शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

‘क्या बने बात जहां बात बनाए न बने’

नवकांत ठाकुर
‘नुक्ताचीं है गमे-दिल उसको सुनाए न बने, क्या बने बात जहां बात बनाए न बने, बोझ वो सर से गिरा है कि उठाए न बने, काम वो आन पड़ा है कि बनाए न बने।’ वाकई दीवाने गालिब में संकलित मिर्जा गालिब की कलम से निकली यह गजल मौजूदा सियासी उलझनों के मद्देनजर बेहद प्रासंगिक दिखाई पड़ती है। राष्ट्रीय राजनीति की हालत ऐसी ही है कि बिगड़ी हुई बात बनने की कोई राह निकलती नहीं दिख रही है। वैसे राह भी तब निकले जब बातों का सिलसिला शुरू हो। यहां तो कोई भी पक्ष आमने-सामने बैठकर मौजूदा मुश्किलों का आम सहमति से कोई हल तलाशने के लिये तैयार ही नहीं है। एक ओर कांग्रेस की जिद है कि सुषमा स्वराज, शिवराज सिंह चैहान और वसुंधरा राजे को उनके पद से हटाए जाने से पहले वह सत्ताधारी पक्ष के साथ कतई सहयोग या संवाद नहीं करेगी जबकि सत्तारूढ़ भगवा खेमा किसी भी हालत में एक इंच भी झुकने के लिये तैयार नहीं है। आलम यह है कि कांग्रेस द्वारा संसद से लेकर सड़क तक खोले गये मोर्चे के जवाब में भाजपा ने भी अपने बचाव में विरोधी पक्ष पर पलटवार करते हुए जोरदार आक्रमण करने की ही राह पकड़ ली है। तभी तो ना सिर्फ कांग्रेस शासित सूबों में हुए घपले-घोटाले, भ्रष्टाचार व वित्तीय अनियमितताओं के मामलों को राष्ट्रीय स्तर पर जोरदार तरीके से उजागर करने का सिलसिला शुरू कर दिया है बल्कि कांग्रेस के शीर्ष परिवार के सदस्यों पर निजी हमले करने से भी परहेज नहीं बरता जा रहा है। हालांकि सत्तापक्ष व मुख्य विपक्ष द्वारा बढ़-चढ़कर एक दूसरे के खिलाफ किये जा रहे आक्रामक हमलों के कारण ठप्प पड़ी संसद को सुचारू ढ़ंग से संचालित कराने की राह निकालने के लिये गैर-कांग्रेसी विपक्षी दल खासी मशक्कत करते दिख रहे हैं लेकिन उनके द्वारा सुझाये गये फार्मूलों पर भी कोई बात बनती नहीं दिख रही है। मसला यह है कि बात तो तब बने जब दोनों पक्ष बातचीत के लिये सहमत हों। यहां तो इन दोनों को बातचीत के लिये आमने-सामने बिठाना भी टेढ़ी खीर बनी हुई है। आज की ही बात करें तो सुबह के वक्त सभी राजनीतिक दलों के बीच इस बात पर आम सहमति बन गयी थी कि दोपहर में अनौपचारिक तौर पर एक सर्वदलीय बैठक आयोजित होगी जिसमें संसद में जारी मौजूदा गतिरोध का कोई सर्वसम्मत तोड़ निकालने का प्रयास किया जाएगा। सूत्र बताते हैं कि कांग्रेस के वरिष्ठ रणनीतिकारों ने भी इस बैठक में शिरकत करने के लिये हामी भर दी थी। यानि मामला पटरी पर आता दिखने लगा था। लेकिन सुबह के वक्त जब संसद की कार्यवाही शुरू हुई तो सत्तापक्ष के सांसदों ने ना सिर्फ कांग्रेस के खिलाफ जमकर नारेबाजी की बल्कि पार्टी अध्यक्षा सोनिया गांधी के इकलौते दामाद राॅबर्ट वाड्रा द्वारा किये गये कथित जमीन घोटाले के मामले को तूल देते हुए संसद में बैनर-पोस्टर भी लहराए। यहां तक कि वाड्रा द्वारा संसद में अपने खिलाफ उठाए जा रहे मसले को तुच्छ राजनीति बताए जाने को संसद की अवमानना करार देते हुए बीकानेर के भाजपाई सांसद अर्जुन मेघवाल ने विशेषाधिकार हनन का नोटिस भी दे दिया। नतीजन सत्तापक्ष के सांसदों की इन हरकतों खिन्न होकर कांग्रेसी रणनीतिकारों ने सर्वदलीय बैठक में शिरकत करने से ही इनकार कर दिया जिसके कारण बात बनाने के लिये आरंभ किये जा रहे बातचीत के सिलसिले की शुरूआत ही नहीं हो सकी। हालांकि सूत्र बताते हैं कि इस पूरे घटनाक्रम से गैर-कांग्रेसी दलों के बीच भारी निराशा का माहौल अवश्य बना है क्योंकि आज की बैठक के पूर्व ही वाममोर्चे से लेकर सपा व तृणमूल सरीखे दलों ने भी सरकार को इस बात की सहमति दे दी थी कि संसद जारी गतिरोध को दूर करने के लिये वह कांग्रेस के साथ जो भी समझौता करेगी उसे तहेदिल से स्वीकार करने में वे कतई कोताही नहीं बरतेंगे। लेकिन जब बैठक ही नहीं हो पा रही है तो सहमति की कोई राह निकलने का सवाल ही कहां है। पहली आवश्यकता तो इन दोनों पक्षों को बातचीत के लिये आमने-सामने बिठाने की है। बात होगी तो बात बनने की कोई सूरत निकलेगी लेकिन बात ही नहीं होगी तो बात बनेगी कैसे। खैर, सूत्र बताते हैं कि गैर-कांग्रेसी विपक्ष ने दोनों पक्षों के सामने यह फार्मूला भी पेश किया है कि जिन तीन नेताओं को पद से हटाने की कांग्रेस ने जिद ठानी हुई है उन पर लग रहे आरोपों की जांच के लिये एक संसदीय समिति का गठन कर दिया जाये। लेकिन फिलहाल यह फार्मूला ना तो कांग्रेस को रास आ रहा है और ना ही भाजपा इस पर अमल करने के लिये सहमत दिख रही है। खैर, आज की बैठक स्थगित हो जाने या गैर-कांग्रेसी विपक्ष द्वारा पेश किये जा रहे फार्मूलों पर कोई आम राय नहीं बन पाने के मामले को देखते हुए यह निष्कर्ष निकाल लेना तो जल्दबाजी होगी कि मौजूदा सत्र सुचारू ढ़ंग से संचालित ही नहीं हो पाएगा लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में मतभेदों को सुलझाने का इकलौता रास्ता बातचीत का ही होने के कारण यह तो तय है कि फिलहाल मुलाकात या बात करने से भी इनकार कर रहे दोनों ही पक्षों को कभी ना कभी बातचीत के लिये आमने-सामने बैठना ही होगा। लेकिन बातचीत का दरवाजा खोलने में जितनी देर की जाएगी उसका देश को उतना ही नुकसान झेलना पड़ेगा और इसकी पूरी जिम्मेवारी अपनी-अपनी जिद पर अड़े इन दोनों पक्षों की ही होगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   

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