया था कि आतंकवादियों से निपटने के लिये हम अपनी जवानों की जान जोखिम में क्यों डालें, ऐसे तत्वों को उनके ही तरीके से नेस्तनाबूत क्यों ना करें? लेकिन मसला है कि इस तरह की गैरपरंपरागत रणनीति पर जब तक सियासी तौर पर आम राय नहीं बनती तब तक इस पर अमल की राह नहीं खुल सकती है। वैसे सच तो यही है कि ‘शठ सुधरहिं सतसंगति पाई, पारस परस कुघात सुहाई’ की तुलसीदासवादी नीति का अगर हर जगह असर होता तो बारह बरस तक फट्ठे से बांध कर रखने के बावजूद भी कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी नहीं रहती। लिहाजा जब तक ‘शठे शठ्यम समाचरेत’ की चाणक्यवादी नीति नहीं अपनायी जाएगी तब तक पाकिस्तान के मोर्चे पर हर कूटनीति की विफलता का सिलसिला बदस्तूर जारी ही रहेगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’

सोमवार, 27 जुलाई 2015

‘करोगे याद तो हर बात याद आएगी.....’

नवकांत ठाकुर
‘करोगे याद तो हर बात याद आएगी, गुजरते वक्त की हर मौज ठहर जाएगी, बरसता भींगता मौसम धुआं धुआं होगा, पिघलती शम्मों पे दिल का मेरे गुमां होगा, हथेलियों की हिना याद कुछ दिलाएगी, करोगे याद तो हर बात याद आएगी।’ ये सदाबहार गीत है ‘बाजार’ फिल्म का जिसकी दिल को छू जानेवाली हर पंक्ति ‘बशर नवाज’ साहब की कलम से निकली है। इसे मौजूदा सियासी माहौल को जहन में रखते हुए सुना जाये तो वाकई यह पिछले कुछ सालों में बिहार में बने-बिगड़े व जुड़े-बिछड़े राजनीतिक रिश्तों से रिसती दर्दभरी आवाज सरीखी ही महसूस होती है। कहने को भले कोई खुल कर कुछ ना कहे लेकिन यह बीते वक्त के यादों की चुभन ही तो है जिसकी टीस ने आज भी नितीश कुमार को यह याद दिला दिया कि ग्यारह साल पहले तत्कालीन अटल सरकार में रेलमंत्री रहते हुए उन्हें छह माह और काम करने का मौका मिला होता तो जिन परियोजनाओं को नरेन्द्र मोदी की सरकार द्वारा साकार स्वरूप दिया जा रहा है उसे वे उस वक्त ही क्रियान्वित कर चुके होते। दिलचस्प बात यह है कि नितीश के इस दर्द पर मोदी ने भी सहमति का ही मरहम लगाया है। लेकिन विडंबना है कि जिस लालू यादव के साथ मिलकर चुनाव लड़ना आज नितीश की मजबूरी बन गयी है उन्ही ने संप्रग सरकार के कार्यकाल में रेलमंत्री रहते हुए उनके द्वारा आरंभ की गयी परियोजनाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया था। साथ ही जिस मोदी को भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाये जाने के विरोध में नितीश ने राजग से दोस्ती का रिश्ता तोड़ लिया था उनकी ही सरकार आज उनके अधूरे सपनों को नये सिरे से साकार कर रही है। ऐसे में दिल में एकबारगी यह हूक उठना तो स्वाभाविक ही है कि काश यह रिश्ता इस मोड़ पर न आया होता। बेशक सियासत में संवेदनाओं के लिये कोई जगह नहीं होने की बात कही जाती हो लेकिन सियासत भी तो इंसान ही करते हैं जिनमें एहसासों की छुअन भी होती है और संवेदना की सिहरन भी। भले ही वे अपनी संवेदना को सियासत पर हावी ना होने दें लेकिन संवेदनाओं को दिल से निकाल फेंकना कैसे संभव हो सकता है। तभी तो अपना वह दर्द मोदी भी नहीं भूल पाये जो लोकसभा चुनाव से पूर्व भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में शिरकत करने के लिये पटना आने पर उन्हें नितीश ने दिया था। उस वक्त राजग का घटक दल होने के बावजूद मोदी का विरोध करने के क्रम में नितीश ने पार्टी की कार्यकारिणी बैठक में हिस्सा लेने के लिये पटना आए हुए भाजपा के तमाम राष्ट्रीय नेताओं के सम्मान में आयोजित रात्रिभोज के कार्यक्रम को ऐन मौके पर निरस्त कर दिया। हालांकि न्यौता भेजने के बाद दस्तरखान बिछाने से इनकार करने की कोई ठोस वजह नितीश ने अब तक नहीं बतायी है लेकिन माना जाता है कि चुंकि भाजपा ने पंजाब में हुए एक जनसभा की उस तस्वीर का पटना में पोस्टर लगवा दिया जिसमें मोदी व नितीश मंच साझा करते हुए हाथों में हाथ डाले दिख रहे थे लिहाजा मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनने से रोकने के लिये चलायी जा रही अपनी मुहिम में पलीता लगने की नौबत से नाराज होकर ही उन्होंने भोज की थाली परोसने से इनकार कर दिया। साथ ही उन्होंने उसी साल बिहार में आये विध्वंसकारी जलप्रलय के वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री की हैसियत से मोदी द्वारा भेजे गये पांच करोड़ रूपये की सहायता राशि यह कहकर लौटा दी कि उन्हें मोदी के मदद की कोई जरूरत नहीं है। जाहिर है इन बातों से दर्द तो मोदी के दिल में भी हुआ पर अब तक उन्होंने उसकी टीस को दिल में ही दबाए रखा। लेकिन आज जब दोबारा नितीश के साथ मंच साझा करने का मौका मिला तो उस दर्द ने सब्र का बांध ऐसा तोड़ा कि उन्हें यह स्वीकार करने के लिये मजबूर होना पड़ा कि अगर नितीश ने बंद कमरे में उन्हें चांटा भी मार दिया होता तो उससे इतनी तकलीफ नहीं होती जितना परोसी हुई थाली छीने जाने व सहायता राशि लौटाए जाने के कारण हुई। खैर, सियासत के मौजूदा समीकरणों का सम्मान करते हुए आगामी दिनों में होने जा रहे सूबे के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर एक-दूसरे पर तीखा प्रहार करते हुए अपनी सियासत चमकाने के अलावा इनके पास दूसरा कोई चारा ही नहीं है। लिहाजा सियासी वार-पलटवार का सिलसिला तो अभी और तेज होना लाजिमी ही है। लेकिन लालू के साथ गठजोड़ करके बेहद असहज दिख रहे नितीश ने जिस तरह पुराने यादों की संवेदना को साझा करने की पहल की है और मोदी ने भी उनके प्रति दुश्मन की फौज का सिपहसालार बनकर सामने खड़े पुराने लंगोटिया यार सरीखा उलाहनापूर्ण रवैया दिखाया उससे एक बात तो साफ है कि दोनों तरफ संवेदना की साझा आग एक बराबर ही सुलग रही है। शायद उसी की तपिश के नतीजे में लालू को यह कहने के लिये मजबूर होना पड़ा कि मोदी नितीश को उनके खिलाफ भड़काने की सियासत कर रहे हैं। खैर, सियासत में वैसे भी असंभव शब्द के लिये कोई जगह नहीं है और आरएसएस ने तो काफी पहले ही नितीश को दोबारा राजग के साथ जोड़े जाने की सिफारिश कर दी थी लिहाजा बिहार के मौजूदा सियासी समीकरणों में चुनाव के बाद नये सिरे से व्यापक तब्दीली आने की संभावना को कैसे खारिज किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’     

शनिवार, 25 जुलाई 2015

‘सवाल नींद का नहीं, मसअला है ख्वाबों का’

नवकांत ठाकुर
राहत इंदौरी साहब ने लिखा है कि ‘वो मेरा दोस्त भी है मेरा हमनवा भी है, वो शख्स सिर्फ भला ही नहीं बुरा भी है, सवाल नींद का होता तो कोई बात ना थी, हमारे सामने ख्वाबों का मसअला भी है।’ वाकई इन दिनों ख्वाबों का मसला बेहद अहम हो चला है। लोकसभा चुनाव के दौरान सत्ता के साथ ही व्यवस्था परिवर्तन के जो ख्वाब दिखाए गये वे अभी से ही हवा होते दिख रहे हैं। जिन बदलावों की उम्मीद में देश के मतदाताओं ने राष्ट्रीय राजनीति का पूरा समीकरण बदल दिया उनके पूरा होने की उम्मीद लगातार धुंधली होती जा रही है। ऐसे में अगर मौजूदा सियासी हालातों के मद्देनजर लोग खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं तो करते रहें। इनकी बला से। इन्होंने तो रामराज के ख्वाब दिखाये। सपनों का सुनहरा संसार दिखाया। तमाम मुश्किलों के हल का सब्जबाग नजरों के सामने परोसा, और वोट झटक लिया। अब अगर पूरी ठसक के साथ वे अपनी कमीज को कांग्रेस की कमीज से अधिक सफेद बताकर खुद पर उठ रहे हर सवाल से बचने की जुगत में दिख रहे हैं तो सिवाय अपना सिर पीटने के और किया भी क्या जा सकता है। कौन इन्हें बताये कि जनता ने इनको इसलिये नहीं चुना है क्योंकि ये उतने बुरे नहीं है जितने इनसे पहलेवाले थे। बल्कि इनको तो इस वायदे पर भरोसा करके पूर्ण बहुमत की ताकत देकर संसद में भेजा गया कि ना तो ये खुद भ्रष्टाचार करेंगे और ना ही किसी भ्रष्टाचारी को संरक्षण देंगे। लेकिन सत्ता में आने के एक साल के भीतर ही इनके छुपे रूस्तमों की जो कारस्तानियां सामने आ रही हैं उस पर इनके द्वारा धारण किया गया मौन व्रत वाकई किसी का भी दिल तोड़ने के लिये पूरी तरह पर्याप्त है। वैसे भी जिस कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को मतदाताओं ने पिछले आम चुनाव में जड़ से उखाड़ फेंका है उसकी अगुवाई करनेवाले डाॅ मनमोहन सिंह पर भी निजी तौर पर भ्रष्टाचार में संलिप्त होने का आरोप तो उनका बड़े से बड़ा दुश्मन भी नहीं लगा सकता। लेकिन जिस तरह उन्होंने अपने साथियों व सहयोगियों की कारगुजारियां सार्वजनिक हो जाने के बाद भी उसकी नैतिक जिम्मेवारी लेने, आरोपी के खिलाफ स्वतःस्फूर्त कार्रवाई करने या उसके बारे में एक शब्द भी बोलने से लगातार परहेज बरता उसी प्रकार ये भी महाराष्ट्र के चिक्की, बिस्कुट व टेंडर घोटाले, छत्तीसगढ़ के चावल घोटाले, मध्यप्रदेश के व्यापम घोटाले और राजस्थान के ललित गेट मामले सरीखे भाजपाशासित राज्यों के तमाम मसलों के प्रति मनमोहन के पदचिन्हों का ही अनुसरण करते दिख रहे हैं। माना कि आपने ‘खाऊंगा नहीं’ के वायदे को अब तक पूरी तरह निभाया है लेकिन हुजुर ‘खाने भी नहीं दूंगा’ के वायदे को क्यों भूल गये। खैर, माना कि विदेशों में जमा काला घन वापस लाने से हर किसी के खाते में 15 लाख रूपया जमा होने का वायदा महज चुनावी जुमला था। यह भी मान लिया कि हिन्दुस्तान को दुनिया का सबसे अव्वल देश बनाने के लिये पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक के हर चुनाव में आपको 25 साल तक लगातार जीत की दरकार है। लेकिन यह कैसे हजम हो सकता है कि जिस साबिर अली को संगठन में शामिल कराने बाद बकौल मुख्तार अब्बास नकवी, दाऊद इब्राहिम के भी भगवा खेमे में शामिल होने की उम्मीद पैदा हो गयी थी, वही साबिर अब इस कदर पाकसाफ हो गया है कि बिहार चुनाव में उसे खेवनहार की भूमिका सौंपने की पहलकदमी की जा रही है। जिस बाप-बेटी की पार्टी को शिवसेना सरीखे राजग के सबसे पुराने घटक दल सार्वजनिक तौर पर पाकिस्तान परस्त व अलगाववादियों का संरक्षक करार दे रहे हों उसके साथ गठजोड़ करके बनायी गयी सरकार के राज में जम्मू कश्मीर में जारी देशविरोधी व अलगाववादी गतिविधियों की अनदेखी कैसे की जा सकती है। अगर कांग्रेस ने व्यापम व ललित गेट के मामले में निराधार व बेमानी आरोपों के आधार पर सुषमा, वसुंधरा व शिवराज के इस्तीफे की जिद ठानकर संसद को बाधित किया हुआ है तो उसके आरोपों की जांच कराने के लिये संयुक्त संसदीय समिति गठित करने के फार्मूले पर विचार करने से भी इनकार करना कहां तक जायज है। हद तो यह है कि कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों द्वारा किये गये भ्रष्टाचार की काली कमाई का बड़ा हिस्सा गांधी-नेहरू परिवार तक पहुंचने का आरोप भाजपा की ओर से लगाया जाना तो जायज है लेकिन इडी द्वारा भगोड़ा घोषित किये गये ललित मोदी को सुषमा द्वारा मदद पहुंचाए जाने को राहुल गांधी अपराध बताएं तो उन्हें कानूनी कार्रवाई की धमकी दी जाती है। व्यापम व ललित गेट मामले में विपक्ष द्वारा संसद में पोस्टर दिखाने पर उसकी आलोचना की जाती है लेकिन लोकसभा अध्यक्षा द्वारा इसे अनुशासनहीनता करार देते हुए ऐसा करनेवालों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई किये जाने की बात कहे जाने के बावजूद सत्ता पक्ष के सांसद अगर संसद में बैनर-पोस्टर लहराएं तो इसे सामान्य मामला मान लिया जाता है। जाहिर है कि जब इस तरह की सियासत हो रही हो तो किसी भी पक्ष को कैसे पूरा सही या पूरा गलत कहा जा सकता है। वैसे भी अपनी गलतियों को जायज ठहराने के लिये विरोधी की गलतियां उजागर करने और अपने वायदों व स्वनिर्धारित नीतियों के पूरी तरह उलट काम करने के कारण आम लोगों की उम्मीदें धराशायी होने का चुनावी खामियाजा भुगतने से ना तो आज तक कोई बच पाया है और ना ही आगे कोई बच पाएगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

‘क्या बने बात जहां बात बनाए न बने’

नवकांत ठाकुर
‘नुक्ताचीं है गमे-दिल उसको सुनाए न बने, क्या बने बात जहां बात बनाए न बने, बोझ वो सर से गिरा है कि उठाए न बने, काम वो आन पड़ा है कि बनाए न बने।’ वाकई दीवाने गालिब में संकलित मिर्जा गालिब की कलम से निकली यह गजल मौजूदा सियासी उलझनों के मद्देनजर बेहद प्रासंगिक दिखाई पड़ती है। राष्ट्रीय राजनीति की हालत ऐसी ही है कि बिगड़ी हुई बात बनने की कोई राह निकलती नहीं दिख रही है। वैसे राह भी तब निकले जब बातों का सिलसिला शुरू हो। यहां तो कोई भी पक्ष आमने-सामने बैठकर मौजूदा मुश्किलों का आम सहमति से कोई हल तलाशने के लिये तैयार ही नहीं है। एक ओर कांग्रेस की जिद है कि सुषमा स्वराज, शिवराज सिंह चैहान और वसुंधरा राजे को उनके पद से हटाए जाने से पहले वह सत्ताधारी पक्ष के साथ कतई सहयोग या संवाद नहीं करेगी जबकि सत्तारूढ़ भगवा खेमा किसी भी हालत में एक इंच भी झुकने के लिये तैयार नहीं है। आलम यह है कि कांग्रेस द्वारा संसद से लेकर सड़क तक खोले गये मोर्चे के जवाब में भाजपा ने भी अपने बचाव में विरोधी पक्ष पर पलटवार करते हुए जोरदार आक्रमण करने की ही राह पकड़ ली है। तभी तो ना सिर्फ कांग्रेस शासित सूबों में हुए घपले-घोटाले, भ्रष्टाचार व वित्तीय अनियमितताओं के मामलों को राष्ट्रीय स्तर पर जोरदार तरीके से उजागर करने का सिलसिला शुरू कर दिया है बल्कि कांग्रेस के शीर्ष परिवार के सदस्यों पर निजी हमले करने से भी परहेज नहीं बरता जा रहा है। हालांकि सत्तापक्ष व मुख्य विपक्ष द्वारा बढ़-चढ़कर एक दूसरे के खिलाफ किये जा रहे आक्रामक हमलों के कारण ठप्प पड़ी संसद को सुचारू ढ़ंग से संचालित कराने की राह निकालने के लिये गैर-कांग्रेसी विपक्षी दल खासी मशक्कत करते दिख रहे हैं लेकिन उनके द्वारा सुझाये गये फार्मूलों पर भी कोई बात बनती नहीं दिख रही है। मसला यह है कि बात तो तब बने जब दोनों पक्ष बातचीत के लिये सहमत हों। यहां तो इन दोनों को बातचीत के लिये आमने-सामने बिठाना भी टेढ़ी खीर बनी हुई है। आज की ही बात करें तो सुबह के वक्त सभी राजनीतिक दलों के बीच इस बात पर आम सहमति बन गयी थी कि दोपहर में अनौपचारिक तौर पर एक सर्वदलीय बैठक आयोजित होगी जिसमें संसद में जारी मौजूदा गतिरोध का कोई सर्वसम्मत तोड़ निकालने का प्रयास किया जाएगा। सूत्र बताते हैं कि कांग्रेस के वरिष्ठ रणनीतिकारों ने भी इस बैठक में शिरकत करने के लिये हामी भर दी थी। यानि मामला पटरी पर आता दिखने लगा था। लेकिन सुबह के वक्त जब संसद की कार्यवाही शुरू हुई तो सत्तापक्ष के सांसदों ने ना सिर्फ कांग्रेस के खिलाफ जमकर नारेबाजी की बल्कि पार्टी अध्यक्षा सोनिया गांधी के इकलौते दामाद राॅबर्ट वाड्रा द्वारा किये गये कथित जमीन घोटाले के मामले को तूल देते हुए संसद में बैनर-पोस्टर भी लहराए। यहां तक कि वाड्रा द्वारा संसद में अपने खिलाफ उठाए जा रहे मसले को तुच्छ राजनीति बताए जाने को संसद की अवमानना करार देते हुए बीकानेर के भाजपाई सांसद अर्जुन मेघवाल ने विशेषाधिकार हनन का नोटिस भी दे दिया। नतीजन सत्तापक्ष के सांसदों की इन हरकतों खिन्न होकर कांग्रेसी रणनीतिकारों ने सर्वदलीय बैठक में शिरकत करने से ही इनकार कर दिया जिसके कारण बात बनाने के लिये आरंभ किये जा रहे बातचीत के सिलसिले की शुरूआत ही नहीं हो सकी। हालांकि सूत्र बताते हैं कि इस पूरे घटनाक्रम से गैर-कांग्रेसी दलों के बीच भारी निराशा का माहौल अवश्य बना है क्योंकि आज की बैठक के पूर्व ही वाममोर्चे से लेकर सपा व तृणमूल सरीखे दलों ने भी सरकार को इस बात की सहमति दे दी थी कि संसद जारी गतिरोध को दूर करने के लिये वह कांग्रेस के साथ जो भी समझौता करेगी उसे तहेदिल से स्वीकार करने में वे कतई कोताही नहीं बरतेंगे। लेकिन जब बैठक ही नहीं हो पा रही है तो सहमति की कोई राह निकलने का सवाल ही कहां है। पहली आवश्यकता तो इन दोनों पक्षों को बातचीत के लिये आमने-सामने बिठाने की है। बात होगी तो बात बनने की कोई सूरत निकलेगी लेकिन बात ही नहीं होगी तो बात बनेगी कैसे। खैर, सूत्र बताते हैं कि गैर-कांग्रेसी विपक्ष ने दोनों पक्षों के सामने यह फार्मूला भी पेश किया है कि जिन तीन नेताओं को पद से हटाने की कांग्रेस ने जिद ठानी हुई है उन पर लग रहे आरोपों की जांच के लिये एक संसदीय समिति का गठन कर दिया जाये। लेकिन फिलहाल यह फार्मूला ना तो कांग्रेस को रास आ रहा है और ना ही भाजपा इस पर अमल करने के लिये सहमत दिख रही है। खैर, आज की बैठक स्थगित हो जाने या गैर-कांग्रेसी विपक्ष द्वारा पेश किये जा रहे फार्मूलों पर कोई आम राय नहीं बन पाने के मामले को देखते हुए यह निष्कर्ष निकाल लेना तो जल्दबाजी होगी कि मौजूदा सत्र सुचारू ढ़ंग से संचालित ही नहीं हो पाएगा लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में मतभेदों को सुलझाने का इकलौता रास्ता बातचीत का ही होने के कारण यह तो तय है कि फिलहाल मुलाकात या बात करने से भी इनकार कर रहे दोनों ही पक्षों को कभी ना कभी बातचीत के लिये आमने-सामने बैठना ही होगा। लेकिन बातचीत का दरवाजा खोलने में जितनी देर की जाएगी उसका देश को उतना ही नुकसान झेलना पड़ेगा और इसकी पूरी जिम्मेवारी अपनी-अपनी जिद पर अड़े इन दोनों पक्षों की ही होगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   

गुरुवार, 23 जुलाई 2015

‘कैसे मिटे मतभेद जब मनभेद हो कायम’

नवकांत ठाकुर
माना यही जाता है कि मतभेद को तो दूर किया जा सकता है बशर्ते मनभेद दूर हो जाये लेकिन मनभेद के कायम रहते मतभेदों को दूर कर पाना तो निहायत ही नामुमकिन है। यही वजह है कि बरसात का मौसम गुजरने के बाद होनेवाले बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सभी खेमों के तमाम घटक व समर्थक दल आपसी मतभेदों को सुलझाने में कामयाब होते नहीं दिख रहे हैं। वैसे भी मतभेद तो तब दूर हो जब मनभेद मिटे। मनभेद के रहते मतभेद कैसे समाप्त हो सकता है। हालांकि मनभेद की यह स्थिति सतही तौर पर तो जनता परिवार के महामोर्चे में ही सबसे प्रबल दिख रही है लेकिन गहराई से पड़ताल की जाये तो भाजपानीत राजग का खेमा भी इससे कतई अछूता नहीं है। बात की शुरूआत अगर जनता परिवार के धर्मनिरपेक्ष महामोर्चे से की जाये तो इसके  गठन के साथ ही इसके घटक दलों के आपसी मनभेद की जो बातें सार्वजनिक होनी शुरू हुई थीं वह सिलसिला अब तक बदस्तूर जारी है। कहने को तो सार्वजनिक तौर पर राजद सुप्रीमो लालू यादव से लेकर जदयू के शीर्ष रणनीतिकार नीतीश कुमार ही नहीं बल्कि इस गठजोड़ की तीसरी सबसे अहम कड़ी कांग्रेस ने भी किसी भी स्तर पर आपसी मतभेद की बात कभी स्वीकार नहीं की है लेकिन सवाल है कि इनके बीच अगर कोई मतभेद नहीं होता तो लालू के साथ मिलकर चलनेवाली भावी सरकार के सुशासन की राह पर अडिग रहने की संभावना पर सवालिया निशान लगता देखकर बेसाख्ता नीतीश हर्गिज यह नहीं कहते कि ‘जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग, चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग।’ हालांकि मामले के तूल पकड़ने पर भले ही नीतीश से लेकर गठबंधन के सभी नेतागण यह बता रहे हों कि उनके द्वारा व्यक्त की गयी इस प्रतिक्रिया में भाजपा को भुजंग यानि सांप बताया गया है लेकिन हकीकत तो यही है कि आपस में चंदन और सांप की तरह तो राजद व जदयू ही चुनावी गठजोड़ कायम करके परस्पर लिपटी-चिपटी हुई दिख रही है। ऐसे में लाजिमी है कि इन्ही में से कोई एक सांप भी होगा और दूसरा चंदन भी होगा। भाजपा का तो इन दोनों दलों से किसी भी तरह की नजदीकी का कोई रिश्ता ही नहीं है लिहाजा उसे अपने से चिपटा हुआ भुजंग बताना तो नीतीश की ‘थेथरोलाॅजी’ ही कही जाएगी जो मामला बिगड़ता देखकर उसे संभालने के लिये वे करते दिखाई दे रहे हैं। खैर, यह पहला मौका नहीं है जब इस तरह का मनभेद सामने आया हो। जब कांग्रेस की मांग व सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की मध्यस्थता में नीतीश को गठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने के लिये लालू को मजबूर होना पड़ा तब भी उन्होंने खुले तौर पर यही कहा था कि बिहार में भाजपा को हराने के लिये वे किसी भी जहर का घूंट पीने के लिये तैयार हैं। इसी प्रकार विधानसभा चुनाव की तैयारियों को अंतिम रूप देने के क्रम में नीतीश ने समूचे सूबे में जितने भी बैनर-पोस्टर टंगवाए हैं उनमें से एक में भी राजद के किसी भी नेता को जरा भी जगह नहीं दी गयी है। इसके अलावा सीटों की साझेदारी को लेकर भी इन दोनों दलों के बीच सहमति की राह निकल पाना चुनौतीपूर्ण ही दिख रहा है। साथ ही कांग्रेस ने अनौपचारिक तौर पर पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि राजद के कोटे की सीटों पर वह हर्गिज चुनाव प्रचार नहीं करेगी। दूसरी ओर राजद के शीर्ष विचारकों में शुमार होनेवाले रघुवंश प्रसाद सिंह सरीखे नेता सार्वजनिक तौर पर नीतीश के खिलाफ लगातार जहर उगलने का सिलसिला जारी रखे हुए हैं। जाहिर है कि गठजोड़ बनाकर चुनाव लड़ने के लिये सहमत हुए धर्मनिरपेक्ष मोर्चे के नेतागण हर मामले में आपसी मतभेद दूर कर चुकने का कितना ही दावा क्यों ना कर रहे हों लेकिन इनके बीच के मनभेद की खाई लगातार चैड़ी होती हुई ही दिख रही है जिसके नतीजे में विभिन्न मसलों को लेकर इनके बीच का आपसी मतभेद दूर हो पाना तो नामुमकिन ही माना जाएगा। दूसरी ओर सीटों के बंटवारे को लेकर मनभेद की कुछ ऐसी ही स्थिति भाजपानीत राजग के खेमे में भी दिख रही है जहां गठबंधन की मर्यादा पर तानाशाही नीतियां हावी होने के कारण इसके घटक दलों के बीच आक्रोश व असंतोष की चिंगारी बुझ ही नहीं पा रही है। हालांकि राजग के सभी घटक दलों का दावा तो यही है कि इनके बीच आपस में कोई मतभेद नहीं है लेकिन सूबे की दो तिहाई सीटों पर अपना कब्जा जमाने की कोशिशों के तहत जिस तरह से भाजपा ने जीतनराम मांझी द्वारा जदयू से तोड़े गये अधिकांश विधायकों को अपने संगठन में शामिल करने की राह पकड़ ली है, मांझी के कोटे से कम तादाद में सीटों पर सहमत होने के लिये उपेन्द्र कुशवाहा की रालोसपा हर्गिज तैयार नहीं दिख रही है और सूबे की एक तिहाई सीटों पर रामविलास पासवान ने दावेदारी ठोंकी हुई है उसके मद्देनजर इनके बीच पनप रहा मनभेद अब कभी भी विभिन्न मसलों पर मतभेद की शक्ल में सामने आ सकता है। खैर, सियासत में मत के लिये मतभेद होना तो लाजिमी ही है जिसे मन के मिलाप से ही मिटाया जा सकता है लेकिन अगर मनभेद की आंच बदस्तूर सुलगती रही तो इसके नतीजे में सामने आनेवाले मतभेदों का चुनावी नतीजों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना को कैसे खारिज किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’    

बुधवार, 22 जुलाई 2015

‘ज्यादा हों जो उम्मीदें तो बच्चे टूट जाते हैं’

‘जरा सी चोट को महसूस करके टूट जाते हैं, सलामत आईने रहते हैं चेहरे टूट जाते हैं, गुजारिश अब बुजुर्गों से यही करना मुनासिब है, ज्यादा हों जो उम्मीदें तो बच्चे टूट जाते हैं।’ कायदे से देखा जाये तो भारतीय प्रशासनिक सेवा में उत्तर प्रदेश संवर्ग में कार्यरत पवन कुमार द्वारा लिखी गयी यह गजल मौजूदा सियासी माहौल के मद्देनजर केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के उन शीर्ष बुजुर्ग नेताओं को ही संबोधित दिखाई देती है जो अपनी पूरी उम्र सक्रिय सियासत में गुजार देने के बाद अब चैथेपन की अवस्था में भी ना तो सत्ता का मोह त्याग पा रहे हैं और ना ही नयी पीढ़ी को अपने मनमुताबिक काम करने की स्वतंत्रता देना गवारा कर रहे हैं। हालांकि बुजुर्गों से अपेक्षा यही रहती है कि वे अपनी विरासत के उत्तराधिकारियों पर ना सिर्फ अपने अनुभवों की बौछार करें बल्कि जीवन पथ पर बच्चों का भरपूर उत्साहवर्धन भी करें ताकि वह पूरे उत्साह के साथ अपनी ऊर्जा, दक्षता व कार्यकुशलता का भरपूर इस्तेमाल करते हुए परिवार व खानदान का नाम रौशन कर सके। लेकिन आम तौर पर सियासत में यही देखा जाता है कि कोई भी बुजुर्ग तब तक नयी पीढ़ी को पूरी तरह अपनी विरासत सौंपना गवारा नहीं करता है जब तक या तो वह पूरी तरह अक्षम नहीं हो जाता या फिर उसका जनाजा नहीं उठ जाता। ऐसे में अगर नयी पीढ़ी आगे बढ़कर नेतृत्व की बागडोर अपने हाथों में लेने व बुजुर्गों को किनारे लगाने की पहल ना करे तो और क्या करे? हालांकि यह और बात है कि जिन बुजुर्गों को किनारे लगाया जाता है वे अक्सर इस बदलाव को हजम नहीं कर पाते हैं और नतीजे में आगे आ रही नयी पीढ़ी के खिलाफ अनर्गल विषवमन करना शुरू कर देते हैं। बेशक यह उनके आंतरिक आक्रोश की अभिव्यक्ति ही होती है जिसका नयी पीढ़ी की दक्षता, क्षमता व कार्यकुशलता से कोई लेना देना नहीं होता लेकिन उनकी इन हरकतों के कारण ना सिर्फ विरोधियों को बैठे-बिठाये आलोचना व निन्दा करने का भरपूर मसाला मिल जाता है बल्कि नेतृत्व की बागडोर संभालनेवाली युवा पीढ़ी के भी उत्साह, आत्मविश्वास व आत्मसम्मान को गहरा धक्का लगता है। वैसे भी सामाजिक तौर पर बुजुर्गों का दोष देखने की परंपरा तो हमारे देश में कभी रही ही नहीं है। वे भले जैसा भी बर्ताव करें लेकिन युवाओं से यही अपेक्षा की जाती है वह उनको तहेदिल से आदरणीय, पूजनीय व अनुकरणीय ही माने। लेकिन सवाल है कि जब पूरा सम्मान व समुचित स्थान देने के के बाद भी बुजुर्गों की ओर से युवाओं की राहों में कांटे ही बिछाये जायें, उसे बेवजह जलील ही किया जाये, सार्वजनिक तौर पर उसको आलोचना ही झेलनी पड़े तो आखिर वह करे भी तो क्या करे? जदयू ने जब अपने वरिष्ठ नेता जार्ज फर्नांडीज को लोकसभा की राजनीति छोड़कर राज्यसभा में मार्गदर्शक की भूमिका निभाने के लिये सहमत करना चाहा तो वे हत्थे से उखड़ गये। पार्टी से बगावत करके स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर मुजप्फरपुर से चुनाव लड़ने चले गये। बाद में चुनावी हार भी हुई और जदयू में दुबारा समुचित स्थान भी नहीं मिल सका। इसी प्रकार भाजपा में भी वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में हुई करारी हार के बाद आरएसएस की पहलकदमी पर आमसहमति से यह तय हुआ कि 75 वर्ष की उम्र पार कर चुके बुजुर्गों को ना तो कोई पद दिया जाएगा और ना ही सक्रिय राजनीति में उन्हें हिस्सेदारी दी जाएगी। इसी फैसले के तहत लालकृष्ण आडवाणी, डाॅ मुरली मनोहर जोशी, वीके मल्होत्रा, यशवंत सिन्हा, कैलाश जोशी व जसवंत सिंह से लेकर शांता कुमार सरीखे दर्जनों शीर्ष वरिष्ठ नेताओं को सम्मान सहित सक्रिय राजनीति से अलग करने की प्रक्रिया आरंभ हुई। लेकिन इन बुजुर्गों ने अभी तक अपनी मौजूदा वरिष्ठता को स्वीकार करते हुए संगठन के लिये शुभचिंतक व मार्गदर्शक की भूमिका को सहर्ष स्वीकार करना गवारा नहीं किया है। इसे उनके दिल की भड़ास कहें, उनका राजनीतिक प्रपंच कहें या उनके अंदरूनी आक्रोश की अभिव्यक्ति। अक्सर वे संगठन व सरकार के शीर्ष संचालकों की सिरदर्दी में इजाफा करते ही दिखाई पड़ रहे हैं। कभी आडवाणी सार्वजनिक तौर पर पार्टी के मौजूदा निजाम को तानाशाही सोचवाला करार देते हुए देश में दुबारा आपातकाल लागू होने की संभावना पर बल देते दिखाई पड़ते हैं तो कभी केन्द्र सरकार के कामकाज पर प्रत्यक्ष व परोक्ष तौर पर डाॅ जोशी की उंगली उठ जाती है। कभी यशवंत सिन्हा ऐसा बयान दे देते हैं जिसके कारण पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को फजीहत झेलनी पड़ती है तो कभी शांता कुमार का लेटर बम फूट पड़ता है। वाकई अगर इन बुजुर्गों को ऐसा लगता है कि उनके द्वारा स्थापित व पालित-पोषित संगठन को नया नेतृत्ववर्ग किसी गलत दिशा में ले जा रहा है तो उन्हें पूरा हक है कि वे पार्टी के किसी भी नेता को अपने पास बुलाकर एकांत में उसे उचित सलाह व मार्गदर्शन दें। लेकिन सार्वजनिक तौर पर बयानबाजी करने व संगठन व सरकार की किरकिरी कराने के प्रयासों को बुजुर्गों की इमानदार सोच, भलमनसाहत व उदार विचारों की अभिव्यक्ति का नाम कैसे दिया जा सकता है। खैर, मान्यता तो यही है कि बुजुर्गों की गालियों से भी युवाओं के आयु, विद्या, यश व बल में वृद्धि ही होती है लेकिन विचारणीय तथ्य यह है कि सफल, सक्षम व समर्थ उत्तराधिकारियों को बेवजह नाराज करके उनसे अपना हित पूरा कराने का कोई प्रयास कैसे सफल हो सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’

मंगलवार, 21 जुलाई 2015

‘साम दान भय भेद का कुछ तो दिखे परिणाम’

विरोधियों से अपनी बात मनवाने के लिये सत्ताधारियों द्वारा अक्सर जिन चार उपायों को अमल में लाये जाने का रामचरित मानस में तुलसीदास ने जिक्र किया है वे हैं साम, दान, भय और भेद। इसमें ‘साम’ का मतलब है समझाना, सम्मान देना व सहमति से संतुलन की राह निकालना। ‘दाम’ का अर्थ है सौदेबाजी, लेन-देन या खरीद-फरोख्त की राह अपनाना। ‘भय’ से तात्पर्य है विरोधी पक्ष को उसकी कमजोरियों व अपनी ताकत का एहसास कराके डराना। और भेद का मतलब है रहस्यात्मक रणनीति व कूटनीति का प्रयोग करते हुए विरोधी पक्ष में फूट डालकर उसे मजबूर, कमजोर व विवश कर देना। कायदे से देखा जाये तो ताजा राजनीतिक माहौल में केन्द्र सरकार भी कल से शुरू हो रहे संसद के मानसून सत्र में संभावित गतिरोध, भिड़ंत व टकराव की स्थिति को टालते हुए संसद को सुचारू ढ़ंग से चलाने के लिये इन चारों उपायों का एक साथ ही प्रयोग करती दिख रही है। दरअसल मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने पहले से ही स्पष्ट कर दिया है कि व्यापम घोटाले के आरोपों में घिरे शिवराज सिंह चैहान और ललित मोदी के मामले में फंसी सुषमा स्वराज व वसुंधरा राजे को उनके पद से हटाए जाने के बाद ही वह संसद को सुचारू ढंग से संचालित करने में सरकार का सहयोग करेगी। साथ ही उसने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वह वर्ष 2013 में बने भूमि अधिग्रहण कानून में एक शब्द भी संशोधन करने की सरकार को हर्गिज इजाजत नहीं देगी। जाहिर है कि कांग्रेस की इस जिद को देखते हुए संसद का मानसून सत्र पूरी तरह हंगामे की भेंट चढ़ना लाजिमी ही है। लेकिन जहां तक सरकार का सवाल है तो उसकी पूरी कोशिश है कि किसी भी तरह तमाम राजनीतिक दलों के बीच जारी नीतिगत, वैचारिक व सैद्धांतिक गतिरोध को दूर करते हुए संसद को सुचारू ढंग से संचालित करके संसद के सत्र को अधिकतम परिणामदायक बनाया जाये। यही वजह है कि अपने सहयोगियों को मजबूती के साथ अपने पक्ष में खड़ा करने के लिये राजग गठबंधन के घटक दलों को पहली बार औपचारिक तौर पर एकसाथ रात्रिभोज के बहाने बातचीत करने के लिये प्रधानमंत्री ने अपने निवास पर आमंत्रित करने की पहल की। साथ ही विरोधियों को मनाने के लिये ‘साम’ नीति के तहत समझाने की राह अख्तियार करते हुए भूमि अधिग्रहण विधेयक के मसले पर बातचीत करने के लिये पहले भी आमंत्रित किया गया जिसमें शिरकत करने से कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने तो साफ तौर पर इनकार कर दिया अलबत्ता भाजपा व उसके साथी दलों के मुख्यमंत्रियों के अलावा बिहार व दिल्ली के सूबेदारों सहित कुछ सोलह प्रदेशों के साथ बातचीत भी हुई। साथ ही संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू ने और लोकसभा अध्यक्षा सुमित्रा महाजन ने सर्वदलीय बैठक बुलाकर तमाम विवादास्पद मसलों पर सभी दलों को समझाने व मनाने की पहल भी की। इस ‘साम’ नीति के नतीजे में कथित तौर पर सपा व बसपा सहित जनता परिवार के घटक दलों सहित अधिकांश राजनीतिक दलों ने तमाम विवादास्पद व उलझाऊ मसलों पर बातचीत के माध्यम से सहमति की राह निकालने व संसद को सुचारू ढंग से संचालित करने पर अपनी सहमति दे दी है। लेकिन कांग्रेस बदस्तूर संसद में गतिरोध का माहौल बनाने की जिद पर अड़ी दिख रही है। हालांकि सूत्रों की मानें तो कांग्रेस को झुकाने व उसे पीछे हटने पर मजबूर करने के लिये ‘दान’ नीति के तहत यह प्रस्ताव भी दे दिया गया है कि अगर वह बाकी मसलों पर अपनी जिद छोड़ दे तो मौजूदा सत्र में भूमि विधेयक को पारित कराने से परहेज बरत लिया जाएगा ताकि बाकी संसदीय कामकाज सुचारू ढंग से संचालित हो सके और जीएसटी व नाबालिग श्रमिकों से जुड़े महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराने की राह निकल सके। साथ ही कांग्रेस के खिलाफ ‘भय’ की नीति का प्रयोग करते हुए भाजपा ने स्पष्ट कर दिया है अगर उसने गतिरोध व टकराव का सिलसिला बदस्तूर जारी रखा तो ऐसे में उसके शीर्ष संचालक परिवार के दामाद राबर्ट वाड्रा द्वारा राजस्थान व हरियाणा में कथित तौर पर अंजाम दिये जमीन घोटाले, प्रियंका गांधी द्वारा शिमला में की गयी जमीन की कथित हेराफेरी व सोनिया गांधी की सगी बहन द्वारा ललित मोदी से 500 करोड़ की रिश्वत मांगे जाने के मामले को देशभर में बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनाने और विदेशी कंपनी से घूस लेने के मामले में अमेरिकी अदालत में साबित हो चुकी गोवा की पूर्ववर्ती सरकार के मंत्रियों संलिप्तता के मसले की सीबीआई से जांच कराने से भी परहेज नहीं बरता जाएगा। इसके अलावा ‘भेद’ की नीति के तहत कांग्रेस को संसद से लेकर सड़क तक पूरी तरह अलग-थलग करने व अन्य विपक्षी व तटस्थ दलों के साथ बातचीत के माध्यम से तमाम विवादास्पद मसलों पर आम सहमति की राह निकालने की कोशिशें भी जोरों पर जारी है। यानि समग्रता में देखा जाये तो सरकार ने विपक्ष पर ‘साम दान भय भेद’ के सभी हथियारों का एक साथ ही प्रयोग कर दिया है लेकिन मसला यह है कि इन तमाम हथकंडों को अमल में लाये जाने के बावजूद जिस तरह से कांग्रेस के आक्रोश व आक्रामकता में जरा भी कमी नहीं दिख रही है उसके मद्देनजर अगर सरकार ने समय रहते किसी अन्य उपाय से इस मसले को हल करने की पहल नहीं की तो कल से आरंभ हो रहे संसद के मानसून सत्र में कुछ सकारात्मक परिणाम हासिल करने की उम्मीदें शायद ही परवान चढ़ सकें। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

सोमवार, 20 जुलाई 2015

‘लहजा नर्म भी कर लें तो झुंझलाहट नहीं जाती’

‘लहजा नर्म भी कर लें तो झुंझलाहट नहीं जाती’

वाकई दिल में अगर झुंझलाहट का आलम हो तो उसे नर्म लहजे के पर्दे में छिपा पाना भी अक्सर बेहद मुश्किल होता है। चेहरे पर मुस्कान चस्पां करके घूमनेवाले भले ही इस मुगालते में हों कि उनके मन की बात कोई समझ नहीं पाएगा लेकिन ताड़नेवाले भी कयामत की नजर रखते हैं। बनावटी मुस्कान से दिल की झुंझलाहट लंबे समय तक नहीं छिपायी जा सकती। तभी तो अपनी खिसियाहट व झुंझलाहट पर पर्दा डालकर खुद को उत्साह, प्रसन्नता व आत्मविश्वास से लबरेज दिखा पाना इन दिनों केन्द्र सरकार के शीर्ष रणनीतिकारों के लिये भी संभव नहीं हो पा रहा है। आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा सार्वजनिक तौर पर कही गयी बातों पर ही गौर करें तो जिस तरह से उन्होंने दबे, ढ़ंके व छिपे लहजे में सियासी सिद्धांतों, परिवारवाद, राजनीतिक टकराव व भ्रष्टाचार सरीखे मसलों को लेकर विरोधियों पर तंज कसने की पहलकदमी की है उससे वास्तव में उनके दिल की झुंझलाहट का ही मुजाहिरा हुआ है। मौजूदा स्थिति यही है कि जहां एक ओर अगले सप्ताह से आरंभ हो रहे संसद के मानसून सत्र में विपक्ष ने सरकार का पुरजोर विरोध करने की रणनीति का पहले से ही एलान किया हुआ है वहीं दूसरी ओर सरकार के कई घटक व समर्थक दलों ने भी इस मुश्किल वक्त में उसकी सिरदर्दी में इजाफा करने की ही राह पकड़ ली है। खास तौर से शिवसेना सरीखे घटक व अन्नाद्रमुक सरीखे समर्थक दलों से साफ शब्दों में बता दिया है कि भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक के जिस प्रारूप को संसद की स्वीकृति दिलाने का प्रयास किया जा रहा है वह उन्हें कतई स्वीकार्य नहीं है। यानि इस सत्र में खास तौर से जिन दो विधेयकों ‘वस्तु व सेवाकर अधिनियम’ और ‘भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक’ को संसद से पारित कराने का लक्ष्य निर्धारित किया जा चुका है उसमें कामयाबी हासिल होने की उम्मीद लगातार कमजोर होती दिख रही है। हालांकि इन दोनों मामलों में सर्वदलीय सहमति बनाने के लिये पिछले बजट सत्र में ही जीएसटी को राज्यसभा की प्रवर समिति समिति के पास विचार के लिये भेजा गया जबकि भूमि विधेयक पर आम सहमति बनाने के लिये दोनों सदनों की संयुक्त समिति गठित कर दी गयी। यहां तक कि सरकार ने पहले से ही एलान किया हुआ है कि इन दोनों विधेयकों के मौजूदा प्रारूप में बदलाव के जिन प्रस्तावों पर इन सर्वदलीय समितियों में आम सहमति बन जाएगी उसे पूरी तरह स्वीकार करने में कतई संकोच नहीं किया जाएगा। इसके बावजूद अगर कांग्रेस इस मसले पर बात करने से भी इनकार कर रही हो, बाकी विरोधी दल भी अपने तीखे तेवरों का इजहार कर रहे हों और कोढ़ में खाज की मानिंद साथी व सहयोगी भी इस परेशानी के माहौल में मनमानी करते दिखाई पड़ रहे हों तो ऐसे में गुस्सा व झुंझलाहट पैदा होना लाजिमी ही है। वैसे भी लोकसभा से पारित होने के बाद राज्यसभा की स्वीकृति का इंतजार कर रहे जीएसटी व भूमि विधेयक के मामले में ऐसा पेंच फंसा हुआ है जिस पर सर्वसम्मति बनाए बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता। जहां एक ओर संविधान संशोधन विधेयक होने के कारण जीएसटी के लिये दो तिहाई सांसदों के समर्थन की दरकार है वहीं दूसरी ओर भूमि विधेयक के मामले में सरकार के हाथ पूरी तरह बंधे हुए हैं। मौजूदा सियासी हालातों के मद्देनजर भूमि विधेयक का राज्यसभा से पारित हो पाना तो नामुमकिन ही दिख रहा है लेकिन इसे सदन से खारिज कराना भी सरकार के लिये तब तक संभव नहीं है जब तक बाकी सभी दल इसके लिये सहमत नहीं होते। दूसरी ओर संवैधानिक समस्या यह है कि जब तक राज्यसभा द्वारा यह विधेयक खारिज नहीं कर दिया जाता तब तक सरकार इसे संसद के संयुक्त सत्र में पारित कराने की राह कतई नहीं अपना सकती है। सरकार की इस मजबूरी से विपक्ष भी भलीभांति वाकिफ है। तभी तो उसने इस विधेयक पर मतदान के लिये आवश्यक शांतिपूर्ण व सुचारू परिस्थियां कायम करने में सरकार का कतई सहयोग नहीं करने की जिद ठानी हुई है। ऐसे में सरकार करे भी तो क्या करे। सिवाय गुस्सा व झुझलाहट दिखाने के। तभी तो आज ना सिर्फ प्रधानमंत्री ने संसद में संग्राम होने की बात कहते हुए सत्तापक्ष की हर सोच व नीतियों के प्रति विपक्ष की ओर से हो रहे अछूत व्यवहार से लेकर कांग्रेस की कमजोर नस मानी जानेवाली परिवारवादी सियासत व उसके शीर्ष परिवार के दामाद पर भी परोक्ष तौर पर करारा प्रहार किया बल्कि भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं ने भी कांग्रेस के खिलाफ जमकर जुबानी हमला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पार्टी प्रवक्ता संबित पात्रा ने कांग्रेस अध्यक्षा के दामाद द्वारा किये गये कथित जमीन घोटाले का मसला उठाया तो पार्टी के राष्ट्रीय सचिव सिद्धार्थनाथ सिंह ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की सोच को ‘डायपर ब्वाय’ सरीखा बता दिया। जाहिर है कि इन घटनाक्रमों से भगवा खेमे की अंदरूनी झुंझलाहट का ही मुजाहिरा हुआ है जो संसद में संभावित भावी विफलताओं की आशंका से ही पनपा है। खैर, सियासत में सफलता व विफलता का सिलसिला तो चलता ही रहता है लेकिन किसी मसले पर आगे बढ़ने की राह में हाथ आ रही नाकामी के कारण खुलकर झुंझलाहट का प्रदर्शन किये जाने के नतीजे में मतदताओं के बीच सरकार की सियासी दक्षता व कार्यकुशलता के प्रति नकारात्मक व बेचारगी भरा संदेश प्रसारित होने की संभावना से कैसे इनकार किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’

‘बन कर रहेगी बात कोई बात कीजिये’

‘बन कर रहेगी बात कोई बात कीजिये’

मशहूर शायर राहत इंदौरी ने वर्ष 2003 में आई फिल्म ‘इन्तहा’ के लिये लिखे गीत में गुजारिश की है कि ‘बढ़ने लगी है बात कोई बात कीजिये, कट जाएगी ये रात कोई बात कीजिये, यूं सादगी के साथ कोई बात कीजिये, बनकर रहेगी बात कोई बात कीजिये।’ मौजूदा सियासी हालातों मद्देनजर ऐसा लगता है मानो राहत साहब ने गीत की ये पंक्तियां कांग्रेस को ही संबोधित करते हुए लिखी हों। वास्तव में अपनी अलग सोच, मानसिकता व विचारधारा को ही सर्वोपरि मानते हुए कांग्रेसी रणनीतिकारों ने जिस तरह से विरोधियों के साथ ही नहीं बल्कि समान विचारधारावाले गैरभाजपाई दलों के साथ भी बातचीत का दरवाजा पूरी तरह बंद कर लिया है उसका औचित्य वाकई समझ से परे है। कायदे से अपेक्षा तो यह थी कि अगले हफ्ते से आरंभ हो रहे संसद के मानसून सत्र में सरकार को घेरने के लिये कांग्रेस की ओर से मजबूत रणनीति बनायी जाती और उस पर सभी विपक्षी दलों को सहमत करके उन्हें अपने साथ जोड़ा जाता। लेकिन इस जिम्मेवारी का निर्वहन करने के बजाय उसकी अपेक्षा है कि भले ही वह बाकी विरोधियों के विचारों को टके का भाव भी ना दे लेकिन वे सभी केवल इस वजह से उसके साथ जुड़े रहें क्योंकि वह विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है और उसका सहयोग लिये बिना किसी भी मसले पर सरकार को झुकने के लिये विवश कर पाना किसी के लिये भी कतई संभव नहीं है। जाहिर है कि कांग्रेस की इस आत्ममुग्धता के सामने नतमस्तक होते हुए उसका पिछलग्गू बन जाना किसी के लिये भी संभव नहीं हो सकता है। तभी तो सरकार को अपनी ताकत दिखाने के लिये जब कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने इफ्तार की दावत दी तो उसमें शरीक होने से अधिकांश विपक्षी व गुटनिरपेक्ष ने पूरी तरह परहेज बरत लिया। हालांकि विपक्षी दलों के बीच अपने नेतृत्व की स्वीकार्यता का मुजाहिरा करने के मकसद से आयोजित इस इफ्तार की विफलता से सोनिया का मायूस होना स्वाभाविक ही है लेकिन विडंबना यह है कि इसके कारणों की पड़ताल करके अपनी रणनीति में सुधार लाने के प्रति कांग्रेस के भीतर शीर्ष स्तर आज भी निश्चिंतता का ही माहौल दिख रहा है। दरअसल विपक्षी दलों के बीच कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने के प्रति नकारात्मक सोच का जो माहौल दिख रहा है उसकी गहराई से पड़ताल की जाये तो इसकी जड़ में कांग्रेस द्वारा अमल में लायी जा रही कूटनीतियां ही पूरी तरह जिम्मेवार दिखाई देती हैं। मसलन भाजपा के विजय रथ पर पहली बार दिल्ली में ब्रेक लगानेवाले एएपी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने जब सियासी समीकरणों से अलग हटकर सभी राजनीतिक दलों को इफ्तार की दावत में शिरकत का निमंत्रण भेजा तो उनके सनातन विरोधी माने जानेवाले दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग से लेकर भाजपा के कई बड़े नेताओं ने भी उसमें खुले दिल से शिरकत करने में कोई कोताही नहीं बरती लेकिन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन ने इस दावत का पूरी तरह बहिष्कार किये जाने की राह पकड़ते हुए पार्टी को सोच, संबंध व सरोकार के सीमित दायरे में कैद कर देना ही बेहतर समझा। यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने केजरीवाल की इस गैर सियासी दावत में शिरकत करने की पहल की तो उसके खिलाफ भी अंदरूनी तौर पर संगठन में भारी बवाल कटना शुरू हो गया। जाहिर है कि ऐसी हालत में लोकसभा में चार सदस्यीय एएपी अगर सरकार के खिलाफ कांग्रेस से अलग हटकर अपनी राह पकड़ती है इसे कैसे गलत कहा जा सकता है। इसी प्रकार बिहार में जनता परिवार के साथ गठबंधन करके विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला करने के बाद जिस तरह से कांग्रेस ने लालू यादव की राजद के साथ दूरी बनायी हुई है और लगातार उसके हितों की अनदेखी करते हुए पहले नीतीश को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने का दबाव बनाया और अब राजद के कोटे की सीटों पर चुनाव प्रचार में सहभागिता करने से भी इनकार करती दिख रही है उसके बाद राष्ट्रीय राजनीति में राजद का सहयोग हासिल करने की उसकी कोशिशें कैसे परवान चढ़ सकती हैं। पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे के साथ गलबहियां करके तृणमूल के हितों की अनदेखी करना, ललित मोदी के विवाद को तूल नहीं दिये जाने की सपा व राजद की गुजारिश पर जरा भी ध्यान नहीं देना, भूमि अधिग्रहण विधेयक के मसले पर बातचीत के माध्यम से आम सहमति की राह निकालने की राकांपा, बीजद व अन्ना द्रमुक सरीखे दलों की सलाह को मानने से इनकार करना, नीति आयोग की बैठक का बहिष्कार करके सरकार के साथ बातचीत के माध्यम से समझौते की राह निकालने का दरवाजा बंद कर लेना और किसी भी मसले पर विरोधी दलों को अपने साथ जोड़ने की पहल करने से परहेज बरतना जारी रखते हुए अगर कांग्रेस इस मुगालते में है कि उसे सभी विपक्षियों का घर बैठे ही सहयोग व समर्थन हासिल हो जायेगा तो इसे उसकी आत्ममुग्धता की पराकाष्ठा न कहें तो और क्या कहें। खैर सियासत में ‘एकला चलो’ की रणनीति पर अमल करने की परंपरा तो बहुत पुरानी है जिसमें कई बार ऐसा भी देखा जाता है कि ‘मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया।’ लेकिन इस रणनीति के विफल रहने के नतीजे में पूरी तरह अलग-थलग पड़कर सियासी समीकरणों में निष्प्रभावी हो जाने के खतरे की संभावना को भी सिरे से तो कतई खारिज नहीं किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

बुधवार, 15 जुलाई 2015

‘सियासी सच्चाईयों को बेपर्दा करती इफ्तारी’

‘सियासत में जरूरी है रवादारी समझता है, वो रोजा तो नहीं रखता मगर इफ्तारी समझता है।’ वाकई अपने इस शेर के माध्यम से राहत इंदौरी साहब ने सियासी रवादारी की उस तल्ख हकीकत को ही उजागर किया है जिसे स्वीकार करना शायद ही कोई गवारा करता हो। सियासत में रोजा, जकात व नमाज सरीखे इंसान के मूलभूत दीनी फर्ज को भले ही कोई खास अहमियत नहीं दी जाती हो लेकिन यहां रोजेदारों का बड़ा महत्व है। क्योंकि रोजेदारों की आड़ में सियासी कूटनीतियों को परवान चढ़ाने का हथियार बनता है इफ्तार। तभी तो एक ओर विपक्ष को एकजुट करने के लिये सोनिया गांधी की ओर से इफ्तार की दावत दी जाती है तो दूसरी ओर अपनी छवि सुधारने के लिये आरएसएस भी इफ्तार का आयोजन करने से नहीं हिचकता है। दिल्ली की राजनीति में अपनी सियासी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिये अरविंद केजरीवाल इफ्तार के लिये दस्तरखान बिछाते हैं तो बिहार में एनडीए की एकजुटता प्रदर्शित करने के लिये रामविलास पासवान के निवास पर इफ्तार का आयोजन होता है। यहां तक कि सियासत में कई दफा इफ्तार का आयोजन करने से परहेज बरत कर भी अपने साथियों व समर्थकों के बीच विशेष संदेश प्रसारित करने से परहेज नहीं बरता जाता। तभी तो पिछले दिनों जोर-शोर से यह संकेत प्रसारित करा दिया गया कि इस बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से कश्मीर में इफ्तार की दावत का आयोजन किया जाएगा। जाहिर है कि यह संदेश सामने आने के बाद मोदी सरकार के ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे को काफी मजबूती मिली लेकिन बाद में इस आयोजन के नतीजे में देश के बहुसंख्यक समुदाय की भावनाएं आहत होने के खतरे को देखते हुए बड़ी खामोशी व चतुराई से इस प्रस्ताव को बर्फ से लगा दिया गया। खैर, प्रधानमंत्री ने भले ही इफ्तारी के आयोजन से परहेज बरत लिया हो लेकिन सरकारी स्तर पर इस आयोजन की सफलता से जितना फायदा नहीं मिलता उससे कहीं अधिक लाभ भाजपा को विरोधी खेमे द्वारा आयोजित इफ्तारी के आयोजन की विफलता से हासिल हो गया है। सरकारी स्तर पर यह आयोजन होता तो स्वाभाविक तौर पर इसका मकसद विपक्षी एकता में सेंध लगाना और सरकार की स्वीकार्यता में इजाफा करना ही होता। लेकिन इसके नतीजे में देश के उस बहुसंख्यक समुदाय की भावनाएं आहत होने का भी खतरा था जिसका समर्थन हासिल करने के लिये लोकसभा चुनाव से पहले तक मोदी सार्वजनिक तौर पर खुद को हिन्दू राष्ट्रवादी राजनेता बताते नहीं थकते थे। खैर, बिहार में राजग के घटक रामविलास को आगे करके भाजपा ने इस मामले में एक तीर से दो शिकार कर लिया। अव्वल तो रामविलास द्वारा आयोजित इफ्तार के आयोजन में सूबे के तमाम शीर्ष नेताओं को मेहमान से बढ़कर मेजबान बनाकर भेजने की पहल करके पार्टी ने ‘सबका साथ सबका विकास’ के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी प्रदर्शित कर दी और आगामी चुनाव में राजग की एकजुटता का भी संदेश प्रसारित कर दिया। लेकिन भगवा खेमे को सबसे बड़ी राहत की सांस मुहैया करायी है विरोधियों की इफ्तारी कूटनीति की विफलता ने। खास तौर से पहले तो अरविंद केजरीवाल की दावत में दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के शिरकत करने के मसले को लेकर कांग्रेस के भीतर हुई सांगठनिक स्तर की भिड़ंत के कारण भाजपा के हित में यह संदेश प्रसारित हो गया कि सूबे की एएपी सरकार के साथ कांग्रेस का एक खेमा दोस्ती भी निभा रहा है और दूसरा दुश्मनी का भी दिखावा कर रहा है। यानि दिल्ली की सूबाई राजनीति में जमीनी स्तर पर मुख्य विपक्षी दल की भूमिका हथियाने की कांग्रेस की कोशिशों को इस पूरे प्रकरण से काफी हद तक पलीता लग गया जो भाजपा के लिये सुखकारी ही माना जाएगा। साथ ही बिहार में लालू व नीतीश द्वारा अपनी ताकत का मुजाहिरा करने के लिये अलग-अलग आयोजित किये गये इफ्तार के आयोजन का मामला भी भाजपा के लिये फायदेमंद ही रहा क्योंकि अव्वल तो इससे बिहार में धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ में जारी अंदरूनी टकराव व वर्चस्व की लड़ाई का पूरा सच सार्वजनिक हो गया और दूसरे विरोधी खेमे में एकमतता के अभाव का सकारात्मक लिटमस टेस्ट भी भाजपा के लिये राहत की खबर के तौर पर ही सामने आया। लेकिन भगवा खेमे को सबसे अधिक खुशी दी है कांग्रेस अध्यक्षा द्वारा विपक्षी एकजुटता के लिये पांच सितारा होटल में आयोजित इफ्तारी दावत की विफलता ने। सोनिया द्वारा बिछाये गये सियासी दस्तरखान पर तृणमूल ने ऐसा रायता फैलाया कि ना तो पूरे तौर पर वह खुद इसमें शामिल हुई और ना ही वामपंथी दलों के सामने वहां मौजूदगी दर्ज कराने का विकल्प खुला रहने दिया। साथ ही महज सवा घंटे में ही समाप्त कर दी गयी इस इफ्तार की दावत से मिले इस संदेश ने भगवा खेमे की बांछें खिला दी हैं कि सपा-बसपा, वाममोर्चा-तृणमूल, द्रमुक-अन्ना द्रमुक और राजद-जदयू सरीखे सनातन विरोधियों को जब दीनी आड़ में आयोजित गैरसियासी दस्तरखान पर एक साथ बिठा पाना कांग्रेस के लिये संभव नहीं हो पाया है तब संसद की सियासी जंग में वह कैसे इन सबों को सरकार के खिलाफ अपने मोर्चे में एकजुट कर पाएगी। खैर, इफ्तार की आड़ में अपनी जमीनी ताकत तौलने व सियासी समीकरण साधने के सभी दलों के प्रयासों के बीच इससे जाहिर होनेवाले संकेतों को ही अंतिम मान लेना उचित नहीं होगा क्योंकि असीमित संभावनाओं का खेल कही जानेवाली सियासत का ऊंट कब किस करवट बैठ जाये इसका कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’    

मंगलवार, 14 जुलाई 2015

‘मित्र की मुश्किलों को ना समझें तो क्या करें’

ऊफा में नमो-नवाज की मुलाकात क्या हुई, दोनों तरफ की सनातन असंतुष्ट आत्माएं ऐसे नाराज हो गयीं जैसे शादी समारोह में अक्सर दूल्हे के फूफा नाराज नजर आते हैं। शादी में दूल्हे के फूफा नाराज ना हों ऐसा कैसे हो सकता है। बेशक वजह बेतुकी ही क्यों ना हो, उन्हें तो सिर्फ नाराज होने से मतलब है ताकि सबके सामने अपनी खास अहमियत जताई जा सके। ऐसी ही अहमियत की तलाश में इन दिनों भारत व पाकिस्तान में मौजूद तिकड़मियों, खुराफातियों व सनातन विरोधियों की जमात भी दिख रही है। मसलन भारत की बात करें तो केन्द्र में सत्तारूढ़ राजग के सबसे पुराने घटक शिवसेना से लेकर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस तक ने इस मुलाकात की पृष्ठभूमि, प्रासंगिकता, आवश्यकता व प्रामाणिकता पर सवालिया निशान खड़ा करने में कोई कोताही नहीं बरती है। साथ ही कश्मीर के अलगाववादी विचारधारा वाले संगठनों व नेताओं से लेकर उनके समर्थकों व हिमायतियों तक ने नमो-नवाज वार्ता में कश्मीर के मसले को तवज्जो नहीं दिये जाने व भावी वार्ता प्रक्रिया में खुद को दरकिनार किये जाने तक को लेकर अपनी खुली नाराजगी जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसी प्रकार पाकिस्तान में भी ऊफा वार्ता के बाद सामने आए संयुक्त बयान को लेकर भारी हाय तौबा मची हुई है। वहां भी सत्तापक्ष के काफी बड़े तबके से लेकर विपक्षी खेमे ने भी नवाज शरीफ को इस बात के लिये निशाने पर लिया हुआ है कि उन्होंने कश्मीर मसले को हाशिये पर छोड़कर बाकी मामलों पर बातचीत करने की जुर्रत कैसे की। साथ ही मुंबई पर हुए आतंकी हमले की जांच में पूरा सहयोग करने व इसके मुख्य आरोपी जकीउर रहमान लखवी की आवाज का नमूना साझा किये जाने पर बनी सहमति को लेकर भी पाकिस्तान में भारी बवाल कट रहा है। जाहिर है कि जब दोनों देशों के हितों को बराबर तवज्जो देते हुए महज पांच मसलों पर बनी परस्पर सहमति को लेकर सरहद के दोनों तरफ इस कदर हंगामे, मतभेद व बवाल का माहौल बन गया है तो इस वार्ता प्रक्रिया से हासिल परिणामों के अमल में आने को लेकर संदेह का माहौल बनना लाजिमी ही है। लेकिन सकारात्मक बात यह है कि दोनों देशों में इस वार्ता को लेकर जो भ्रम, अविश्वास व नकारात्मकता का माहौल बनाने की कोशिश हो रही है उससे ना तो भारत का जिम्मेवार सरकारी अमल विचलित दिख रहा है और ना ही पाकिस्तान के शीर्ष नीतिनिर्धारकों की सेहत पर कोई फर्क पड़ रहा है। सूत्रों की मानें तो भले ही दोनों देशों के भीतर नमो-नवाज वार्ता से हासिल परिणामों के अमल में आ पाने को लेकर भ्रम, संशय व असमंजस का नकारात्मक माहौल दिख रहा हो लेकिन सरहद के दोनों तरफ के शीर्ष नीतिनिर्धारक अमले के बीच परस्पर पूरी तरह सकारात्मक माहौल बना हुआ है। तभी तो जहां एक ओर पाकिस्तानी सेना ने सरहद पर जासूसी के लिये टांगे गये चीन निर्मित सीसीटीवी कैमरों को उतारना शुरू कर दिया है वहीं दूसरी ओर भारत ने भी पाकिस्तानी मछुआरों को रिहा करने की प्रक्रिया आरंभ कर दी है। साथ ही दोनों ओर के असंतुष्ट व नाराज रसूखदारों द्वारा की जा रही भड़काऊ, भ्रामक व नकारात्मक बयानबाजी को आधिकारिक स्तर पर कतई तवज्जो नहीं दिया जा रहा है। वैसे भी जिन पांच मसलों पर ऊफा में नमो-नवाज के बीच बकायदा लिखित सहमति बनी है उनमें एक भी मसला ऐसा नहीं है जिसमें दोनों देशों का बराबर हित समाहित ना हो। मसलन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों व सरहद पर सैन्य अधिकारियों के बीच द्विपक्षीय बातचीत का सिलसिला शुरू करने पर बनी सहमति में दोनों का बराबर का हित सुरक्षित है। इसी प्रकार दोनों देशों द्वारा बंदी बनाए गये मछुआरों व उनकी नावों को पंद्रह दिनों के भीतर छोड़े जाने की जो सहमति बनी है उसमें भी दोनों ओर का पलड़ा संतुलन की ही अवस्था में है। पर्यटकों की आवाजाही को सरल व सुगम बनाने में भी दोनों देशों का बराबर का फायदा है। रहा सवाल कश्मीर के मसले का तो इस पर बातचीत के दरवाजे खुले ही हैं लेकिन इसे आपसी रिश्ते का अवरोधक बनने से रोकना व द्विपक्षीय बातचीत से सहमति के किसी फार्मूले की तलाश करने पर बनी परोक्ष सहमति भी दोनों देशों के दूरगामी हितों के लिये सकारात्मक ही है। वैसे भी गुलाम कश्मीर के प्रधानमंत्री द्वारा पिछले दिनों इस इलाके को सैद्धांतिक व व्यावहारिक तौर पर पाकिस्तान के सूबे का दर्जा दिये जाने पर एतराज जताए जाने के बाद अब पाकिस्तानी हुक्मरानों को भी बेहतर समझ आ गया है कि इस मामले पर होनेवाली बातचीत में अलगाववादी तत्वों को पक्षकार बनाने की जिद ठानना उनके लिये भी कतई हितकारी नहीं हो सकता है। बहरहाल एक ही वार्ता में दशकों पुरानी रंजिश के पूरी तरह समाप्त हो जाने की उम्मीद पालना तो बेवकूफी ही होगी लेकिन दोनों तरफ की सरकार अगर तमाम अपने-परायों का विरोध झेलते हुए भी इस बार बनी पांच सूत्रीय सहमति की सूची में शामिल तीन-चार मसलों को भी अमली जामा पहनाने में कामयाब रहती है तो इसे बड़ी कामयाबी का नाम देना कतई अतिशयोक्ति नहीं कही जाएगी। वैसे भी दोस्ती का रिश्ता कायम हो रहा है तो दोनों पक्षकारों को परस्पर एक-दूसरे की कमियों, खामियों, कमजोरियों व परेशानियों को समझना ही होगा वर्ना उम्मीदों व अपेक्षाओं की भारी गठरी से अगर इस नवजात दोस्ती का दम घुटने की नौबत आई तो इसका दूरगामी नतीजा किसी के लिये कतई सकारात्मक साबित नहीं होगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’    

सोमवार, 13 जुलाई 2015

‘इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिये’
‘इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिये, टूटा फूटा ही सही घर बार होना चाहिये, आप दरिया हैं तो फिर इस वक्त हम खतरे में हैं, आप कश्ती हैं तो हमको पार होना चाहिये।’ वाकई मुनव्वर राणा की लिखी यह पंक्तियां मौजूदा सियासी हालातों के मद्देनजर बेहद सटीक तरीके से यह बताती हुई महसूस होती हैं कि इश्क को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने की हिचकिचाहट का नतीजा कतई सकारात्मक नहीं हो सकता है। वास्तव में केवल इश्क कर लेना ही काफी नहीं है, उसका इजहार भी उतना ही जरूरी है। तभी इश्क को उसकी मंजिल हासिल हो सकती है। वर्ना सैद्धांतिक तौर पर इश्क करने और व्यावहारिक तौर पर इजहार से बचते रहने के नतीजे की झलक जनता परिवार के घटक दलों की बिहार विधान परिषद के चुनाव में हुई करारी फजीहत में दिख ही गयी है। वास्तव में देखा जाये तो छह दलीय जनता परिवार के विलय की प्रक्रिया को फिलहाल बिहार विधानसभा चुनाव तक के लिये टाले जाने के बाद इतनी सहमति तो बन ही गयी थी कि बिहार में इस बार राजद व जदयू आपस में गठजोड़ करके चुनाव लड़ेगे और इस गठबंधन की ओर से नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। लिहाजा विधानसभा चुनाव से पहले सेमीफाइनल के तौर पर देखे जा रहे विधान परिषद के चुनाव में इन दोनों दलों का आपस में गठजोड़ करके मैदान में उतरना लाजिमी ही था। लेकिन मसला यह है कि सैद्धांतिक तौर पर विलय तक की सहमति बन चुकने के बावजूद व्यावहारिक तौर पर दोनों दलों के नेता गठबंधन को सफल बनाने के लिये कांधे से कांधा मिलाकर चलना भी गवारा नहीं कर रहे हों तो ऐसी सूरत में इस गठजोड़ को कैसा चुनावी नतीजा भुगतना पड़ सकता है इसकी झलक विधान परिषद में नकारात्मक चुनावी नतीजों के तौर पर सामने आना वाजिब ही है। आलम यह है कि राजद व जदयू के शीर्ष नेता भले ही गठबंधन व विलय के प्रस्तावों को स्वीकार कर चुके हों लेकिन जमीनी स्तर पर इन दोनों के बीच स्नेह, समर्पण व विश्वास के रिश्ते का कहीं नामोनिशान भी नहीं दिख रहा है। ना तो लालू यादव के साथ खुलेदिल से मंच साझा करना नीतीश को गवारा हो रहा है और ना ही वे राजद के साथ तालमेल बनाकर चुनावी रणनीतियां तय करना जरूरी समझ रहे हैं। यहां तक कि विधानसभा चुनाव की हवा तैयार करने के मकसद से जदयू ने पटना सहित समूचे बिहार को बैनर-पोस्टर से पाट देने की जो रणनीति अपनायी है उसमें भी राजद को पूरी तरह हाशिये पर ही रखा गया है। समूचे बिहार में ऐसा बैनर चिराग लेकर ढूंढ़ने से भी नहीं दिख रहा है जिसमें नीतीश व लालू को एक साथ बराबर की जगह दी गयी हो। तभी तो विधान परिषद का चुनावी नतीजा सामने आने के बाद राजद के सबसे सम्मानित नेताओं में शुमार होनेवाले रघुवंश प्रसाद सिंह भी कुल 24 में से महज दस सीटों पर ही महागठबंधन को जीत हासिल हो पाने के निराशाजनक परिणाम के लिये परोक्ष तौर पर नीतीश की चुनावी रणनीतियों को ही जिम्मेवार ठहराने से खुद को नहीं रोक सके। रघुवंश ने बेलाग लहजे में यह बताने से हिचक नहीं दिखाई है कि काफी पहले ही गठजोड़ की नींव तैयार हो जाने के बावजूद अभी तक जमीनी स्तर पर इस एका की कोई तस्वीर नहीं दिख रही है। बकौल रघुवंश, ना तो कोई साझा कार्यक्रम तैयार हुआ है और ना ही साझा चुनाव प्रचार की कोई रणनीति बनायी गयी है। जाहिर है कि जब रघुवंश सरीखे नेता भी इश्क के इजहार के अभाव का रोना रो रहे हों तो जमीनी स्तर पर इस मामले में मतदताओं के बीच किस कदर भारी असमंजस की स्थिति होगी इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। वैसे भी कांग्रेस व सपा के दबाव में नीतीश को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने पर सहमति जताने के फौरन बाद ही लालू द्वारा सांकेतिक लहजे में इसे जहर पीने सरीखा फैसला बताये जाने और सीटों के बंटवारे को लेकर दोनों पक्षों के बीच जारी व्यापक गतिरोध के मद्देनजर इस गठबंधन के सबल, प्रबल व दीर्घायु साबित हो पाने के प्रति अनिश्चितता का माहौल पहले से ही बना हुआ है। ऐसे में चुनावी तैयारी, जनसंपर्क व प्रचार अभियान में भी दोनों पक्षों के बीच स्पष्ट दिख रही दूरी के कारण जमीनी स्तर पर इस गठबंधन की स्वीकार्यता पर ग्रहण लगना स्वाभाविक ही है। वैसे भी लालू के यादव वोटबैंक और नीतीश के स्वजातीय वोटबैंक के अलावा अल्पसंख्यक समुदाय के एकजुट वोट को मिलाकर सत्ता का समीकरण साधने के मकसद से गठित किये गये इस महागठजोड़ के रचयिताओं को जब आपस में ही एक दूसरे पर विश्वास नहीं हो पाया है तब सोचने की बात यह है कि इनके रिश्तों की इस दूरी व कड़वाहट को जमीनी स्तर पर कैसे पाटा जा सकता है। हालांकि गठजोड़ का सैद्धांतिक फैसला हो जाने के बाद उम्मीद तो यही है कि इनके बीच सीटों के बंटवारे का समझौता भी देर-सबेर हो ही जाएगा लेकिन अगर समय रहते गठबंधन के साथियों के प्रति स्नेह व विश्वास का अभाव दूर करके ये दोनों मतदाताओं के बीच अपने अटूट रिश्ते का भरोसा जगाने में कामयाब नहीं हो सके तो सेमीफाइनल माने जानेवाले विधान परिषद के नतीजों की ही विधानसभा चुनाव के फाइनल मुकाबले में भी पुनरावृति होने की संभावना को कतई खारिज नहीं किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

शनिवार, 11 जुलाई 2015

‘डाल-पात को छोड़ सीधा जड़ पर संधान’
बेशक मुनव्वर राणा साहब फरमाते हों कि ‘दिखाते हैं पड़ोसी मुल्क आंखें तो दिखाने दो, कहीं बच्चों के बोसे से भी मां का गाल कटता है।’ लेकिन हकीकत यही है कि हमारा पड़ोसी मुल्क जिस तरह से हमें आंखें दिखाने की जुर्रत करता आ रहा है उसकी तुलना मां के गाल पर बच्चे के बोसे से तो कतई नहीं की जा सकती। वह सीधे तौर पर हमारे खिलाफ परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकी दे, हमारी समुद्री सीमा में घुसकर मछुआरों को बंदी बनाए, चीन के साथ मिलकर हमारे इर्द-गिर्द सामरिक चुनौतियों का फंदा बुने, सरहद पर बेवजह अशांति व युद्ध सरीखे हालात उत्पन्न करे, हमारी अंदरूनी सुरक्षा व्यवस्था की धज्जियां उड़ाने के लिये आतंकियों की घुसपैठ कराए, नकली नोटों की खेप भेजकर हमारी अर्थव्यवस्था को अस्थिर करने का प्रयास करे, भारत विरोधी तत्वों व वांछित अपराधियों को शरण, संरक्षण व शह दे, विश्वमंच पर हमें हर तरह से बदनाम करने का कुचक्र रचे और अफगानिस्तान सरीखे देशों में स्थित हमारे दूतावास पर आतंकी हमले कराए तो उसकी इन हरकतों को कब तक बर्दाश्त किया जा सकता है? वैसे भी नई दिल्ली की सत्ता पर नये निजाम का वर्चस्व स्थापित होने के बाद से नीतियों, परिस्थितियों व जमीनी हालातों में आए व्यापक बदलाव के मद्देनजर पाकिस्तान भी बेहतर समझ गया है कि भारत को लेकर दशकों से चली आ रही उसकी कपटपूर्ण विदेशनीति अब ज्यादा दिनों तक उसे फायदा नहीं पहुंचा सकती। सच तो यह है कि पाकिस्तान अपने ही बिछाए जाल में इस कदर फंसता चला गया है कि अब भारत के साथ सुलह-समझौता करके शांति व सहयोग की राह तैयार करने के अलावा उसके पास कोई दूसरा विकल्प ही नहीं बचा है। पहले तो आतंकवाद से लड़ाई की दुहाई देकर और चीन की गोद में बैठने का विकल्प खुला रखकर वह अमेरिका से मोटा अनुदान हासिल कर लेता था लेकिन ओसामा बिन लादेन के एबटाबाद में पाए जाने और आतंकियों के साथ पाकिस्तानी सेना व आईएसआई के सांठगांठ की पूरी हकीकत सार्वजनिक हो जाने के बाद अब वह अमेरिका का विश्वास लगातार खोता जा रहा है। दूसरी ओर रूस के साथ शीतयुद्ध समाप्त होने और भारत के साथ दोस्ती व विश्वास का रिश्ता मजबूत करने के बाद अब अमेरिका की नजर में पाकिस्तान की अहमियत वैसे भी काफी कम हो गयी है। रही-सही कसर पाकिस्तानी हुक्मरानों के चीन के सामने दंडवत हो जाने के घटनाक्रम ने पूरी कर दी है। ऐसे में इस साल पाकिस्तान को दिये जानेवाले अनुदान में पचास फीसदी की कटौती कर चुके अमेरिका ने अगर जल्दी ही पाकिस्तान से पूरी तरह पल्ला झाड़ने की पहल कर दी तो इस पर शायद ही किसी को कोई आश्चर्य होगा। इसी संभावना को देखते हुए इन दिनों पाकिस्तान ने भी चीन के साथ अपनी घनिष्ठता को नया आयाम देना आरंभ कर दिया है। लेकिन पाकिस्तान को भी बेहतर पता है कि भले ही भारत पर दबाव बनाने के लिये चीन भी उसे अपना छोटा भाई बता रहा हो मगर अंदरूनी तौर पर चीन की उसके प्रति कोई हमदर्दी नहीं है। दूसरी ओर भारत का खौफ दिखाकर पाकिस्तान को डराने व उसकी जमीन का भरपूर सामरिक व व्यावसायिक इस्तेमाल करने की चीन की नीतियों ने पाकिस्तान को ऐसे मोड़ पर ला दिया है कि भारत को चिढ़ाने, खिझाने व परेशान करने के लिये बिछाये जा रहे जाल में वह दूरगामी तौर पर खुद ही बुरी तरह फंसता हुआ महसूस कर रहा है। हालांकि इसके बावजूद भी पाकिस्तान की हेकड़ी में अभी तक कोई कमी नहीं आई थी। तभी तो रूस में नमो-नवाज मुलाकात की पूर्व संध्या पर भी सरहद पर युद्धविराम का उल्लंघन करने से उसने परहेज नहीं बरता। लेकिन सकारात्मक तथ्य यह है कि जब मिल-बैठकर बात हुई तो अब उसने भी डाल-पात पर उछल-कूद मचाना छोड़कर जड़ से जुड़े मसलों का समाधान करके विश्वास बहाली की दिशा में कदम उठाना ही बेहतर समझा है। तभी तो दिखावे के लिये आधिकारिक स्तर की बेमानी वार्ता करते रहने के बजाय अब सीधे शीर्ष स्तर की निर्णायक बातचीत करने पर उसने सहमति दे दी है। कूटनीतिक व सियासी मसलों को दोनों देशों के प्रधानमंत्री की आंख-कान माने जानेवाले सुरक्षा सलाहकार सुलझाएंगे जबकि सरहद की सामरिक समस्याएं बीएसएफ व पाकिस्तान रेंजर्स के शीर्ष अधिकारी मिल-बैठकर सुलझाया करेंगे। रहा सवाल रिश्तों की तल्खी का खामियाजा भुगत रहे दोनों देशों के मछुआरों व पर्यटकों का तो उनके हित में भी निर्णायक सहमति बन ही गयी है। साथ ही पाकिस्तान ने आतंकवाद की भारतीय परिभाषा को स्वीकार करते हुए उसे नेस्तनाबूत करने व मुम्बई हमले के दोषियों को सजा दिलाने में सहयोग करने पर भी हामी भर दी है। यानि समग्रता में देखें तो रिश्तों पर जमी बर्फ पिघली अवश्य है वर्ना वैश्विक दबाव के कारण महज दिखावे के मकसद से आधे घंटे के लिये आयोजित की गयी नमो-नवाज की मुलाकात 55 मिनट नहीं खिंचती और बाद में सचिव स्तर की आधे घंटे की वार्ता करके ठोस संयुक्त बयान जारी नहीं किया जाता। यानि आज के घटनाक्रम को सही दिशा में बढ़ाया गया पहला कदम अवश्य कहा जा सकता है लेकिन आवश्यक है कि आज से आरंभ हुए दोस्ताना सफर की रफ्तार को लगातार बढ़ाने का प्रयास किया जाये वर्ना ‘एक कदम आगे दो कदम पीछे’ की परंपरा जारी रखने का परिणाम अब पाकिस्तान के लिये उम्मीद से भी अधिक नकारात्मक साबित होने की संभावना को कतई खारिज नहीं किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’      

शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

‘क्या हासिल पीछे हटने से, आगे बढ़ो प्रहार करो’
नवकांत ठाकुर
ईद के सिवैयों की मिठास के साथ आरंभ होने जा रहे संसद के मानसून सत्र का जायका बेहद तीखा रहने का एलान तो विपक्ष ने पहले ही कर दिया है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने बेलाग लहजे में काफी पहले ही बता दिया था कि अगर सरकार ने प्रवर्तन निदेशालय द्वारा भगोड़ा घोषित किये जा चुके ललित मोदी की मदद करने के आरोपों में घिरी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को उनके पद से नहीं हटाया तो वह संसद के सत्र को हर्गिज सुचारू ढंग से संचालित नहीं होने देगी। साथ ही व्यापम विवाद को लेकर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान को भी पद से हटाये जाने की जिद पर अड़े विपक्ष द्वारा इस मामले को लेकर भी संसद में जोरदार बवाल काटे जाने की पूरी संभावना है। इसके अलावा सरकार ने भूमि अधिग्रहण विधेयक के संशोधित प्रारूप को सदन से पारित कराने की जो जिद ठानी हुई है उससे भी विपक्ष को संसद में बवाल काटने का भरपूर मौका मुहैया होता दिख रहा है। साथ ही खाद्य पदार्थों की आसमान छू रही महंगाई से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा, मौसमी बाढ़-सुखाड़ व किसानों की समस्या सरीखे विभिन्न सदाबहार मामलों के तीर तो सरकार पर हमला करने के लिये विपक्ष की तूणीर में हमेशा ही पड़े रहते हैं। यानि अगर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के मौजूदा तेवरों व तैयारियों को देखा जाये तो इस बार वह संसद को सुचारू ढंग से संचालित करने में सरकार का सहयोग करने के लिये कतई तैयार नहीं दिख रही है। हालांकि इसके लिये बाकी विपक्षी दलों को भी अपने साथ जोड़ने के प्रति कांग्रेस की ओर से अभी तक कोई औपचारिक प्रयास नहीं किया गया है लेकिन पार्टी का मानना है कि मौजूदा हालातों में बाकी विपक्षी दलों को अपने साथ जोउ़ने के लिये उसे विशेष परिश्रम करने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी बल्कि तमाम विरोधी दल खुद ही इन मामलों को लेकर उसके सुर में अपना सुर मिलाने के लिये आगे आ जाएंगे। अब कांग्रेस की यह अपेक्षाएं किस हद तक पूरी हो पाएंगी यह तो वक्त आने पर ही पता चलेगा लेकिन उसके इन हमलावर तेवरों को देखते हुए सरकार के संचालकों द्वारा जो  जवाबी रणनीति अपनाए जाने का संकेत मिल रहा है उसके तहत विपक्ष की ओर से होनेवाले हमलों का जोरदार प्रतिवाद करने की तैयारियां अभी से तेज कर दी गयी हैं। सूत्रों की मानें तो विपक्ष की घेरेबंदी से बचने के लिये किलाबंदी करके अपना बचाव करने के विकल्प को अमल में लाने के बजाय इस बार सरकारी खेमा भी ईंट का जवाब पत्थर से देने की पूरी तैयारी कर रहा है। इसी सिलसिले में एक ओर तो कांग्रेस को अलग थलग करके विपक्षी घेरेबंदी को कमजोर करने की रणनीति अपनायी जा रही है और दूसरी ओर कांग्रेस के हथियारों की धार को भोथरा करके उसकी ताकत कामजोर करने का भी प्रयास किया जा रहा है। साथ ही गैरकांग्रेसी विपक्षियों की कमजोरियों को हथियार बनाकर उनका अंदरूनी सहयोग व समर्थन हासिल करने की योजना भी बनायी जा रही है। इसी सिलसिले में जनता परिवार को शिकंजे में लेने के लिये सपा की कमजोरियों पर अपनी मजबूत पकड़ बनाने के मकसद से भाजपा ने राष्ट्रीय नेताओं की एक टोली को उत्तर प्रदेश भेजने की योजना बनायी है जो शाहजहांपुर में हुए पत्रकार जगेन्द्र की हत्या के मामले और बाराबंकी में थाने के भीतर महिला को जलाकर मार दिये जाने के मामले की पड़ताल करके संसद सत्र शुरू होने से पहले ही अपनी विस्तृत रिपोर्ट पार्टी अध्यक्ष को सौंप देगी। इसके अलावा व्यापम के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सीबीआई जांच की अर्जी पर सकारात्मक फैसला सुनाए जाने का स्वागत करके भाजपा ने इस मसले का कांग्रेसी हथियार अभी से कुंद कर दिया है। रहा सवाल ललित मोदी से जुड़े मसलों का तो इस मामले में भी पार्टी ने हमलावर तेवर अख्तियार करते हुए तय किया है कि अगर कांग्रेस ने ललित के भाजपा कनेक्शन को तूल देकर संसद में हंगामा मचाने की पहल की तो इसके जवाब में ललित द्वारा किये गये कांग्रेस के शीर्ष परिवार से जुड़े खुलासों को लेकर उसे सवालों के कठघरे में खड़ा करने से कतई परहेज नहीं बरता जाएगा। इसके अलावा भूमि अधिग्रहण विधेयक के मामले में राज्यसभा की प्रवर समिति द्वारा प्रस्तुत की गयी सिफारिशों को स्वीकार कर लिये जाने के बाद भी अगर कांग्रेस ने इसे पारित करने में सहयोग नहीं किया तो पहली कोशिश तो सभी गैरकांग्रेसी दलों को अपने साथ जोड़कर इसे सदन से पारित कराने की ही होगी जिसके लिये किसी भी हथकंडे को अमल में लाने से कतई संकोच नहीं किया जाएगा। लेकिन अगर फिर भी बात नहीं बनी और इसे राज्यसभा का समर्थन नहीं मिल सका तो इस मामले में भी अब चुप बैठने के बजाय संसद का संयुक्त सत्र बुलाकर विधेयक को पारित कराने के विकल्प पर यथाशीघ्र अमल कर लिया जाएगा। यानि समग्रता में देखा जाये तो इस बार का मानसून सत्र बेहद जोरदार टकराव का गवाह बनने जा रहा है जिसमें कोई भी पक्ष जरा भी पीछे हटने के लिये तैयार नहीं दिख रहा है। बहरहाल, हमले के जवाब में आक्रमण की रणनीति अपनाये जाने को तो कतई गलत नहीं कहा जा सकता है लेकिन विपक्ष को विश्वास में लेकर संसद को सुचारू ढ़ंग से संचालित करने परंपरा के बदस्तूर क्षरण को कैसे सही कहा जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

‘मनमीत जो घाव लगाए उसे कौन मिटाए’

‘अमर प्रेम’ फिल्म के लिये लिखे गये एक गीत में आनंद बख्शी साहब ने कहा है कि ‘चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाए, सावन जो आग लगाए उसे कौन बुझाए, कोई दुश्मन ठेस लगाए तो मीत जिया बहलाए, मनमीत जो घाव लगाए उसे कौन मिटाए, मंझधार में नैया डोले तो मांझी पार लगाए, मांझी जो नाव डुबोए उसे कौन बचाए।’ कायदे से देखा जाये तो इस गीत की ये पंक्तियां वाकई भाजपा की अंदरूनी सांगठनिक राजनीति के मौजूदा हालातों को बयान करती हुई ही नजर आती है। यूं तो सतही तौर पर पार्टी में शीर्ष स्तर पर जारी शह-मात के खेल की अंदरूनी हकीकतें अभी खुलकर सामने नहीं आ रही हैं लेकिन गहराई में पड़ताल की जाये तो संगठन में सतही तौर पर शांति व सामंजस्य का जो माहौल दिख रहा है वह महज नजरों का धोखा ही है। वास्तविक हकीकत यही है कि जिन लोगों पर आपसी सहमति व सामंजस्य से पार्टी के संचालन की जिम्मेवारी है उनके बीच कतई सौहार्द्र का माहौल नहीं है। संगठन व सरकार के शीर्ष संचालकों बीच खेमेबाजी की खबरें तो काफी पहले से सामने आ रही थीं लेकिन अब तो जिन लोगों पर संगठन व सरकार की समस्याओं का निवारण करने की जिम्मेवारी है वे ही सिरदर्दी का सूत्रपात करते दिखाई पड़ रहे हैं। मिसाल के तौर पर मध्यप्रदेश के व्यापम घोटाले की ही बात करें तो विपक्ष के चैतरफा हमलों के बीच सहज व स्वाभाविक अपेक्षा तो यही थी कि संगठन का समूचा शीर्ष संचालक खेमा इस मसले पर एक सुर में बात करेगा और आपसी सहमति व सामंजस्य से ही कोई कार्रवाई या पहलकदमी करने का फैसला करेगा। लेकिन इस मामले को लेकर जिस तरह से पार्टी मेें ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना’ की स्थिति दिखाई दे रही है उससे संगठन के शीर्ष संचालकों के बीच जारी खेमेबाजी की अंदरूनी हकीकत खुलकर सामने आ गयी है। हकीकत तो यही है कि व्यापम घोटाले की जड़ खोदने की शुरूआत सूबे के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने ही की थी और उनके द्वारा शुरू कराई गयी जांच के बाद ही अदालत ने भी इसका संज्ञान लिया और उच्च न्यायालय की निगरानी में एसटीएफ द्वारा की जा रही जांच की निष्पक्षता पर आज अदालत ने भी अपनी मुहर लगा दी है। लेकिन विपक्ष द्वारा सीबीआई से जांच कराए जाने की मांग को लेकर मचाये जा रहे हंगामे के बीच जब एक ओर अरूण जेटली नये सिरे से पूरे मामले की निष्पक्ष जांच की वकालत कर रहे हों और दूसरी ओर राजनाथ सिंह मौजूदा जांच प्रक्रिया को पूरी तरह संतोषजनक बताते हुए सीबीआई जांच की मांग को खारिज कर रहे हों तो ऐसे में यह तो स्पष्ट हो जाता है कि नीतिगत मसलों पर संगठन में शीर्ष स्तर पर पूरी तरह एकमतता होने का दावा वास्तव में महज दिखावा ही है। दरअसल मसला जांच की निष्पक्षता का नहीं है बल्कि सवाल तो यह है कि सीबीआई की कमान किसके हाथों में है और वह जस्रत के मुताबिक उसका किस हद तक कैसा इस्तेमाल कर सकता है। जाहिर है कि सीबीआई की कमान तो केन्द्र के ही हाथों में है और इतिहास गवाह है कि अधिकांश मामलों में सीबीआई के जांच की दशा-दिशा केन्द्र सरकार की सहमति से ही निर्धारित होती रही है। खास तौर से इस पूरे मामले की पृष्ठभूमि के तार को जब इस बात से जोड़ा जाता है कि लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाये जाने की मांग से असहज दिख रहे लालकृष्ण आडवाणी ने मोदी के मुकाबले शिवराज का नाम आगे बढ़ाने की पहल की थी और इन दिनों सियासत में बढ़ती असहिष्णुता, व्यक्तिवाद व तानाशाही प्रवृत्ति पर चिंता जताने से आडवाणी कतई परहेज नहीं बरत रहे हैं तो इस मामले के पेंच पर एक अलग ही रंग का साया दिखाई पड़ना लाजिमी ही है। इसमें दिलचस्प बात यह है कि अपनी ही पार्टी की सरकार के बारे में उमा भारती द्वारा ऐसी टिप्पणियां की जाती हैं जिसका ना तो औपचारिक तौर पर समर्थन करना पार्टी में कोई गवारा नहीं कर पाता है और ना ही कोई उनका विरोध करने की पहल करता है बल्कि शिवराज भी कसमसाते हुए यही बताते हैं कि उनकी उमा बहन ऐसी ही है कि उनके मन में जो भी बात आती है वह खुलकर बोल देती हैं तो इससे इतना तो समझा ही जा सकता है कि उमा की इस सधी हुई बयानबाजी के पीछे भी कुछ तो तिकड़म अवश्य ही छिपा हुआ है। इसके अलावा लगातार सीबीआई जांच की मांग को खारिज करते आ रहे शिवराज तब इसके लिये अदालत को अनुरोध करते हैं जब उनके धुर विरोधी माने जानेवाले पार्टी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय की दिल्ली में संगठन के मुखिया अमित शाह के साथ एकांत में लंबी बातचीत होती है तो इस पूरे घटनाक्रम पर दिल्ली से पड़ रहे दबाव का अंदाजा लगाना शायद ही किसी के लिये मुश्किल हो। हालांकि शिवराज ने सीबीआई जांच की मांग का मसला उच्च न्यायालय के विवेक पर छोड़ दिया और अब उच्च न्यायालय ने गेंद सर्वोच्च न्यायालय के पाले में डाल दी है लिहाजा अदालत का जो भी निर्देश होगा उसे सियासी चश्मे से देखने की छूट तो किसी को नहीं मिल पाएगी। लेकिन इस पूरे प्रकरण में घटित घटनाक्रम ने संगठन में शीर्ष स्तर पर जारी सिरफुटव्वल की कलई अवश्य खोल दी है जिसकी अनदेखी का परिणाम आत्मघाती ही साबित होगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ 

बुधवार, 8 जुलाई 2015

‘वाकई खलने लगी है खामोशी.....’

‘बात ऐसी हुई है क्या साहेब, वादे सब कीजिये वफा साहेब, कुछ तो कहिये कहांकि ये आखिर, लग गयी आपको हवा साहेब, खामोशी और ऐसी खामोशी, कब मोहब्बत में है रवां साहेब।’ वाकई देश के मौजूदा सियासी हालातों के मद्देनजर मशहूर जबलपुरिया शायर सरवर आलम राज के कलम से निकली इस रचना की हर पंक्ति ढ़ाई दशक के लंबे अंतराल के बाद बड़ी उम्मीदों, आशाओं व अपेक्षाओं के साथ किसी एक दल को पूर्ण बहुमत देकर केन्द्र की कुर्सी पर बिठानेवाले मतदाताओं के दिल से निकली आवाज सरीखी ही प्रतीत होती है। खास तौर से अपनी बेबाकी के लिये पहचाने जानेवाले नरेन्द्र मोदी को जब देश के आम लोगों ने प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठाया था तब शायद ही किसी को इस बात का जरा भी अंदाजा रहा होगा कि कुर्सी पर काबिज होने के बाद मोदी साहब भी उन्ही मनमोहन सिंह के नक्शेकदम का अनुसरण करने लगेंगे जिनका वे खुद ही ‘मौनमोहन’ कहकर मजाक उड़ाया करते थे। लोकसभा चुनाव से पहले तक तो मोदी ने कभी किसी मसले पर चुप्पी साधना सीखा ही नहीं था। हर बात पर खुलकर बोलने की उनकी बेबाक अदा का ही जादू था कि चुनाव के दौरान समूचे देश में ‘नमो-नमो’ गूंज सुनाई दे रही थी। मसला महंगाई का हो, भ्रष्टाचार का हो, राष्ट्रीय सुरक्षा का हो, विदेश नीति का हो या सियासी कूटनीति का। चुनाव प्रचार के दौरान तो साहेब ने सभी विषयों पर जमकर बोला, खुलकर बोला। इतना बोला कि आम लोगों को सोते-जागते रामराज का सपना साकार होता दिखने लगा। जाहिर है कि ऐसी बेबाकी को देखते हुए कोई सोच भी नहीं सकता था कि साहेब इस कदर बदल जाएंगे। लेकिन लगता है कि अब साहेब वाकई बदल गये हैं। मन की बात तो करते हैं, दिल की बात नहीं कहते। लोग उनसे जानना चाहते हैं ज्वलंत मसलों पर उनकी राय। मगर वे मन की बात करते हैं मनचाहे मसले पर। अनचाहे मामलों का तो कभी जिक्र ही नहीं करते। ऐसे किसी मसले पर अपनी जुबान नहीं खोलते जिसके कारण उनके संगठन व सरकार की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लग रहा है। समूचा विपक्षी खेमा उनसे जानना चाह रहा है कि उनकी ही पार्टी द्वारा संचालित मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ व राजस्थान सरीखे सूबों की सरकार पर घपले-घोटाले, भ्रष्टाचार व आर्थिक अनियमितताओं के जो आरोप लग रह रहे हैं उसके बारे में उनके विचार क्या हैं। सहयोगी दल भी सरकार के कामकाज व उसके द्वारा अपनायी जा रही रीति-नीति पर अक्सर सवालिया निशान लगाते दिख रहे हैं। लेकिन साहेब की खामोशी यथावत कायम है। यहां तक कि सहोदर भगवा संगठनों द्वारा संगठन के मूल सैद्धांतिक व वैचारिक मसलों को लेकर पूछे जानेवाले सवालों पर भी साहेब की चुप्पी अनवरत जारी है। पूर्ववर्ती सरकार के कार्यकाल में महंगाई के मसले को लेकर संसद लेकर सड़क तक पर भीषण संघर्ष करनेवाले मौजूदा सत्ताधारियों की जुबान पर इन दिनों खाद्यान्न, दलहन-तिलहन, किराया-भाड़ा व फल-सब्जी से लेकर दवा-दारू तक में दिख रही कमरतोड़ महंगाई को लेकर पूरी तरह ताला पड़ा हुआ है। विदेशों में जमा कालेधन के मसले को तो पहले ही चुनावी जुमला बताकर उससे किनारा किया जा चुका है। अब तो भ्रष्टाचार के मामले भी साहेब की नजर में नहीं आ रहे हैं। प्रवर्तन निदेशालय द्वारा भगोड़ा घोषित ललित मोदी द्वारा सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे, दुष्यंत सिंह, वरूण गांधी व सुधांशु मित्तल सरीखे नेताओं के बारे में किये गये सनसनीखेज खुलासे का मामला हो या मध्यप्रदेश के लाखों युवाओं की जिन्दगी के साथ खिलवाड़ करते हुए अंजाम दिये गये व्यापम घोटाले का मसला। राजस्थान में सरकारी संपत्ति के गबन का मामला हो या छत्तीसगढ़ में चावल व महाराष्ट्र में चिक्की खरीद की अनियमितता। साहेब को कुछ दिखाई नहीं दे रहा। इनके केबिनेट की सहयोगी द्वारा की गयी शैक्षणिक योग्यता की गलतबयानी का मसला अदालत में विचाराधीन है लेकिन इनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा। चुनाव से पहले धारा 370 की उपयोगिता पर राष्ट्रीय बहस छेड़ने की अपील करनेवाले साहेब अब इस मामले में भी चुप हैं। भाजपा को फर्श से अर्श पर पहुंचा देनेवाले राम मंदिर के मामले से तो ये इस कदर अनभिज्ञ दिख रहे हैं कि प्रधानमंत्री बनने के बाद आज तक रामलला का दर्शन करने भी अयोध्या नहीं गये। चीन की सेना पनडुब्बी में बैठकर हिन्द महासागर में सैर-सपाटा करते हुए कराची से कोलंबो तक पहुंच जाती है लेकिन सुरक्षा में लग रही इस सेंध पर भी खामोशी ही जारी है। समग्रता में कहा जाये तो साहेब की सरकार से रामराज की जो उम्मीद थी वह अभी से टूटती-बिखरती दिख रही है। उस पर तुर्रा ये कि अरूण जेटली से लेकर सदानंद गौड़ा सरीखे अधिकांश केबिनेट मंत्री प्रधानमंत्री से पूछे जा रहे इस तरह के तमाम ज्वलंत सवालों को ही बचकाना, वेवकूफाना, तुच्छ व निराधार बताते हुए उनकी खामोशी को जायज ठहराने से परहेज नहीं बरत रहे। खैर, साहब को पूरा अख्तियार है कि वे अगले 46 महीनों तक मन की बात करें या दिल की बात करें। कुछ बोलें, ना बोलें या फिर जो, जब व जितना जी चाहे उतना ही बोलें। जब ताकत पूर्ण बहुमत की है तो पूरे कार्यकाल में उनकी ही मनमानी चलनी है। लेकिन इस क्रम में गुजारिश ही की जा सकती है कि ज्वलंत मसलों पर आवश्यक, समुचित व त्वरित कार्रवाई करने के बजाय मौन धारण करने या गलतबयानी करने का जो नतीजा मनमोहन सरकार को भुगतना पड़ा उसे ये भी अवश्य याद रखें। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

‘तिनका जो आंखन परै, पीर घनेरी होय’


संत कबीर की दी हुई इस सीख से शायद ही कोई नावाकिफ होगा कि ‘तिनका कबहुं ना निन्दिये, जो पायन तले होय, कबहुं उड़न आंखन परै, पीर घनेरी होय।’ वाकई आकार की तुलना में तिनके की औकात बहुत बड़ी होती है। तभी तो तिनके की मदद कभी किसी डूबते का सहारा बन जाती है और कभी यह किसीकी आंखों में घुसकर ऐसी पीड़ा का सबब बन जाता है कि आंसू बहाने के सिवाय वह और कुछ कर ही नहीं सकता। खास तौर से सियासत में तो तिनका समझकर दरकिनार कर दिये जानेवाले कई बार बड़े-बड़ों पर भारी पड़ जाते हैं। मिसाल के तौर पर प्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे के जनलोकपाल आंदोलन की कोख से पैदा होने के बाद वर्ष 2013 में पहली दफा विधानसभा चुनाव का सामना करनेवाली एएपी को उस वक्त किसी भी स्थापित राजनीतिक दल ने अपना ताकतवर विरोधी मानने की औकात देना भी गवारा नहीं किया। लेकिन जब चुनावी नतीजा आया तो सूबे की त्रिशंकु विधानसभा में 28 सीटें जीतकर एएपी ने एसी स्थिति पैदा कर दी कि महज आठ सीटों पर सिमट चुकी कांग्रेस को बिनमांगे व बिनाशर्त ही उसे अपना समर्थन देकर अरविंद केजरीवाल की सरकार बनवाने के लिये मजबूर होना पड़ा। हालांकि वह सरकार महज 49 दिन ही चल सकी लेकिन बाद में जब दिल्ली में दोबारा विधानसभा चुनाव कराया गया तो सूबे की कुल 70 में से 67 सीटें जीतकर एएपी ने ऐसा इतिहास रच दिया जिसकी बराबरी करने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। इसी प्रकार महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में पहली बार अपनी किस्मत आजमानेवाले ओबैसी बंधुओं की एमआईएम को सूबे की राजनीति में तिनका समझने की गुस्ताखी कांग्रेस व एनसीपी को इस कदर भारी पड़ी कि भगवा विरोधी मतों में सेंध लगाकर उसने ना सिर्फ प्रदेश में अपने पांव जमा लिये बल्कि भाजपा व शिवसेना को अलग-अलग लड़ने के बाद भी बहुमत का आंकड़ा जुटाने में बेहद आसानी से कामयाबी हासिल हो गयी। तभी तो विधानसभा चुनाव के बाद स्थानीय निकायों के चुनाव में भी बुरी तरह मात खाने के बाद पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण अब सीधे तौर पर एमआईएम को इसके लिये जिम्मेवार ठहराते हुए यह बताने से परहेज नहीं बरत रहे हैं कि भगवा खेमे को लाभ पहुंचाने के लिये ही ओवैसी बंधुओं ने अल्पसंख्यक मतदाताओं के बीच अपनी स्वीकार्यता का गलत इस्तेमाल किया है। खैर, महाराष्ट्र व दिल्ली की राजनीति में हड़कंप मचा चुके एएपी व एमआईएम की ही तर्ज पर अब आगामी दिनों में होने जा रहे बिहार विधानसभा के चुनाव को भी दिलचस्प बनाने के लिये सूबे की सियासत में तिनके की हैसियत में दिखनेवाली वामपंथी पार्टियों के अलावा राजद से धक्का देकर निकाले गये मधेपुरा के सांसद पप्पू यादव ने भी पूरी तरह कमर कस ली है। वास्तव में बिहार के मौजूदा राजनीतिक समीकरणों पर निगाह डाली जाये तो जहां एक ओर भगवा मोर्चा सवर्ण व महादलित मतदाताओं के एकजुट समर्थन की आस लगाये हुए है वहीं दूसरी ओर राजद, जदयू व कांग्रेस की तिकड़ी को लालू यादव के उस ‘माय’ समीकरण के समर्थन का पक्का यकीन है जिसके तहत मुस्लिम व यादव मतदाताओं के एकजुट समर्थन के दम पर उन्होंने पूरे पंद्रह साल तक बिहार पर एकछत्र राज किया था। वैसे भी भगवा खेमा सवर्ण मतदाताओं के भरपूर समर्थन को लेकर निश्चिंत है जबकि धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ को अल्पसंख्यक समुदाय का पूरा एकमुश्त समर्थन मिलने में कोई शक-सुबहा नहीं है। लिहाजा अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिये भगवा खेमे के लिये लाजिमी है कि वह लालू के यादव वोटबैंक में सेंध लगाये जबकि धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ को तभी जीत मिल सकती है जब महादलित व पिछड़े मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग भगवा खेमे को छोड़कर उसके पक्ष में मतदान करे। हालांकि दोनों ही खेमों ने इसके लिये जी-तोड़ कोशिशें आरंभ कर दी हैं जिसके तहत जीतनराम मांझी, रामविलास पासवान व उपेन्द्र कुशवाहा को राजग की छतरी के नीचे एकत्र करने के अलावा भगवा खेमा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आगे करके पिछड़ा कार्ड खेलने से भी परहेज नहीं कर रहा है वहीं धर्मनिरपेक्ष मोर्चे ने सूबे की सत्ता का इस्तेमाल करते हुए समाज के वंचित तबके के हित की नीतियों का थोक के भाव में एलान करने की रणनीति पर अमल आरंभ कर दिया है। लेकिन इस भीषण लड़ाई के बीच लालू के यादव वोटबैंक में सेंध लगाने की पप्पू यादव की क्षमता के अलावा पिछड़े वर्ग के बीच वामपंथियों की पैठ ने पूरे सियासी समीकरण को एक अलग रंग देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यानि वामपंथियों ने अगर पिछड़े वर्ग के वोटों में सेंध लगाई तो इसका खामियाजा भगवा खेमे को ही भुगतना होगा जबकि पप्पू की पार्टी के खाते में आनेवाले यादवों के हर वोट की धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। खैर, लालूविरोधी यादव वोटों की खेप से अपनी तिजोरी भरने के लिये भाजपा ने तो पप्पू को अपने साथ जोड़ने की कोशिशें तेज कर दी हैं लेकिन वामपंथियों को साथ लेकर पिछड़े वर्ग में उनकी पैठ का सीधा लाभ लेने के बजाय लालू ने उन्हें भगवा खेमे के वोटों में भरपूर सेंध लगाने के लिये स्वतंत्र छोड़ दिया है। यानि, बिहार के सियासी तूफान में तिनकों की उड़ान अब आसमान पर पहुंचती दिखने लगी है लेकिन तिनके का सहारा लेकर चुनावी भवसागर पार करने की मौजूदा रणनीतियों ने दोनों ही बड़े पक्षकारों के मौजूदा आत्मविश्वास व अंदरूनी मजबूती की कलई अवश्य खोल दी है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’