‘करोगे याद तो हर बात याद आएगी.....’
नवकांत ठाकुर
‘करोगे याद तो हर बात याद आएगी, गुजरते वक्त की हर मौज ठहर जाएगी, बरसता भींगता मौसम धुआं धुआं होगा, पिघलती शम्मों पे दिल का मेरे गुमां होगा, हथेलियों की हिना याद कुछ दिलाएगी, करोगे याद तो हर बात याद आएगी।’ ये सदाबहार गीत है ‘बाजार’ फिल्म का जिसकी दिल को छू जानेवाली हर पंक्ति ‘बशर नवाज’ साहब की कलम से निकली है। इसे मौजूदा सियासी माहौल को जहन में रखते हुए सुना जाये तो वाकई यह पिछले कुछ सालों में बिहार में बने-बिगड़े व जुड़े-बिछड़े राजनीतिक रिश्तों से रिसती दर्दभरी आवाज सरीखी ही महसूस होती है। कहने को भले कोई खुल कर कुछ ना कहे लेकिन यह बीते वक्त के यादों की चुभन ही तो है जिसकी टीस ने आज भी नितीश कुमार को यह याद दिला दिया कि ग्यारह साल पहले तत्कालीन अटल सरकार में रेलमंत्री रहते हुए उन्हें छह माह और काम करने का मौका मिला होता तो जिन परियोजनाओं को नरेन्द्र मोदी की सरकार द्वारा साकार स्वरूप दिया जा रहा है उसे वे उस वक्त ही क्रियान्वित कर चुके होते। दिलचस्प बात यह है कि नितीश के इस दर्द पर मोदी ने भी सहमति का ही मरहम लगाया है। लेकिन विडंबना है कि जिस लालू यादव के साथ मिलकर चुनाव लड़ना आज नितीश की मजबूरी बन गयी है उन्ही ने संप्रग सरकार के कार्यकाल में रेलमंत्री रहते हुए उनके द्वारा आरंभ की गयी परियोजनाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया था। साथ ही जिस मोदी को भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाये जाने के विरोध में नितीश ने राजग से दोस्ती का रिश्ता तोड़ लिया था उनकी ही सरकार आज उनके अधूरे सपनों को नये सिरे से साकार कर रही है। ऐसे में दिल में एकबारगी यह हूक उठना तो स्वाभाविक ही है कि काश यह रिश्ता इस मोड़ पर न आया होता। बेशक सियासत में संवेदनाओं के लिये कोई जगह नहीं होने की बात कही जाती हो लेकिन सियासत भी तो इंसान ही करते हैं जिनमें एहसासों की छुअन भी होती है और संवेदना की सिहरन भी। भले ही वे अपनी संवेदना को सियासत पर हावी ना होने दें लेकिन संवेदनाओं को दिल से निकाल फेंकना कैसे संभव हो सकता है। तभी तो अपना वह दर्द मोदी भी नहीं भूल पाये जो लोकसभा चुनाव से पूर्व भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में शिरकत करने के लिये पटना आने पर उन्हें नितीश ने दिया था। उस वक्त राजग का घटक दल होने के बावजूद मोदी का विरोध करने के क्रम में नितीश ने पार्टी की कार्यकारिणी बैठक में हिस्सा लेने के लिये पटना आए हुए भाजपा के तमाम राष्ट्रीय नेताओं के सम्मान में आयोजित रात्रिभोज के कार्यक्रम को ऐन मौके पर निरस्त कर दिया। हालांकि न्यौता भेजने के बाद दस्तरखान बिछाने से इनकार करने की कोई ठोस वजह नितीश ने अब तक नहीं बतायी है लेकिन माना जाता है कि चुंकि भाजपा ने पंजाब में हुए एक जनसभा की उस तस्वीर का पटना में पोस्टर लगवा दिया जिसमें मोदी व नितीश मंच साझा करते हुए हाथों में हाथ डाले दिख रहे थे लिहाजा मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनने से रोकने के लिये चलायी जा रही अपनी मुहिम में पलीता लगने की नौबत से नाराज होकर ही उन्होंने भोज की थाली परोसने से इनकार कर दिया। साथ ही उन्होंने उसी साल बिहार में आये विध्वंसकारी जलप्रलय के वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री की हैसियत से मोदी द्वारा भेजे गये पांच करोड़ रूपये की सहायता राशि यह कहकर लौटा दी कि उन्हें मोदी के मदद की कोई जरूरत नहीं है। जाहिर है इन बातों से दर्द तो मोदी के दिल में भी हुआ पर अब तक उन्होंने उसकी टीस को दिल में ही दबाए रखा। लेकिन आज जब दोबारा नितीश के साथ मंच साझा करने का मौका मिला तो उस दर्द ने सब्र का बांध ऐसा तोड़ा कि उन्हें यह स्वीकार करने के लिये मजबूर होना पड़ा कि अगर नितीश ने बंद कमरे में उन्हें चांटा भी मार दिया होता तो उससे इतनी तकलीफ नहीं होती जितना परोसी हुई थाली छीने जाने व सहायता राशि लौटाए जाने के कारण हुई। खैर, सियासत के मौजूदा समीकरणों का सम्मान करते हुए आगामी दिनों में होने जा रहे सूबे के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर एक-दूसरे पर तीखा प्रहार करते हुए अपनी सियासत चमकाने के अलावा इनके पास दूसरा कोई चारा ही नहीं है। लिहाजा सियासी वार-पलटवार का सिलसिला तो अभी और तेज होना लाजिमी ही है। लेकिन लालू के साथ गठजोड़ करके बेहद असहज दिख रहे नितीश ने जिस तरह पुराने यादों की संवेदना को साझा करने की पहल की है और मोदी ने भी उनके प्रति दुश्मन की फौज का सिपहसालार बनकर सामने खड़े पुराने लंगोटिया यार सरीखा उलाहनापूर्ण रवैया दिखाया उससे एक बात तो साफ है कि दोनों तरफ संवेदना की साझा आग एक बराबर ही सुलग रही है। शायद उसी की तपिश के नतीजे में लालू को यह कहने के लिये मजबूर होना पड़ा कि मोदी नितीश को उनके खिलाफ भड़काने की सियासत कर रहे हैं। खैर, सियासत में वैसे भी असंभव शब्द के लिये कोई जगह नहीं है और आरएसएस ने तो काफी पहले ही नितीश को दोबारा राजग के साथ जोड़े जाने की सिफारिश कर दी थी लिहाजा बिहार के मौजूदा सियासी समीकरणों में चुनाव के बाद नये सिरे से व्यापक तब्दीली आने की संभावना को कैसे खारिज किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
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