‘बन कर रहेगी बात कोई बात कीजिये’
मशहूर शायर राहत इंदौरी ने वर्ष 2003 में आई फिल्म ‘इन्तहा’ के लिये लिखे गीत में गुजारिश की है कि ‘बढ़ने लगी है बात कोई बात कीजिये, कट जाएगी ये रात कोई बात कीजिये, यूं सादगी के साथ कोई बात कीजिये, बनकर रहेगी बात कोई बात कीजिये।’ मौजूदा सियासी हालातों मद्देनजर ऐसा लगता है मानो राहत साहब ने गीत की ये पंक्तियां कांग्रेस को ही संबोधित करते हुए लिखी हों। वास्तव में अपनी अलग सोच, मानसिकता व विचारधारा को ही सर्वोपरि मानते हुए कांग्रेसी रणनीतिकारों ने जिस तरह से विरोधियों के साथ ही नहीं बल्कि समान विचारधारावाले गैरभाजपाई दलों के साथ भी बातचीत का दरवाजा पूरी तरह बंद कर लिया है उसका औचित्य वाकई समझ से परे है। कायदे से अपेक्षा तो यह थी कि अगले हफ्ते से आरंभ हो रहे संसद के मानसून सत्र में सरकार को घेरने के लिये कांग्रेस की ओर से मजबूत रणनीति बनायी जाती और उस पर सभी विपक्षी दलों को सहमत करके उन्हें अपने साथ जोड़ा जाता। लेकिन इस जिम्मेवारी का निर्वहन करने के बजाय उसकी अपेक्षा है कि भले ही वह बाकी विरोधियों के विचारों को टके का भाव भी ना दे लेकिन वे सभी केवल इस वजह से उसके साथ जुड़े रहें क्योंकि वह विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है और उसका सहयोग लिये बिना किसी भी मसले पर सरकार को झुकने के लिये विवश कर पाना किसी के लिये भी कतई संभव नहीं है। जाहिर है कि कांग्रेस की इस आत्ममुग्धता के सामने नतमस्तक होते हुए उसका पिछलग्गू बन जाना किसी के लिये भी संभव नहीं हो सकता है। तभी तो सरकार को अपनी ताकत दिखाने के लिये जब कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने इफ्तार की दावत दी तो उसमें शरीक होने से अधिकांश विपक्षी व गुटनिरपेक्ष ने पूरी तरह परहेज बरत लिया। हालांकि विपक्षी दलों के बीच अपने नेतृत्व की स्वीकार्यता का मुजाहिरा करने के मकसद से आयोजित इस इफ्तार की विफलता से सोनिया का मायूस होना स्वाभाविक ही है लेकिन विडंबना यह है कि इसके कारणों की पड़ताल करके अपनी रणनीति में सुधार लाने के प्रति कांग्रेस के भीतर शीर्ष स्तर आज भी निश्चिंतता का ही माहौल दिख रहा है। दरअसल विपक्षी दलों के बीच कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने के प्रति नकारात्मक सोच का जो माहौल दिख रहा है उसकी गहराई से पड़ताल की जाये तो इसकी जड़ में कांग्रेस द्वारा अमल में लायी जा रही कूटनीतियां ही पूरी तरह जिम्मेवार दिखाई देती हैं। मसलन भाजपा के विजय रथ पर पहली बार दिल्ली में ब्रेक लगानेवाले एएपी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने जब सियासी समीकरणों से अलग हटकर सभी राजनीतिक दलों को इफ्तार की दावत में शिरकत का निमंत्रण भेजा तो उनके सनातन विरोधी माने जानेवाले दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग से लेकर भाजपा के कई बड़े नेताओं ने भी उसमें खुले दिल से शिरकत करने में कोई कोताही नहीं बरती लेकिन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन ने इस दावत का पूरी तरह बहिष्कार किये जाने की राह पकड़ते हुए पार्टी को सोच, संबंध व सरोकार के सीमित दायरे में कैद कर देना ही बेहतर समझा। यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने केजरीवाल की इस गैर सियासी दावत में शिरकत करने की पहल की तो उसके खिलाफ भी अंदरूनी तौर पर संगठन में भारी बवाल कटना शुरू हो गया। जाहिर है कि ऐसी हालत में लोकसभा में चार सदस्यीय एएपी अगर सरकार के खिलाफ कांग्रेस से अलग हटकर अपनी राह पकड़ती है इसे कैसे गलत कहा जा सकता है। इसी प्रकार बिहार में जनता परिवार के साथ गठबंधन करके विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला करने के बाद जिस तरह से कांग्रेस ने लालू यादव की राजद के साथ दूरी बनायी हुई है और लगातार उसके हितों की अनदेखी करते हुए पहले नीतीश को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने का दबाव बनाया और अब राजद के कोटे की सीटों पर चुनाव प्रचार में सहभागिता करने से भी इनकार करती दिख रही है उसके बाद राष्ट्रीय राजनीति में राजद का सहयोग हासिल करने की उसकी कोशिशें कैसे परवान चढ़ सकती हैं। पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे के साथ गलबहियां करके तृणमूल के हितों की अनदेखी करना, ललित मोदी के विवाद को तूल नहीं दिये जाने की सपा व राजद की गुजारिश पर जरा भी ध्यान नहीं देना, भूमि अधिग्रहण विधेयक के मसले पर बातचीत के माध्यम से आम सहमति की राह निकालने की राकांपा, बीजद व अन्ना द्रमुक सरीखे दलों की सलाह को मानने से इनकार करना, नीति आयोग की बैठक का बहिष्कार करके सरकार के साथ बातचीत के माध्यम से समझौते की राह निकालने का दरवाजा बंद कर लेना और किसी भी मसले पर विरोधी दलों को अपने साथ जोड़ने की पहल करने से परहेज बरतना जारी रखते हुए अगर कांग्रेस इस मुगालते में है कि उसे सभी विपक्षियों का घर बैठे ही सहयोग व समर्थन हासिल हो जायेगा तो इसे उसकी आत्ममुग्धता की पराकाष्ठा न कहें तो और क्या कहें। खैर सियासत में ‘एकला चलो’ की रणनीति पर अमल करने की परंपरा तो बहुत पुरानी है जिसमें कई बार ऐसा भी देखा जाता है कि ‘मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया।’ लेकिन इस रणनीति के विफल रहने के नतीजे में पूरी तरह अलग-थलग पड़कर सियासी समीकरणों में निष्प्रभावी हो जाने के खतरे की संभावना को भी सिरे से तो कतई खारिज नहीं किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’
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