सोमवार, 26 दिसंबर 2016

‘सुलगती आंखों से छलकती नमी का निहितार्थ’

‘सुलगती आंखों से छलकती नमी का निहितार्थ’


सवाल है कि ‘आग-पानी के बीच छत्तीस का आंकड़ा है अगर, तो सुलगती आंखों में यह नमी क्यों है? कायदे से सुलगती आंखों से तो क्रोध और नफरत की चिंगारियां फूटनी चाहिये। सुर्ख निगाहों से लहू टपकना चाहिये। लेकिन हो रही है नमी की बरसात। वह भी जार-जार, लगातार। लिहाजा एक ही तस्वीर के इन विपरीत आयामों के बीच तालमेल बिठाना किसी के लिये भी दुश्वार हो सकता है। लेकिन मसला है कि दिल की बात अगर जुबां पर आ गयी तो उसका असर आत्मघाती भी हो सकता है। लिहाजा राजनीति में आग और पानी के बीच संतुलन बनाना आवश्यक भी है और मजबूरी भी। तभी तो इन दिनों देश के सियासी माहौल में दूध की धार तो नजर आ रही है लेकिन उसमें छिपा असली घी मौजूद होने के बावजूद विलुप्त है। बिल्कुल त्रिवेणी संगम की सरस्वती बन गयी वास्तविक सच्चाई। जबकि सच तो यह है कि सरस्वती की मौजूदगी ने ही तो संगम को त्रिवेणी का उच्चपद दिया है। लेकिन मसला है कि सरस्वती की मौजूदगी को सतह पर तलाशने के बजाय अक्सर गहराई में खोदाई शुरू कर दी जाती है। जबकि कायदे से त्रिवेणी के जल में से अगर किसी तकनीक के द्वारा गंगा-यमुना के अंश को अलग, विलग व पृथक कर दिया जाये तो शेष नीर निश्चित तौर पर सरस्वती का ही होगा। इसी प्रकार सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच मौजूद जनपक्ष को भी तभी समझा जा सकता है जब इन दोनों से अलग हटकर उसे देखने व तलाशने की कोशिश की जाये। इस लिहाजा से देखा जाये तो इन दिनों वास्तविक जनपक्ष पूरी तरह ओझल, गायब व नदारद दिख रहा है। हालांकि सत्तापक्ष और विपक्ष के द्वारा अपने नजरिये से जनपक्ष की मौजूदगी को दर्शाने की भरसक कोशिश हो रही है लेकिन इन दोनों पक्षों द्वारा जनपक्ष की जो तस्वीर प्रस्तुत की जा रही है वह वास्तविकता से पूरी तरह अलग है। मसलन सरकार बता रही है कि नोटबंदी जनहित के लिये की गयी है जबकि विपक्ष का आरोप है कि नोटबंदी की आड़ में जनहित पर डाका डाला गया है और यह अब तक का सबसे बड़ा घोटाला है। यानि एक ही काम के दो विपरीत कारण और परिणाम बताये जा रहे हैं। जबकि तीसरा वास्तविक जनपक्ष यह है कि पहले भी जनता ही परेशान थी और आज भी आवाम ही हलकान है। कतार में चोरों को दिखना चाहिये था लेकिन दिख रहे आम लोग। उस पर तुर्रा यह कि नकदी की कोई कमी नहीं है। लेकिन इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि अगर कमी नहीं है तो पर्याप्त मात्रा में मिल क्यों नहीं रही। खैर, नोटबंदी के बाद पनपी परेशानियां दूर होनी शुरू हो गयी हैं और मास-दो मास में समाप्त भी हो जाएंगी। लेकिन असली सवाल है कि नोटबंदी के मामले को लेकर जिस तरह की जंग छिड़ी हुई है उसमें आखिर सत्तापक्ष और विपक्ष ने जनपक्ष को क्यों हथियार बनाया हुआ है। अपनी बात क्यों नहीं कहते? क्यों नहीं बताते कि मोदी को महानता की दरकार है इसलिये पूरी व्यवस्था की दही को मथकर मट्ठा छान रहे हैं और घी अलग कर रहे हैं। जबकि यह घी पहले भी सेहत तंदुरूस्त रखने के ही काम आ रहा था। वर्ना आठ साल पहले की व्यापक वैश्विक मंदी के दौर में सकारात्मक विकास दर बरकरार रहना कैसे मुमकिन हो सकता था। लेकिन अब तक वह घी अंदरूनी तौर पर घुला हुआ था। सतही तौर पर नदारद था। लिहाजा सतह पर उसकी चमक नहीं दिख रही थी। अब उसे अलग करके परोसने की कवायद चल रही है। ताकि उसके चमक-दमक से विश्व जगत को चकित-चमत्कृत किया जा सके। दूसरी ओर विपक्षियों में खुद को सबसे बड़ा मोदी विरोधी साबित करने की होड़ चल रही है ताकि देश के उस 68 फीसदी वोट को अपने पक्ष में एकजुट किया जा सके जिसने मोदी लहर के बावजूद 2014 में भाजपा को अस्वीकार कर दिया था। उस वोट की दिशाहीनता के कारण सामने आये पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजे को पलटने के लिये उसे दिशा देने की कोशिशों में राहुल गांधी से लेकर ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल ही नहीं बल्कि नीतीश कुमार भी पिले हुए हैं। चाहे इसके लिये नोटबंदी का विरोध करना पड़े या फिर सेना की कार्यप्रणाली पर सियासत करनी पड़े, इनका इकलौता मकसद है खुद को मोदी के सबसे तगड़े विरोधी के तौर पर प्रस्तुत करना। तभी तो जनता मस्त है लेकिन ये लोग जनहित की दुहाई देने में व्यस्त हैं। मोदी का विरोध करने के क्रम में जो नहीं बोलना था वह भी बोला जा रहा है क्योंकि इन्हें पता है कि अब जो भी चुनाव होगा वह उनके कार्यकाल की कमियों, खामियों व गलतियों को सामने रखकर नहीं बल्कि मोदी सरकार के कामकाज को लेकर होगा। तभी तो कांग्रेसनीत संप्रग के कार्यकाल में ही अडाणी समूह पर 72,632 करोड़ और अनिल अंबानी पर 132 हजार करोड़ बाकी रहने और 2004-05 से लेकर 2012-13 के बीच विभिन्न कंपनियों का 36.5 लाख करोड़ का कारपोरेट कर्ज माफ किये जाने के बावजूद मोदी सरकार को ही अडाणी-अंबानी व कारपोरेट क्षेत्र का पैरोकार बताया जा रहा है। लेकिन अपनी बात कोई नहीं कर रहा। खैर, सच तो यह है कि गंगा-यमुना में कितना ही उफान क्यों ना आ जाये लेकिन सरस्वती सरीखे विशुद्ध जनपक्ष की अविरण-निर्मल धार ही त्रिवेणी का वास्तविक स्वरूप पहले भी तय करती आयी है और आगे भी करती रहेगी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

सोमवार, 19 दिसंबर 2016

‘....मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना’

‘....मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना’


उल्टे-सीधे वायदे करके सियासी जमात के लोग तो हमेशा से ही आम लोगों को उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं। लेकिन शायद यह पहला मौका है जब जनता को अपने मायावी सम्मोहक जाल में उलझानेवाले इन दिनों खुद ही उलझन में हैं। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा कि करें तो क्या करें। किस दिशा में आगे बढ़ें। धारा के साथ बहें या उसके विपरीत दिशा में तैरने की कोशिश करें। किसी को कुछ पता नहीं चल रहा। सभी पूरी ताकत से हाथ-पांव मारते हुए बहे जा रहे हैं, चले जा रहे हैं। कभी धारा के साथ तो कभी धारा के विपरीत। कभी इस दिशा तो कभी उस दिशा। इस उलझन में इनकी बुद्धि इस कदर भ्रमित हो गयी है कि जापान जाने के लिये चीन की राह पकड़ ले रहे हैं। हालांकि मुल्क के सियासी रहनुमाओं की इस दिशाहीनता का सीधा खामियाजा देश के जन सामान्य को अवश्य भुगतना पड़ रहा है लेकिन सिर्फ जनता ही है जिसके चेहरे पर सही दिशा में आगे बढ़ने की खुशी स्पष्ट दिख रही है। वर्ना बाकी सभी पर गफलत ही हावी है। मतिभ्रम की स्थिति में सिर्फ सत्तापक्ष और विपक्ष ही नहीं बल्कि न्यायपालिका और कार्यपालिका भी दिख रही है। तभी तो जनहित याचिका दायर करने का रिकार्ड कायम करने की दिशा में आगे बढ़ रहे अश्विनी उपाध्याय से न्यायपालिका तंज कसते हुए पूछ रही है कि क्या उन्होंने इस काम को ही अपना पेशा बना लिया है? भाई, वकील का तो काम ही है याचिका दाखिल करके इंसाफ की मांग करना। इससे क्या फर्क पड़ता है कि वह क्यों और किसके लिये याचिका दाखिल कर रहा है। लेकिन अदालत को चुभ गयी तो चुभ गयी। अब अदालती टिप्पणी की आलोचना तो की नहीं जा सकती। लेकिन इससे यह तो समझा ही जा सकता है कि अदालतें किस मानसिक अवस्था से गुजर रही हैं। आलम यह है कि सरकार को सिर्फ सालाना बजट बनाने की ही स्वतंत्रता मिली हुई है वर्ना बाकी हर काम में उसे अदालत का अड़ंगा झेलना पड़ रहा है और उसे अदालती सम्मति से ही कोई भी काम करने की छूट हासिल है। लेकिन अब जबकि नोटबंदी के मसले पर भी अदालत ने सरकार का हाथ-पांव बांधने की दिशा में कदम आगे बढ़ा दिया है तब किसी को भी ऐसा लगना स्वाभाविक ही है कि अब शायद देश की अर्थव्यवस्था का मनमुताबिक संचालन करने की स्वतंत्रता भी सरकार के पास ज्यादा दिनों तक ना बचे। ऐसा ही हाल बैंकों का है जिसे सरकार ने हर बचतखाता धारक को सप्ताह में 24 हजार रूपया निकासी की सुविधा देने का निर्देश दिया हुआ है। लेकिन बैंक में कहां, किसको और कितनी रकम मिल पा रही है इससे सभी वाकिफ हैं। नोटबंदी के बाद बैंककर्मियों ने शायद खुद को खुदा के समकक्ष समझ लिया था वर्ना आज यह नौबत नहीं आती कि सत्ताधारी दल को उनके कामकाज के प्रति सार्वजनिक तौर पर अफसोस का इजहार करने के लिये मजबूर होना पड़े। निश्चित तौर पर इसे व्यवस्था का मतिभ्रम ही माना जाएगा जिसके चक्कर में पड़कर उसने आम लोगों को घनचक्कर बनाकर अपना चक्कर चलाने की गुस्ताखी की। यही हालत विपक्ष की भी दिख रही है जिसे ना आगे की राह सूझ रही है और ना ही पीछे का दरवाजा दिख रहा है। विपक्ष के मतिभ्रम का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस राज्यसभा में उसे बहुमत हासिल है वहां उसने नोटबंदी के मसले पर साधारण नियम के तहत चर्चा स्वीकार कर ली लेकिन जिस लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद पर दावा करने लायक आंकड़ा भी उसके पास उपलब्ध नहीं हैं वहां उसने मतदान की व्यवस्थावाले नियम के तहत बहस कराने की ऐसी जिद पकड़ी कि संसद का पूरा शीतसत्र हंगामें की भेंट चढ़ गया। कांग्रेस अंत तक यह तय नहीं कर पायी कि उसे संसद में क्यों और कैसी भूमिका अख्तियार करनी है। नतीजन सत्र गुजर जाने के बाद भी कोई कांग्रेसी नेता दो-टूक शब्दों में यह बताने की स्थिति में नहीं दिख रहा है कि शीतसत्र का अंजाम लाभदायक रहा अथवा नुकसानदायक। सरकार भी मतिभ्रम की ऐसी ही स्थिति से दो-चार होती दिख रही है। इसने एक झटके में ही नोटबंदी का फैसला तो ले लिया लेकिन इसे लागू करने की ठोस राह पर आगे बढ़ने में वह नाकाम रही। तभी तो दैनिक आधार पर नियमों का निर्धारण भी हुआ और निस्तारण भी। कोई एक दिशा तय ही नहीं हुई है। तभी तो मान्यता सूची में शामिल देश के सभी 1761 राजनीतिक दलों को अपने खाते में पुराने नोट जमा कराने की छूट दे दी गयी है। जाहिर है कि इस छूट का लाभ सभी सात राष्ट्रीय, 48 क्षेत्रीय और 1706 जाने-अंजाने दलों को मिलनेवाला है। वह भी तब जबकि राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा अंजाम दी जा रही कालेधन को सफेद करने की कारस्तानी का स्टिंग आॅपरेशन भी सामने आ चुका है। मतिभ्रम का आलम यह है कि एक तरफ नकदी के संकट ने बैंकिंग व्यवस्था की साख को सवालों में ला दिया है और दूसरी तरफ छोटी बचत योजनाओं पर नाम मात्र ब्याज की परंपरा को आगे बढ़ाया जा रहा है। खैर, ऐसी तमाम घटनाओं को समग्रता में देखने से इतना तो पता चल ही रहा है कि सामान्य परिस्थितियों में तो सिर्फ आवाम ही दिग्भ्रमित होती है लेकिन वक्त की चुनौतियां निजाम को भी दिग्भ्रमित करने की पूरी क्षमता रखती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  
@ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur  

बुधवार, 14 दिसंबर 2016

अब हवाएं ही करेंगी रौशनी का फैसला....

‘रहिमन विपदा हूं भली, जो थोरे दिन होय’ 

रहीम ने थोड़े दिनों के लिये आये उन कठिन व मुश्किल परिस्थितियों को इस लिहाज से बेहतर बताया है कि वे आती तो सीमित समय के लिये हैं लेकिन असीमित लोगों की भीड़ में शामिल दोस्तों और दुश्मनों की सटीक पहचान करा दे जाती है। वाकई विपदा के वक्त सिर्फ विरोधी ही अपना हिसाब चुकता करने का प्रयास नहीं करते बल्कि दोस्तों की भीड़ में शामिल दुश्मन भी अपना बदला लेने के लिये सक्रिय हो जाते हैं। फिलहाल ऐसी ही परिस्थिति में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी घिरते दिख रहे हैं जिसमें विरोधियों की चैतरफा घेरेबंदी के बीच अब उन अपनों ने भी उन पर प्रहार करने का जुगाड़ तलाशना शुरू कर दिया है जो अब तक उनके प्रभाव के सामने विरोध करने के मौके का अभाव झेल रहे थे। हालांकि जिन कठिन परिस्थितियों का मोदी को सामना करना है उसका वक्त भी उन्होंने ही मुकर्रर किया है, जमीन भी उन्होंने ही तैयार की है और वार के लिये हथियार का चयन भी उन्होंने ही किया है। लिहाजा अब जबकि जंग छिड़ने में सिर्फ पंद्रह दिन का वक्त बच गया है तब इसका सामना तो उन्हें करना ही होगा। वापसी का कोई रास्ता छोड़ना तो वैसे भी उनकी फितरत में नहीं है। लिहाजा टक्कर तो होगी। हिसाब तो मांगा ही जाएगा। आखिर पचास दिन में परिस्थितियां पूर्ववत कर देने का वायदा भी तो उन्होंने ही किया था। हर भारतीय के खाते में पंद्रह लाख रूपया आने की बात को भले ही चुनावी जुमला बताकर पल्ला झाड़ लिया गया हो। लेकिन इस दफा तो बचने की वह राह भी नहीं है क्योंकि पचास दिन में परिस्थितियां पूर्ववत करने की बात वे लगातार करते आ रहे हैं। उनके इस दावे ने ही सियासी टकराव की ऐसी जमीन तैयार कर दी है जिस पर खड़े होकर विरोधियों के हमले का सामना करने के अलावा अब उनके पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं बचा है। हालांकि लंबी-चैड़ी आंकड़ेबाजी में उलझने के बजाय सीधे-सादे शब्दों में समझा जाये तो नोटबंदी के कारण जितनी धनराशि को प्रचलन से बाहर किया गया था उसमें से तकरीबन दो-तिहाई बैंकों में जमा कराया जा चुका है और जितनी धनराशि से देश की पूरी अर्थव्यवस्था संचालित हो रही थी उसका आधा हिस्सा नये नोटों की शक्ल में लोगों को लौटाया जा चुका है। यानि पचास दिन में परिस्थितियां पूर्ववत करने के वायदे का आधा हिस्सा तो पूरा हो चुका है। लिहाजा प्रधानमंत्री की नजर से देखें तो ग्लास आधा भरा जा चुका है जबकि वायदा पूरा करने के लिये मांगे गये वक्त का दो-तिहाई हिस्सा गुजर जाने के बावजूद विरोधियों के नजरिये से ग्लास अभी तक आधा खाली ही है। दूसरी ओर जिस रफ्तार से काम चल रहा है उसे देखते हुए यह उम्मीद करना ही बेकार है कि अगले 15 दिनों में उतना काम पूरा कर लिया जाएगा जितना बीते 35 दिनों में किया जा चुका है। यानि मोदी की नजर और विरोधियों के नजरिये के बीच भीषण संघर्ष तो तय ही है। इसके लिये विरोधियों ने पूरी तैयारी भी कर रखी है। मोदी की वायदाखिलाफी के खिलाफ यूपी में चैतरफा चढ़ाई होनेवाली है तो बिहार में लालू के लाल भी कमाल कर दिखाने के लिये लालायित हैं। पश्चिम बंगाल में ममता के मुरीदों की टोली सड़क पर उतरेगी तो दिल्ली में आप के जनाबों की फौज पूरा हिसाब मांगेगी। कांग्रेस ने तो इसे अब तक का सबसे बड़ा घोटाला बताना अभी से शुरू कर दिया है। जाहिर है कि पचास दिन पूरा होने के बाद उसके विरोध का जलवा-जलाल देखने लायक होगा। इसके अलावा और भी कई छोटे मियां व बड़े मियां हैं जिनके तेवरों की तान पूरा आसमान सिर पर उठाने का अक्सर ऐलान करती रहती हैं। यानि समग्रता में देखें तो विरोधियों के हौसले पूरी तरह बुलंद हैं क्योंकि अब मामला सिर्फ नोटबंदी का नहीं है। बात उस बात की है जो बातों ही बातों में कह तो दी गयी है लेकिन उसके तय वक्त पर पूरा हो पाने की बात बनती नहीं दिख रही। हालांकि विरोधियों के एकजुट हमले का सामना मोदी पहले भी करते रहे हैं और इस बार भी कर ही लेंगे। लेकिन असली दर्द तो अपनों की ओर से दिये जाने की संभावना है जो मौके की ताक में पहले से ही बैठे हुए हैं। बताया जाता है कि ना सिर्फ मार्गदर्शकों का मंडल कुपित होकर कमंडल उठाने के लिये तैयार बैठा है बल्कि मौजूदा केबिनेट के उन रत्नों की लालिमा भी लगातार बढ़ती जा रही है जिन्हें लत्ते में लपेटकर किनारे लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी थी। यानि इम्तहान लेने की तैयारी में अपने भी हैं और बेगाने भी। इसमें बेगानों के लिये वक्त तो मोदी ने खुद ही मुकर्रर कर दिया है जबकि सगे-संबंधियों को संगठन की ओर से राष्ट्रीय कार्यकारिणी की शक्ल में मौका और मंच मुहैया कराया जा रहा है। बेगाने हिसाब मांगेंगे 28 से और अपनों को हिसाब देना होगा आठ को। दोनों के बीच फासला दस दिनों का रहेगा। लिहाजा इन दस दिनों के सीमित समय में ही अपने-परायों की पूरी पहचान हो जानी है। आक्रमण के पहले चरण की सफलता ही तय करेगी अंदरूनी हमले की आक्रामकता। टकराव आधा खाली बनाम आधा भरे का होना है जिसके बारे में फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि ‘अब हवाएं ही करेंगी रौशनी का फैसला, जिस दिये में जान होगी वह जला रह जायेगा।’ जैसी नजर, वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर # NAVKANT THAKUR

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

'और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा '

और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा 


‘और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।’ लेकिन यह बात उस आशिक को कैसे समझायी जाये जिसने इश्क के जुनून की आग में जिस्म ही नहीं बल्कि रूह भी झोंक देने का इरादा कर लिया हो। जरूरी नहीं है कि इश्क सिर्फ किसी हाड़-मांस की महबूबा से ही हो। जुनूनी चाहत किसी और लक्ष्य को हासिल करने की भी हो सकती है। मिसाल के तौर पर इन दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से देश की अर्थव्यवस्था को साफ-सुथरा और सुदृढ़ बनाने के लिये जुनूनी तरीके से अपने जिस्मो-जां सहित रूह तक को झोंक दिया वह बेशक महबूब वतन से उनके बेइंतहा मोहब्बत को ही दर्शाता है। लेकिन इश्क की राह पर आगे बढ़ने के क्रम में जिस तरह से बाकी मसलों, तथ्यों व जरूरतों की अनदेखी की गई है उसे कैसे सही कहा जा सकता है। इन राहों पर बदइंतजामी की बदनामियों से जुड़ी कहानियां अगर लगातार जोर पकड़ती दिख रही हैं तो इसकी सबसे बड़ी वजह वह जुनूनी जिद ही है जिसको पूरा करने के जोश में अगर होश की डोर को भी पकड़े रहने की पहल की गयी होती तो आज तस्वीर दूसरी होती। लेकिन जिस तरह से पूरा देश अव्यवस्था व अस्त-व्यस्तता के दौर से गुजर रहा है उसकी बड़ी जिम्मेवारी तो मोदी साहब की बनती है। वे कैसे इस जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ सकते हैं कि उन्होंने परिणाम की परवाह किये बिना ही निश्चित को छोड़कर अनिश्चित की ओर कदम आगे बढ़ाने की कोशिश की है। मसलन ऐसे देश के लिये कैशलेस व्यवस्था को लागू करने का सपना देखना कैसे सही माना जा सकता है जहां की 26 फीसदी आबादी के लिये आज भी काला अक्षर भैंस बराबर ही है। इसका मतलब तो यही हुआ कि एक-चैथाई से भी अधिक तादादवाली निरक्षर आबादी के हितों की उन्हें कोई परवाह नहीं है। इसके अलावा इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिये था कि जिन 76 फीसदी लोगों तक शिक्षा का उजाला पहुंच चुका है उनमें कितनों की आर्थिक हैसियत ऐसी है कि वे हर महीने अपने मोबाइल में कम से कम 150 रूपये का डाटा पैक डलवा सकते हैं। क्योंकि इसके बिना तो ई-वाॅलेट की परिकल्पना साकार हो ही नहीं सकती। आज भी देश के अधिकांश इलाकों में 8 से 10 घंटे की बिजली कटौती होना बेहद ही सामान्य बात है। ऐसे में अर्थव्यवस्था को इंटरनेट के प्लेटफाॅर्म से संचालित करने में आम लोगों को ही नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है इसकी शायद उन लोगों ने कल्पना भी नहीं की होगी जिन्होंने देश को कैशलेस व्यवस्था की ओर ले जाने की सलाह दी है। खैर, कैशलेस व्यवस्था का विचार तो अभी सैद्धांतिक तौर पर ही अपनाया गया है और माना जा सकता है कि नकदी की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करने में पेश आ रही परेशानियों के तात्कालिक हल के तौर पर इस विचार को आगे बढ़ाया जा रहा है जिसका दूरगामी परिणाम बेहद ही लाभदायक साबित हो सकता है। लेकिन मसला है कि आखिर ऐसी मजबूरी और लाचारी की स्थिति पैदा ही क्यों होने दी गयी। आखिर इसकी जिम्मेवारी कौन लेगा? बिना किसी पूर्व तैयारी या इंतजाम के ही देश की अर्थव्यवस्था से 86 फीसदी नकदी को अचानक ही चलन से बाहर कर देने का फैसला भले ही कालाधन, भ्रष्टाचार और नकली नोट की समस्या से एक साथ ही निजात हासिल करने के लिये लिया गया हो लेकिन इस फैसले को लागू करने की जो कीमत देश के आम लोगों को चुकानी पड़ रही है वह वाकई बहुत बड़ी है। सच तो यह है कि बैंकिंग व्यवस्था का विकास और संसाधनों का विस्तार किये बिना ही इतना बड़ा कदम उठाने की जल्दबाजी के कारण ही आज लोगों को इतनी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। भला यह भी कोई बात हुई। खाते में पैसा है लेकिन निकाल नहीं सकते। अपना ही पैसा किसी और के खाते में डाल नहीं सकते। अपनी खून-पसीने की कमाई को मनमुताबिक खर्च नहीं कर सकते। यह तो इंतहा है अव्यवस्था की। वह भी तब जबकि नोटबंदी का ऐलान हुए एक महीना होने को आया। उस पर कोढ़ में खाज यह कि बाजार ने सरकार की मार का बदला उपभोक्ताओं से लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। कभी नमक की किल्लत बताकर डेढ़ सौ रूपये की दर से बेचा जाता है तो कभी उत्पादन में कमी की दलील देकर सामान की कीमतें बढ़ा-चढ़ाकर वसूली जाती हैं। खास तौर से खाद्य पदार्थों की कीमतों में जिस कदर लगातार तेजी का माहौल है वह वाकई हैरान-परेशान करनेवाला है। आटा-चीनी व चावल से लेकर तेल-बेसन और अदरक-लहसुन तक की खुदरा कीमतों में पिछले महज एक माह में 25 से 40 फीसदी तक का इजाफा दर्ज किया जा चुका है। यानि एक तरफ लोगों को बैंक की लंबी कतारों में लगने के बावजूद नकदी नहीं मिल पा रही और दूसरी ओर बाजार के बिचैलिये उसका खून चूसने पर आमादा हैं। लेकिन निजाम नोटबंदी से जुड़ी नीतियां बनाने में मस्त है, आवाम चैतरफा मार झेलते हुए पस्त है और देश की पूरी आर्थिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त है। लिहाजा किसी को इतनी फुर्सत ही नहीं है कि वह बाकी मसलों की ओर झांकने की भी जहमत उठाये। अब कौन, किसको, कैसे और क्यों बताये कि और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

सहमति से हो रहा असहमति का दिखावा!

सहमति से हो रहा असहमति का दिखावा! 


नोटबंदी को लेकर संसद से सड़क तक जारी सियासी महासंग्राम की तस्वीर को गौर से जांचा-परखा जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि तमाम सियासी दलों की ‘निगाहें कहीं और हैं, निशाना कहीं और।’ मामला अगर नोटबंदी के मुद्दे को लेकर सामान्य व स्वाभाविक मतभेद का होता तो इसे दूर किया भी जा सकता था। लेकिन सच पूछा जाये तो अंदरूनी तौर पर पूरा मामला कतई ऐसा नहीं है जैसा दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। बेशक सतही तौर पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच आपसी मतभेद इस कदर प्रबल दिखाई पड़ रहा है कि दोनों बातचीत के लिये मिल-बैठना भी गवारा नहीं कर रहे हैं। मगर गहराई में उतर कर देखने से पूरे मामले की तस्वीर बिल्कुल इसके उलट दिखाई पड़ती है। सच तो यह है कि नोटबंदी के पूरे प्रकरण में मतभेद का कोई ऐसा मसला ही नहीं है जिसके कारण संसद की कार्रवाई को लगातार बाधित किया जाये और सड़क पर एकजुट होकर सरकार के खिलाफ हल्ला-बोल किया जाये। मतभेद की तस्वीर ना तो उन मामलों में दिख रही है जिसके तहत सरकार की सोच को विपक्ष जायज बता रहा है और ना ही उन मामलों में जिसके तहत नोटबंदी के तौर-तरीकों व अव्यवस्थाओं पर उंगली उठाई जा रही है। यहां तक कि मतभेद का मसला तो यह भी नहीं है जिसके तहत पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने नोटबंदी के नतीजे में देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार मंद पड़ने और जीडीपी में गिरावट आने की बात कही है। इन तमाम मसलों पर जो बातें विपक्ष कह रहा है वही सोच सरकार की भी है। विपक्ष की ओर से भी यही बताया जा रहा है कि कालेधन और भ्रष्टाचार की कमर तोड़ी जानी चाहिये और सरकार ने भी इसी सोच के तहत एक ही झटके में एक हजार और पांच सौ के नोट को चलन से बाहर करने का कदम उठाया है। इसी प्रकार नोटबंदी के बाद आम लोगों को भुगतनी पड़ रही परेशानियों से अगर विपक्ष का कलेजा फट रहा है तो सरकार भी इसको लेकर कतई कम चिंतित नहीं है। प्रधानमंत्री से लेकर वित्तमंत्री सहित सत्तापक्ष का पूरा कुनबा इस हकीकत को बेहिचक स्वीकार कर रहा है कि नोटबंदी के फैसले को लागू करने के क्रम में आम लोगों को काफी परेशानी उठानी पड़ रही है। तभी तो सरकार का हर विभाग लगातार दैनिक आधार पर जमीनी स्थितियों की सिर्फ समीक्षा ही नहीं कर रहा बल्कि नीति-नियमों में जरूरत के मुताबिक लगातार तब्दीली भी की जा रही है। इसके अलावा सरकार को भी पता है कि जब देश की अर्थव्यवस्था को संचालित करनेवाली नकदी के 87 फीसदी हिस्से को अचानक ही चलन से बाहर कर दिया जाएगा तो तात्कालिक तौर पर अर्थव्यवस्था की गाति में कमी आयेगी ही। लिहाजा इस मसले को भी सत्तापक्ष और विपक्ष के मौजूदा मतभेद की वजह नहीं माना जा सकता। खैर, अगर पूरा विवाद सिर्फ नीति-नीयत को लेकर सैद्धांतिक व वैचारिक मतभेद का होता तो आम सहमति बनाने और परस्पर अपनी बात समझने-समझाने की कोशिशें भी दिखाई पड़तीं। लेकिन आलम यह है कि सत्ता पक्ष के वरिष्ठ रणनीतिकारों द्वारा बुलाई गई अनौपचारिक बैठक का भी विपक्षी दलों द्वारा यह कहकर बहिष्कार कर दिया जाता है कि फिलहाल वे किसी समझौता वार्ता में हिस्सा लेने के लिये तैयार नहीं हैं। अब ऐसी सूरत में कथित मतभेद दूर हो भी तो कैसे? यानि बात स्पष्ट है कि मतभेद दूर करके सहमति की राह पर आगे बढ़ने के लिये फिलहाल कोई भी पक्ष तैयार नहीं है। दूसरी ओर सरकार भी मौजूदा गतिरोध के जारी रहने में ही अपनी भलाई देख रही है। इसकी वजह भी स्पष्ट है कि बातचीत के टेबुल पर आने से पहले देश की आर्थिक अस्त-व्यस्तता और अव्यवस्था को पटरी पर ले आया जाये ताकि विपक्ष के तीर का जवाब देने में अपना तूणीर भी सक्षम हो सके। इसके अलावा विपक्ष को भी पता है कि वक्त बीतने के साथ जब नोट बदलने का काम पूरा हो जाएगा तो नोटबंदी के कारण लोगों को झेलनी पड़ रही परेशानी भी समाप्त हो जाएगी और जल्दी ही लोग मौजूदा दुख-दर्द को भी भुला देंगे। ऐसी सूरत में जब दर्द ही समाप्त हो जाएगा तो मरहम का ख्वाहिशमंद ही कौन बचेगा। लिहाजा कष्ट व परेशानियों के मौजूदा सैलाब में अपनी सियासी नाव उतारने के बजाय सुलह-समझौते की राह अपनाकर विपक्षी दल भी सरकार को सियासी बढ़त लेने का मौका नहीं देना चाह रहे हैं। तभी तो नोटबंदी से जुड़े किसी भी मसले पर कोई बड़ा नीतिगत मतभेद या भारी सैद्धांतिक असहमति नहीं होने के बावजूद विपक्षी ताकतें जन आक्रोश को उभारने और उसे अपने मनमाफिक दिशा देने का पुरजोर प्रयास कर रही हैं। दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट की ही तरह सरकार को भी इस मामले में जन आक्रोश भड़कने की आशंका महसूस हो रही है। तभी तो नोटबंदी के मामले को देशहित व राष्ट्रवाद से जोड़कर लोगों को सब्र के साथ इस समस्या के समाधान की राह पर डटे रहने के लिये प्रेरित किया जा रहा है। यानि समग्रता में देखा जाये तो सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच भीषण टकराव की जो तस्वीर दिख रही है उसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है। अलबत्ता हकीकत यह है कि इस तूफान का सियासी इस्तेमाल करने के लिये मतभेद का दिखावा किया जा रहा है ताकि बदलाव के दौर में भी अपने हिस्से की जमीन पर कब्जा बरकरार रह सके। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

सोमवार, 21 नवंबर 2016

‘सियासी सामंजस्य पर भारी नेतृत्व की दावेदारी’

‘सियासी सामंजस्य पर भारी नेतृत्व की दावेदारी’

नोटबंदी के बाद देश में पैदा हुए राजनीतिक हालातों को सतही तौर पर देखा जाये तो आम लोगों को भुगतनी पड़ रही परेशानियों की आड़ लेकर केन्द्र की मोदी सरकार पर चैतरफा सियासी वार का सिलसिला लगातार जारी है। तमाम विरोधियों ने संसद से लेकर सड़क तक भारी कोहराम मचाया हुआ है। कोई नोटबंदी का फैसला वापस लिये जाने की मांग कर रहा है तो कोई इसे लागू करने की मियाद बढ़ाने की वकालत कर रहा है। कोई इस पूरे खेल में भारी घोटाले की बात कह कर संयुक्त संसदीय समिति से इसकी जांच कराने की अपील कर रहा है तो कोई इसकी तुलना उरी में हुए आतंकी हमले से करते हुए आक्रोश जता रहा है कि जितने जवान उरी में शहीद हुए उससे दोगुनी तादाद में आम लोगों को सरकार के इस फैसले के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी है। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो विपक्षी दलों को मोदी सरकार का यह फैसला कतई रास नहीं आया है लिहाजा वे खुलकर इसकी मुखालपत करने से भी नहीं हिचक रहे हैं। यहां तक कि सरकार के भीतर भी असंतोष का भाव स्पष्ट दिख रहा है लेकिन गनीमत है कि सत्ता के साझीदारों ने भावी राजनीतिक लाभ के लोभ में अपनी जुबान बंद रखना ही बेहतर समझा है। हालांकि शिवसेना को अपवाद के तौर पर अवश्य गिना जा सकता है जो केन्द्र से लेकर महाराष्ट्र तक की सत्ता में साझेदारी के बावजूद खुल कर सरकार के फैसले का विरोध करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। यानि पीड़ित सभी हैं। बिलबिलाहट हर तरफ है। लेकिन पूरे मामले का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि सैद्धांतिक तौर पर सरकार के फैसले का पुरजोर विरोध करनेवाली पार्टियां एकजुट होकर अपनी बात रखने के प्रति जरा भी दिलचस्पी नहीं दिखा रही हैं। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर सरकार के इस फैसले के खिलाफ विपक्षी खेमे को लामबंद करने का प्रयास कांग्रेस से लेकर तृणमूल कांग्रेस ने भी किया लेकिन ना तो तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी की अगुवाई में सरकार की मुखालफत करने के लिये सहमति बन पायी और ना ही कांग्रेस को आगे रहने का मौका देने के प्रस्ताव पर आम सहमति की मुहर लग सकी। ममता ने बीती को बिसार कर वामदलों को भी अपने साथ जुड़ने का आग्रह किया लेकिन वामपंथियों को यह प्रस्ताव रास नहीं आया। हालांकि अप्रत्याशित तौर पर शिवसेना ने अवश्य ममता की अगुवाई में राष्ट्रपति भवन तक हुए विरोध मार्च में हिस्सेदारी की लेकिन उसके पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था। कांग्रेस उसे वैसे भी अपने साथ जोड़ना गवारा नहीं कर सकती और बाकी कोई अन्य ऐसा खेमा अस्तित्व में ही नहीं आया था जिसने सरकार के खिलाफ खुलकर मैदान में उतरने की रणनीति अमल में लायी हो। काफी हद तक शिवसेना सरीखी हालत ही दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी की भी रही जिसका एकसूत्रीय एजेंडा प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ मुखर दिखना ही रहता है। लेकिन कांग्रेस के साथ समानांतर दूरी बनाये रखना भी उसके लिये आवश्यक है वर्ना मोदी के खिलाफ बनारस में लोकसभा चुनाव लड़के अरविंद केजरीवाल ने जिन सियासी संभावनाओं का बीजारोपण किया था उसका भविष्य में कुछ परिणाम दे पाने की उम्मीद भी समाप्त हो जाएगी। साथ ही अगामी विधानसभा चुनावों का समीकरण भी विपक्षी एकता की राह में बाधक के तौर पर ही सामने आया है क्योंकि कांग्रेस के नवगठित खेमे से अगर सपा-बसपा ने दूरी बनाये रखी है तो इसकी काफी बड़ी वजह यूपी की जमीनी लड़ाई भी है। यानि विपक्षी खेमे के पूरे गुणा-भाग पर समग्रता पूर्वक निगाह डाली जाये तो इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता है कि चुनावी तकाजों ने सैद्धांतिक सियासी एकता की राह में नेतृत्व को लेकर गतिरोध उत्पन्न कर दिया है और कोई भी दल आसानी से किसी अन्य का नेतृत्व स्वीकार करने के लिये कतई तैयार नहीं दिख रहा है। हालांकि सैद्धांतिक तौर पर इस बात से सभी सहमत हैं कि भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत महागठजोड़ की जरूरत है क्योंकि विरोधी वोटों के बिखराव के कारण ही महज 32 फीसदी वोट पाने के बावजूद पिछले लोकसभा चुनाव में अपने दम पर पूर्ण बहुमत अर्जित करने में भाजपा को कामयाबी मिल गयी थी। लेकिन मसला नेतृत्व को लेकर अटक रहा है। पिछली दफा समाजवादी कुनबे को इकट्ठा करके सपा ने नये गठजोड़ का बीजारोपण भी किया तो बाकियों की महत्वाकांक्षा की तपिश ने उस बीज का ही नाश कर दिया। अब एक बार फिर कांग्रेस ने गैर-भाजपाई गठजोड़ की धुरी के तौर पर खुद को प्रस्तुत किया तो वामदलों सहित गिनती गिनाने के लिये कुल ग्यारह दलों ने उसकी बैठक में शिरकत अवश्य की लेकिन संसद की दहलीज के भीतर आते-आते ‘बिछड़े सभी बारी-बारी’ की स्थिति बन गयी। वहीं नये गठजोड़ के संभावित नेतृत्वकर्ताओं की सूची के कई बड़े नामों ने नोटबंदी के मसले को अपनी संभावना मजबूत करने के हथियार के तौर पर आजमाने से परहेज बरतते हुए सरकार के कदम का समर्थन करना ही मुनासिब समझा। यानि नेतृत्व के अभाव ने सियासी सामंजस्य का माहौल बनने ही नहीं दिया जिसके नतीजे में नोटबंदी के हथियार का वार अब सरकार का बाल बांका करने में भी बेकार साबित होता ही दिख रहा है। लेकिन कहते हैं कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है। लिहाजा गैर-भाजपाई गठजोड़ की आवश्यकता के लिये किसी सर्वमान्य नेतृत्वकर्ता के आविष्कार की संभावना बदस्तूर बरकरार है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur 

मंगलवार, 15 नवंबर 2016

‘सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया’

‘सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया’

वाकई ‘कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त, सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया।’ मौजूदा सियासी माहौल में यह बात सोलह आना सच साबित होती दिख रही है। वर्ना ऐसा कैसे हो सकता था कि देश की अर्थव्यवस्था को ही नहीं बल्कि आंतरिक व बाहरी शांति-सुरक्षा से लेकर सामाजिक संरचना तक को खोखला कर रहे कालेधन व नकली नोट से निजात दिलाने की कोशिशों का इस कदर पुरजोर विरोध होता। विरोध करनेवालों की कतार पर निगाह डाले तो परस्पर धुर विरोधी माने जानेवाले भी आपस में ‘साथी हाथ बढ़ाना’ की गुहार लगाते दिखाई पड़ रहे हैं। हर मसले पर एक दूसरे की राह काटनेवाले आज एक ही लीक पर एकजुट होते और परस्पर सहयोग व सहारे का आदान-प्रदान करते नजर आ रहे हैं। कुछ गठजोड़ सार्वजनिक तौर पर तैयार हो रहे हैं तो कुछ पर्दे के पीछे। सबके बीच तारतम्यता भी है और तालमेल भी। जमीन पर भले ही टकराव हो लेकिन मुद्दे की बात पर कोई मतभेद नहीं है। और मुद्दा है पैसा। वह पैसा जिसे मोदी सरकार ने एक ही झटके में कूड़ा बना दिया है। समझ नहीं आ रहा कि इसे कहां गाड़ें, कहां जलाएं या कहां ले जाएं। चुनाव सिर पर है। बिन पैसे के चुनावी बारात निकले भी तो कैसे। दूल्हा तैयार है मगर बाराती खिसक रहे हैं। बिन गुड़ के मक्खी भला टिके भी तो कैसे। और गुड़ पर तो तेजाब पड़ गया है। अब यह तेजाबी गुड़ न तो खाने लायक बचा है और ना ही खिलाने लायक। लिहाजा सबका बौखलाना स्वाभाविक ही है। हालांकि इस बौखलाहट से अंदरूनी तौर पर उस पार्टी के लोग भी अछूते नहीं हैं जिसकी अगुवाई में चल रही सरकार ने नोटबंदी का कारनामा कर दिखाया है। लेकिन उनकी मजबूरी है कि वे इसका विरोध भी नहीं कर सकते। तभी तो इस मसले को चुनावी मुद्दे के तौर पर भुनाने के लिये तो भगवा ब्रिगेड बुरी तरह बेताब है लेकिन शीर्ष नेतृत्व के इशारों को अनसुना करते हुए जमीनी स्तर पर सरकार के प्रति दिख रहे खीझ व रोष को कम करने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया जा रहा है। यानि दुखी सब हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कोई कह रहा है और कोई चुपचाप सह लेना ही बेहतर समझ रहा है। वर्ना अगर ये राजनीतिक दल इतने ही पाक-साफ होते तो खुद को सूचना के अधिकार के दायरे में लाए जाने के प्रस्ताव का विरोध ही क्यों करते। देश के किसी भी दल ने अगर इस प्रस्ताव को स्वीकार करके पारदर्शिता का मुजाहिरा करने की हिम्मत नहीं दिखाई तो इसका सीधा मतलब तो यही है कि कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है। लेकिन विडंबना देखिये कि पर्दा तो यूं ही पड़ा रहा गया और राज भीतर ही खाक हो गया। अब क्या छिपाना और किससे छिपाना। कम्बख्त ने कुछ रहने ही नहीं दिया जिस पर पर्दा डालने की जरूरत पड़े। तभी तो अब सभी अपने ही हाथों अपना पर्दा हटाकर सामने आने लगे हैं। खुल कर यह मांग की जाने लगी है कि कुछ मोहलत दे दी जाये। लेकिन अभी तक किसी ने अपने लिये मोहलत मांगने की जहमत नहीं उठायी है। सब आड़ ले रहे हैं आम आदमी की। गरीब, किसान, मजदूर और महिलाओं की। लेकिन गरीब और मजदूर के पास कभी कुछ रहा ही नहीं है जिसके लिये उसे मोहलत की दरकार हो। किसान पहले ही से इस सारे पचड़े की पकड़ से आजाद रहा है। रहा सवाल महिलाओं का तो उनके रीते-सूने खाते में पहली बार तो बहार की दस्तक सुनाई पड़ी है लिहाजा वे भला क्यों परेशान हों। यानि आड़ भी उसकी ली जा रही है जिसे इसकी दरकार ही नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त की स्थिति है। अगर वास्तव में किसी की आड़ लेनी थी तो उसकी ली जानी चाहिये थी जिसे वास्तव में इससे तगड़ी चोट पड़ी है। लेकिन उसकी आड़ लें तो रही-सही जनसंवेदना भी जाती रहेगी। लेकिन दिल है कि मानता नहीं टाईप की टीस-खीझ उतारना भी तो जरूरी है। लिहाजा सब रो रहे हैं उस आम आदमी के लिये जो एटीएम की कतार में धक्का-मुक्की करने के लिये मजबूर होने के बावजूद खुश है। वैसे भी अपने यहां तो यही परंपरा रही है कि अपने दुख से कोई दुखी नहीं होता बशर्ते बाकी लोग भी उसकी ही तरह दुखी और परेशान हों। अधिकांश लोगों को दुख होता है पड़ोसी की खुशी देखकर। यही हालत सियासी दलों की भी है। बहनजी ने तो खुल्ले में कह भी दिया है कि सरकार ने अपना बंदोबस्त तो पहले ही कर लिया और बाकियों को झटके में हलाल कर दिया है। अब यह बात तो वैसे भी किसी के भी हलक से नीचे नहीं उतर सकती कि अपने लिये बचाव का इंतजाम किये बगैर ही कोई ऐसा बम फोड़ सकता है जिसमें सबके साथ उसका हित भी स्वाहा हो जाये। लिहाजा बम फोड़नेवाले से सबका जलना-कुढ़ना स्वाभाविक ही है। इसी जलन-कुढ़न ने वह मंच तैयार कर दिया है जिस पर सब एकजुट हो रहे हैं। खैर, बम फोड़नेवाले के वजूद पर इस धमाके का कितना असर हुआ है यह तो सही वक्त पर ही पता चलेगा लेकिन बाकियों ने अपने फफोले को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की जो कोशिश की है उससे उनकी सादगी, शुचिता, इमानदारी और पारदर्शिता पर लोगों को चटखारे लेने का मौका तो मिल ही गया है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

शुक्रवार, 11 नवंबर 2016

‘जबरा मारे भी और रोने भी ना दे’

‘जबरा मारे भी और रोने भी ना दे’


मोदी सरकार ने कालेधन की समानांतर अर्थव्यवस्था के खिलाफ जो सर्जिकल स्ट्राइक की है उसकी आंधी में जिनकी बिछी-बिछाई बिसात तिनके की तरह उड़ रही हो उन्हें इसका दुख-दर्द होना तो स्वाभाविक ही है। लेकिन दिल में दर्द और नजरों में नमी के बावजूद वे ना तो अपना दर्द बयान कर पा रहे हैं और ना ही इसका कोई इलाज तलाश पा रहे हैं। उस पर कोढ़ में खाज की बात यह है कि उन्हें इस सर्जिकल स्ट्राइक की तारीफ भी करनी पड़ रही है। इसे देशहित में उठाया गया बेहतरीन कदम भी बताना पड़ रहा है। ऐसे वक्त में रहीम की यह सीख ही उनके काम आ रही है कि ‘रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय, सुनि अठिलइहें लोग सब, बांटि न लइहें कोय।’ लेकिन मसला है कि अगर जख्म को मवाद की शक्ल में पिघलकर बह निकलने की राह ना मिले तो वह जानलेवा कैंसर में तब्दील हो जाता है। मगर इस मामले में यह सरकार इतनी संवेदनहीन है कि मारने के बाद रोने की इजाजत भी नहीं देती। खास तौर से इस सरकार का मुखिया इतना क्रूर और बेरहम है कि इसने मारने के बाद छटपटाने का भी मौका नहीं दिया। मार खाने का भी उत्सव मनाने के लिये मजबूर कर दिया है। मंगलगान गाना पड़ रहा है। जैसे सरहद पार करके देश में आतंक मचाने के मकसद से घुसपैठ करने की फिराक में बैठे आतंकियों को आधी रात के बाद हलाक करने की रणनीति अपनाई गयी थी उसी तर्ज पर कालेधन के दम पर देश में समानांतर अर्थव्यवस्था संचालित करनेवालों के खिलाफ तब सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया गया जब सारे बैंक बंद हो चुके थे। ना माल-मत्ता संभालने का मौका मिल सका ना खुद को संभालने का। अचानक ही घोषणा कर दी गयी पांच सौ और हजार के नोटों को चलन से बाहर करने की। जिस समानांतर व्यवस्था को खड़ा करने में पिछले कई दशकों में कई परिवारों की पीढ़ियां खप गयीं, जोंक की तरह समाज से माल-असबाब चूसकर पूरा साम्राज्य खड़ा किया गया, विश्व ग्राम व्यवस्था के चप्पे-चप्पे तक जिसकी पैठ बनायी गयी और भारत सरकार के सालाना बजट से भी अधिक का अर्थतंत्र कायम किया गया उसे एक झटके में ध्वस्त करने से पहले एक बार बताना भी जरूरी नहीं समझा गया तो इसे संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ना कहें तो और क्या कहें। एक बार के लिये संभलने का तो मौका दिया होता। कुछ नहीं तो कम से कम काले कारनामों पर सफेदी पोतने की गुंजाइश ही छोड़ दी जाती। लेकिन हालत यह कर दी गयी है कि अब पुराने नोट को बदलने के लिये बैंक लेकर जाने का मतलब है ‘आ बैल मुझे मार’ का न्यौता देना। आखिर बताया भी कैसे जाये कि कितने प्रत्याशियों से ढ़ाई-तीन सौ करोड़ की रकम लेकर उन्हें विधानसभा का टिकट दिया गया है। किन-किन घोटालों से कितने लाख जमा किये गये हैं। कितनों को चूना लगाया गया है। ये सब बातें बतायें भी तो कैसे। और अगर ना बतायें तो पूरी रकम में अपने ही हाथों आग लगाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा है। पुराने नोटों का बंडल कूड़ा होते हुए देखकर कितना दुख हो रहा होगा उसको, जिसने लाखों की रकम सुविधा शुल्क के तौर पर प्रदान करने के एवज में सरकारी नौकरी या टेंडर हासिल किया था और अब उस लागत की सूद के साथ वसूली के लिये खून-पसीना एक कर रहा था। उसके दुख की तो सीमा ही नहीं है जिसने जमीन-आसमान ही नहीं बल्कि ईमान-भगवान को भी बेचकर अपनी भावी पीढ़ियों का कल्याण करने की राह अपनाई थी लेकिन अब उसकी सारी मेहनत एक झटके में ही मिट्टी में मिल गयी है। आखिर कुछ तो रहम कर लिया होता इन बेगैरत-बेइमानों पर। लेकिन नहीं, एक ही रट लगायी हुई है कि ना खाऊंगा और ना खाने दूंगा। इस क्रूर कदम ने उन विरोधियों का तो बेड़ा ही गर्क कर दिया गया है जो कम से कम कालेधन के सवाल पर चीख-पुकार मचाके अपना गला साफ कर लिया करते थे। अब वे बोलें भी तो क्या बोलें। भ्रष्टाचार के जिस जाल में पूर्ववर्ती फंस गये थे उसमें इन्हें फांसना फिलहाल नामुमकिन की हद तक मुश्किल है। गलती कोई ऐसी कर नहीं रहे जिसकी हाय-तौबा मचायी जाये। यानि अब तक वोट लेने का मौका नहीं दे रहे थे और अब बटोरे हुए नोट भी लूट लिये। ऐसे में विरोधी अगर इस निजाम को तानाशाह बता रहे हैं तो इसमें गलत ही क्या है? किसी पर कोई रहम नहीं किया गया। मीडिया को भी भनक नहीं लगने दी। कहने को तो पूरा फैसला केबिनेट से लेकर भाजपा अध्यक्ष और रिजर्व बैंक के गवर्नर को भी विश्वास में लेकर किया गया है लेकिन हवा कहीं से भी नहीं निकल सकी। वर्ना कुछ तो बचाव का इंतजाम कर लिया जाता। हालांकि पहले का दौर होता तो रातोंरात थोक में सोना खरीदकर सोने चले जाते। लेकिन अब वहां भी एक्साईज ड्यूटी लगा दी गयी है। लिहाजा सोना भी उतना ही खरीदा जा सकता है जितनी रकम दुकानदार हजम कर सके। शायद बुजुर्गों ने ठीक ही बताया है कि धन का तीन ही अंजाम होता है, भोग, दान और नाश। जितने दिन भोग लिखा था, भोग लिया। अब या तो दिल बड़ा-कड़ा करके जीरो बैलेंसवाली जनधन योजना के खाताधारकों को थोड़ी-थोड़ी रकम दान कर दी जाये वर्ना इसका नाश तो तय ही है। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

‘होइहि सोइ जो मुलायम रचि राखा’

‘होइहि सोइ जो मुलायम रचि राखा’ 


गीता का ज्ञान यही बताता है कि जो हुआ वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है वह बहुत अच्छा है और जो होनेवाला है वह सबसे अच्छा होगा। इस लिहाज से देखें तो समाजवादी पार्टी में जो हो रहा है वह भी बहुत अच्छा है और जो होनेवाला है वह सबसे अच्छा होगा। हालांकि तत्व की बातें आम तौर पर तत्काल समझ में नहीं आतीं। तभी तो सपा के भीतर जारी संग्राम का पूरा मामला अंधों के हाथी सरीखा बना हुआ है। लेकिन जिसने पूरा तत्व समझ लिया वह निर्विकार है, शांत है। जाहिर है कि पूरे मामले के असली तत्व को समझना तो उसके लिये ही संभव है जो वास्तव में इस समूचे बवाल का ना सिर्फ सूत्रधार हो बल्कि पूरा मामला उसकी लिखी हुई पटकथा के अनुसार ही संचालित हो रहा हो। इस नजरिये से देखें तो सिर्फ सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ही इकलौते ऐसे शख्स हैं जिन्होंने इस पूरे महाभारत में अब तक अपना आपा नहीं खोया है। हालांकि वे गुस्से का इजहार भी कर रहे हैं, शिवपाल को संरक्षण देने की बात स्वीकार भी कर रहे हैं, अखिलेश की सरकार को अंगीकार भी कर रहे हैं, विरोधियों के हर वार को बेकार भी कर रहे हैं, साथियों का सत्कार भी कर रहे हैं, आस्तीन के सांपों पर प्रहार भी कर रहे हैं और सबकुछ धुंआधार कर रहे हैं। लेकिन वे उतना ही कर रहे हैं जितना मुनासिब है, अपेक्षित है, उचित है। वास्तव में देखा जाये तो एक कुशल, दक्ष व सक्षम सर्जन की तरह दत्तचित्त होकर वे सपा में मौजूद उस फोड़े की सर्जरी कर रहे हैं जिसका फूटना तय था। फर्क सिर्फ इतना है कि वह अपने आप तब फूटता जब मुलायम का होना भी नहीं होने के बराबर हो चुका होता और उसका फूटना सियासी तौर पर सपा के लिये निश्चित तौर पर विभाजक व जानलेवा ही साबित होता। लेकिन मुलायम ने ना सिर्फ उस फोड़े को समय रहते पहचाना है बल्कि अपनी सक्षम मौजूदगी में अपने ही हाथों उसका इलाज कर देना बेहतर समझा है। चुंकि फोड़ा सपा के संचालक परिवार की गर्भनाल से जुड़ा हुआ था लिहाजा सर्जरी भी शांत चित्त व सधे हाथों से ही संभव थी और इस मामले में मुलायम का तो कोई सानी ही नहीं है। यानि वे जो कुछ भी कर रहे हैं, पूरे सोच विचार के साथ कर रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता और वे भावावेश में बह जाते तो उनके लिये अखिलेश और शिवपाल में से किसी एक को संगठन व सरकार से बाहर निकालना कौन सा मुश्किल काम था। लेकिन वे दोनों को झेल रहे हैं, पूरी तरह बर्दाश्त कर रहे हैं। मंच पर शिवपाल ने मुख्यमंत्री से माइक छीनकर उन्हें झूठा कहा तब भी मुलायम ने आपा नहीं खोया। अखिलेश ने चुनाव प्रचार के लिये एकला चलो की राह अपनायी तब भी मुलायम शांत रहे। रामगोपाल से लेकर अमर सिंह तक ने जो चिल्ल-पों मचायी उसका भी उन पर कोई असर नहीं हुआ और अब भी वे परिवार और पार्टी की एकजुटता के प्रति पूरी तरह आश्वस्त दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने पिता होने के नाते बेटे का जमकर कान मरोड़ा लेकिन मुख्यमंत्री पद की गरिमा को ठेस पहुंचाने की पहल नहीं की। वे मुलायम ही तो थे जिन्होंने इस सर्जरी की औपचारिक शुरूआत करते हुए अंसारी बंधुओं के लिये पार्टी का दरवाजा खुलवाया और अखिलेश को हटाकर शिवपाल को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। मौजूदा टकराव की शुरूआत वहीं से तो हुई थी। उसके बाद जो कुछ भी घटा उसमें अब तक किसका घाटा हुआ है और कौन विजेता बनकर उभरा है इस बात को समझ लिया जाये तो पूरे मामले का असली तत्व आसानी से समझा जा सकता है। अब तक की पूरी सर्जरी ने किसी को ‘हीरो’ बना दिया है तो किसी को ‘विलेन’। कोई ‘जोकर’ साबित हुआ है तो कोई ‘चोकर’। सिर्फ मुलायम ही हैं जिनकी छवि पर इस सबका कोई असर नहीं हुआ है। वे पहले भी सर्वमान्य थे और आज भी हैं। चुंकि फोड़ा गर्भनाल से जुड़ा था लिहाजा सर्जरी भी काफी बड़ी हुई है। गहराई से हुई है। ढ़ेर सारा विषाक्त मवाद भी निकला है और दमघोंटू बदबू भी फैली है। नतीजन सपा का कुछ कमजोर व अस्वस्थ दिखना स्वाभाविक ही है। लेकिन इलाज इतना सटीक व कारगर हुआ है कि अब भविष्य में फोड़ा फूटने की संभावना ही समाप्त हो गयी है। अब इस सर्जरी का घाव भरने के बाद सपा का स्वरूप बिल्कुल वैसा ही होगा जैसा सोचकर मुलायम ने साढ़े चार साल पहले अखिलेश को अपनी सियासी विरासत का उत्तराधिकारी बनाया था। साथ ही इस सर्जरी में उतनी ही काट-छांट हुई है जितना बेहद आवश्यक था। जो थोड़ी बहुत विसंगतियां और अनुत्तरित प्रश्न जान बूझकर छोड़ दिये गये हैं उनका जवाब स्वस्थ होने के बाद सपा खुद ही तलाश लेगी। इसके लिये उसे ज्यादा मशक्कत भी नहीं करनी पड़ेगी। इसके अलावा सर्जरी के लिये समय भी ऐसा चुना गया जब सर्जिकल स्ट्राइक के धमाके ने कान सुन्न कर दिया था लिहाजा उस आवाज से पार पाने के लिये बड़ी सर्जरी से पनपनेवाली कराह व चीख-पुकार की आवश्यकता भी थी। अब सर्जरी भी हो गयी है और घाव पर टांके की प्रक्रिया भी जारी है। लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि इसका घाव भरने में कितना वक्त लगता है और पार्टी को तात्कालिक तौर पर इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

’मन-मन भावे, मूड़ हिलावे‘

’मन-मन भावे, मूड़ हिलावे‘


किसी के भी चाल-चरित्र व स्वभाव के बारे में जितनी सही व पूरी जानकारी उसके धुर विरोधी के पास होती है उतनी किसी और के पास हो ही नहीं सकती। तभी तो भाजपा को अगर सबसे सही तरीके से किसी ने जाना, समझा और पहचाना है, तो वे हैं सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव। खास तौर से ‘मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना’ का दिखावा करके मतदाताओं व विरोधियों को भ्रम व असमंजस में डालने के भाजपा के जिस चरित्र के प्रति मुलायम लगातार सबको आगाह करते रहे हैं उसी का मुजाहिरा किया है भाजपा की मौजूदा कूटनीति ने। यूपी विधानसभा के चुनाव में पार्टी एक हाथ में राष्ट्रवाद के झंडे और दूसरे में विकास के एजेंडे का तो सार्वजनिक तौर पर मुजाहिरा कर रही है। लेकिन राष्ट्रवादी झंडे के भीतर सांप्रदायिक मसलों का डंडा घुसेड़ने की अपनी कोशिशों को खुलकर स्वीकार करना उसे कतई गवारा नहीं हो रहा है। शायद यही भाजपा का असली स्वभाव जिसके तहत इसके तमाम नेता अधिकांश मसलों पर कभी एक सुर में बोलना गवारा नहीं करते। दूर से सुननेवालों को ऐसा लगता है मानो पार्टी के भीतर सैद्धांतिक व वैचारिक स्तर पर भारी टकराव चल रहा है। लेकिन नजदीक से देखने पर तस्वीर बदली हुई दिखती है। इसमें मजेदार तथ्य यह है कि पार्टी में सबकी राहें बेशक अलग दिखती हों लेकिन उनकी मंजिल एक ही रहती है। अब जहां लक्ष्य को लेकर कोई मतभेद या विरोधाभास ना हो वहां राहों का भेद कोई मायने नहीं रखता। लिहाजा इनका आपसी टकराव व विरोध भी अक्सर दिखावे का ही रहता है। परस्पर मतभेद तो दिखता है लेकिन उसमें मनभेद नहीं होता। मन मिला हुआ ही रहता है। दरअसल संगठनिक स्तर पर होनेवाली इस नूराकुश्ती का मकसद सिर्फ सियासी माहौल में भ्रम की स्थिति उत्पन्न करना ही रहता है। और कुछ भी नहीं। इस भ्रम के शिकार सिर्फ मतदाता ही नहीं होते बल्कि कई दफा विरोधी भी हो जाते हैं। वे समझ ही नहीं पाते कि भाजपा के किस नेता की बात का विरोध करें और किसके बयान की अनदेखी। भ्रम के इसी कुहासे में फंसकर विरोधियों की गाड़ी अक्सर डी-रेल हो जाती है और भाजपा मैदान मार ले जाती है। ऐसा ही माहौल भाजपा ने एक बार फिर बनाने का प्रयास किया है। खास तौर से यूपी विधानसभा के चुनाव को सांप्रदायिक रंग देने के मामले को लेकर। जितने मुंह उतनी बातें। सुब्रमण्यम स्वामी तो राम मंदिर निर्माण की तारीख का भी ऐलान कर चुके हैं। जबकि राजनाथ सिंह ने औपचारिक तौर पर सरकार की विवशता का इजहार करते हुए पहले ही कह दिया है कि चुंकि राज्यसभा में मोदी सरकार को बहुमत हासिल नहीं है लिहाजा संसद से कानून बनाकर मंदिर का निर्माण कर पाना फिलहाल संभव ही नहीं है। दूसरी ओर यूपी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य से लेकर उमा भारती तक खम ठोंकते हुए यह कहने से परहेज नहीं बरत रहे हैं कि मंदिर तो मोदी सरकार के कार्यकाल में ही बनेगा। यानि हर किसी की जुबान पर मंदिर का नाम तो है लेकिन सुर अलग-अलग है। विनय कटियार तल्ख सुर में लाॅलीपाॅप की कड़वाहट बयान करते हैं तो महेश शर्मा कहते हैं कि जो किया जा सकता है वह तो कम से कम कर लिया जाये। इस सबसे अलग भाजपा का राष्ट्रीय संगठन मंदिर मसले को आस्था का विषय बताने से तो नहीं हिचक रहा लेकिन लगे हाथों यह समझाने से भी चुक रहा है कि यूपी में मंदिर को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया जायेगा बल्कि पार्टी विकास और सुशासन के एजेंडे पर ही चुनाव लड़ेगी। पार्टी का साफ मत है कि मंदिर बनना तो चाहिये लेकिन इसके लिये मनामानी नहीं होनी चाहिये। या तो आम सहमति के आधार पर मंदिर निर्माण हो या फिर अदालत के आदेश पर। अब आम सहमति तो बनने से रही। जब इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा किये गये विवादित जमीन के बंटवारे के दो हिन्दू लाभार्थियों के बीच अब तक सहमति नहीं बन पायी है तो तीसरे मुस्लिम पक्षकार के साथ सहमति बने भी तो कैसे? रहा सवाल अदालत के आदेश से मंदिर निर्माण का, तो इस राह के रोड़े फिलहाल समाप्त होते नहीं दिख रहे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला सामने आये तकरीबन दो साल का वक्त गुजर जाने के बावजूद आज तक इस मामले की फाइल सर्वोच्च न्यायालय की आलमारी में धूल ही फांक रही है। अब तक इसकी सुनवाई के लिये पीठ का गठन भी नहीं हो पाया है। पता नहीं कब पीठ का गठन होगा, कब सुनवाई होगी और कब इसका फैसला आएगा। यानि पूरा मामला अभी बदस्तूर अटका-लटका ही रहनेवाला है। इस हकीकत को जानते हुए भी अगर मंदिर मसले की लहर उठाने का प्रयास हो रहा है और कटियार की तल्खी, सरकार की नरमी और संगठन की गर्मी दिख रही है तो इसमें किसी का किसी से कोई विरोधाभास नहीं है। अंदर से सब मिले हुए ही हैं। बस ऊपर से एक दूसरे से असहमत होने का दिखावा किया जा रहा है। ताकि समाज की कट्टरवादी धारा पर भी पकड़ बनी रहे और मध्यममार्गी धारा पर भी। इसके अलावा छोड़-पकड़ की इस खींचतान में विरोधियों को भी उलझाये रखा जाये ताकि वे किसी एक बयान को पकड़कर आगे ना ले जा पायें। अब ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि ‘चित भी मेरी पट भी मेरी’ की जो दोधारी तलवार भाजपा भांज रही है उसकी चपेट इसके विरोधी आते हैं या पार्टी खुद ही लहुलुहान होती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

‘बेकरारी तुझे ऐ अखिलेश कभी ऐसी तो न थी’

’ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-करार?‘


मुगलिया सल्तनत के आखिरी सुल्तान कहे जानेवाले बहादुर शाह जफर के अंदाज में आज वाकई उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से हर कोई यह जानना चाह रहा है कि ‘ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-करार, बेकरारी तुझे ऐ अखिलेश कभी ऐसी तो न थी।’ वास्तव में देखा जाये तो इन दिनों अखिलेश बड़े बेकरार और बेसब्र दिख रहे हैं। यह बेकरारी उनकी बातों से भी झलक रही है और उनकी हरकतों से भी। जिस सौम्य, सरल व सहज अंदाज के कारण वे भीड़ में अलग दिखते रहे हैं वह कहीं दब-छिप सा गया है। उसकी जगह ले ली है खीझ, परेशानी और बेकरारी ने। कहां तो वे सब्र का समुंदर मालूम पड़ते थे जबकि आज उनके सब्र का बांध बुरी तरह जर्जर और कमजोर होकर टूटता दिख रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो बचपन में अपना नामकरण खुद करने की दलील देकर एकला चलो की राह अपनाने घुड़की देने की कोशिश वे कतई नहीं करते। इस तरह की बातें करके वे अपनी बेसब्री का ही मुजाहिरा कर रहे हैं। कहीं ना कहीं उनके सब्र व संयम का बांध टूटता दिख रहा है। वे उसी जाल में उलझते हुए दिखाई दे रहे हैं जिसमें उनके विरोधी उन्हें लपेटना चाहते हैं। उनके विरोधियों की तो कोशिश ही यही है कि वे अपना आपा खोकर ऊल-जुलूल बकना शुरू कर दें। ताकि मुलायम सिंह का उन पर जो भरोसा है वह मिट्टी में मिल जाये और उन्हें अपने लिये किसी नये उत्तराधिकारी की तलाश करना आवश्यक महसूस होने लगे। ऐसे में कसौटी पर है अखिलेश का संयम। वास्तव में देखा जाये तो अभी वक्त का तकाजा यही है कि उन्हें अपनी कथनी और करनी में भरपूर संयम का प्रदर्शन करना चाहिये। उनके बात या व्यवहार से कहीं से भी यह नहीं झलकना चाहिये कि वे संगठन, सरकार या परिवार के किसी सदस्य से रत्ती भर भी नाराज हैं। उनकी बातों से मुलायम के प्रति अटूट विश्वास झलकना चाहिये और मुलायम की हर बात को उन्हें आदेश के तौर पर स्वीकार व अंगीकार करना चाहिये। ठीक ऐसे ही जैसे उनके चाचा शिवपाल यादव लगातार करते हुए दिखते आ रहे हैं। आखिर शिवपाल ने सपा में अपनी हैसियत मजबूत करने के लिये मुलायम के विश्वास का ही तो सहारा लिया है। वर्ना उनकी क्या हैसियत थी कि वे मुलायम द्वारा घोषित उत्तराधिकारी की अपने दम पर जड़ खोदने की सोच भी सकें। लेकिन आज वे ऐसा सिर्फ सोच ही नहीं रहे बल्कि उसे कार्यरूप देते हुए भी दिखाई पड़ रहे हैं तो इसकी इकलौती वजह है अखिलेश और मुलायम के बीच आयी वैचारिक व सैद्धांतिक दूरी। हालांकि इस बात पर अलग से बहस हो सकती है कि यह दूरी अखिलेश की कथनी व करनी के कारण आयी है या फिर इसकी पटकथा किसी और ने लिखी है। कहा तो यह भी जाता है कि इस सबके पीछे सपा के संचालक परिवार की सबसे मजबूत मानी जानेवाली महिला सदस्य ने ही निर्णायक भूमिका निभायी है और उन्होंने मुलायम को अपने शीशे में उतार कर अखिलेश से उन्हें दूर कर दिया है। साथ ही इस दूरी को हवा देकर अपना सियासी समीकरण साधने के दोषी शिवपाल सरीखे अंदरूनी भी बताये जाते हैं और अमर सिंह सरीखे बाहरी भी। लेकिन इन कही-सुनी बातों से इस हकीकत को हर्गिज झुठलाया नहीं जा सकता है कि आखिरकार कहीं ना कहीं अखिलेश भी इस दूरी, संबंधों में पनपी कटुता व आपसी अविश्वास के लिये कम दोषी नहीं हैं। पिछले चुनाव में सपा को पूर्ण बहुमत मिलने के बाद मुलायम ने तो अखिलेश को अपना उत्तराधिकारी बनाकर मुख्यमंत्री पद की कुर्सी सौंप ही दी थी। लिहाजा बाद में बाप-बेटे के बीच जो दूरी बनी उसके लिये मुलायम को जिम्मेवार ठहराना कतई उचित नहीं होगा। साथ ही अगर मुलायम इसके लिये जिम्मेवार नहीं हैं तो जाहिर तौर पर उनके करीबियों व अन्य विश्वासपात्रों पर भी इसका दोष नहीं मढ़ा जा सकता है। ऐसे में सीधे तौर पर मौजूदा हालातों के लिये दोषी अखिलेश ही दिखाई पड़ते हैं जिन्होंने कई फैसले मनमाने तरीके से किये जो मुलायम को नागवार गुजरे। अगर उन्होंने मुलायम को विश्वास में लेकर फैसले किये होते तो ना तो उन्हें दोबारा गायत्री प्रजापति को अपने मंत्रिमंडल में शामिल करने के लिये मजबूर होना पड़ता और ना ही प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी से हाथ धोना पड़ता। आज नौबत यहां तक आ पहुंची है कि मुलायम उन्हें सपा का चुनावी चेहरा बनाने के लिये भी तैयार नहीं हैं। उन्होंने खुलकर बता दिया है कि आगामी चुनाव में किसी को भी चुनावी चेहरा नहीं बनाया जाएगा और चुनाव के बाद विधायक दल की बैठक में आम सहमति के आधार पर ही नये मुख्यमंत्री का चयन किया जाएगा। यानि बात बिल्कुल साफ है कि कहीं ना कहीं अखिलेश के प्रति मुलायम का भरोसा कमजोर अवश्य पड़ा है। बेशक इसकी डोर आज भी टूटी नहीं है जिसके कारण परिवार में पनपी असहजता को वे सार्वजनिक तौर पर खारिज करते हुए ही दिख रहे हैं लेकिन अगर अखिलेश ने हालात की गंभीरता को समझते हुए स्थिति को संभालने की पहल नहीं की तो सियासी डगर पर उनकी राहें लगातार दुश्वार होती जाएंगी। लिहाजा अपेक्षित है कि वे सब्र व संयम का परिचय देते हुए मुलायम को विश्वास में लेकर ही आगे बढ़ें। अगर मुलायम के बताये मार्ग का आंखें मूंद कर अनुसरण किया जाये तो भविष्य सुरक्षित भी रहेगा और सुनिश्चित भी। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

‘बात निकली है तो अब दूर तलक जाएगी’

‘बात निकली है तो अब दूर तलक जाएगी’


वाकई दशकों से अनसुना ही तो किया जा रहा था पड़ोसी की उस बात को जो वह हमें सुनाता आ रहा था। उसने अपनी बात सुनाने के लिये क्या-क्या नहीं किया। कभी गालियां दी, कभी हिंसक हुआ। कभी गुदगुदाया भी, कभी तमतमाया भी। सिर्फ इसलिये ताकि उसकी बात सुनी जाये। लेकिन वह बात जिसका कोई मायने-मतलब ही नहीं है। आखिर ऐसी बातों को अनसुना ना करते तो और क्या करते। लेकिन वह नहीं माना। उसकी गुस्ताखियां लगातार बढ़ती गयीं। इस तरफ की खामोशी को उसने कमजोरी समझ ली। उसका हौसला लगातार बुलंद होता गया। लेकिन बर्दाश्त की भी एक हद होती है। और जब वह हद आ गयी, तो हो गया वह, जिसकी हमारे पड़ोसी ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी। उसे ऐसी जगह पर ऐसा जख्म दे दिया गया जिसे ना तो वह सह सकता है और ना ही किसी से कह सकता है। कहे भी तो क्या कहे, किससे कहे। तभी तो जख्मों से छलनी होने के बावजूद वह मानने के लिये तैयार ही नहीं है कि उसके किस हिस्से पर कैसा वार हुआ है। कुछ समय के लिये अगर मान भी लिया जाये कि उसके खिलाफ कोई वार नहीं किया गया है तो आखिर यह छटपटाहट और बिलबिलाहट क्यों है? क्यों भारत के तमाम टीवी चैनलों को प्रतिबंधित किया गया है? नवाज शरीफ ने आखिर किस बात की निंदा की है? क्यों लश्कर का मुखिया बिलबिलाहट में जहर उगलता और बदला लिये जाने की धमकी देता घूम रहा है? जब कुछ हुआ ही नहीं है तो किसका बदला, कैसा बदला? यानि वह हुआ तो जरूर है जिसे स्वीकार करने का साहस हमारे पड़ोसी मुल्क में है ही नहीं। आखिर वह दुनियां के सामने यह स्वीकार भी कैसे कर सकता है कि उसके कब्जेवाली जमीन पर आतंकी गतिविधियां संचालित हो रही थीं जिसे भारत ने विध्वंसक कार्रवाई करते ध्वस्त कर दिया है। साथ ही वह अपनी आवाम के सामने यह भी कबूल नहीं कर सकता कि उसके कब्जेवाली जमीन पर चहलकदमी करते हुए पड़ोसी मुल्क की फौज ने बड़े आराम और इत्मिनान के साथ सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दे दिया और उसकी तमाम रक्षा व्यवस्था को इसकी भनक भी नहीं लग सकी। परमाणु और मिसाइलों की तमाम धौंस का बेअसर रहना भी वह स्वीकार नहीं कर सकता। लेकिन वह स्वीकार करे या ना करे, इतना तो तय है कि पलटवार करने का प्रयास जरूर करेगा। तैयारियां इधर भी पूरी हैं। बस इंतजार है कि वह कुछ करे तो सही। जवाब ऐसा मिलेगा कि सिर्फ इतिहास ही नहीं बदलेगा, पूरा भूगोल बदल जाएगा। वैसे भी पहले पठानकोट और उसके बाद उड़ी में कराए गये आतंकी हमले का करारा जवाब देने के क्रम में अंजाम दिये सर्जिकल स्ट्राइक से ही भारत के सीने में सुलग रही बदले की आग कतई शांत नहीं पड़ सकती है। अभी तो सिर्फ ताजा घाव पर मरहम लगा है, नासूर बन चुके पुराने जख्मों का हिसाब-किताब तो बाकी ही है। यह तो आतंक के खिलाफ सीधी कार्रवाई की महज एक शुरूआत भर है। पाक की ओर से थोपे गये छद्म युद्ध के खिलाफ इसे भारत के पहले औपचारिक प्रतिवाद के तौर पर देखा जाना ही उचित होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो आतंक के खिलाफ लंबे समय से जारी लड़ाई का यह छोटा सा पड़ाव मात्र है। सच तो यह है कि बेशक अपनी ओर से आर-पार का युद्ध छेड़ने की पहल करने के विकल्प को आजमाने से परहेज बरतने की नीति बदस्तूर जारी रहनेवाली है लेकिन पाकिस्तान को जंग से भी अधिक जहरीला दर्द देने की राह पर भारत लगातार आगे बढ़ता रहेगा। खैर, सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम देने के अलावा पड़ोसी मुल्क को विश्व बिरादरी में अलग-थलग करने का पड़ाव भी अब पूरी तरह पार होने की कगार पर ही है। अमेरिका द्वारा पाक को औकात में रहने का निर्देश दिया जाना, संयुक्त राष्ट्र द्वारा नवाज शरीफ की तमाम दलीलों को सिरे से खारिज कर दिया जाना, सार्क देशों द्वारा पाक का पूरी तरह बहिष्कार किया जाना, रूस द्वारा पाक सेना के साथ पूर्वनिर्धारित युद्धाभ्यास स्थगित किया जाना और चीन द्वारा पाक में जारी आतंकी गतिविधियों के खिलाफ मुखर होना यह बताने के लिये काफी है कि विश्व बिरादरी में पाक किस कदर अकेला पड़ता जा रहा है। लेकिन लड़ाई अभी बहुत लंबी है। मौजूदा पड़ावों को ही पर्याप्त मानकर शांत बैठ जाने का मतलब होगा सांप को चोटिल करके छोड़ देना। अभी तो उसे महज कुछ ही जख्म दिये गये हैं। फन कुचलना तो अभी बाकी है। जिस जंग का उसने आगाज किया उसे अंजाम तक तो पहुंचाना ही है। इसके लिये रणनीति भी तैयार है। अब जहां एक ओर आर्थिक नुकसान पहुंचाने के लिये उसे एकतरफा तौर पर दिया गया मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा उससे वापस लिया जाना है वहीं मित्र देशों को इस बात के लिये सहमत करना है कि वे भी उसके साथ अपना आर्थिक रिश्ता पूरी तरह खत्म ना भी करें तो अधिकतम कम अवश्य कर लें। साथ ही सिंधु सरीखी नदियों के पानी से उसे महरूम करने की ठोस योजना पर भी जल्दी ही अमल आरंभ होनेवाला है। जाहिर तौर पर ऐसे तमाम विकल्पों अमल करना तब तक जारी रखा जाना चाहिये जब तक पाक प्रायोजित आतंकवाद का समूल नाश नहीं हो जाता है और गुलाम कश्मीर की सरजमीं पर निर्णायक तौर पर भारतीय तिरंगा लहराने में कामयाबी नहीं मिल जाती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

शनिवार, 17 सितंबर 2016

‘रफू की ताकीद करनेवाले, कहां-कहां अब रफू करेंगे’

‘रफू की ताकीद करनेवाले, कहां-कहां अब रफू करेंगे’


सूबे में सत्तारूढ़ सपा की अंदरूनी हालत ऐसी ही दिख रही है जिसके बारे में कहा गया है कि ‘रफू की ताकीद करनेवाले कहां-कहां अब रफू करेंगे, लिबासे-हस्ती का हाल ये है, जगह-जगह से मसक रहा है।’ वाकई सपा की लगातार यत्र-तत्र-सर्वत्र मसकती दिख रही लिबासे-हस्ती को संभालने की कोशिश करनेवालों के लिये सबसे बड़ी चुनौती यही है कि आखिर रफू का काम शुरू कहां से किया जाये। हालत यह है कि एक सिरा पकड़ो तो दूसरा फिसल जाता है। एक को मनाओ तो दूसरा रूठ जाता है। वास्तव में प्रदेश ही नहीं बल्कि समूचा देश इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि सूबे में सत्तारूढ़ सपा के भीतर जो संग्राम छिड़ा हुआ है वह ना तो इतनी जल्दी समाप्त होनेवाला है और ना ही दबाने से दबनेवाला है। गनीमत है कि नेताजी की धुरी के प्रति सबकी आस्था बदस्तूर कायम है लिहाजा वे ठोक कर यह कहने का हौसला दिखा रहे हैं कि उनके रहते पार्टी में फूट नहीं हो सकती। हालांकि बेशक सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने पार्टी में जारी महासंग्रम पर काबू पाने के लिये खुद ही मोर्चा संभाल लिया है और सुलह के फार्मूले पर सहमति बनाने का प्रयास जोरों पर जारी है। लेकिन सूबे की आवाम से लेकर आला निजाम तक को यह बेहतर मालूम है कि चुनाव के मद्देनजर टकराव की लपटें सतही तौर पर फिलहाल बुझ भी जाएं मगर इसके भीतर सुलग रहा ज्वालामुखी निर्णायक तौर पर कभी ना कभी फूटेगा जरूर। और जब यह फूटेगा तो इसका लावा निश्चित तौर पर सपा की एकजुटता को अपने साथ बहा ले जाएगा। इस हकीकत से बाखबर होने के बावजूद जिस तरह से मामले की गहराई से सर्जरी करके पूरे मवाद व सड़े-गले हिस्से को काटकर निकालने के बजाए महज मरहम-पट्टी करके इस विषैले जख्म को दबाने-छिपाने की कोशिश की जा रही है वह निश्चित तौर पर आत्मघाती ही मानी जाएगी। वास्तव में देखा जाये तो सपा की ओर से पूरे विवाद की जो वजहें गिनायी जा रही हैं वह सतही तौर पर भले ही सटीक मालूम पड़ती हों लेकिन गहराई से परखने पर वह नकली ही दिखाई पड़ती है। पर्देदारी की लाख कोशिशों के बावजूद सपा का शीर्ष नेतृत्व इस हकीकत को दबा या छिपा नहीं सकता कि संगठन में जारी महासंग्राम की असली वजह ना तो अखिलेश को पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाया जाना है, ना शिवपाल से महत्वपूर्ण मंत्रालय छीना जाना और ना ही गायत्री प्रजापति सरीखे मंत्रियों को सरकार से रूखसत किया जाना। यहां तक कि केबिनेट सचिव के पद पर बदलाव किये जाने या आला नौकरशाहों को ताश के पत्तों की तरह फेंटे जाने को भी इस महासंग्राम की वजह मानना बेवकूफी ही होगी। वास्तव में ये सभी घटनाक्रम महज परिणाम है जिसका कारण है संगठन पर वर्चस्व की वह लड़ाई जो सत्ता से लेकर संगठन तक पर पूर्ण एकाधिकार कायम करने के लिये छिड़ी हुई है। इस जंग की पटकथा तभी से लिखी जा रही है जब से शिवपाल ने संगठन में जमीनी स्तर तक अपनी मजबूत पैठ बनानी शुरू कर दी थी जबकि मुलायम ने पुत्रमोह में संगठन व सरकार की कमान अखिलेश को सौंपने का फैसला किया था। जाहिर तौर पर हर खासो-आम की यही ख्वाहिश होती है कि उसका उत्तराधिकारी उसका अपना बेटा ही हो। बेटे को दरकिनार कर किसी अन्य को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने की तो किसी से अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। लिहाजा यही काम मुलायम ने भी किया तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था। उन्होंने अपने खून-पसीने से जिस सपा संगठन को खड़ा किया उसकी बागडोर वे अपने बेटे के हाथों में सौंपना चाह रहे हैं तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन सपा को सत्ता के शीर्ष पर लाकर खड़ा करने में उनके अन्य बंधु-बांधवों ने जो योगदान किया है उसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती। आज भी संगठन में जमीनी स्तर पर शिवपाल का जो प्रभाव है उसे झुठलाया नहीं जा सकता। ऐसे में अपने लिये पूरे मेहनताने की उनकी मांग को भी खारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन एक तरफ जोतने के एवज में पूरा खेत हथियाने की उनकी कोशिश और दूसरी ओर जोतने-बोने की जहमत उठाए बगैर खड़ी फसल को अपने खलिहान में लाने की अखिलेश की जिद के बीच जारी टकराव वास्तव में ऐसा ही है जैसे गाय को पाले-खिलाए कोई और, उसकी मलाई खाए कोई और। यह लंबे समय तक तो चल नहीं सकता। तभी तो अब गाय को पालने-खिलानेवाले और उसकी दूध-मलाई पर कब्जा जमानेवाले के बीच बुरी तरह ठन गयी है। ऐसे में परेशान है उस गाय का मालिक जो पकी उम्र और थके शरीर के साथ ना तो गाय की पूरी सेवा व हिफाजत करने में सक्षम है और ना ही अपनी कमजोर हाजमे के कारण इसकी दूध-मलाई से कोई वास्ता रखना चाहता है। बल्कि उसकी कोशिश है कि गाय की रस्सी अपने बेटे के हाथों में थमा दे ताकि वह उसे पाले भी और दुहे भी। लेकिन मसला है कि बेटे के घास से गाय का पूरा पेट नहीं भर सकता जिसके नतीजे में दूध-मलाई का संकट उत्पन्न होना तय है। ऐसे में अब देखना दिलचस्प होगा कि पूरा परिवार मिलजुल कर गाय की सेवा करते हुए मिल बांटकर दूध-मलाई खाना पसंद करता है या फिर आपसी झगड़े में गाय का दूध सुखाकर उसके साथ खुद को भी तबाह-बर्बाद कर लेता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

मंगलवार, 6 सितंबर 2016

दलित-मुस्लिम एका की काल्पनिक परिकल्पना

दलित-मुस्लिम समीकरण के अफसाने की हकीकत


भारत की राजनीति में दो धाराएं ऐसी हैं जो ना तो कभी सूखी हैं और ना कभी सूख सकती हैं। एक दलित सरोकार की धारा और दूसरी धर्मनिरपेक्षता की आड़ में बहनेवाली मुस्लिम तुष्टिकरण की धारा। इन दोनों धाराओं के अविरल-निर्मल प्रवाह की वजह है देश की आबादी में इनकी वह हिस्सेदारी जो सियासी नजरिये से काफी हद तक निर्णायक दिखाई पड़ती है। तभी तो इन्हें अपने साथ जोड़ने या इनके साथ पूरी शिद्दत से जुड़ने के लिये तमाम राजनीतिक पार्टियां हमेशा लालायित रहती हैं। अल्पसंख्यकवाद के नाम पर होनेवाली मुस्लिम सरोकार की सियासी धारा पर निगाह डालें तो भाजपा व शिवसेना सरीखे कुछ गिने-चुने राजनीतिक दलों को छोड़कर बाकी तमाम राजनीतिक पार्टियों के बीच हमेशा ही खुद को अल्पसंख्यकों का सबसे तगड़ा अलंबरदार साबित करने की होड़ चलती रही है। केन्द्र में भाजपा के समर्थन से चल रही वीपी सिंह की सरकार को दांव पर लगाकर लालू यादव द्वारा बिहार में लालकृष्ण आडवाणी के रामरथ का अश्वमेघ रोक कर उन्हें गिरफ्तार कराने की बात हो या मुलायम सिंह यादव द्वारा अयोध्या में निहत्थे कारसेवकों पर गोली चलवाने का मामला हो। इसके पीछे सीधे तौर पर अल्पसंख्यकों का भरोसा जीतने की सोच ही थी। यहां तक कि अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति के तहत ही राजीव गांधी की सरकार ने शाह बानो के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने के लिये संसद से ‘मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार) संरक्षण अधिनियम पारित कराया जबकि मुस्लिम वोटबैंक में कांग्रेस की हिस्सेदारी पुख्ता करने के लिये प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए डाॅ मनमोहन सिंह ने औपचारिक तौर पर यह एलान कर दिया कि देश के तमाम संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का ही है। इसी प्रकार संवैधानिक प्रावधानों की अवहेलना करते हुए सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था करने के लिये विधानसभा से कानून पारित कराये जाने के मामले हों या गौ-हत्या पर लगी बंदिशों को कमजोर करने की वकालत किये जाने की बात हो। हर मामले में सीधे तौर पर अल्पसंख्यकों का दिल जीतने की सोच ही छिपी रहती है। आखिर संसदीय लोकतांत्रिक शासन प्रणालीवाले मुल्क हिदुस्तान में जहां मुसलमानों की कुल आबादी तकरीबन 14 फीसदी से भी अधिक हो और उसमें भी पांच राज्यों में 26.6 फीसदी से लेकर 92.2 फीसदी, सात राज्यों में 11.5 फीसदी से लेकर 19.3 फीसदी और आठ राज्यों में आठ से साढ़े दस फीसदी के बीच मुसलमानों की आबादी हो वहां अल्पसंख्यकवाद की राजनीति का बोलबाला दिखना स्वाभाविक ही है। दूसरी ओर दलित सरोकार की सियासी धारा के अनवरत प्रवाह की वजह भी आबादी में राष्ट्रीय स्तर पर इनकी 16 फीसदी की हिस्सेदारी ही है। साथ ही संसद और विधानसभाओं में इन्हें 15 फीसदी आरक्षण भी हासिल है। ऐसे में दलित सरोकार की सियासी धारा में डूबने-उतराने और सराबोर होने का सुख भला कौन नहीं उठाना चाहेगा। आंकड़ों की नजर से सैद्धांतिक तौर पर देखा जाये तो इन दोनों धाराओं का संगम सियासत के सर्वोच्च शिखर को भी अपने में समाहित कर लेने में पूरी तरह सक्षम है। तभी तो बहुसंख्यकवाद की राजनीतिक राह पर चलते हुए महज 32 फीसदी वोटों के दम पर केन्द्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब रहनेवाली भाजपा को पटखनी देने के लिये जितने भी समीकरण टटोले जा रहे हैं उनमें दलित-मुस्लिम धारा का संगम ही सबसे गहरा व विस्तृत दिखाई पड़ रहा है। बाकी, गैर-भाजपावाद के बिहार में सफलतापूर्वक आजमाए जा चुके बेहद मजबूत सैद्धांतिक समीकरण को अन्य सूबों में व्यावहारिक जमीन ही मयस्सर नहीं हो पा रही है जबकि कांग्रेस व वामपंथियों का जो खूंटा कभी सियासी ध्रुवीकरण का केन्द्र हुआ करता था वह मौजूदा हालातों में मजबूत कहारों के कांधे का सहारा लिये बिना खड़े हो पाने की स्थिति में भी नहीं दिख रहा है। ऐसे में ले-देकर समीकरण बचता है दलित व अल्पसंख्यक धारा के सम्मिलन का, जिसमें कागजी व सैद्धांतिक तौर पर तो सत्ता के शिखर से भाजपा को बहा ले जाने की क्षमता स्पष्ट दिख रही है। तभी तो कुछ दिनों से गौ-हत्या व दलित उत्पीड़न के मामलों का परस्पर घालमेल करके ऐसा वातावरण बनाने की चैतरफा कोशिशें जोरों पर जारी हैं जिससे भावनात्मक तौर पर दलितों व अल्पसंख्यकों को करीब लाया जा सके और इन्हें केन्द्र की भाजपानीत राजग सरकार के खिलाफ एकजुट किया जा सके। इसके लिये कभी गुजरात में दलित-मुस्लिम रैली का आयोजन हो रहा है तो कभी जेएनयू में इस सिद्धांत पर व्याख्यान कराया जा रहा है। तस्वीर ऐसी उकेरी जा रही है मानो दलितों व मुस्लिमों के बीच कोई अलगाव-टकराव हो ही ना बल्कि बहुसंख्यकों व खास तौर से सवर्णों के खिलाफ इनका सबकुछ साझा ही हो। लेकिन सियासी समीकरण साधने के लिये इन दोनों धाराओं का संगम कराने का प्रयास कर रही ताकतों ने अव्वल तो 16 फीसदी आबादीवाले अनुसूचित जातियों के उस समूह को एकजुट दलित समझ लिया है जिनके बीच व्यावहारिक धरातर पर कई स्तरों पर परस्पर कट्टर छूआछूत का माहौल आज भी स्पष्ट देखा जा सकता है और दूसरे सामाजिक स्तर पर होनेवाले सांप्रदायिक टकराव के उन वास्तविक किरदारों की भी अनदेखी की जा रही है जिनके बीच कागजी तौर पर ही मजबूत एकजुटता की कल्पना संभव है वर्ना हकीकत में तो आपसी खून-खराबे का इनका लंबा इतिहास रहा है। ऐसे में सवर्णों से बिदका हुआ वर्ग भले ही कागजी तौर पर अल्पसंख्यकों के साथ जुड़ने के लिये तैयार दिख रहा हो लेकिन इनके बीच सांप्रदायिक स्तर पर जुड़ाव का कोई साझा आधार तैयार हो पाने की तो उम्मीद भी नहीं की जा सकती है। यानि अव्वल तो तमाम अनुसूचित जातियों का दलित मंच पर एकजुट हो पाना ही नामुमकिन की हद तक मुश्किल है और दूसरे तमाम दलितों को हर गली-कूचे व कस्बे-मोहल्ले में उन मुस्लिमों के साथ एकजुट करना भी नामुमकिन सरीखा ही है जिनके बीच तमाम सांप्रदायिक दंगों व हिंसक टकरावों में स्थानीय स्तर पर परस्पर घर-द्वार जलाने-उजाड़ने, माल-असबाब से लेकर आबरू-इज्जत लूटने-छीनने और एक-दूसरे के सखा-संतानों को मारने-काटने व अपंग-अपाहिज बनाने का इतिहास सदियों से लिखा जा रहा है। यहां तक कि तमाम कोशिशों व जद्दोजहद के बाद अगर इन दोनों धाराओं को समेट-बटोरकर न्यूनतम साझा सरोकारों के आधार पर इनका संगम करा भी दिया जाता है तो विरोधी पक्ष की ओर से फेंकी गयी संप्रदायवाद की जलती हुई तीली की मामूली सी चिंगारी भी इन्हें ऐन मौके पर परस्पर इतनी दूर लाकर खड़ा कर सकती है जिसके बारे में कल्पना करने से भी सिहरन पैदा हो जाती है। ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर दलित-मुस्लिम धारा का संगम कराने के सियासी प्रयासों पर तो यही कहा जा सकता है कि ‘हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन, दिल बहलाने के लिये गालिब ये खयाल अच्छा है।’ @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

सोमवार, 22 अगस्त 2016

चीन की चतुराई से बचने में भलाई

चीन की चतुराई से बचने में भलाई


चीन वाकई बेहद चतुर-चालाक ही नहीं बल्कि कुटिल भी है। साथ ही हर चतुर-चालाक की तरह वह भी दूसरों को बेवकूफ ही समझता है। लेकिन भारत को बेवकूफ समझने की गलती अब उसे बेहद महंगी पड़ती दिख रही है। तभी तो भारत के साथ संबंधों को संभालने और संवारने के लिए उसने अपनी कोशिशें तेज कर दी हैं। इसी सिलसिले में उसने औपचारिक तौर पर स्पष्ट कर दिया है कि कश्मीर मसले पर भारत-पाक के बीच जारी विवाद में हस्तक्षेप करने या किसी एक के पक्ष-विपक्ष में खड़े होने का उसका कोई इरादा नहीं है। साथ ही चीनी विदेशमंत्री वांग यी ने अपनी हालिया दिल्ली यात्रा के दौरान परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत की सदस्यता के मसले पर भविष्य में नरमी बरते जाने का संकेत देने में भी कोई कोताही नहीं बरती है। यानि भारत के साथ विश्वास बहाली के लिये चीन ने कूटनीतिक कवायदें काफी तेज कर दी हैं। लेकिन मसला है इमानदारी का है जिससे दूर-दूर तक चीन का कभी कोई नाता रहा ही नहीं है। उसके लिए सर्वोपरि है अपना हित। इसके लिए वह कभी भी झुक सकता है, और तन सकता है। उसने भारत की तरफ नए सिरे से दोस्ती का हाथ बढ़ाने की जो पहल की है वह भी उसकी इसी कूटनीति का हिस्सा है। लेकिन मसला है भरोसे का। हालांकि विदेशनीति में भरोसा नाम की कोई चीज होती नहीं है। लेकिन दीर्घकालिक ना सही, तात्कालिक भरोसा तो करना ही पड़ता है। इस लिहाज से भी देखें तो चीन कतई भरोसे के काबिल नहीं है। अभी हाल ही में एनएसजी की सदस्यता के मामले में उसने जिस तरह से भारतीय हितों पर कुठाराघात किया है उसे भुलाया नहीं जा सकता। साथ ही उसकी ललचाई नजरें हमारे पूर्वोत्तर राज्यों से लेकर उत्तराखंड तक लगातार मंडराती रहती हैं। यहां तक कि गुलाम कश्मीर के काफी बड़े हिस्से पर उसका ही कब्जा है। इसके अलावा पाकिस्तान के साथ समझौता करके वह समुद्री सीमा पर भी हमारे खिलाफ साजिशें रच रहा है। उसे न तो हमारे सामरिक हितों की परवाह है, ना राष्ट्रीय हितों की, ना सामाजिक हितों की और ना आर्थिक हितों की। हमारे बाजार को उसने नकली और सस्ते सामानों का डंपिंग ग्राउंड बना कर रख दिया है। ऐसे में जरूरत है चीन के प्रति एक ठोस और कठोर नीति अमल में लाने की। आज उसकी बिलबिलाहट सिर्फ इस बात को लेकर है कि दक्षिण चीन सागर में भारत के हस्तक्षेप ने उसके हितों को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। वास्तव में दक्षिण चीन सागर पर उसके कब्जे को विश्व बिरादरी ने भी नकार दिया है और अवैध माना है। कायदे से देखें तो दक्षिण चीन सागर 35 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ ऐसा विस्तृत अंतर्राष्ट्रीय जलक्षेत्र है जो सिंगापुर से लेकर ताइवान सहित विभिन्न देशों को छूता है। इतने बड़े जलमार्ग पर अकेले चीन का कब्जा आखिर किसी को कैसे मंजूर हो सकता है। उस पर तुर्रा यह कि दक्षिण चीन सागर में स्थित जिन नौ तेल के कुओं की वह नीलामी करने में जुटा है उसमें से दो ऐसे हैं जिस पर ताइवान के साथ भारत का समझौता पहले ही हो चुका है। लिहाजा अमेरिका की अगुवाई में वहां हुए युद्धाभ्यास में भारत की शिरकत स्वाभाविक ही थी जिससे चीन बुरी तरह भन्नाया हुआ है।  दरअसल कहां तो उसने पाकिस्तान और उत्तर कोरिया से लेकर खाड़ी व अफ्रीकी देशों तक को अपने पाले में करके विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति बनने का सपना देखा था। लेकिन अब हर मोर्चे पर भारत उसके सपनों के आड़े आने लगा है। एक तरफ भारत ने नए सिरे से उस गुलाम कश्मीर पर अपना दावा प्रस्तुत कर दिया है जहां चीन का भी कब्जा है और दूसरी तरफ अमेरिका और खाड़ी देशों से लेकर ताइवान, सिंगापुर और जापान तक के साथ प्रगाढ़ मित्रता की शुरुआत कर दी है। नतीजन विश्व बिरादरी में चीन बुरी तरह अलग-थलग पड़ता जा रहा है। ऐसे में स्वाभाविक है कि वह भारत को अपने साथ जोड़ने की कोशिश करेगा। हालांकि भारत को भी चीन के साथ मित्रता की उतनी ही आवश्यकता है जितनी किसी अन्य पड़ोसी देश के साथ। लेकिन सवाल है कि आखिर यह मित्रता किस कीमत पर होगी। एक तरफ वह सरहद पर उत्पात मचाता रहे, गुलाम कश्मीर में दखल बरकरार रखे, पाकिस्तान को हर मुमकिन मदद मुहैया कराए, हमारे पड़ोसी मित्रों को हमसे तोड़ने की कोशिशों में जुटा रहे और दूसरी तरफ हमसे मित्रता की उम्मीद भी रखे। ऐसा कैसे संभव हो सकता है? लिहाजा आवश्यकता है कि पहले सामरिक हितों को सुरक्षित करने की दिशा में कदम उठाया जाए और द्विपक्षीय विवाद के कांटों को जड़ से उखाड़ने की पहल की जाये। इसके लिए चीन को सख्त लहजे में बताना होगा कि सरहद पर शांति रहेगी तो ही आपसी संबंधों में विश्वास बहाली संभव है। वरना वह अपने रास्ते और हम अपने रास्ते। इस सख्ती को दर्शाए बिना अगर चीन के साथ मित्रता की नई इबारत लिखने की कोशिश की गई तो उसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा। भारत के साथ मित्रता के लिए चीन को पहले सही राह पकड़नी होगी और आत्मानुशासन की अहमियत को समझना होगा। वैसे भी चीन सरीखे मतलबी मुल्क के साथ कोई भी राब्ता कायम करने से पहले सौ बार सोचने की जरूरत है क्योंकि उसके इतिहास और उसकी फितरत को देखते हुए तो उस पर कतई भरोसा नहीं किया जा सकता। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur

मंगलवार, 16 अगस्त 2016

जहां सुमति तहां संपति नाना....

जहां सुमति तहां संपति नाना....


गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है कि ‘सुमति कुमति सबके उर रहहीं, नाथ पुरान निगम अस कहहीं, जहां सुमति तहां संपति नाना, जहां कुमति तहां विपति निदाना।’ वाकई सुमति और कुमति तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लेकिन अगर कुमति हावी हो जाये तो बनता हुआ काम भी बिगड़ जाता है जबकि सुमति के सहारे बिगड़े हुए काम को भी आसानी से सफल किया जा सकता है। तभी तो जब तक देशहित पर दलगत राजनीति हावी रही तब तक संसद से लेकर सड़क तक बवाल कटता रहा। लेकिन सुमति का साम्राज्य स्थापित होते ही गाड़ी पटरी पर लौट आई। भारतीय संसद ने सर्वसम्मति से निर्विरोध फैसले लेने की ऐसी ताकत का मुजाहिरा किया कि समूचा विश्व चमत्कृत हो उठा। अमेरिका सरीखे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को भी औपचारिक तौर पर इसकी सराहना करनी पड़ी। हालांकि अमेरिका ने तो सिर्फ जीएसटी के सर्वसम्मति से पारित होने पर ही भारत की सराहना की है जबकि हकीकत तो यह है कि इस मानसून सत्र में भारतीय संसद ने उन तमाम मसलों पर एकमतता व सर्वसम्मति का मुजाहिरा किया है जिसके बारे में माना जा रहा था कि जब भी ये मसले सदन में उठेंगे तो सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच भारी तकरार व टकराव का माहौल दिखेगा। लेकिन देश के तमाम राजनीतिक दलों ने एक बार फिर दुनियां को यह बता दिया है कि मिल बैठकर, एक दूसरे की बात समझ कर और सच को स्वीकार करके साथ मिलकर आगे बढ़ने का नाम ही लोकतंत्र है। हालांकि लोकतंत्र में विचार-प्रचार और संवाद-विवाद की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। लेकिन सच यही है कि व्यवस्था सिर्फ सत्ता से नहीं चलती। व्यवस्था चलती है सर्वसम्मति से, सबको साथ लेकर। किसी भी मामले में सर्वसम्मति बनाकर ही आगे बढ़ने के सिद्धांत को इस दफा सरकार ने भी व्यावहारिक तौर पर अपनाया और इसमें विपक्ष ने भी पूरा सहयोग किया। इसीका नतीजा रहा कि लोकसभा में तकरीबन 110 फीसदी काम हुआ जबकि राज्यसभा में भी लगभग 99 फीसदी कार्य पूरा हुआ। सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष के बीच स्वस्थ तालमेल का ही नतीजा रहा कि लोकसभा से 15 बिल पारित हुए जबकि राज्यसभा से पारित होने वाले विधेयकों की संख्या 14 रही। इसके अलावा चर्चाएं भी हुई और ध्यानाकर्षण प्रस्तावों पर भी बहस हुई। महंगाई पर चर्चा हुई, दलित उत्पीड़न पर चर्चा हुई और जम्मू कश्मीर की मौजूदा स्थिति को लेकर भी चर्चा हुई। हर मसले पर आम सहमति का माहौल ही नहीं बना बल्कि सर्वसम्मति से प्रस्ताव भी पारित किया गया। चर्चा के नाम पर खर्चा-पानी लेकर चढ़-बैठने से विपक्ष ने भी परहेज बरता और सत्तापक्ष की ओर से भी हेकड़ी या मनमानी का मुजाहिरा नहीं किया गया। नतीजन पिछले कई सालों से जो संसद जंग का मैदान बनी हुई थी वह इस दफा सर्वसम्मति के माहौल में सुचारु तरीके से अपने काम को अंजाम देती हुई दिखी। जिस जीएसटी विधेयक को लेकर पिछले एक दशक से वैचारिक व सैद्धांतिक टकराव चल रहा था वह संसद के दोनों सदनों में सर्वसम्मति से पारित हुआ और इसके विरोध में एक भी वोट नहीं पड़ा। यहां तक कि दलितों पर हो रहे अत्याचार के मामले को लेकर हुई चर्चा के बारे में भी संभावित टकराव को लेकर जितने भी कयास लगाए जा रहे थे वे सभी गलत साबित हुए और ना सिर्फ इस पर संसद में स्वस्थ चर्चा हुई बल्कि सर्वसम्मति के साथ प्रस्ताव पारित करके सदन ने बेहद सख्त लहजे में सभी सूबों को स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि दलितों की रक्षा और सुरक्षा से कतई समझौता नहीं किया जाना चाहिये। सर्वसम्मति का ऐसा ही माहौल महंगाई पर हुई चर्चा के दौरान भी दिखा। सरकार ने स्वीकार किया कि दाल सहित कुछ खाद्य वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि अवश्य हुई है लेकिन इसे थामने के लिए वह प्रयत्नशील है। सरकार के आश्वासन पर विपक्ष ने भी भरोसा जताया और इस मामले में भी संसद में पूरी आम सहमति का माहौल देखा गया। इसी प्रकार जम्मू कश्मीर के मौजूदा हालातों को लेकर हुई चर्चा में भी पूरी तरह आम सहमति देखी गई और सहमति भी ऐसी कि घरेलू राजनीति में एक दूसरे के कट्टर विरोधी माने जानेवाले सपा के रामगोपाल यादव ने जब पाकिस्तान से सिर्फ गुलाम कश्मीर के मसले पर ही वार्ता किये जाने की बात कही तो राजनीतिक पंडितों ने यहां तक कह दिया कि सपा ने भाजपा की लाइन पकड़ ली है। लेकिन सच तो यह है कि किसी ने किसी की लाइन नहीं पकड़ी है। सबकी अपनी-अपनी लाइन है और किसी की भी लाइन देश के हितों के खिलाफ नहीं हो सकती। यानि बात जब देश की आती है तो भारतीयता की भावना कितनी प्रबल हो जाती है यही दिखाया है हमारी संसद ने और हमारे सांसदों ने। वैसे भी बात जब देश के आन, बान, शान, विकास, सुरक्षा व अखंडता की हो तब अपेक्षित है कि संसद से ऐसा ही सुर निकले जैसा मौजूदा सत्र में निकला है। लिहाजा संसद में इस तरह के माहौल की खुले दिल से सराहना करने में कतई कोताही नहीं बरती जानी चाहिए और आगे भी प्रयत्नशील रहना चाहिए कि संसद देश के विकास में रोड़े अटकाती हुई ना दिखे बल्कि विकास में अपना योगदान करती हुई दिखे। वैसे भी घरेलू राजनीति अपनी जगह है, सत्ता की खींचतान और सैद्धांतिक विरोधाभास अपनी जगह। लेकिन इसे देशहित पर हावी होने की इजाजत तो कतई नहीं दी जा सकती। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

सोमवार, 18 जुलाई 2016

‘मेहनत किसी और की मुनाफा किसी और का’

‘मेहनत किसी और की मुनाफा किसी और का’


सैद्धांतिक तौर पर भले ही यह न्यायोचित ना हो लेकिन व्यावहारिक तौर पर अक्सर ऐसा ही होता है कि मेहनत करे कोई और मुनाफा कूटे कोई और। जीवन का शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र हो जहां मेहनत करनेवाले को मजदूरी के अलावा मुनाफा भी नसीब होता हो। वर्ना आर्थिक तौर पर यह होता है कि खून-पसीना एक करके फसल उगानेवाले किसान को लागत की वसूली के भी लाले पड़े रहते हैं जबकि बाजार के बिचैलियों की तिजोरी में हमेशा मुनाफे की बहार ही दिखती है। सामाजिक तौर पर भी मां का दूध व बाप का खून पीकर जवान होनेवाले फलदार पौधे को कंद-मूल सहित स्वजातीय गैर-गोत्रीय को दान कर दिये जाने की ही परंपरा है। धार्मिक परंपरा में भी यजमान की पूरे साल की कमाई का मोटा हिस्सा कर्मकांड, धार्मिक आयोजनों व दान-दक्षिणा के नाम पर पंडे-पुरोहितों की ही भेंट चढ़ जाता है। यहां तक कि राजनीति में भी अक्सर यही देखा जाता है कि मेहनत किसी और की रहती है जबकि मुनाफा किसी अन्य के हिस्से में चला जाता है। यह सिर्फ अंदरूनी तौर पर सियासी संगठनों के भीतर ही नहीं होता बल्कि बहुदलीय चुनावी प्रतिस्पर्धा में भी अक्सर ऐसा ही होता है। तभी तो उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में बहनजी की सरकार को जनता की अदालत के कठघरे में खड़ा करने का काम तो सपा के अलावा भाजपा व कांग्रेस ने भी पूरी शिद्दत के साथ किया था लेकिन जब चुनावी नतीजा आया तो सत्ता के मुनाफे की मलाई में ना तो हाथ डल सका और ना ही फूल। पूरे मुनाफे से लकदक हो गयी वह सायकिल जिसके तमाम कल-पुर्जों के बीच अब तक पूरा तालमेल नहीं बन पाने के कारण बकौल अखिलेश यादव कभी यह पांच सूबेदारों की सरकार कही जाती है तो कभी साढ़े तीन मुख्यमंत्रियों की। इस बार भी यूपी की राजनीति में औरों की मेहनत का मुनाफा किसी और के खाते में जाने के आसार ही प्रबल दिख रहे हैं। हालांकि मेहनत तो सभी जी-जान से कर रहे हैं और चैथे पायदान पर खड़ी बतायी जा रही कांग्रेस ने भी जिस तरह से चुनावी समर में जोरदार शंखनाद किया है उसके मद्देनजर वह भी अपनी संभावनाएं कतई समाप्त नहीं मान रही है। लेकिन अब तक सामने आए समीकरणों की पड़ताल करने से जो तस्वीर उभर रही है उसमें ना सिर्फ कांग्रेस की मेहनत का फायदा भी सपा को ही मिलने की संभावना दिख रही है बल्कि बसपा व भाजपा के बीच भी एक-दूसरे की फसल पर कब्जा जमाने की लड़ाई ही छिड़ी नजर आ रही है। वास्तव में देखा जाये तो भले ही अब तक बहुकोणीय मुकाबले में सपा की सायकिल सबसे तेज गति से आगे बढ़ती दिख रही हो लेकिन भाजपा के कमल की सुगंध भी काफी तेजी से फैलती दिख रही थी और बसपा का हाथी भी अटकते-भटकते व लड़खड़ाते हुए अपनी लय में आने की कोशिशों में जुटा नजर आ रहा था। यानि तस्वीर ऐसी बन रही थी कि बसपा व भाजपा की जी-तोड़ मेहनत का एकमुश्त मुनाफा इन दोनों में से किसी एक के खाते में आनेवाला था जो सपा को सीधी टक्कर देकर आगे निकल सकता था। लेकिन अब कांग्रेस ने जो कूटनीति आजमाई है उससे समाजवादी खेमे में अगर आशाओं का नया संचार होता दिख रहा है तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता है। वास्तव में देखा जाये शीला दीक्षित का चेहरा और राज बब्बर की ऊर्जा को आगे करके कांग्रेस ने उन सपा विरोधी वोटों में बड़ी सेंध लगाने के लिये कमर कस ली है जिसे पूरी तरह अपने पक्ष में एकजुट करने के लिये बसपा व भाजपा ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया हुआ है। अब अगर विकास व सुशासन के एजेंडे पर भी चुनाव होता है तो अखिलेश का विकल्प तलाशनेवालों की जमात मायावती के अलावा शीला सरीखे ऐसे सख्त व सफल प्रशासक के बीच अवश्य विभाजित होगी जिन्होंने पंद्रह साल के शासनकाल में दिल्ली का कायापलट करके रख दिया। इसी प्रकार अगर चुनाव में जातीय लहर हावी हुई तो सूबे के जिस ब्राह्मण मतदाताओं के समर्थन से पहले बहनजी ने सोशल इंजीनियरिंग की क्रांति की थी और बाद में सपा भी दो-तिहाई बहुमत के आंकड़े के करीब तक पहुंची थी उस वोटबैंक को अगर दशकों बाद अपने समाज का मुख्यमंत्री चुनने का विकल्प मिल रहा है तो स्वाभाविक तौर पर उसकी संवेदना व सद्भावना कांग्रेस से ही जुड़ेगी और ऐसे में ब्राह्मण मतदाताओं की काफी बड़ी जमात अगर कांग्रेस की झोली में अपना वोट डाल दे तो इसे कतई अस्वाभाविक नहीं माना जाएगा। साथ ही सूबे के उन अल्पसंख्यकों को भी गुलामनबी आजाद, राज बब्बर व इमरान मसूद की तिकड़ी कांग्रेस के पक्ष में लाने की पूरी क्षमता रखती है जो सपा से बिदकने के बाद विकल्प की तलाश में हैं। यानि समग्रता में देखें तो सतही तौर पर कांग्रेस की पूरी मेहनत अपने खोये जनाधार को दोबारा हासिल करने और अपने वजूद को जमीनी स्तर पर मजबूत करने की दिशा में नजर आ रही हो लेकिन इसकी उसे कितनी मजदूरी मिल पाएगी इसके बारे में अभी से ठोस अंदाजा लगा पाना तो बेहद मुश्किल है। लेकिन सत्ताविरोधी वोटों को छिन्न-भिन्न करते हुए इसके काफी बड़े हिस्से पर अपना कब्जा जमाने के लिये की जा रही कांग्रेस की पूरी कसरत का असली मुनाफा सीधे तौर पर सपा को मिलने की संभावना से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’    @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

गुरुवार, 7 जुलाई 2016

मंत्रिमंडल विस्तार ने दिया विवादों को आधार

मंत्रिमंडल विस्तार ने दिया विवादों को आधार

शायद विवाद नरेन्द्र मोदी की नियति के साथ जुड़ा हुआ है। सच कहें तो विवादों ने ही मोदी को मोदी बनाया है। उनके साथ जुड़े विवाद ना हुए होते तो मोदी भी वह मोदी नहीं बन पाते जो वे आज दिख रहे हैं। वैसे भी जिसका सोना-जागना, खाना-पीना और कहीं आना-जाना भी विवादों का सबब बन जाता हो उसकी सरकार का मंत्रिमंडल विस्तार कैसे विवादों से अछूता रह सकता था। तभी तो विवादों की परछाईं ने इस दफा भी मोदी सरकार का साथ नहीं छोड़ा है। विवाद संगठन में भी दिख रहा है, सरकार में भी और सहयोगियों के बीच भी। सहयोगियों की बात करें तो इस मंत्रिमंडल विस्तार के साथ जुड़ी हुई शिवसेना की तमाम उम्मीदें सिरे से ध्वस्त हो गयीं। उसे पूछा तक नहीं गया। यहां तक कि उसे विस्तार की योजना के बारे में बताना भी मुनासिब नहीं समझा गया। जाहिर है कि अक्खड़ व बेलौस सियासी मिजाजवाली शिवसेना को मोदी सरकार का यह व्यवहार नागवार गुजरना ही था। तभी तो शिवसेना ने ना सिर्फ मंत्रिमंडल विस्तार के आयोजन में शिरकत करने से परहेज बरत लिया बल्कि उसने औपचारिक तौर पर यह धमकी देने से भी गुरेज नहीं किया है कि भाजपा के इस व्यवहार का बदला अवश्य लिया जाएगा और मुम्बई नगर निगम व महाराष्ट्र के स्थानीय निकायों के चुनावों में उसकी जमकर खबर ली जाएगी। खैर, शिवसेना अकेली ऐसी सहयोगी नहीं है जिसके साथ ऐसा व्यवहार हुआ है बल्कि मंत्रिमंडल विस्तार के बारे में पूछा तो उस अपना दल से भी नहीं गया जिसके कोटे से अनुप्रिया पटेल को सरकार में शामिल कर लिया गया है। जाहिर है कि सरकार का यह व्यवहार अपना दल से जुड़े नेताओं को तो नागवार गुजरना ही था। वह भी तब जबकि पार्टी विरोधी गतिविधियों में संलिप्त रहने के कारण काफी पहले ही औपचारिक तौर पर अनुप्रिया को अपना दल से बाहर निकाला जा चुका है। ऐसे में अगर अपना दल की भावनाओं के प्रति बेपरवाही दिखाते हुए अनुप्रिया को सरकार में शामिल करने का फैसला हुआ है तो स्वाभाविक तौर पर इस पहलकदमी से विवाद तो होना ही है। खैर, विवादों की श्रृंखला अगर गठबंधन के सदस्यों तक ही सीमित रहती तो गनीमत थी, लेकिन इस दफा तो मोदी सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार ने भाजपा संगठन व सरकार से जुड़े लोगों की भावनाओं को भी बुरी तरह आहत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हालांकि मंत्रिमंडल विस्तार का विशेषाधिकार प्रधानमंत्री के हाथों में ही सिमटे होने के कारण उनके फैसलों पर सीधे तौर पर उंगली उठाने की पहल तो नहीं हुई है लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि संगठन व सरकार में किसी को कोई तकलीफ या परेशानी नहीं हो रही है। मामला सिर्फ यह है कि दर्द की इंतहा तो दिख रही है लेकिन कराह को होठों तक आने या आंखों से छलकने की इजाजत नहीं दी जा रही है। वर्ना पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव रहते हुए अपने प्रभारवाले राज्यों में मनमाने तरीके से टिकट बांटने, संगठन के बजाय अपने हितों को ही पहली प्राथमिकता देने, दिल्ली में पार्टी की हार सुनिश्चित करने, मुख्यमंत्री पद की दावेदारी छोड़ने के एवज में राज्यसभा का टिकट मांगने, संगठन में गुटबाजी को बढ़ावा देने और पार्टी लाइन से अलग हटकर सस्ता प्रचार पाने के लिये अक्सर सियासी ड्रामेबाजी करने के आरोपी को अप्रत्याशित तरीके से मंत्री पद से नवाजे जाने के बाद पार्टी के उन तमाम वरिष्ठ व कनिष्ठ नेताओं की भावनाएं आहत होना स्वाभाविक ही है जिन्होंने पार्टी के लिये अपना सर्वस्व समर्पित करने में कभी कोताही नहीं बरती हो। तभी तो ऐसे विवादास्पद नेता को मंत्री बनाये जाने को जायज ठहराने की दलील पार्टी के किसी नेता की जुबान से नहीं निकल रही है। साथ ही इस बार के विस्तार में उन दो नामों को खास तौर से शामिल किये जाने को लेकर भी पार्टी के शीर्ष रणनीतिकारों की चैकड़ी के एक सदस्य को भारी तकलीफ पहुंचना स्वाभाविक है जो उन्हें फूटी आंख नहीं भाते हैं और उन दोनों के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा जगजाहिर है। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो मोदी ने इस विस्तार के बहाने अपने उस वरिष्ठ केबिनेट सहयोगी की भावनाओं को आहत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है जिसे अब तक खून के आंसू रूलाने की कोशिश करनेवाले सुब्रमण्यम स्वामी को कभी औपचारिक तौर चेतावनी देना भी जरूरी नहीं समझा गया। लिहाजा इस मंत्रिमंडल विस्तार से उस विवादित मान्यता को मजबूती मिलना स्वाभाविक ही है जिसके तहत कहा जाता है कि स्वामी द्वारा जो कुछ भी किया जा रहा है वह अंदरखाने मोदी व अमित शाह की शह पर ही हो रहा है। इसी प्रकार विवाद इस बात भी पनपा है कि आखिर जिन मंत्रियों का कामकाज औसत से भी निचले दर्जे का रहा है उनका दूसरे विभागों में तबादला करने के बजाय उनकी जगह नयी नियुक्ति क्यों नहीं की गयी। साथ ही 75 वर्ष की आयु को आधार बनाकर मध्यप्रदेश सरकार की चलती हुई बस से उतारे गये बाबूलाल गौर व सरताज सिंह ने भी कलराज मिश्रा व नजमा हेप्तुल्लाह सरीखे बुजुर्गों को मंत्रिमंडल से नहीं हटाये जाने को निराशाजनक बताकर नये विवाद को जन्म दे दिया है। बहरहाल, बेशक हर नये विवाद ने मोदी की छवि को निखारने व चमकाने का ही काम किया हो लेकिन विवादों की दोधारी तलवार के साथ खिलवाड़ की आदत दूरगामी तौर पर नकारात्मक नतीजों का सबब भी बन सकती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’   नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

मंगलवार, 5 जुलाई 2016

'होगा वही जो मंजूरे मुलायम होगा....... इति सिद्धम'

‘सौ सुनार की एक लुहार की’   


यूपी की राजनीति पर गौर करें तो महज एक पखवाड़े के भीतर ही तमाम स्थापित समीकरणों में जो नाटकीय परिवर्तन दिख रहा है वह वाकई बेहद दिलचस्प है। सूबे की सियासत ने इस तेजी से करवट ली है कि ना सिर्फ भाजपा को अपनी राह बदलने के लिये मजबूर होना पड़ा है बल्कि कांग्रेस को भी तुरूप के उस अंतिम इक्के को दांव पर लगाने के लिये मजबूर होना पड़ा है जिसकी विफलता के बाद पार्टी के पास कुछ नहीं बचेगा। इसके अलावा सत्तारूढ़ सपा की बात करें तो इस खेमे में भी कल तक जिनकी तूती बोलती थी वे आज लाख कोशिशों के बावजूद भी अपनी हताशा, निराशा व बौखलाहट नहीं छिपा पा रहे हैं। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो सूबे का पूरा सियासी समीकरण ही शीर्षासन की अवस्था में आ गया है। क्या सपा, क्या भाजपा, क्या बसपा और क्या कांग्रेस। हर खेमा हतप्रभ है, हर तरफ कसमसाहट है। लेकिन इस सबका जो सूत्रधार है वह शांत है, खामोश है। वह तो यह स्वीकार करने के लिये भी तैयार नहीं है कि उसने एक झटके में वह कर दिखाया है जो पिछले साढ़े चार साल से नहीं हो सका। यानि साढ़े चार साल से चल रही सियासी सुनारों की अनवरत ठुकठुकी पर लुहारी हथौड़े की ऐसी चोट पड़ी है जिसने बड़ी जतन व मेहनत से गढ़े गये तमाम समीकरणों को एक झटके में ही पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर के रख दिया है। तमाम स्थापित समीकरणों की शक्ल ही बदल गयी है, पहचानने लायक भी कुछ नहीं बचा है। साढ़े चार साल की अनवरत मेहनत से यह मान्यता स्थापित की गयी थी कि सूबे की सरकार का पूरा नियंत्रण शिवपाल यादव और आजम खान के हाथों में है जबकि अखिलेश यादव महज मुखौटे की भूमिका में हैं और मुलायम सिंह यादव नेपथ्य में जा चुके हैं। लेकिन यह पूरा समीकरण एक झटके में इस कदर उलट-पुलट हो गया है कि शिवपाल को मंच पर अगली पांत में बैठने के लिये भी मनाना पड़ रहा है जबकि आजम कब अपना आपा खोकर आंय-बांय बोलने लग जाएं इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। अब तो नमाजियों पर भी भड़क जाते हैं। उन्हें इफ्तारी का कायदा सिखाने लगते हैं। दूसरी ओर अखिलेश को भी अब मुखौटा नहीं कहा जा सकता है बल्कि अब वे संगठन व सरकार के ऐसे सशक्त संचालनकर्ता बन कर सामने आये हैं जो कमियों व खामियों को कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता, भले ही वे गलतियां उनके पिता को विश्वास में लेकर ही क्यों ना अंजाम दी गयी हों। साथ ही मुलायम एक बार फिर सपा के सिरमौर की छवि को मजबूत करते हुए ऐसे महानायक के तौर पर सामने आ गये हैं जिनकी मर्जी के बिना संगठन व सरकार में कोई पत्ता भी नहीं खड़क सकता। अब ना तो अखिलेश पर जंगलराज व गुंडाराज को बढ़ावा देने का आरोप लगाया जा सकता है और ना ही सूबे की सरकार पर यादव परिवार के हावी होने की दुहाई दी जा सकती है। यानि एक झटके में ही संगठन व सरकार की छवि का ऐसा काया कल्प हो गया है जिसकी कल तक सपने में भी कोई कल्पना नहीं कर सकता था। यह सब किया है मुलायम के उस लुहारी दांव ने जिसकी कोई काट ही नहीं है। और इसके लिये नेताजी ने ना तो पाताल तोड़ा और ना ही आसमान नोंचा। उन्होंने किया सिर्फ यह कि अंसारी बंधुओं के संगठन में सम्मिलन का प्रस्ताव खारिज कर दिया, अमर सिंह को दिल के साथ ही दल में भी जगह देते हुए संसद के उच्च सदन में दाखिल करा दिया और बलराम सिंह यादव की महज पांच दिनों के भीतर ही सरकार में वापसी करा दी। इन तीन फैसलों ने पूरे परिवेश को पूरी तरह बदल कर रख दिया है। सपा में अमर की आमद के साथ ही आजम का अस्तित्व खुदमुख्तार से बदलकर पैरोकार का भी नहीं बचा। अंसारी की अगवानी कर रहे शिवपाल की संगठन व सरकार की सर्वेसर्वा की स्वीकार्यता समाप्त हो गयी जबकि इससे अखिलेश को मुखौटे की छवि से उबरकर सत्य व शुचिता को सर्वोपरि माननेवाले सशक्त नेतृत्वकर्ता के तौर पर उभरने में कामयाबी मिल गयी। साथ ही गुंडाराज को बढ़ावा देने का आरोप भी धुल गया और परिवार के दबाव में फैसले लेने की बात भी सिरे से समाप्त हो गयी। लगे हाथों बलराम की पद-प्रतिष्ठा बहाली से यह भी प्रमाणित हो गया कि संगठन व सरकार में किसी की मनमानी नहीं चल सकती, अखिलेश की भी नहीं। अलबत्ता होगा वही जो मंजूरे मुलायम होगा। इति सिद्धम। अब इस बदले माहौल में बदलना तो सबको पड़ेगा। तभी तो कल तक प्रशांत किशोर की मांग के बावजूद प्रियंका को यूपी में आगे करने की बात सुनना भी गवारा नहीं करनेवाले गांधी परिवार को अब अपनी तूणीर के इस आखिरी वाण को भी आजमाने के लिये मजबूर होना पड़ा है और भाजपा को छठी के दूध की तरह समान नागरिक संहिता व अयोध्या सरीखे उन भूले-बिसरे मसलों को भी आगे करने पर विवश होना पड़ा है जिसे हालिया दिनों तक राष्ट्रीय कार्यकारिणी में औपचारिकता के नाते भी याद नहीं किया जा रहा था। खैर, तीन फटाफट फैसलों के एक दांव से ही सिरदर्दी का सबब बने तमाम समीकरणों को सिरे से ध्वस्त कर देनेवाले मुलायम को यह तो स्वीकार करना ही होगा कि उन्होंने दुरूस्त काम करने में कुछ देरी अवश्य कर दी है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

बुधवार, 29 जून 2016

कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे.....

कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे.....   


‘कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे, मेरे ही लोग मुझे संगसार करने लगे, कोई इशारा दिलासा न कोई वादा मगर, जब आई शाम मेरा इंतजार करने लगे।’ कायदे से देखें तो वसीम बरेलवी की यह गजल इन दिनों स्वामी प्रसाद मौर्य की वास्तविक हालत को बयान करती हुई महसूस होती है। वाकई इनके बारे में कही-सुनी बहुत सी बातें अफवाहों व अटकलों की शक्ल में सियासी महफिलों में तैरती फिरती हैं। लेकिन ना तो इन्होंने अब तक खुलकर कुछ कहा है और ना ही इनके लिये किसी ने अपना दरवाजा बंद किया है। अलबत्ता भले ही इन्होंने किसी से कोई वादा ना किया हो लेकिन इनके इंतजार में सभी पलक पांवड़े बिछाए दिख रहे हैं। सतही तौर पर देखने से तो यही लगता है कि बसपा छोड़ने के बाद मौर्य के सामने विकल्पों का पूरा आसमान अपनी बांहें फैलाए खड़ा है। ये जिधर का भी रूख करें इनके लिये उधर ही तोरणद्वार व  वंदनवार सजाये जाने की पूरी तैयारी है। हर कोई लालायित है इन्हें गले लगाने के लिये। इनके इंतजार में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी पलकें बिछाये खड़े हैं और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी इनकी राहों में बांहें फैलाये हुए हैं। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो हर रास्ता इनके ही इंतजार में दिख रहा है। अब इन्हें ही तय करना है कि किधर जाना है। लिहाजा विकल्पों की बहुलता के कारण कायदे से तो इनका अगला कदम बेहद आसान होना चाहिये था। लेकिन गहराई से देखें तो पूरा माहौल उतना खुशनुमा कतई नहीं है जितना सतह पर दिख रहा है। बल्कि हकीकत तो यह है कि विकल्पों की बहुलता ने ही इनकी राहें बुरी तरह दुश्वार कर दी हैं। तभी तो इन्होंने सबसे पहला काम किया विकल्पों को सीमित करने का। इसी क्रम में सबसे पहले इन्होंने सपा की ओर जानेवाले रास्ते का दरवाजा खुद ही बंद कर लिया। इन्होंने सपा से अपनी दूरी दिखाने के लिये उसपर तीखा हमला बोल दिया। कहा कि सपा के विषय में उनकी राय नहीं बदली है। वह उसे गुण्डों और माफियाओं की पार्टी ही मानते हैं और मुलायम सिंह यादव के परिवारवाद के विरोधी वे पहले भी थे और आगे भी रहेंगे। शायद यह तल्खी दिखाना मौर्य की मजबूरी भी रही होगी क्योंकि जो व्यक्ति बसपा में कई वर्षों तक मायावती के बाद नम्बर दो की हैसियत में रहा हो, उसके लिए अचानक ही सपा में शामिल हो जाना अव्यावहारिक और असहजतापूर्ण हो सकता है। इस तथ्य को सपा नेता समझ नहीं सके अन्यथा वह जल्दबाजी न दिखाते। ना आजम खान आनन-फानन में मौर्य को सपा में शामिल होने का न्यौता देकर चट मंगनी और पट ब्याह कराने की कोशिश करते और ना ही मौर्य को गठजोड़ की संभावनाएं टटोलने से पहले ही अलगाव का एलान करने के लिये मजबूर होना पड़ता। खैर, जो हो गया वह बदल तो नहीं सकता। अलबत्ता उसके असर को तो भुगतना ही होगा। अब इसका नतीजा यह हुआ है कि फिलहाल सपा की ओर खुलनेवाला दरवाजा मौर्य के लिये बंद हो गया है और अपनी ओर से मौर्य ने ही उस पर सांकल चढ़ा दी है जबकि दरवाजे के दूसरी तरफ शिवपाल यादव टेक लगाकर खड़े हो गये हैं ताकि वह दरवाजा खुल ही ना सके। हालांकि इन्होंने अपनी ओर से भले ही सपा की ओर खुलनेवाले दरवाजे पर कुंडी चढ़ा दी हो लेकिन सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के साथ इनके पुराने रिश्तों की दुहाई देते हुए अखिलेश यादव ने आज भी इनके लिये रास्तों में फूल बरसाना जारी रखा हुआ है। लेकिन सवाल है कि विपक्ष के नेता पद से हटते ही सत्तापक्ष का दामन थाम लेने का मतदाताओं का जो असर पड़ेगा उससे इनकी विश्वसनीयता तो सवालों के घेरे में आ ही जाएगी। ऐसे में अब फिलहाल मौर्य के सामने अपनी अलग पार्टी बनाने के अलावा भाजपा में शामिल होने का ही विकल्प बचा है। बसपा में इनकी वापसी अब नामुमकिन है और कांग्रेस में तो फिलहाल शायद ही कोई महत्वाकांक्षी नेता शामिल होना पसंद करे। लेकिन मसला है कि अपनी अलग पार्टी बनाने के विकल्प में भी बहुत जोखिम है क्योंकि अगर जनता ने नकार दिया तो सियासत में अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। यानि सुरक्षित विकल्प तो इनके सामने अब भाजपा का ही है लेकिन मसला है कि पिछले चुनाव में बसपा से आये बाबूसिंह कुशवाहा को महज चैबीस घंटे के लिये संगठन में शामिल कराने का बेहद बुरा खामियाजा भुगत चुकी भाजपा में इस दफा मौर्य के मसले पर पहले आम सहमति तो बने। तभी तो भाजपा में दबी जुबान से मौर्य के बारे में बातें तो कई तरह की हो रही हैं लेकिन खुलकर कोई कुछ नहीं कह रहा। वैसे यदि जातीय समीकरण की बात करें तो भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद भी मौर्य समाज से ही आते हैं जिनकी छवि पूरी तरह बेदाग है। जबकि मायावती सरकार के कार्यकाल में स्वामी प्रसाद भी भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे थे। लिहाजा भाजपा भी इन्हें अपने संगठन में शामिल करने से पहले सौ-बार सोचेगी और उसके बाद ही कोई अंतिम फैसला लेगी। बहरहाल मौजूदा हालातों में मौर्य के बारे में अभी सिर्फ अटकलें ही लगायी जा सकती हैं। लेकिन सवाल है कि अगर अटकलों का दौर ही चलता रहा और ये समय रहते अपने लिये कोई ठौर-ठिकाना तलाशने में कामयाब नहीं हो सके तो चुनावी तपिश का मौसम इनके सियासी सफर की बड़ी रूकावट भी बन सकता है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’ @नवकांत ठाकुर #Navkant Thakur

बुधवार, 22 जून 2016

सियासी ‘साॅल्यूशन’ के लिये ‘कन्फ्यूजन’ की कूटनीति

सियासी ‘साॅल्यूशन’ के लिये ‘कन्फ्यूजन’ की कूटनीति  

वकालत के पेशे का सबसे प्रचलित पैंतरा है ‘कन्फ्यूजन’। बचाव पक्ष के वकील को जब लगने लगता है कि सबूतों व गवाहों के मकड़जाल से अपने मुवक्किल को बचा पाना मुश्किल हो सकता है और आरोपी को निर्दोष मानने के लिये जज को सहमत कर पाना संभव नहीं है तो वह अपने तर्कों व दलीलों के दम पर अदालत को कन्फ्यूज करने में ही अपनी पूरी ताकत झोंक देता है ताकि आरोपी को संदेह का लाभ दिलाया जा सके। वकीलों द्वारा अदालत में अपनाये जानेवाले इस पैंतरे का इन दिनों सियासत में भी काफी बोलबाला दिख रहा है। जिसे देखिये वही मतदाताओं को कन्फ्यूज यानि भ्रमित करने में जुटा हुआ है। खास तौर से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर तमाम पार्टियां इसी जुगत में दिख रही हैं कि विरोधी पक्ष के प्रति मतदाताओं के बीच भ्रम व संशय का माहौल बना दिया जाये। तभी तो भाजपा यह प्रचारित कर रही है कि सपा व बसपा के बीच अंदरूनी सांठगांठ है जबकि बसपा का कहना है कि सपा और भाजपा आपस में मिले हुए हैं। उधर सपा के मुताबिक चुंकि बसपा और भाजपा के बीच पहले भी गठजोड़ हो चुका है लिहाजा आगे चलकर भी वे दोनों एकसाथ आने में संकोच नहीं करेंगे जबकि कांग्रेस अभी से मानकर चल रही है कि उसे सूबे की सियासत से बाहर रखने के लिये सपा, भाजपा और बसपा के बीच अंदरखाने परस्पर सहमति बनी हुई है और इसी के नतीजे में ना तो सपा उसके साथ गठजोड़ करने के लिये सहमत हो रही है और ना ही बसपा। यानि सभी दलों का जोर यही साबित करने पर है कि कौन किसके साथ मिला हुआ है और किसकी किसके साथ अंदरूनी सांठगांठ है। जाहिर है कि यह चुनावी पैंतरा मतदाताओं को भ्रमित करने के लिये ही अपनाया जा रहा है जिसमें वास्तविक सच्चाई भले ना हो लेकिन उसका काल्पनिक भौकाल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। इन दिनों यूपी की तमाम सुर्खियां मतदाताओं को भ्रमित करनेवाली ही दिख रही हैं। मसलन कैराना के मामले को ही लें तो भाजपा के मुताबिक वहां की हालत ठीक वैसी ही है जैसी नब्बे के दशक में कश्मीर की थी। जबकि सूबे में सत्तारूढ़ सपा का कहना है कि कैराना के मामले को सियासी लाभ के लिये बेवजह ही बखेड़े का सबब बनाया जा रहा है जबकि हकीकत में वहां स्थानीय स्तर पर कोई समस्या ही नहीं है। सपा के मुताबिक वहां पूरी तरह रामराज का माहौल है जबकि भाजपा उसे जंगलराज का प्रतीक साबित करने में जुटी हुई है। अब किसकी बात में कितना दूध और किसकी दलीलों में कितना पानी मिला हुआ है यह पता करने के चक्कर में सूबे के उन मतदाताओं का मिजाज घनचक्कर होना तो लाजिमी ही है जिन्होंने कल तक कैराना का नाम भी नहीं सुना था। खैर मतदाताओं का मिजाज तो इस बात को लेकर उखड़ना भी स्वाभाविक है कि कहने को तो सपा और भाजपा दोनों ने यही प्रण किया हुआ है कि इस बार का चुनावी मुद्दा विकास व सुशासन पर ही केन्द्रित रखा जाएगा लेकिन दोनों ही ओर से सांप्रदायिक व जातिगत ध्रुवीकरण की कोशिशों में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। कभी एक तरफ के कुछ नेता ‘रामलला हम आएंगे, दिसंबर में मंदिर बनाएंगे’ का नारा बुलंद कर रहे हैं तो दूसरी तरफ घोषित अपराधियों को संगठन में शामिल करके अल्पसंख्यक वोटों की एकजुटता सुनिश्चित करने की कोशिश की जा रही है। चुनाव के बाद भाजपा और बसपा के एकसाथ आने की संभावना जताकर अल्पसंख्यकों को डराने की कूटनीति आजमायी जा रही है तो इसके जवाब में अपना वजूद बचाने के लिये बहुसंख्यकों को एकजुट होने का महत्व समझाया जा रहा है। अब इस बेमानी बहस से गूंज रहे चुनावी नक्कारखाने में विकास व सुशासन की तूती कहां गुम होती जा रही है यह किसी को पता नहीं चल पा रहा है। ऐसे में चुनावी मुद्दों व वायदों के आधार पर पार्टियों को परखनेवाले मतदताओं का भ्रमित होना लाजिमी ही है। इसी प्रकार जब सूबे की सरकार कह रही है कि पिछले साल के बाढ़-सुखाड़ का पैसा उसे अब तक केन्द्र से नहीं मिला है जबकि प्रधानमंत्री सार्वजनिक सभा में आरोप लगा रहे हैं कि केन्द्र से मिलनेवाली सालाना एक लाख करोड़ की रकम प्रदेश सरकार की तिकड़मी योजनाओं में उलझकर फाइलों में ही गायब हो जा रही है तो ऐसे में मतदाताओं का भ्रमित होना तो स्वाभाविक ही है। यहां तक कि मतदाताओं को कन्फ्यूज करने की कूटनीति अपनाने में वह कांग्रेस भी कोई कसर नहीं छोड़ रही है जिसके लिये इस चुनाव को अस्तित्व की लड़ाई के तौर पर देखा जा रहा है। तभी तो कभी उसके नेता यह शगूफा छोड़ते हैं कि सूबे में राहुल के बजाय प्रियंका को आगे रखा जाएगा तो कभी यह सुर्रा छोड़ दिया जाता है कि वरूण गांधी को कांग्रेस में शामिल कराके उनकी अगुवाई में चुनाव लड़ा जा सकता है। अब इस तरह की ऊटपटांग बातें करके मतदाताओं को भ्रमित करने की कोशिशों में जुटे राजनीतिक दलों को कौन समझाए की इन हवाई बातों से अखबारों की सुर्खियां तो बटोरी जा सकती है मगर इससे वोट मिलना मुश्किल ही है। वैसे भी मतदाता मासूम भले ही हो वह मूर्ख कतई नहीं है वर्ना देश में जड़े जमा चुकी त्रिशंकु सदन की अवधारणा को अफसानों में ही अपना अस्तित्व तलाशने के विवश नहीं होना पड़ता। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  @ नवकांत ठाकुर