‘बहुत हुआ सफर, अब पकड़ें मंजिल की डगर’
नवकांत ठाकुर
कारगिल विजय की वर्षगांठ के मौके पर पंजाब में हुए आतंकी हमले के बाद देश में गुस्से का उफान तो लाजिमी ही है। निशाने पर पड़ोसी मुल्क भी है, खुफिया तंत्र की नाकामी भी है और देश के सियासी रहनुमां भी हैं। बेशक इस तरह के मामले जब भी सामने आते हैं तो खुफिया तंत्र की नाकामी को सबसे पहले निशाने पर लिया जाता है लेकिन इस तथ्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता है ये वही खुफिया तंत्र है जो इस तरह की सौ में से 99 साजिशों को इतनी खामोशी से नाकाम कर देता है कि उसके बारे में आम लोगों को भनक भी नहीं लग पाती है। खैर, मसला यह है कि ऐसी वारदातों के बाद जिस तरह से हमारे हुक्मरानों में पड़ोसी मुल्क के प्रति भारी गुस्से की लहर दौड़ जाती है और कुछ ही समय के बाद इसे बिसार कर रिश्तों में सुधार के लिये राजनीतिक स्तर पर आम और शाॅल के लेन देन से लेकर क्रिकेट डिप्लाॅमेसी, शीर्ष स्तर की वार्ता बहाली और दरगाह पर चादर के चढ़ावे की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। यह सिलसिला आखिर कब तक चलता रहेगा। हालांकि रिश्तों में सुधार का प्रयास जारी रखना जरूरी भी है और इसका कोई विकल्प भी नहीं है। लेकिन अब आवश्यक हो गया है कि पाकिस्तान के साथ बच्चों सरीखे ‘पल में तोला पल में माशा’ के परंपरागत रिश्ते में बदलाव का कोई ठोस व कारगर विकल्प तलाशा जाए। यह तो सर्वविदित तथ्य है कि ना तो पाकिस्तान की आम आवाम के दिल में भारत के प्रति कोई दुश्मनी की लहर दौड़ रही है और ना ही वहां के सियासी हुक्मरान भारत के साथ दुश्मनी का रिश्ता बरकरार रखने के ख्वाहिशमंद हैं। लेकिन इस हकीकत को भी झुठलाया नहीं जा सकता है कि लगातार तीन जंग में शिकस्त झेल चुकी पाकिस्तानी फौज कतई हिन्दुस्तान के प्रति दोस्ताना रवैया नहीं दिखा सकती है। वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई आज भी कथित तौर पर अपने मुल्क के दो टुकड़े कर देनेवाले हिन्दुस्तान को माफ नहीं कर पायी है और वह हमेशा इसका बदला लेने के फिराक में रहती है। इसके अलावा पाकिस्तान के विपक्षी दल भी अपनी सियासत चमकाने के लिये कश्मीर मसले को सुलगाये रखने की भरपूर कोशिशों में जुटे रहते हैं और वहां के कट्टरपंथी आतंकी संगठन भी राष्ट्रीय सरोकारों व हितों को प्राथमिकता देते हुए भारत विरोधी गतिविधियां जारी रखने और हमें भरपूर नुकसान पहुंचाने की कवायदों में संलग्न रहते हैं। लिहाजा समग्रता मे देखा जाये तो अव्वल तो पाकिस्तान में इस बात को लेकर कोई आम राय नहीं है कि उसे भारत के साथ कैसा रिश्ता रखना है और दूसरे वहां की कोई भी ताकत एक दूसरे पर नियंत्रण रखने में सक्षम नहीं है। तभी तो जब सियासी तौर पर रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू होती है ऐन उसी वक्त वहां की फौज व चरमपंथी ताकतें रिश्तों में सुधार के माहौल में पलीता लगाने की कोशिशें तेज कर देती हैं। वहां की फौज पर भी वहां के सियासी हुक्मरानों का नियंत्रण नहीं है और आईएसआई भी सरकार की रग को इस कदर दबाए रखती है कि उसकी सहमति के बिना रिश्तों में सुधार का हर प्रयास बेमानी हो जाता है। हालांकि इन तमाम हकीकतों से हमारे सियासी रहनुमां भी बेहतर वाकिफ हैं लेकिन इसके बावजूद पाकिस्तान के प्रति कोई ठोस विदेशनीति बनाने में यहां कामयाबी नहीं मिल पा रही है। सरकार चाहे किसी भी दल की क्यों ना हो, पाकिस्तान से रिश्ता वही बच्चों सरीखा ही रखा जाता है जिसके तहत झगड़ा भी बच्चों सरीखा ही होता है और मोहब्बत की डोर भी बच्चों सरीखी ही बंधती है। जाहिर है कि ऐसे में तो पाकिस्तान के साथ अपने रिश्तों को नयी ऊंचाई पर ले जाना नामुमकिन ही है। लिहाजा आवश्यकता इस बात की है जिस तरह सरहद के उस पार सत्ता व ताकत के अलग-अलग अनियंत्रित केन्द्र हैं उसी प्रकार उन सभी केन्द्रों से निपटने के लिये अलग-अलग रणनीति बनायी जाये और उनका आपस में कतई घालमेल ना किया जाये। फौज की ईंट का जवाब फौज ही पत्थरों से दे और आईएसआई को उसकी ही भाषा में जवाब देने का अलग से इंतजाम किया जाये। दूतावास के माध्यम से दिल्ली में अंजाम दी जानेवाली खुराफातों का उसी भाषा में इस्लामाबाद के दूतावास से जवाब दिया जाये और शीर्ष स्तर की बात व मुलाकात की परंपरा भी बदस्तूर जारी रखी जाये। हालांकि इस तरह के विचार पर अमल करने का विकल्प खुला होने का संकेत देते हुए पिछले दिनों हमारे रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने बेहद सारगर्भित व सवालिया लहजे में यह अवश्य बताया था कि आतंकवादियों से निपटने के लिये हम अपनी जवानों की जान जोखिम में क्यों डालें, ऐसे तत्वों को उनके ही तरीके से नेस्तनाबूत क्यों ना करें? लेकिन मसला है कि इस तरह की गैरपरंपरागत रणनीति पर जब तक सियासी तौर पर आम राय नहीं बनती तब तक इस पर अमल की राह नहीं खुल सकती है। वैसे सच तो यही है कि ‘शठ सुधरहिं सतसंगति पाई, पारस परस कुघात सुहाई’ की तुलसीदासवादी नीति का अगर हर जगह असर होता तो बारह बरस तक फट्ठे से बांध कर रखने के बावजूद भी कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी नहीं रहती। लिहाजा जब तक ‘शठे शठ्यम समाचरेत’ की चाणक्यवादी नीति नहीं अपनायी जाएगी तब तक पाकिस्तान के मोर्चे पर हर कूटनीति की विफलता का सिलसिला बदस्तूर जारी ही रहेगा। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
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