गुरुवार, 23 जुलाई 2015

‘कैसे मिटे मतभेद जब मनभेद हो कायम’

नवकांत ठाकुर
माना यही जाता है कि मतभेद को तो दूर किया जा सकता है बशर्ते मनभेद दूर हो जाये लेकिन मनभेद के कायम रहते मतभेदों को दूर कर पाना तो निहायत ही नामुमकिन है। यही वजह है कि बरसात का मौसम गुजरने के बाद होनेवाले बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सभी खेमों के तमाम घटक व समर्थक दल आपसी मतभेदों को सुलझाने में कामयाब होते नहीं दिख रहे हैं। वैसे भी मतभेद तो तब दूर हो जब मनभेद मिटे। मनभेद के रहते मतभेद कैसे समाप्त हो सकता है। हालांकि मनभेद की यह स्थिति सतही तौर पर तो जनता परिवार के महामोर्चे में ही सबसे प्रबल दिख रही है लेकिन गहराई से पड़ताल की जाये तो भाजपानीत राजग का खेमा भी इससे कतई अछूता नहीं है। बात की शुरूआत अगर जनता परिवार के धर्मनिरपेक्ष महामोर्चे से की जाये तो इसके  गठन के साथ ही इसके घटक दलों के आपसी मनभेद की जो बातें सार्वजनिक होनी शुरू हुई थीं वह सिलसिला अब तक बदस्तूर जारी है। कहने को तो सार्वजनिक तौर पर राजद सुप्रीमो लालू यादव से लेकर जदयू के शीर्ष रणनीतिकार नीतीश कुमार ही नहीं बल्कि इस गठजोड़ की तीसरी सबसे अहम कड़ी कांग्रेस ने भी किसी भी स्तर पर आपसी मतभेद की बात कभी स्वीकार नहीं की है लेकिन सवाल है कि इनके बीच अगर कोई मतभेद नहीं होता तो लालू के साथ मिलकर चलनेवाली भावी सरकार के सुशासन की राह पर अडिग रहने की संभावना पर सवालिया निशान लगता देखकर बेसाख्ता नीतीश हर्गिज यह नहीं कहते कि ‘जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग, चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग।’ हालांकि मामले के तूल पकड़ने पर भले ही नीतीश से लेकर गठबंधन के सभी नेतागण यह बता रहे हों कि उनके द्वारा व्यक्त की गयी इस प्रतिक्रिया में भाजपा को भुजंग यानि सांप बताया गया है लेकिन हकीकत तो यही है कि आपस में चंदन और सांप की तरह तो राजद व जदयू ही चुनावी गठजोड़ कायम करके परस्पर लिपटी-चिपटी हुई दिख रही है। ऐसे में लाजिमी है कि इन्ही में से कोई एक सांप भी होगा और दूसरा चंदन भी होगा। भाजपा का तो इन दोनों दलों से किसी भी तरह की नजदीकी का कोई रिश्ता ही नहीं है लिहाजा उसे अपने से चिपटा हुआ भुजंग बताना तो नीतीश की ‘थेथरोलाॅजी’ ही कही जाएगी जो मामला बिगड़ता देखकर उसे संभालने के लिये वे करते दिखाई दे रहे हैं। खैर, यह पहला मौका नहीं है जब इस तरह का मनभेद सामने आया हो। जब कांग्रेस की मांग व सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की मध्यस्थता में नीतीश को गठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने के लिये लालू को मजबूर होना पड़ा तब भी उन्होंने खुले तौर पर यही कहा था कि बिहार में भाजपा को हराने के लिये वे किसी भी जहर का घूंट पीने के लिये तैयार हैं। इसी प्रकार विधानसभा चुनाव की तैयारियों को अंतिम रूप देने के क्रम में नीतीश ने समूचे सूबे में जितने भी बैनर-पोस्टर टंगवाए हैं उनमें से एक में भी राजद के किसी भी नेता को जरा भी जगह नहीं दी गयी है। इसके अलावा सीटों की साझेदारी को लेकर भी इन दोनों दलों के बीच सहमति की राह निकल पाना चुनौतीपूर्ण ही दिख रहा है। साथ ही कांग्रेस ने अनौपचारिक तौर पर पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि राजद के कोटे की सीटों पर वह हर्गिज चुनाव प्रचार नहीं करेगी। दूसरी ओर राजद के शीर्ष विचारकों में शुमार होनेवाले रघुवंश प्रसाद सिंह सरीखे नेता सार्वजनिक तौर पर नीतीश के खिलाफ लगातार जहर उगलने का सिलसिला जारी रखे हुए हैं। जाहिर है कि गठजोड़ बनाकर चुनाव लड़ने के लिये सहमत हुए धर्मनिरपेक्ष मोर्चे के नेतागण हर मामले में आपसी मतभेद दूर कर चुकने का कितना ही दावा क्यों ना कर रहे हों लेकिन इनके बीच के मनभेद की खाई लगातार चैड़ी होती हुई ही दिख रही है जिसके नतीजे में विभिन्न मसलों को लेकर इनके बीच का आपसी मतभेद दूर हो पाना तो नामुमकिन ही माना जाएगा। दूसरी ओर सीटों के बंटवारे को लेकर मनभेद की कुछ ऐसी ही स्थिति भाजपानीत राजग के खेमे में भी दिख रही है जहां गठबंधन की मर्यादा पर तानाशाही नीतियां हावी होने के कारण इसके घटक दलों के बीच आक्रोश व असंतोष की चिंगारी बुझ ही नहीं पा रही है। हालांकि राजग के सभी घटक दलों का दावा तो यही है कि इनके बीच आपस में कोई मतभेद नहीं है लेकिन सूबे की दो तिहाई सीटों पर अपना कब्जा जमाने की कोशिशों के तहत जिस तरह से भाजपा ने जीतनराम मांझी द्वारा जदयू से तोड़े गये अधिकांश विधायकों को अपने संगठन में शामिल करने की राह पकड़ ली है, मांझी के कोटे से कम तादाद में सीटों पर सहमत होने के लिये उपेन्द्र कुशवाहा की रालोसपा हर्गिज तैयार नहीं दिख रही है और सूबे की एक तिहाई सीटों पर रामविलास पासवान ने दावेदारी ठोंकी हुई है उसके मद्देनजर इनके बीच पनप रहा मनभेद अब कभी भी विभिन्न मसलों पर मतभेद की शक्ल में सामने आ सकता है। खैर, सियासत में मत के लिये मतभेद होना तो लाजिमी ही है जिसे मन के मिलाप से ही मिटाया जा सकता है लेकिन अगर मनभेद की आंच बदस्तूर सुलगती रही तो इसके नतीजे में सामने आनेवाले मतभेदों का चुनावी नतीजों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना को कैसे खारिज किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’    

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