सोमवार, 20 जुलाई 2015

‘लहजा नर्म भी कर लें तो झुंझलाहट नहीं जाती’

‘लहजा नर्म भी कर लें तो झुंझलाहट नहीं जाती’

वाकई दिल में अगर झुंझलाहट का आलम हो तो उसे नर्म लहजे के पर्दे में छिपा पाना भी अक्सर बेहद मुश्किल होता है। चेहरे पर मुस्कान चस्पां करके घूमनेवाले भले ही इस मुगालते में हों कि उनके मन की बात कोई समझ नहीं पाएगा लेकिन ताड़नेवाले भी कयामत की नजर रखते हैं। बनावटी मुस्कान से दिल की झुंझलाहट लंबे समय तक नहीं छिपायी जा सकती। तभी तो अपनी खिसियाहट व झुंझलाहट पर पर्दा डालकर खुद को उत्साह, प्रसन्नता व आत्मविश्वास से लबरेज दिखा पाना इन दिनों केन्द्र सरकार के शीर्ष रणनीतिकारों के लिये भी संभव नहीं हो पा रहा है। आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा सार्वजनिक तौर पर कही गयी बातों पर ही गौर करें तो जिस तरह से उन्होंने दबे, ढ़ंके व छिपे लहजे में सियासी सिद्धांतों, परिवारवाद, राजनीतिक टकराव व भ्रष्टाचार सरीखे मसलों को लेकर विरोधियों पर तंज कसने की पहलकदमी की है उससे वास्तव में उनके दिल की झुंझलाहट का ही मुजाहिरा हुआ है। मौजूदा स्थिति यही है कि जहां एक ओर अगले सप्ताह से आरंभ हो रहे संसद के मानसून सत्र में विपक्ष ने सरकार का पुरजोर विरोध करने की रणनीति का पहले से ही एलान किया हुआ है वहीं दूसरी ओर सरकार के कई घटक व समर्थक दलों ने भी इस मुश्किल वक्त में उसकी सिरदर्दी में इजाफा करने की ही राह पकड़ ली है। खास तौर से शिवसेना सरीखे घटक व अन्नाद्रमुक सरीखे समर्थक दलों से साफ शब्दों में बता दिया है कि भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक के जिस प्रारूप को संसद की स्वीकृति दिलाने का प्रयास किया जा रहा है वह उन्हें कतई स्वीकार्य नहीं है। यानि इस सत्र में खास तौर से जिन दो विधेयकों ‘वस्तु व सेवाकर अधिनियम’ और ‘भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक’ को संसद से पारित कराने का लक्ष्य निर्धारित किया जा चुका है उसमें कामयाबी हासिल होने की उम्मीद लगातार कमजोर होती दिख रही है। हालांकि इन दोनों मामलों में सर्वदलीय सहमति बनाने के लिये पिछले बजट सत्र में ही जीएसटी को राज्यसभा की प्रवर समिति समिति के पास विचार के लिये भेजा गया जबकि भूमि विधेयक पर आम सहमति बनाने के लिये दोनों सदनों की संयुक्त समिति गठित कर दी गयी। यहां तक कि सरकार ने पहले से ही एलान किया हुआ है कि इन दोनों विधेयकों के मौजूदा प्रारूप में बदलाव के जिन प्रस्तावों पर इन सर्वदलीय समितियों में आम सहमति बन जाएगी उसे पूरी तरह स्वीकार करने में कतई संकोच नहीं किया जाएगा। इसके बावजूद अगर कांग्रेस इस मसले पर बात करने से भी इनकार कर रही हो, बाकी विरोधी दल भी अपने तीखे तेवरों का इजहार कर रहे हों और कोढ़ में खाज की मानिंद साथी व सहयोगी भी इस परेशानी के माहौल में मनमानी करते दिखाई पड़ रहे हों तो ऐसे में गुस्सा व झुंझलाहट पैदा होना लाजिमी ही है। वैसे भी लोकसभा से पारित होने के बाद राज्यसभा की स्वीकृति का इंतजार कर रहे जीएसटी व भूमि विधेयक के मामले में ऐसा पेंच फंसा हुआ है जिस पर सर्वसम्मति बनाए बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता। जहां एक ओर संविधान संशोधन विधेयक होने के कारण जीएसटी के लिये दो तिहाई सांसदों के समर्थन की दरकार है वहीं दूसरी ओर भूमि विधेयक के मामले में सरकार के हाथ पूरी तरह बंधे हुए हैं। मौजूदा सियासी हालातों के मद्देनजर भूमि विधेयक का राज्यसभा से पारित हो पाना तो नामुमकिन ही दिख रहा है लेकिन इसे सदन से खारिज कराना भी सरकार के लिये तब तक संभव नहीं है जब तक बाकी सभी दल इसके लिये सहमत नहीं होते। दूसरी ओर संवैधानिक समस्या यह है कि जब तक राज्यसभा द्वारा यह विधेयक खारिज नहीं कर दिया जाता तब तक सरकार इसे संसद के संयुक्त सत्र में पारित कराने की राह कतई नहीं अपना सकती है। सरकार की इस मजबूरी से विपक्ष भी भलीभांति वाकिफ है। तभी तो उसने इस विधेयक पर मतदान के लिये आवश्यक शांतिपूर्ण व सुचारू परिस्थियां कायम करने में सरकार का कतई सहयोग नहीं करने की जिद ठानी हुई है। ऐसे में सरकार करे भी तो क्या करे। सिवाय गुस्सा व झुझलाहट दिखाने के। तभी तो आज ना सिर्फ प्रधानमंत्री ने संसद में संग्राम होने की बात कहते हुए सत्तापक्ष की हर सोच व नीतियों के प्रति विपक्ष की ओर से हो रहे अछूत व्यवहार से लेकर कांग्रेस की कमजोर नस मानी जानेवाली परिवारवादी सियासत व उसके शीर्ष परिवार के दामाद पर भी परोक्ष तौर पर करारा प्रहार किया बल्कि भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं ने भी कांग्रेस के खिलाफ जमकर जुबानी हमला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पार्टी प्रवक्ता संबित पात्रा ने कांग्रेस अध्यक्षा के दामाद द्वारा किये गये कथित जमीन घोटाले का मसला उठाया तो पार्टी के राष्ट्रीय सचिव सिद्धार्थनाथ सिंह ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की सोच को ‘डायपर ब्वाय’ सरीखा बता दिया। जाहिर है कि इन घटनाक्रमों से भगवा खेमे की अंदरूनी झुंझलाहट का ही मुजाहिरा हुआ है जो संसद में संभावित भावी विफलताओं की आशंका से ही पनपा है। खैर, सियासत में सफलता व विफलता का सिलसिला तो चलता ही रहता है लेकिन किसी मसले पर आगे बढ़ने की राह में हाथ आ रही नाकामी के कारण खुलकर झुंझलाहट का प्रदर्शन किये जाने के नतीजे में मतदताओं के बीच सरकार की सियासी दक्षता व कार्यकुशलता के प्रति नकारात्मक व बेचारगी भरा संदेश प्रसारित होने की संभावना से कैसे इनकार किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें