सोमवार, 19 दिसंबर 2016

‘....मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना’

‘....मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना’


उल्टे-सीधे वायदे करके सियासी जमात के लोग तो हमेशा से ही आम लोगों को उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं। लेकिन शायद यह पहला मौका है जब जनता को अपने मायावी सम्मोहक जाल में उलझानेवाले इन दिनों खुद ही उलझन में हैं। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा कि करें तो क्या करें। किस दिशा में आगे बढ़ें। धारा के साथ बहें या उसके विपरीत दिशा में तैरने की कोशिश करें। किसी को कुछ पता नहीं चल रहा। सभी पूरी ताकत से हाथ-पांव मारते हुए बहे जा रहे हैं, चले जा रहे हैं। कभी धारा के साथ तो कभी धारा के विपरीत। कभी इस दिशा तो कभी उस दिशा। इस उलझन में इनकी बुद्धि इस कदर भ्रमित हो गयी है कि जापान जाने के लिये चीन की राह पकड़ ले रहे हैं। हालांकि मुल्क के सियासी रहनुमाओं की इस दिशाहीनता का सीधा खामियाजा देश के जन सामान्य को अवश्य भुगतना पड़ रहा है लेकिन सिर्फ जनता ही है जिसके चेहरे पर सही दिशा में आगे बढ़ने की खुशी स्पष्ट दिख रही है। वर्ना बाकी सभी पर गफलत ही हावी है। मतिभ्रम की स्थिति में सिर्फ सत्तापक्ष और विपक्ष ही नहीं बल्कि न्यायपालिका और कार्यपालिका भी दिख रही है। तभी तो जनहित याचिका दायर करने का रिकार्ड कायम करने की दिशा में आगे बढ़ रहे अश्विनी उपाध्याय से न्यायपालिका तंज कसते हुए पूछ रही है कि क्या उन्होंने इस काम को ही अपना पेशा बना लिया है? भाई, वकील का तो काम ही है याचिका दाखिल करके इंसाफ की मांग करना। इससे क्या फर्क पड़ता है कि वह क्यों और किसके लिये याचिका दाखिल कर रहा है। लेकिन अदालत को चुभ गयी तो चुभ गयी। अब अदालती टिप्पणी की आलोचना तो की नहीं जा सकती। लेकिन इससे यह तो समझा ही जा सकता है कि अदालतें किस मानसिक अवस्था से गुजर रही हैं। आलम यह है कि सरकार को सिर्फ सालाना बजट बनाने की ही स्वतंत्रता मिली हुई है वर्ना बाकी हर काम में उसे अदालत का अड़ंगा झेलना पड़ रहा है और उसे अदालती सम्मति से ही कोई भी काम करने की छूट हासिल है। लेकिन अब जबकि नोटबंदी के मसले पर भी अदालत ने सरकार का हाथ-पांव बांधने की दिशा में कदम आगे बढ़ा दिया है तब किसी को भी ऐसा लगना स्वाभाविक ही है कि अब शायद देश की अर्थव्यवस्था का मनमुताबिक संचालन करने की स्वतंत्रता भी सरकार के पास ज्यादा दिनों तक ना बचे। ऐसा ही हाल बैंकों का है जिसे सरकार ने हर बचतखाता धारक को सप्ताह में 24 हजार रूपया निकासी की सुविधा देने का निर्देश दिया हुआ है। लेकिन बैंक में कहां, किसको और कितनी रकम मिल पा रही है इससे सभी वाकिफ हैं। नोटबंदी के बाद बैंककर्मियों ने शायद खुद को खुदा के समकक्ष समझ लिया था वर्ना आज यह नौबत नहीं आती कि सत्ताधारी दल को उनके कामकाज के प्रति सार्वजनिक तौर पर अफसोस का इजहार करने के लिये मजबूर होना पड़े। निश्चित तौर पर इसे व्यवस्था का मतिभ्रम ही माना जाएगा जिसके चक्कर में पड़कर उसने आम लोगों को घनचक्कर बनाकर अपना चक्कर चलाने की गुस्ताखी की। यही हालत विपक्ष की भी दिख रही है जिसे ना आगे की राह सूझ रही है और ना ही पीछे का दरवाजा दिख रहा है। विपक्ष के मतिभ्रम का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस राज्यसभा में उसे बहुमत हासिल है वहां उसने नोटबंदी के मसले पर साधारण नियम के तहत चर्चा स्वीकार कर ली लेकिन जिस लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद पर दावा करने लायक आंकड़ा भी उसके पास उपलब्ध नहीं हैं वहां उसने मतदान की व्यवस्थावाले नियम के तहत बहस कराने की ऐसी जिद पकड़ी कि संसद का पूरा शीतसत्र हंगामें की भेंट चढ़ गया। कांग्रेस अंत तक यह तय नहीं कर पायी कि उसे संसद में क्यों और कैसी भूमिका अख्तियार करनी है। नतीजन सत्र गुजर जाने के बाद भी कोई कांग्रेसी नेता दो-टूक शब्दों में यह बताने की स्थिति में नहीं दिख रहा है कि शीतसत्र का अंजाम लाभदायक रहा अथवा नुकसानदायक। सरकार भी मतिभ्रम की ऐसी ही स्थिति से दो-चार होती दिख रही है। इसने एक झटके में ही नोटबंदी का फैसला तो ले लिया लेकिन इसे लागू करने की ठोस राह पर आगे बढ़ने में वह नाकाम रही। तभी तो दैनिक आधार पर नियमों का निर्धारण भी हुआ और निस्तारण भी। कोई एक दिशा तय ही नहीं हुई है। तभी तो मान्यता सूची में शामिल देश के सभी 1761 राजनीतिक दलों को अपने खाते में पुराने नोट जमा कराने की छूट दे दी गयी है। जाहिर है कि इस छूट का लाभ सभी सात राष्ट्रीय, 48 क्षेत्रीय और 1706 जाने-अंजाने दलों को मिलनेवाला है। वह भी तब जबकि राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा अंजाम दी जा रही कालेधन को सफेद करने की कारस्तानी का स्टिंग आॅपरेशन भी सामने आ चुका है। मतिभ्रम का आलम यह है कि एक तरफ नकदी के संकट ने बैंकिंग व्यवस्था की साख को सवालों में ला दिया है और दूसरी तरफ छोटी बचत योजनाओं पर नाम मात्र ब्याज की परंपरा को आगे बढ़ाया जा रहा है। खैर, ऐसी तमाम घटनाओं को समग्रता में देखने से इतना तो पता चल ही रहा है कि सामान्य परिस्थितियों में तो सिर्फ आवाम ही दिग्भ्रमित होती है लेकिन वक्त की चुनौतियां निजाम को भी दिग्भ्रमित करने की पूरी क्षमता रखती है। ‘जैसी नजर वैसा नजरिया।’  
@ नवकांत ठाकुर #NavkantThakur  

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