शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

'और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा '

और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा 


‘और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।’ लेकिन यह बात उस आशिक को कैसे समझायी जाये जिसने इश्क के जुनून की आग में जिस्म ही नहीं बल्कि रूह भी झोंक देने का इरादा कर लिया हो। जरूरी नहीं है कि इश्क सिर्फ किसी हाड़-मांस की महबूबा से ही हो। जुनूनी चाहत किसी और लक्ष्य को हासिल करने की भी हो सकती है। मिसाल के तौर पर इन दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से देश की अर्थव्यवस्था को साफ-सुथरा और सुदृढ़ बनाने के लिये जुनूनी तरीके से अपने जिस्मो-जां सहित रूह तक को झोंक दिया वह बेशक महबूब वतन से उनके बेइंतहा मोहब्बत को ही दर्शाता है। लेकिन इश्क की राह पर आगे बढ़ने के क्रम में जिस तरह से बाकी मसलों, तथ्यों व जरूरतों की अनदेखी की गई है उसे कैसे सही कहा जा सकता है। इन राहों पर बदइंतजामी की बदनामियों से जुड़ी कहानियां अगर लगातार जोर पकड़ती दिख रही हैं तो इसकी सबसे बड़ी वजह वह जुनूनी जिद ही है जिसको पूरा करने के जोश में अगर होश की डोर को भी पकड़े रहने की पहल की गयी होती तो आज तस्वीर दूसरी होती। लेकिन जिस तरह से पूरा देश अव्यवस्था व अस्त-व्यस्तता के दौर से गुजर रहा है उसकी बड़ी जिम्मेवारी तो मोदी साहब की बनती है। वे कैसे इस जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ सकते हैं कि उन्होंने परिणाम की परवाह किये बिना ही निश्चित को छोड़कर अनिश्चित की ओर कदम आगे बढ़ाने की कोशिश की है। मसलन ऐसे देश के लिये कैशलेस व्यवस्था को लागू करने का सपना देखना कैसे सही माना जा सकता है जहां की 26 फीसदी आबादी के लिये आज भी काला अक्षर भैंस बराबर ही है। इसका मतलब तो यही हुआ कि एक-चैथाई से भी अधिक तादादवाली निरक्षर आबादी के हितों की उन्हें कोई परवाह नहीं है। इसके अलावा इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिये था कि जिन 76 फीसदी लोगों तक शिक्षा का उजाला पहुंच चुका है उनमें कितनों की आर्थिक हैसियत ऐसी है कि वे हर महीने अपने मोबाइल में कम से कम 150 रूपये का डाटा पैक डलवा सकते हैं। क्योंकि इसके बिना तो ई-वाॅलेट की परिकल्पना साकार हो ही नहीं सकती। आज भी देश के अधिकांश इलाकों में 8 से 10 घंटे की बिजली कटौती होना बेहद ही सामान्य बात है। ऐसे में अर्थव्यवस्था को इंटरनेट के प्लेटफाॅर्म से संचालित करने में आम लोगों को ही नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है इसकी शायद उन लोगों ने कल्पना भी नहीं की होगी जिन्होंने देश को कैशलेस व्यवस्था की ओर ले जाने की सलाह दी है। खैर, कैशलेस व्यवस्था का विचार तो अभी सैद्धांतिक तौर पर ही अपनाया गया है और माना जा सकता है कि नकदी की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करने में पेश आ रही परेशानियों के तात्कालिक हल के तौर पर इस विचार को आगे बढ़ाया जा रहा है जिसका दूरगामी परिणाम बेहद ही लाभदायक साबित हो सकता है। लेकिन मसला है कि आखिर ऐसी मजबूरी और लाचारी की स्थिति पैदा ही क्यों होने दी गयी। आखिर इसकी जिम्मेवारी कौन लेगा? बिना किसी पूर्व तैयारी या इंतजाम के ही देश की अर्थव्यवस्था से 86 फीसदी नकदी को अचानक ही चलन से बाहर कर देने का फैसला भले ही कालाधन, भ्रष्टाचार और नकली नोट की समस्या से एक साथ ही निजात हासिल करने के लिये लिया गया हो लेकिन इस फैसले को लागू करने की जो कीमत देश के आम लोगों को चुकानी पड़ रही है वह वाकई बहुत बड़ी है। सच तो यह है कि बैंकिंग व्यवस्था का विकास और संसाधनों का विस्तार किये बिना ही इतना बड़ा कदम उठाने की जल्दबाजी के कारण ही आज लोगों को इतनी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। भला यह भी कोई बात हुई। खाते में पैसा है लेकिन निकाल नहीं सकते। अपना ही पैसा किसी और के खाते में डाल नहीं सकते। अपनी खून-पसीने की कमाई को मनमुताबिक खर्च नहीं कर सकते। यह तो इंतहा है अव्यवस्था की। वह भी तब जबकि नोटबंदी का ऐलान हुए एक महीना होने को आया। उस पर कोढ़ में खाज यह कि बाजार ने सरकार की मार का बदला उपभोक्ताओं से लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। कभी नमक की किल्लत बताकर डेढ़ सौ रूपये की दर से बेचा जाता है तो कभी उत्पादन में कमी की दलील देकर सामान की कीमतें बढ़ा-चढ़ाकर वसूली जाती हैं। खास तौर से खाद्य पदार्थों की कीमतों में जिस कदर लगातार तेजी का माहौल है वह वाकई हैरान-परेशान करनेवाला है। आटा-चीनी व चावल से लेकर तेल-बेसन और अदरक-लहसुन तक की खुदरा कीमतों में पिछले महज एक माह में 25 से 40 फीसदी तक का इजाफा दर्ज किया जा चुका है। यानि एक तरफ लोगों को बैंक की लंबी कतारों में लगने के बावजूद नकदी नहीं मिल पा रही और दूसरी ओर बाजार के बिचैलिये उसका खून चूसने पर आमादा हैं। लेकिन निजाम नोटबंदी से जुड़ी नीतियां बनाने में मस्त है, आवाम चैतरफा मार झेलते हुए पस्त है और देश की पूरी आर्थिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त है। लिहाजा किसी को इतनी फुर्सत ही नहीं है कि वह बाकी मसलों की ओर झांकने की भी जहमत उठाये। अब कौन, किसको, कैसे और क्यों बताये कि और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा। ‘जैसी नजर, वैसा नजरिया।’ @ नवकांत ठाकुर # Navkant Thakur

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