‘तिनका जो आंखन परै, पीर घनेरी होय’
संत कबीर की दी हुई इस सीख से शायद ही कोई नावाकिफ होगा कि ‘तिनका कबहुं ना निन्दिये, जो पायन तले होय, कबहुं उड़न आंखन परै, पीर घनेरी होय।’ वाकई आकार की तुलना में तिनके की औकात बहुत बड़ी होती है। तभी तो तिनके की मदद कभी किसी डूबते का सहारा बन जाती है और कभी यह किसीकी आंखों में घुसकर ऐसी पीड़ा का सबब बन जाता है कि आंसू बहाने के सिवाय वह और कुछ कर ही नहीं सकता। खास तौर से सियासत में तो तिनका समझकर दरकिनार कर दिये जानेवाले कई बार बड़े-बड़ों पर भारी पड़ जाते हैं। मिसाल के तौर पर प्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे के जनलोकपाल आंदोलन की कोख से पैदा होने के बाद वर्ष 2013 में पहली दफा विधानसभा चुनाव का सामना करनेवाली एएपी को उस वक्त किसी भी स्थापित राजनीतिक दल ने अपना ताकतवर विरोधी मानने की औकात देना भी गवारा नहीं किया। लेकिन जब चुनावी नतीजा आया तो सूबे की त्रिशंकु विधानसभा में 28 सीटें जीतकर एएपी ने एसी स्थिति पैदा कर दी कि महज आठ सीटों पर सिमट चुकी कांग्रेस को बिनमांगे व बिनाशर्त ही उसे अपना समर्थन देकर अरविंद केजरीवाल की सरकार बनवाने के लिये मजबूर होना पड़ा। हालांकि वह सरकार महज 49 दिन ही चल सकी लेकिन बाद में जब दिल्ली में दोबारा विधानसभा चुनाव कराया गया तो सूबे की कुल 70 में से 67 सीटें जीतकर एएपी ने ऐसा इतिहास रच दिया जिसकी बराबरी करने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। इसी प्रकार महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में पहली बार अपनी किस्मत आजमानेवाले ओबैसी बंधुओं की एमआईएम को सूबे की राजनीति में तिनका समझने की गुस्ताखी कांग्रेस व एनसीपी को इस कदर भारी पड़ी कि भगवा विरोधी मतों में सेंध लगाकर उसने ना सिर्फ प्रदेश में अपने पांव जमा लिये बल्कि भाजपा व शिवसेना को अलग-अलग लड़ने के बाद भी बहुमत का आंकड़ा जुटाने में बेहद आसानी से कामयाबी हासिल हो गयी। तभी तो विधानसभा चुनाव के बाद स्थानीय निकायों के चुनाव में भी बुरी तरह मात खाने के बाद पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण अब सीधे तौर पर एमआईएम को इसके लिये जिम्मेवार ठहराते हुए यह बताने से परहेज नहीं बरत रहे हैं कि भगवा खेमे को लाभ पहुंचाने के लिये ही ओवैसी बंधुओं ने अल्पसंख्यक मतदाताओं के बीच अपनी स्वीकार्यता का गलत इस्तेमाल किया है। खैर, महाराष्ट्र व दिल्ली की राजनीति में हड़कंप मचा चुके एएपी व एमआईएम की ही तर्ज पर अब आगामी दिनों में होने जा रहे बिहार विधानसभा के चुनाव को भी दिलचस्प बनाने के लिये सूबे की सियासत में तिनके की हैसियत में दिखनेवाली वामपंथी पार्टियों के अलावा राजद से धक्का देकर निकाले गये मधेपुरा के सांसद पप्पू यादव ने भी पूरी तरह कमर कस ली है। वास्तव में बिहार के मौजूदा राजनीतिक समीकरणों पर निगाह डाली जाये तो जहां एक ओर भगवा मोर्चा सवर्ण व महादलित मतदाताओं के एकजुट समर्थन की आस लगाये हुए है वहीं दूसरी ओर राजद, जदयू व कांग्रेस की तिकड़ी को लालू यादव के उस ‘माय’ समीकरण के समर्थन का पक्का यकीन है जिसके तहत मुस्लिम व यादव मतदाताओं के एकजुट समर्थन के दम पर उन्होंने पूरे पंद्रह साल तक बिहार पर एकछत्र राज किया था। वैसे भी भगवा खेमा सवर्ण मतदाताओं के भरपूर समर्थन को लेकर निश्चिंत है जबकि धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ को अल्पसंख्यक समुदाय का पूरा एकमुश्त समर्थन मिलने में कोई शक-सुबहा नहीं है। लिहाजा अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिये भगवा खेमे के लिये लाजिमी है कि वह लालू के यादव वोटबैंक में सेंध लगाये जबकि धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ को तभी जीत मिल सकती है जब महादलित व पिछड़े मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग भगवा खेमे को छोड़कर उसके पक्ष में मतदान करे। हालांकि दोनों ही खेमों ने इसके लिये जी-तोड़ कोशिशें आरंभ कर दी हैं जिसके तहत जीतनराम मांझी, रामविलास पासवान व उपेन्द्र कुशवाहा को राजग की छतरी के नीचे एकत्र करने के अलावा भगवा खेमा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आगे करके पिछड़ा कार्ड खेलने से भी परहेज नहीं कर रहा है वहीं धर्मनिरपेक्ष मोर्चे ने सूबे की सत्ता का इस्तेमाल करते हुए समाज के वंचित तबके के हित की नीतियों का थोक के भाव में एलान करने की रणनीति पर अमल आरंभ कर दिया है। लेकिन इस भीषण लड़ाई के बीच लालू के यादव वोटबैंक में सेंध लगाने की पप्पू यादव की क्षमता के अलावा पिछड़े वर्ग के बीच वामपंथियों की पैठ ने पूरे सियासी समीकरण को एक अलग रंग देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यानि वामपंथियों ने अगर पिछड़े वर्ग के वोटों में सेंध लगाई तो इसका खामियाजा भगवा खेमे को ही भुगतना होगा जबकि पप्पू की पार्टी के खाते में आनेवाले यादवों के हर वोट की धर्मनिरपेक्ष महागठजोड़ को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। खैर, लालूविरोधी यादव वोटों की खेप से अपनी तिजोरी भरने के लिये भाजपा ने तो पप्पू को अपने साथ जोड़ने की कोशिशें तेज कर दी हैं लेकिन वामपंथियों को साथ लेकर पिछड़े वर्ग में उनकी पैठ का सीधा लाभ लेने के बजाय लालू ने उन्हें भगवा खेमे के वोटों में भरपूर सेंध लगाने के लिये स्वतंत्र छोड़ दिया है। यानि, बिहार के सियासी तूफान में तिनकों की उड़ान अब आसमान पर पहुंचती दिखने लगी है लेकिन तिनके का सहारा लेकर चुनावी भवसागर पार करने की मौजूदा रणनीतियों ने दोनों ही बड़े पक्षकारों के मौजूदा आत्मविश्वास व अंदरूनी मजबूती की कलई अवश्य खोल दी है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें