गुरुवार, 30 जुलाई 2015

‘सहूलियत की सियासत में सच्चाई की अनदेखी’

नवकांत ठाकुर
माना कि सियासत में पूरे सच को यथारूप में स्वीकार करने और उसका समुचित सम्मान व एहतराम करने की परंपरा कभी नहीं रही है लेकिन सिर्फ सहूलियत के तथ्यों को उजागर करके अपनी सियासत चमकाने के प्रयास को कैसे सही माना जा सकता है। खास तौर से ऐसे मसले पर जिसमें देश की एकता, अखंडता व संप्रभुता ही नहीं बल्कि सामाजिक सौहार्द्र व राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला भी जुड़ा हुआ हो। लेकिन विडंबना व तकलीफ की बात है कि देश की कुछ सियासी ताकतें ऐसे मसलों को भी राजनीतिक व सांप्रदायिक रंग देने से परहेज नहीं बरत रही हैं जिनकी हकीकत कतई वैसी नहीं होती जैसी बताने, समझाने व दिखाने की कोशिश की जाती है। मसलन वर्ष 1993 में हुए मुंबई के उस सिलसिलेवार बम धमाकों की ही बात करें जिसे बाबरी विध्वंस के बदले की कार्रवाई के तौर पर प्रचारित किया गया। उस मामले में तमाम अदालती व कानूनी पड़तालों में सीधे तौर पर दोषी पाये गये याकूब मेमन को फांसी दिये जाने की कार्रवाई पर मचे बवाल की ही बात करें तो इसे जिस तरह से एमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी सरीखे सांसदों व सियासतदानों ने अपने राजनीतिक फायदे के लिये सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की है उसकी पूरी हकीकत कतई वैसी नहीं है जैसी उन्होंने बताने की कोशिश की है। खास तौर से ओवैसी साहब की यह दलील तो हकीकत से पूरी तरह परे ही है कि याकूब को केवल इस वजह से फांसी पर लटकाने की जल्दबाजी दिखायी जा रही है क्योंकि वह उस धर्म को माननेवाला है जिसका कोई सियासी रहनुमां नहीं है। वास्तव में हजारों बच्चों को यतीम, सैकड़ों औरतों को बेवा और दर्जनों को पूरी उम्र के लिये अपाहिज बना देनेवाले मुंबई बम धमाकों की मुख्य साजिशकर्ता तिकड़ी के अहम सदस्य याकूब का डेथ वारंट जारी होने की खबर सुनने के बाद शायद ओवैसी साहब को केवल उसका मजहब ही याद आया होगा वर्ना अगर उन्होंने उसकी करतूतों को भी याद करने की जहमत उठाई होती तो निश्चित तौर पर उनका बयान वैसा नहीं होता जैसा उन्होंने अपने श्रीमुख से फरमाने की पहल की है। अव्वल तो याकूब को फांसी देने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखायी जा रही है बल्कि कायदे से देखा जाये तो इसे ‘देर आयद दुरूस्त आयद’ की कार्रवाई का नाम देना ही ज्यादा सही होगा। दूसरे, याकूब को फांसी देने के मामले में दिखाई जा रही प्रशासनिक तत्परता को उन्होंने उसके मजहब से जोड़ने की जो कोशिश की है वह भी हकीकत से कोसों दूर है। अगर याकूब का मजहब ही उसे फांसी के फंदे व देश की घृणा का पात्र बना रहा होता तो उसी मजहब को माननेवाले परिवार में पैदा हुए मरहूम राष्ट्रपति डाॅ एपीजे अब्दुल कलाम को याद करके ना तो समूचा देश इस कदर गमगीन होता, ना प्रधानमंत्री इस बात का संकल्प लेते कि वे डाॅ कलाम के सपने को साकार करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे और ना ही हर माता-पिता अपने बच्चों को डाॅ कलाम सरीखा इंसान बनाने का प्रण लेते दिखाई पड़ते। हकीकत तो यही है कि याकूब सरीखे आतंकियों का कोई मजहब ही नहीं होता है। क्योंकि हर मजहब की असली बुनियाद मानवता व इंसानियत पर ही टिकी होती है। जबकि याकूब सरीखे लोग सिर्फ कानून के दोषी नहीं हैं बल्कि वास्तव में ये इंसानियत के गुनाहगार हैं। लेकिन मसला यह है कि सियासत के लिये देश व समाज के इन दुश्मनों के प्रति जिस तरह से हमदर्दी दिखाने की परंपरा शुरू हुई है उसका अंजाम किस कदर विध्वंसकारी हो सकता है इसका शायद उन लोगों को अंदाजा भी नहीं है जो याकूब की फांसी के मसले पर टसुए बहाते दिख रहे हैं। वह भी सिर्फ इसलिये क्योंकि शायद इन लोगों को यह लगता होगा कि ऐसा करने से उन्हें देश के अल्पसंख्यक मतदताओं का सहयोग व समर्थन हासिल होगा और वे खुद को अल्पसंख्यकों का सबसे बड़ा हितैषी साबित कर पाएंगे। लेकिन हकीकत यही है कि देश के एक भी अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य के मन में याकूब सरीखे इंसानियत के दुश्मनों के लिये जरा भी हमदर्दी नहीं हो सकती है। अगर ऐसा होता तो अब तक याकूब के समर्थन में अल्पसंख्यक समुदाय के आम आवाम की आवाज पुरजोर तरीके से बुलंद होती दिखाई पड़ चुकी होती। लेकिन सच तो यह है कि देश का हर अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक अपना आदर्श डाॅ कलाम सरीखे उन लोगों को मानता है जो देश के लिये जिये और देश के लिये ही काम करते हुए अपना प्राणोत्सर्ग कर दिया। जिस वक्त डाॅ कलाम को दिल का जानलेवा दौरा पड़ा उस वक्त भी वे देश के युवाओं के बीच व्याख्यान्न ही दे रहे थे ताकि धरती को इंसानों के लिये बेहतरीन रिहाइश बनाने की राह तैयार की जा सके। खैर, 30 जुलाई का दिन ऐसा है जब हिन्दुस्तान की शान डाॅ कलाम को समूचा देश पुरनम आंखों से सुपुर्दे खाक होता हुआ देखेगा और इसी दिन अपनी पैदाईश की वर्षगांठ के मौके पर ही सूली पर टांगे जा रहे याकूब को फांसी दिये जाने की औपचारिक पुष्टि होने के बाद समूचा देश राहत व इत्मिनान की एक लंबी सांस भी लेगा। जाहिर है कि डाॅ कलाम सरीखे इंसान का जाना वाकई अपूरणीय क्षति है जिसके लिये समूचा देश गमगीन है जबकि याकूब सरीखे इंसान को तो यथाशीघ्र इस धराधाम से रूखसत कर देना ही बेहतर होगा ताकि धरती का बोझ कुछ कम हो सके। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   

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